- दिनेश चौधरी
दिनेश चौधरी फेसबुक पर जबलपुर पर केन्द्रित शहरनामा लिख रहे हैं। शहरनामा को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की योजना है। लक्ष्मीकांत शर्मा शहरनामा का अंग्रेजी में अनुवाद कर रहे हैं। शहरनामा-19 में जबलपुर के पूर्व पुलिस अधीक्षक व खेल पितामह माने वाले बी. एल. (बाबूलाल) पाराशर पर रोचक ढंग से लिखा गया है। उसके अंंश यहां प्रस्तुत हैं:-
बी. एल. पाराशर |
दादा ध्यानचंद 1936 के बर्लिन ओलंपिक में भारत का डंका बजाने के बाद स्वदेश लौट आए थे और सेना की किसी रिफ्रेशर ट्रेनिंग के लिए पचमढ़ी में थे। हिटलर से उनकी मुलाकात की कहानी पूरी दुनिया में फैल ही रही थी। हॉकी के फाइनल मैच से पहले एक अभ्यास मैच में जर्मनी ने भारत को हरा दिया था, इसलिए हिटलर सहित जर्मनी वासी बड़ी उम्मीद से मैदान पर थे। जब भारत की टीम ने जर्मनी पर दनादन गोल करने शुरू किए तो हिटलर ने वहाँ से खिसक जाने में ही अपनी भलाई समझी। भारत 8-1 से जीता। संयोग से यह तारीख 15 अगस्त थी। हिटलर ने दादा ध्यानचंद को मिलने के लिए बुलाया। बहुत बड़े ओहदे की पेशकश की। तब के लोगों के पास अपने हुनर के अलावा रीढ़ की हड्डी रखने का चलन भी हुआ करता था। ध्यानचंद ने मना कर दिया। हिटलर को मना करना बड़ी बात थी। अपनी इस ताजी-ताजी शोहरत के साथ ध्यानचंद पचमढ़ी में थे, जहाँ उनका मुकाबला सतपुड़ा इलेवन से होना था और इसका नेतृत्व एक जबलपुरिया के कंधों पर था। यह भारतीय पुलिस सेवा के बी.एल. पाराशर थे।
पाराशर की टीम में स्थानीय खिलाड़ी थे। कच्चे और अनगढ़। जूते बस एक-दो के पैरों में होंगे, बाकी नंगे पाँव। पाराशर सेंटर हाफ की पोजिशन पर खेल रहे थे और जो खिलाड़ी सेंटर फॉरवर्ड थे उनका नाम सल्लू था। सल्लू पेशे से भिश्ती थे। देखकर लगता नहीं था कि खिलाड़ी होंगे। कभी स्कूल नहीं गए। कभी रेलगाड़ी देखी भी नही, उसकी सवारी तो दूर की बात थी। बाकी खिलाड़ी भी जोड़-गांठ कर इकट्ठा किए गए थे। जो जहाँ से मिला बटोर लिया। यह उसी तरह का मुकाबला था, जैसा आपने आमिर खान की 'लगान' फ़िल्म में देखा होगा। एक तरफ एक पूर्ण प्रशिक्षित सेना की टीम थी और उसमें भी विश्वप्रसिद्ध ध्यानचंद थे। दूसरी तरफ जुगाड़ वाली 'बटोरन' टीम। खेल अभी ठीक से शुरु भी नहीं हुआ था और जब तक ध्यानचंद अपनी करामात दिखा पाते, गजब की फुर्ती दिखाते हुए सल्लू ने गेंद गोल लाइन के पीछे धकेल दी। सल्लू के हुलिए के कारण सेना की टीम ने उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया होगा और जब तक वे ऐसा कर पाते उन्होंने एक गोल और ठोंक दिया। मैदान में खूब भीड़ थी। लोग ध्यानचंद को देखने आए थे। ध्यानचंद थोड़े असहज हो गए। आदत के विपरीत कुछ 'रफ गेम' भी खेला। पाराशर साहब के आगे एक-दो बार स्टिक भिड़ा दी और 'सॉरी' भी कहा। उनकी टीम बस एक ही गोल उतार सकी और मैच सतपुड़ा इलेवन ने जीत लिया। इस मैच का उल्लेख बाद में दादा ध्यानचंद ने अपनी आत्मकथा 'द गोल' में भी किया।
दादा ध्यानचंद का बी. एल. पाराशर से परिचय तो था ही, दोस्ती और पक्की हो गई। जीवन भर बनी रही। कम लोगों को पता है कि ध्यानचंद के छोटे भाई और अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी रूपसिंह का जन्म जबलपुर में ही हुआ। ध्यानचंद के पिता आर्मी की एक बटालियन में यहीं पदस्थ थे इसलिए उनके बचपन का लंबा समय जबलपुर में ही गुजरा। यहीं के सूबेदार बाले तिवारी ने उन्हें हॉकी खेलना सिखाया। लेकिन पाराशर साहब ध्यानचंद से ज्यादा कैप्टन रूपसिंह से प्रभावित थे। उनका मानना था कि तकनीक के मामले में रूपसिंह कहीं बेहतर खिलाड़ी थे पर शोहरत ध्यानचंद को ज्यादा मिली। बहरहाल, दादा ध्यानचंद जब भी जबलपुर आते तो पाराशर साहब से जरूर मिलते। घर पर आना-जाना रहा। बेटी की शादी की जिम्मेदारी भी उन्होंने इसी शहर में रहकर निपटाई। पाराशर साहब को सेना की टीम में शामिल होने का न्यौता दिया, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते उन्होंने मना कर दिया।
पाराशर साहब चार भाई और तीन बहिनों के परिवार में दूसरे नम्बर पर थे। बड़े भाई फारेस्ट सविर्सेस में चंद्रपुर में पदस्थ थे। एक विधवा बहिन का परिवार साथ था। ध्यानचंद का मानना था कि वे अगर सेना की टीम में शामिल हो जाते तो आगे भारतीय हॉकी टीम की ओर से खेलने का मौका मिल सकता था। खेलों के प्रति दीवानगी इस कदर थी कि जब हटा में उनकी पोस्टिंग थी तो रोज शाम दफ्तर के काम के बाद टेनिस खेलने के लिए दमोह जाते थे। वाहन के रूप में एक साइकिल थी, जिसमें रात के वक्त रोशनी के लिए डायनेमो लगे होते थे। हटा से दमोह की दूरी कोई 35-40 किलोमीटर है। दिन में दफ्तर का काम करना, शाम को साइकिल से टेनिस मैदान जाना, खेलना और फिर रात को इतनी ही दूरी तय कर वापस लौटना; यह सब कुछ हैरतअंगेज-सा लगता है। हैरतअंगेज इसलिए है, क्योंकि यह सच है। उस जमाने में लोग कुछ इसी तरह से जुनूनी होते थे। जुनून के बगैर इस तरह के कामों को अंजाम नहीं दिया जा सकता। खेलों को लेकर उनकी शोहरत ऐसी रही कि एक समय मुख्यमंत्री रहे प्रकाश चन्द्र सेठी ने उन्हें खेल मंत्री का जिम्मा निभाने की पेशकश कर दी। कोई भला आदमी पुलिस महकमे में आ जाए यही काफी था। वे आगे और राजनीति के फेर में नहीं पड़ना चाहते थे सो इनकार कर दिया।
खेल, खेल-पत्रकारिता, हिंदी साहित्य और उर्दू शायरी में गहरी दिलचस्पी के अलावा जिन कारणों से उनका बड़ा नाम था, वह महकमे के काम की वजह से ही था। अपने काम के कारण वे पुलिस महकमे में गाँधी के नाम से जाने जाते थे। अपराध कबूल करवाने के लिए पुलिस के लोग अक्सर 'थर्ड डिग्री' का इस्तेमाल करते हैं। पर वे गाँधी थे। गाँधी शारीरिक बल के बदले नैतिक बल पर जोर देते थे। पाराशर साहब का हथियार भी यही था। उनकी गांधीगिरी का एक किस्सा बयान करते चलें। हुआ यूँ कि अदबी रुझान के कारण उन्होंने घर में ही एक लाइब्रेरी बना रखी थी। उनके लिए किताबें भी उतनी ही मूल्यवान थीं, जितने रुपये-पैसे। लिहाजा घर में रुपये वे अलग से नहीं रखते थे। उनकी लाइब्रेरी में किताबों के बीच ही नोटों के लिफाफे धर दिए जाते। हिसाब-किताब रखने की भी फुर्सत कहाँ होती थी? पर एक बार उन्हें कुछ आभास-सा हुआ कि नोट कुछ कम हैं। घर में सिर्फ एक घरेलू नौकर था। सिर्फ सन्देह के आधार पर आरोप लगाते और वह बेकसूर होता, तो उसे कितनी पीड़ा पहुँचती? कोई संवेदनशील मनुष्य ही ऐसा सोच सकता है। उन्होंने बस यही किया कि लिफाफे में मोटे हर्फ़ों में एक छोटी-सी पंक्ति लिख दी-"चोरी करना पाप है।" बस दो-तीन दिन ही गुजरे होंगे कि नौकर उनके पाँवों पर गिर पड़ा। कहा कि मैं ही कसूरवार हूँ। चोरी करने का पाप मैंने ही किया था। माफ कर दें।
पुलिसिया काम मे इस 'पाप' वाली टेक्नालॉजी को उन्होंने और भी मौकों पर आजमाया। एक बार नाती पंकज के साथ वे गाडरवाड़ा जा रहे थे। तब पंकज की उम्र महज 7-8 साल की रही होगी। पिता का निधन अल्पायु में ही हो गया था। दादा की तबीयत खराब थी। गाडरवाड़ा जाने के लिए सुबह जबलपुर-इटारसी शटल ट्रेन पकड़नी होती थी। रिक्शे में मदनमहल स्टेशन की ओर जा ही रहे थे कि दो नकाबपोश गुंडे अचानक कहीं से नमूदार हुए और बालक पंकज की गर्दन पर चाकू टिका दिया। पाराशर साहब ने कहा कि नन्हें बच्चे पर इस तरह से चाकू टिकाना बहुत खराब बात है। उन्हें अपना बैग थमा दिया, जिसमें कपड़े भी थे और रुपये भी। कपड़ों के फेर में रुपयों की भनक उन्हें नहीं लग सकी। जेब में अलबत्ता ऊपरी खर्च और टिकिट वगैरह के लिए तीसेक रुपये रखे थे। यह राशि उन्हें सौंपते हुए कहा कि "बच्चे के दादा की तबीयत खराब है। यह अगर उनसे मिलने नहीं पहुँच सका तो सारा पाप तुम्हारे मत्थे पड़ेगा।" तीर ठीक निशाने पर जाकर लगा। पाप वाली बात पर गुंडे घबरा गए और 15 रुपये रखकर बाकी वापस लौटा दिए।
पाराशर साहब के कारनामों के किस्से दंत कथाओं की तरह मशहूर होने लगे थे। आजादी के बाद वाले दिनों में उनकी तैनाती अम्बिकापुर में थी। एक बार किसी काम से नागपुर जाना हुआ तो राज परिवार के एक सदस्य ने तोहफे के रूप में ढेर सारे कीमती सामान घर पहुँचा दिए। अफसरान से सम्बंध बनाए रखने के लिए कहा जाता था कि वे यह सब किया करते थे। घर वालों को समझ में नहीं आया कि माजरा क्या है। उधर सरगुजा के महाराज का पड़ाव बनारस में था। पाराशर साहब जब नागपुर से लौटे तो उन्हें अवाँछित तोहफों की जानकारी मिली। वे सामान लेकर महाराज के पास पहुँचे। महाराजा सरगुजा भाव-विभोर हो गए। कहा कि आप पहले अफसर हैं जो सामान लौटाने आए हैं। अब तक तो चीजें बस यहाँ से निकलती आई थीं।
इसी दौर में सरदार पटेल ने विभिन्न रियासतों को आजाद भारत में विलीन करने की मुहिम छेड़ी हुई थी। हैदराबाद स्टेट अपनी स्वंत्रत सत्ता चाहता था। फिर पाकिस्तान के साथ जाने की बात भी कही गयी थी। लोगों के दमन के लिए रजाकार सेना तैयार की गई। आखिरकार सरदार पटेल ने 'ऑपरेशन पोलो' का निर्णय लिया। 'पुलिस एक्शन' भी हुआ। पुलिस एक्शन के लिए कुछ ईमानदार अफसरान की जरूरत थी। पण्डित रविशंकर शुक्ल ने पाराशर साहब के नाम की सलाह दी। वे औरंगाबाद गए।कोई 300 पुलिस वालों की भर्ती की। यहाँ के 'पुलिस एक्शन' में भी उन्होंने पुलिसिया एक्शन करने के बदले गांधीगिरी की। लोगों के बीच पापुलर हो गए। इतने कि वापसी के समय ट्रेन का डिब्बा फूलों से लदा हुआ था और गाड़ी 5 मिनटों तक 'आउट ऑफ कोर्स' खड़ी रही। वे जबलपुर प्रमोशन के साथ लौटे। जबलपुरियों ने पूछा कि परदेस से क्या लेकर आए? उन्होंने फूलों की टोकरी दिखाई। पहले वाले गाड़ियाँ भर-भर कर लौटते थे।
उन दिनों दीगर चीजों के अलावा जबलपुर के ईंट और खपरैल की भी बड़ी तारीफ हुआ करती थी। भवन निर्माण की यह सामग्री दूर-दूर तक जाती थी। एक बार पण्डित रविशंकर शुक्ल को इनकी जरूरत पड़ गई। उन्होंने पाराशर साहब को फोन कर ईंट की कीमतों की जानकारी चाही। समझदार अफसर होता तो पूछता कि कितनी चाहिए और ट्रक रवाना कर देता। पाराशर साहब ने सैकड़े या हजार का हिसाब पता कर इत्तिला कर दी, आगे वो जानें। भोपाल से पुलिस के डीजी का फोन आया। उन्होंने इस तरह के कामों में 'प्रोटोकॉल' की समझाइश दी और लगे हाथ यह भी कह डाला कि आपने ठीक ही किया। यह आपके बस की बात नहीं थी।
ओहदे का रसूख बड़ा होता है। यह तब तक होता है, जब तक ओहदा होता है। अफसर ईमानदार हो तो ओहदे से निकल जाने के बाद भी इकबाल बुलन्द रहता है। 84 के दंगों के समय जबलपुर में भी अफरा-तफरी मची हुई थी। नेपियर टाउन में कुछ सिखों की दुकानें थीं। बलवाई पहुँच गए। दुकानदारों ने पाराशर साहब को फोन लगाया। वे रिटायर हो चुके थे। 80 बरस की उम्र रही होगी। पाराशर साहब टहलते हुए मौका-ए-वारदात पर इस तरह पहुँच गए, जैसे सुबह की सैर को निकले हों। दीवार फ़िल्म के एक दृश्य में शशि कपूर इसी तरह बिना हथियार के जेब में हाथ डाले बदमाशों के बीच पहुँच जाते हैं। पाराशर साहब को देखकर बलवाइयों के माथे में बल पड़ गए, जैसे शरारती स्कूली बच्चों के बीच के खुर्राट किस्म के हेडमास्टर पहुँच गए हों। उनका 'मजा' किरकिरा हो गया। पाराशर साहब को नमस्ते की और कहा कि अब आप आ गए हैं तो क्या करें। नहीं आते तो अच्छा था। सारे बलवाई एक एक कर वहाँ से खिसक गए।
पुलिस वाले जिस धातु से बने होते हैं, न उसे शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है। हवा-पानी का भी असर नहीं होता। वे मोह, माया, शोक, वैराग्य, आनन्द, दुःख आदि से परे होते हैं और तीज-त्यौहार में भी मुस्तैदी से डटे रहते हैं। महामारी में भी उन्हें मास्क की जरूरत नहीं होती और इन्हीं कारणों से उन्हें छुट्टी जरा कम ही मिल पाती है। पाराशर साहब के एक ऐसे ही मुस्तैद सिपाही को महकमे की झंझटों के कारण छुट्टी नहीं मिल पा रही थी। छुट्टी न मिले तो काम में कोताही हो जाती है। काम में कोताही हो तो सजा का प्रावधान होता है। पाराशर साहब ने सिपाही को परेड करने को कहा। दोनों हाथों को उठाकर सिपाही ने बंदूक थामी हुई थी। पाराशर साहब ने कड़क आवाज में कहा, "आगे बढ़।" सिपाही आगे बढ़ गया। इसी बीच मेम साहब ने किसी काम से बुला लिया। लौटकर आए तो सिपाही गायब था। इस बीच पूछताछ हुई तो कोई सुराग नहीं मिला। सिपाही कई दिनों बाद लौटा। दाढ़ी वगैरह बढ़ी हुई थी। पाराशर साहब ने पूछा कि कहाँ थे, तो जवाब मिला कि "आपने कहा था, 'आगे बढ़'....'पीछे मुड़' कहा ही नहीं।" वह 'ऑन ड्यूटी' छुट्टी मना आया था।
के. एफ. रूस्तमजी भारत के बड़े और नामी पुलिस अधिकारी रहे। उन्होंने अपनी किताब में पाराशर साहब को जगह दी। मायाराम सुरजन जी ने भी। पुलिस की सेवा के बाद पाराशर साहब खेल-पत्रकारिता और साहित्य की सेवा में लगे रहे। उन दिनों राबर्ट्सन कॉलेज में स्मारिका निकालना टेढ़ी खीर हो गई थी। ऐसी हवा फैल गई थी कि जो भी स्मारिका का सम्पादन करता है, 'शहीद' हो जाता है। कोई इस काम में हाथ डालना नहीं चाहता था। पाराशर साहब ने यह चुनौती स्वीकार की। स्मारिका का सम्पादन किया। स्मारिका छपने को भेज दी। स्मारिका छपने से पहले ही वे भगवान को प्यारे हो गए!
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