सोमवार, 31 मई 2010

डा. अविनाश कौर सिद्धू की विशिष्ट उपलब्धि: दो खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व


ड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण जब एक खेल में भारत के लिए प्रतिनिधित्व करना मुश्किल हो, तब दो खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करना विशिष्ट उपलब्धि ही कही जाएगी। इस उपलब्धि को जबलपुर की डा. अविनाश कौर सिद्धू ने हासिल किया है। उन्होंने वर्ष 1967 से वर्ष 1975 तक भारतीय महिला हॉकी टीम और वर्ष 1970 में भारतीय वालीबाल टीम का प्रतिनिधित्व किया है। डा. सिद्धू का बहुआयामी व्यक्तित्व है। वे पिछले तीन दशकों से हॉकी से जुडी हुई हैं। डा. सिद्धू 30 वर्षों से विभिन्न संस्थाओं, विश्वविद्यालयों और प्रदेश की टीमों को हॉकी का प्रशिक्षण दे रही हैं। डा. सिद्धू ने जर्मन कॉलेज आफ फिजिकल कल्चर से स्पोट्‌र्स साइकोलॉजी में मास्टर आफ स्पोर्ट की डिग्री प्राप्त की और इसी संस्थान से उन्होंने स्पोट्‌र्स साइकोलॉजी में डॉक्टरेट भी की है। उन्होंने सन्‌ 1972 से वर्ष 2001 तक ग्वालियर के लक्ष्मीबाई नेशनल इंस्टीट्‌यूट आफ फिजिकल इंस्टीट्‌यूट यूनिवर्सिटी में अध्यापन कार्य किया है। डा. सिद्धू ने वर्ष 2001 में प्रोफेसर पद से वालियंटरी रिटायरमेंट ले लिया।


डा. सिद्धू ने वर्ष 2001 से वर्ष 2005 तक बांग्लादेश इंस्टीट्‌यूट आफ स्पोर्ट, ढाका में स्पोट्‌र्स साइकोलॉजिस्ट के रूप में कार्य किया है। उन्होंने दस खेलों हॉकी, बॉस्केटबाल, बाक्ंिसग, फुटबाल, जिम्नास्टिक, शूटिंग, स्विमिंग, टेनिस और टै्रक एंड फील्ड में बांग्लादेश की राष्ट्रीय टीमों को सहायता प्रदान की। मेनचेस्टर कॉमनवेल्थ गेम्स 2004 में बांग्लादेश के स्वर्ण पदक जीतने वाले शूटर मोहम्मद आसिफ को डा. अविनाश सिद्धू ने मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार किया था। वर्ष 2004 के इस्लमाबाद सैफ गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने वाले मोहम्मद आसिफ और शर्मीन को भी डा. सिद्धू की मनोवैज्ञानिक सहायता मिली थी।


डा. सिद्धू वर्ष 1968 में आयोजित प्रथम एशियल महिला हॉकी चैम्पियनशिप में भारतीय टीम की कप्तान रही हैं। भारतीय टीम ने इस प्रतियोगिता में तीसरा स्थान प्राप्त किया था। इसी प्रतियोगिता के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें 'ऑल स्टार एशियन इलेवन' में चुना गया। इसके पश्चात्‌ डा. अविनाश सिद्धू ने श्रीलंका, आस्ट्रेलिया, जापान, हांगकांग, यूगांडा, सिंगापुर, न्यूजीलैंड, स्पेन, स्कॉटलैंड के विरूद्ध खेली गई टेस्ट सीरिज में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया और इन देशों के विरूद्ध टेस्ट सीरिज में विजय दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डा. सिद्धू ने ऑकलैंड (न्यूजीलैंड), बिलबाओ (स्पेन) और एडिनबर्ग (स्कॉटलैंड) में आयोजित इंटरनेशनल फेडरेशन वूमेन हॉकी एसोसिएशन के टूर्नामेंट, जो कि विश्व कप के समकक्ष माना जाता है, में भी भारतीय महिला हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया।


डा. सिद्धू ने वर्ष 1962 से वर्ष 1974 तक महाकौशल महिला हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने वर्ष 1963, 1965 और 1966 में अंतर विश्वविद्यालयीन महिला हॉकी प्रतियोगिता में जबलपुर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। वर्ष 1965 में जबलपुर विश्वविद्यालय की टीम उपविजेता रही। इस टीम का नेतृत्व भी अविनाश सिद्धू ने ही किया था। डा. सिद्धू ने वर्ष 1968 में पंजाबी यूनिवर्सिटी का प्रतिनिधित्व भी किया।


डा. अविनाश सिद्धू ने सक्रिय हॉकी से निवृत्त होने के पश्चात्‌ कई अंतरराष्ट्रीय हॉकी प्रतियोगिताओं में अंपायरिंग भी की है। जिसमें 10 वें एशियन गेम्स सियोल, द्वितीय इंदिरा गांधी इंटरनेशनल विमेन हॉकी टूर्नामेंट नई दिल्ली, एशियन जूनियर विमेन हाकी वर्ल्ड कप क्वालीफाइंग टूर्नामेंट, तृतीय इंटरनेशनल कप फार विमेन हॉकी, 11 वें एशियन गेम्स बीजिंग (फाइनल मैच में आफिशियल), चतुर्थ इंदिरा गांधी इंटरनेशनल विमेन हॉकी टूर्नामेंट जैसी प्रमुख प्रतियोगिताएं हैं। डा. सिद्धू 1994 हिरोशिमा गेम्स में भी अंपायर के रूप में चुनी गईं थीं।


महिला हॉकी में डा. अविनाश सिद्धू ने भारतीय महिला हॉकी टीम की मैनेजर के रूप में भी अपनी सेवाएं दी हैं। वे 1983 से 1985 तक भारतीय टीम की सिलेक्टर रहीं हैं। उन्होंने भारतीय महिला हॉकी टीम के लिए स्पोट्‌र्स साइकोलॉजिस्ट के रूप में भी अपनी सेवाएं दी हैं। उनकी पहचान एक श्रेष्ठ कोच के रूप में भी है।


सन्‌ 1970 में डा. अविनाश सिद्धू ने भारतीय महिला वालीबाल टीम का नेतृत्व भी किया। इसके अलावा राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कई बार उन्होंने मध्यप्रदेश की टीम का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने एथलेटिक्स (ट्रैक एंड फील्ड) के अंतर्गत 20 वें नेशनल गेम्स में 4X100 रिले और 800 मीटर दौड़ में भाग लिया और रिले में कांस्य पदक जीता। 1963-64 में उन्हें जबलपुर विश्वविद्यालय का सर्वश्रेष्ठ एथलीट घोषित किया गया। 1964 में नेशनल बास्केटबाल चैम्पियनशिप में मध्यप्रदेश की टीम का प्रतिनिधित्व किया। वर्ष 1963 एवं 1965 में डा. सिद्धू ने इंटर यूनिवर्सिटी बास्केटबाल टूर्नामेंट में जबलपुर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। दोनों प्रतियोगिताओं में वे टीम की कप्तान भी रहीं। वर्ष 1975 में हॉकी में उत्कृष्ट और उल्लेखनीय प्रदर्शन के लिए डा. सिद्धू को मध्यप्रदेश शासन ने विक्रम अवार्ड से सम्मानित किया।

शनिवार, 29 मई 2010

जब हॉकी के जादूगर पर ही जादू चल गया : कैसे ध्यानचंद की टीम एक गोल से हारी

मेजर ध्यानचंद निर्विवाद रूप से हॉकी के सर्वश्रेष्ठ सर्वकालिक खिलाड़ी माने जाते हैं। १९३६ के बर्लिन ओलिम्पिक में तो ध्यानचंद के विलक्षण खेल ने हॉकी के चहेतों को असमंजस में डाल दिया था। तभी से लोगों ने उन्हें हॉकी का जादूगर कहना शुरू कर दिया। किन्तु इसके अगले ही वर्ष पचमढ़ी में सतपुड़ा क्लब ने जिस बखूबी से ध्यानचंद की टी को परास्त किया, वह भी कम चौंकाने वाली बात नहीं थी। गोया उस मैच में जादूगर पर ही जादू चल गया हो। जबलपुर एवं मध्यप्रदेश के वरिष्ठ क्रीड़ा समीक्षक और खेल पितामह माने जाने वाले बाबूलाल पाराशर ध्यानचंद के समकालीन हॉकी खिलाड़ी रहे हैं। भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे बाबूलाल पाराशर लम्बे समय तक मध्यप्रदेश क्रीड़ा परिषद के सदस्य व उपाध्यक्ष भी रहे। वे अपने जमाने के अच्छे सेंटर हॉफ माने जाते थे। बाबूलाल पाराशर का निधन 23 जुलाई 1993 को जबलपुर में हुआ। स्मरणीय है कि बाबूलाल पाराशर के नेतृत्व में ही सतपुड़ा क्लब ने ध्यानचंद की टीम पर अपूर्व विजय दर्ज की थी। इस मैच का विवरण स्वर्गीय पाराशर से बातचीत के आधार पर यहां प्रस्तुत किया गया है।

सन्‌ 1937 में बाबूलाल पाराशर की नियुक्ति पचमढ़ी में हुई थी। यह एक महत्वपूर्ण मिलेट्री स्टेशन था और फिर उच दिनों तो वहां हॉकी का अच्छा खासा प्रचार था। करीब चार प्रथम श्रेणी के हॉकी मैदान थे और 6 पलटन की टीमें थीं। सबसे तगड़ी टीम इंडियन ग्रुप थी। सतपुड़ा क्लब के नाम से जानी जाने वाली सिविलियन टीम एक ही थी। जिसमें ज्यादातर पलटन के कैंप फ्लोअर यानी भिश्ती, मोची, दर्जी आदि थे। इसके अलावा कुछ विद्यार्थी, स्वयं बाबूलाल पाराशर, एक नायाब तहसीलदार और एक पुलिस हेड कांस्टेबल टीम में थे।

उन दिनों पचमढ़ी में चार-चार माह के मिलेट्री आर्म्स कोर्स हुआ करते थे। जिसके अंतर्गज पलटन के अंग्रेज तथा हिन्दुस्तानी कमीशंड और नॉन कमीशंड अफसर प्रशिक्षण के लिए भेजे जाते थे। इस तरह नया कोर्स शुरू होते ही चार महीने का कार्यक्रम बन जाता था, जिसमें सब मैच लीग पद्धति के आधार पर खेले जाते थे। ध्यानचंद तब पलटन में सैनिक थे और इसी कोर्स में शामिल होने के लिए पचमढी आए थे। वे इंडियन ग्रुप टीम की ओर से खेला करते थे। इसके पहले बाबूलाल पाराशर ने ध्यानचंद का खेल सर्वप्रथम 1931 में ऑल इंडिया रजिया सुल्तान टूर्नामेंट के दौरान कुरबाई में देखा था। इस टूर्नामेंट में भारत की मशहूर टीमें जैसे गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर (जिसमें लालशाह बुखारी, दारा जफर आदि खिलाड़ी थे), मानबदर स्टेट, जहां प्रसिद्ध ओलिम्पिक शाहबुद्दीन मसूद और मोहम्मद हुसैन थे, सुविखयात खिलाड़ी ध्यानचंद और रूप सिंह से सुसज्जित झांसी हीरोज की टीमें भाग लिया करती थीं। फाइनल में झांसी हीरोज और मानबदर स्टेट के मध्य एक संघर्षमय मुकाबला हुआ। अभी दर्शक अपनी जगह पर बैठ भी नहीं पाए थे कि ध्यानचंद ने विलक्षण फुर्ती के साथ बुली ऑफ से पहला गोल ठोंक दिया। मानबदर के जाने माने लेफ्ट इन जॉनी पिंटो मात्र एक गोल ही कर सके, जिनके बारे में ऐसा कहा जाता था कि वे रूप सिंह से भी बेहतर खिलाड़ी थे। ध्यानचंद ने इसके अलावा तीन गोल और किए। टूर्नामेंट के श्रेष्ठ खिलाड़ी को स्वर्ण पदक प्रदान किया जाता था। परन्तु कुरबाई के नवाब ने यह कह कर कि ध्यानचंद जैसे महान्‌ खिलाड़ी के लिए एक स्वर्ण पदक मामूली इनाम है, उनका सम्मान शाही खिल्लत दे कर किया। इसके अतिरिक्त स्वर्गीय पाराशर ने ध्यानचंद का खेल भोपाल में ही 1932 और ओलिम्पिक टीम के साथ में भी देखा था।बाबूलाल पाराशर ने बताया कि ध्यानचंद का अप्रतिम खेल देख कर उनके मन में भी विचार आया कि काश ध्यानचंद के विरूद्ध खेलने का मौका मिले और फिर वे कैसे स्वयं प्रदर्शन कर पाते हैं। अंततः उन्हें 1937 में पचमढ़ी में मौका मिला। स्वर्गीय पाराशर ने बताया कि ध्यानचंद का खेल सचमुच लाजवाब होता था। उनका खेल खिलाड़ी भावना से ओतप्रोत रहता था। व्यक्तिगत प्रदर्शन का तो उनमें नामो निशान तक नहीं था। यही कारण है कि कई बार स्वयं गोल करने में सक्षम होते हुए भी वे गेंद झट आसपास के दूसरे खिलाड़ी को थमाकर गोल करवा देते थे। उनके खेल की यही खूबी थी कि वे या तो खुद गोल कर सकते थे अथवा राइट इन या लेफ्ट इन के खिलाडि यों को पास दे कर गोल करवा लेते थे। गेंद ध्यानचंद को मिली कि नहीं उनमें बिजली की सी फुर्ती आ गई। कभी यदि वे विपक्षी खिलाडि यों से घिर जाते थे, तो पीछे सेंटर हॉफ को पास देते थे या फिर ऐसे खिलाड़ियों को पास देते जो सुरक्षित स्थान पर खड़ा हो।

बाबूलाल पाराशर के अनुसार उनकी टीम सतपुड़ा क्लब को ध्यानचंद की टीम के विरूद्ध चार या पांच बार खेलने का अवसर आया। यद्यपि पहले मैच में बराबरी की टीम होने के बावजूद भी ध्यानचंद की टीम ने उन्हें 7-0 से हराया, तथापि एक दो मैच खेलने के बाद पाराशर की टीम ने उनके खेल का सूक्ष्मता से भली-भांति अध्ययन कर लिया और आगे के मैचों में गोलों का अंतर क्रमशः कम होने लगा।

वर्ष 1937 में नवम्बर माह के अंतिम सप्ताह में अंग्रेज उच्च सेनाधिकारी ध्यानचंद का खेल देखने खास तौर से पचमढी आए। एक प्रदर्शन मैच होने वाला था। मैदान पर अच्छी भीड थी। पचमढी के करीब-करीब सभी हॉकी प्रेमी नागरिक उपस्थित थे। पलटन के समर्थकों को पूरा विश्वास था कि उनकी टीम आसानी से विजय दर्ज कर लेगी, मगर उस दिन पाराशर की टीम भी बहुत उत्साह से खेली।

'बुली ऑफ' के साथ ही सतपुड़ा क्लब के सेंटर फॉरवर्ड सल्लू ने आनन-फानन में ध्यानचंद की टीम के विरूद्ध एक गोल दाग दिया। यहां सल्लू के संबंध में बताना उचित होगा कि वह एक भिश्ती था और देखने में वह बिल्कुल हॉकी खिलाड़ी नहीं लगता था। इतना अपढ और पिछड़ा था कि जीवन में कभी रेल भी नहीं देखी थी। सल्लू जमीन पर टिप्प मार कर विरोधी खिलाड़ी को स्टिक के ऊपर से गेंद उचकाते हुए सीधे आगे बढ ता था। इस गोल के पश्चात्‌ ध्यानचंद के खेल में तेजी आ गई। आर्मी पलटन के अफसर और जवानों में भी जोश आ गया। उन्होंने सतपुड़ा टीम को आमतौर पर और ध्यानचंद की टीम को खासतौर पर चिल्ला-चिल्ला कर गोल करने के लिए उत्साहित करना शुरू कर दिया। पाराशर ने बताया ''उस दिन का मुझे यही याद है कि चारों तरफ बैठे दर्शकों की आवाज से मैदान गूंज उठा था। ध्यानचंद ने गोल करने की भरसक कोशिश की और गोल करने या कराने के हर संभव हुनर अपनाए, लेकिन हमने सब विफल कर दिए। दस मिनट बाद सल्लू ने फिर दूसरा गोल करके सबको आश्चर्य में डाल दिया।''
मध्यांतर के पश्चात्‌ ध्यानंचद येन-केन प्रकारेण गोल करने के लिए आमादा हो गए। पाराशर कहते हैं कि वैसे तो ध्यानचंद का खेल बहुत साफ-सुथरा रहता था, लेकिन उस मैच में एक-दो बार उन्होंने बाबूलाल पाराशर को गिरा दिया और बाद में सॉरी भी कहते गए, क्योंकि इस दौरान चार माह साथ-साथ रहने और खेलने के कारण दोनों अच्छी तरह से परिचित थे। बड़ी मुश्किल से ध्यानचंद अपनी टीम के लिए एकमात्र गोल बना सके। वैसे तो अंत तक गोल करने की कोशिश करते रहे, पर और गोल करने में सफल नहीं हुए। इस तरह सतपुड़ा टीम ने ध्यानचंद की टीम पर 2-1 गोल से विजय प्राप्त की। कुल मिला कर उस दिन सतपुड़ा टीम के खिलाडि यों ने बहुत बढि या प्रदर्शन किया था। हरेक खिलाड़ी ने अपना दायित्व बखूबी निभाया था। खेल के पश्चात्‌ सेनाधिकारियों ने भी सतपुड़ा टीम के सदस्यों की काफी तारीफ की। ध्यानचंद भी सतपुड़ा टीम से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। जब सल्लू ने अपनी टीम के लिए दूसरा गोल किया किया तो ध्यानचंद कहने लगे-''वाह साहब! आज तो सतपुड़ा टीम कमाल कर रही है। इस छोटी- सी जगह में इतने अच्छे खिलाड़ी कहां से भर लिए।''

बाबूलाल
पाराशर ने बताया कि इस रोमांचकारी विजय से पचमढ़ी में हर्षोल्लासमय वातावरण निर्मित हो गया। उस दिन इस विजय की खुशी में एक विशाल जुलूस निकाला गया। आज भी पचमढी के बुजुर्ग हॉकी प्रेमी इस बात की चर्चा करते हैं कि किस तरह इस छोटे से नगर के खिलाडियों ने उस महान्‌ खिलाड़ी के खेल का अनुशरण किया और वह गौरवशाली विजय अर्जित की थी, जो नवयुवक खिलाड़ियों के लिए प्रेरणास्पद है। यहां यह स्मरणीय है कि सेंटर हॉफ बाबूलाल पाराशर का खेल काफी प्रभावपूर्ण रहा। स्वयं ध्यानचंद ने उनके खेल से प्रभावित हो कर झांसी हीरोज की तरफ से बेटन कप हॉकी प्रतियोगिता (कलकत्ता) में खेलने का प्रस्ताव रखा था, किन्तु पर्याप्त अवकाश न मिलने के कारण यह संभव न हो पाया। यहां यह उल्लेखनीय है कि ध्यानचंद की मशहूर पुस्तक 'गोल' के पृष्ठ 83 के द्वितीय परिच्छेद में भी इस मैच का वर्णन मिलता है।


नीचे फोटो में हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद के साथ बाबूलाल पाराशर (दाएं से दूसरे)







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