जबलपुर में आजकल महिलाओं के नए क्लब खूब बनते जा रहे हैं। रोज अखबारों में एक नए क्लब बनने की खबर छपती है। छपे भी भला क्यों नहीं। जबलपुर के तीन प्रमुख समाचार पत्रों ने समाज के विभिन्न वर्गों को अपने से जोड़ने के लिए अलग से सिटी पुल आउट निकालना शुरु किया है। इनमें फोकस महिलाएं और युवा हैं। महिलाएं और युवा हैं, तो फैशन, खानपान की खबरों पर तो जोर रहेगा ही। सर्कुलेशन बढ़ाने का हक प्रत्येक अखबार को है। इसका लाभ सबसे अधिक महिलाओं और कॉलेज के विद्यार्थियों को मिल रहा है। शिक्षा पत्रकारिता का मूल उद्देश्य भटक गया है। कॉलेज की सोशल गेदरिंग, फैशन शो, पश्चिम की तर्ज पर रोज विभिन्न दिवसों पर युवा वर्ग की प्रतिक्रिया ही अखबार के पन्नों में पढ़ने को मिल रही हैं। समाज के विभिन्न वर्ग की महिलाओं की आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता की खबरें सामुदायिक व सामाजिक क्लबों की गतिविधियों में खो गई है।
जबलपुर में समुदाय में बंट रहे महिला क्लब एक खतरनाक प्रवृत्ति को उभारते हैं। अभी तक महिला क्लब मोहल्लों की परिधि में ही थे, लेकिन अब ये ब्राम्हण, अग्रवाल, कायस्थ, मरवाड़ी, जैन, मराठी, छत्तीसगढ़ी, गुजराती, सिंधी, पंजाबी में बंटते जा रहे हैं। हम समाज में चाहे जितनी प्रगतिशीलता की बात कर लें, परन्तु जातिगत व संकीर्णता की भावना सब पर हावी है। चाहे वे पुरूष हों या महिलाएं। बात जाति तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें भी उपजाति वर्गीकरण तक पहुंच गया है। ब्राम्हणों में सनाढ़्य, कान्यकुब्ज, गौर में विभक्त होकर महिलाएं अपने क्लब बनाकर बैठकें कर रही हैं।मारवाड़ी, राजस्थानियों और स्थानीय में बंट गए हैं।
बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। ऐसे क्लबों की पदाधिकारियों ने अपनी संस्थाओं से पचास वर्ष से ऊपर की महिलाओं के लिए प्रवेश निषिद्घ कर दिया है। सीनियर सिटीजन के लिए एकता कपूर तक के सीरियल पैरवी कर रहे हैं। इससे किसी को फर्क नहीं पड़ता। उनको भी नहीं पड़ता, जिन्होंने समाज में महिलाओं का नेतृत्व संभालने का ठेका ले रखा है।
1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया आपके विचारो से सहमत हूँ
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