tag:blogger.com,1999:blog-81822728789989313032024-03-18T08:31:52.992+05:30जबलपुर चौपालजबलपुर के बारे में सब कुछ। संस्कारधानी के व्यक्ति, समाज, परम्परा, साहित्य, कला संस्कृति, खेल का ठिकाना Unknownnoreply@blogger.comBlogger129125tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-40188546333655073012024-02-07T13:11:00.000+05:302024-02-07T13:11:35.210+05:30🔴इतिहास के कुहासे की परतों में ओझल होता ब्लेगडान<blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><div class="separator" style="clear: both; font-size: 12pt; text-align: center;"><span style="font-family: times;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGCfUZve0Bb2lpPa5hNKLq9C891bIkr5ua6F7I_JJ0AUFbQoAcWCYODPf1Lyp_SbfpyWfL42i39G-c5MPSWzAkWdljGRnkAP9EPYHV5FiHXYF-vijHNCpsCOwhwkQXbiDraRjvsQ2gbxX7qeWKHIa02sdcHvAHnAg7B4lltGK9TdoAO4uNCRVhb67wIBio/s1280/WhatsApp%20Image%202024-02-06%20at%206.08.56%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="1280" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGCfUZve0Bb2lpPa5hNKLq9C891bIkr5ua6F7I_JJ0AUFbQoAcWCYODPf1Lyp_SbfpyWfL42i39G-c5MPSWzAkWdljGRnkAP9EPYHV5FiHXYF-vijHNCpsCOwhwkQXbiDraRjvsQ2gbxX7qeWKHIa02sdcHvAHnAg7B4lltGK9TdoAO4uNCRVhb67wIBio/s320/WhatsApp%20Image%202024-02-06%20at%206.08.56%20PM.jpeg" width="320" /></a></span></div><p></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: times;"><span lang="HI" style="text-align: justify; text-indent: 0.5in;"></span></span></p><div style="text-align: justify;"><span style="font-family: times;"><span lang="HI" style="text-indent: 0.5in;">6 फरवरी 2024 को सुबह कोहरे की मोटी परत के बीच
अचानक रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के सामने दायीं ओर निगाह गई तो देखा कि
शहर के एक नामचीन बिल्डर का चमचमाता बोर्ड गड़ा हुआ दिखा। बोर्ड को देखते हुए
तुरंत आभास हो गया कि यह ऐतिहासिक ज़मीन और उसमें बना हुआ विशाल बंगला भी बिक गया।
डुमना एअरपोर्ट मार्ग पर हजारों लोग यहां से गुजरते हैं। जिनमें से अधिकांश विकास
के लिए भैराए हुए जबलपुर के लोग हैं। इसमें सभी पीढ़ी के लोग हैं। नई पीढ़ी के लोग
तो कुछ भी नहीं जानते और पुरानी पीढ़ी के लोग इस पुराने बंगले का नाम </span><span style="text-indent: 0.5in;">‘<span lang="HI">ब्लेगडान</span>’ <span lang="HI">भूल चुके हैं। इतिहास के कुहासे की परतों
में ओझल हो गया ब्लेगडान। जबलपुर के इतिहास से </span>‘<span lang="HI">ब्लेगडान</span>’
<span lang="HI">बंगला का गहरा संबंध है। ब्लेगडान की कुछ विशेषताएं इसे खास बनाती
थी। ब्लेगडान जबलपुर की प्रथम सेंट्रली एअरकूल्ड इमारत थी। ब्लेगडान का अर्थ होता
है-</span>From the dark valley<span lang="HI"> </span></span></span></div><p></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span style="font-family: times;"><b><span lang="HI">ब्लेगडान का धुंधला इतिहास-</span></b><span lang="HI">कुछ
साल पहले तक </span>‘<span lang="HI">ब्लेगडान</span>’ <span lang="HI">की चारदीवारी के मुख्य द्वार के बाएं ओर
सीमेंट के खंबे में </span>‘<span lang="HI">ब्लेगडान</span>’ <span lang="HI">दर्ज था
लेकिन समय के साथ वह ध्वस्त हो गया। तत्कालीन मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल (एमपीईबी)
और ब्लेगडान इतिहास एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। तत्कालीन मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल
का मुख्यालय बोर्ड रूम रामपुर स्थित पुराने शेड (वर्तमान में आफिसर्स मेस) हुआ
करता था। तब मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल का कोई अधिकारिक रेस्ट हाउस नहीं था। 1968
में विद्युत मण्डल के चेयरमेन पीडी ने चटर्जी जबलपुर विश्वविद्यालय के सामने के
बंगले को विद्युत मण्डल के रेस्ट हाउस के रूप में चुना। तहकीकात करने में तो भी
कच्ची पक्की जानकारी मिली उसके अनुसार यह बंगला इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक बड़े वकील
की संपत्ति थी। विद्युत मण्डल के कुछ पुराने इंजीनियर व कर्मचारी कहते हैं कि वह
वकील नहीं बल्कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के किसी जस्टिस की मिल्कियत थी। विद्युत
मण्डल ब्लेगडान को रेस्ट हाउस के रूप में वर्ष 1993 तक उपयोग में लाता रहा। मालूम
हो 1989 में विद्युत मण्डल ने 1989 में अपने मुख्यालय के तौर पर शक्तिभवन का
निर्माण कर लिया और बोर्ड रूम को आफिसर्स मेस के रूप में परिवर्तित कर लिया गया। एक
जानकारी के अनुसार यह बंगला जेसू (जबलपुर इलेक्ट्रिक सप्लाई अंडरेटेकिंग) के
रेजीडेंट इंजीनियर का अधिकारिक निवास था। मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल ने जब जेसू का
अधिग्रहण किया तो इस बंगले का अधिपत्य विद्युत मण्डल को मिल गया।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span style="font-family: times;"><b><span lang="HI">अर्जुन सिंह रूम नंबर 2 में रूकना
पसंद करते थे-</span></b><span lang="HI">एमपीईबी
के कुछ सिविल इंजीनियरों ने जानकारी दी कि एक समय जबलपुर आने वाले अति विशिष्ट व
विशिष्ट अतिथियों को रूकवाने की व्यवस्था सर्किट हाउस के स्थान पर ब्लेगडान
में की जाती थी। खान अब्दुल गफ्फार खां (सीमांत गांधी) व हॉकी के जादूगर ध्यानचंद
जबलपुर प्रवास के दौरान ब्लेगडान में ही रूके थे। इनके साथ ही उस समय जबलपुर आने
वाली राजनैतिक हस्तियां ब्लेगडान में रूकना पसंद करती थीं। ब्लेगडान का रूम नंबर
2 मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को प्रिय था। वे यहां रूकना हर समय
पसंद करते थे। प्रो. यशपाल को ब्लेगडान में विकसित किए गए पेड़-पौधों से लगाव था। मोतीलाल
वोरा को ब्लेगडान की लोकेशन भाती थी। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span style="font-family: times;"><b><span lang="HI">जबलपुर के इतिहास का प्रथम मोज़ाइक
फर्श-</span></b><span lang="HI">ब्लेगडान
लगभग साढ़े तीन एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ था। मुख्य द्वारा से भीतर तक क्ले
ब्रिक्स की सड़क थी। जबलपुर के इतिहास में सबसे पहले ब्लेगडान में मोज़ाइक फर्श
बनाया गया। इसकी फ्लोरिंग इतनी वैज्ञानिक थी कि पानी गिरने पर भी एक स्थान पर
एकत्रित नहीं होता था बल्कि बाहर निकल जाता था। ब्लेगडान जबलपुर की प्रथम
सेंट्रली एअरकूल्ड इमारत थी। पूरे बंगले को एअरकूल्ड करने के लिए धरातल या बेसमेंट
में एक बड़ा कूलर स्थापित किया गया था। वहां से पूरे बंगले में डक या नालियां
निकाली गई थी। कूलर से निकलने वाला ठंडी हवा से बंगला एअरकूल्ड रहता था। बंगले में
की दीवारों के बीच में केविटी का प्रावधान था। यानी कि प्रत्येक कक्ष की में दो
दीवारें रखी गई थीं और उनके बीच में अंतर रखा गया। इससे कमरों को ठंडा या गर्म
रखने में मदद मिलती थी। ब्लेगडान के प्रत्येक कक्ष के बाथरूम में मोज़ाइक के
बॉथटब थे। ब्लेगडान में बिजली के जितने भी स्विच थे वे पीतल के थे। एमपीईबी के एक
रिटायर्ड सिविल इंजीनियर सुनील पशीने जानकारी दी कि पीतल के इन स्विचों को बदलने
की जरूरत नहीं पड़ी और न ही वे कभी खराब हुए। ब्लेगडान में एक ड्राइंग रूम</span>, <span lang="HI">एक डायनिंग रूम</span>,<span lang="HI"> तीन सुईट</span>, <span lang="HI">एक
पेंट्री व एक किचन था। पूरे रेस्ट हाउस में सागौन का फर्नीचर था। ब्लेगडान के ऊपरी
हिस्से में विशाल गीज़र लगा हुआ था जिससे 24 घंटे गर्म पानी की सप्लाई होती रहती
थी। हॉल में एक विशाल फायर प्लेस था</span>, <span lang="HI">जो ठंड में यहां रूकने
वालों के शरीर में ऊर्जा भर देता था।</span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span style="font-family: times;"><b><span lang="HI">विदेशी पेड़-पौधे करते थे आकर्षित-</span></b><span lang="HI">ब्लेगडान
के बाहरी परिसर में अधिकांश विदेशी प्रजाति के पेड़-पौधे लगाए गए थे। उस समय ऐसे
पेड़-पौधे बहुत कम देखने को मिलते थे। बताया जाता है कि पूरे परिसर में बागवानी का
उच्च स्तर था। कई बार लोग उत्सुकतावश इन पेड़-पौधे और उनमें खिलने वाले फूलों को
देखने आते थे।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span style="font-family: times;"><b><span lang="HI">विद्यार्थियों का उपद्रव भी झेला
ब्लेगडान ने-</span></b><span lang="HI">जबलपुर
विश्वविद्यालय के ठीक सामने ब्लेगडान की मौजूदगी कालांतर में परेशानी का सबब बनी।
सातवें-आठवें दशक में जबलपुर विश्वविद्यालय के छात्र उग्र हुआ करते थे। छात्रों
द्वारा ब्लेगडान के फोन का उपयोग करने से जो शुरुआत हुई वह बाद में यहां जबर्दस्ती
खाने-पीने</span>,
<span lang="HI">कमरों में कब्जा जमाने और कई बाद यहां की क्राकरी को ले जाने तक बात
पहुंच गई। वीके ब्राम्हणकर के मेम्बर सिविल इंजीनियरिंग के दौरान नीतिगत फैसला ले
कर एमपीईबी ने इस रेस्ट हाउस का अध्याय बंद कर दिया। </span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI"><span style="font-family: times;">ब्लेगडान का बंगला जबलपुर के इतिहास का महत्वपूर्ण
अध्याय रहा। कुछ दिन बाद यहां मल्टी काम्पलेक्स व अपार्टमेंट बनेगा। भविष्य में
रहने वालों को इस बात का आभास भी नहीं होगा कि जिस स्थान पर वे रह रहे हैं उसकी
नींव के नीचे कितने और इतिहास दर्ज हैं।🟦 </span></span></p></blockquote>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-74978014896300676452024-02-05T16:30:00.001+05:302024-02-05T16:30:07.486+05:30🔴 लेखक के जाने के बाद सहानुभूति में पुरस्कार देना उचित नहीं': ज्ञानरंजन <p style="text-align: justify;"><b>'लेखकों को पुरस्कार तब दिए जाते हैं, जब उसकी लोकस्वीकृति हो जाती है। कई बार ऐसे लोगों को पुरस्कार नहीं मिल पाता, जिन्हें मिलना चाहिए। अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि लेखक के दिवंगत होने के बाद सहानुभूति में उसे पुरस्कार दिया गया। ऐसा नहीं होना चाहिए।' यह बात पहल के संपादक व विख्यात कथाकार ज्ञानरंजन ने 3 फरवरी को बाँदा में पत्रकारों से बातचीत में व्यक्त की। ज्ञानरंजन को 4 फरवरी को बाँदा में प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान से सम्मानित किया गया। </b></p><p style="text-align: justify;">बांदा का सफर करते हुए मन में कौन सी छवियां कौंधी ? ज्ञानरंजन ने कहा- बनारस, कोलकाता की तरह बाँदा मुझे पहले से आकर्षित करता रहा है। यहां कवि केदारनाथ अग्रवाल और बहुत से रचनाकारों से मुलाकात होती रही है। ज्ञानरंजन ने कहा कि वे बाँदा को जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं। पहले और आज की चुनौतियों में कितना अंतर देखते हैं ? </p><p style="text-align: justify;">ज्ञानरंजन ने कहा- जब हमने कलम उठाई थी, तब अनगिनत लिखने वाले थे। मैंने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि मैं तारामंडल के नीचे एक आवारागर्द था। तब चुनौतियां बहुत थीं, जिनसे सीखने को मिला। नई तकनीक से लेखन की दुनिया में नई चुनौतियां सामने आई हैं, लेकिन तकनीक मनुष्यता के विरुद्ध नहीं है। मेरा लेखन जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लाया गया तो उसमें भी स्वागत हुआ।</p><p style="text-align: justify;">नए लेखक क्या व्यक्ति और समाज के हितों में समवेत चिंतन कर रहे हैं? ज्ञानरंजन का जवाब था-कोरस में भी एक आवाज अलग होती है। वही सच्ची आवाज होती है। केदारनाथ अग्रवाल की धरती पर उगी नई फसलों से कितना मुतमइन हैं? उन्होंने कहा मैं इलाहाबाद में पढ़ता था। वहां से बाँदा से दूरी बहुत कम है। अक्सर केदार जी से मिलने यहां आता था। उनके बाद से नए लेखकों की परंपरा चल रही है। सुंदर आयोजन होते हैं। यह अन्वेषण का विषय है कि इस छोटे से कस्बे में इतने साहित्यकार कैसे हुए।</p><p style="text-align: justify;">'पहल' की यात्रा को अब आप कैसे देखते हैं? ज्ञानरंजन ने कहा-आपातकाल के कुछ महीनों पहले ही पहल की शुरुआत की थी। उसका प्रकाशन बंद कराने को अनेक आक्रमण हुए, लेकिन पाठकों, लेखकों के सहयोग से पहल जारी रही। कोई अंक रोका नहीं। पहल में हर भारतीय भाषा का साहित्य छपता था। नए लेखकों को कोई संदेश ? ज्ञानरंजन ने कहा-हिन्दी में नए लेखकों का बड़ा कुनबा प्रवेश कर रहा है। अच्छे की पहचान कठिन हो गई है। पिछले दिनों अनिल यादव का यात्रा विवरण 'कीड़ाजड़ी' और चंदन पांडेय का उपान्यास 'कीर्तिगान'' प्रकाशित हुआ। यह रचनाएं शीर्ष पर हैं। यह सूची और भी आगे जा सकती है।🔷</p><p><br /></p><p><br /></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-8283296247587914872024-02-05T15:57:00.001+05:302024-02-05T16:33:32.495+05:30🔴समय की कोख से ही हमारी रचनाएं जन्म लेतीं: ज्ञानरंजन<p style="text-align: justify;"><b><i></i></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><i><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg29ZplVvHFcd01EIf82LorVpo9bDW7oCREBsND27IY-ptwiMkBv_7jEAW5PPWTHxOzRbR9kKRnRd2FZIbQGGtITbcM0j1e7A7d1Pi7d4LUI97yk2_Nr_lOYqf52kg4Z55QHDTRiGfDcvhZX8f9QwBx5uzB3FL76_2XzZ0jBugkDxf5j6FByYlibQrBh78u/s978/WhatsApp%20Image%202024-02-05%20at%204.26.02%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="601" data-original-width="978" height="246" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg29ZplVvHFcd01EIf82LorVpo9bDW7oCREBsND27IY-ptwiMkBv_7jEAW5PPWTHxOzRbR9kKRnRd2FZIbQGGtITbcM0j1e7A7d1Pi7d4LUI97yk2_Nr_lOYqf52kg4Z55QHDTRiGfDcvhZX8f9QwBx5uzB3FL76_2XzZ0jBugkDxf5j6FByYlibQrBh78u/w400-h246/WhatsApp%20Image%202024-02-05%20at%204.26.02%20PM.jpeg" width="400" /></a></i></b></div><b><i>बाँदा के बुद्धिजीवियों व कलाप्रेमियों द्वारा 2007 से प्रतिवर्ष प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान हिंदी कथा में योगदान के लिए दिया जाता है। इस वर्ष का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान पहल के संपादक व विख्यात कथाकार ज्ञानरंजन को उनके आजीवन कथा व सम्पादकीय योगदान के लिए 4 फरवरी को बाँदा में प्रतीक फाउंडेशन के तत्वावधान में एक कार्यक्रम में प्रदान किया गया।</i></b><p></p><p style="text-align: justify;"><b>ज्ञानरंजन ने सम्मानित होने के बाद वक्तव्य दिया। जो इस प्रकार है-</b></p><p style="text-align: justify;">प्रेमचंद स्मृति सम्मान के सदस्यों, मंच पर आसीन मित्रों और साथियों :</p><p style="text-align: justify;">प्रेमचंद के बारे में कुछ तितरी बितरी, तिनका तिनका बातें शुरूआत में रखूँगा, इसलिए भी कि मेरे सम्मान के साथ इस महान कथाकार का नाम जुड़ा है।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">सबसे पहले आपका ध्यान आकर्षित करूँगा कि मुंशी जी 1936 में दिवंगत हुए और संयोग से 1936 मेरा जन्म हुआ। हमारे पूर्वज बनारस के थे और मेरे स्व. पिता श्री रामनाथ सुमन की जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद से निकटता थी। मेरे पिता ने प्रेमचंद पर यत्र तत्र लिखा है, अपने संस्मरण में। जब मैं किशोर हुआ तो पिता की लाइब्रेरी में भटकते हुए मुझे उसमें प्रेमचंद का उपन्यास रंगभूमि मिला, जिसके भीतरी पृष्ठ पर लाल सियाही से प्रेमचंद का हस्ताक्षर था। बाद में शिवरानी देवी की किताब पढ़ने को मिली।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">अभी लगभग तीन चार वर्ष पूर्व जापान से मेरे सहपाठी और अभिन्न मित्र का फ़ोन आया और उन्होंने अपने पास कवि रत्न मीर की (मेरे पिता द्वारा लिखी) एक अंतिम दुर्लभ प्रति होने की सूचना दी, जो मेरे पास नहीं थी और जिसे उन्होंने मुझे डाक से भेज दी। यह पुस्तक, पुस्तक-भण्डार लहेरिया सराय, बिहार से प्रकाशित थी, जो काफ़ी दिनों पहले बंद हो चुका है। दुर्भाग्य से हमारे इस संवाद के बाद लक्ष्मीधर का जापान में निधन हुआ। इस सजिल्द पुस्तक की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी है और लगभग 75 वर्ष बाद कवि रत्न मीर का नया संस्करण ज्ञानपीठ ने छापा।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">सोवियत लैण्ड पुरस्कार से जुड़ी सोवियत रूस की यात्रा में मुझसे कई बार यह सवाल पूछा गया कि आप की कहानियाँ किस तरह प्रेमचंद की परम्परा से जु़ड़ी हैं। मैंने इसका विस्तार से जवाब दिया है।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">प्रेमचंद हमारे जीवन में कितने भीतर तक प्रवेश कर चुके हैं इसका एक रोचक किस्सा सुनिये। मेरी दादी सुखदेवी ने प्रेमचंद को समग्र कई कई बार पढ़ा था। उन्होंने किसी स्कूल या विद्यापीठ में पढ़ाई नहीं की थी पर प्रेमचंद की रचनाओं से वे दिलचस्प उद्धरण देती थीं। वे मेरी प्रिय थीं और हमारा परस्पर विनोदपूर्ण रिश्ता था। मैं उन्हें बूढ़ी काकी कहता था। वे भूख लगने पर तड़प उठती थीं, अपनी बहू यानी मेरी माँ पर शब्दबाण फेंकने लगती थीं। मेरे बाबा भोजपुरी बोलते थे और फारसी गणित के ज्ञाता थे। वे घर के बाहरी हिस्से में रहते थे और केवल भोजन के लिए आते थे। उनका जीवन ‘पूस की रात’ के हल्कू जैसा था। एक दिन वे ठिठुर ठिठुर के जाड़ों की रात में जलते हुए दिवंगत हो गये। वे सूखे पत्तों को इकट्ठा करके तापते थे।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">प्रेमचंद प्रसंग अभी समाप्त नहीं है। कई दिलचस्प संयोग हैं। इसलिए भी कि हम सभी प्रेमचंद की रचनाकार संतानें हैं। प्रेमचंद ने कहानियाँ लिखीं; हमने भी उनकी परम्परा में कुछ कहानियों को जोड़ा। प्रेमचंद ने प्रगतिशील संगठन की मशाल जलाई, हमने कई दशक तक प्रलेसं के पदाधिकारी के रूप में संगठन को मजबूत बनाने का काम किया। प्रेमचंद ने सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘हंस’ का अविस्मरणीय संपादन किया; हमने भी ‘पहल’ को चालीस वर्ष सम्पादित किया। जब ज्ञानपीठ ने मुझे हरिशंकर परसाई की रचनाओं का संकलन संपादन करने का दायित्व सौंपा तो मैंने उसका शीर्षक ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ दिया। उसके अनेक संस्करण हुए हैं।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">साथियों, उपरोक्त उदाहरण इसलिए ध्यान आकर्षित करने के योग्य हैं कि मैं एक लुम्पेन किशोर था। अपनी नौजवानी तक। और मैंने ‘तारामण्डल के नीचे एक आवारागर्द’ संस्मरण में इस बात को लिखा भी है। पर विचारधारा ने मुझे एक छोटे मोटे पर विश्वसनीय लेखक के रूप में स्वीकृति दी। पुरस्कार, सम्मान के मौक़े हमें यदा कदा छोटे मोटे जश्न करने की अनुमति देते हैं। मैं बांदा में अपने साथियों के इस जश्न में शामिल होकर ख़ुश हूँ। पश्चिमी भाषाओं की तरह हिन्दी में अपने लेखकों को सेलिब्रेट करने की प्रथा कुछ कम है। केवल पुरस्कारों से नहीं, हम दूसरे बहुत अन्य शानदार तरीक़ों से यह आयोजन अपने दूसरे अप्रतिम युवा लेखकों के लिए कर सकते हैं। यह मेरा सुझाव है।</p><p style="text-align: justify;">000 </p><p style="text-align: justify;">मेरी यह समझ है कि लेखक या किसी भी अन्य व्यक्ति के लिए उसका पिछला समय, उसका वर्तमान समय और उसका भावी समय बहुत अहमियत रखता है। इसमें हमारा परिवार, फिर शहर, फिर देश, फिर विश्व का समय शामिल है। समय की कोख से ही हमारी रचनाएँ जन्म लेती हैं। समय ही हमारी रचनात्मक बेचैनियों का सबब है। वह कभी हमें प्रफुल्ल करता है, कभी अधमरा। कभी वह हमारी ख़रीद फ़रोख़्त भी करता है। आज हमारा समय ख़रीद फ़रोख़्त से भरा है। इसी को हम बाज़ार भी कहते हैं। दुर्योग से मेरा प्रसव काल ख़त्म हो गया है, पर मैं समय का पीछा तो कर ही रहा हूँ। सरसरी तौर पर इसकी चर्चा करता हूँ। यह निरक्षरता का समय है। अगर रोग मानें तो इसे डिमेन्शिया और अलज़ाइमर का विस्फोटक समय भी कह सकते हैं।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">मोटी मोटी बातें देखिये। देखिये कि रोज़ जो लिखा जा रहा है, बोला जा रहा है, उसमें झूठ का प्रतिशत कितना है। असंख्य झूठ आपके देखते-देखते सच्चाइयों में तब्दील हो रहे हैं, या हो चुके हैं। सबसे ख़तरनाक दो शब्द लगते हैं - नया और विकास। ये शब्द धूर्तता से भरे हैं। निरंतर धूल झोंकी जा रही है। नया शब्दकोश, नये संग्रहालय, नया पाठ्यक्रम, नई शिक्षा, नई सड़कें, नये शहर, नया यातायात। यह सूची अनंत है। पहले ज़मीनों पर कब्ज़ा होता था अब धर्म पर कब्ज़ा है। अतीतवादी लोग ही अतीत पर प्रहार कर रहे हैं। आलोचना देशद्रोह है। कड़वी चीज़ें बर्दाश्त नहीं। लड्डू और दीये हमारे सबसे बड़े चित्र हैं। कथा कहानी के घीसू माधव विकराल रूप में पुनर्जीवित हो गये हैं। जनता सियारों के झुण्ड में बदल चुकी है। कुछ अलग आवाज़ें अगर हैं तो यू ट्यूब में घुसड़ गई हैं या फ़ेस बुक में। फिराक़ साहब का मशहूर शेर जीवित हो गया है – ‘हमीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात’। मज़ा ये है कि हम इसमें ख़ुश हैं, सफ़ल हैं। मध्यवर्ग ने वास्तविक जनता को अदृश्य बना दिया है। जबकि मोटा मोटी यह समय की एक आउटर लाइन मात्र है। उसका कैरीकेचर। यह बालकृष्ण मुख का ब्रह्माण्ड नहीं है। मित्रों, इसीलिए मैं आग्रह करता हूँ आप सबसे, जो लिखते हैं, या पढ़ते हैं, या कुछ भी नहीं करते; उन्हें अपने समय के उजले-अंधेरे झरोखों में झाँकना चाहिए। इससे परिवर्तन हो या न हो तसल्ली मिलती है और आत्मरक्षा होती है। अगर हमारा समय हमें होशियार, चौकन्ना, बनावटी और काइयाँ बना रहा है तो हमें सावधान हो जाना चाहिए।</p><p style="text-align: justify;">देवीप्रसाद मिश्र की एक ताज़ा कविता का नया जुमला है : कि दो गुजराती देश को बेच रहे हैं और दो गुजराती देश को ख़रीद रहे हैं। दोस्तों यह केवल दो चार व्यक्तियों का प्रसंग नहीं है, इसके निहितार्थ गहरे और भयानक हैं। इसे व्यंग्य भी न समझें।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">दोस्तों, मैं बार-बार ‘समय’ शब्द को रिपीट कर रहा हूँ। इसलिए कि समय विशाल, विकराल और जटिल है। मैं उसे एक दो उदाहरणों से कैसै परिभाषित करूँ...? पर, मुझे समय की शिला को चूर चूर करना है। जो भी चाहे शिला-लेख बना लेता है और उसे बदल देता है। इसलिए पहले मैं उसके टुकड़े करूँगा और फिर आगे बढ़ूँगा। एक टुकड़ा उदाहरण है हमारे समय का, जिसे राष्ट्रीयकरण बनाम निजीकरण कहते हैं। यह मामूली जुमला नहीं है। इसी में सारी दुनिया उलट-पलट हो रही है। यह संगीन यात्रा समय है। आप से आग्रह है मेरी यात्रा कहानी पढ़ें। आज का दृश्य देखें - गेट मीटिंग हो रही है... काली पट्टी पहनी जा रही है... पुराने नारों को शोर है…, क्रमशः ये शस्त्र बेकार हो चुके हैं। ये पाषाण-कालीन लगते हैं। पर मूर्ख राजनीति इसकी व्यर्थता को बता नहीं पा रही है। यही समय है; दुभाग्यपूर्ण समय; सुनहरा समय नहीं। हरिशंकर परसाई की शैली में अगर मैं कहानी बनाऊँ वे वह ऐसी होगी :</p><p style="text-align: justify;">आप कहते हैं कि हमारा यह सामान, हमारी यह सम्पत्ति ले लेंगे। वो कहते हैं कि नहीं लेंगे। ख़रीदने की उनकी शर्तें हैं। उनका कहना है कि पहले ढाँचे को उन्नत करो, या पुराना ढाँचा गिराओ और नया बनाओ। नई मशीनें लगाओ, बाहर से बुलाओ। श्रमिकों की छटनी करो; इनकी जनसंख्या ज़रूरत से अधिक है। ज़मीनें अधिग्रहीत करो। प्लेटफॉर्म बढ़ाओ, पटरियाँ बिछाओ, रेलगाड़ी के डब्बों को सुखद और शानदार करो, हर ओर वंदे वंदे चलाओ, ड्रेस कोड सुन्दर करो, प्लेटफॉर्म पर लिफ्ट और एक्सलेरेटर लगाओ, उसे मॉल की तरह सजाओ, जहाँ यात्री आराम से परफ्यूम, पेस्ट्री, फ़ोटोफ्रेम और मदिरा ख़रीद सकें। सामान के बोझ के लिए ट्रालियाँ लगाओ, कुलियों को हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे सभ्यता पर बदनुमा दाग़ हैं। उसके बाद हमारे संतुष्ट होने पर हस्तांतरण होगा।</p><p style="text-align: justify;">एक भव्य समारोह में, एक देश प्रमुख और तमाम सी.ई.ओ. की हाज़िरी में सजे हुए मंच पर आपके घर की एक विशाल काल्पनिक चाभी उन्हें सौंपी जायेगी और आपको घर के बाहर कर दिया जायेगा। आपका काम है ताली बजाना और ठुमरी गाना। यही है साथियों, राष्ट्रीयकरण और निजीकरण का समय।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">बहुत सारे विविध उदाहरण दिये जा सकते हैं, मेरे साथियों; पर ऐसा करते जाने से समय असमय हो जायेगा।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">हमारे समय की सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि हमने अस्वीकार करना बंद कर दिया है। हमारी गोद स्वीकृतियों, उपहारों, फूल-फलों से भरी है। अभी मैं आपको कुछ उदाहरण दूँगा, लेखकों का, जिन्होंने अस्वीकृतियों के प्रतिमान बनाए।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">अमेरिका के बारे में लोर्का कहते हैं कि यह डरावना और शैतान है। यहाँ खो जाना लाज़िम है। यह देश संसार का सबसे बड़ा झूठ है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने लिखा है - साहित्यिक न्यूयार्क टेपवर्म से भरी बोतल है जिसमें वे एक-दूसरे को खाते रहते हैं। मार्क ट्वेन लिखते हैं कि बोस्टन में पूछा जाता है - आप कितने ज्ञानवान हैं? न्यूयार्क में पूछा जाता है कि - आपकी कूबत, क़ीमत क्या है?</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">एक अमरीकी लेखक लिखता है कि 6 करोड़ लोगों का यह शहर न्यूयार्क कौतूहल और संदिग्धता से भरा हुआ; यहाँ कोई लैण्डस्केप नहीं; सभी लैण्डमार्क हैं। इस शहर में कोई बूढ़ा नहीं होता। बूढ़े भी जवान हैं। यहाँ विपन्न को अतीत के डस्टबिन में डाल दिया जाता है।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">एनरैण्ड के फाउंटेन हेड में मैंने जो पढ़ा था, आपको यथावत् कोट कर रहा हूँ : -</p><p style="text-align: justify;">‘‘न्यूयार्क के डिटेल्स एकत्र करना असंभव है। वे इतने गडमड हैं कि उन्हें एकबारगी स्वतंत्र नहीं देखा जा सकता। न्यूयार्क की विवरणिका नहीं बनाई जा सकती। यह दुनिया भगवान से टकरा रही है। न्यूयार्क के आसमान पर मनुष्य निर्मित इच्छाएँ हैं। हमें और किस धर्म की ज़रूरत है।’’</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">मैंने लगभग एक दर्जन बड़े लेखकों के वाक्यों को एकत्र किया है जो शहरों के बारे में हैं। प्रसिद्ध शिल्पी जिसने चंडीगढ़ की परिकल्पना की थी, ने कहा कि स्काई क्रीपर्स धनोपार्जन की मशीनें हैं।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">क्या हमारे यहाँ रचनाकारों, शिल्पियों और वास्तुकारों ने छोटे-बड़े, नये-पुराने किसी ने भी शहरों के बारे में - यानी विकास के ऐसे छायाचित्र और नक्शों के बारे में टिप्पणी की है? हमने घीसू-माधव द्वारा भेजी गई स्मार्ट योजनाओं का जम कर स्वागत किया और ठुमरी गाई। अब सब बदरंग हो चुका है और भ्रष्टाचार का सबब है। इसने वास्तविक जनता को देश से दूर ठेल दिया है। शहरीकरण की आंधी में कश्मीर से कन्याकुमारी तक प्राकृतिक सौन्दर्य के असंख्य चित्र लुप्त हो गये हैं। यह पहले से हो रहा था; मद्धम...मद्धम...! पर अब यह बुलेट की तेज़ी से हो रहा है।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">हमारी राजधानी दिल्ली जो दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नगरी है, राजसत्ता की मनमानी रोशनियों से धधक रही है। मुझे याद आता है मिर्ज़ा ग़ालिब और रामधारीसिंह दिनकर की कविता ने ही दिल्ली पर सवाल उठाए; पर यह सूची बहुत संक्षिप्त है। ग़ालिब के अशआर अभी भी धूमिल नहीं हुए और दिनकर की लम्बी कविता दिल्ली को लोग भूल गये। ये सब मैं आपको इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि ये हमारे समय के सवाल हैं। और शुरू में मैंने कहा था कि एक लेखक को अपने समय की पड़ताल करनी चाहिए। अपने गुज़श्ता, वर्तमान और भावी समय की पहचान करनी चाहिए। यह हमारे लेखन का एक अनिवार्य हिस्सा है। क्या हम चौकन्नापन, काइयाँपन और कृत्रिमताओं को देख रहे हैं। शास्ता के मुक़ाबिले शासित जनता ज़ादा अपराधी है।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">पुरस्कृत व्यक्ति थोड़ा वाचाल हो जाता है; इसलिए मैंने कुछ अधिक कहा। मैं इतना बड़ा लेखक नहीं हूँ कि पुरस्कार को आलू का बोरा कह कर इतिश्री कर सकूँ।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">बहरहाल, जो व्यक्ति जिन शीर्षकों के अन्तर्गत पुरस्कृत हुआ है उसे आलोचक या अध्यापक की तरह नहीं बोलना चाहिए। उसका क्षेत्रफल ही अलग है। वह अपनी कहानियों से उत्पन्न दुनिया, जिसमें आप सब शामिल हैं, नये अन्वेषण करेगा। वह अपनी कहानियों में बार-बार लौट सकता है। क्योंकि कहानियाँ मरती या समाप्त नहीं हो जातीं। वे नये गलियारे बना सकती हैं। मुझे आपको एक उदाहरण देना है। इलाहाबाद कॉफ़ी हाउस में उन दिनों हमारा अड्डा था। अलग टेबुल पर बैठने वाले आलोचक विजयदेव नारायण साही याद आते हैं। संयोग से यह उनका जन्मशती वर्ष भी है। साही जी जबलपुर परसाई जी से मिलने आये थे। बारिश हो रही थी। हम एक रिक्शे पर बैठ कर बतिया रहे थे। कॉफ़ी हाउस में हम दोनों ने कभी एक टेबुल शेयर नहीं किया, पर यहाँ हम एक रिक्शे पर थे। साही जी ने कहा - ज्ञान तुम्हारी कहानी ‘बहिर्गमन’ अभी बची है, ख़त्म नहीं हुई है। मेरा सुझाव है कि जहाँ ‘बहिर्गमन’ समाप्त होती है, उसके आगे उसका दूसरा भाग लिखो। ‘मनोहर’ का परदेस में क्या हुआ, वह लौटा या मर गया। कुल मिला कर उसके बकाया जीवन का क्या हुआ। दूसरा भाग इस अंधकार को फाड़ने वाली कहानी हो सकती है। ‘बहिगर्मन’ का दूसरा हिस्सा मैंने लिखने की कोशिश की, पर बात बनी नहीं। मेरे पास मृत संजीवनी सुरा नहीं थी या हनुमान जी वाली बूटी, जो कहानी को फिर से जीवित कर पाती। मैं काहिल भी हूँ, संभवतः आलस्य इस काम में बाधा बना हो। जो भी हो अब मैं आपके सामने हूँ।</p><p style="text-align: justify;">000</p><p style="text-align: justify;">लम्बे वक्तव्य से बचते हुए अंत में, दोस्तों, मेरा मानना है कि आपने मुझे पुरस्कृत किया, इससे साबित होता है कि आपको पुरानी दुनिया नापसंद नहीं है। संभव है कि आप यह भी मानते हों कि विकास की वर्तमान अवधारणा एक छद्म अवधारणा है। वाल्टर बैंजामिन भी अपनी समीक्षा में लगभग यही निष्कर्ष निकालते हैं। हमने पश्चिम की नक़ल करते हुए उसका आवरण सनातन बनाने का प्रयास किया है। अगर पुरानी दुनिया से हमें आगामी दुनिया में आना ही है तो हमारे स्वप्न, हमारे आग्रह, हमारी कामनाएँ भिन्न होंगी। पुराने से हमारा तात्पर्य यह नहीं है कि हम लालटेन की वापसी चाहते हैं। <b>- ज्ञानरंजन </b><span style="text-align: left;"><b>🔷</b></span></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-61571036212886371512024-02-02T15:44:00.000+05:302024-02-02T15:44:13.829+05:30🔴अभी थके नहीं हैं ज्ञानरंजन<h3 style="text-align: justify;"></h3><h4><span style="font-size: small;"><b><span style="font-family: arial;">(<span style="background-color: white; text-align: left;">वर्ष 2024 का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान पहल के संपादक व विख्यात कथाकार </span></span></b><b><span style="font-family: arial;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjg7I9DmHesZy9_7xnvfiHxQtR0Jj_IO5au60VhyphenhyphenfP1QCvEmWbkD1VfkzbjHNxjALJDPRfFExPFCnP8vBUwLW19QhpCf2jdM0cZbEz803_s6DgxoWbb5s9dSiQMh53V-RFtK4MsCY0asxiKkBVbKFxe-zbrtTaeFKIbPKXiYuTMBSgvlo8SAwZthmG6RPjV/s1600/WhatsApp%20Image%202024-01-23%20at%207.44.42%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1066" data-original-width="1600" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjg7I9DmHesZy9_7xnvfiHxQtR0Jj_IO5au60VhyphenhyphenfP1QCvEmWbkD1VfkzbjHNxjALJDPRfFExPFCnP8vBUwLW19QhpCf2jdM0cZbEz803_s6DgxoWbb5s9dSiQMh53V-RFtK4MsCY0asxiKkBVbKFxe-zbrtTaeFKIbPKXiYuTMBSgvlo8SAwZthmG6RPjV/w400-h266/WhatsApp%20Image%202024-01-23%20at%207.44.42%20PM.jpeg" width="400" /></a></span></b><b><span style="font-family: arial;">ज्ञानरंजन को उनके आजीवन कथा व सम्पादकीय योगदान के लिए देने का निर्णय लिया गया है। 4 फरवरी को बाँदा में प्रतीक फाउंडेशन के तत्वावधान में एक कार्यक्रम में ज्ञानरंजन को 31000 रूपए की सम्मान निधि व स्मृति चिह्न भेंट कर सम्मानित किया जाएगा।)</span></b></span></h4><span style="font-family: arial; font-size: small; font-weight: normal;">88 साल के ज्ञानरंजन कभी थकते नहीं। उनके लेखन व कर्म में एक युवापन की जो छवि है वह लोगों को आकर्षित करती है। युवा तो उनके मुरीद हैं। इसमें सभी वर्ग के लोग हैं। चाहे वह लेखक हो या चाहे संस्कृतिकर्मी या आम विद्यार्थी जो भी उनसे पहली बार मिलता है, उसके बाद बार-बार उनसे मिलना चाहता है। युवा रचनाशीलता की पूरी ज़मात उनके सम्मोहन में बंधी हुई है। ज्ञानरंजन समकालीन परिदृश्य में सबसे सक्रिय व्यक्तित्व हैं। इसके पीछे निष्ठा भरी अटूट सक्रियता का लम्बा अतीत है। लगभग 60 वर्ष से अपनी रचनात्मकता से समकालीन परिदृश्य में ज्ञानरंजन की छवि नायक की है।</span><p style="text-align: left;"></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">ज्ञानरंजन की कीर्ति का मूल आधार उनकी कहानियां हैं। उनकी कहानियों ने हिन्दी कहानी की दिशा ही बदल दी। ज्ञानरंजन ने असाधारण रचनात्मकता से कहानी को नई कहानी से मुक्त करने का ऐतिहासिक कार्य किया है। उन्होंने एक बिल्कुल नई कथा भूमि रची है। पचास वर्षों के अंतराल के बावजूद उनकी कहानियों में विलक्षण ताजगी व सम्मोहन उपस्थित है। ज्ञानरंजन की यह निजी विशेषता है कि वे शिखर पर पहुंच कर अपनी रचनात्मक भूमिका में गुणात्मक परिवर्तन कर लेते हैं। कहानियों में अपना अनूठा प्रतिमान स्थापित करने के बाद ज्ञानरंजन ने स्वयं को कहानी लेखन से दूर कर लिया। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">ज्ञानरंजन की भाषा ही है ऐसी है जो सब को आकर्षित करती है। उनका गद्य विलक्षण है। उनका शब्दों का चयन व वाक्यों की गति से लोग ईर्ष्या करते हैं। ज्ञानरंजन की भाषा सिर्फ कहानी तक सीमित नहीं है बल्कि गद्येत्तर लेखन में उनकी भाषा जादूई है। उनके छोटे से छोटे वक्तव्य और व्यक्तिगत रूप से लिखे गए पत्र अपनी भाषा का जादू बिखेर देते हैं।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">ज्ञानरंजन की दूसरी पारी पहल के प्रकाशन से 1973 में शुरु हुई। ज्ञानरंजन ने पहल का प्रकाशन प्रगतिशील परम्परा को वैचारिक व रचनात्मक दोनों स्तरों पर प्रभावशाली बनाने के लिए किया। पहल का आदर्श वाक्य ही था-इस महादेश की चेतना के वैज्ञानिक विकास के लक्ष्य और संकल्प के लिए प्रतिबद्ध। पहल एशिया महाद्वीप में वैज्ञानिक विचारों के विकास संकल्प को पूर्ण करने वाली एक अनिवार्य पत्रिका बनी। पहल का 125 अंक तक प्रकाशन हुआ तब तक इसकी प्रगतिशील मूल्यों के प्रति दृढ़ आस्था रही। बिना किसी संस्थान और संसाधन के पहल ने अपनी यात्रा तमाम प्रतिकूलता व अभाव के बावजूद सक्रियता से बनाए रखी। पहल एक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में स्वीकार की गई। ज्ञानरंजन ने हमेशा सामाजिक सरोकारों से ही विकसित साहित्य और सांस्कृतिक मूल्यों की हिमायत की। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">पहल की सबसे बड़ी विशेषता इसमें छपने वाली सामग्री की समकालीनता रही। पहल के प्रत्येक अंक में साहित्य व विचार की इतनी खुराक रहती थी कि पढ़ने वाले को तीन चार माह तो लग ही जाते थे। तब तक वह अंक पूरा होता नया आ जाता था। कहानी व कविता को ले कर पहल के चयन अप्रतिम है। बीच बीच में पहल द्वारा पुस्तिकाओं का प्रकाशन अद्भुत रहा। पहल सम्मान का जिक्र करना भी ज़रूरी हो जाता है। पहल सम्मान दरअसल पहल परिवार की आत्मीय सामूहिकता का ऐसा उदाहरण है जिसकी मिसाल हिन्दी में दूसरी नहीं।</span>🔷 </p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-53721816314500422602024-01-11T17:56:00.000+05:302024-01-11T17:56:29.298+05:30श्रद्धांजलि: मलय एक महत्वपूर्ण कवि जिनकी हमेशा उपेक्षा की गई <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzrV2hm0ew5LlEXRi5En5y6hNQ6JgH0FsFWl1jwIB6k8cgAfxOaxnTb6qmOLLUfx4hhnE2Nn7oifkFyEB30GjnVbo_CVkuVJwN3PqWUk4El4-EvCy830H0b-CDQ6HB1MEbWTTScMtGeCgbuWU-yEDIxI_5dR_6a6CaE3R3hGev46jwVofwBTDw7aTifNR-/s365/WhatsApp%20Image%202024-01-11%20at%205.44.33%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="365" data-original-width="212" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzrV2hm0ew5LlEXRi5En5y6hNQ6JgH0FsFWl1jwIB6k8cgAfxOaxnTb6qmOLLUfx4hhnE2Nn7oifkFyEB30GjnVbo_CVkuVJwN3PqWUk4El4-EvCy830H0b-CDQ6HB1MEbWTTScMtGeCgbuWU-yEDIxI_5dR_6a6CaE3R3hGev46jwVofwBTDw7aTifNR-/s320/WhatsApp%20Image%202024-01-11%20at%205.44.33%20PM.jpeg" width="186" /></a></div><div style="text-align: justify;">प्रगतिशील कविता के अग्रणी कवि मलय का 9 जनवरी को जबलपुर में 94 वर्ष की आयु में जबलपुर में निधन हो गया। वे हिन्दी साहित्य में मुक्तिबोध युगीन अंतिम कवि थे। डा. मलय ने अविभाजित मध्यप्रदेश में विभिन्न शासकीय कॉलेज में हिन्दी विषय का अध्यापन किया। इस दौरान राजनांदगांव में मलय गजानन माधव मुक्तिबोध के सम्पर्क में आए। इसके बाद कविता मलय के जीवन की जिजीविषा बन गई। मलय को नयी कविता के बाद और अकविता से पहले के कवि माना जाता है। मलय को इसलिए भी याद करना चाहिए क्योंकि वे परसाई रचनावली के संपादकों में से एक थे। परसाई के व्यंग्यशास्त्र को ध्यान मे रखकर व्यंग्य का सौंदर्य शास्त्र लिखना हिन्दी साहित्य में उनका योगदान माना जाता है।</div><p></p><p style="text-align: justify;">मलय की शुरुआती कविताएँ लयबद्ध व छन्दबद्ध थीं और बाद में वे मुक्त कविता की ओर बढ़े और फिर रूके नहीं। मुक्तिबोध ने मलय की कविताओं पर लम्बा पत्र लिखा था जो मुक्तिबोध रचनावली में प्रकाशित है। इस पत्र को संपादकों ने पहले गलत पाठ के साथ छाप दिया था लेकिन अब रचनावली के नए संस्करण में सही पाठ के साथ प्रकाशित हुआ। गलत पाठ ने मलय का तब तक बहुत नुकसान कर दिया था। </p><p style="text-align: justify;">मलय हिन्दी के एक ऐसे विरल और महत्वपूर्ण कवि हैं, जिनकी लगातार उपेक्षा की गई और हिंदी आलोचना ने उनके साथ भी कभी समुचित न्याय नहीं किया। वे इन सबसे मुक्त होकर लगातार कविता लिखते रहे। इस कारण से उनकी कविताओं में नैसर्गिक प्रभाव कायम रहा है। मलय ने हर बार नवीनता और अनुभव की उच्चतर सघनता के साथ नई कविताएँ लिखीं।</p><p style="text-align: justify;">यह सच है कि हिन्दी के नामवर आलोचकों ने मलय को कभी तवज्जो नहीं दी। आलोचकों ने उन्हें नकारा, पर हिन्दी के कवियों ने उन्हें स्वीकारा और खूब मान दिया। मलय को हिन्दी के कवियों का खूब प्यार व सम्मान मिला। मलय पर वरिष्ठ के साथ युवा कवियों ने लिखा और इसे महत्वपूर्ण माना गया। इन सारे आलेखों को कवि ओम भारती ने संपादक के रूप में एक पुस्तक के रूप में निकाल कर बड़ा व महत्वपूर्ण काम किया। इस पुस्तक का शीर्षक है- ‘जीता हूँ सूरज की तरह’। </p><p style="text-align: justify;">कवि नरेंद्र जैन ने ‘जबलपुर में मलय’ शीर्षक कविता में गहरा व्यंग्य किया है-</p><p style="text-align: justify;"><b>“आलोचक दिल्ली में विराजे हैं</b></p><p style="text-align: justify;"><b>जबलपुर में मलय कविता लिख रहे हैं</b></p><p style="text-align: justify;">आलोचक द्वारा न पढ़े जाने से</p><p style="text-align: justify;">क्या बना-बिगड़ा कविता का?</p><p style="text-align: justify;">जबकि आलोचक</p><p style="text-align: justify;">अपने औज़ार तेज करने से</p><p style="text-align: justify;">हाथ धो बैठे</p><p style="text-align: justify;"><br /></p><p style="text-align: justify;">यहाँ</p><p style="text-align: justify;">भयावह मोर्चा लग चुका है आलोचना को</p><p style="text-align: justify;">वहाँ</p><p style="text-align: justify;">जबलपुर में मलय</p><p style="text-align: justify;">कविता में डूबे हैं.” </p><p style="text-align: left;"><span style="text-align: justify;"><br /></span></p><p style="text-align: left;"><span style="text-align: justify;">मलय की कविता की बात की जाए तो वह उसमें नई भाषा है। मलय का शिल्प सीधा नहीं था. थोड़ा आड़ा-तिरछा था। पर वह सब उनका सचेत चयन था। उन्होंने कठिन और लंबी राह ही चुनी थी। मलय की कविता में अनगढ़ता का सौंदर्य है। सरलता और सादगी का सौंदर्य है। इसमें काट-छाँट, तराश, करीनापन नहीं है, बल्कि ठेठ हिंदुस्तानी का जीवन सौन्दर्य बोध यहाँ झलक मारता है। मलय की काव्य-संवेदनाओं में कहीं कोई दरार नहीं मिलेगी, जो उनकी सरल-सिधाई और ईमानदारी का प्रमाण भी है। मलय की काव्य यात्रा कभी पूरी </span><span style="text-align: justify;">न होने वाली एक कविता की ही अनवरत यात्रा है। यह यात्रा अँधेरे से उजाले की ओर अनवरत अग्रसर होने की यात्रा रही है। उनकी यात्रा अँधेरे से लड़कर, अँधेरे को चीरकर, प्रकाश की ओर आने की एक जिद्दी यात्रा है। यह मलय की जिजीविषा के कारण ही संभव हो पाई है। </span></p><p style="text-align: justify;">मलय के प्रकाशित 13 काव्य संग्रह हैं। उनका आलोचनात्मक कार्य व्यंग्य का सौंदर्य शास्त्र काफ़ी सराहा व महत्वपूर्ण माना गया है। जीता हूँ सूरज की तरह (मलय पर केन्द्रित मूल्यांकन परक आलेखों, साक्षात्कारों एवं कुछ अन्य सामग्रियों का संकलन) पिछले दिनों प्रकाशित हुआ था। मलय को सप्तऋषि सम्मान, मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के अखिल भारतीय भवानी प्रसाद मिश्र कृति पुरस्कार, मध्यप्रदेश साहित्य सम्मेलन का भवभूति अलंकरण, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी का चन्द्रावती शुक्ल पुरस्कार व हरिशंकर परसाई सम्मान से सम्मानित किया गया था।</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-38502781798381131042024-01-02T14:40:00.002+05:302024-01-02T15:09:02.884+05:30🔴जबलपुर की 93 साल पुरानी भट्टी में बने रम केक के क्यों हैं दीवाने लोग<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiAbpM_dM4Kq2pPdg7s7IVIrsNbeotN1ysruVeQSukCUBSvEyUPCNgBIOiMrtR0n37MYnU0RLe6MPH5qIMo6KeG6oTEP13XGMtyx4KEn0k1IvYvLIyFZJVaB4OjsOaXJy58gxQNPiKATAOFjMasAZRIlzPLVXME9-Ij1o01cFvLoOJ2MPFCDtegr7xz19m1/s1600/Victor%20.jpeg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1600" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiAbpM_dM4Kq2pPdg7s7IVIrsNbeotN1ysruVeQSukCUBSvEyUPCNgBIOiMrtR0n37MYnU0RLe6MPH5qIMo6KeG6oTEP13XGMtyx4KEn0k1IvYvLIyFZJVaB4OjsOaXJy58gxQNPiKATAOFjMasAZRIlzPLVXME9-Ij1o01cFvLoOJ2MPFCDtegr7xz19m1/s320/Victor%20.jpeg" width="320" /></a></div><span style="font-family: arial;"><div style="text-align: justify;">केक अब वैश्विक हो गया। खुशी का कोई भी मौका आता है लोग केक काटने लगते हैं। केक की बात आती है तो कुछ लोग अंडे के कारण नाक सिकोड़ लेते हैं लेकिन ऐसे लोगों के लिए बिना अंडे का केक बना कर सारी समस्या का समाधान कर दिया गया। </div></span><p></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">इस समय क्रिसमस और नया साल का मनाने के लिए रोज पार्टियां हो रही है और नए प्लान बनाए जा रहे हैं। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">केक और वह भी रम (वाइन) केक की बात हो..और जबलपुर का ज़िक्र ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। केक जबलपुर की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन गया है।क्रिसमस और न्यू ईयर सेलिब्रेशन के लिए जबलपुर के रम केक की मांग इतनी है कि एक महीने पहले से ऑर्डर लिए जाने लगते हैं। ब्रिटिश काल शुरू हुए इस केक की मांग अब प्रदेश से बाहर देश-विदेश तक से आ रही है। आयताकार आकार में तैयार होने वाला यह केक आज भी 93 साल पहले बनी भट्टी में सिंकता है। इसकी खास बात यह है कि यह तीन महीने तक खराब नहीं होता। केक लंबे समय खाया जा सके इसलिए इसमें क्रीम नहीं मिलाई जाती और न ही किसी केमिकल का उपयोग किया जाता है। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">गोवा के रहने वाले होरी विक्टर और उनकी पत्नी कैरोलीना जबलपुर में रम केक बनाया करते थे। इनके बनाए केक के ब्रिटिश अफसर दीवाने थे। गोवा से जब ये ब्रिटिश अफसर जबलपुर आए, तो उन्हें अपने जीवन में रम केक की कमी खलने लगी। ब्रिटिश अफसरों ने होरी विक्टर को जबलपुर बुलवा लिया। 1930 में विक्टर पत्नी कैरोलिना के साथ जबलपुर आ गए। यहां उन्होंने सिविल लाइन में डिलाइट टॉकीज के पास एक छोटी सी बेकरी में वाइन केक बनाना शुरु कर दी। अंग्रेजों के साथ भारतीयों ने धीरे-धीरे वाइन केक खाना शुरु कर दी। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">1947 में देश की आजादी के साथ ही विक्टर ने जबलपुर में बेकरी का व्यवसाय शुरू किया। बेकरी में केक बना कर वे बाज़ार में बेचने लगे। उस समय एक पाउंड केक की कीमत दो रूपए रखी गई। 76 साल में आधा किलो केक की कीमत अब 350 रूपए हो गई। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">रम केक की शुरुआत करने वाले होरी विक्टर का 1995 में देहांत हो गया। उसके बाद उनके परिवार ने बेकरी की जिम्मेदारी संभाल ली। होरी विक्टर की एक पहचान यह भी थी कि वे फुटबाल के उत्कृष्ट खिलाड़ी थे। जबलपुर के मद्रास इलेवन से उन्होंने लंबे समय तक फुटबाल खेली। बाद में होरी विक्टर मद्रास इलेवन के कर्ताधर्ता रहे। वे फुटबाल के नेशनल रेफरी भी थे। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">होरी विक्टर के पुत्र रिलेश डेविड विक्टर बेकरी संभालते हैं। क्रिसमस और फिर नए साल 1 जनवरी को दो दिन रम केक की खूब मांग रहती है। महीने भर पहले ही हजारों ऑर्डर आ जाते हैं। इसे पूरा करने के लिए विक्टर परिवार 20-20 घंटे तक पारम्परिक भट्टी में जुटा रहता है। केक में अच्छी क्वालिटी की रम मिलाई जाती है। रम केक बनाने की तैयारी एक दिन पहले से की जाती है। एक निश्चित मात्रा में रम मिलाने के बाद फ्रूट्स को अच्छे से फेंटा जाता है। इसके बाद बटर, अंडा, गरम-मसाला, मैदा और अन्य सामान मिलाया जाता है। तैयार केक के मिश्रण को गरम भट्टी में करीब एक से तीन घंटे तक के लिए सेंका जाता है। इस दौरान केक बेक करने वाले की निगाह पूरे समय भट्टी पर इसलिए जमी रहती है कि कहीं केक कच्ची न रह जाए या ज्यादा न सिक जाए। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">केक बनाते वक्त उतनी ही रम का उपयोग किया जाता है, जिसमें कि बस थोड़ा सा स्वाद आए। बेकरी की भट्टी में एक बार में 90 किलो केक तैयार किया जा सकता है। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="font-family: arial;">छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी को भी यह वाइन केक बहुत पसंद था।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="font-family: arial;">केक के शौकीन स्वाद अनुसार भी अपनी केक बनवा सकते हैं। यहां सिर्फ रम केक ही नहीं बनता बल्कि होरी विक्टर की बेकरी में सभी का ध्यान रखा जाता है। बेकरी में वलनट, पाइनेप्पल, प्लेन केक भी बनते हैं। यदि आप चाहते हैं तो पूरा समान दे कर अपनी आंखों के सामने केक बनवा सकते हैं। आप के सामने भट्टी में केक बना कर पेश कर दिया जाएगा।</span><span style="text-align: left;"><span style="font-family: arial;">🔷 </span></span><span style="text-align: left;"><span style="font-family: arial;"><b>(फोटो: होरी व कैरोलिन विक्टर, 93 साल पुरानी भट्टी के साथ रिलेश डेविड विक्टर और वाइन केक) </b></span></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="text-align: left;"><span style="font-family: arial;"><br /></span></span></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-55719525464458771412023-12-15T13:16:00.000+05:302023-12-15T13:16:14.616+05:30🔴 वक्त बदलता है और किसी के लिए रुकता नहीं की तर्ज़ पर घंटा घर के 104 साल <p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyxqcrBzm8CDiu7DTd4vfeQ-L-lFLmSm4zSbMIreVNflbjOfDTSPgWgQqNrccZ1wDprwY9pS9e5fwKUHy5HQaBCDfhUO4T46ZOHKJkbkHNLwk4emjv-blUyT5bHr2S_IZjUb3NjdhH7cF7xjFtlf2gNeBCoLTXcxhFd9LolYjl791eFiBmQnJlVjdJZQ1O/s1280/WhatsApp%20Image%202023-12-15%20at%2011.29.02%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="1280" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyxqcrBzm8CDiu7DTd4vfeQ-L-lFLmSm4zSbMIreVNflbjOfDTSPgWgQqNrccZ1wDprwY9pS9e5fwKUHy5HQaBCDfhUO4T46ZOHKJkbkHNLwk4emjv-blUyT5bHr2S_IZjUb3NjdhH7cF7xjFtlf2gNeBCoLTXcxhFd9LolYjl791eFiBmQnJlVjdJZQ1O/w320-h320/WhatsApp%20Image%202023-12-15%20at%2011.29.02%20AM.jpeg" width="320" /></a></div><span lang="HI" style="line-height: 107%;"><div style="text-align: justify;"><p class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">कहते हैं</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"> '<span lang="HI">वक्त बदलता है और
किसी के लिए रुकता नहीं है</span>'<span lang="HI">। आज घंटाघरों के अलावा कलाई पर
डिजिटल घड़ी एक फैशन या जीवनशैली का सहायक उपकरण बन गई है। अब जब हर किसी के पास मोबाइल
फोन</span>, <span lang="HI">लैपटॉप और हर इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस पर घड़ी उपलब्ध है</span>,
<span lang="HI">तो कौन घड़ी खरीदने पर पैसा खर्च करना चाहता है</span>? <span lang="HI">लेकिन सालों पहले बनाए गए घंटा घरों का अपना महत्व है। स्वतंत्रता
आंदोलनों के दौरान घंटा घर सार्वजनिक बैठकों का स्थान रहता था। नेताजी सुभाष चंद्र
बोस ने 1930 में घंटा घर में स्वतंत्रता सेनानियों की बैठकें लिया करते थे। उन
दिनों स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा बनाए और गाए गए गीतों में </span>'<span lang="HI">घंटाघर</span>' <span lang="HI">शब्द बहुत लोकप्रिय हुआ। ज़रा इस गीत पर गौर
कर लें-<o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span lang="HI"><br /></span></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">घंटा
घर की चार घड़ी</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">चारों
में ज़ंजीर पड़ी</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">जब
भी घंटा बजता था</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">खड़ा
मुसाफ़िर हंसता था</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">हंसता
था वो बेधड़क</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">आगे
देखो नई सड़क</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">नई
सड़क पर बोआ बाजरा</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">आगे
देखो शहर शाहदरा</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">शहर
शाहदरा में लग गई आग</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">आगे
देखो गाजियाबाद</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">गाजियाबाद
में फूटा अंडा</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,<o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">उस
में से निकला तिरंगा झंडा</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">झंडे
से आई आवाज़</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">इंकलाब
ज़िंदाबाद।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p> </o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">जब बात घंटा घर की आई है तो जबलपुर के घंटा घर
(क्लॉक टावर) की याद आना लाजिमी है। ओमती क्षेत्र स्थित घंटा घर जबलपुर की सबसे
पुरानी इमारतों में से एक है। 104 वर्ष पुरानी इस इमारत की सड़क से जबलपुर के
हजारों-लाखों लोग ओमती से निकलते वक्त एक बार निहार लेते हैं। स्टेशन से हाई कोर्ट
के रास्ते शहर में प्रविष्ट होने वाले परदेसी घंटा घर को दूर से ही देख कर
उत्तेजित होते हैं। लोगों का कहना है कि चार मंज़िला घंटा घर में जब तक कृत्रिम
रंग रोगन नहीं हुआ था</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,
<span lang="HI">तब तक उसकी वास्तविकता व सुंदरता ज्यादा आकर्षित करती थी। महसूस
होता है कि जबलपुरियों का इसके इतिहास से ज्यादा सरोकार नहीं लेकिन परदेसी घंटा घर
के बारे ज्यादा जानने के सदैव इच्छुक रहते हैं। यह भी सत्य है कि जबलपुर को काफ़ी
वर्षों से छोड़े लोगों की याद में घंटा घर आज भी जीवित है। भारत का सबसे पुराना और
मध्यप्रदेश का पहला चॉयनीज रेस्त्रां घंटा घर के नज़दीक होने के कारण </span>‘<span lang="HI">क्लॉक टॉवर चॉयनीज रेस्त्रां के नाम से मशहूर है। जबलपुर के
पत्रकार-संपादक रम्मू श्रीवास्तव ने तो अपने साप्ताहिक कॉलम का नाम </span>‘<span lang="HI">घंटा घर से</span>’ <span lang="HI">रखा था। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span lang="HI">विक्ट्री मेमोरियल टॉवर</span><span lang="HI">-</span></span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">घंटा घर में लगे शिलापट्ट पर अंकित शिलालेखों के
अनुसार</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,
'<span lang="HI">विक्ट्री मेमोरियल टॉवर</span>' <span lang="HI">की आधारशिला</span>
15<span lang="HI"> दिसंबर </span>1918<span lang="HI"> को जबलपुर के चीफ कमिश्नर बेंजामिन
रॉबर्ट्स द्वारा रखी गई थी। घंटा घर वर्ष </span>1919<span lang="HI"> में बनकर
तैयार हुआ था। इसे ब्रितानिया सरकार की प्रथम विश्व युद्ध में विजय स्मृति के तौर
पर बनाया गया था। उस समय हाथ घड़ी बांधने वालों की संख्या कम थी। घंटा घर में
प्रत्येक घंटा बीतने के साथ चारों दिशा में घंटा भी गूजता था। चार मंज़िला घंटा
घर की तीसरी मंज़िल में चारों दिशाओं की ओर विशाल डॉयल वाली घड़ी लगी है।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>इसके भूतल पर चार मेहराबदार द्वार हैं। छह
खंबों के आधार पर पूरी इमारत खड़ी है। घंटा घर पर कुछ शिलालेख पढ़ने में नहीं आते
हैं। लगभग सौ साल बाद वर्ष 2019-20 में घंटा घर की मरम्मत कर इसको चमकाने की कोशिश
की गई। आठ</span>-<span lang="HI">दस साल पहले इसकी घड़ियां खराब हुई तो उनको
परिवर्तित कर नई घड़ी लगाई गई। बताया जाता है कि पुरानी घड़ियां नगर निगम में कुछ
दिन तक तो रखी रहीं और फिर यह ऐसी गायब हुईं कि आज तक नहीं मिली। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span lang="HI">भारत में कौन सा घंटा घर सबसे पहले
बना</span><span lang="HI">-</span></span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">पहला सिटी क्लॉक टॉवर </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">1870 <span lang="HI">के दशक में शाहजहानाबाद (दिल्ली) के मध्य में बनाया गया था</span>, <span lang="HI">इससे बहुत पहले अंग्रेजों ने भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली
स्थानांतरित करने के बारे में सोचा था। अपने दिल में वे जानते थे कि भारत की असली
राजधानी दिल्ली की मुगल राजधानी थी। अपनी प्रतिष्ठित उपस्थिति और डिजाइन के साथ</span>,
<span lang="HI">दिल्ली में क्लॉक टॉवर विश्व प्रसिद्ध मुगल शहर के केंद्र में लगभग </span>80
<span lang="HI">वर्षों तक खड़ा रहा</span>, <span lang="HI">जिसे अंग्रेजों ने अंतिम
मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर से छीन लिया था। यह भारत में निर्मित पहले क्लॉक टावरों
में से एक था। इस दृष्टि से देखें तो जबलपुर में पचास साल के बाद घंटा घर का
निर्माण हुआ। </span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span lang="HI">घड़ियाली टाइमकीपर</span><span lang="HI">-</span></span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">सभ्यता की दृष्टि से</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, <span lang="HI">भारतीयों ने धार्मिक या व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए क्लॉक टावरों का
निर्माण बिल्कुल नहीं किया। हिन्दी शब्द घड़ी</span>, <span lang="HI">घड़ी या घूरी
जिसे हम घड़ी या घड़ी कहते हैं</span>, <span lang="HI">वास्तव में समय की एक माप या
इकाई है। प्राचीन भारतीय समय निर्धारण प्रणाली के अनुसार एक घड़ी </span>24 <span lang="HI">मिनट की होती थी। इस हिसाब से एक दिन और रात में </span>60 <span lang="HI">घरियां
होती हैं। मुगल सम्राट जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर (</span>1483-1530) <span lang="HI">के
बाबरनामा के अनुसार</span>-"<span lang="HI">यहां के शहरवासी घड़ियाली नामक एक
टाइमकीपर को नियुक्त करते हैं</span>, <span lang="HI">जो एक ऊंचे स्थान पर लटकी हुई
बड़ी पीतल की प्लेट की घंटी बजाता है। दिन के प्रत्येक पहर को चिह्नित करने के लिए
शहर का केंद्र। एक दिन और रात में चार-चार पहर होते हैं। घड़ियाली घारी को मापने
और उसकी घोषणा करने के लिए पानी की घड़ी</span>, <span lang="HI">क्लेप्सीड्रा का
उपयोग करते थे।</span>''<o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span lang="HI">घंटाघरों निर्माण का क्या था
उद्देश्य</span><span lang="HI">-</span></span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">पहले के
समय में भी क्लॉक टॉवर खूबसूरती से निर्मित मीनारों से ज्यादा कुछ नहीं थे</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, <span lang="HI">जो निश्चित अंतराल पर बांग देने वाले यांत्रिक मुर्गों के रूप में अधिक
काम करते थे ताकि लोग एक व्यवस्थित या नियमित तरीके से अपना जीवन जी सकें। चर्च ने
विश्वासियों को प्रार्थनाओं में भाग लेने के लिए याद दिलाने और लाने के लिए बेल
टावर्स और बाद में क्लॉक टावर्स का उपयोग किया। इस्लाम ने ऊंची मीनारों का उपयोग
किया जबकि हिंदुओं ने इसी उद्देश्य के लिए शंख या धातु की घंटियों का उपयोग किया।</span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt;">जबलपुर के घंटा घर का ऐतिहासिक महत्व कई तरह से
है। हम लोग थोड़े सजग और सतर्क हो कर 100 साल पुरानी इस इमारत को हर तरीके से
बचाएं। क्या आप ने एफिल टॉवर में झंडे-पोस्टर बंधे देखे</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt;">? <span lang="HI">मैंने तो नहीं देखा। फिर घंटा घर में ऐसा क्यों होता है।</span></span><span style="font-family: Segoe UI Symbol, sans-serif;">🔷</span></p><br /></div></span>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-66382160298185175332023-11-30T01:42:00.000+05:302023-11-30T01:42:15.969+05:30🔴 देश की नब्ज पहचानने वाली Axis My India के प्रदीप गुप्ता और मुकेश काबरा का गहरा नाता है जबलपुर से<p><span></span></p><p style="text-align: justify;"><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBzsXysTuhx2cpkKFuXny0v09DaCKtAcIqZ66K48XDu0Vigm7RouAjAnn5zz_xH_xjyTw4ghRvdCw1hcZLxTA2uVTNrJ-XNh4AEtU_A3XD0lcz0Cn47U9rYe6wn1imEZJDoiAnKzbfr3cJ27rhYrIhl5xZ8yQSve0XO6MaIwO1fv1CLVhXadVF5ZN5PcXS/s1022/WhatsApp%20Image%202023-11-30%20at%201.23.45%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="488" data-original-width="1022" height="306" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBzsXysTuhx2cpkKFuXny0v09DaCKtAcIqZ66K48XDu0Vigm7RouAjAnn5zz_xH_xjyTw4ghRvdCw1hcZLxTA2uVTNrJ-XNh4AEtU_A3XD0lcz0Cn47U9rYe6wn1imEZJDoiAnKzbfr3cJ27rhYrIhl5xZ8yQSve0XO6MaIwO1fv1CLVhXadVF5ZN5PcXS/w640-h306/WhatsApp%20Image%202023-11-30%20at%201.23.45%20AM.jpeg" width="640" /></a></b></div><b><br />Axis My India के प्रदीप गुप्ता व मुकेश काबरा</b> का जबलपुर से गहरा नाता है। Axis MY India के सीएमडी प्रदीप गुप्ता व डायरेक्टर मुकेश काबरा भारत के अग्रणी चुनावी विश्लेषक हैं। दोनों को देश की चुनावी नब्ज पकड़ने वाले विशेषज्ञ के रूप में विख्यात हैं। दोनों विशेषज्ञों ने Axis My India के माध्यम से 64 में से 60 चुनावों की सही भविष्यवाणी की हैं। इनके Exit Poll की सफलता की आश्चर्य दर 94 फीसदी है। पूरा देश इनके एक्ज़िट पोल का बेसब्री से इंतजार कर रहा है। ये Exit Poll 30 नवम्बर को शाम 6 बजे से आने शुरु हो जाएंगे।<p></p><p style="text-align: justify;">प्रदीप गुप्ता उदारीकरण के बाद के भारत में पहली पीढ़ी के उद्यमी की भावना का आदर्श अवतार और प्रतीक हैं। एक स्वतंत्रता सेनानी पिता के यहां जन्मे और जबलपुर से गहरे रूप से जुड़े हुए प्रदीप गुप्ता ने अपनी दृढ़ता और कड़ी मेहनत से Axis My India का निर्माण किया है। Axis My India की देश की अग्रणी कंज्यूमर व डेटा इंटेलिजेंस-कंपनी के रूप में विशिष्ट पहचान और प्रसिद्धि है।</p><p style="text-align: justify;">प्रदीप गुप्ता विद्यार्थी काल से हमेशा सीखने के लिए उत्सुक रहते थे। शिक्षकों के साथ सहपाठी उनमें एक चिंगारी देखते थे। वे गणित के जटिल सवालों को नींद में हल कर लेते थे। धीरे धीरे शिक्षा के प्रति उनका झुकाव इतना बढ़ा कि प्रदीप गुप्ता ने जबलपुर के कला निकेतन कॉलेज से प्रिंटिंग टेक्नॉलाजी की पढ़ाई लिखाई पूरी की और उनका शैक्षणिक सफ़र हार्वर्ड बिजनेस स्कूल बोस्टन में बिजनेस मैनेजमेंट में अध्ययन का पूरा हुआ।</p><p style="text-align: justify;">प्रदीप गुप्ता का अद्वितीय सहज व्यक्तित्व और राष्ट्र की नब्ज को समझने का जुनून ने उन्हें भारत का अग्रणी चुनाव विश्लेषक बना दिया है। उनके भीतर पागलपन की तरह तरीको को खोजने और तर्क व डाटा का उपयोग कर के समस्याओं के समाधान करने की अद्भुत क्षमता है। बौद्धिक व भावनात्मक बुद्धिमत्ता के संयोजन से वे गहराई तक पहुंचते हैं। भारत की विशाल विषम आबादी के बारे में वे अपनी अंतर्दृष्टि से सफलतापूर्वक चुनावी भविष्यवाणी करते हैं।</p><p style="text-align: justify;">प्रदीप गुप्ता ने जिस निरंतरता के साथ साल दर साल सटीक विश्लेषण किए हैं। इन विश्लेषणों से प्रतिष्ठित हार्वर्ड बिजनेस स्कूल भी प्रभावित हुआ और उसने अपने सिलेबस में Axis My India की सफलता को एक केस स्टडी के रूप में शामिल किया है। प्रदीप गुप्ता नैतिकता को सर्वोपरि महत्व देते हुए विस्तार व संगठनात्मक कौशल पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। इस फोकस के कारण उन्होंने 700 से अधिक जिलों में 80 करोड़ लोगों से जुड़ने की संगठनात्मक क्षमता विकसित की है।</p><p style="text-align: justify;">उपभोक्ता व मतदाता की प्रमाणिक नीति व उस पर प्रतिक्रिया प्राप्त करने और उसके अनुसार रोड मेप बनाने वाले कार्पोरेट व शासकीय उच्चाधिकारियों के पसंदीदा व्यक्ति हैं प्रदीप गुप्ता। राष्ट्र निर्माण के प्रबल समर्थक प्रदीप गुप्ता ने पूरे देश में वंचित समुदाय के 1500 से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार उपलब्ध कराया है।</p><p style="text-align: justify;">प्रदीप गुप्ता थमे नहीं। ज्ञान को सशक्त और लोकतांत्रिक बनाने की उनकी खोज ने उन्हें महत्वपूर्ण लेखक बना दिया। उनकी लिखी किताबें- हाउ इंडिया वोट्स एंड व्हाट इट मीन्स, मोदी@20, ब्लूप्रिंट फॉर एन इकोनॉमिक मिरेकल व कौन निर्वाचित होता है, कैसे और क्यों? काफ़ी चर्चित हुई हैं।</p><p style="text-align: justify;">प्रदीप गुप्ता 'सादा जीवन उच्च विचार' की फिलासफी में विश्वास रखते हैं। इस फिलासफी पर अटूट विश्वास रखने के कारण वे अपने काम के प्रति ईमानदार, नवप्रवर्तन (इनोवेशन) के प्रति अटूट जुनून और सबसे बढ़ कर 130 करोड़ भारतीयों के प्यार व अपनत्व से वे सक्षम व मजबूत हुए हैं। इस आधार के कारण प्रदीप गुप्ता Axis My India जैसा संगठन खड़ा कर पाए। इस माध्यम से वे 25 करोड़ भारतीय परिवारों से जुड़ कर उनकी समस्याओं का समाधान करने में प्रयासरत हैं। </p><p style="text-align: justify;">मिशन इंडिया आंदोलन के हिस्से के रूप में, प्रदीप गुप्ता ने Axis My India के माध्यम से 'ए' ऐप लॉन्च किया है। 'ट्रांसफ़ॉर्मिंग ए बिलियन' के उद्देश्य से बनाए गए इस ऐप में Google के साथ साझेदारी है। यह ऐप नागरिकों को उनकी जरूरतों के आधार पर प्रामाणिक जानकारी और समाधानों के साथ सशक्त बनाकर जीवन व अकाक्षांओं को पूरा करता है। </p><p style="text-align: justify;"><b>मुकेश काबरा डायरेक्टर Axis My India</b> ने प्रिंटिंग में इंजीनियरिंग की डिग्री कला निकेतन कॉलेज जबलपुर से हासिल की। बाद में उन्होंने बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा किया। वे ऐसे पारम्परिक परिवार में जन्मे और पले बढ़े जिसकी जबलपुर में गहरी जड़ें थीं। परिवार के मूल्य व नैतिकता के उनको संस्कार मिले और इसका पालन उन्होंने पेशेवर जीवन में भली-भांति किया। मुकेश काबरा देश की विभिन्न सांस्कृतिक बारीकियों की गहरी समझ है। वे नवोन्मेषी मीडिया के अग्रणी व सशक्त प्रतिनिधि हैं। पिछले 25 वर्षों से मुकेश काबरा Axis My India के Exit Poll और राजनैतिक शोध व विश्लेषण के केन्द्र बिन्दु हैं। मुकेश काबरा के मार्गदर्शन में Axis My India ने चुनाव मतदान के क्षेत्र में क्रांति ला दी। 64 में ये 60 चुनावों की सटीक भविष्यवाणी कर के 94 फीसदी से अधिक की सटीकता की दर अर्जित करने में मुकेश काबरा की महत्वपूर्ण भूमिका है। इक्विटी हिस्सेदारी के साथ एक निदेशक के रूप में, उन्होंने सिर्फ चार वर्षों में करोड़ों रुपये का प्रिंटिंग प्लांट स्थापित किया। रिसर्च प्रोजेक्ट्स संभालने के साथ वे नए प्रोजेक्ट्स को नवीनतम तकनीक के साथ नेतृत्व करते हैं। मुकेश काबरा देश के 700 जिलों में Axis My India के 1500 कार्मिकों के कुशल प्रबंधन के दायित्व की जिम्मेदारी को उत्कृष्ट ढंग से संभालते हैं।🔷</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-33867854185935921922023-09-20T15:02:00.000+05:302023-09-20T15:02:40.740+05:30🔴संसद की पुरानी इमारत और जबलपुर के सांसद<p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiuHc2tNUkAybOjO5OeEosbIBTQhUpPP_kdbjcMxSpXft6JJzcT0FoeYE0mxGNCIUUuVXmt5mHZHVLdMwf9gg_q39-L3UQDZJk0gIfYJe72NsJ1woOK6B2NmsoZ2GkHPBIhQwGkLvESxOA0qO0uIyWv4mmVM2GaBOUf7Ty-StbANC48Xc07s7w5oOM526sJ/s1280/WhatsApp%20Image%202023-09-20%20at%202.53.07%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; display: inline !important; float: right; font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="1280" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiuHc2tNUkAybOjO5OeEosbIBTQhUpPP_kdbjcMxSpXft6JJzcT0FoeYE0mxGNCIUUuVXmt5mHZHVLdMwf9gg_q39-L3UQDZJk0gIfYJe72NsJ1woOK6B2NmsoZ2GkHPBIhQwGkLvESxOA0qO0uIyWv4mmVM2GaBOUf7Ty-StbANC48Xc07s7w5oOM526sJ/s320/WhatsApp%20Image%202023-09-20%20at%202.53.07%20PM.jpeg" width="320" /></a></p><div style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">संसद की 96 साल पुरानी इमारत में कार्यवाही का
आज आखिरी दिन था। आजादी और संविधान को अपनाने की गवाह इस इमारत को विदाई देने तमाम
सांसद पहुंचे। इस इमारत में जबलपुर संसदीय क्षेत्र के लोकसभा के सदस्यों ने कई
ऐतिहासिक प्रश्न पूछे और बहस में भाग लिया। 1952 से अभी तक जबलपुर ने लोकसभा को
अलग अलग चुनाव में 12 सांसद दिए हैं। इनमें से शरद यादव को छोड़ कर कभी कोई
केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं रहा। शरद यादव जब पहली बार मंत्रिमंडल में
शामिल किए गए तब वे बदायूं से लोकसभा के सदस्य थे। अभी तक शरद यादव को छोड़ कर शेष
जबलपुर के सांसद एक ही राजनीतिक दल से संबद्ध रहे। शरद यादव ने अपनी संसदीय यात्रा
में जबलपुर से शुरुआत करते हुए भारतीय लोक दल के चिह्न से चुनाव जीता। फिर इसके
बाद जनता दल</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 12pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">,
<span lang="HI">लोकतांत्रिक जनता दल</span>, <span lang="HI">जनता दल यूनाइटेड व
राष्ट्रीय जनता दल तक यात्रा पूर्ण की। </span></span></div><p></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">1952 में जब पहली लोकसभा का गठन हुआ उस समय
जबलपुर की दो लोकसभा सीट थीं। जबलपुर उत्तर से सुशील कुमार पटेरिया और जबलपुर दक्षिण-मंडला
से मंगरु गनु उइके सांसद के रूप में चुने गए। सुशील कुमार पटेरिया ने 1952 में
जुलाई से नवम्बर तक के छोटे कार्यकाल में लोकसभा सदस्य के रूप में दो सत्रों में
14 प्रश्नों को पूछा व बहस में भाग लिया। वहीं मंगरु गनु उइके ने 18 दिसंबर 1953
को संसद में सांसद के रूप में अपना प्रथम प्रश्न पूछा। उन्होंने सांसद के कार्यकाल
में कुल 172 प्रश्न पूछे व बहस में भाग लिया। </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">जबलपुर सांसद सेठ गोविंद दास ने देश की प्रथम
लोकसभा में 19 मई 1952 को अपना पहला प्रश्न पूछा था। सेठ गोविंद दास ने जबलपुर
लोकसभा का प्रथम से पांचवी लोकसभा का प्रतिनिधित्व किया। उन्हें दूसरी</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, <span lang="HI">तीसरी</span>, <span lang="HI">चौथी व पांचवी लोकसभा में प्रोटेम स्पीकर का
गौरव भी मिला। लोकसभा डाटा के अनुसार सेठ गोविंद दास का ने 1302 बार प्रश्न व बहस
में भाग लिया।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">क्या आप जानते हैं कि शरद यादव ने लोकसभा में
अपने कार्यकाल में कितने प्रश्न पूछे थे। जबलपुर से सांसद के रूप में अपना जीवन
शुरु करने वाले शरद यादव ने कुल सांसद के रूप में कुल 1426 प्रश्न पूछे और बहस में
भाग लिया। 1974 में जबलपुर लोकसभा के उपचुनाव में विजयी होने के पश्चात् 1</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">8 <span lang="HI">फरवरी 1975 को शरद यादव ने जबलपुर के सांसद के रूप में पहला प्रश्न लोकसभा
में पूछा था कि सागर में एक हरिजन की मौत पुलिस की पिटाई से कैसे हुई। इसके बाद जो
सिलसिला शुरु हुआ तो उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र जबलपुर के साथ पूरे देश की
समस्याओं को प्रश्न व बहस के साथ उठाने का बीड़ा उठा लिया। उनके प्रश्न व बहस के
विषय किसान</span>, <span lang="HI">मजदूर</span>, <span lang="HI">श्रमिक और आम आदमी
रहते थे। शरद यादव ने वर्ष 1975 में पहली बार सांसद बनने के बाद 59 प्रश्न लोकसभा
में पूछे। वे आपात्काल के बाद वर्ष 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में विजयी होने के
बाद 1980 तक सांसद रहे। वे सात बार लोकसभा और चार बार राजसभा के सदस्य रहे। शरद
यादव के साथ विशिष्ट बात यह रही कि वे जबलपुर के साथ बिहार के मधेपुरा से चार
बार और जबलपुर से दो बार सांसद के रूप में चुने गए। वे एक बार उत्तर प्रदेश के
बदायूं से लोकसभा के सदस्य रहे। शरद यादव ने 1981 में अमेठी से राजीव गांधी के
विरूद्ध उपचुनाव लड़ा था। शरद यादव 1986 में पहली बार राजसभा के लिए चुने गए। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">1980 में मध्यावधि चुनाव में मुंदर शर्मा
जबलपुर के सांसद चुने गए। लोकसभा संदर्भ के अनुसार मुंदर शर्मा ने अल्प कार्यकाल
में 290 बार लोकसभा में प्रश्न पूछे व बहस में भाग लिया। मुंदर शर्मा की मृत्यु के
बाद हुए उपचुनाव में बाबूराव परांजपे सातवीं लोकसभा के सांसद के रूप में वर्ष 1982
में चुने गए। वे 1989 में 9 वीं लोकसभा</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,<span lang="HI"> 1996 में 11 वीं व
1998 में 12 वीं लोकसभा में सांसद के रूप में चुने गए। वे चार बार लोकसभा के सांसद
चुने गए। बाबूराव परांजपे का 1982 से 1998 तक कुल 16 वर्ष में लोकसभा संदर्भ में
463 बार जिक्र मिलता है।</span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">1984 में आठवीं लोकसभा के लिए जबलपुर से कर्नल अजय
नारायण मुशरान चुने गए। लोकसभा संदर्भ के अनुसार उन्होंने अपने कार्यकाल में कुल
452 प्रश्न पूछे और बहस में भाग लिया। 1991 में दसवीं लोकसभा के लिए श्रवण कुमार
पटेल चुने गए। लोकसभा संदर्भ के अनुसार 1469 प्रश्न व बहस उनके नाम रही। 1999 में
जयश्री बेनर्जी 13 वीं लोकसभा के लिए चुनी गईं। 2004 तक के कार्यकाल में 343 बार
उनका नाम लोकसभा में पुकारा गया।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">राकेश सिंह 14</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, 15, 16 <span lang="HI">व 17
वीं लोकसभा के सदस्य रहे हैं। लोकसभा में वर्तमान में जबलपुर संसदीय क्षेत्र का
प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने 13 जुलाई 2004 को लोकसभा में पहला प्रश्न पूछ
कर लोकसभा में अपनी शुरुआत की। अभी तक उनके खाते में 1343 प्रश्न व बहस दर्ज हैं। </span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">इस प्रकार लोकसभा की पुरानी इमारत में जबलपुर के
लोकसभा सदस्यों के नाम कई जनहित के प्रश्न व बहस शामिल हैं। इन सदस्यों ने अपने
कार्यकाल में कई संसदीय समितियों में प्रतिनिधित्व किया है। जबलपुर संसदीय
क्षेत्र के मतदाताओं के मन-मस्तिष्क में भी संसद की पुरानी इमारत की छवि गहरे रूप
में दर्ज है। संभावना है कि संसद की नई इमारत जबलपुर के लिए भी संभावना के नए
द्वारा खोलेगी।🔷 <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-89514790658382327862023-09-19T13:07:00.001+05:302023-09-19T13:07:42.908+05:30जबलपुर की प्राचीन इमारतें और जलाशय नमूने हैं अद्भुत सिविल इंजीनियरिंग के<p style="text-align: justify;"><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFfPk7KmpVNQzP6kT8z9mTNgXcJUNFwbj9mIiiVeJ-1XUulH0BMXp2aayaY5ae5uqaojt_iSATLi-o5zFuNQcqUz-irhr1nd1HqhxJQshITmJKlNov47Cfh7pAs1TVA9b0sh2anHCw6uDXFXOg3wX4mbOo2DSdLEpgfWQ_LYtzK6QKOmsXmCe1XN9CQOD5/s1080/WhatsApp%20Image%202023-09-15%20at%207.36.36%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1080" height="282" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFfPk7KmpVNQzP6kT8z9mTNgXcJUNFwbj9mIiiVeJ-1XUulH0BMXp2aayaY5ae5uqaojt_iSATLi-o5zFuNQcqUz-irhr1nd1HqhxJQshITmJKlNov47Cfh7pAs1TVA9b0sh2anHCw6uDXFXOg3wX4mbOo2DSdLEpgfWQ_LYtzK6QKOmsXmCe1XN9CQOD5/w282-h282/WhatsApp%20Image%202023-09-15%20at%207.36.36%20PM.jpeg" width="282" /></a></b></div><b><br /><div style="text-align: left;"><b>15 सितंबर अभियंता दिवस पर जबलपुर की उन इमारतों की याद आ जाती है जिनका ब्रिटिश काल में निर्माण हुआ। ये इमारतें सिविल इंजीनियरिंग का अद्भुत उदाहरण हैं। मदन महल का किला तो 1100 ईस्वी पूर्व का बताया जाता है। विशाल इमारतों व जलाशय का निर्माण एक निश्चित समयावधि में हुआ जिसकी वर्तमान में कल्पना नहीं की जा सकती। उत्कृष्ट आर्किटेचर और निर्माण गुणवत्ता के समन्वय के कारण अधिकांश इमारतें मौजूद हैं। जबलपुर की ऐसी ही कुछ इमारतों के बारे में जानिए।</b></div></b><p></p><p style="text-align: justify;">0 मदनमहल किला</p><p style="text-align: justify;">ज़मीन से लगभग पाँच सौ मीटर ऊपर, यह अभी भी एक वॉच टावर बना हुआ है, हालाँकि रक्षक और हमलावर सभी अब इतिहास में विलीन हो गए। मदन महल का किला आधुनिक शहर जबलपुर के दक्षिण-पश्चिमी भाग पर स्थित है। इस शानदार वॉचटावर की सही तारीख पर रहस्य छाया हुआ है। लेकिन जबलपुर गजेटियर इसे लगभग 1100 ई.पू. का बताता है। जब कोई रास्ते पर घिरे ग्रेनाइट ब्लॉकों के माध्यम से इसके पास पहुंचता है तो एक अजीब सी शांति छा जाती है। पांच मिनट की चढ़ाई के बाद, शानदार स्मारक अपने ऐतिहासिक उत्साह में दिखाई देता है। यह किला दसवें गोंड राजा मदन सिंह का प्लेज़र पैलेस था। उसके शासनकाल के दौरान, किले का उपयोग एक प्रहरी दुर्ग के रूप में किया जाता था। मुख्य संरचना के सामने वास्तुशिल्प रूप से डिज़ाइन किए गए कमरों में संभवतः उन शासकों की सैन्य टुकड़ियों को ठहराया गया था जो यहां रुके थे। इस ऐतिहासिक स्मारक का रखरखाव और संरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया गया है। पास में ही बैलेंसिंग रॉक है। इस संरचना की अद्भुत विशेषता एक विशाल चट्टान है जो केवल मानव उंगली की मोटाई के साथ एक दूसरे पर संतुलित है।</p><p style="text-align: justify;">0 टाउन हॉल </p><p style="text-align: justify;">वर्तमान में गांधी भवन पुस्तकालय के रूप में जाना जाता है, जिसका उद्घाटन 2 सितंबर, 1892 को रानी विक्टोरिया के शासनकाल की जयंती मनाने के लिए किया गया था। टाउन हॉल या गांधी भवन, जैसा कि इसका नाम वर्ष 1968 में बदला गया था, संकट के दौर में आया। हालाँकि इसका निर्माण जयंती वर्ष को चिह्नित करने के लिए किया गया था, लेकिन इसके उद्घाटन के तुरंत बाद इसे जनता को सौंप दिया गया और नगर पालिका का कार्यालय इस भवन में स्थानांतरित कर दिया गया। मध्य प्रांत के मुख्य आयुक्त सर ए.पी. मैकडोनाल्ड ने इस इंडो-सारसेनिक स्मारक का उद्घाटन किया। इसका निर्माण 30,000 रुपये की लागत से किया गया था। वित्त संयुक्त रूप से शहर के तीन लोगों-राजा गोकुलदास, राय बहादुर बल्लभदास और सेठ जीवनदास द्वारा लगाया गया था। नगरपालिका कार्यालय और पुस्तकालय 1950 तक इस भवन में रहे, जब जबलपुर निगम का गठन हुआ और इसे अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया गया। पुस्तकालय अपनी उपलब्धता और पहुंच के कारण अकादमिक विद्वानों के बीच लोकप्रिय रहा है। गांधी भवन में पुस्तकालय के अलावा विश्वविद्यालय अध्ययन केंद्र और स्वतंत्रता सेनानी वाचन कक्ष भी है।</p><p style="text-align: justify;">0 खंदारी जलाशय </p><p style="text-align: justify;">पिछली शताब्दी तक, जबलपुर में पानी की आपूर्ति पूरी तरह से कुओं से होती थी। वर्ष 1881 में, एक जलाशय के निर्माण के लिए खंदारी में एक अत्यंत उपयुक्त स्थल का चयन किया गया था। जैसा कि मध्य प्रांत के तत्कालीन मुख्य आयुक्त सर जे.एच. मॉरिस के शब्दों में बताया गया है, उद्देश्य मीठे और शुद्ध पानी की प्रचुर और कभी असफल न होने वाली आपूर्ति थी। परियोजना को छोड़ दिया गया होता, क्योंकि प्रस्तावित योजना जबलपुर नगर पालिका के लिए बिना सहायता के शुरू करने के लिए बहुत महंगी थी। इसके लिए राजा गोकुलदास ने ब्याज मुक्त ऋण दिया था। वर्ष 1881 में 6,00,000 रूपए इसकी लागत आई थी। नगर पालिका ने उसी वर्ष दिसंबर में निर्माण शुरू किया, और रिकॉर्ड 14 महीने में खूबसूरती से निर्मित तटबंध को पूरा किया। जबलपुर वॉटर-वर्क्स का जलाशय 26 फरवरी 1883 को मध्य प्रांत के मुख्य आयुक्त सर जे.एच. मॉरिस द्वारा खोला गया। वाटर वर्क्स मध्य प्रांत का गौरव था। समय के साथ, खंदारी अपने उद्देश्य पर खरा उतरा। जबलपुर शहर को इस जलाशय से अपनी पानी की आवश्यकता का केवल एक हिस्सा ही होता है। लॉर्डगंज के पास सबसे व्यस्त बाजार चौराहे पर स्थित प्रसिद्ध फुव्वारा या फव्वारा भी खंडारी जलाशय के निर्माण के पूरा होने की याद में राजा गोकुलदास द्वारा वर्ष 1883 में बनवाया गया था।</p><p style="text-align: justify;">0 लॉ कोर्ट </p><p style="text-align: justify;">अब तक, उच्च न्यायालय परिसर जबलपुर की सबसे सुंदर और भव्य इमारत में से एक है। लोक निर्माण विभाग के हेनरी इरविन, इसके डिजाइन और निर्माण कार्य के पीछे के व्यक्ति थे। निर्माण 1886 में शुरू हुआ और 1889 में लगभग 3 लाख रुपए की लागत से पूरा हुआ। इस इमारत में मूल रूप से कलेक्ट्रेट, कानून अदालतें और राजकोष स्थित थे। जब वर्ष 1956 में नए मध्य प्रदेश की भौगोलिक सीमाओं को स्पष्ट किया गया, तो जबलपुर को उच्च न्यायालय की सीट के रूप में चुना गया और यह इमारत बाद में अदालत की इमारत बन गई और कलेक्टर कार्यालय पास में ही अपने नए भवन में चला गया। पिछली सदी में जबलपुर की कानून व्यवस्था की स्थिति के बारे में जानना दिलचस्प है। 1800 के दशक की शुरुआत में मराठा शासन के तहत निचली जाति की विधवाओं को बेचा जाना और खरीद का पैसा राज्य के खजाने में देना मानक प्रथा थी। संपत्ति की बिक्री पर कर प्राप्त कीमत का एक-चौथाई था। अंग्रेजों ने इन कानूनों को निरस्त कर दिया, लेकिन 25% प्रति वर्ष से लेकर 75% प्रति वर्ष तक की अत्यधिक ब्याज दरों पर धन उधार देने से अधिकांश मुकदमेबाजी को बढ़ावा मिला। जबलपुर की अपराध दर नागपुर के बाद दूसरे स्थान पर थी। जुआं और नगरपालिका अधिनियमों के तहत अभियोजन असंख्य थे।</p><p style="text-align: justify;">0 रेलवे स्टेशन</p><p style="text-align: justify;">1867 में ईस्ट इंडियन रेलवे ने नैनी (इलाहाबाद)-जबलपुर ब्लॉक रेल यातायात को हरी झंडी दिखा दी। और सोमवार 8 मार्च, 1870 को ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे और ईस्ट इंडियन रेलवे की पटरियाँ बिछाई गईं। तब से जबलपुर को कोलकाता से मुंबई तक मुख्य रेलवे लाइन पर मजबूती से रखा गया। विशिष्ट पहचान वाले प्रतिष्ठित व्यक्तियों की गरिमामयी उपस्थिति से गौरवान्वित एक विशाल सभा में रेलवे सेवा और स्टेशन का उद्घाटन वायसराय लॉर्ड अर्ल मेयो द्वारा किया गया और मुख्य अतिथि गवर्नर जनरल सर फिट्जगेराल्ड और प्रिंस एडनबरो थे। स्थानीय मेहमानों के अलावा, अन्य प्रमुख आमंत्रितों में हैदराबाद के महाराजा सर सालार जंग और कमांडर-इन-चीफ सर ए स्पेंसर, महाराजा होलकर, महाराजा पन्ना, महाराजा रीवा, राजा मैहर और राजा नागौद शामिल थे। उद्घाटन समारोह का एक शानदार विवरण 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' में प्रकाशित किया गया था, जैसा कि एस.एन. शर्मा (1990) ने अपने 'ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे का इतिहास' भाग-I में वर्णित किया था। वर्ष 1905 में, बंगाल-नागपुर रेलवे कंपनी ने गोंदिया तक एक नैरो गेज शाखा लाइन का निर्माण किया, जो जबलपुर को नागपुर से जोड़ती थी। समय के साथ, पुरानी इंडो-गॉथिक रेलवे स्टेशन की इमारत इतनी बदल गई है कि पहचानी नहीं जा सकती।</p><p style="text-align: justify;">0 रॉबर्टसन कॉलेज</p><p style="text-align: justify;">ब्रिटिश काल से, रॉबर्टसन कॉलेज मध्य प्रदेश में उच्च शिक्षा का सबसे पुराना संस्थान है। हालाँकि, इसकी उत्पत्ति का पता सागर से लगाया जा सकता है, जो 1836 से 1873 तक इसका घर था। बाद में जब जबलपुर अधिक केंद्रीय हो गया और भारत के अन्य हिस्सों के लिए सुलभ हो गया, तो कॉलेज को 1873 में यहां स्थानांतरित कर दिया गया और दमोह रोड पर मिलोनीगंज क्षेत्र में एक साधारण इमारत में स्थापित किया गया, जहां यह बीस वर्षों तक रहा। वर्ष 1893 में इसे लाख-खाना नामक इमारत में स्थानांतरित कर दिया गया, क्योंकि यह एक परित्यक्त लाख-फैक्ट्री थी। यह 1911 में था, रांझी के पास गोकुलपुर में नई इमारत का निर्माण शुरू हुआ, लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मलोया के टारपीडो के कारण कुछ उपकरण डूब जाने के कारण इसमें देरी हुई। मुख्य आयुक्त, सर बेंजामिन रॉबर्टसन, जिनके नाम पर कॉलेज का नाम फिर से रखा गया, ने अंततः 1916 में इमारत का उद्घाटन किया, इसे पहले जबलपुर कॉलेज कहा जाता था। कॉलेज कलकत्ता और इलाहाबाद दोनों विश्वविद्यालयों से संबद्ध था और इसने कई प्रतिष्ठित पूर्व छात्रों को तैयार किया। बाद में 1955 में इस भव्य संस्थान का नाम बदलकर महाकोशल साइंस कॉलेज कर दिया गया और इसे पचपेढ़ी में स्थानांतरित कर दिया गया, जबकि गोकुलपुर में इसकी शानदार इमारत नव स्थापित सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज को दे दी गई।</p><p style="text-align: justify;">0 रिज रोड</p><p style="text-align: justify;">शहर की सबसे प्रभावशाली और लंबी सड़क रिज रोड है। ढाई किलोमीटर लंबी सड़क छावनी को दक्षिण-पूर्वी रिज से जोड़ती है। रिज पर कित्शेनर बैरक का निर्माण किया गया, जो बाद में ए.ओ.सी. स्कूल के लिए स्थल बना, जिसे वर्ष 1987 में मटेरियल मैनेजमेंट कॉलेज के रूप में पुनः नामित किया गया था।</p><p style="text-align: justify;">0 गोविंद भवन</p><p style="text-align: justify;">पहले जो भी जबलपुर आता था वह गोविंद भवन जरूर जाता था और इस हवेली की सुंदरता और इसकी लुभावनी समृद्धि से अछूता नहीं रह पाता था। वर्तमान इमारत अब हाउसिंग बोर्ड की इमारत और विविध विक्रेताओं द्वारा छिपी हुई है जो अब इसके सुंदरता व लॉन को खराब कर देती है। वर्ष 1909 में इस कोठी का निर्माण राजा गोकुलदास के परिवार के लिए आउटहाउस के रूप में किया गया था। यह उस काल के सर्वोत्तम अंग्रेजी और फ्रांसीसी फर्नीचर से सुरुचिपूर्ण ढंग से सुसज्जित था और इसके बगीचे दर्जनों ग्रीसी कलशों और मूर्तियों और जुड़वां इतालवी संगमरमर के फव्वारे से सजाए गए थे। यहां तक कि औपचारिक बैठक कक्ष के केंद्र में एक क्रिस्टल फव्वारा था। वर्षों बाद जब राजा गोकुलदास का परिवार गांधीवादी आंदोलन में पूरे दिल से भाग लेने के कारण कर्ज में डूब गया, तो इस शानदार महल को गिरवी रख दिया गया और बाद में लेनदारों को सौंप दिया गया। अब यह वीरान है, इसके पर्दे पतंगे खा गए हैं, मूर्तियाँ चोरी हो गई हैं, और इसके मुख्य कमरे बंद हैं और उपेक्षित हैं। इमारत के अधिकांश हिस्से पर आरटीओ कार्यालय का कब्जा रहा, लेकिन मूल भव्यता की कल्पना अभी भी रंगीन खिड़की के शीशों वाली प्लास्टर वाली दीवारों, डच और जर्मन सिरेमिक टाइलों और समृद्ध ढली हुई छतों से की जा सकती है जो समय के साथ ढह गई हैं। कुछ साल पहले बनी एक और खूबसूरत हवेली, राजकुमारी बाई कोठी है जो राजा गोकुलदास ने अपनी पोती को उपहार के रूप में भेंट की थी। लेकिन, बाद के वर्षों में इटालियन शैली की यह हवेली रॉयल होटल का हिस्सा बन गई। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि होटल द्वारा पेश किया गया आतिथ्य यूरोपीय समुदाय के बीच काफी चर्चा में था। हालांकि कम भव्य, यह मजबूत दो मंजिला हवेली बेहतर योजना के साथ बनाई गई थी। वर्तमान में यहां विद्युत कंपनी का कार्यालय है। </p><p style="text-align: justify;">0 विक्टोरिया अस्पताल</p><p style="text-align: justify;">यह अस्पताल अब सेठ गोविंददास अस्पताल के नाम से जाना जाता है, राजा साहब के पोते की याद में, 1876 में मुख्य शहर औषधालय के रूप में बनाया गया था। जब इसे बनाया गया तो यह देश के सबसे खूबसूरत अस्पताल भवनों में से एक था और इसमें आरामदायक आवास और यूरोपीय और भारतीय दोनों रोगियों के इलाज के लिए सभी सुविधाएं थीं। उस समय जबलपुर अनेक प्रकार की बीमारियों का शिकार था। शहर की प्रचलित बीमारियाँ बुखार, पेचिश और हैजा थीं, चेचक कभी-कभार आती थी और इन्फ्लूएंजा कभी-कभी महामारी का रूप धारण कर लेता था। तब मृत्यु दर औसतन 38 प्रति 1000 थी। 1955 से 1968 तक कई वर्षों तक विक्टोरिया अस्पताल जबलपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल के रूप में दोगुना हो गया। बाद में मेडिकल कॉलेज को अंततः त्रिपुरी परिसर में अपने वर्तमान परिसर में स्थानांतरित कर दिया गया।</p><p style="text-align: justify;">0 एम्पायर थिएटर</p><p style="text-align: justify;">सिविल लाइंस के मध्य में स्थित एम्पायर थिएटर का दौरा करते ही पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं। यहां का दृश्य अब स्वागतयोग्य नहीं रह गया है। थिएटर, जो हलचल भरी गतिविधि का केंद्र बिंदु था, अब झुर्रीदार काई वाली दीवारों के साथ ढहने की स्थिति में है। समय को दोबारा याद करने पर वे दिन याद आ जाते हैं जब शेक्सपियर के नाटक-रोमियो और जूलियट, मैकबेथ का मंचन किया जाता था। ब्रिटेन तक की नाटक मंडलियों ने ब्रिटिश शैली में डिज़ाइन किए गए अर्ध-वृत्ताकार मंच पर प्रदर्शन किया। प्रारंभ में, यह क्लासिक नाटकों के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता था। यह समय के साथ आगे बढ़ा और प्रौद्योगिकी तथा फिल्मों के आविष्कार के साथ मूक फिल्में मंच साझा करने लगीं। बाद में, यह टॉकी फिल्मों का सिनेमाघर बन गया और शहर में अंग्रेजी फिल्में देखने का प्रमुख सिनेमाघर बन गया। प्रदर्शित होने वाली पहली टॉकी फिल्म रियो रीटा थी। 1950 के दशक के दौरान, प्रसिद्ध हिंदी फिल्म अभिनेता प्रेम नाथ ने बेलामी से थिएटर खरीदा, जो एक बैले डांसिंग स्कूल चलाते थे। समय इस राजसी थिएटर की शांत सिनेमा से जर्जरता तक की उथल-पुथल भरी यात्रा का गवाह रहा है।🔷</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-59488045432792110592023-09-06T13:23:00.003+05:302023-09-06T13:23:58.790+05:30उस्ताद फ़कीरचन्द: यैसो यशी जीव जाहर जक्त में न कोई भयो, जैसो उस्ताद के प्रताप को बखान है<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAWaYrKzaNhjxS6H-TAQivjRuluw80-dZfytLS62ufGPWXzjM6KTu3hbknJg07R72H5KxICmpbXavwyip-oktD6baUAs-xkeo8gYgz74GdefGx72M4QkZMX1lXxbvhxgkChONB4oZxZSzJRcV_amlZEHxoRPYvd482p9zpQYesqSZA011YcfMWOG15cp-e/s335/WhatsApp%20Image%202023-09-04%20at%205.45.34%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="335" data-original-width="201" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAWaYrKzaNhjxS6H-TAQivjRuluw80-dZfytLS62ufGPWXzjM6KTu3hbknJg07R72H5KxICmpbXavwyip-oktD6baUAs-xkeo8gYgz74GdefGx72M4QkZMX1lXxbvhxgkChONB4oZxZSzJRcV_amlZEHxoRPYvd482p9zpQYesqSZA011YcfMWOG15cp-e/w192-h320/WhatsApp%20Image%202023-09-04%20at%205.45.34%20PM.jpeg" width="192" /></a></div><span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: 12pt; text-indent: 0.5in;">नारायण शीतल प्रसाद कायस्थ ने एक ग्रंथ लिखा है।
इस ग्रंथ का नाम है- फ़कीरचन्द सुयश सागर। यह ग्रंथ उस्ताद की कीर्ति को अक्षुण्ण
बनाए रखने के लिखा गया था। नारायण शीतल का भला हो कि वे फ़कीरचन्द पर लिख कर चले
गए लेकिन उनका लिखा नई पीढ़ी को ध्यान दिलाने के काम आज भी आ रहा है। जबलपुर के अधिकांश
लोग तो यह जानते हैं कि फ़कीरचन्द को पहलवानी व मल्ल विद्या का बेहद शौक था। उनके
नाम से फ़कीरचन्द का अखाड़ा प्रसिद्ध हुआ। यह भी सच है कि फ़कीरचन्द शुक्ल
आयुर्वेद के अच्छे ज्ञाता व योग्य चिकित्सक थे। वे गरीबों की नि:शुल्क चिकित्सा करते
थे। जो समर्थ होते वे स्वस्थ हो जाने पर श्रद्धानुसार कुछ धन राशि अपनी इच्छा से
दे जाते थे। उसी धन से अखाड़े का विकास होता था।</span></div></span><p></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">फ़कीरचन्द का परिवार उत्तरप्रदेश के फतेहपुर से
जबलपुर आजीविका के लिए आया था और फिर यहीं का हो कर रह गया। फ़कीरचन्द के पिता का
नाम बकसराम था। इनके तीन पुत्र हजारीलाल</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,<span lang="HI"> मोतीलाल और
फ़कीरचन्द हुए। एक बहिन थी जिनका नाम परमीबाई था। उन्हें कुछ लोग किस्सी बाई भी
कहते थे। उस्ताद फ़कीरचन्द का जन्म 1839 में हुआ। तीनों भाईयों में वे सबसे होशियार
थे। उन्होंने आयुर्वेद चिकित्सा में इतना ज्ञान अर्जित कर लिया था कि जल्दी ही
उनकी गिनती जबलपुर के योग्य चिकित्सकों में होने लगी थी। बताया जाता है कि
फ़कीरचन्द की प्रसिद्धि सुनकर हैदराबाद की एक बेगम इलाज करवाने जबलपुर आई थीं1
स्वस्थ होने पर उन्होंने अखाड़े के लिए बड़ी धनराशि दी थी। नारायण शीतल प्रसाद
कायस्थ ने ग्रंथ में इसे लिखा है- </span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>मारी
बीमारी की बेगम हैदराबाद की </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>मान
लाचारी शरण सुकुलजी के आई थीं। </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>सैकड़न
हकीम</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,
<span lang="HI">वैद्य </span>, <span lang="HI">डाक्टर अनेकन तहां</span>,<o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>वाने
आराम नेक काहू से न पाई थी।। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>कीन्हीं
खैरात हूं अनेक भांति बेगम ने </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>द्रव्य
झाड़ फूंक में नारायण बहु लुटाई थी।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>ताहि
थोड़े काल में उस्ताद ने निरोग्य कर</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>पूर्ण
दया कर ताके देश को पठाई थी।।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">नारायण शीतल प्रसाद कायस्थ अखाड़े के समीप रहने
वाले सेठ मदनमोहन अग्रवाल की दुकान में एक<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>मुनीम थे। नारायण शीतल प्रसाद शाहजहांपुर के रहने वाले थे। आगरा में पंडित
पन्नालाल से हिसाब-किताब</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,
<span lang="HI">रोकड़-बाकी सीख कर जबलपुर जीवकोपार्जन के लिए आ गए थे। कायस्थ
उस्ताद फ़कीरचन्द को बहुत मान सम्मान देते थे और परम स्नेही भी थे। उन्होंने
उस्ताद फ़कीरचन्द के जीवन को सम्पूर्ण घटनाओं का पद्यबद्ध वर्णन </span>‘<span lang="HI">फ़कीरचन्द सुयश सागर</span>’ <span lang="HI">के नाम से किया। </span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">उस्ताद फ़कीरचन्द का एक किस्सा यह भी मशहूर है
कि जब ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया की मूर्ति की स्थापना टाउनहॉल के उद्यान में हुई</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, <span lang="HI">तब उस्ताद भी गाजे बाजे के साथ वहां पहुंचे और मूर्ति की धूप चंदन से पूजा
अर्चन की। इस दृश्य को देख कर अंग्रेज अफसर तो विस्मित थे ही जबलपुर के लोग भी
अंचभे में थे। </span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">उस्ताद फ़कीरचन्द का 68 वर्ष की आयु में निधन हो
गया। निधन से पूरे जबलपुर शहर में शोक छा गया। सभी वर्ग के लोग श्रद्धांजलि देने
अखाड़े की ओर दौड़ गए। फ़कीरचन्द के निधन के बाद भाई हजारीलाल ने अखाड़े का प्रबंध
व चिकित्सा का कार्य संभाला लेकिन वृद्धावस्था व शिथिलता के कारण वे अधिक समय
तक जीवित नहीं रह सके। </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">फ़कीरचन्द उस्ताद ने मृत्यु पूर्व एक वसीयतनामा
लिख दिया था। इसमें पांच ट्रस्टियों को अखाड़े की पूरी संपदा की सुरक्षा हेतु
नियुक्त किया गया था। इनमें सेठ मदनमोहन अग्रवाल जबलपुर के बड़े साहूकार व
व्यवसायी सेठ मन्नूलाल के पुत्र थे। सेठ मन्नूलाल ने उत्तर भारत के तीर्थ स्थलों
में इतना दान दिया था कि कुछ दिनों तक इस शहर का नाम सेठ मन्नूलाल का पर्यायवाची
बन गया था। दूसरे ट्रस्टी गुलाबचन्द चौधरी थे। उनके पुत्र रायबहादुर कपूरचन्द
चौधरी ने कोतवाली अस्पताल बनवा कर जनता को प्रदान किया था। बाकी तीन ट्रस्टी मुंशी
लाला उदयकरण</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,
<span lang="HI">सवाई सिंघई नत्थूलाल और ठाकुर भूपत कुंवर थे। ट्रस्टियों की सलाह
से पंडित ब्रजलाल अखाड़े के मंदिर की पूजा व्यवस्था देखते थे और छेदीलाल
आयुर्वेदिक चिकित्सा का जिम्मा संभालते थे।</span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">नारायण शीतल प्रसाद कायस्थ ने उस्ताद के लिए
लिखा था-</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>यैसो
यशी जीव जाहर जक्त में न कोई भयो</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>जैसो
उस्ताद के प्रताप को बखान है</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>जिसने
सहस्त्रन के महारोग नीके किये</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>दियो
दिन रात जिन दवा द्रव्य दान है </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>सबको
मान राखनहार सदा ही प्रसन्न चित्त</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>स्वप्न
में नारायन ना जिनके अभिमान है </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>जाहर
जहान है कायम निशान है</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><span style="mso-tab-count: 3;"> </span>आयो
विमान कियो सुर्ग को पयान है। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><o:p></o:p></span></p><br /></div><p></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-37327514603191989972023-09-01T13:36:00.001+05:302023-09-01T13:37:03.736+05:30ध्यानचंद क्यों नहीं चाहते थे कि, अशोक कुमार हॉकी खेलें<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhelfDZUYi0bpZAOYY9XA5SU0ecbdRuoHd9bLVO4augsfsNF-pvgiJUd-aunIi3zA0ZWdofs-RxOv5nShoLHfI0gj6Map3EOf21vQhCy2tHoZVsw-XPT4F8O0wN-tlHYtBMPLpU451Ry6MPVZjmI4HGnFqUdImz-J2P0cmsrl95J8cnPK-lK2pYUw6cctJl/s1280/WhatsApp%20Image%202023-08-29%20at%208.10.35%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="1280" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhelfDZUYi0bpZAOYY9XA5SU0ecbdRuoHd9bLVO4augsfsNF-pvgiJUd-aunIi3zA0ZWdofs-RxOv5nShoLHfI0gj6Map3EOf21vQhCy2tHoZVsw-XPT4F8O0wN-tlHYtBMPLpU451Ry6MPVZjmI4HGnFqUdImz-J2P0cmsrl95J8cnPK-lK2pYUw6cctJl/s320/WhatsApp%20Image%202023-08-29%20at%208.10.35%20AM.jpeg" width="320" /></a></div><p style="text-align: justify;"><i>ध्यानचंद का 29 अगस्त को जन्मदिवस रहता है। हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले ध्यानचंद के बारे में, उनके जादूई खेल, हिटलर के प्रस्ताव, भारत रत्न दिए जाने पर इतना कुछ लिखा गया, जो संभवत: भारत के किसी भी महान खिलाड़ी के लिए नहीं लिखा गया। ध्यानचंद के जन्मदिवस के ठीक एक दिन पहले उनके पुत्र अशोक कुमार और जबलपुर निवासी भांजे विक्रम सिंह चौहान से कई चरणों में बात कर के हॉकी के जादूगर के मानवीय पक्ष को जानने का प्रयास किया गया। यह बातचीत पैदल चलते हुए तो कभी ई रिक्शा में बैठ कर और आधी रात को पूरी हो पाई। जब अशोक कुमार से बात हो रही थी तब उनके पुराने साथी अशोक दीवान व विनीत कुमार आ गए। बातचीत रूक गई। उनके जाने के बाद बात का सिलसिला शुरू हुआ।)</i></p><p style="text-align: justify;"><b>० ध्यानचंद का जबलपुर से कैसे बना संबंध</b> </p><p style="text-align: justify;">ध्यानचंद तीन भाई व तीन बहिनें थीं। उनके बड़े भाई मूल सिंह व छोटे रूप सिंह थे। बड़ी बहिन के अलावा रामकली व सुरजा देवी थीं। सुरजा देवी का विवाह जबलपुर के किशोर सिंह चौहान से हुआ था। किशोर सिंह चौहान राइट टाउन में हवाघर नाम के प्रसिद्ध मकान में रहते थे। जिस दिन सुरजा देवी का विवाह किशोर सिंह चौहान से 1940 में हुआ, उस दिन से ध्यानचंद का गहरा संबंध जबलपुर से बन गया। इससे पूर्व ध्यानचंद का बचपन जबलपुर में बीता था। ध्यानचंद के पिता रामेश्वर सिंह पहली ब्राम्हण रेजीमेंट में सूबेदार थे। यह रेजीमेंट उन दिनों इलाहाबाद में तैनात थी। बाद में यह रेजीमेंट जबलपुर में स्थानांतरित की गई। रेजीमेंट के साथ रामेश्वर सिंह जबलपुर आ गए। ध्यानचंद जब सिर्फ चार वर्ष के बच्चे थे, तब वे पहली बार अपने पिता के बड़े भाई के पास जबलपुर आए थे। रूप सिंह का जन्म 1908 में जबलपुर में ही हुआ। ध्यानचंद के अंतर्राष्ट्रीय हॉकी के प्रारंभिक साथियों में जबलपुर के रेक्स नॉरिस और माइकल रॉक थे। दोनों खिलाड़ियों ने एम्सटर्डम (हॉलैंड) में सन् 1928 में ओलंपिक हॉकी टीम के साथ यात्रा की थी और यह टीम ओलंपिक विजेता बनी। ध्यानचंद 1922 में सेना में सिपाही के रूप में भर्ती हुए। 1927 में भारतीय आर्मी टीम के न्यूजीलैंड दौरे की सफलता के बाद ध्यानचंद को लांस नायक पद पर पदोन्नति दी गई। कुछ वर्षों बाद ध्यानचंद की पहली ब्राम्हण बटालियन तोड़ दी गई, तो वे दूसरी बटालियन पंजाब रेजीमेंट चले गए। ध्यानचंद की यहां रघुनाथ शर्मा से मित्रता हुई। रघुनाथ शर्मा की जबलपुर के तुलाराम चौक पर स्थित रघुनाथ शस्त्रालय नाम की दुकान वर्षों तक काफ़ी प्रसिद्ध रही। ध्यानचंद और रघुनाथ शर्मा अपनी रेजीमेंट के साथ पाकिस्तान के बन्नू कोहट में भी रहे। ध्यानचंद और रघुनाथ शर्मा लंगोटिया दोस्त थे। यहां तक की विवाह के लिए ध्यानचंद की पत्नी का चयन रघुनाथ शर्मा की सलाह से हुआ और बाद में विवाह हुआ। जबलपुर के सेवानिवृत्त रेलवे सुपरिटेडेंट एम. लाल (रिछारिया) भी झांसी से ही ध्यानचंद के अच्छे साथियों में थे।</p><p style="text-align: justify;"><b>० ध्यानचंद की आत्मकथा में जबलपुर का योगदान</b></p><p style="text-align: justify;">हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का जबलपुर के खेल ‘भीष्म पितामह’ माने जाने वाले बाबूलाल पाराशर से भी लम्बे समय तक संबंध व सम्पर्क रहा। बाबूलाल पाराशर और ध्यानचंद परस्पर एक दूसरे के विरूद्ध हॉकी मैच खेल चुके थे। इसी प्रकार ध्यानचंद की आत्मकथा ‘गोल’ को लिखने वाले पंकज गुप्ता की बाबूलाल पाराशर ने काफी मदद की। इस आलेख को लिखने में बाबूलाल पाराशर के संस्मरणों की सहायता ली गई। ध्यानचंद की एक पुरानी यात्रा 16 मार्च 1953 को हुई थी। ध्यानचंद उस समय नागपुर से राष्ट्रीय महिला हॉकी टीम को प्रशिक्षण दे कर वापस लौट रहे थे। यह टीम बाद में अखिल भारतीय महिला हॉकी एसोसिएशन के तत्वावधान में इंग्लैंड के दौरे पर गई। संयोग से उस टीम में चार खिलाड़ी जबलपुर की थीं। उस समय जबलपुर जिला हॉकी एसोसिएशन के तत्वावधान में नागरिकों पुलिस मैदान में तत्कालीन महापौर भवानीप्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में ध्यानचंद का नागरिक सम्मान किया गया था। उस दिन ध्यानचंद को एक जीप में बैठा कर पुलिस ग्राउंड के चारों ओर सड़कों पर घुमाया गया और करतल ध्वनि से उनका स्वागत किया गया। जनसमूह के आग्रह पर उन्होंने हॉकी का प्रदर्शन किया। इस समारोह में ध्यानचंद के साथी माइकल रॉक भी उपस्थित थे। इसके बाद ध्यानचंद जून 1964 में जबलपुर में महिला हॉकी टीम को प्रशिक्षण देने आए। ध्यानचंद के पुत्र राजकुमार का विवाह जबलपुर में जीके सिंह के परिवार में हुआ था। बारात को ब्यौहार बाग स्कूल में बनाए गए जनवासे में रूकवाया गया था। जनवरी-फरवरी 1975 में मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल के आमंत्रण पर ध्यानचंद अखिल भारतीय विद्युत क्रीड़ा नियंत्रण मण्डल हॉकी प्रतियोगिता का उद्घाटन करने अंतिम बार जबलपुर आए थे। उस समय उन्हें पचपेढ़ी में विश्वविद्यालय के सामने विद्युत मण्डल के ब्लेग डान रेस्ट हाउस में रूकवाया गया था।</p><p style="text-align: justify;"><b>० ध्यानचंद को पसंद थे बहन के बनाए गए भरवां बैगन</b></p><p style="text-align: justify;">ध्यानचंद की बहिन सुरजा देवी के पुत्र विक्रम सिंह चौहान अब 71 वर्ष के हैं। लगभग अशोक कुमार से उम्र में दो वर्ष छोटे। उनकी यादों में ध्यानचंद जिंदा हैं। विक्रम सिंह चौहान बताते हैं कि ध्यानचंद को अपनी बहिन सुरजा देवी द्वारा बनाए गए भरमा बैगन की सब्जी बहुत पसंद थी। विक्रम सिंह चौहान को कई बार अपनी मां के साथ झांसी जाने का मौका मिला। मामा की गोद में बैठना, उनका दुलार और बचपन में अशोक कुमार व गोविंद के साथ हॉकी खेलना उनकी यादों में तैर जाता है। बचपन में विक्रम को समझ में नहीं आता था कि मामा ध्यानचंद अपने बच्चों को हॉकी खेलने से मना करते थे।</p><p style="text-align: justify;"><b>० अशोक कुमार जबलपुर में दस दिन कॉलेज में पढ़ कर वापस झांसी क्यों चले गए</b></p><p style="text-align: justify;">अशोक कुमार से बात करने पर कई नई बातों का खुलासा हुआ। अशोक कुमार ने झांसी से इंटर पास करने के बाद कॉलेज में पढ़ना चाहते थे। उत्तरप्रदेश में शिक्षा की पद्धति अलग थी। इस कारण तय हुआ कि अशोक कुमार अपनी बुआ सुरजा देवी के पास जबलपुर में रह कर कॉलेज की पढ़ाई करेंगे। अशोक कुमार का जबलपुर के गोविंदराम सेक्सरिया (जीएस) कॉमर्स कॉलेज में एडमिशन हो गया। बुआ ने लाड़ प्यार से अशोक कुमार को रखा। खाने पीने पर ध्यान दिया लेकिन दस दिन में अशोक कुमार को घर की याद सताने लगी। ग्यारहवें दिन वे वापस झांसी चले गए। मां जानकी देवी ने बड़े जतन से अशोक कुमार के लिए व्यवस्थाएं की थीं लेकिन पुत्र ने उनको निराश कर दिया। उसी समय उनके बड़े पुत्र ब्रजमोहन सिंह कोटा से झांसी आए हुए थे। वे वहां एनआईएस कोच थे। उन्होंने मां से चिंता न करने की बात कर वापसी में अशोक कुमार को अपने साथ कोटा ले गए। इस प्रकार अशोक कुमार की कॉलेज की पढ़ाई बड़े भाई के पास कोटा में पूरी हुई।</p><p style="text-align: justify;"><b>० जानकी देवी परिवार की आधार स्तंभ</b></p><p style="text-align: justify;">ध्यानंचद का उल्लेख करते हुए रूप सिंह की या तो पुत्रों जिसमें अशोक कुमार की सर्वाधिक चर्चा होती है। अशोक कुमार का मानना है कि उनकी मां व ध्यानचंद की पत्नी जानकी देवी का परिवार की सभी सफलताओं में सर्वाधिक योगदान है। जानकी देवी टीकमगढ़ के पास धवारी गांव की थीं। ध्यानचंद ने सेना से रिटायर होने के बाद पूरे परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारियों को निभाने के लिए अपनी पूरा जीवन प्रशिक्षक के रूप में और प्रशिक्षण देने में बिता दिया। ऐसे समय जानकी देवी ने बच्चों की पढ़ाई लिखाई से ले कर सभी जिम्मेदारियों को पूर्ण करने में अपना जीवन लगा दिया। वे परिवार के आधार स्तंभ के रूप में मजबूती से खड़ी रहीं, बच्चों का मार्गदर्शन करती रहीं। अशोक कुमार को याद है कि जब सब बच्चे शाम को खेल कर घर वापस आते थे, तब मां लकड़ी के चूल्हे में रोटियां बनाती जाती थीं और बच्चे उनके इर्द गिर्द बैठ कर खाना खाते थे। मां के हाथ की चूल्हे में बनी रोटियां अशोक कुमार 73 साल की उम्र में आज भी याद करते हैं।</p><p style="text-align: justify;"><b>० अशोक कुमार अपने पिता की चोरी व छिप कर खेलते थे हॉकी</b></p><p style="text-align: justify;">अशोक कुमार ने कहा कि वे अपने पिता ध्यानचंद की चोरी से और छिप कर हॉकी खेलते थे। ध्यानचंद जब घर में होते थे तब वे हॉकी खेलने को मना करते थे। वे चाहते थे कि उनके पुत्र अपनी पढ़ाई में ज्यादा ध्यान दें। पढ़ाई पूरी कर के कोई नौकरी करें। दरअसल ध्यानचंद का मानना था कि उन्होंने जिस स्तर की हॉकी खेली थी, उसे उनके कोई पुत्र मैदान में उतर कर सिर्फ खानापूर्ति न करें। उन्हें यह पसंद नहीं था कि लोग पिता व पुत्र की तुलना करने लगें। अशोक कुमार को बाद में यह समझ में आया। अशोक कुमार ने बिना कोई प्रशिक्षण प्राप्त किए बिना कॉलेज से शुरुआत कर धीरे धीरे सफलता पाते चले गए। ध्यानचंद के सात पुत्र व चार पुत्रियां थीं। जिसमें छह पुत्र हॉकी के खिलाड़ी रहे, जबकि एक पुत्र एथलेटिक्स में जेवलीन थ्रो में गए। इन सभी राष्ट्रीय स्तर पर उत्कृष्ट खेल का प्रदर्शन किया। रूप सिंह के पुत्र भगत सिंह ने भी भारतीय टीम की ओर प्रदर्शन मैच में भाग लिया। </p><p style="text-align: justify;"><b>० अशोक कुमार ध्यानचंद को रजत व कांस्य पदक क्यों नहीं दिखाया</b></p><p style="text-align: justify;">अशोक कुमार कहते हैं कि विश्व कप का कांस्य पदक, एशियाई खेलों का रजत पदक, ओलंपिक का कांस्य पदक हासिल कर रहे थे लेकिन गोल्ड मेडल नहीं मिल रहा था। जब अशोक कुमार घर आते थे तब ध्यानचंद और रूप सिंह की त्यौरियां चढ़ी होती थी। दोनों पूछते थे कि आप लोग क्या खेल कर आए हो। उनके लिए रजक या कांस्य पदक की कोई कीमत नहीं होती थी। अशोक कुमार ने इन प्रतियोगिताओं में जीते अपने पदक ध्यानचंद को कभी दिखाए भी नहीं। अशोक कुमार पदकों को अलग रख देते थे। अशोक कुमार के दिल में ठीस उठ जाया करती थी। जब क्वालालंपुर विश्व कप जीतने के बाद अशोक कुमार झांसी घर आए तब उन्होंने ध्यानचंद के चरण स्पर्श किए उन्होंने अशोक कुमार के सिर अपना हाथ रखा। अशोक कुमार के कैरियर के सबसे अच्छे पलों में से एक था। </p><p style="text-align: justify;"><b>० घर में बाऊ जी और बाहर हॉकी के जादूगर</b></p><p style="text-align: justify;">अशोक कुमार मानते हैं कि ध्यानचंद सादा जीवन जीने में विश्ववास रखते थे। घर में वे ध्यान सिंह थे और बाहरी दुनिया के लोग उन्हें हॉकी का जादूगर मेजर ध्यानचंद के रूप में पहचानते थे। ध्यानचंद ने बहुत सादगी से अपनी आत्मकथा को बयान किया है। उन्होंने आत्मकथा में पहली लाइन में ही लिखा है कि वे भारत देश के एक आम नागरिक हैं। अशोक कुमार के पास अपने बाऊ जी के कई किस्से हैं।</p><p style="text-align: justify;"><b>(फोटो बाएं अशोक कुमार ध्यानचंद की मूर्ति के साथ, कैप्टन रूप सिंह व उनकी पत्नी, ध्यानचंद की बहिन सुरजा देवी व उनके पति किशोर सिंह चौहान और अशोक कुमार जबलपुर में अपने भाई विक्रम सिंह चौहान के साथ।)</b></p><div style="text-align: justify;"><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-43689935842293859942023-08-25T14:33:00.000+05:302023-08-25T14:33:28.181+05:30जबलपुर की गुमनाम फिल्म हस्ती याकूब को याद करते हुए<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJ4uIkwO5tiAv6hbYVAbn4VVTN_uzH2ky7X7EPGleFT6fVVMXfNDo1kkr_pMHsyexs738LHOoU3Cb93uJh31m8uH0q6qs4KSZfcy3zQk6gRt1pAQt3cdF8E8YB6VfGAQikKp_SpCGJRTaJA6DUkywd3_c9j9J7JxSrncGGjMrhvbWXaWBMj8SU0W78hPOE/s225/WhatsApp%20Image%202023-08-24%20at%207.35.41%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="225" data-original-width="225" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJ4uIkwO5tiAv6hbYVAbn4VVTN_uzH2ky7X7EPGleFT6fVVMXfNDo1kkr_pMHsyexs738LHOoU3Cb93uJh31m8uH0q6qs4KSZfcy3zQk6gRt1pAQt3cdF8E8YB6VfGAQikKp_SpCGJRTaJA6DUkywd3_c9j9J7JxSrncGGjMrhvbWXaWBMj8SU0W78hPOE/s1600/WhatsApp%20Image%202023-08-24%20at%207.35.41%20PM.jpeg" width="225" /></a></div>बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि मशहूर पर्दें के खलनायक और चरित्र अभिनेता याकूब जबलपुर के थे। उनके पिता पठान मेहबूब खान जबलपुर में लकड़ी के ठेकेदार थे। याकूब का जन्म जबलपुर में 3 अप्रैल 1903 को हुआ। पठान मेहबूब खान चाहते थे कि याकूब उनके नक्शेकदम पर चले। याकूब न तो लकड़ी चीरना चाहते थे और न ही मोटर मैकेनिक। उन्हें एक्टिंग पसंद थी लेकिन सिर्फ शौक के तौर पर। महज 9 साल की उम्र में एक दिन याकूब जबलपुर छोड़ कर लखनऊ भाग गए। वहां वे एलेक्जेंड्रा थियेट्रिकल कंपनी में शामिल हो गए। दो साल तक वहां काम किया। फिर याकूब 1921 में बंबई चले गए। वहां उन्होंने मैकेनिकल ट्रेनिंग ली। एसएस मदुरा स्टीमर में वे नेवी बॉय के रूप में काम करने लगे। इस नौकरी के कारण उन्हें लंदन, पेरिस, ब्रुसेल्स आदि विदेशी शहरों को घूमने का मौका मिला। 1922 में वे भारत लौट आए और टूरिस्ट गाइड के रूप में कलकत्ता में अमेरिकन एक्सप्रेस कंपनी में शामिल हो गए। 1924 में याकूब वापस बंबई आए और एक अन्य थिएटर कंपनी में प्रॉपर्टी मास्टर के रूप में नौकरी करने लगे। मंच के परिचित उत्साह ने उनके भीतर के अभिनेता को जगाया और शारदा फिल्म कंपनी में शामिल हो गए। यहां उन्होंने 50 मूक फिल्में बनाईं। <p></p><p style="text-align: justify;">याकूब को पहला ब्रेक शारदा फिल्म कंपनी की मूक फिल्म बाजीराव मस्तानी (1925) में मिला। इस ऐतिहासिक फिल्म का निर्देशन भालजी पेंढारकर ने किया था। गुलज़ार (1927), कमला कुमारी (1928) और सरोवर की सुंदरी (1928) जैसी फिल्मों में अभिनय करने के बाद, याकूब को विक्टोरिया फातिमा फिल्म कंपनी की चंद्रावली (1928), मिलन दिनार (1929) और शकुंतला (1929) में विभिन्न भूमिकाएँ मिलीं। इनमें से ज्यादातर फिल्मों में याकूब खलनायक की भूमिका में नजर आए। प्रेशियस पिक्चर्स की 'महासुंदर' (1929) पूरी करने के बाद वह सागर मूवीटोन से जुड़ गए। वहां उन्होंने अरुणोदय (1930), दांव पेंच (1930), नई रोशनी (1930), मीठी छुरी (1931) और तूफानी तरूणी (1931) जैसी फिल्मों में काम किया। ये सभी मूक फ़िल्में थीं। उनकी पहली बोलती (टॉकी) फ़िल्म थी ‘मेरी जान’ (1931)। इस फिल्म में याकूब ने राजकुमार की मुख्य भूमिका निभाई थी। राजकुमार की भूमिका उन्होंने इतने प्रभावी ढंग से की इस कि सारी इंडस्ट्री ने उन्हें ‘रोमांटिक प्रिंस’ के ख़िताब नवाज़ा जो उनके लिए एक बड़ी उपलब्धि थी। तीस के दशक में याकूब ने गुजराती फिल्मों बे खराब जान, सागर का शेर और उसकी तमन्ना में के निर्देशन के साथ 34 फिल्मों में काम किया। याद रखें याकूब ने जद्दनबाई के साथ फिल्म तलाश-ए-हक में भी नज़र आए। इस फिल्म का उन्होंने निर्देशन भी किया। </p><p style="text-align: justify;">तीन फिल्मों में एक साथ काम करने से याकूब व महबूब खान के बीच अच्छी दोस्ती हो गई। जब महबूब खान ने अपनी पहली फिल्म अल-हिलाल/जजमेंट ऑफ अल्लाह का निर्देशन किया तो उन्होंने याकूब को एक भूमिका में लिया। 1940 में महबूब खान की ‘औरत’ फिल्म में याकूब ने सरदार अख्तर के शरारती व गुमराह बेटे बिरजू की भूमिका निभाई। याकूब ने बेहतरीन अभिनय किया और बिरजू के किरदार को बखूबी निभाया। इसके बाद तो याकूब ने महबूब खान निर्देशित अधिकांश फिल्मों में अभिनय किया। याकूब ने 1930 में खुर्शीद बानो से शादी की । खुर्शीद बानो भी इंपीरियल फिल्म कंपनी में एक अभिनेत्री थी।</p><p style="text-align: justify;">याकूब व कॉमेडियन गोप की स्क्रीन जोड़ी खूब प्रसिद्ध हुई। उस समय इस जोड़ी को इंडियन लॉरेल-हार्डी का खिताब मिला। इस जोड़ी ने कई फिल्मों में अभिनय कर के ख्याति अर्जित की। इस जोड़ी के फिल्मों में बोले गए तकिया कलाम ने दर्शकों को हंसाया। उनके तकिया कलाम ‘रहे नाम अल्लाह का’, ’मानता हूं सुलेमान हू’, ‘खुश रहो प्यारे’ लोग आम जीवन में भी बोलने लगे थे। 1949 में याकूब ने ‘आइये’ फिल्म का निर्माण व निर्देशन किया लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म बॉक्स आफिस पर चली नहीं। याकूब के चचेरे भाई अलाउद्दीन इस फ़िल्म के रिकॉर्डिस्ट थे। ये वही रिकॉर्डिस्ट थे जो आगे चलकर राज कपूर की फिल्मों के नामचीन रिकॉर्डिस्ट हुए। पचास के दशक में उन्होंने 28 फिल्मों में अभिनय किया। जिसमें दीदार, हलचल, हंगामा, वारिस, अब दिल्ली दूर नहीं, पेइंग गेस्ट और अदालत जैसी लोकप्रिय फिलमें थीं। याकूब ने 34 साल के कैरियर में 130 से ज्यादा फिल्मों में यादगार किरदार निभाए। याकूब उस समय पृथ्वीराज कपूर व चंद्रमोहन से भी ज्यादा वेतन पाने वाले कलाकार रहे। कहा जाता है कि महमूद जब एक संघर्षशील कलाकार थे, तो वो अक़्सर याक़ूब के आने की प्रतीक्षा में बॉम्बे टॉकीज के पास घूमते रहते थे। इसका कारण था उनकी जर्जर आर्थिक स्थिति थी। गेट पर खड़े महमूद को याकूब कुछ राशि ज़रूर देते थे। 1958 में मात्र 54 वर्ष की उम्र में याकूब का निधन हो गया। जबलपुर की इस गुमनाम हस्ती की आज 24 अगस्त को 65 वीं पुण्यतिथि है। याकूब को सलाम। 🔷</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-76512185062234974652023-08-10T11:23:00.000+05:302023-08-10T11:23:11.803+05:30अगस्त क्रांति और जबलपुर के कवि इन्द्र बहादुर खरे<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYvJQUufWAbzKKyf0muirGAukaGQKf51ZVOZr7dvTuPsP45pZh9Xl-tjmMgpT5D9jaxQXKB-FIrEMW9n5-q8NC73KOZPjkRKXQrRZEHNgOYblSZDHP0IzPYw_AWJBOnIiYfDo2CmYx6R0Z65fv4dVgT-GiKLGKWcCzxM36_hPMpObImO7Ii2xQW7sxRVMZ/s166/WhatsApp%20Image%202023-08-09%20at%206.15.18%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="166" data-original-width="132" height="189" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYvJQUufWAbzKKyf0muirGAukaGQKf51ZVOZr7dvTuPsP45pZh9Xl-tjmMgpT5D9jaxQXKB-FIrEMW9n5-q8NC73KOZPjkRKXQrRZEHNgOYblSZDHP0IzPYw_AWJBOnIiYfDo2CmYx6R0Z65fv4dVgT-GiKLGKWcCzxM36_hPMpObImO7Ii2xQW7sxRVMZ/w150-h189/WhatsApp%20Image%202023-08-09%20at%206.15.18%20PM.jpeg" width="150" /></a></div><div style="text-align: justify;">अगस्त क्रांति और जबलपुर के कवि इन्द्र बहादुर खरे का गहरा संबंध है। पहले समझ लें अगस्त क्रांति क्या है? भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए तमाम छोटे-बड़े आंदोलन किए गए। अंग्रेजी सत्ता को भारत की जमीन से उखाड़ फेंकने के लिए गांधी जी के नेतृत्व में जो अंतिम लड़ाई लड़ी गई थी उसे 'अगस्त क्रांति' के नाम से जाना गया है। इस लड़ाई में गांधी जी ने 'करो या मरो' का नारा देकर अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए पूरे भारत के युवाओं का आह्वान किया था। यही वजह है कि इसे 'भारत छोड़ो आंदोलन' या क्विट इंडिया मूवमेंट भी कहते हैं। इस आंदोलन की शुरुआत नौ अगस्त 1942 को हुई थी, इसलिए इसे अगस्त क्रांति भी कहते हैं। इस आंदोलन की शुरुआत मुंबई के एक पार्क से हुई थी जिसे अगस्त क्रांति मैदान नाम दिया गया।</div><p></p><p style="text-align: justify;">पूरे भारत में जहां भी अगस्त क्रांति का आयोजन 9 अगस्त को होता है, तब जबलपुर के कवि इन्द्र बहादुर खरे का गीत- <span style="white-space: pre;"> </span></p><p style="text-align: center;">नौ अगस्त हो गया अस्त, पर अस्त न हो पायी वह लाली,</p><p style="text-align: center;">जिसने अपनी स्वर्णाभा से, चमका दी युग रजनी काली ।।</p><p style="text-align: center;">जिसका उजियाला भारत में, अमर जागरण लेकर आया,</p><p style="text-align: center;">जिसने नगर-डगर घर-घर में जनता को ललकार जगाया।।</p><p style="text-align: justify;">उत्साह व उमंगता के साथ गाया जाता है। मुंबई के गवालिया टैंक मैदान (अगस्त क्रांति मैदान) में इन्द्र बहादुर खरे लिखा देशभक्ति गीत प्रत्येक वर्ष गूंजता है। स्वतंत्रता की इस अलख ने एक कवि हृदय को भी झकझोरा और कलम से जन्मा एक ऐसा गीत, जिसे आज भी उसी अगस्त क्रांति मैदान पर शहीदों की स्मृति में गुनगुनाया जाता है। कवि इन्द्र बहादुर खरे ने भी इसी दिन 9 अगस्त को अपनी भावनाओं को शब्दों में ढाला था। पिछले कई वर्षों से मुंबई में सोमनाथ पर्व की गायन मंडली उनका लिखा गीत 'नौ अगस्त हो गया अस्त..पर अस्त न हो पाईं वह लाली..’ कर शहीदों को श्रद्धासुमन अर्पित करती आ रही है।</p><p style="text-align: justify;">गाडरवारा में जन्मे प्रो. इन्द्र बहादुर खरे ने जबलपुर के हितकारिणी सिटी कॉलेज से बीए किया। नागपुर यूनिवर्सिटी से एमए करने के पश्चात उन्होंने मॉडल स्कूल में सन् 1946 से 1947 तक अध्यापन किया। महाराष्ट्र हाई स्कूल में उन्होंने सन् 1947 से 1948 तक अध्यापन किया। हितकारिणी महाविद्यालय में वे सन् 1949-52 तक प्राध्यापक रहे। इसके पश्चात गन गैरिज फैक्टरी में नौकरी की। आज उनकी लिखी कविताएं स्कूलों, कॉलेज व विश्वविद्यालय में पढ़ाई जा रही है। भोर के गीत, सुरबाला, विजन के फूल, सिन्दूरी किरण, रजनी के पल उनके प्रसिद्ध काव्य संग्रह हैं, वहीं सपनों की नगरी, जीवन पथ के राही जैसे कहानी संग्रह भी लोकप्रिय हुए हैं। इन्द्र बहादुर खरे का सिर्फ 31 वर्ष की अल्पायु में 1953 में निधन हो गया। 81 वर्षों बाद जब 9 अगस्त आता है तब इन्द्र बहादुर खरे याद आते हैं। </p><p>🟦</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-84422591266880780222023-08-09T12:12:00.000+05:302023-08-09T12:12:06.126+05:30पहले जबलपुरिया जिन्होंने हिन्दी सिनेमा में शोहरत पाई <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvZg3T5BTXYxqs5NQ9zoOJTYKxH4JtODk5Syr8_oUYiPqd00tNmgoLia80QpMRnPlTgSuxZUnzmk9DUBmouwzU9HHQ10-Tfy-3AYKjt2fEh1oMB7Yn5Y-oghCib40jBcbchL6K1p1pGUWQdGAmi2poJCNhfwyahS0GjHVsa5q3QrvlbcMVEGsCBCg7rW4g/s1280/WhatsApp%20Image%202023-08-07%20at%206.00.36%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="1280" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvZg3T5BTXYxqs5NQ9zoOJTYKxH4JtODk5Syr8_oUYiPqd00tNmgoLia80QpMRnPlTgSuxZUnzmk9DUBmouwzU9HHQ10-Tfy-3AYKjt2fEh1oMB7Yn5Y-oghCib40jBcbchL6K1p1pGUWQdGAmi2poJCNhfwyahS0GjHVsa5q3QrvlbcMVEGsCBCg7rW4g/s320/WhatsApp%20Image%202023-08-07%20at%206.00.36%20PM.jpeg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">प्यारेलाल श्रीवास्तव जिन्हें हिन्दी सिनेमा इंडस्ट्री में पीएल संतोषी (PL SANTOSHI) के नाम से पहचाना जाता है। वे संभवत: जबलपुर के पहले व्यक्ति थे जो हिन्दी सिनेमा इंडस्ट्री में सबसे पहले वर्ष 1936 में प्रविष्ट हुए और शोहरत भी पाई। पीएल संतोषी पहले ऐसे जबलपुरिया हैं जिन्होंने सर्वाधिक फिल्मों में काम किया और सर्वाधिक रूप से सफल हुए। संतोषी का जब फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश हुआ लगभग उसी समय अशोक कुमार हीरो बने। आज पीएल संतोषी को याद करने का दिन इसलिए है कि 7 अगस्त 1916 को उनकी पैदाइश जबलपुर में हुई थी। हिन्दी सिनेमा इंडस्ट्री के नामचीन डायरेक्टर राजकुमार संतोषी (RAJKUMAR SANTOSHI) पीएल संतोषी के पुत्र हैं। राजकुमार संतोषी ने घायल, दामिनी, अंदाज अपना अपना, खाकी, लीजेंड ऑफ भगत सिंह, लज्जा, अजब प्रेम की गज़व कहानी जैसी फिल्मों का निर्देशन किया है।</div><p></p><p style="text-align: justify;">पीएल संतोषी की हिन्दी सिनेमा में प्रविष्टि संयोग से हुई। जबलपुर में एक फिल्मी की शूटिंग हो रही थी। यूनिट को डॉयलाग अस्सिटेंट की जरूरत थी। ब्यौहार निवास पैलेस (बखरी) में रहने वाले संतोषी एक कुशल लेखक थे इसलिए फिल्म के दृश्य के लिए अतिरिक्त संवादों को लिखने का काम उनको मिल गया। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद पीएल संतोषी लगभग 18 वर्ष की आयु में तीस के दशक के मध्य में लेखक व गीतकार बनने की तमन्ना ले कर बंबई रवाना हो गए। बाद में उनकी पहचान हिन्दी सिनेमा इंडस्ट्री में निर्माता, निर्देशक, लेखक व गीतकार के रूप में बनी और वे प्रसिद्ध हुए।</p><p style="text-align: justify;">वर्ष 1937 में पीएल संतोषी को जद्दनबाई की फिल्म मोती का हार फिल्म में कुछ गीत को लिखने का मौका मिला। वे कुछ फिल्मों में छोटी सी भूमिका में दिखे। पीएल संतोषी ने कुछ समय जद्दनबाई के सेक्रेटरी का काम भी किया। इस दौरान संतोषी ने जीवन सपना फिल्म के चार गीत लिखे। काम के सिलसिले में वे बंबई के स्टूडियो में भटकते रहे। प्रभात स्टूडियो में उनको ठहराव मिला और 1946 में पहली फिल्म ‘हम एक हैं’ का निर्देशन किया। इस फिल्म से ही हिन्दी सिनेमा के दो बड़े कलाकार देवआनंद व रहमान का पदार्पण हुआ। गौरतलब है कि रहमान जबलपुर में जब राबर्टसन कॉलेज में अध्ययनरत थे तब उनकी मित्रता पीएल संतोषी से हुई थी। रहमान भी ब्यौहार निवास पैलेस में रहते थे। एक तरह से रहमान पीएल संतोषी के फेवरेट बन गए। ‘हम एक हैं’ फिल्म में संतोषी के सह निर्देशक गुरूदत्त थे। 1950 में संतोषी ने राज कपूर को ‘सरगम’ फिल्म में निर्देशित किया। संतोषी की निर्देशित कुछ खास फिल्में हैं- शहनाई, खिड़की, शिन शिनाकी बूबला बू, छम छमा छम, हम पंछी एक डाल के, बरसात की रात, दिल ही तो है। उन्होंने 21 फिल्मों का निर्देशन, 16 फिल्मों का लेखन, 100 फिल्मों में 350 गीतों को लिखा व 6 फिल्मों के गीत के साउंड ट्रेक पर काम किया और 1948 में खिड़की व 1950 में अपनी छाया फिल्मों का निर्माण किया। संतोषी व सी. रामचंद्र की जोड़ी मधुर गीतों के लिए खूब लोकप्रिय हुई।</p><p style="text-align: justify;">पीएल संतोषी का बम्बई सिने संसार में अत्यधिक सम्मान था। जिस तरह शांताराम बापू, रामचन्द्र चितलकर अन्ना साहब कहलाते थे,उसी तरह प्यारेलाल संतोषी को गुरुजी कहा जाता था। गुरुजी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न थे। उनका लिखा गीत 'महफ़िल में जल उठी शमा परवाने के लिए / प्रीत बनी है दुनिया में जल जाने के लिए' बहुत लोकप्रिय हुआ। 'निराला' फ़िल्म के इस गीत को लता मंगेशकर ने गाया था और संगीत दिया था सी. रामचंद्र ने। </p><p style="text-align: justify;">वर्ष 2019 में पहली मुख्यधारा की संस्कृत फिल्म ‘अहं ब्रह्मास्मि’ पीएल संतोषी को समर्पित की गई। राजकुमार संतोषी ने अपनी पहली फिल्म ‘घातक’ व ‘लज्जा’ अपने पिता पीएल संतोषी की याद में ही बनाई है।🟦</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-72494964577307819462023-08-04T12:09:00.000+05:302023-08-04T12:09:15.811+05:30किशोर कुमार का जबलपुर प्रेम: जब किशोर कुमार की जबलपुर आने की हसरत रह गई अधूरी, इस फिल्म में संस्कारधानी को पर्दे पर दिखाया<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmW8rWxvY74IUp9C3ba63WklYyBWEmK2AboSF7xvit5XjFzbrNH9BXRqolrGuAduj0nRyfCtomkOHa-cX6qLy_TBszXC2YB325HUlbiFUJBfyU3f0uMwDCY76o23o5ahxrmGCR2gwPV4IxJvLP3oyPhF-DwPZr9aazvAK3atPFvu18ri2Ww0yq7uMVBdIZ/s1208/WhatsApp%20Image%202023-08-04%20at%2012.01.47%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1208" data-original-width="1047" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmW8rWxvY74IUp9C3ba63WklYyBWEmK2AboSF7xvit5XjFzbrNH9BXRqolrGuAduj0nRyfCtomkOHa-cX6qLy_TBszXC2YB325HUlbiFUJBfyU3f0uMwDCY76o23o5ahxrmGCR2gwPV4IxJvLP3oyPhF-DwPZr9aazvAK3atPFvu18ri2Ww0yq7uMVBdIZ/s320/WhatsApp%20Image%202023-08-04%20at%2012.01.47%20PM.jpeg" width="277" /></a></div><div style="text-align: justify;">भारत के सबसे लोकप्रिय फिल्मी गायक किशोर कुमार (Kishore Kumar) अगर आज जीवित होते तो वे 94 साल के होते। वे इस आयु में गा तो नहीं पाते लेकिन चाहने वालों के साथ गुनगुना तो जरूर लेते। इतने सालों के बाद भी उनके गीत गाने और चाहने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। यह किशोर कुमार की लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण है। 4 अगस्त को किशोर कुमार का जन्मदिन है। </div><p></p><p style="text-align: justify;"><b>अशोक - किशोर के बीच में 18 साल का अंतर</b></p><p style="text-align: justify;">किशोर कुमार के बड़े भाई अशोक कुमार (Ashok Kumar) का जन्म भागलपुर में हुआ तो लालन-पालन खंडवा में। उनकी उच्च शिक्षा उस समय के सबसे बड़े व उत्कृष्ट जबलपुर के राबर्ट्सन कॉलेज (Robertson College) में हुई थी। इस प्रकार गांगुली परिवार भी जबलपुर से जुड़ गया। अशोक कुमार व किशोर कुमार के बीच में 18 साल का फासला था, लेकिन जबलपुर व राबर्ट्सन कॉलेज के किस्से खंडवा में परिवार के बीच में सुनाए जाते थे। किशोर कुमार राबर्ट्सन कॉलेज के बारे में दादा मुनि से सुन कर जबलपुर के राबर्ट्सन कॉलेज में पढ़ने के सपने देखते थे। पिता कुंजलाल गांगुली ने किशोर कुमार को खंडवा के नजदीक इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ने के लिए भेजा।</p><p style="text-align: justify;"><b>किशोर का जबलपुर आने का सपना रह गया अधूरा</b></p><p style="text-align: justify;">किशोर कुमार का जबलपुर आने का सपना पूरा नहीं हो पाया लेकिन साल 1958 में बनी एक बंगला कॉमेडी फिल्म 'लुकोचुरी' (लुका-छिपी) की कहानी में आभासी (वर्चुअल) रूप से 'जबलपुर' शामिल हो गया। इस फिल्म की शुरुआत जबलपुर से होती है जिसमें किशोर कुमार अपने माता-पिता के साथ जबलपुर में रहते हैं । फिल्म में किशोर कुमार का नाम कुमार चौधरी 'बुद्दू' रहता है। किशोर कुमार के पिता की भूमिका मोनी चटर्जी ने निभाई थी और फिल्म का निर्देशन कमल मजुमदार ने किया था। फिल्म में हीरोइन माला सिन्हा व अनिता गुहा थीं। फिल्म में दिखाया गया है कि किशोर कुमार का एक कंपनी में बंबई ट्रांसफर हो जाता है और इसके बाद फिल्म गति पकड़ लेती है।</p><p style="text-align: justify;"><b>जबलपुर को मन से चाहते थे किशोर</b></p><p style="text-align: justify;">बताया जाता है कि किशोर कुमार ने दादा मुनि की जबलपुर की याद को सकार करने के लिए 'लुकोचुरी' में जबलपुर को जिद कर के शामिल करवाया था। किशोर कुमार का जन्म खंडवा में हुआ था लेकिन वे जबलपुर को भी मन से चाहते थे। किशोर के इस जबलपुर प्रेम के लिए आइए हम सब उन्हें मन से याद करें और उनके मधुर गीतों को गुनगुनाएं। किशोर कुमार को श्रद्धांजलि |</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-47376913327304402432023-08-02T12:33:00.002+05:302023-08-02T12:33:48.535+05:30ओलंपिक में जबलपुर के पिता-पुत्र की अद्भुत उपलब्धि<p style="text-align: justify;"></p><div style="text-align: justify;"> </div><span><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj40_SWVvO1XL5KetEcalzfnf6fKow8sUSXgQd741KQ4g_tbuzYsqJYugfol6k9yPZMHXgzMhciOF3Xw9qU3rK7QCpx9_J4dZyn466EWdefNkHJxk4wAgFWt4MojQgywukSRnvNUIhgKjEIoK9TbAzaX7eaDITsZjNClJgOa-ZscIKG5PBM4xDXa8bg_aR_/s1600/WhatsApp%20Image%202023-08-02%20at%208.57.00%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1600" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj40_SWVvO1XL5KetEcalzfnf6fKow8sUSXgQd741KQ4g_tbuzYsqJYugfol6k9yPZMHXgzMhciOF3Xw9qU3rK7QCpx9_J4dZyn466EWdefNkHJxk4wAgFWt4MojQgywukSRnvNUIhgKjEIoK9TbAzaX7eaDITsZjNClJgOa-ZscIKG5PBM4xDXa8bg_aR_/s320/WhatsApp%20Image%202023-08-02%20at%208.57.00%20AM.jpeg" width="320" /></a></div></span><div style="text-align: justify;">जबलपुर को एक उपलब्धि हासिल है जब पिता-पुत्र दोनों ने ओलंपिक खेलों में भारत प्रतिनिधित्व किया। आज से 95 वर्ष पूर्व 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम में जबलपुर में जन्मे एंग्लो इंडियन रेक्स ए नॉरिस का चयन हुआ। उनके साथ ही जबलपुर के माइकल इ. रॉक का भी चयन हुआ। भारतीय टीम के रवाना होने से पहले धन की कमी के कारण दो खिलाड़ियों शौकत अली और रेक्स ए नॉरिस को यात्रा दल से बाहर करना पड़ा। हालाँकि, बंगाल में कुछ शुभचिंतकों व व संरक्षकों के आखिरी मिनट के हस्तक्षेप ने यह सुनिश्चित कर दिया कि दोनों को कैसर-ए-हिंद-जहाज़ जो बंबई से खिलाड़ियों को ले जा रहा था, पर टीम के साथ जरूर जाएंगे। एम्सटर्डम ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम ने सोने का पदक जीता। 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में रेक्स नॉरिस के पुत्र रोनाल्ड अलेक्जेंडर "रॉन" नॉरिस ने भारतीय बॉक्सिंग टीम का प्रतिनिधित्व किया। वे मुक्केबाजी की लाइट वेल्टरवेट स्पर्धा में रिंग में उतरे। नॉरिस बाद में लंदन में एक अंतरराष्ट्रीय फील्ड हॉकी कोच बन गए। उन्होंने 1954 से 1956 तक डच हॉकी टीम, 1960 में इतालवी टीम और 1968 ओलंपिक से पहले मैक्सिकन टीम को कोचिंग दी। नॉरिस की बेटियों फिलोमेना और वेंडी ने भी हॉकी में भारत का प्रतिनिधित्व किया।</div><p></p><p style="text-align: justify;"></p><div style="text-align: justify;"><b>नॉरिस रोड भी है जबलपुर में</b></div><div class="separator" style="clear: both; font-weight: bold; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhY-HbjQBgxgwHyFMU-7XEblTL3LQa1RiTjdROg1DWVhTCVpQHvykIR6XHuv9zMRuPCevA1rDOCuL2iViHl4CCTIFnigcz2J-F8bkDfU7524-budGSuDKbCmk9Ud3YSbYXZKvugH1_fw3_tBnNmmXEJlNnDNLSHAThUWUva85DHElU2jA5dt0g6dZCS-Lgl/s750/WhatsApp%20Image%202023-08-02%20at%209.54.26%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="732" data-original-width="750" height="312" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhY-HbjQBgxgwHyFMU-7XEblTL3LQa1RiTjdROg1DWVhTCVpQHvykIR6XHuv9zMRuPCevA1rDOCuL2iViHl4CCTIFnigcz2J-F8bkDfU7524-budGSuDKbCmk9Ud3YSbYXZKvugH1_fw3_tBnNmmXEJlNnDNLSHAThUWUva85DHElU2jA5dt0g6dZCS-Lgl/s320/WhatsApp%20Image%202023-08-02%20at%209.54.26%20AM.jpeg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: 700;"><br /></span></div><p></p><p style="text-align: justify;">जबलपुर छावनी मुख्यालय के पते में इसका उल्लेख है। लेकिन कौन जाने कब उसे हटा दिया जाए ! जब आप तीसरे पुल से सदर में प्रवेश करते हैं तो जो सड़क सीधे शिवाजी स्टेडियम-विरमानी पेट्रोल पम्प की ओर जाती है, उस सड़क का नाम नारिस रोड है। कैंट के मुख्यालय पर लगे एक पत्थर पर यह उकेरा गया है। मैंने खुद देखा है। उम्मीद है अभी भी वो पत्थर अस्तित्व में होगा। 🔷</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-84582043363991196642023-08-02T11:49:00.000+05:302023-08-02T11:49:50.273+05:30टिल्लन रिछारिया: वे कहते थे कि जबलपुर प्रेम व आनंद का सिद्ध तीर्थ है........<p style="text-align: justify;"></p><div style="text-align: justify;"> </div><span><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVLHwsu-tJ0Ic5WHioj-d50Q1lhKqc52DQmfO1H3JDy2kBM340iOyVjXmY-a5p1uRWQcUJF4yw_39VwFzczhaoyvsOuFYKRYISnshMOEs3iMfe_bQxeIVoVq1W8VV0swrDXLWT3OilssuY_ZwoZUVrRAhgp_Kme-hqHpyRc0uX1rFsaVNNnGvbgoaaFF7-/s1600/WhatsApp%20Image%202023-07-28%20at%204.14.07%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1600" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVLHwsu-tJ0Ic5WHioj-d50Q1lhKqc52DQmfO1H3JDy2kBM340iOyVjXmY-a5p1uRWQcUJF4yw_39VwFzczhaoyvsOuFYKRYISnshMOEs3iMfe_bQxeIVoVq1W8VV0swrDXLWT3OilssuY_ZwoZUVrRAhgp_Kme-hqHpyRc0uX1rFsaVNNnGvbgoaaFF7-/s320/WhatsApp%20Image%202023-07-28%20at%204.14.07%20PM.jpeg" width="320" /></a></div></span><div style="text-align: justify;">सातवें-आठवें दशक में जबलपुर के चर्चित अखबार ज्ञानयुग (पूर्व में हितवाद) के सह संपादक टिल्लन रिछारिया (पूरा नाम शिवशंकर दयाल रिछारिया) का गत दिवस निधन हो गया। वे मूलत: चित्रकूट के रहने वाले थे लेकिन यायावरी तबियत के होने के कारण उनका जबलपुर आना हुआ था। उनकी किसी भी किसिम की रचनात्मकता में समय, समाज और सभ्यता का स्पष्ट वेग रहा। टिल्लन रिछारिया हिन्दी पत्रकारिता में उन चुनिंदा पत्रकारों में से एक रहे जिन्होंने संभवत: सर्वाधिक अखबारों व मेगजीन में काम किया। हिन्दी पत्रकारिता में टिल्लन रिछारिया कांसेप्ट, प्लानिंग, लेआउट और प्रेजेंटेशन अवधारणा को शुरु करने वालों में से रहे। इसका भरपूर प्रवाह राष्ट्रीय सहारा के ' उमंग ' और ' खुला पन्ना ' में 1991 से 1995 तक देखने को मिला। भाषा की रवानी, कथ्य की कहानी, आकर्षक फोटो और ग्राफिक्स से सजे ...धर्मयुग, करंट, राष्ट्रीय सहारा के उमंग और खुला पन्ना के वे पन्ने हालाँकि इतिहास के झरोखे से उन लोगों के जेहन में अभी भी झांकते हैं जो उस दौर के हिन्दी-प्रवाह के साथ आँख खोल कर चले और आज भी अतीत की उस श्रेष्ठता को सराहने में झेंपते नहीं ।</div><p></p><p style="text-align: justify;"><span> </span>टिल्लन रिछारिया इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप मुम्बई के हिन्दी एक्सप्रेस, करंट, धर्मयुग, पूर्वांचल प्रहरी (गुवाहाटी) वीर अर्जुन, राष्ट्रीय सहारा, हरिभूमि (नई दिल्ली) में स्थानीय सम्पादक, दैनिक भास्कर (नई दिल्ली) में वरिष्ठ सम्पादक, आईटीएन टेली मीडिया मुम्बई, एन सी आर टुडे के ऐसोसिएट एडिटर व प्रबंध सम्पादक रहे। फिलहाल आयुर्वेदम पत्रिका के प्रधान संपादक थे।</p><p style="text-align: justify;"><span> </span>टिल्लन रिछारिया जबलपुर से बहुत प्यार करते थे। वे कहते थे कि जबलपुर प्रेम व आनंद का सिद्ध तीर्थ है। उनको भी इस रस राग और तिलिस्मात से भरे शहर ने अपनी छांव में कुछ समय रहने का मौका दिया। टिल्लन पूरी दुनिया घूम लिए लेकिन उनका कहना था कि गहन आत्मीयता से भरा जबलपुर शहर पल भर में ही अपना दीवाना बना लेता है । उन्होंने कभी लिखा था-‘’ हमें आये अभी एक दो दिन ही हुए थे कि दफ्तर के पास की चाय पान की दूकान में देखिए दिलफ़रेब स्वागत होता है । साथियों से नाम सुनते ही पान वाले बोले.....अरे टिल्लन जी आप आ गये। बम्बई से पूनम ढिल्लन जी का फोन था कि भाई साहब का ख्याल रखना। इस शहर में आपका स्वागत है, हम हैं न।...अरे हां, राखी भेजी है आप के लिए , अभी लाकर देता हूँ ।...जबलपुर ज्यादा देर आपको अजाना नहीं रहने देता।‘’ जबलपुर में टिल्लन रिछारिया के यारों के यार में राजेश नायक, चैतन्य भट्ट, राकेश दीक्षित, ब्रजभूषण शकरगाये, अशोक दुबे थे।</p><p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br /></div><b><div style="text-align: justify;"><b><i>टिल्लन रिछारिया</i> के निधन पर ज्ञानयुग प्रभात (हितवाद) में उनके साथ काम कर चुके<i> ब्रजभूषण शगरगाये</i> ने एक टिप्प्णी लिखी है। वह इस प्रकार है:- </b></div></b><p></p><p style="text-align: justify;"></p><div style="text-align: justify;"> लगता है उनके दिमाग में हर समय आकाशीय आतिशबाजी की त</div><div style="text-align: justify;">रह नए विचार और आइडिया की रंग-बिरंगी रोशनी चकाचौंध रहती थी। अखबार के लिए नई कहानी, कविता, लेख, फोटो के जुगाड़ और उन्हें नए तरीके से छापने के विचार लगातार आते जाते रहे। वे सामग्री को आकर्षक फोटो रेखाचित्र और हेडिंग से सजाकर अखबार में छापने से, पाठकों की प्रकाशित सामग्री के प्रति उत्सुकता जागती है। अपने अनोखे नाम के अनुरूप अपने काम में भी अनोखा पन दिखाते रहे।</div><p></p><p style="text-align: justify;"><span> </span>टिल्लन जी से मुलाकात 1982 में जबलपुर में महेश योगी द्वारा प्रकाशित दैनिक ज्ञानयुग प्रभात के प्रेस परिसर में हुई। यह अखबार पहले हितवाद नाम से प्रकाशित हो रहा था। हितवाद टाइटल विद्याचरण श्यामाचरण शुक्ल परिवार का है, राजनीतिक कारणों से महेश योगी संस्थान को डेढ़ वर्ष बाद यह टाइटल छोडऩा पड़ा और फिर ज्ञानयुग प्रभात नाम से अखबार चलने लगा। ज्ञान युग में पहले के अखबार से अधिक गुणवत्ता और नया कलेवर लाने के लिए इलाहाबाद के अमृत प्रभात से संतोष सिंह, सुनील श्रीवास्तव, राजेंद्र गुप्ता, राकेश श्रीवास्तव, मनोहर नायक और मुंबई से टिल्लन रिछारिया आए, इनमें मनोहर नायक भोपाल में अखबार के ब्यूरो प्रमुख नियुक्त किए गए। हितवाद की पुरानी टीम टाइटल बदलने और ज्ञानयुग में बाहर से आए रचे-मंझे पत्रकारों के आने से असहज और बेचैन हो गई। हितवाद में अधिकांश अखबार में पहली नौकरी करने वाले अविवाहित युवकों की टीम रही, बाहर से आए पत्रकारों में टिल्लन जी ही थे जिन्होंने पुरानी टीम से दूरियां खत्म की और कुछ ही दिनों में ज्ञानयुग के पाठकों ने हितवाद को भुला दिया। बाहर से आए पत्रकारों में टिल्लन जी ही थे जिनके पास धर्मयुग और करंट जैसी राष्ट्रीय पत्रिकाओं का अनुभव था। टिल्लन जी ने ज्ञानयुग के साहित्य परिशिष्ट को पठनीय ही नहीं दर्शनीय भी बना दिया। वे जबलपुर के लिए अजनबी थे पर कुछ ही दिनों में जबलपुर के दिग्गज साहित्यकारों और लेखकों से उनकी मित्रता हो गई नामचीन साहित्यकार परसाई जी, रामेश्वर शुक्ल अंचल, पन्नालाल श्रीवास्तव नूर, भवानी प्रसाद तिवारी, कालिका प्रसाद दीक्षित, कैलाश नारद और पूर्व मुख्यमंत्री और लेखक द्वारका प्रसाद मिश्र ही नहीं उन दिनों के उभरते अनेकों लेखकों में दोस्ताना दायरा बढ़ा लिया। प्रेस में उनसे मिलने आने वालों के लिए टिल्लन जी के पास हमेशा समय रहता। वे अपनी टेबल पर कम दूसरों की टेबल पर ज्यादा बैठते। प्रेस परिसर में वे नहीं हैं तो प्रेस के बाहर चाय नाश्ते की होटल में चाय सिगरेट पीते और बातें करते जरूर मिल जाते। महेश योगी संस्थान परिसर में सिगरेट तंबाकू निषेध थी, इसलिए भी हर थोड़ी देर में किसी बहाने बाहर निकल जाते। उन दिनों बेल बाटम के साथ सफारी का नया चलन था। सफारी में वे अलग नजर आते। एक हाथ में अखबार पत्रिकाएं और दूसरे में सिगरेट लिए गोल बाजार के घर से करीब 3 किलोमीटर दूर टहलते दोपहर तक प्रेस पहुंचते। लौटना तय नहीं था कई बार सुबह अखबार के बंडल ले जाने वाली गाड़ी उन्हें घर छोड़ती। वैसे तो टिल्लन जी का व्यवहार प्रेस के हर विभाग के सहयोगियों से दोस्ताना था, लेकिन फोटो और चित्रकारी पर उनकी अलग नजर रहती। स्टाफ फोटोग्राफर होने के नाते रोज कई बार नए-नए विषय पर फोटो लेने कहते, आयोजन कार्यक्रम के अलावा जनजीवन के फोटो के विषय में बताते रहते। चित्रकूट में 4 दिन के रामायण मेले की रिपोर्टिंग के लिए संपादक गंगा ठाकुर, प्रबंध संपादक रम्मू श्रीवास्तव से मुझे मांग कर ले गए। चित्रकूट और कर्वी गृह क्षेत्र में उनका बोलबाला रहा। रामायण मेले के आयोजकों में लक्ष्मी नारायण व्यास, लल्लन प्रसाद व्यास सहित अनेकों विभूतियों से मिलवाया। जिनमें लक्ष्मीकांत वर्मा और उनके अभिन्न मित्र अरुण खरे थे। अरुण खरे पूरे समय साथ रहे। चित्रकूट, कर्वी और कालिंजर का किला घुमाते हुए अरुण वहां के इतिहास और विशेषताएं बताते गए। इस यात्रा में अरुण खरे से दोस्ती मजबूत हो गई।</p><p style="text-align: justify;"><span> </span>योग, अध्यात्म और सकारात्मक समाचारों पर आधारित ज्ञानयुग की पाठक सीमा को सीमित मानते हुए टिल्लन जी ने अखबार के बाद बचे समय में राष्ट्रीय स्तर की एक पत्रिका का विचार नए साथियों के साथ पका लिया। जल्द ही पत्रिका - चक्र टाइटल रजिस्टर्ड करा लिया गया। सभी के आर्थिक सहयोग से पत्रिका का काम शुरू हो गया। सीमित आर्थिक और तकनीकी साधनों में चक्र का सफर 2 अंकों तक ही चल पाया। ज्ञानयुग का जीवन भी हितवाद की तरह कम समय का रहा। एक सुबह खबर मिली कि रात में प्रेस के कंप्यूटर के तार कट गए हैं। कंप्यूटर इंजीनियर दिल्ली या मुंबई से आएंगे तभी अखबार निकल पाएगा। इंजीनियरों का इंतजार लंबा होता गया और वे नहीं आए। बाहर से आए पत्रकार दिल्ली चले गए, कुछ जबलपुर के पत्रकार दिल्ली भोपाल में ठिकाना खोजने निकल गए, इसके साथ ही महेश योगी के सकारात्मक अखबार का अध्याय समाप्त हो गया।</p><p style="text-align: justify;"><span> </span>करीब 5 साल पहले दिल्ली में एक शादी में टंडन जी से मुलाकात हो गई कई घंटे बातों में गुजर गए पता ही नहीं चला। अब वे ग्लैमर की दुनिया से अलग प्रकृति और पर्यावरण पर केंद्रित हो गए थे। वे नदियों की फोटो और जानकारियां जुटाने और उन्हें भेजने का आग्रह करने लगे। फिर फेसबुक पर मुलाकात हो गई, आए दिन वे अपनी गतिविधियों की खबर देते, उनके संस्मरण के लेख चित्र, पुरानी यादें ताजा करने लगे। फिर महीने 15 दिन में फोन पर बातों का सिलसिला भी शुरू हो गया। वे पुराने फोटो और लेख फेसबुक पर साझा करने कहते रहे। 28 जुलाई को उज्जैन जाते हुए रास्ते में उन्होंने अपने जीवन का सफर खत्म कर दिया। फेसबुक पर उनके संदेश तैर रहे थे।</p><p style="text-align: justify;"><span> </span>2 दिन पहले ही फोन पर लंबी बातचीत मुझे फोन से डॉक्यूमेंट्री बनाने का सुझाव दे रहे थे। अपनी अमेजान पर आइ किताबों का जिक्र करते रहे। 13 जुलाई को टिल्लन जी ने रामचंद्र शुक्ल की लाइनें फेसबुक पर डालीं</p><p style="text-align: justify;"><span> </span>जिनमें हम से अधिक आत्मबल हो, मित्र हो तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हो, मृदुल और पुरुषार्थी हों, और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे छोड़ सकें और विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा ना होगा।</p><p style="text-align: justify;"><span> </span>उन्होंने लिखा मैं इस किताब में जिन मित्रों को याद कर रहा हूं वह सब इसी पैमाने पर खरे मित्र हैं। ज्ञानयुग के दिनों में चक्र की असफलता पर साथी डॉक्टर योगेंद्र श्रीवास्तव की टिल्लन जी पर कटाक्ष भरी कविता की लाइन याद आ गई </p><p style="text-align: justify;"></p><p style="text-align: justify;"><span> </span>इतनी सारी रद्दी हमें थमा कर चले गए टंडन जी।</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-63986251893818662722023-07-21T11:58:00.000+05:302023-07-21T11:58:46.533+05:30हॉकी और वालीबाल में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली कमलेश नागरथ<p> </p><p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrhEUjVdZ7tk1xIgWHZsq7qtgF_zWGr79fKt6B2cfuBen5GC-YQNxIvTF5Xvxl-WjQwDrahdb_SPH1-Ni_BhWwtzt4of1iX52HfAy_C4FAxZORagVqV3-651CshP7FSyKi6d5-UF7AqWvbhT5MR6KbD48urdmFJ7v9Aw_SQqGHyZCKDWBtD3Y8Y33MwcLv/s406/WhatsApp%20Image%202023-07-15%20at%208.30.12%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="406" data-original-width="222" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrhEUjVdZ7tk1xIgWHZsq7qtgF_zWGr79fKt6B2cfuBen5GC-YQNxIvTF5Xvxl-WjQwDrahdb_SPH1-Ni_BhWwtzt4of1iX52HfAy_C4FAxZORagVqV3-651CshP7FSyKi6d5-UF7AqWvbhT5MR6KbD48urdmFJ7v9Aw_SQqGHyZCKDWBtD3Y8Y33MwcLv/s320/WhatsApp%20Image%202023-07-15%20at%208.30.12%20AM.jpeg" width="175" /></a></div>जबलपुर के महिला खेल इतिहास में अविनाश सिद्धू<span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, <span lang="HI">प्रभा राय की फेहरिस्त में एक ऐसा नाम है जिन्होंने न सिर्फ देश में बल्कि
विदेश में भी अपने खेलों के प्रति समर्पण की भावना से नाम कमाया है। जिस समय यह खिलाड़ी
मैदान में उतरी</span>, <span lang="HI">उस समय लड़कियों को घर से बाहर निकलने की
इज़ाजत नहीं थी। वर्ष </span>1947<span lang="HI"> में देश के स्वतंत्र होने के बाद
एडवोकेट जेएन नागरथ ने जबलपुर में वकालत करना शुरु कर दी थी। उनका बंगला उस समय
नौदरापुल पर उस स्थान पर था जहां आज ज्योति टॉकीज के अवशेष शेष हैं। बंगले का पता
था-</span>1<span lang="HI"> नेपियर टाउन जबलपुर। एडवोकेट जेएन की पुत्री कमलेश
नागरथ सेंट नार्बट स्कूल में अध्ययनरत थीं। उनके बंगले में जहां </span>16<span lang="HI"> कमरे थे</span>, <span lang="HI">वहीं बाहर इतना खुला स्थान था जो किसी खेल
के मैदान की पूर्ति कर देता था। परिवार के बच्चे इस मैदान में खेल कर विकसित हुए
और उनमें खेल कौशल आया। एडवोकेट नागरथ जबलपुर में आर्य समाज का नेतृत्व करते थे।
उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ने</span>, <span lang="HI">खेलने व भविष्य के कैरियर को
चुनने की पूरी स्वतंत्रता दी थी। कमलेश का बचपन से खेल के प्रति लगाव था। वे
जन्मजात एथलीट रही हैं। स्कूली पढ़ाई पूरी होते-होते कमलेश ने हॉकी व वालीबाल को
गंभीरता से लिया। कमलेश ने होमसाइंस कॉलेज से स्नातक की डिग्री ली और अर्थशास्त्र
में स्नातकोत्तर डिग्री के लिए राबर्टसन कॉलेज में एडमिशन लिया। </span><o:p></o:p></span><p></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">जबलपुर महिला हॉकी देश का पुराना
गढ़-</span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">जबलपुर
महिला हॉकी का पुराना गढ़ रहा है। वर्ष </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">1936<span lang="HI"> में जब नागपुर
में सीपी एन्ड बरार महिला हॉकी एसोसिएशन की स्थापना हुई</span>, <span lang="HI">उससे
पूर्व ही जबलपुर में महिला हॉकी की शुरुआत हो चुकी थी। उस समय एंग्लो इंडियन व
पारसी परिवार की लड़कियां ही हॉकी खेलती थीं और उनको कोचिंग इंटरनेशनल नॉरिस व रॉक
दिया करते थे। जबलपुर में वर्ष </span>1945<span lang="HI"> में महिला हॉकी खिलाड़ियों
का पहला जुबली क्लब का गठन हुआ। जुबली क्लब में खेलने वाली स्मिथ सिस्टर्स व
नॉरिस सिस्टर्स की सहायता से मध्यप्रदेश ने उस समय चार बार नेशनल चैम्पियशिप को
जीता और दो बार उसे उपविजेता बनने का गौरव मिला। जबलपुर की योवेन स्मिथ</span>, <span lang="HI">डोरेल स्मिथ</span>, <span lang="HI">वेंडी नॉरिस व फिलोमिना नॉरिस ने
पहली बार वर्ष </span>1953<span lang="HI"> में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया।
इस टीम ने उस समय इंग्लैंड का दौरा किया था। इसी टीम ने वर्ष </span>1956<span lang="HI"> में आस्ट्रेलिया का दौरा किया। आस्ट्रेलिया दौरे में तो भारतीय टीम का
प्रतिनिधित्व योवेन स्मिथ ने किया। जबलपुर विश्वविद्यालय बनने के बाद जबलपुर
की लड़कियों ने हॉकी में रुचि व उत्साह दिखाया। उनके उत्साह को देख कर वर्ष </span>1961<span lang="HI"> में महाकौशल महिला हॉकी एसोसिएशन का गठन किया गया। विशाखा दीक्षित व
पुष्पा वर्मा इस एसोसिएशन की पहली अध्यक्ष व सचिव बनीं।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">हॉकी के साथ वालीबाल में भारत का
प्रतिनिधित्व-</span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">साठ के दशक में चारू पंडित</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, <span lang="HI">सरोज गुजराल</span>, <span lang="HI">सिंथिया फर्नाडीज</span>, <span lang="HI">अविनाश सिद्धू</span>, <span lang="HI">गीता राय व कमलेश नागरथ</span>, <span lang="HI">आशा परांजपे</span>, <span lang="HI">मंजीत संधू के रूप में नई महिला खिलाड़ियों
की ऐसी पौध सामने आई जिसने पूरे देश को चमत्कृत कर दिया। इनमें से अविनाश सिद्धू</span>,
<span lang="HI">गीता राय व कमलेश नागरथ ने तो वालीबाल में भी कमाल दिखाया। कमलेश
नागरथ के जन्मजात एथलीट होने के कारण उनका मैदान पर स्टेमिना देखते ही बनता था।
हॉकी स्किल भी उनकी कमाल की थी। कमलेश नागरथ ने जबलपुर में आने दस वर्ष के
कैरियर में कई बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हॉकी व वालीबाल में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व
किया। उन्होंने सिलोन</span>, <span lang="HI">जापान</span>, <span lang="HI">सिंगापुर
के विरूद्ध भारतीय हॉकी मैदान पर भारत की ओर से खेलीं। कमलेश नागरथ ने भारतीय हॉकी
टीम की ओर से आस्ट्रेलिया का दौरा कर उत्कृष्ट खेल का प्रदर्शन करते हुए सराहना
अर्जित की। वर्ष </span>1963<span lang="HI"> में जबलपुर में आयोजित राष्ट्रीय महिला
हॉकी प्रतियोगिता में कमलेश नागरथ ने सर्वश्रेष्ठ खेल का प्रदर्शन किया। वर्ष </span>1967<span lang="HI"> जबलपुर की महिला हॉकी व वालीबाल के लिए महत्वपूर्ण वर्ष रहा जब कमलेश
नागरथ के साथ अविनाश सिद्धू व गीता राय ने दिल्ली में एशियन चैम्पियनशिप में
भारतीय हॉकी टीम और इंडिया कप में भारतीय वालीबाल टीम का प्रतिनिधित्व किया।
अविनाश सिद्धू तो दोनों भारतीय टीम की कप्तान भी रहीं। एशियन हॉकी चैम्पियनशिप
भारत ने जीती। भारत-जापान के बीच हुई हॉकी टेस्ट मैचों की शृंखला में कमलेश नागरथ
ने सर्वाधिक गोल कर प्रशंसित हुईं। उन्होंने वर्ष </span>1971<span lang="HI"> में
न्यूजीलैंड में हुई अंतरराष्ट्रीय महिला हॉकी प्रतियोगिता में भारतीय टीम का
प्रतिनिधित्व किया। यहां भी कमलेश नागरथ विरोधी टीमों पर गोल करने में आगे रहीं।
उन्होंने नई दिल्ली में भारत का दौरा कर रही आस्ट्रेलियन हॉकी टीम के विरूद्ध
उत्कृष्ट प्रदर्शन किया।</span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">खो-खो</span></b><b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, <span lang="HI">कबड्डी</span>, <span lang="HI">एथलेटिक्स और बास्केटबाल में दिखाई
श्रेष्ठता-</span></span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">इस दौरान कमलेश नागरथ ने हॉकी व वालीबाल के साथ
खो-खो</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,
<span lang="HI">कबड्डी</span>, <span lang="HI">एथलेटिक्स व बॉस्केटबाल में अपनी
श्रेष्ठता दिखाते हुए विलक्षण उपलब्धि हासिल की। इसके लिए उन्हें सम्मानित करते
हुए असाधारण खेल व्यक्तित्व ट्राफी प्रदान की गई। वे जन्मजात एथलीट रहीं इसके
अनुरूप कमलेश ने </span>100<span lang="HI"> व </span>200<span lang="HI"> मीटर दौड़
में राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भाग ले कर बेहतर समय निकाल कर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन
किया। उन्होंने खो-खो</span>, <span lang="HI">कबड्डी</span>, <span lang="HI">एथलेटिक्स
व बास्केटबाल में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व किया। कमलेश को एनसीसी में
राष्ट्रीय स्तर पर मध्यप्रदेश का कई बार प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला।
एनसीसी में उन्होंने शूटिंग में असाधारण प्रदर्शन कर ख्याति अर्जित की। खेल के साथ
कमलेश शिक्षा में भी नए शिखर छूती गईं। उन्होंने पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला से
फिजिकल एज्युकेशन में एमएड किया। पंजाब में भी कमलेश का खेल व्यक्तित्व की कीर्ति
फैली। यहां हॉकी व एथलेटिक्स में उनके सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को देखते हुए दो बार
स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया।</span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">इंग्लैंड में खो-खो और कबड्डी को
लोकप्रिय बनाया-</span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">खेलों में नियमित कैरियर के बाद कमलेश नागरथ
दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला कॉलेज में फिजिकल एज्युकेशन
की निदेशक नियुक्त हुईं। यहां उन्होंने खेल विकास के लिए कई नवाचार कर विद्यार्थियों
को प्रोत्साहित किया। उनकी खेल प्रशासक के रूप में एक नई छवि निर्मित हुई। दिल्ली
में कार्यरत रहने के पश्चात् विवाह के बाद कमलेश इंग्लैंड चली गईं। इंग्लैंड में
उन्होंने एक ऐसे भारतीय के रूप में विख्यात हुई जिन्होंने वहां देशी खेल खो-खो और
कबड्डी को लोकप्रिय बनाने का विशेष अभियान चलाया। कमलेश नागरथ ने इंग्लैंड के
स्कूलों में कबड्डी व खो-खो की शुरुआत करवाई। उन्होंने इसके साथ इंग्लैंड में फिजिकल
एज्युकेशन टीचर के रूप में कार्य किया। अंग्रेजी भाषा में पारंगत होने के कारण
उन्होंने स्कूलों में अंग्रेजी विषय की शिक्षक की भूमिका का निर्वाह भी किया।
भारतीय देशी खेलों को लोकप्रिय बनाने के उनके अभियान और उसमें मिली सफलता की
कहानी बीबीसी साउथ टीवी में उनके एक इंटरव्यू के माध्यम से सामने आई। कमलेश
इंग्लैंड में शौक के रूप में बैडमिंटन खेलने लगीं लेकिन धीरे धीरे इस खेल में उनकी
ऐसी विशेषज्ञता आ गई कि वे वहां की प्रसिद्ध </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">'<span lang="HI">डेविड लॉयड</span>' <span lang="HI">क्लब ट्राफी में दो बार विजेता बनीं।</span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">खेल में सफलता का श्रेय पिताजी के
प्रोत्साहन को-</span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">कमलेश नागरथ खेलों में मिली अपनी सफलता का पूरा
श्रेय पिताजी एडवोकेट जेएन नागरथ को देती हैं। उनके प्रोत्साहन के बिना वे खेलों
के इतने पायदान छू ही नहीं सकती थीं। जेएन नागरथ के नाम पर ही आज भी जबलपुर के एक
प्रसिद्ध व व्यस्त चौराहा का नाम नागरथ चौराहा है। कमलेश की तरह उनके भाई अनिल
नागरथ ने हिन्दी सिनेमा में ख्याति अर्जित की। वे मनमोहन देसाई के साथ एसोसिएट
डायरेक्टर व संवाद लेखक रहे। अनिल नागरथ ने अमर-अकबर-अंथोनी फिल्म में अमिताभ
बच्चन के आइना के सामने के प्रसिद्ध दृश्य को लिखा व निर्देशित किया था। इस दृश्य
में अमिताभ बच्चन को अभिनय की बदौलत उन्हें फिल्मफेयर सहित कई अवार्ड मिले थे। इस
दृश्य को लिखने व निर्देशित करने के लिए अमिताभ बच्चन आज भी अनिल नागरथ के प्रति
आभार व्यक्त करते हैं। नागरथ परिवार की विरासत को जबलपुर में वरिष्ठ अधिवक्ता नमन
नागरथ आगे ले जा रहे हैं।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span><span style="text-align: left;">🟦</span></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-56203748890267204832023-07-12T11:45:00.000+05:302023-07-12T11:45:46.974+05:30नाट्य समीक्षा: ‘न्याय को घेरा’ की प्रस्तुति के बहाने जड़ता तोड़ने की जिद <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8flvOMijUgDNwhpOqKaU48h5ewxoGB56EIIzn9MkC9CWk3tzGLD7kBuZp1yfKzh6E8fBUEVCY9HL3GKJK6HxuS6gqSN8AjDTdn28mNNbdQOo_pGKHl7Aiq0QVa_Q3jsLm5JbU-FQoavQSjTEdi1OqOSMFIJcYrDbVcsrhJvd_WbjwReA1Vd4zXOLvi3ea/s951/WhatsApp%20Image%202023-07-11%20at%202.05.52%20PM%20(1).jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="600" data-original-width="951" height="403" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8flvOMijUgDNwhpOqKaU48h5ewxoGB56EIIzn9MkC9CWk3tzGLD7kBuZp1yfKzh6E8fBUEVCY9HL3GKJK6HxuS6gqSN8AjDTdn28mNNbdQOo_pGKHl7Aiq0QVa_Q3jsLm5JbU-FQoavQSjTEdi1OqOSMFIJcYrDbVcsrhJvd_WbjwReA1Vd4zXOLvi3ea/w640-h403/WhatsApp%20Image%202023-07-11%20at%202.05.52%20PM%20(1).jpeg" width="640" /></a></div><br />जबलपुर में पिछले दिनों विवेचना रंगमंडल ने अक्षय सिंह ठाकुर के निर्देशन में प्रख्यात नाटककार बर्टोल्ट ब्रेख्त के बहुचर्चित नाटक कॉकेशियन चाक सर्किल का हिन्दी अनुवाद है खड़िया का घेरा को बुंदेली में ‘न्याय को घेरा’ के नाम से प्रस्तुत किया। मध्यप्रदेश की ज़मीन पर लगभग चालीस वर्षों बाद इस नाटक को बुंदेली में प्रस्तुत किया गया। संभवत: वर्ष 1982-83 में भारत भवन के रंगमंडल में हिन्दी भाषा न जानने वाले फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ ने इस नाटक को पहली बार बुंदेली में प्रस्तुत किया था। नाटक खड़िया का घेरा प्रख्यात जर्मन नाटककार बर्तोल्ट ब्रेख्त की मूल रचना पर आधारित है। इसका हिन्दी अनुवाद जाने माने साहित्यकार कमलेश्वर ने किया था। यह नाटक 1944 में लिखा गया था और ब्रेख्त के चार प्रमुख नाटकों में से एक है। यह दुनिया की कई भाषाओं में अनुवदित किया गया। यह मूलत: चीनी नाटककार ली शिंगडाओ के नाटक द कॉकेशियन चाक सर्कल पर आधारित है। इस नाटक में विश्व युद्ध की विभीषिका को दिखाया गया है। एक किसान की लड़की राजपरिवार के एक बच्चे को बचाती है। उसकी देखभाल वह एक मां की तरह करती है। अंतत: वह किसान पुत्री उस राजकुमार के अमीर माता पिता से बेहतर मां बन जाती है। उसी दौरान गांव का एक मुंशी गांव का अजदक (जज) बना दिया जाता है। मुंशी जंग से उपजी बेरोजगारी के कारण छोटी मोटी चोरियां करता रहता है। सत्ता के उलटफेर में उसकी किस्मत साथ देती है और वह जज बना दिया जाता है। वह उल्टे सीधे न्याय देता है लेकिन उसके न्याय तर्क संगत होते हैं। अपने इस तरह के फैसलों के कारण वह काफी प्रसिद्ध हो जाता है। एक दिन किसान की बेटी का मामला इस जज के पास आता है। इसमें साबित होता है कि वह एक बेहतर मां है। इसी के साथ नाटक का समापन होता है। <p></p><p style="text-align: justify;">यह नाटक जिस तरह की दुनिया हमारे सामने पेश करता है, उसकी अनुगूंज हमें अपने इतिहास और वर्तमान में मिलने लगती है। नाटककार ने इस नाटक के ज़रिये कुछ ऐसे मुद्दों को छूने की कोशिश की है जो द्वितीय विश्व युद्ध की त्रासदी से उपजे हैं, किन्तु आज भी प्रासंगिक हैं। भ्रष्टाचार, पतन, मूल्यहीनता, अवसरवादिता, पदलोलुपता, जनता के नाम पर जनता का शोषण, न्यायहीनता और अन्धापन – जो इस नाटक में व्याप्त हैं, वे भारतीय प्रजातंत्र के संत्रास को भी उजागर कर रहे हैं। संस्थाओं, वर्गों और व्यक्तियों के नाम दूसरे हैं पर जनता एक ही तरह से अभिशप्त और संत्रस्त है। संक्रान्ति और सन्ताप का जो अनुभव यह नाटक देता है, वही आज के भारतीय का जीवन अनुभव भी है। अनेक देशों में सदियों से चली आती एक लोककथा को आधुनिक सन्दर्भ दिया है ब्रेख्त ने। नाटक को ब्रेख्तियन शैली में करते हुए एक ही अभिनेता द्वारा कई भूमिका अदा कर, मुखौटों, बैनरों और संगीत का प्रयोग कर जगह-जगह एलिनेशन को दिखाने की भी कोशिश की गई है जो ब्रेख्त के एपिक थियेटर की मूल अवधारणा है।</p><p style="text-align: justify;">‘न्याय को घेरा’ के माध्यम से विवेचना रंगमंडल लगभग 28 वर्षों के बाद ब्रेख्तियन शैली में वापस लौटी है। इसका श्रेय निर्देशक अक्षय सिंह ठाकुर को है। नब्बे दशक के मध्य में अरविंद गौर ने वर्कशॉप आधारित ब्रेख्त के नाटक ‘एक औरत भली रामकली’ को तैयार किया था। गौरतलब है कि जब कोई बाहरी निर्देशक वर्कशॉप के माध्यम से किसी संस्था का नाटक तैयार करवाता है, तो उसके लिए सभी कलाकार एक से रहते हैं। निर्देशक का कोई पूर्वाग्रह नहीं रहता। वह उत्कृष्ट कलाकारों को चुन कर उन्हें प्रमुख भूमिका देता है और ब्रेख्तियन शैली के अनुरूप ऐसे कलाकारों से कई पात्रों का अभिनय भी करवाता है। अक्षय सिंह ठाकुर जबलपुर से बाहर के नहीं हैं। हां वे पिछले चार-पांच वर्षों से मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय से थिएटर आर्ट्स का पाठ्यक्रम पूरा कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने कुछ नाटकों का निर्देशन भी किया जिसमें कॉकेशियन चॉक सर्कल भी शामिल था। वे विवेचना रंगमंडल से भी कलाकार के रूप में जुड़े रहे हैं। किसी कलाकार के लिए यह किसी उपलब्धि से कम नहीं होता जिस संस्था से उसने रंग यात्रा प्रारंभ की हो, उसे वहां नाटक के निर्देशन के लिए आमंत्रित किया जाए। इसमें कोई शक नहीं कि अक्षय सिंह ठाकुर को जो चुनौती दी गई थी उन्होंने उसे सफलतापूर्वक निभाया। इस सफलता के साथ अक्षय सिंह ठाकुर ने विवेचना रंगमंडल के बंधे बनाए खांचों को भी तोड़ा है। किसी भी प्रकार का ठहराव व्यक्ति व संस्था के लिए घातक होता है। परिकल्पनाएं उड़ान नहीं ले पातीं। थ्योरी प्रेक्टिकल में परिवर्तित नहीं पाती हैं। नवोदित कलाकार छद्म में जीते रहते हैं। अक्षय सिंह ठाकुर की प्रविष्टि विवेचना रंगमंडल के खांचें अवश्य टूटे हैं। यह बात भी ध्वस्त हुई है कि जो अच्छा दिख रहा है, उसे मंच पर प्रस्तुत किया जाए। ब्रेख्तियन थ्योरी सिर्फ कलाकारों के लिए ज़रूरी नहीं है बल्कि इसे समझना दर्शकों के लिए भी ज़रूरी है। कम से कम सही समय अक्षय सिंह ठाकुर की प्रविष्टि से जबलपुर का रंग दर्शक इस नाटक को देख कर ब्रेख्तियन शैली को समझने लगेगा।</p><p style="text-align: justify;">जबलपुर और मध्यप्रदेश में कॉकेशियन चॉक सर्कल का विशेष महत्व है। भारत भवन के रंगमंडल में निर्देशक फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ ने कॉकेशियन चाक सर्किल नाटक को बुंदेली में खरिया का घेरा के नाम नाटक प्रस्तुत किया था। महत्वपूर्ण बात यह थी कि फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ को हिन्दी बिल्कुल नहीं आती थी। इस नाटक को इंसाफ का घेरा के नाम से भी जाना जाता है। इस नाटक में अभिनय कर के रंगमंडल के कलाकारों ने यह सीखा था कि इमोशन को एक पीक पर ले जा कर कट कैसे करना चाहिए। फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ ब्रेख्तियन के थिएटर में कलाकार के रूप में काम कर चुके थे। उनकी नाट्य प्रस्तुति में प्रापर्टी की शिफ्टिंग करते वक्त तत्कालिक रूप से सेट तैयार कर लिया जाता था। खरिया के घेरा में द्वारका प्रसाद प्रमुख कलाकार की भूमिका में रहते थे। इस नाटक का मंचन होने के बाद पूरे देश में भारत भवन का रंगमंडल अचानक चर्चा में आ गया था। फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ की यह दृष्टि थी या उनका प्रयोग था कि वे राजा को भी एक गांव वाले या कस्बाई या सामान्य व्यक्ति के रूप में देखते थे। प्राय: नाटकों में युवा, रौबीले, ऊंचे कद के कलाकार को राजा की भूमिका दी जाती है, लेकिन इसके उलट फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ यह मानते थे कि जो कलाकार कस्बाई चेहरे मोहरे वाला है, वह राजा के रूप में ज्यादा सशक्त दिखेगा। दर्शक उसके साथ अपना संबंध यह सोच व महसूस कर के बना लेंगे कि ऐसा राजा भी हो सकता है। फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ सीन वर्क पर बहुत ध्यान देते थे।</p><p style="text-align: justify;">फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ ने जब यह नाटक निर्देशित किया था तब अक्षय सिंह ठाकुर का जन्म ही नहीं हुआ था और न उन्होंने रंगमंडल के कलाकारों के इस नाटक को देखा था। लेकिन जबलपुर के शहीद स्मारक में ‘न्याय का घेरा’ देखते वक्त महसूस हुआ कि अक्षय सिंह ठाकुर ब्रेख्त की थ्योरी और पश्चिमी नाट्य शास्त्र को जम से पकड़ कर रखे हुए हैं। वैसे अक्षय सिंह ठाकुर के लिए विवेचना रंगमंडल के साथ वर्कशॉप के माध्यम से नाटक को तैयार कर मंच पर प्रस्तुत करने की जबर्दस्त चुनौती थी। वे संस्था से जुड़े रहे थे इसलिए हकीकत जाानते थे। उन्होंने वर्कशॉप की शुरुआत के दिनों में कोई रीडिंग ही नहीं रखी। कलाकारों को अचरज हुआ। हफ्ते दस दिन तक अक्षय सिंह ठाकुर सिर्फ ब्रेख्त और उनकी शैली की बात करते रहे। उनको कुछ ही ऐसे कलाकार मिले जो समर्पित थे। धीरे धीरे सब कलाकार निर्देशक के ढांचे में ढलने लगे। रीडिंग के साथ अक्षय सिंह ठाकुर डिजाइनिंग में लग गए। उन्होंने सेट डिजाइन करने से ले कर कास्ट्यूम तक में कलाकारों को जोड़ लिया। अक्षय सिंह ठाकुर ने विवेचना रंगमंडल के वरिष्ठ कलाकारों से अनुरोध किया कि वे पूरी प्रक्रिया में कलाकारों को स्वतंत्र रूप से काम करने दें। निर्देशक की इस पहल का सीधा लाभ कलाकारों को मिला। निर्देशक की परिकल्पना से कलाकार अवगत होते रहे।</p><p style="text-align: justify;">अक्षय सिंह ठाकुर ब्रेख्तियन शैली में इस नाटक को प्रस्तुत करने के कारण विकल्प खुले हुए थे। किसान की बेटी सरोज की भूमिका तीन महिला कलाकारों के द्वारा निभाई गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि वंशिका पांडे ने बहुआयामी प्रतिभा दिखाते हुए नाटक का आशुतोष द्विवेदी के साथ बुंदेली रूपांतरण किया बल्कि उन्होंने अभिनय, गायन व नृत्य के साथ अपने पात्र को संवेदनशील व विश्वसनीय बनाया। उन्होंने सास की भूमिका का निर्वाह सफलतापूर्वक किया। पिछले साल वंशिका पांडे ने ‘ज़ायज़ हत्यारे’ नाटक में गंभीर भूमिका निभा कर अपनी प्रतिभा से परिचय करवाया था। नाटक में जब एक पात्र को एक से ज्यादा कलाकार निभाते थे, तब उनके बीच प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक है। सरोज की भूमिका निभाते हुए राशि वर्मा व स्वाति भट्ट ने अपने हिस्से के दृश्यों में सरोज के पात्र की जीवंतता बनाए रखी। नाटक में बसंत पांडे व अंशित तिवारी ने अपने अभिनय से संभावना दिखाई है। बसंत पांडे के अभिनय व आत्मविश्वास को देखते हुए निर्देशक ने उनसे कई भूमिकाएं करवाई गईं। विकी तिवारी अनुभवी कलाकार हैं लेकिन उन्हें अजदक की भूमिका निभाते हुए वे गंभीर रहते तो बेहतर रहता। निर्देशक को उन्हें नियंत्रित करना होगा। कलाकारों का इम्प्रोवाइजेशन व संवाद बुंदेली परंपरा व हास्य बोध को जगाते हैं। </p><p style="text-align: justify;">‘न्याय को घेरा’ की महत्वपूर्ण विशेषता इसका संगीत व गीत हैं। अमित चक्रवर्ती की रंग संगीत में लम्बे अर्से के बाद वापसी सुखद रही। नब्बे के दशक में वे कुछ नाटकों में संगीत देते रहे हैं। नाटक तैयार होने की प्रक्रिया में निर्देशक व संगीत निर्देशक की लम्बी बैठकों से संगीत निखर कर सामने आया है। अक्षय सिंह ठाकुर स्वयं एक कुशल तबला वादक हैं। उन्हें ताल की गहरी समझ है। अक्षय सिंह ठाकुर व अमित चक्रवर्ती ने नाटक के एक एक गीत व उनके संयोजन पर बहुत मेहनत की है। आशुतोष द्विवेदी ने बुंदेली में रूपांतरण करते वक्त ब्रेख्त की मूल स्क्रिप्ट की कविताओं को पहले छंद के रूप में रखा फिर ब्रेख्त की भावना को बरकरार रखने के लिए इन्हें छंदहीन किया। जब गीत तैयार हुए तो अमित चक्रवर्ती ने इनको संगीत में संयोजित किया। रिकार्डेड संगीत के स्थान पर नाटक के साथ जीवंत गीतों की प्रस्तुति से नाटक प्रभावी बन गया। </p><p style="text-align: justify;">निर्देशक अक्षय सिंह ठाकुर ने ‘न्याय को घेरा’ को प्रस्तुत कर के जबलपुर में आशीष पाठक, स्वाति दुबे की परंपरा को आगे बढ़ाया है। अक्षय सिंह ठाकुर पूर्व की प्रस्तुतियों की तुलना में परिपक्व हो गए। अक्षय सिंह ठाकुर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने जड़ता को तोड़ा। सालों से बने खांचों को ध्वस्त किया। ‘न्याय को घेरा’ में पुल पार करने व सरोज और उसके प्रेमी के संवाद में नदी के पानी लहरों व बहाव को दिखाने के लिए सफेद कपड़े ओढ़े हुए कलाकारों की पूरे मंच में अनवरत मूवमेंट के दृश्य निर्देशक की सफल परिकल्पना के रूप में सामने आई। मंच पर चार पेंटिंग, हवा में लहराते हुए बांसों की खप्पचियां और पार्श्व में भाले नाटक की विषयवस्तु को सफलतापूर्वक उभारते हैं। ‘न्याय को घेरा’ के शुरुआती कुछ दृश्यों को निर्देशक छोटा कर दें या उन्हें संपादित कर दे तो यह बेहतर होगा। निर्देशक अंतिम चरमोत्कर्ष दृश्य में अजदक को नियंत्रित कर यदि गंभीर रखते तो नाटक और प्रभावी बन सकता था। नाटक को देख कर और अक्षय सिंह ठाकुर से बात कर के यह संतुष्टि मिली कि वे पूर्णतावादी (परफेक्शनिस्ट) हैं। थोड़े में संतुष्ट होना उनकी फितरत नहीं है। यह उनके उज्जवल भविष्य का संकेत है। अक्षय सिंह ठाकुर के निर्माण में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय के थिएटर आर्ट्स विभाग के गुरूओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने अपने रंग गुरुओं से काफ़ी कुछ हासिल किया होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि अक्षय सिंह ठाकुर चकाचौंध में नहीं गए बल्कि अपनी जड़ों में वापस लौटे हैं।🔷</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-30926056130797567822023-07-06T12:40:00.000+05:302023-07-06T12:40:08.633+05:30रजनीश और मग्गा बाबा<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgj_tdT6CiA5mC06J-WFnozOdnH3TE86-rRy6OIKmU0ippC1586JAab6HaLeW12L36LjJ8b5jKNIKxl4DUJJJtGBoUsM-FrqFttf30t5zjLd250R7zOSTHri1Cx1NE8td2E9UKriGA4meO0T4TSXSOV1fQm2Ep5jNS_VvBX6kJHO4NHoCiuT3-SQZkAkp_i/s1280/WhatsApp%20Image%202023-07-02%20at%205.43.06%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="594" data-original-width="1280" height="298" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgj_tdT6CiA5mC06J-WFnozOdnH3TE86-rRy6OIKmU0ippC1586JAab6HaLeW12L36LjJ8b5jKNIKxl4DUJJJtGBoUsM-FrqFttf30t5zjLd250R7zOSTHri1Cx1NE8td2E9UKriGA4meO0T4TSXSOV1fQm2Ep5jNS_VvBX6kJHO4NHoCiuT3-SQZkAkp_i/w640-h298/WhatsApp%20Image%202023-07-02%20at%205.43.06%20PM.jpeg" width="640" /></a></div><br />गुरू पूर्णिमा को पूरे विश्व में रजनीश (ओशो) के भक्त व अनुयायी उन्हें याद करेंगे। जब ओशो अपने भौतिक शरीर में थे तो यह गुरु पूर्णिमा उत्सव दुनिया भर के ओशो शिष्यों द्वारा विशेष रूप से मनाया जाता था और यह परंपरा अभी भी जारी है। ओशो 1990 में भौतिक शरीर छोड़ गए लेकिन उनके निधन के 33 साल बाद भी शिष्य व भक्त उन्हें गुरू पूर्णिमा के दिन महसूस कर सकते हैं। शिष्य व भक्त इस दिन ओशो की ऊर्जा और ध्यान से भरे हुए होते हैं। गुरू पूर्णिमा के दिन रजनीश के शिष्य व भक्त उनका स्मरण करते हैं। क्या रजनीश को किसी ने जीवन में नई दिशा दी ? क्या रजनीश किसी से प्रभावित हुए ? यहां इन प्रश्नों का उत्तर है। जबलपुर में मग्गा बाबा ने रजनीश को नई दिशा दी और रजनीश बाबा से प्रभावित हुए।<p></p><p style="text-align: justify;"><b>कौन थे मग्गा बाबा-</b> मग्गा बाबा जबलपुर के स्थायी वाशिन्दे नहीं थे। वे जबलपुर में 10-15 साल तक रहे और शहर की सड़को में घूमते रहे। बाबा हाथ में एक डिब्बा थामे रहते थे। यह डिब्बा मग की भांति था। उनका असली नाम कोई नहीं जानता था। हाथ में मग थामे रखने से लोग उन्हें मग्गा बाबा के नाम से पुकारने लगे थे। जब भी कोई उनका नाम पूछता तो वे मग चमका देते थे। उस समय जबलपुर में लोग मग्गा बाबा को घेरे रखते थे। हद तो यह हो जाती थी कि लोग अपने स्वार्थ में मग्गा बाबा को सोने तक नहीं देते थे। बताया जाता है कि मग्गा बाबा निवाड़गंज में किराना बाजार की दुकानों के छप्पर पर सोते थे। बाबा जब आराम की मुद्रा में नीम के पेड़ के नीचे होते तब असंख्य महिला पुरूष उनके हाथ पैर दबाते और मालिश करते। रिक्शे वालों में उन्हें सड़क पर घुमाने की होड़ लगी रहती थी। बाबा के लब पर चार-चार बीड़ी खुसी हुई रहती थी। कई बार लोग उनसे बात करने की कोशिश करते वे मौन हो जाते या कुछ अज़ीब भाषा में बोलते जिसे लोग उनकी बातों को समझ ही नहीं पाते थे। वे भाषा का प्रयोग बिल्कुल नहीं करते थे। बाबा सिर्फ आवाज लगाते थे। उदाहरण के लिए-"हिग्गलाल हू हू हू गुल्लू हिग्गा ही ही।" फिर वह प्रतीक्षा करते और फिर पूछते-"ही ही ही?" तब लोगों को ऐसा महसूस होता जैसे वे पूछ रहे हैं- "क्या आप समझ गए?" और लोग कहते-और "हाँ, बाबा, हाँ।" बाबा अपने मग्गे में जो मिलता जाता उसे सान कर खा लेते थे। बाबा को बिना मांगे लोग इकन्नी, दुअन्नी, पांच व दस पैसे देते थे। बाबा इनको हथेली में एक के ऊपर एक रखते और जो चिल्लर सरक जाती उसे वे हवा में उछाल दिया करते थे।</p><p style="text-align: justify;"><b>मग्गा बाबा ने सिर्फ एक बार बातचीत में क्या कहा था रजनीश से-</b>मग्गा बाबा ने केवल एक बार रजनीश से बात की थी। यह बात उस समय की गई थी जब वे रजनीश से बात तो करना चाहते थे लेकिन कुछ लोग नहीं चाहते थे कि मग्गा बाबा व रजनीश के बीच में कोई बातचीत हो। जबलपुर में कई बार ऐसा भी हुआ कि भीड़ का एक समूह ने मग्गा बाबा को जबर्दस्ती अगवा कर अपने साथ ले जाता था। एक दिन में उनके न दिखने पर दूसरा समूह बाबा को दूंढ़ कर सामने ला देता था। लेकिन एक बार मग्गा बाबा जो गायब हुए उसके बाद जबलपुर में कभी नहीं दिखे। मग्गा बाबा ने गायब होने से पहले एक रात पूर्व रजनीश से कहा था- ‘’हो सकता है कि मैं आपको एक फूल के रूप में विकसित न देख सकूं, लेकिन मेरा आशीर्वाद आपके साथ रहेगा। यह संभव है कि मैं वापस नहीं आ पाऊंगा। मैं हिमालय की यात्रा की योजना बना रहा हूं। मेरे ठिकाने के बारे में किसी को कुछ मत बताना। रजनीश ने कहा था कि जब उन्होंने मुझे यह बात बताई तो वे बहुत खुश थे। रजनीश स्वयं भी प्रसन्न हुए कि मग्गा बाबा हिमालय की ओर जा रहे हैं। मग्गा बाबा ने रजनीश को बताया कि हिमालय उनका घर है। रजनीश ने मग्गा बाबा को जीसस, बुद्ध, लाओत्से की श्रेणी में रखा था।</p><p style="text-align: justify;"><b>रजनीश उनके आशीर्वाद किस रूप में देखते हैं- </b>रजनीश ने कहा कि मग्गा बाबा निःसंदेह मौन की भाषा सबसे अधिक जानते थे। वह लगभग जीवन भर चुप रहे। दिन में वह किसी से बात नहीं करता थे, लेकिन रात में वह मुझसे तभी बात करते थे जब मैं अकेला होता था। उनके कुछ शब्द सुनना एक ऐसा आशीर्वाद था जिसे व्यक्त करना मुश्किल है। मग्गा बाबा ने अपने जीवन के बारे में कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन उन्होंने जीवन के बारे में बहुत कुछ कहा। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने रजनीश से कहा-"जीवन जितना दिखता है उससे कहीं अधिक है। उसके रूप को देखकर न्याय न करो, परन्तु उन घाटियों की गहराई में उतरो, जहां जीवन की जड़ें हैं।‘’ मग्गा बाबा अचानक बोलते और अचानक वह चुप हो जाते थे। वह उनका तरीका था। उन्हें बोलने के लिए राजी करने का कोई उपाय नहीं था। रजनीश ने कहा कि वह किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं देते थे और हम दोनों के बीच की बातचीत एक परम रहस्य थी। इसके बारे में किसी को पता नहीं था। रजनीश को मग्गा बाबा के एक एक शब्द शुद्ध शहद की तरह लगते थे इतने मीठे और अर्थ से भरे हुए। रजनीश ने कहा था कि मुझे कई अजीबोगरीब लोगों से प्यार करने का सौभाग्य मिला है। मग्गा बाबा मेरी लिस्ट में पहले नंबर पर हैं।</p><p style="text-align: justify;"><b>रजनीश मग्गा बाबा से कब मिलते थे-</b>रजनीश मग्गा बाबा के पास रात के अंधेरे में जाते थे। समय होता था रात के दो बजे। जाड़े की रात में आग के पास वे अपने पुराने कम्बल में लिपटे रहते। रजनीश थोड़ी देर उनके पास बैठ जाते। रजनीश कहते थे कि उन्होंने मग्गा बाबा को कभी परेशान नहीं किया। यही एक कारण था कि मग्गा बाबा रजनीश को बहुत प्यार करते थे। बीच-बीच में ऐसा होता कि वे करवट बदलते, आंखें खोलकर रजनीश को वहां बैठा देखते और अपनी मर्जी से बातें करने लगते।</p><p style="text-align: justify;"><b>मग्गा बाबा ने रजनीश को क्या चेतावनी दी थी-</b>1981 और 1984 के बीच ओरेगॉन में ओशो ने 1.315 दिनों तक मौन की एक समान अवधि देखी, जो उनके ज्ञानोदय के बाद की अवधि में मौन दिनों की संख्या के समान थी। ओशो ने संकेत दिया है कि जबकि मग्गा बाबा ने वास्तव में उन्हें पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया, साथ ही उन्होंने ओशो को चेतावनी दी कि वे अपने ज्ञान की घोषणा न करें क्योंकि इससे उनके श्रोताओं के बीच विरोध पैदा होगा। ओशो ने सार्वजनिक रूप से अपने ज्ञान को तब तक स्वीकार नहीं किया जब तक उन्होंने नवंबर 1972 में क्रांति को नहीं बताया। एक साल से अधिक समय के बाद जब उन्होंने अपना नाम भगवान श्री रजनीश में बदल लिया था और अपनी कठिन और कभी-कभी जीवन को खतरे में डालने वाली यात्राओं को रोक दिया था।🔷</p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-42933259396904302532023-07-06T12:25:00.000+05:302023-07-06T12:25:07.965+05:30केन्या के हॉकी जगत में हजारों मील दूर स्थित जबलपुर को क्यों किया जाता है याद<p> <span> </span><span> </span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwMVnKVX6Ys-kr77_gkaH_W9l1S-LJKAz306yZOGrKUc1f4Na48x4aWkOtYEwUd7idOtV8M_T3xVvia-XTvNBLbsLLqeFwt5StJT05sqJNDTkwaCO3TAqJSF9f9bJ3L1RCQzUiq-qyyWfsDPtDu3ddBFu1jWJsR2u27QMIZ3c465VBbMrCw6XGFglyAS7t/s1600/Kenya.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1600" height="288" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwMVnKVX6Ys-kr77_gkaH_W9l1S-LJKAz306yZOGrKUc1f4Na48x4aWkOtYEwUd7idOtV8M_T3xVvia-XTvNBLbsLLqeFwt5StJT05sqJNDTkwaCO3TAqJSF9f9bJ3L1RCQzUiq-qyyWfsDPtDu3ddBFu1jWJsR2u27QMIZ3c465VBbMrCw6XGFglyAS7t/w640-h288/Kenya.jpeg" width="640" /></a></div><br /><p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">केन्या
के हॉकी इतिहास में हजारों मील दूर स्थित जबलपुर को हर समय याद किया जाता है। केन्या
के हॉकी जगत में वर्ष 1964 की 26 अप्रैल की तारीख अक्षुण्ण है। वर्ष 1964 में केन्या
हॉकी टीम के कप्तान अवतार सिंह सोहल के दिल में जबलपुर धड़कता है। केन्या का हॉकी
जगत उन्हें </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">‘<span lang="HI">तारी</span>’ <span lang="HI">के नाम से जानता है। 84 वर्षीय अवतार सिंह
सोहल अभी भी जबलपुर में खेले गए मैच को भूल नहीं पाते। 26 अप्रैल 1964 को जबलपुर
के पुलिस मैदान में भारत व केन्या के मध्य हुए आठ मैचों की शृंखला का पांचवा मैच
खेला गया था। उस समय केन्या हॉकी टीम अवतार सिंह सोहल की कप्तानी में भारत के दौरे
पर थी। जबलपुर में खेला गया मैच इसलिए महत्वपूर्ण माना गया क्योंकि इस मैच में केन्या
ने भारत की टीम को 3-0 गोल से पराजित कर दिया था। उस समय भारत की 184
अंतरराष्ट्रीय हॉकी मैचों में यह सबसे बड़ी पराजय थी। हालांकि कुछ दिनों के बाद
भारत ने टोक्यो ओलंपिक में हॉकी का स्वर्ण पदक जीत लिया था। इसी प्रकार रोम ओलंपिक
में पाकिस्तान के स्वर्ण पदक जीतने से पूर्व केन्या ने नैरोबी में पाकिस्तान को
3-1 गोल से पराजित किया था। </span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">साठ
के दशक में केन्या की हॉकी टीम को विश्व की उत्कृष्ट टीम का दर्जा हासिल था। </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">84 <span lang="HI">वर्षीय अवतार सिंह सोहल का कहना है कि जब तक वे जिंदा रहेंगे उनको जबलपुर
याद रहेगा। अवतार सिंह सोहल का कहना है कि केन्या 1964 के ओलंपिक के सेमीफाइनल के
लिए क्वालीफाई करने से केवल एक अंक पीछे था और 1968 में भी उसने अच्छा प्रदर्शन
किया था</span>, <span lang="HI">लेकिन उस युग की शीर्ष एशियाई टीमों के साथ यादगार
मैच सोहल के लिए सुखद यादों के रूप में सामने आती हैं। "1964 में</span>, <span lang="HI">हमने जबलपुर में भारत के खिलाफ खेला और हमने पहले हाफ में तीन गोल किए थे।</span>‘’<span lang="HI"> केन्या की ओर से यह गोल एडगर फर्नाडीस व एगबर्ट फर्नाडीस ने किए थे। एडगर
ने एक और एगबर्ट ने दो गोल दागे थे। लेफ्ट बैक की पोजीशन में खेलने वाले अवतार
सिंह सोहल </span>‘<span lang="HI">तारी</span>’ <span lang="HI"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>को याद है कि केन्या ने उस समय भारतीय दौरे में
बंबई</span>, <span lang="HI">हैदराबाद</span>, <span lang="HI">मद्रास</span>, <span lang="HI">नागपुर</span>, <span lang="HI">जबलपुर</span>, <span lang="HI">कलकत्ता</span>,
<span lang="HI">लखनऊ व दिल्ली में आठ मैच खेले थे। इस शृंखला में पहला मैच ड्रा</span>,
<span lang="HI">दूसरा मैच केन्या</span>, <span lang="HI">तीसरा मैच भारत</span>, <span lang="HI">चौथा मैच भारत</span>, <span lang="HI">पांचवा मैच केन्या</span>, <span lang="HI">छठा मैच भारत</span>, <span lang="HI">सातवां मैच भारत और आठवां मैच भारत ने
जीता था। इस प्रकार यह शृंखला भारत ने केन्या को 5-2 से पराजित कर जीती थी। तारी
जबलपुर के हॉकी प्रेमियों को बहुत शिद्दत से याद करते हैं। यहां के दर्शकों ने
भारतीय टीम की पराजय के बावजूद केन्या को उसके उत्कृष्ट खेल के लिए दाद दी थी। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">अवतार
सिंह सोहल ने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ व अविस्मरणीय मैच भारत के खिलाफ वर्ष 1971
में प्रथम विश्व कप में खेला था। इस मैच में केन्या ने एक गोल कर बढ़त ले ली थी।
भारत ने कुछ ही मिनट बाद बराबरी कर ली और अतिरिक्त समय में गोल होने के बाद केन्या
यह मैच हार गया था। </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">अवतार
सिंह सोहल ने 1960 से 1972 तक चार ओलंपिक में केन्या का प्रतिनिधित्व किया। वे
1964</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,
1968 <span lang="HI">व 1972 में टीम के कप्तान रहे। उन्होंने प्रथम विश्व कप में भी
अपने देश का नेतृत्व किया। वे 167 अंतरराष्ट्रीय मैचों में अपने देश के लिए खेले।
यह गिनीज़ बुक ऑफ रिकार्डस में दर्ज है। खिलाड़ी से रिटायर होने के बाद 1977-78
में सोहल राष्ट्रीय टीम के कोच बने। 1980 में वे इंटरनेशनल अम्पायर बने। 1988
सियोल ओलंपिक में जज रहे। वर्ष 2000 में हॉकी में उनकी सेवाओं के लिए इंटरनेशनल
हॉकी फेडरेशन ने डिप्लोमा ऑफ मेरिट से सम्मानित किया। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span></span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly;"><o:p> </o:p></p><br /><p></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-43215227977832902662023-06-23T18:20:00.001+05:302023-06-23T18:20:52.692+05:30फिल्म अभिनेता रहमान का जबलपुर से क्या रिश्ता है<p style="text-align: justify;"> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJ5MgK06J8NhILpS7_qqP0nn2f_PC1KrSLjENltDUA-t29YjACGCurDX6SX8HqRbdmZmrXlXgkZhB47-hL5_cbhqg8Jx57eqg3rhcf_fqixv8EaQcC5gNI9sUmbPOeYy7jY4fCn8YUGWeFrMtveo3N6RlEaQ-GheQ9Hmhq0JtLX1d-XeDGArM50qe8Du6Q/s264/WhatsApp%20Image%202023-06-23%20at%206.07.36%20PM.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="191" data-original-width="264" height="191" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJ5MgK06J8NhILpS7_qqP0nn2f_PC1KrSLjENltDUA-t29YjACGCurDX6SX8HqRbdmZmrXlXgkZhB47-hL5_cbhqg8Jx57eqg3rhcf_fqixv8EaQcC5gNI9sUmbPOeYy7jY4fCn8YUGWeFrMtveo3N6RlEaQ-GheQ9Hmhq0JtLX1d-XeDGArM50qe8Du6Q/s1600/WhatsApp%20Image%202023-06-23%20at%206.07.36%20PM.jpeg" width="264" /></a></div><span style="font-family: "Arial Unicode MS", "sans-serif"; font-size: 14pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">आज फिल्म अभिनेता रहमान साहब को याद करने का
दिन है। जी हां आज के दिन यानी कि 23 जून 1921 को उनका जन्म लाहौर में हुआ था
लेकिन उनके जीवन में जबलपुर का विशेष महत्व हर समय बना रहा। रहमान की स्कूल के बाद
की शिक्षा जबलपुर के राबर्टसन कॉलेज में हुई थी। राबर्टसन कॉलेज और जबलपुर में
उनके रहने के ठौर ठिकाना व्यौहार निवास पैलेस ने रहमान के व्यक्तित्व निर्माण में
विशेष भूमिका निभाई।</span><p></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 14.0pt;">रहमान फिल्म इंडस्ट्री के ऐसे खलनायक रहे
जिन्होंने कभी ढिंशूम-ढिंशूम नहीं किया और न ही पिस्तौल चलाई लेकिन उनकी खलनायकी
इस मामले में विशिष्ट रही कि जब भी वे सिनेमा के पर्दे पर आते दर्शक सतर्क हो कर
बैठ जाते थे कि ये आदमी कोई न कोई चाल चलने वाला है। फिल्मों में नाइट सूट या
फार्मल सूट के साथ पाइप या सिगरेट पीते हुए रहमान सधी व गहरी आवाज़ में अपने
डॉयलाग बोलते थे</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 14.0pt;">,
<span lang="HI">तब टॉकीज में लोग उनके एक एक लफ़्ज को सुनते थे। वक्त फिल्म में
रहमान की चिनॉय सेठ की भूमिका और राजकुमार के राजा की भूमिका के बीच के संवादों को
भला कौन भूल सकता है। प्यासा के घोष</span>,<span lang="HI"> साहब</span>, <span lang="HI">बीवी और गुलाम के छोटे सरकार और चौदहवीं का चाँद के मजबूत नवाब की भूमिका
में रहमान ने अभिनय के नए झंडे गाड़े।</span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 14.0pt;">रहमान जिस परिवार में जन्मे वह एक रॉयल पश्तून
खानदान था। इस खानदान की मित्रता जबलपुर के व्यौहार राजेन्द्र सिंह से थी। रहमान
की कॉलेज शिक्षा की बात आयी तो उन्हें जबलपुर के राबर्टसन कॉलेज में पढ़ने के लिए
भेज दिया गया। कॉलेज में एडमिशन के बाद रहमान के ठौर ठिकाने की बात आयी तो व्यौहार
राजेन्द्र सिंह ने इसकी व्यवस्था जबलपुर के हनुमानताल वार्ड (साठिया कुआं) में
व्यौहार निवास पैलेस में कर दी। रहमान के साथ उस समय पीएल संतोषी (प्यारेलाल
श्रीवास्तव/संतोषी) भी वहीं रहते थे। साथ रहते हुए दोनों की मित्रता हो गई। पीएल
संतोषी को तो जबलपुर में उस समय मौका मिल गया था जब यहां एक फिल्म की शूटिंग हो
रही थी। फिल्म यूनिट को एक डॉयलाग अस्सिटेंट की ज़रूरत थी। संतोषी एक अच्छे लेखक
थे और उन्होंने अपने दायित्व को भली भांति निभाया। इसके बाद संतोषी का फिल्म
इंडस्ट्री में जाने की रुचि बढ़ी। रहमान की राबर्टसन कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही
संतोषी किस्मत अजमाने बंबई चले गए। </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 14.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 14.0pt;">रहमान को राबर्टसन कॉलेज में अध्ययन के दौरान
हिन्दी भाषा और जबलपुर की तहज़ीब को जानने व समझने का मौका मिला। एक तरह से युवा
रहमान के व्यक्तित्व निर्माण</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 14.0pt;">, <span lang="HI">भावनाओं के विकसित होने और आम
जीवन को समझने में जबलपुर की भूमिका महत्वपूर्ण रही। रहमान ने जबलपुर में जीवन को
समझा। बाद में रहमान के फिल्मी कैरियर में जबलपुर का वातावरण और यहां सीखी हुई
बातें बहुत काम की सिद्ध हुईं। </span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 14.0pt;">रहमान राबर्टसन कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद
पुणे चले गए। यहां 1942 में वे ट्रेंड पायलट बन कर रॉयल इंडियन एअर फोर्स में चले
गए लेकिन कुछ ही दिनों बाद फिल्म इंडस्ट्री के मोह के चलते वे बंबई चले गए। बंबई
में रहमान फिल्म निर्देशक विश्राम बेडेकर के थर्ड अस्सिटेंट डायरेक्टर बन गए। बेडेकर
ने ही एक फिल्म में रहमान को छोटा सा रोल भी दिया। जबलपुर में हुई मित्रता के
चलते पीएल संतोषी ने 1946 में प्रभात स्टूडियो की </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 14.0pt;">‘<span lang="HI">हम एक हैं</span>’
<span lang="HI">में देव आनंद के साथ रहमान को लिया। इस फिल्म से ही देव आनंद व
रहमान दोनों खूब लोकप्रिय हुए। इसके बाद रहमान ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अभिनय
की सहज शैली के बावजूद</span>, <span lang="HI">उन्होंने अपने अभिनय कौशल पर
नियंत्रण बनाए रखा</span>, <span lang="HI">जो उनके कुलीन स्वभाव के साथ मिलकर उन्हें
अपने समय के अन्य अभिनेताओं से अलग बनाता था। <o:p></o:p></span></span></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-53996115029799987872023-06-12T17:31:00.001+05:302023-06-12T17:38:17.969+05:30कैसे जबलपुर का तैय्यब अली चौराहा अमर अकबर अंथोनी फिल्म के एक गीत का मुखड़ा बना<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxXbzRdQLyrEIjZM_Qockjz8psEjiWW55qo95yMe2Gk2LotIhUx6MIwvye3a_dDy0coxxbZ8-VMuH-PxG9Aeiiaip3s0VWs-ZOFt3xObhKlRZmZ69KPj_VR0lu-yCx8tbIpzRyQDdEyU-4ApHE6ONbrXcfK-Q6bOrhreoPWUYKZU9vd0irCKR_-pBzJw/s548/AAA1.jpeg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="269" data-original-width="548" height="196" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxXbzRdQLyrEIjZM_Qockjz8psEjiWW55qo95yMe2Gk2LotIhUx6MIwvye3a_dDy0coxxbZ8-VMuH-PxG9Aeiiaip3s0VWs-ZOFt3xObhKlRZmZ69KPj_VR0lu-yCx8tbIpzRyQDdEyU-4ApHE6ONbrXcfK-Q6bOrhreoPWUYKZU9vd0irCKR_-pBzJw/w400-h196/AAA1.jpeg" width="400" /></a></div><span style="text-align: justify;"><div style="text-align: justify;"><b>आज </b>से 46 वर्ष पूर्व 27 मई 1977 में एक फिल्म रिलीज हुई थी- अमर अकबर अंथोनी। अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, ऋषि कपूर, प्राण, जीवन, शबाना आज़मी, नीतू सिंह, परवीन बाबी, निरूपा राय जैसे कलाकार इस फिल्म में थे। मनमोहन देसाई निर्देशित इस फिल्म ने उस समय बॉक्स आफिस पर साढ़े 15 करोड़ रूपए कमाए थे। अमर अकबर एंथोनी का यश चोपड़ा की 1965 की फ़िल्म वक़्त का एक सिनेमाई प्रतिरूप थी, जिसमें एक पिता के<b> </b>तीन बेटे एक दूसरे से अलग हो जाते हैं।</div></span><p style="text-align: justify;"><b>फिल्म में दो यथार्थवादी चरित्र-</b>अमर अकबर अंथोनी फिल्म में दो चरित्र यथार्थवादी थे। फिल्म में अमिताभ बच्चन का नाम अंथोनी गोंजाल्विस के चरित्र का नाम उसी नाम के प्रसिद्ध संगीतकार और शिक्षक के नाम पर रखा गया था, जिनके शिष्यों में प्यारेलाल (लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल) और आरडी बर्मन शामिल थे। दूसरा फिल्म में नीतू सिंह के पिता अभिनेता मुकरी थे जिनका नाम तैय्यब अली रहता है। यह नाम जबलपुर के तैय्यब अली चौराहा से प्रेरित था। </p><p style="text-align: justify;"><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicnpm6VchG2Nq7E1NpxeRJlyo5AvDZs8sTluMuwzW9F60E1NWrFiy5ZbjlJakC9UPA_vWT01Etzbg6b79ZBpbI1q1MfKPcUbLaY6gDZXKYkZVoAkTWMSxMwKwruMvhqU-YBYuCK7S95qS8RS2sCAXGZ3aAF-8zwmUi_tKNQ0cobFqhdHeAPqp2z5kV8Q/s960/AAA2.jpeg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicnpm6VchG2Nq7E1NpxeRJlyo5AvDZs8sTluMuwzW9F60E1NWrFiy5ZbjlJakC9UPA_vWT01Etzbg6b79ZBpbI1q1MfKPcUbLaY6gDZXKYkZVoAkTWMSxMwKwruMvhqU-YBYuCK7S95qS8RS2sCAXGZ3aAF-8zwmUi_tKNQ0cobFqhdHeAPqp2z5kV8Q/s320/AAA2.jpeg" width="240" /></a><b></b></div><b>कौन हैं अनिल नागरथ-</b>अमर अकबर अंथोनी में मुकरी का नाम तैय्यब अली क्यों रखा गया, इसकी एक दिलचस्प कहानी है। फिल्म के एसोसिएट डायरेक्टर अनिल नागरथ थे। अनिल नागरथ के परिवार के नाम से अभी भी रेल पुल नंबर दो से रसल चौक मार्ग पर पहला चौराहा नागरथ चौराहा ही कहलाता है। अनिल नागरथ सीनियर एडवोकेट नमन नागरथ के चाचा हैं। अनिल नागरथ का जन्म और पढ़ाई लिखाई जबलपुर में हुई। शुरुआती शिक्षा नवीन विद्या भवन स्कूल और उच्च शिक्षा जीएस कॉलेज में हुई। जीएस कॉलेज से उन्होंने एमकॉम किया। जबलपुर में दोस्त उन्हें बिट्टू के नाम से ही पुकारा करते थे। बेंजो व गिटार वादक चंदू गायकवाड़ उनके सबसे अज़ीज मित्र हुआ करते थे। उस समय के रंगकर्मी श्याम खत्री, श्याम श्रीवास्तव, मनोहर महाजन, धर्मराज जायसवाल करमचंद चौक में बंगाली क्लब के सामने हिन्दुस्थान लॉज में टोली बना कर अपना अड्डा जमाते थे। वहीं अनिल नागरथ व नरेन्द्रनाथ साइकिल से पहुंच कर हंसी ठिठोली किया करते थे। अनिल नागरथ के प्राय: आने जाने का रास्ता तैय्यब अली चौक से ही गुजरता था। <p></p><p style="text-align: justify;"><b>मनमोहन देसाई के साथ अनिल नागरथ का जुड़ाव-</b>अनिल नागरथ अभिनेता बनने बंबई गए थे लेकिन 1966 में वे मनमोहन देसाई के साथ जुड़ गए और ‘बदतमीज़’ फिल्म की क्रेडिट में उनका नाम अस्सिटेंट डायरेक्टर के रूप में गया। अस्सिटेंट डायरेक्टर के साथ अनिल नागरथ फिल्मों में छोटी भूमिकाएं निभाने लगे। वे बंबई में अपने संघर्ष के दिनों में एक कमरे में प्रेमनाथ के छोटे भाई नरेन्द्रनाथ रहा करते थे। नरेन्द्रनाथ उनके बेहद करीबी थे। प्रेमनाथ चाहते थे कि उनके छोटे भाई राजेन्द्रनाथ व नरेन्द्रनाथ स्वयं संघर्ष कर बंबई की फिल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाएं। बंबई में अनिल नागरथ मनमोहन देसाई के साथ उनकी मृत्यु तक जुड़े रहे। धीरे धीरे अनिल नागरथ मनमोहन देसाई के सबसे विश्वसनीय व वरिष्ठ सहायक बन गए। वे मनमोहन देसाई की अमर अकबर अंथोनी, परवरिश, सुहाग, देशप्रेमी, कुली व अल्लाह-रक्ख़ा के एसोसिएट डायरेक्टर रहे। इन फिल्मों से पहले अनिल नागरथ रोटी, चाचा भतीजा, धर्मवीर के चीफ अस्सिटेंट डायरेक्टर रहे। अनिल नागरथ ने अमर अकबर अंथोनी फिल्म में अमिताभ बच्चन का आइने के सामने लम्बा मोनोलॉग क्रिएट व डायरेक्ट किया था। अमिताभ बच्चन ने इस सीन को उत्कृष्ट ढंग से निर्देशित करने के लिए अनिल नागरथ की बहुत तारीफ़ भी की थी। </p><p style="text-align: justify;"><b>गीत के मुखड़े में कैसे तैय्यब अली नाम आया-</b>अमर अकबर अंथोनी फिल्म जब बन रही थी तब उसके एक दृश्य में महसूस किया गया कि ऋषि कपूर, नीतू सिंह व मुकरी के साथ एक गीत को शूट किया जाए। आनंद बख्शी संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत निर्देशन में गीत लिख रहे थे। फिल्म में कहीं भी मुकरी का कोई नाम नहीं था। आनंद बख्शी परेशान थे कि गाने का मुखड़ा क्या रखें? मनमोहन देसाई, आनंद बख्शी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल इस बात को ले कर बातचीत करके परेशान हो रहे थे। मनमोहन देसाई ने अपने सहयोगी व फिल्म के एसोसिएट डायरेक्टर अनिल नागरथ को बातचीत में बुला लिया। अनिल नागरथ के दिल दिमाग में जबलपुर बसा हुआ था। नागरथ चौक स्थित उनके घर के बिल्कुल नज़दीक तैय्यब अली पेट्रोल पम्प और वहां का इलाका तैय्यब अली चौक या चौराहा कहलाता था। अनिल नागरथ ने आनंद बख्शी सहित वहां मौजूद लोगों को सुझाव दिया कि मुकरी का नाम तैय्यब अली रख दिया जाए। गीतकार आनंद बख्शी को ‘तैय्यब अली’ तुरंत क्लिक कर गया। उन्होंने वहां बातचीत में बैठे बैठे ही कुछ ही मिनटों में गीत इस प्रकार बन गया- ‘’तैय्यब अली प्यार का दुश्मन हाय हाय’’। यह गाना सहज गुणवत्ता, चमकदार मासूमियत और ऋषि कपूर की जबर्दस्त स्क्रीन करिश्मे के कारण लम्बे समय तक लोकप्रिय रहा। यह गाना संगीत, प्रदर्शन और दर्शकों पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण एक मजबूत गीत बन कर उभरा। मोहम्मद रफी ने इसे पूरी तबियत से गाया था। बाद में बालाजी प्रोडक्शंस ने रीमेक बनाने से पहले आधिकारिक तौर पर गाने के अधिकार खरीदकर इसे प्रस्तुत किया लेकिन जो बात पुराने में थी वह नए में महसूस ही नहीं की गई।</p><p style="text-align: justify;"><b>इस प्रकार अनिल नागरथ की यादों में बसा जबलपुर का एक चौराहा हिन्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत का मुखड़ा बना।</b></p><p style="text-align: justify;"><br /></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8182272878998931303.post-67697591832173931452023-06-05T12:33:00.002+05:302023-06-12T17:19:21.862+05:30राज कपूर, जबलपुर और नर्मदा<p style="text-align: left;"></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSjVz_Sg9Gg_flGcgsUxYJcfSBAPuXng63jZuKxfqkTrJOVwc2UzKFcpZ4LBU9XIwgPHFdQDA8AzOlqIlAnLCVeU7C8Krb9ACfKUDagVEkc-G1J-PrGj4IeclKYq5B2aAJcNytGL-DlsqTKiD5lV0H0w_I1ZUt4oLcgYs7OEF9iNW4jKrf1d3iqrSUWA/s800/Raj%20Kapoor.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="600" data-original-width="800" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSjVz_Sg9Gg_flGcgsUxYJcfSBAPuXng63jZuKxfqkTrJOVwc2UzKFcpZ4LBU9XIwgPHFdQDA8AzOlqIlAnLCVeU7C8Krb9ACfKUDagVEkc-G1J-PrGj4IeclKYq5B2aAJcNytGL-DlsqTKiD5lV0H0w_I1ZUt4oLcgYs7OEF9iNW4jKrf1d3iqrSUWA/w400-h300/Raj%20Kapoor.jpeg" width="400" /></a></div><b>2 जून</b> को
हिन्दी सिनेमा के सबसे बड़े शो मेन राज कपूर की पुण्यतिथि है। अपने देश ही नहीं
चीन व रूस तक में लोकप्रिय रहे राज कपूर का जबलपुर व नर्मदा नदी से विशेष लगाव था।
राज कपूर की 1946 में राय कर्तारनाथ की बेटी और प्रेमनाथ की बहिन कृष्णा से विवाह
रीवा में हुआ था। राय कर्तारनाथ व उनके बेटे प्रेमनाथ ने जबलपुर में एम्पायर टॉकीज
को स्थापित किया था। इसी एम्पायर टॉकीज से लगा हुआ नाथ परिवार का बंगला था। यह
बंगला ही राज कपूर की ससुराल थी। कृष्णा और राज कपूर दोनों के परिवार पेशावर से
क्रमश: रीवा व जबलपुर और बंबई आए थे। <o:p></o:p><p></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">कृष्णा
बच्चों के साथ छुट्टी में आती थीं जबलपुर-</span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">राज कपूर का
कृष्णा से विवाह होने के उपरांत उनका एक तरह जबलपुर से जुड़ाव व लगाव हो गया।
कृष्णा अपने पांचों बच्चों रणधीर</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">, <span lang="HI">रीतू</span>, <span lang="HI">ऋषि</span>,
<span lang="HI">रीमा व राजीव को ले कर गर्मियों व सर्दियों की छुट्टी में प्राय:
जबलपुर आया करती थीं। राज कपूर का जबलपुर प्रवास विशेष कुछ मौकों जैसे राय
कर्तारनाथ व प्रेमनाथ के परिवार में विवाह अवसर पर होता था। पांचवे दशक में नाथ
परिवार में एक विवाह के अवसर पर राज कपूर के साथ उनके छोटे भाई शम्मी कपूर भी
जबलपुर में एम्पायर टॉकीज के बंगले में आए थे। दोनों भाईयों ने नाथ परिवार के
विवाह में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेकर मेहमानों का स्वागत किया था। बाद में राज कपूर
लोगों से गर्व से कहते थे कि वे तो जबलपुर के दामाद हैं। </span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">बंबई जाती थी
खोवे की जलेबी-</span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">कृष्णा छुट्टियों के बाद जब जबलपुर से वापस बंबई
जाती थीं तब परंपरा के अनुसार उनके साथ मायके वाले काफी कुछ सामान रखते थे। उनमें
जबलपुर की प्रसिद्ध खोवे की जलेगी भी हुआ करती थी। राज कपूर ने मीठा कम खाया करते
थे लेकिन एक खोवे की जलेबी वे अवश्य खाते थे। कृष्णा एक बार खोवे की जलेबी लेकर
आरके स्टूडियो पहुंची। उस समय एक गाने को लेकर राज कपूर व लता मंगेशकर के बीच
गंभीर विचार विमर्श हो रहा था। लता मंगेशकर कृष्णा कपूर को भाभी कहती थीं। कृष्णा
कपूर ने लता मंगेशकर को भी खोवे की जलेबी पेश की। संभवत: लता मंगेशकर ने अपने जीवन
में पहली व आखिरी बार जबलपुर की खोवे की जलेबी खायी तो वे आनंद से भर गईं।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">नर्मदा के
प्रति आस्था-</span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">राज
कपूर ने जबलपुर प्रवास के दौरान प्रेमनाथ के साथ नर्मदा तट के सुंदर दृश्यों को
निहारा था। नर्मदा के दर्शन से वे कृत कृतार्थ हो गए थे। नर्मदा के प्रति उनकी
आस्था जाग गई थी। उस समय भेड़ाघाट उन्हें ऐसा भाया कि उन्होंने वर्ष 1960 में आरके
बैनर की </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">‘<span lang="HI">जिस देश में गंगा बहती</span>’ <span lang="HI">के एक गाने का दृश्यांकन
भेड़ाघाट की संगमरमरी चट्टानों में किया। इस दृश्य में साउथ की पद्मिनी पर एक
गाना </span>‘<span lang="HI">ओ बंसती पवन पागल</span>’ <span lang="HI">फिल्माया था।
गाने को लता मंगेशकर ने शंकर-जयकिशन के मधुर संगीत में पूरी तन्यमता के साथ गाया
था। वह पहला मौका था जब बंबई की किसी फिल्म में भेड़ाघाट की सुंदरता को देश-विदेश
में लोगों ने देखा था।</span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">राज कपूर की
खासियत थी कि वे अपनी किसी भी फिल्म की धुन को वर्षों बाद पूरे गानों में उपयोग
करते थे। ऐसे ही कई विषय उनके दिमाग वर्षों तक घूमते रहते थे और समय आने पर वे
उन्हें फिल्म का विषय बना कर प्रस्तुत करते थे। भेड़ाघाट में </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">‘<span lang="HI">जिस देश में गंगा बहती</span>’ <span lang="HI">के गाने को शूट करते वक्त
राज कपूर के मन में नदियों को लेकर विचार तैरने लगे थे।</span><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 18.0pt; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-rule: exactly; text-align: justify;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">नर्मदा को
फोकस कर फिल्म बनाने का था विचार-</span></b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">आठवें दशक की शुरुआत में राज कपूर ने
गंगा नदी को केन्द्रित कर </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12.0pt;">‘<span lang="HI">राम तेरी गंगा मैली</span>’ <span lang="HI">बनाई थी। </span>‘<span lang="HI">सत्यम शिवम सुंदरम</span>’ <span lang="HI">में उन्होंने कथा सूत्र में नदी और उसकी बाढ़ को चित्रित किया था। राज
कपूर की योजना थी कि </span>‘<span lang="HI">नर्मदा</span>’ <span lang="HI">को
केन्द्र में रख कर फिल्म बनाएंगे लेकिन जब उन्हें भारतीय सिनेमा में योगदान देने
के लिए दादा साहब फालके सम्मान से नवाजा जा रहा था</span>, <span lang="HI">उस समय
अचानक अस्थमा का दौरा आया। एक माह अस्पताल में इलाज के बाद उनका 2 जून 1988 को
निधन हो गया। इसी के साथ राज कपूर</span>, <span lang="HI">कृष्णा कपूर और जबलपुर का
अध्याय समाप्त हो गया।</span></span><span style="text-align: left;"><span style="font-family: Arial Unicode MS, sans-serif;">🔹</span></span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; font-size: 12pt;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; font-size: 12pt;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; font-size: 12pt;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; font-size: 12pt;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; font-size: 12pt;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; font-size: 12pt;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; font-size: 12pt;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; font-size: 12pt;"> </span></p><br /><p></p>Unknownnoreply@blogger.com0