ज्ञानरंजन के संपादन में निकलने वाली 'पहल' ने पहल पत्रिका के रुप में इस बार असमिया कविता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर मेगन कछारी की चुनिंदा कविताओं को 'विद्रोह गाथा' के नाम से प्रकाशित किया है। यह असम से प्रतिरोध, जन विद्रोह और जनजीवन की प्रतिनिधि कविताएं कही जा सकती हैं। मेगन कछारी असम के भूमिगत विद्रोही संगठन संयुक्त मुक्ति वाहिनी असम (अल्फा) के प्रचार भी हैं और संगठन में उनका नाम मिथिंगा दैयारी है। नब्बे के दशक में विद्रोहियों का दमन करने के नाम पर वरिष्ठ उल्फा नेताओं के परिवारों को निशाना बनाया गया था, उस दौरान मेगन कछारी के परिवार के तकरीबन सारे सदस्यों को मार डाला गया था। हाल ही में उन हत्याओं की जाँच करने वाले के. एन. सैकिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि तत्कालीन राज्य सरकार और आत्मसमर्पणकारी विद्रोहियों ने गुप्त हत्याएं की थीं। दिसंबर 2003 में भूटान आपरेशन के दौरान उल्फा के जिन पाँच बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया गया, उनमें मेगन कछारी भी शामिल थे। मेगन इस समय गुवाहाटी जेल में हैं। डा. इंदिरा गोस्वामी के संपादन में उनकी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद 'गन्स एंड मेलोडीज' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। मेगन कछारी का जन्म 1968 में निचले असम के एक गाँव में हुआ था। वर्ष 1994 में मेमसाहब पृथ्वी और वर्ष 2007 में रूपर नाकफूलि, सोनर खारू उनके कविता संग्रह हैं।
मेगन कछारी की कविताओं का असमिया से हिन्दी में अनुवाद दिनकर कुमार ने किया है। उन्होंने दर्जनों असमिया पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया है। वर्ष 1998 में अनुवाद के लिए सोमदत्त सम्मान से सम्मानित दिनकर कुमार गुवाहाटी से प्रकाशित हिन्दी दैनिक सेंटिनल के संपादक हैं।
यहां 'विद्रोह गाथा' में प्रकाशित कुछ कविताएं प्रस्तुत हैं :-
मेगन कछारी की कविताओं का असमिया से हिन्दी में अनुवाद दिनकर कुमार ने किया है। उन्होंने दर्जनों असमिया पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया है। वर्ष 1998 में अनुवाद के लिए सोमदत्त सम्मान से सम्मानित दिनकर कुमार गुवाहाटी से प्रकाशित हिन्दी दैनिक सेंटिनल के संपादक हैं।
यहां 'विद्रोह गाथा' में प्रकाशित कुछ कविताएं प्रस्तुत हैं :-
अपने बारे में
अपने बारे में मैं क्या हाल बता सकता हूं किसी को
फिलहाल मेरी सहपाठी, अनिद्रा और मैं
राह देखते हैं खबर की.......
कभी-कभी शिलाखंड डाकिया
दे जाता है मुझे मेरी ही खबर, खबर आती है
इंतजार में थक जाता है कोई प्रशंसक..........
मेरे शरीर में आविष्कृत हुआ है
शीत का अरण्य
और फिर कभी खबर आती है
कहीं लुढ़ककर गिरा हुआ
मेरा मृत्यु संवाद............
अपने बारे में मैं क्या बता सकता हूं किसी को
फिलहाल मेरी सहपाठी अनिद्रा और मैं
राह देखते हैं खबर की.......
प्रतिदिन अनागत प्रश्न और खबर की कीचड़ में
मैं धंसता जाता हूं, आज बहुत दिन हुए
सूर्योदय को देखते हुए.......
क्या गीत सुनाएगा निर्जीव जीवाश्म
श्मशान की निर्जनता को
मैं खेलता रहा हूं कौवे के कोलाहाल में
सिसकती हुई सुबह और
स्वर्ण वृक्ष के सीने से पश्चिम में झुकते हुए
सूरज के साथ.............
मैं जानता हूं आने वाली राह से लौटकर एक दिन
लौटकर नहीं आएगा शिलाखंड डाकिया
नि:सार हो जाएगा एक दिन भूकंप से हिल उठने वाला
प्राचीन ऊबड़-खाबड़ पथ
एक दिन परिचित पर लुढ़क जाएगा मेरा
दुर्गंधमय गला शरीर....
अपने बारे में मैं क्या हाल बता सकता हूं किसी को
फुटबाल
दुख फुटबाल होता तो शायद नहीं होते
इतने सारे गले हुए दर्द, ह्रदय खाली कर
खेलता, दुख का विश्वकप.......
गोलपोस्ट की सीमा पार कर जाता, दुर्निवार
मेरे दोनों पैरों का दुर्धर्ष गोल...
इतना क्या बर्दाश्त किया जा सकता है, जिस यातना के दबाव से
दायाँ-बायाँ, बाएँ-दाएँ में दोनों पैर समाते हुए लगते हैं मुझे
कीचड़मय पृथ्वी के गर्भ में......
दिन और रात, दिन कहते कितने दिन हो गए तुम
आने की बात कहकर भी आए नहीं......
आएंगे-आएंगे कहकर इतने दिन..... इतने दिन हो गए
थक थक कर मायूसी में आँसू से सूखे दो नयन,
बुझ गई हौले हौले स्मृति यादें
दिन और रात-दिन, माह-साल कितने दिन जो हो गए
झुलस-झुलसकर चिताभस्म बना कलेजा मेरा....
दुख फुटबाल होता तो शायद नहीं होते
इतने सारे गले हुए दुख दर्द, ह्रदय खाली कर
खेलता, दुख का विश्वकप.......
गोलपोस्ट की सीमा पार कर जाता, दर्निवार
मेरे दोनों पैरों का दुर्धर्ष गोल.......
दुख फुटबाल होता तो शायद नहीं होते
इतने सारे गले हुए दर्द, ह्रदय खाली कर
खेलता, दुख का विश्वकप.......
गोलपोस्ट की सीमा पार कर जाता, दुर्निवार
मेरे दोनों पैरों का दुर्धर्ष गोल...
इतना क्या बर्दाश्त किया जा सकता है, जिस यातना के दबाव से
दायाँ-बायाँ, बाएँ-दाएँ में दोनों पैर समाते हुए लगते हैं मुझे
कीचड़मय पृथ्वी के गर्भ में......
दिन और रात, दिन कहते कितने दिन हो गए तुम
आने की बात कहकर भी आए नहीं......
आएंगे-आएंगे कहकर इतने दिन..... इतने दिन हो गए
थक थक कर मायूसी में आँसू से सूखे दो नयन,
बुझ गई हौले हौले स्मृति यादें
दिन और रात-दिन, माह-साल कितने दिन जो हो गए
झुलस-झुलसकर चिताभस्म बना कलेजा मेरा....
दुख फुटबाल होता तो शायद नहीं होते
इतने सारे गले हुए दुख दर्द, ह्रदय खाली कर
खेलता, दुख का विश्वकप.......
गोलपोस्ट की सीमा पार कर जाता, दर्निवार
मेरे दोनों पैरों का दुर्धर्ष गोल.......
4 टिप्पणियां:
विद्रोह गाथा से दोनों ही बड़ी उम्दा कवितायें निकाल कर लाये हैं. आनन्द आ गया.
आपको और आपके चिट्ठे को अनेकों शुभकामनायें एवं ब्लॉगजगत में हार्दिक स्वागत.
पहल -८८ आ गया क्या ? कविता खूब है. कविता पढाने के लिये आभार.
पंकज भाई क्या पहल की वेबसाईट या ब्लॉग नहीं बन सकता । पुराने अंक मेरे पास भी हैं । आईये हम सब मिलकर पहल ब्लॉग बनाएं । हम हाजि़र हैं
युनूस भाई पहल की वेबसाइट के लिए हम लोग प्रयासरत हैं और इसके लिए ज्ञानरंजन जी भी इच्छुक हैं। मुझे जानकारी है कि आप भी पहल परिवार के अभिन्न सदस्य हैं, इसलिए आप से सहायता का हक हम सब का बनता है। जब तक पहल वेबसाइट पर नहीं आ जाती, तब तक
उसके नए अंकों की जानकारी मैं जबलपुर चौपाल में देने का प्रयास कर रहा हूं।
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