गुरुवार, 28 अगस्त 2008

व्यंग्य को विधा नहीं स्पिरिट मानते थे हरिशंकर परसाई




(22 अगस्त को प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्मदिवस था। इस दिन जबलपुर की संस्थाओं विवेचना, प्रगतिशील लेखक संघ, कहानी मंच और साहित्य सहचर ने परसाई को याद किया। एक कार्यक्रम में कवि मलय और कहानीकार राजेन्द्र दानी ने परसाई और उनके रचनाकर्म को विश्लेषित किया। राजेन्द्र दानी ने इस अवसर पर एक लिखित वक्तव्य दिया। यह वक्तव्य आज के संदर्भ काफी महत्वपूर्ण है। राजेन्द्र दानी के इस
वक्तव्य को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
)
आज स्वर्गीय हरिशंकर परसाई को इस उपलक्ष्य में याद करने का अर्थ बेहद व्यापक है और अत्यधिक प्रासंगिक भी। परसाई जी अपने समय में जिन व्यापक मानव मूल्यों की पक्षधरता के लिए संघर्ष करते रहे, इस दौर में उनका जितना विघटन देखने मिल रहा है, संभवत: इसके पहले नहीं था। इस अभूतपूर्व समय में उनके रचनाकर्म की प्रासंगिकता को जिस अर्थ में लिया जाना चाहिए, उसका दायित्व निर्वहन हमारे समय के साहित्य अध्येता नहीं कर रहे हैं। यह एक बड़े अफसोस की बात है।
यह इसलिए कि उनके अपने संघर्षों को लेकर उनके अपने विश्वास थे। जो उनके अपने जीवन के आगे बढ़ते-बढ़ते दृढ़ से दृढ़तर होते चले गए। इन विश्वासों को उन्होंने न केवल अपनी रचनाशीलता से, बल्कि समय-समय पर अपने उदबोधनों में भी प्रकट किया। जिससे उनकी विचारधारा का भी संज्ञान होता है और संघर्षों के प्रति उनकी दृढ़ता का भी।
"सितम-ए-राह पर रखते चलो सरों के चिराग
जब तलक कि सितम की सियाह रात चले।"
जिन रचनाकारों की या किसी प्रबुद्ध नागरिक की यदि इस घटाटोप समय में संवेदना और विवेक खंडित नहीं हैं तो वह अच्छी तरह जानता है कि इस सियाह रात का अभी अंत नहीं हुआ है। अपनी दुनिया को पाने के लिए मीलों दूर जाना है।
परसाई जी इस राह पर आजीवन चलते रहे। किशोरावस्था से ही उनके जीवन में दुखों ने अपना घेरा इस तरह बनाया कि वे लंबे समय तक उससे लड़ते रहे। संभवतः आयु की उस सक्रांति के वक्त ही उनके अंदर एक बड़े रचनाकार ने जन्म लिया होगा। उनकी प्रारंभिक रचनाओं के प्रति जो विचार स्वयं उन्होंने प्रकट किए थे, उससे जाहिर होता है कि वे बेहद आत्मकेन्द्रित थीं और निजी दुखों का उदघाटन करतीं थी। अन्ततः निजी दुखों पर किस सीमा तक लिखा जा सकता है ? आयु और अनुभवों के साथ दृष्टि और विचार का परिमार्जन ही आखिरकार एक दायित्वबोध से लैस रचनाकार को पूर्णतः प्रदान करता है। वे जीवनानुभवों को अपना ईश्वर मानते थे। और इस ईश्वर के सहारे वे स्वयं के दुखों से मुक्त हो सके, अपनी संवेदना को व्यापक विस्तार दे सके। यह अवसर उनकी स्मृति को किसी पर्व की तरह मनाने के लिए नहीं है, बल्कि उनकी रचनात्मकता को समझने और उसके पुनर्पाठ के लिए है। हमारे समय की आलोचना और मीमांसा उससे अक्सर कतराती रही है। उसका यह सदा विश्वास रहा है कि एक गंभीर लेखक लोकप्रिय नहीं हो सकता। इस रूढ़ी के विरूद्ध परसाई जी का लेखन लोगों को हमेशा आकर्षित करता रहा, उनकी लोकप्रियता में कभी कमी नहीं आई।
यह शोध का विषय हो सकता है कि परसाई जी ने जीवन के अनुसंधान में किस तरह ऍसी भाषा अर्जित की होगी, जिसकी सम्प्रेषणीयता ने उन्हें सर्वग्राही बनाया और चरम लोकप्रियता दिलाई। अपनी आत्ममुक्तता के बाद उन्होंने कहा था कि-" मैंने जीवन की विसंगतियों को बहुत करीब से देखा। अन्याय, पाखंड, छल, दोमुहापन, अवसरवाद, असामंजस्य आदि जीवन की वे विसंगतियां जिससे अधिसंख्य लोग दुखी हैं। मैंने अपने अनुभवों का दायरा बढ़ाया। अनुभव बेकार होता है यदि उसका अर्थ न खोजा जाए और तार्किक निष्कर्ष न निकाला जाए। यह कठिन कर्म है। पर इसके बिना अनुभव केवल घटना रह जाता है-वह रचनात्मक चेतना का अंग नहीं बन पाता। कठिन कर्म मैंने इसलिए कहा कि दुनिया की हालत पर चेतनावान व्यक्ति दुखी होता है।
इसके बाद वे कबीर को उदधृत करते हैं-
सुखिया सब संसार है खावै और सोवै,
दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवै।
कबीर की इन पंक्तियों की सोद्देश्यता के जीने का साहस तब भी बहुत कम लोगों में था, जब परसाई जी जीवित थे। वे दुखों के साथ ताजिंदगी कबीर की इन पंक्तियों में निहित जागरण के लिए सक्रिय रहे। उनका रचनाकर्म इस बात का ठोस साक्ष्य है कि रोजमर्रा की छोटी-सी-छोटी घटना में निहित अर्थों को उन्होंने जिस सरलतम शिल्प से व्यक्त किया, वह अभूतपूर्व है। घटनाओं को सामयिक-राजनैतिक परिस्थितियों से जोड़ कर उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को जिस तरह विश्लेषित किया, वह हमारी सृजनात्मक परम्परा में बहुत विरल है। "ठिठुरता हुआ गणतंत्र" और "वैष्णव की फिसलन जैसे उनके व्यंग्य इसके सटीक उदाहरण हैं।
व्यंग्य, जिसे विधा माने या स्पिरिट को लेकर हमारी भारतीय मनीषा में लम्बे समय तक बहसें चलती रहीं और उनका अंत आज तक नहीं हुआ है, आज तक मतभेद उभर कर कभी भी सामने आ जाते हैं। पर परसाई जी का मानना था कि सही व्यंग्य व्यापक जीवन परिवेश को समझने से आता है, व्यापक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिवेश की विसंगति, मिथ्याचार, असामंजस्य, अन्याय आदि की तह में जाना, कारणों का विश्लेषण करना, उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में देखना-इससे सही व्यंग्य बनता है। जरूरी नहीं कि व्यंग्य में हंसी आए। यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है, विद्रूप को खड़ा कर देता है, आत्मसाक्षात्कार कराता है, सोचने को बाध्य करता है, व्यवस्था की सड़ांध को इंगित करता है और सबसे महत्वपूर्ण बात, यदि वह परिवर्तन के लिए प्रेरित करता है, तो वह सफल व्यंग्य है। जितना विस्तृत परिवेश होगा, जितनी गहरी विसंगति होगी और जितना तिलमिया देने वाली अभिव्यक्ति होगी, व्यंग्य उतना सार्थक होगा।
यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि परसाई जी व्यंग्य को एक स्पिरिट मानते थे, विधा नहीं। वे कहते थे- व्यंग्य विधा नहीं है- जैसे कहानी, नाटक और उपन्यास। व्यंग्य का कोई निश्चित स्ट्रक्चर नहीं है। वह निबंध, कहानी, नाटक-सब विधाओं में लिखा जाता है। व्यंग्य लेखक को यह शिकायत नहीं होना चाहिए कि विश्वविद्यालय व्यंग्य को विधा क्यों मानते। उन्हें संतोष करना चाहिए व्यंग्य का दायरा इतना विस्तृत है कि वह सब विधाओं को ओढ़ लेता है।
परसाई जी ने इसी सार्थक समझ और विश्वास के साथ अपना रचनाकर्म किया। उन्होंने लगभग सारी विधाओं में लिखा।
हमारे देश के स्वातंत्रोत्तर काल के इस सबसे बड़े व्यंग्यकार के हम सब सहचर रहे। यह हमारे लिए गौरव का विषय है। परसाई जी सिर्फ हमारे शहर जबलपुर के लिए नहीं बल्कि इस देश के लिए गौरव रहे।
यहां यह छोटी सी टिप्पणी उनके साहित्यिक अवदान को समझने लेने या उसे विश्लेषित कर लेने के लिए नहीं है, बल्कि उनकी जयंती के इस अवसर पर उन्हें शिद्दत से याद करने और उनके व्यक्तित्व और उनकी सृजनात्मकता से अनुप्रेरित होने के लिए है। मैं उनको प्रणाम करता हूं, उनकी सृजनात्मकता को प्रणाम करता हूं।

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

चंद सिक्कों की खातिर.......जान जोखिम में डाल दिन भर नर्मदा के घाट पर घूमते हैं मासूम



# नितिन पटेल


वह उम्र जिसमें बच्चे मां-बाप की अंगुली थामकर चलना सीखते हैं, उस उम्र में कुछ मासूम चंद सिक्कों की खातिर दिन भर जबलपुर के तिलवाराघाट की खाक छानते रहते हैं। तिलवाराघाट नर्मदा नदी के एक प्रसिद्ध घाट के रूप में पहचाना जाता है। अपनी जान जोखिम में डालकर ये बच्चे रस्सी में चुम्बक बांधकर उन सिक्कों की तलाश में अपना बचपन गंवा रहे हैं, जिन्हें श्रद्धालु आस्था में घाट में फेकते हैं। मासूमों को इस उम्र में कमाई के लिए भेज देने वाले अभिभावकों के साथ लगता है प्रशासन और पुलिस को भी कोई सरोकार नहीं है। बच्चे स्वयं बताते हैं कि आज तक उन्हें इस कार्य करने से किसी ने नहीं रोका।

कभी-कभी कुछ नहीं मिलता
तिलवाराघाट के पास ही रहने वाले 8 वर्षीय प्रकाश बर्मन, 7 वर्षीय सागर, संदीप, सन्नी और अन्य बच्चों ने बताया कि अब उन्हें यह काम अच्छा लगने लगा है। उन्होंने बताया कि कभी-कभी तो उन्हें कुछ सिक्के मिल जाते हैं, जबकि कभी-कभी एक भी सिक्का नहीं मिलता। कुछ बच्चों ने बताया कि वे अपनी खुशी से आते हैं, जबकि कुछ ने बताया कि उनके माता-पिता उन्हें यहां भेजते हैं। बच्चों का बचपन किस हद तक खत्म हो चुका है, इसकी बानगी तब सामने आई, जब बातचीत के दौरान बच्चों ने कहा- "भइया हम जाएं क्या ?"

कौन छीन रहा बचपन ?
आसपास के संभ्रांत नागरिकों के साथ बुद्धिजीवियों ने स्वीकारा कि इन मासूमों का बचपन चंद सिक्कों की खातिर खत्म हो रहा है, लेकिन उनका कहना कि इन मासूमों से बचपन छीनने में अभिभावकों के साथ-साथ कहीं न कहीं प्रशासन भी जिम्मेवार है।
# (नितिन पटेल दैनिक भास्कर जबलपुर में रिपोर्टर हैं)

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