1950 में भारत छोड़ चुके प्रसिद्घ चित्रकार सैयद हैदर रजा पिछले दिनों जबलपुर के नजदीक नरसिंहपुर में स्थित बबरिया-बचई में चुपचाप पहुंचे। बबरिया-बचई में उन्होंने बचपन के दिन गुजारे थे। मातृभूमि में आते ही रजा ने सड़क के किनारे पत्थर पर बैठकर धूल उठाकर सिर-माथे पर लगा ली, चूम ली और सूटबूट में जमीन में ऐसे लोटपोट हो गए, जैसे कोई बच्चा अपनी मां से लिपट रहा हो। रजा 1950 से पेरिस में रह रहे हैं। उस समय वहां मौजूद पत्रकार बृजेश शर्मा बताते हैं कि अपनी मातृभूमि में पहुंचकर रजा विशद्घ नरसिंहपुरी दिख रहे थे।
सैयद हैदर रजा के लिए गांव के लोगों ने कुर्सी लगाई, लेकिन उन्होंने सड़क के किनारे एक धूल से सने पत्थर पर बैठना पसंद किया। अपनी मातृभूमि पहुंच कर वे बैचेन हो गए और उस स्कूल पहुंच गए, जहां उन्होंने आज से लगभग 75-80 साल पहले पढ़ाई के दिन गुजारे थे। गांव में आकर उन्होंने भावना को इन शब्दों में व्यक्त किया-
"मेरे लिए अपनी जन्भूमि बबरिया को फिर देखना, इस माटी को फिर छूना कितना सुंदर और सुखद अनुभव रहा। सचमुच आप से मिलकर, आपके सुंदर घर देखकर जो आनंद हुआ, उसे शब्दों में व्यक्त करना बहुत कठिन है। बचई और बबरिया में बिताए दो दिन अनोखी अनुभूति बन गए हैं।"
रजा अपने सहपाठी लल्लू राजपूत के यहां से पेरिस तुलसी की पत्ती ले गए थे। उन स्मृतियों को याद करते हुए कहते हैं-
"आपकी आंगन में लगी हुई तुलसी के पांव पत्तों को संभालकर पेरिस लाया हुं। ये मेरे स्टूडियो में, जहां चित्र बनाता हूं सजी-बसी हैं। मेरे मन में बार-बार याद आती हैं- ये स्मृतियां, गांव के दृश्य, साफ सुंदर मकान, आम, इमली और बिही के पेड़, बच्चों की प्यारी सूरतें।"
रजा अपनी मातृभूमि को देश में कला का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बनाना चाहते हैं। आज भी गांव के पत्थर और पुरानी लावारिस पड़ी खंडित मूर्तियां सैयद हैदर रजा के लिए बेहतर चित्र बनाने के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं।
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