गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

टैगोर गार्डन के मायने

जबलपुर में बड़े शहरों की तरह आम लोगों के लिए पार्क या उद्यानों की कमी हर समय महसूस होती रहती है। नगर निगम के भंवरताल और नेहरू उद्यान जैसे एक-दो पार्क जरूर हैं, लेकिन अव्यवस्थाओं के कारण यहां आम लोग आने से बिचकते हैं। ले-देकर केंटोमेंट बोर्ड का टैगोर उद्यान ही सुबह-शाम लोगों के लिए घूमने के लिए बचता है। साफ-सफाई और झूलों, फिसलनी, मेरी गो-राउंड के कारण टैगोर उद्यान बच्चों के साथ बुजुर्गों को सबसे अधिक आकर्षित करता है। मुझे याद है कि हम लोग बचपन में टैगोर उद्यान को किंग्स गार्डन के नाम से पहचानते थे। बाद के दिनों परम्परानुसार अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पार्कों, रेलवे स्टेशनों और हास्पिटलों का नामकरण भारतीय नामों से किया गया, इसलिए किंग्स गार्डन भी रवीन्द्रनाथ टैगोर उद्यान हो गया। लोगबाग इसे अब इसे टैगोर गार्डन ही कहना पसंद करते हैं।
टैगोर गार्डन में सुबह घूमने वालों के लिए प्रवेश नि:शुल्क रखा गया है। दिन और शाम को यहां आने वालों को एक या दो रूपए प्रवेश शुल्क के रूप में देना पड़ते हैं। 12 वर्ष तक के बच्चों के लिए प्रवेश मुफ्त है। मैं सप्ताह के सातों दिन सुबह के समय टैगोर गार्डन में घूमने जाता हूं। अब टैगोर गार्डन नियमित रूप से जाना एक आदत बन गई है। सुबह घूमने वालों में बहुत से महिलाएं या पुरूष भी मेरी तरह यहां आदतन आने लगे हैं। इनमें से कई सदर क्षेत्र में स्थित स्कूलों में बच्चों को छोड़ने आते हैं और लगे हाथ टैगोर गार्डन के भी चक्कर लगा लेते हैं। मैं एक बात तो बताना भूल ही गया कि टैगोर गार्डन में दो वॉकिंग ट्रैक हैं। बड़ा 550 मीटर का दूसरा छोटा जिसमें मैं आज तक नहीं चला। लोग अपनी सुविधानुसार दोनों ट्रैकों में से एक में चलते हैं। कुछ लोग बारी-बारी से पहले बड़े ट्रैक में और फिर छोटे ट्रैक में या पहले छोटे ट्रैक में और बाद में बड़े ट्रैक में चलते हैं। अधिकांश घूमने वाले लोग एक-दूसरे को नाम से नहीं पहचानते, लेकिन लंबे समय से घूमने के कारण चेहरों से पहचान हो गई है और कभी-कभार हैलो, गुड मॉर्निंग या ओम नमो नारायण से औपचारिकताएं भी हो जाती है। घूमने वालों का उद्देश्य वजन कम करना या मोटापा घटाना है, लेकिन इसमें कुछ ही लोग सफल दिखते हैं। दो-तीन वर्षों के घूमने के बावजूद कम लोगों में फर्क नजर आया और वे इससे चिंतित भी हैं।
दरअसल ‘ओम नमो नारायण’ का उदघोष एक रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर का है। मुझे ऐसा लगता है कि जब उन्होंने टैगोर गार्डन में सुबह घूमना शुरू किया, तब भीड़-भाड़ में उनको नोटिस में नहीं लिया गया। तब उन्होंने आमतौर पर गार्डन में बाएं से दाएं घूमने के नियम के सिद्धांत के स्थान पर दाएं से बाएं घूमना शुरू किया और घूमने वाले युवाओं से ले कर बूढ़ों तक का ध्यान ‘ओम नमो नारायण’ के उदघोष से करने लगे। कुछ लोगों ने उनको रिस्पांस दिया तो कुछ ने उन्हें देख कर राह बदलना उचित समझा। मजा तो उस समय आता है, जब रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर एअर फोर्स और सेना में ऊंचे पदों पर पदस्थ अपने बेटों के साथ गार्डन में मॉर्निंग वाक करने आते हैं और उनको देख कर लोग जोर-जोर से ‘ओम नमो नारायण-ओम नमो नारायण’ का उद्घोष करते हैं और बेटों की शर्म में वे ऐसे लोगों से बचना चाहते हैं। बेटे भी समझ नहीं पाते कि उनके पिता जी को देख कर सभी लोग ‘ओम नमो नारायण-ओम नमो नारायण’ का उदघोष क्यों कर रहे हैं ?
टैगोर गार्डन में घूमने वालों ने अपनी-अपनी पसंद के विषय वालों के झुंड या समूह बना लिए हैं। इन समूहों में घूमने वाले लोग प्रापर्टी, पुरानी-नई कार बेचने, शेयर मार्केट, ट्रक के धंधे, देश-विदेश के टूर और उसमें भिजवाने की बात करते हैं। गार्डन में कभी-कभार प्रापर्टी की डील भी होने की खबर मैंने सुनी है। कुछ डाक्टर भी घूमने आते हैं। उनसे लोग पहचान भिड़ा कर गार्डन में ही फ्री में सलाह लेना चाहते हैं या क्लीनिक में जल्दी देखने का जुगाड़ करना चाहते हैं।
पुरूषों के साथ महिलाएं भी समूह में घूमना पसंद करती हैं। पुरूषों की तुलना में महिलाएं धर्म या जातिगत आधार पर घूमना पसंद करती हैं। पहनावा तो आधुनिक है, लेकिन विचार अभी तक संकुचित हैं। कई बार महिलाओं की बात तो वही सास-बहू या जिठानी-देवरानी के पुराने झगड़े ही उनकी बातचीत के विषय रहते हैं। कुछ सीधा पल्ला लिए अधेड़ व बुजुर्ग महिलाओं को काफी समय से देख हूं, वे गार्डन के बीच में चबूतरों में रामदेव से प्रेरणा ले कर योग व आसन कर सुबह के समय का सदुपयोग कर रही हैं। गार्डन में पेड़ों के नीचे आसन लगा कर और बेंचों पर बैठ कर कुछ पुरूष कपालभाती, अलोम-विलोम की क्रिया करते भी दिखते हैं। उनकी क्रियाओं को देख कर कई बार मन में लगता है कि ये लोग वाकई में इन्हें सही ढंग से कर पा रहे हैं कि नहीं। मन में शंका होने पर मैंने रोज मिलने वाले एक व्यक्ति से इस संबंध में पूछा तो वे भी शंका में पड़ गए।
गार्डन में सुबह साउंड बाक्स के माध्यम से भजन की धारा भी प्रवाहित होती रहती है। भजनों को सुनने के समय महसूस होता है कि क्या गार्डन में सिर्फ हिंदु ही घूमने आते हैं, क्योंकि सभी भजन हिंदु धर्म से संबंधित रहते हैं। वैसे उनमें आध्यात्मिक भाव रहता है, इसलिए उन्हें सर्वग्राह्य माना जा सकता है। गार्डन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की एक शाखा भी लगती है। शाखा में पहले ज्यादा संख्या दिखती थी, लेकिन अब काफी कम लोग इसमें आते हैं। ये लोग चुपचाप अपनी नियमित कार्यक्रम के साथ एक-डेढ़ घंटे गार्डन में रहते हैं। कभी-कभी बच्चों के लिए कबड्डी और मनोरंजक खेलों का आयोजन कर आरएसएस वाले उन्हें आकर्षित करने का प्रयास भी करते हैं।
गार्डन में बिजनेस या आध्यात्मिक प्रमोशन के तहत् योग व स्वास्थ्य शिविर भी आयोजित किए जाते हैं। इन शिविरों की खास बात यह देखी गई है कि इनमें पांच-सात दिन तक भाग लेने के पश्चात् लोग दूसरों को इस प्रकार योग व स्वास्थ्य की सलाह देने लगते हैं, जैसे उनकी विषय में विशेषज्ञता हो। कुछ दिन पहले ही देश और विदेश में आध्यात्म की अलख जगाने वाले एक अंतरराष्ट्रीय संगठन ने टैगोर गार्डन में एक योग-स्वास्थ्य शिविर का आयोजन किया। शिविर के प्रतिभागियों को संबोधित करने के लिए डीजल जनरेटर की व्यवस्था की गई, जिससे कि शिविर में शामिल होने वालों के साथ-साथ गार्डन में घूमने वाले भी लाउड स्पीकर में बहिन जी का प्रवचन सुन सकें। गार्डन में प्रविष्ट होते ही लोगों को डीजल जनरेटर के धुएं से रूबरू होना पड़ा। शिविर में उस दिन पर्यावरण संरक्षण पर लोगों को जन-जाग्रत किया जा रहा था। शिविर की व्यवस्था संभालने वाले एक भ्राता से जब जनरेटर के धुएं और प्रदूषण की ओर ध्यान दिलाया गया, तब उन्होंने मासूमियत से उत्तर दिया -"आप लोग बात तो सही कर रहे हैं, लेकिन मैं क्या कर सकता हूं ?" सप्ताह भर तक चलने वाले शिविर की बातें मैंने भी घूमते हुए ध्यान से सुनी। बातों का निचोड़ था- योग,स्वास्थ्य, आध्यात्म और देशभक्ति। शिविर के बीच में रोज मनोज कुमार की फिल्म के देशभक्ति गीत भी सुनवाए गए और लोगों ने ताली बजा कर उनको पूरी तन्मयता के साथ गाया भी।
गार्डन में लगे हुए झूलों, फिसलनी और मेरी गो-राउंड में बच्चे तो नहीं खेल पाते, अलबत्ता किशोर विशेषकर महिलाएं उन पर अधिक समय तक काबिज रहती हैं। बेचारे बच्चे काफी समय तक इंतजार करते हैं कि झूले कब खाली हों और वे कुछ समय तक उनमें झूल सकें। बच्चे एक या दो बार झूलते हैं कि बड़े लोग आ कर उन्हें उतार देते हैं। फिसलनियों में किशोर दौड़ कर चढ़ने की अजमाइश करते नजर आ जाते हैं। गार्डन जब खाली होने लगता है, तब मैंने कई बार देखा है कि कुछ बूढ़े महिला और पुरूष झूलों में बैठ कर झूलते हैं। उनको देख कर मुझे प्रेमचंद की एक कहानी में उल्लेखित इस वाक्य की याद आ जाती है कि बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन होता है।
सुबह 9.00 बजे के पश्चात् गार्डन में टिकट लगना शुरू हो जाती है। 9 बजे से शाम के समय तक धुधंलके तक युवा लड़के-लड़कियों का यहां जमघट लग जाता है। गार्डन में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर का एक अध्ययन केन्द्र भी है। इस अध्ययन केन्द्र की स्थापना का उद्देश्य विद्यार्थियों को गार्डन के सुरम्य वातावरण में अध्ययन की सुविधा प्रदान करना है। अध्ययन केन्द्र का विद्यार्थी कितना लाभ उठा रहे हैं, इसकी मुझे जानकारी नहीं, लेकिन गार्डन के सामने की सड़क से निकलने पर यह जरूर दिख जाता है कि युवा जोड़े पेड़ो और झाड़ियों के झुरमुटे में अपना समय कैसे काट रहे हैं। सुबह घूमने पर पेड़ों के बीच में चिप्स के पैकेट व कोल्ड ड्रिंक्स की खाली बोतलें इस बात की गवाह होती हैं कि यहां समय बिताने वाले युवा जोड़े पूरे इंतजाम के साथ आते हैं।
शाम के समय लोग सपरिवार बच्चों के साथ यहां घूमने आते हैं। बच्चों के मनोरंजनार्थ गार्डन में दो ट्रेनों की व्यवस्था केंटोमेंट बोर्ड द्वारा की गई है। एक-दो वर्ष पूर्व तक गार्डन में प्रत्येक माह के पहले रविवार की शाम को सेना का बैंड दो घंटे का कार्यक्रम प्रस्तुत करता था। बारिश में व्यवधान आने के बाद यह कार्यक्रम ही बंद हो गया। इस पर किसी का ध्यान नहीं गया। न ही केंटोमेंट बोर्ड का और न ही मीडिया का। इसका लाभ सुरा प्रेमी निश्चित रूप से उठा रहे हैं। सुबह घूमने वालों को कई बार शराब और सोडे की खाली बोतलें यह बताने के लिए काफी है कि गार्डन में यह सब भी होता है।
गार्डन के बंद होने का समय रात्रि 9.00 बजे नियत किया गया है। यह 9.00 बजे आम लोगों के लिए बंद हो जाता है, लेकिन मुझे लगता है कि जिन्हें इसके अंदर जाना है, वे ऊंची दीवारों और कांटा लगी ग्रिल को भी लांघ कर यहां पहुंच जाते हैं और उन कामों में लग जाते हैं, जिसके लिए उन्होंने इतनी मेहनत की है।

3 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

आपने टैगोर गार्डन के बारे में बढ़िया जानकारी दी है . टैगोर गार्डन में जो अव्यवस्था व्याप्त है उसे दूर करने के लिए समाजसेवी सस्थाओं और प्रशासन को इस और ध्यान देना चाहिए . उम्दा पोस्ट प्रस्तुति के लिए आभार .

sarita argarey ने कहा…

मॉर्निंग वॉक यानी सुबह की सैर का इतना तफ़सील से रोचक वर्णन यदाकदा ही देखने-पढ़ने मिलता है । शायद हर शहर के हर पार्क में कमोबेश यही स्थिति रहती है । सुबह की सैर सेहतमंद बनने के लिये ज़रुरी बताई गई है लेकिन मेरा मानना है कि आज लोग वहाँ भी ना चित्त शाँत रख पाते हैं और ना ही अपने मनोविकारों से मुक्ति पा पाते हैं । इसी का नतीजा है कि लोग तेज़ कदमों से चलकर शरीर की चर्बी जलाने की बजाय झुँड में टहलते हुए गुटबाज़ी को हवा देते हैं और बरसों बरस शरीर पर फ़ैट का जखीरा समेटते रहते हैं । बल्कि मुझे तो लगता है कि मॉर्निंग वॉक "गॉसिप टॉक" बन कर रह गई है और कई मनोविकारों की जननी भी हो चुकी है । बहरहाल टैगोर पार्क में सुबह की सैर का आनंद दिलाने का शुक्रिया ।

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

सरिता जी से सम्मत .
- विजय

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