बुधवार, 23 अप्रैल 2008

21 वीं सदी में नया समाजवाद

जबलपुर में दिनों प्रो. रवि सिन्हा ने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थानीय इकाई के तत्वावधान में आयोजित 21 वीं सदी में नया समाजवाद विषय पर व्याख्यान दिया। प्रो. सिन्हा ने अमेरिका से फिजिक्स विषय में डॉक्टरेट की है और काफी वर्षों तक उन्होंने वहां अध्यापन कार्य भी किया है। उनकी ख्याति विज्ञान के विभिन्न सिद्धांतों और तथ्यों को व्याख्यानों के माध्यम से सरलता से समझाने के लिए रही है। रवि सिन्हा कई वर्षों से समाजवाद और उसके प्रभावों का अध्ययन कर रहे हैं। उनकी समाजवाद विषयक व्याख्यान श्रंखला भी बहुत प्रसिद्ध हुई है। इसी श्रंखला के तहत् वे जबलपुर आए।
रवि सिन्हा के वक्तव्य में समाजवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए इस सदी में समाजवाद के संदर्भ और भविष्य को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि कार्ल मार्क्स को आज फिर से पढ़ने की जरुरत है और उन्हें 21 वीं सदी के अनुकूल ही पढ़ना चाहिए। समाज में जो मनुष्य उपलब्ध है, उसके आधार पर ही समाजवाद का निर्माण किया जा सकता है। रवि सिन्हा ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया कि 20 वीं सदी का समाजवाद भविष्य के समाजवाद का मॉडल नहीं हो सकता।
रवि सिन्हा ने कहा कि समाजवाद का विषय पुराना है, लेकिन संदर्भ नया व कठिन है। उन्होंने कहा कि दलों और नेताओं में विचारों की अस्पष्टता के कारण समाजवाद विघटित हुआ है। इसके लिए उन्होंने आत्मगत शक्तियों को जिम्मेदार ठहराया। प्रो. सिन्हा ने कहा कि क्रांतियां-राजशाही, सामंतवाद और औपनिवेशवाद में हुईं हैं। क्रांति होने के निश्चित कारण थे। जहां क्रांतियां हुईं, वहां समाजवाद बनाना मुश्किल था और जहां नहीं हुईं वहां समाजवाद बनाना आसान था। उन्होंने कहा कि 20 वीं सदी का समाजवाद पिछड़े समाजों में हुआ। इसे प्रो. सिन्हा ने आपातकालीन समाजवाद बताया। उन्होंने कहा कि पूंजीवाद ही अंतिम व्यवस्था नहीं है। उन्होंने आशा जताई कि सफलताओं और असफलताओं की सीख से नया मॉडल विकसित होगा। रवि सिन्हा ने अलबत्ता नए मॉडल की अवधारणा या स्वरुप का कोई खाका नहीं खींचा।
रवि सिन्हा के व्याख्यान के समय जबलपुर के कई बुद्धिजीवी, सांस्कृतिककर्मी, विद्यार्थी और एक्टिविस्ट उपस्थित थे। इनमें से कई व्याख्यान के पूर्व इस आशंका से ग्रस्त थे कि रवि सिन्हा अमेरिका में कई सालों से रह रहे हैं, इसलिए वे समाजवाद और साम्यवाद के खिलाफ बोलेंगे। व्याख्यान के पश्चात् उनकी आशंकाएं निर्मूल रहीं। वैसे कुछ लोग उनके विचारों से सहमत तो, कुछ असहमत दिखे। विद्यार्थी और युवाओं के लिए उनका व्याख्यान सुनना एक अनुभव की तरह रहा, क्योंकि ऐसे लोगों के लिए समाजवाद गुजरे जमाने की बात की तरह था। रवि सिन्हा के उदगार के पश्चात् निश्चित ही इस वर्ग को यह विश्वास अवश्य हुआ है कि भू-मंडलीकरण में भी समाजवाद प्रासंगिक रहेगा।

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

मौत का कुआं न बने स्वीमिंग पूल


जबलपुर में बिजली बोर्ड के इंजीनियर अभिषेक जैन और उनकी पत्नी श्रीमती रीना जैन को 2 अप्रैल 2007 का दिन भुलाए नहीं भूलता है। इस दिन उनके लाड़ले आशय की मध्यप्रदेश राज्य विद्युत मण्डल के स्वीमिंग पूल में डूबने से मृत्यु हो गई थी। इस वर्ष 2 अप्रैल को आशय की स्मृति में अभिषेक और रीना जैन ने स्थानीय समाचार पत्रों में एक जनहित में विज्ञापन जारी किया। इस विज्ञापन का उद्देश्य उन अभिभावकों को सतर्क करना है, जिनके बच्चे स्वीमिंग पूल में तैरने जाते हैं। जैन दंपति ने विज्ञापन में अभिभावकों को आगाह किया कि वे बच्चों को स्वीमिंग पूल में जाने से पूर्व स्पोटर्स अथॉरिटी आफ इंडिया से प्रशिक्षित तैराकी कोच, प्रशिक्षित मेडिकल अटैण्डेंट एवं प्राथमिक चिकित्सा सुविधा, सुरक्षा व्यवस्थाएं जैसे लाइफबॉय, लाइफ जैकेट, श्वसन उपकरण, आक्सीजन सिलेंडर, जीवन रक्षक निर्देश चार्ट तथा उपयुक्त संचार एवं प्रकाश व्यवस्था जैसी तथ्यों की पुष्टि आवश्यक रुप से कर लें।
जैन दंपति कहती है कि सुरक्षा के अभाव में सुविधाएं भी जानलेवा बन जाती हैं। दिल्ली पुलिस हर वर्ष स्वीमिंग पूलों में अपनाई जाने वाली सुरक्षा को ले कर पोस्टर अभियान चलाती है। दिल्ली पुलिस की तर्ज पर जबलपुर में भी इंजीनियर अभिषेक जैन और उनके मित्र पोस्टर अभियान चला रहे हैं। स्वीमिंग पूलों और स्कूलों में लगाए गए पोस्टरों में स्वीमिंग पूल में अपनाई जाने वाली सुरक्षा की जानकारी दी गई है।
अभिषेक-रीना जैन कहते हैं- "आशय का विछोह हमारे लिए आजीवन त्रासदी है। गत एक वर्ष से हमने पुलिस, प्रशासन एवं जन प्रतिनिधियों से स्वीमिंग पूल में सुरक्षा मानकों को लागू करने की गुहार की है। हम न तो किसी के खिलाफ बदले की कार्रवाई चाहते हैं, न कोई मुआवजा। जो हमने खोया है, उसकी कोई क्षतिपूर्ति संभव नहीं है। हम चाहते हैं कि ऐसी त्रासदी किसी और माता-पिता को न भोगनी पड़े। हमारा सभी से अनुरोध है कि स्वीमिंग पूल बच्चों के लिए मौत का कुआं न बने, यह सुनिश्चित करने का प्रयास करें।"
जैन दंपति के जन-जागरण के पश्चात् भी जबलपुर के स्वीमिंग पूलों में सुरक्षा के कोई पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए और न ही निर्धारित मानक के अनुसार व्यवस्था की गई। स्वीमिंग पूलों में प्रशिक्षित तैराकी कोच, लाइफ जैकेट, रिसरेक्टर पम्प, आक्सीजन सिलेंडर, लाइफबॉय आदि का अभाव है। कोई यह तक देखने वाला नहीं है कि पानी में खतरनाक क्लोरिन की मात्रा कितनी है। सब कुछ भगवान भरोसे चल रहा है।
पानी में क्लोरिन खतरनाक- स्वीमिंग पूल के पानी में क्लोरिन अधिक होने पर आंखों में जलन, फेफड़ों में सूजन, विशेष परिस्थितियों में श्वसन तंत्र में रुकावट और अर्द्धमूर्छा की स्थिति बनती है। महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने वर्ष 2006 में मुंबई के 32 स्वीमिंग पूल के सेंपल लिए थे। उनमें से 27 में क्लोरिन की मात्रा निर्धारित मापदंड से ज्यादा पाई गई। कुछ प्रकरणों में यह मात्रा 8 से 10 गुना तक ज्यादा पाई गई। चौंकाने वाली बात यह है कि ब्यूरो आफ इंडियन स्टैंडर्ड ने स्वीमिंग पूल के पानी के मानक स्तर के लिए 1993 में आईएस-3328 कोड जारी किया। 90 प्रतिशत से अधिक स्वीमिंग पूल संचालकों को इस कोड की जानकारी नहीं है। इसी तरह बहुत से लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है कि स्वीमिंग पूल में कम से कम प्रति व्यक्ति 20 वर्ग फुट पूल एरिया होना चाहिए। स्वीमिंग पूल में लाइटिंग, टेलीफोन, हॉस्पिटल और एम्बुलेंस के फोन नंबर होना चाहिए।
लायसेंस की अनिवार्यता जरुरी- मध्यप्रदेश में अभी तक स्वीमिंग पूल चलाने के लिए लायसेंस की अनिवार्यता लागू नहीं की गई है। दिल्ली पुलिस ने वर्ष 2004 से स्वीमिंग पूल संचालकों के लिए लायसेंस अनिवार्य कर दिया है। लायसेंस के लिए महानगर पालिका को स्पोटर्स अथॉरिटी के द्वारा प्रमाणित तैराकी प्रशिक्षक, पानी की गुणवत्ता रिपोर्ट एवं सुरक्षा उपकरणों की उपलब्धता का प्रमाण पत्र देना पड़ता है। लायसेंस अनिवार्य होने के बाद दुर्घटना में काफी कमी आई है। इसी तरह जयपुर में भी स्वीमिंग पूल में के लिए लायसेंस जरुरी किया गया है। स्वीमिंग पूल निर्माण के लिए मॉडल बिल्डिंग कोड में मानक निर्धारित किए गए हैं। इसके बावजूद अधिकांश नगर निगम एवं राज्य सरकार इसकी अनदेखी कर रही हैं।

रविवार, 6 अप्रैल 2008

ज्ञानरंजन कहानी क्यों नहीं लिखते ?


कोलकाता में साहित्यिक पत्रिका वागर्थ ने नव कथाकारों के लिए एक कहानी प्रतियोगिता का आयोजन किया। प्रतियोगिता के विजेताओं को पहल के संपादक ज्ञानरंजन ने पिछले दिनों कोलकाता में पुरस्कृत किया। उन्होंने इस पुरस्कार वितरण समारोह में नौ पृष्ठ का वक्तव्य दिया। ज्ञानरंजन के वक्तव्य हर समय बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। कोलकाता में भी उनका बोला गया एक-एक शब्द अपने आप में अर्थपूर्ण था। ज्ञानरंजन ने वक्तव्य में स्पष्ट कर दिया कि बाजार और कहानी की अस्मिता या उसके साहित्यपन की अनिवार्यता से जुड़ी बातें ही उनका मुख्य उद्देश्य हैं। उन्होंने कहा कि हमारे भीतर एक अखबार और एक रचनाकार साथ-साथ बना रहता है। इसके लिए रचनाकारों के स्नायुतंत्र में जबरदस्त हलचल और बेचैनी होती रहना जरुरी है।
ज्ञानरंजन ने नए कथाकारों से आग्रह किया कि सबसे जटिल वास्तविकताओं वाले वर्तमान में हम एक अंश तक कहानी के यथार्थ यानी उसके चतुर्दिक यथार्थ के चक्रव्यूह में प्रवेश कर सकें तो यह उनका एक मूल्यवान कदम होगा एवं बड़ी सफलता होगी। यह तभी संभव है, जब हमारे अपनी विधा को केवल डिफेंड करने की शैली न अपनाई जाए। इससे पाठकों, साहित्य रसिकों, कहानीकारों और कहानी के आंदोलनकर्ताओं की समृद्धि हो सकेगी। लेकिन इस सच्चाई के बावजूद कि विधाओं में उपद्रव और विखंडन हो रहा है ऐसा हो नहीं पाता,क्योंकि अखबारों ने समकालीन राजनीति के तहलकों, अत्यधिक चमकती तकनीक ने हमें इतना डांवाडोल कर दिया है कि हम कहानी को अपने नए यथार्थ से जोड़ नहीं पा रहे हैं। यह वेल्डिंग या नवनिर्माण आसान नहीं है। लगभग 50 साल की जबरदस्त बाजार की धधक, धुएं और कोहराम के बाद महान कथाकार सारामागो ने 'केव' उपन्यास लिख कर बाजार की ताकत, उसकी समझ और भूमंडल के षड़यंत्र पर गहरा आक्रमण किया है। अब इसकी भरपूर चर्चा है, क्योंकि सृजनात्मक साहित्य की दुनिया में बाजार की फैन्टेसी का पेंच प्रभावी तौर पर सारागामो ने तोड़ दिया है।
ज्ञानरंजन ने कहा कि इस प्रकार नए जमाने के रचनाकारों के लिए यथार्थ और रचना प्रक्रिया का प्रदर्शन किया है। कहानी का अर्थ भारत जैसे विकासशील, अर्ध विकसित अथवा पिछड़े देशों के समाजों में अभी मरा नहीं है, बल्कि स्पंदित और जीवित है। इसको मूर्छित होने से बचाने का काम नए कहानीकारों का है। तभी उनकी विधा बचेगी अथवा नहीं। एक लेखक को मानना होगा कि उसका काम केवल लिख डालना नहीं है। उन्हें अपनी मेधा को एक दार्शनिक या वैज्ञानिक या चिंतक के साथ बहुआयामी बनाना है। भारतीय भाषाओं में अवशिष्ट रुप में कहानी अभी भी वह कर दिखाती है, जो उपन्यास नहीं दिखा पा रहा है। लेकिन उपन्यास का जबड़ा बहुत बड़ा है, जैसा पश्चिम ने प्रमाणित कर दिया है। ज्ञानरंजन नए कहानीकारों से कहते हैं कि कहानी लिखे ही लिखे मत जाओ, उसका बंकर भी बनाओ।
ज्ञानरंजन नव कथाकारों से कहते हैं- "बाजार एक बतकही नहीं है, वह विशाल जबड़ा है। इस कड़वाहट को पी लेने से लाभ ही है कि शायद हमारे कहानीकार उतने कलावंत नहीं है, उतने सचेत नहीं है, जितना अनिवार्य है। कहानी हमें हंसते-हंसते, तृप्ति देते, आस्वाद से छलते हुए इतना चिंताग्रस्त कर देती है कि क्या कहा जाए। आखिर हम एकत्र होते ही किस लिए हैं। यह हंसी-खुशी कितनी मारक है, कितनी हिंसक है, अर्थवान है। कहानी में यह संभव है।"
दुनिया में कहानी की स्थिति के संदर्भ में ज्ञानरंजन कहते हैं- "तथाकथित शिष्ट दुनिया में या जहां पूंजी की नोक पर सभ्यताएं तांडव कर रही हैं, वहां उनकी भाषाओं में कहानी मर चुकी है। अफ्रीकी देशों, दक्षिणी अमेरिका, कुछ छोटे नामालूम से देशों कहीं-कहीं एशिया और भारत में (पाकिस्तान भी) कहानी का अस्तित्व बना हुआ है। और वह बाजार से टकरा रही है, बाजार में प्रवेश कर रही है और बाजार द्वारा फेंकी जा रही है। बाजार वह जगह है जहां स्वागत किया जाता है, अंगीकृत किया जाता है, सजाया जाता है, बेचा जाता है और फालतू भी कर दिया जाता है।"
ज्ञानरंजन कहते हैं कि उन्हें कहानी के सौंदर्यशास्त्र की बनिस्बत कहानी के बाहरी समाज में दो चीजें अधिक सता रही है। एक तो कहानी का साहित्य भी बने रहना और दूसरा कहानी का बाजार में स्पेस। वे कहते हैं कि समकालीनता और बाजार का गहरा रिश्ता है। दुनिया की किसी भी भाषा की तुलना में हिन्दी में समकालीनता का जोर सबसे अधिक है साहित्य में। परम्परा और भविष्य की बात तो हम कभी-कभी कर लेते हैं। कहानी की रचना में कहानी के पठन पाठन में में हम यूज एण्ड थ्रो के काफी नजदीक रेंग रहे हैं। अब सवाल यह है कि हमारे कहानीकार समझदारी और अपनी सर्वोत्तम सृजनात्मक के साथ इन सबसे मुठभेड़ नहीं कर सकते तो न तो वे समकालीन ही रह सकते हैं और न चर्चित और लोकप्रिय। ऐसा न कर सकने के कारण उनकी कहानी की अवधि भी 6 महीने रह जाएगी। बाजार उनसे डिमांड करेगा नव्यतम की और परिवर्तित ढांचे की। और क्या आप इस तरह लगातार दौड़ते रह सकते हैं। आपका मिजाज, आपकी रचना, आपका तापमान, आपकी बुनावट इस तरह की नहीं है। फिर क्यों उसकी तरफ आकर्षित होते हैं। जो बाजार हमारा विरोधी है, हमारा साथ नहीं देता, हमारे लिए जहां जगह नहीं है, उसका विकल्प खोजने का काम भी हमारी सर्वोच्च चिंता है।
ज्ञानरंजन बाजार की तरफ रचनाकारों के आकर्षण और विवशता के संबंध में कहते हैं कि इसका प्रमुख कारण रचनाकारों को पिछड़ने का डर लगता है। तटस्थ और क्रूर, स्तृतिविहीन समय में समकालीनता बचाती है और हमें लगातार उपस्थित रखती है। यद्यपि समकालीनता के लिए बाजारु विकल्प कम हैं। कुछ साहित्यिक परिशिष्ट अखबारों के, एक-दो साप्ताहिक, जिसमें साहित्यिक अभिव्यक्ति लगभग हाशिए पर है। भारत की किसी भी भाषा की तुलना में समकालीनता हिन्दी में सबसे अधिक है। समकालीनता का एक प्रतिफल और हो गया है कि हिन्दी कहानी भी अब गीत की तरह मंच पर है। मंच माने कहानी के गुटीय अड्डे। अब हिन्दी समाज में 3-4 कहानी की पत्रिकाएं हैं बस। उसमें भी आधी कहानी है, आधा विमर्श। विमर्श भी आप देखें की स्त्री विमर्श, मीडिया विमर्श और दलित विमर्श। समकालीन बाजार में ये टाप थ्री विमर्श हैं, बल्कि केन्द्रीय विमर्श बन गए हैं। साहित्य में राजनीति की कार्बन कापी हो रही है। अभी-अभी कविता के भविष्य पर भी आलोचना ने चिंता प्रगट की है। कहानी की पत्रिकाओं से ही कहानी विमर्श गायब हो गया है। बस कहानी की छुटपुट रिपोर्ट बची है। देश के किसी भी शापिंग आर्केड में साहित्य कला की कोई जगह नहीं है। अफसोस और खेद और कोसने के साथ हम दिन भर अपनी बतकही करते हैं। अपने आचरण को साहित्य की शर्तों पर मोड़ने की कोशिश नहीं करते। बाजार को असहाय झांकते रहते हैं। बाजारों में कुछ अंग्रेजी की जगहें हैं। अंग्रेजी में भी समकालीन किताबें और बेस्ट सेलर हैं। अमेरिका और इंग्लैंड के सबसे शानदार साहित्यिक प्रकाशक धूल चाट रहे हैं। नया बाजार बढ़ रहा है।
ज्ञानरंजन कहते हैं कि उन्होंने अपने वक्तव्य में एक जगह साहित्यपन या साहित्यिकता का उपयोग किया है। बाजार और समकालीनता के बीच ज्ञानरंजन इसे आज भी एक जरुरी मुद्दा मानते हैं। वे कहते हैं कि साहित्य हमारा कवच है। यह हमारी अस्मिता की रक्षा करता है। हमें इस दिशा की तरफ ध्यान देना चाहिए। जिसे बाजार की तरफ जाना हो पापुलर व्यवसायी और खपत वाली कहानी लिखनी हो वे अवश्य लिखें। यह उनका चुनाव है। यह एक जरुरी रास्ता भी है पर जो साहित्य कला जीवन का रसायन बनाना चाहें और भाषा की मौलिक समृद्धि उन्हें भी अपनी जद्दोजहद कायम करनी चाहिए। कहानी, नई कहानियां, उर्दू कहानी, सारिका के अलावा हिन्दी की अन्य शानदार पत्रिकाओं में कहानी को एक विशिष्ट दर्जा था। चाहे वह कल्पना हो, लहर हो, परिमल गुट की पत्रिकाएं हों या प्रगतिशील गुट की। श्रीपतराय, श्यामू सन्यासी, उपेन्द्रनाथ अश्क, धर्मवीर भारती, भैरवप्रसाद गुप्त, मोहन राकेश, बलवंत सिंह, रामनारायण शुक्ल कहानी संपादन के ये सर्वाधिक सम्मानीय नाम हैं। इनके संपादन में निकलने वाली कहानी पत्रिकाओं के प्रिंट आर्डर हजारों में थे, लेकिन कहानी बाजार के चंगुल से स्वतंत्र थी। उन्होंने कहानी की टोटल रक्षा की। ज्ञानरंजन कहते हैं कि इस भव्य परंपरा को तोड़ने या उससे विचलित होने, विरत होने की जरुरत क्यों हुई ? उसे समृद्ध क्यों नहीं किया गया। पता नहीं किन घड़ियों में यह खंडन हुआ, यह अध्ययन का विषय है। जिस तरह समय की राजनीति करवट लेती है, उसी तरह साहित्य की दुनिया में करवटें नहीं बदली जातीं। साहित्य में अगर हमने मांग-आपूर्ति का नियम लागू कर दिया तो यह एक प्रकार की व्यापार प्रणाली होगी।
ज्ञानरंजन कहते हैं- "बाजार के बारे में मेरा नजरिया नकारात्मक नहीं है। बाजार इतनी बुरी जगह नहीं है। गृहस्थों के लिए, जनगण के लिए वह जरुरी ही नहीं जीवित रहने का एक मजबूत आधार है। वह लोकप्रिय कारीगारी के लिए हमारी भूख प्यास के लिए भी एक स्थल है। पर एक रचनाकार के लिए उसमें बहुत अधिक जरुरी चीजें उपलब्ध नहीं हैं। एक साहित्यकार को उसमें प्रवेश की अनिवार्यता नहीं है। हम पानी में जाते हैं, पानी में तैरते हैं, उससे लड़ते हैं। हम बाजार में जाते हैं, बाजार से लड़ते हैं। लेखक की दुनिया अलग है। वह निर्माता है, खोजी है, विचारक है, वह भविष्य और अपने समय में धंसता है, वह बेपरवाह है। जिस दिन हम अपना इनोसेंस खो देते हैं, उस दिन हम एक होशियार आथर हो जाते हैं। अमानवीयकरण का सुराख बनने लगता है। हमारा सृजनात्मक वार्तालाप ही बदल जाता है।
ज्ञानरंजन कहते हैं कि उन्हें संपादक होने के नाते हर पल चेतना और जागरण की जरुरत पड़ती है। इसका कोई अंत नहीं है। वे अपने साहित्य समाज से ही सीखते चलते हैं। कहानी के लिए यह अदभुत समय है। परिपक्व और समृद्ध समाजों में कहानी पदच्युत हो चुकी है। लेकिन यहां भारतीय समाज में हर चीज पिघल रही है। भाषाएं प्रतिभाओं की धनी हैं। यथार्थ तार-तार और विखंडित हो रहा है।
ज्ञानरंजन ने अपने वक्तव्य को समाप्त करते हुए सबसे महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा- " मुझसे यह सवाल पूछा जा सकता है कि आप इतना जान समझ रहे हैं तो लिखते क्यों नहीं कहानी ? इसका जवाब है कि मैं नहीं लिख सकता। लिख सकता हूं पर वह महज ज्ञानवान क्रिया हो्गी जिसका कोई अर्थ नहीं। जानना और सूचित होना पर्याप्त नहीं है। लिखते जाना भी पर्याप्त नहीं है। छपते जाना भी पर्याप्त नहीं है। नए मुहावरे को जन्म देना, त्रासदी के मध्य डूबना-उतरना और लगभग अकेले पड़ जाना, आवेग, धीरज और श्रम और ताजगी और कम उम्र इसके लिए जरुरी है। और भी बहुतेरी चीजें जरुरी हैं। पचासों साल बीत जाने और अनन्य लफड़ों में विचरने वाले बूढ़े अपने समाज में कोई बड़ी भूमिका अदा नहीं कर सकते।"
(ज्ञानरंजन जी का पूरा वक्तव्य वागर्थ के नए अंक में प्रकाशित होगा)

गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

महिला डॉन का निधन और दैनिक देशबन्धु के सरोकार

ऊपर की कतरन जबलपुर से प्रकाशित दैनिक देशबन्धु के 1 अप्रैल के अंक में छपी हुई एक सिंगल कॉलम की खबर है। इस खबर के प्रकाशन के कई मायने हैं। पहला तो देशबन्धु के क्राइम बीट के रिपोर्टर ने अपनी ड्यूटी निभाते हुए जबलपुर की एक महिला डॉन चित्रा के निधन की खबर को लिखा है। उसकी जैसी समझ थी, उसने खबर को लिखा और समाचार पत्र में उसे प्रस्तुत किया गया। दूसरा क्या महिला डॉन के निधन को इतनी जगह देनी चाहिए ? देशबन्धु जैसे सरोकार वाले समाचार पत्र में किसी महिला डॉन के निधन और उसके कार्यों की अतिरंजित प्रस्तुति, यह सोचने को मजबूर करती है कि इसी समाचार पत्र को ग्रामीण पत्रकारिता के लिए एक बार नहीं, बल्कि कई बार स्टेट्समेन अवार्ड जैसे पुरस्कार मिल चुके हैं।
देशबन्धु में 'और दहाड़ हो गई शांत' शीर्षक से प्रकाशित समाचार का सार यह है कि जबलपुर की महिला डॉन चित्रा का बीमारी से निधन हो गया। वह पुलिस के लिए चुनौती थी और उसके निधन से सिंहनी जैसी दहाड़ भी शांत हो गई। उसने महिला होते हुए शहर में अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। अवैध महुआ से शराब बनाने वाली चित्रा ने पुलिस को नाकों चने चबाने विवश कर दिया था। बेधड़क कच्ची शराब का कारोबार करने वाली चित्रा पुलिस के लिए हमेशा सिरदर्द बनी रही और उसने पुलिस का डट कर मुकाबला किया। निधन की खबर सुन कर उसके घर में स्थानीय लोग व व्यापारियों का तांता लग गया।
देशबन्धु में प्रकाशित समाचार से यह बोध होता है कि जैसे चित्रा नाम की महिला डॉन महिलाओं के लिए एक आदर्श थी। उसने शायद लीक से हट कर कोई काम किया हो। जैसे स्वतंत्रता के पूर्व अंग्रेजों से डट कर मुकाबला किया जाता था, वैसे ही उसने पुलिस से मुकाबला किया। मुद्दा यह है कि समाज में किसी भले आदमी या स्वतंत्रता सेनानी के निधन के समाचार को क्या इतना स्थान मिलता है, जितना महिला डॉन चित्रा के निधन को स्थान मिला ? क्या नेक या अच्छे काम करने वाले के लिए समाचार पत्र में जगह नहीं बची ? लगता है कि टेलीविजन चैनलों की तरह यहां भी टीआरपी का चक्कर है या प्रिंट मीडिया में काम करने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्रभावित हो कर आपराधिक दुनिया को महिमा मंडित करने लगे हैं।
दरअसल देशबन्धु कभी भी मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ में बिक्री के मामले में नंबर वन नहीं रहा, लेकिन समाचारों की दृष्टि से उसे हर समय गंभीरता से लिया जाता रहा है। देशबन्धु ने सामाजिक सरोकारों को प्राथमिकता देते हुए खबरों का प्रस्तुतिकरण किया है। मुझे याद है कि लगभग 12-13 वर्ष पूर्व भोपाल के अग्रणी समाचार पत्र के संपादक ने कहा था कि यदि समाचार पढ़ना है, तो जबलपुर में देशबन्धु से बेहतर कोई समाचार पत्र नहीं है। 90 की शुरुआत में जब रमेश अग्रवाल समूह ने जबलपुर से नव-भास्कर निकाला, तब गिरीश अग्रवाल ने स्वीकारा था कि देशबन्धु का पेज मेकअप और ले-आउट सबसे अच्छा है। इस दृष्टि से देखें तो उपर्युक्त टिप्पणियां यह सिद्ध करती हैं कि देशबन्धु एक उत्कृष्ट स्तर के समाचार पत्र के रुप में मान्य था।
जबलपुर में देशबन्धु और युगधर्म पत्रकारिता के स्कूल माने जाते थे। दोनों समाचार पत्रों के संपादक स्वर्गीय मायाराम सुरजन (देशबन्धु) और भगवतीधर वाजपेयी (युगधर्म) जबलपुर की पत्रकारिता के पितृ के रुप में मान्य थे। देशबन्धु में कार्यरत कई पत्रकार वर्तमान में प्रदेश व देश के प्रमुख समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे हैं, इसकी सिर्फ एक वजह उनका देशबन्धु में कार्य करना रहा है। देशबन्धु रायपुर के संपादक ललित सुरजन को तो एक समय भारत के सबसे उदीयमान संपादक तक माना गया था। देशबन्धु जबलपुर में कार्य कर चुके राजेश पाण्डेय और राजेश उपाध्याय क्रमशः वर्तमान में नई दुनिया इंदौर और दैनिक भास्कर भोपाल जैसे संस्करणों के संपादक हैं।
7 अप्रैल से देशबन्धु का दिल्ली संस्करण शुरु हो रहा है। हो सकता है इससे वह राष्ट्रीय समाचार पत्रों में गिने जाने लगे, लेकिन इस प्रकार के समाचार उसकी प्रतिष्ठा को ही धूमिल करेंगे। हम सब जानते हैं कि देशबन्धु की एक उत्कृष्ट परंपरा रही है और क्षेत्रीय स्तर पर उसे एक मिसाल के रुप में देखा जाता है।

बुधवार, 2 अप्रैल 2008

चारदीवारी में बूढ़े

आज 1 अप्रैल को मेरे मां के चाचा जी अर्थात मेरे नाना जी का 94 वां जन्मदिन है। वे हम लोगों के घर से लगभग 10-12 किलोमीटर दूर रहते हैं। हम लोग उनसे और नानी से किसी खास मौकों पर ही मिल पाते हैं। हम लोगों के जन्मदिन पर उनकी बधाई एक महीने पहले आ जाती है। उन्होंने यह गुण अपने दो बड़े भाईयों से सीखा है। उनके बड़े भाईयों का निधन हो चुका है। सभी भाई अंग्रेजों के समय के थे, इसलिए उनमें समय की पाबंदी और अनुशासन कूट-कूट कर भरा है। नाना और नानी की इतनी आयु हो जाने के बाद भी वे किसी पर निर्भर नहीं हैं। अपना दैनिक कार्य स्वयं ही निबटाते हैं। उन लोगों को देख कर जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है। इसके लिए रविशंकर जी की आर्ट आफ लिविंग की जरुरत नहीं है। दोनों की स्मरणशक्ति लाजवाब है। इसका कारण सादा जीवन, समय पर सोना-समय पर उठना और नियमित जीवनशैली है। उनका एक बेटा और तीन बेटियां हैं और वे सब जबलपुर से बाहर ही हैं। समय-समय पर उनका आना होता रहता है और नाना-नानी भी उनसे मिलने जाते हैं, लेकिन अधिक आयु के कारण अब यह ज्यादा संभव नहीं है। उन लोगों का स्वस्थ रहने का सहज तरीका है। आज भी वे सोलर कुकर में खाना बनाते हैं। उनका घर और बगीचा हम सभी के लिए एक प्रेरणा है।
नाना जी ने अपना जन्मदिन दोस्तों के साथ मनाया। दिन भर में हम लोगों के अलावा कुल जमा आठ लोग ही उनके घर बधाई देने पहुंचे, लेकिन इसका आनंद उन्होंने खूब उठाया। इसका कारण उनकी सकारात्मक सोच है। जन्मदिन के दिन ही साल में एक बार इतने अधिक लोग उनके घर पहुंचते हैं, बाकी 364 दिन उनके घर में लगभग अकेले ही कटते हैं। बेटे और बहु द्वारा भेजा गया ग्रीटिंग कार्ड उनकी खुशी को द्विगुणित कर रहा था। बधाई देने आए लोगों को उन्होंने ग्रीटिंग कार्ड दिखा कर अपनी खुशी सभी के साथ बांटी। हम लोग शाम के समय उनके यहां बधाई देने वाले शायद अंतिम थे। विदा होते समय हम लोगों को वापस आते समय अच्छा नहीं लग रहा था, क्योंकि नाना-नानी वापस फिर अपनी दुनिया में चले जाएंगे। जहां वे फिर अगले वर्ष का इंतजार करेंगे कि जन्मदिन आए और कुछ लोग उनसे इसी बहाने मिलने आएं और वे उनसे अपनी कुछ खुशियां बांत सकें। उनके घर से आने के बाद उन बुजुर्गों पर एक कविता लिखने का मन आया है, जो बिल्कुल अकेले रह रहे हैं। यह कविता आप लोगों के साथ बांट रहा हूं।

घर की चारदीवारी में कट जाते हैं बूढ़ों के दिन
चारदीवारी में कब होती है सुबह और शाम
बूढ़े नहीं जानना चाहते हैं इसे
उन्हें डर लगता है अंशुमान-विभांशु के प्रकाश से
इससे ही होती सुबह और शाम
सुबह की रौशनी उत्साह भरती है, तिमिर अवसाद
बूढ़े परेशान हैं उत्साह-अवसाद के चक्र से
इसलिए वे चारदीवारी में कैद हैं।

चारदीवारी में बूढ़ों की स्मृतियों में कैद हैं जीवन के रंग-विरंग
जिन्हें बांट देना चाहिए
चार सोपानों में
चौथे सोपान में जी रहे हैं बूढ़े
चारदीवारी में देख रहे हैं जीवन के अक्स
चारदीवारी के उधड़ रहे प्लास्टर की तरह रही है जिंदगी उनकी।

चारदीवारी से शुरु हुआ था जीवन का संघर्ष
बड़ी जतन से रौंपे थे पौधे
जीवन की खुशियां वे पौंधों में देखते
सबको अपने कर्म करने को कहते
चारदीवारी को था अपनी नींव पर बड़ा गर्व
इसमें उन्हें पता नहीं कि कब पौधे पेड़ बन गए
पेड़ों की जड़ें चारदीवारी की नींव तक पहुंच गईं।
जड़ों ने चारदीवारी को हिला दिया
पेड़ों की शाखाएं खुले में फैल गईं
चारदीवारी में सिमट गई जिंदगी बूढ़ों की।

चारदीवारी में रखी असंतुलित टेबल से उन्होंने रिश्ता बना लिया
क्योंकि वह जो उनकी तरह हिल-डुल रही थी
टेबल पर समाया था बूढ़ों का पूरा संसार
टेबल पर फैले अखबार से होती थी सुबह
टेबल पर रखी गोलियों के खाने से वे जी रहे थे
टेबल पर कट जाती थी सब्जी
टेबल पर खा लेते थे खाना
और रात में जब नहीं आती थी नींद
तब टेबल ही सहारा होती थी
अब चारदीवारी में बूढ़ों के साथ टेबल भी हो गई है कैद।

🔴इतिहास के कुहासे की परतों में ओझल होता ब्लेगडान

6 फरवरी 2024 को सुबह कोहरे की मोटी परत के बीच अचानक रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के सामने दायीं ओर निगाह गई तो देखा कि शहर के एक नामच...