जबलपुर की साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत शानदार है। जबलपुर स्वाद, उन्मुक्तता और मोहब्बत में बनारस के करीब है। जबलपुर के बारे में कहा जाता है कि यहां काम करने की स्वतंत्रता भी है और भटकने और चहलकदमी करने की सुविधा भी। जबलपुर की खयाति सृजन, विचार और संगठन के लिए जानी-पहचानी जाती है। भारतेंदु जबलपुर अक्सर आते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी यहां १६ वर्ष तक रहे और उन्होंने अपने अद्भुत 'आलाप' में जबलपुर के संबंध में दिलचस्प संकेत दिए हैं। मुक्तिबोध की अनेक लंबी यात्राएं और उनका लंबे समय तक यहां रहने से एक नए दौर की शुरूआत हुई। ज्ञानरंजन ने १६ वें पहल सम्मान के अवसर पर दिए गए वक्तव्य में भाषा के जानकार और प्रसिद्ध विद्वान नागेश्वरलाल के हवाले से कहा था कि जबलपुर में सबसे अच्छी खड़ी बोली और सुनी जाती है।
मान्यताओं के अनुसार जबलपुर में साहित्यिक परम्पराओं की शुरूआत कलचुरि काल से प्रारंभ होती हैं। भारतेंदु युग के ठाकुर जगमोहन सिंह श्रृंगार रस के कवि और गद्य लेखक के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। उनका जिक्र रामचंद्र श्ुाक्ल ने भी किया है। सन् १९०० के पश्चात् जबलपुर में कई साहित्यिक संगठन बने और कवि गोष्ठियां आयोजित करने की शुरूआत हुई, जो आज भी जारी हैं। उस समय के कवियों में लक्ष्मी प्रसाद पाठक, विनायक राव, जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, बाबूलाल शुक्ल, सुखराम चौबे, छक्कूलाल बाजपेयी का नाम उल्लेखनीय है। जबलपुर साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन में भी अग्रणी रहा है। काव्य सुधा निधि के संपादक रघुवर प्रसाद द्विवेदी ने छंद काव्य को व्यवस्थित रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कामता प्रसाद गुरू और गंगा प्रसाद अग्निहोत्री ने जबलपुर में खड़ी हिन्दी में काव्य की नई धारा को विकसित करने में सफल रहे। सन् १९१७ में जबलपुर में हिन्दी साहित्य सम्मलेन के आयोजन से हिन्दी को मातृभाषा के रूप में स्थापित करने में बहुत सहायता मिली। इसके पश्चात् जबलपुर के साहित्यकारों ने राष्ट्रप्रेम, प्रकृति और छायावाद के विविध आयामों के साथ रचनाकर्म किया। चौथे व पांचवे दशक में सुभद्रा कुमारी चौहान, रामनुजलाल श्रीवास्तव, केशव प्रसाद पाठक, नर्मदा प्रसाद खरे और भवानी प्रसाद तिवारी ने कविता में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। सुभद्रा कुमारी चौहान की वीर रस की 'झांसी की रानी' को आज भी चाव से सुना जाता है। केशव प्रसाद पाठक ने उमर खय्याम की रूबाइत का अनुवाद कर प्रसिद्ध हो गए। केशव प्रसाद पाठक का अनुवाद तो बच्चन, मैथिलीशरण गुप्त और पंत से भी बेहतर माना गया है। रामानुज लाल श्रीवास्तव ने हिन्दी में छायावादी गीत और उर्दू में 'ऊंट' नाम से व्यंग्य लिखा। उन्होंने प्रेमा प्रकाशन के माध्यम से जबलपुर में साहित्यिक वातावरण के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया। 'प्रेमा' की अपने समय में साहित्यिक पत्रिकाओं में बड ी प्रतिष्ठा रही है। 'प्रेमा' के माध्यम से अनेक प्रतिभाएं उभरीं, जिनमें नर्मदा प्रसाद खरे महत्वपूर्ण थे। भवानी प्रसाद तिवारी साहित्कार होने के साथ-साथ राजनैतिक कार्यकर्ता भी थे। स्वतंत्रता आंदोलन में जेल यात्रा में उन्होंने गीतांजलि का अनुवाद किया। भवानी प्रसाद तिवारी द्वारा किए गए गीतांजलि के अनुवाद में जो सरलता, सहजता व सरसता थी, वह उन्हें दूसरे अनुवादों से अलग पहचान देती है।
पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन व विकास के साथ जबलपुर में ऊषा देवी मित्रा, देवीदयाल चतुर्वेदी 'मस्त', इंद्र बहादुर खरे, रामेश्वर शुक्ल अंचल जैसे साहित्यकार भी उभरे। रामेश्वर प्रसाद गुरू और भवानी प्रसाद तिवारी के संपादन में प्रकाशित 'प्रहरी' व 'वसुधा' से गद्य व व्यंग्य लेखन को नया आयाम मिला। प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने उपर्युक्त पत्रिकाओं से शुरूआत कर शिखर में पहुंचे।
सातवें दशक के में ज्ञानरंजन ने 'पहल' का प्रकाशन शुरू किया। 'पहल' से जबलपुर को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान मिली। पहल ने कालांतर में देश और भूमंडल को छूआ। 'पहल' की यात्रा स्थानीयता से से भूमंडल यानी विश्वदृष्टि की यात्रा रही। 'पहल' के पाकिस्तानी साहित्यकारों और अफ्रीकी कविताओं पर केन्द्रित अंक काफी चर्चित रहे।
जबलपुर के निवासी कवि सोमदत्त ने अपनी प्रयोगधर्मिता के कारण राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने गए। वर्तमान में मलय की गिनती समकालीन श्रेष्ठ कवियों में होती है। अभी हाल ही में लीलाधर मंडलोई ने देश के श्रेष्ठ ११ कवियों की रचनाओं के संग्रह का संपादन किया है, जिसमें उन्होंने मलय को भी शामिल किया है। इसे तार सप्तक के पश्चात महत्वपूर्ण माना गया है। राजेन्द्र दानी, अशोक शुक्ल जैसे रचनाकार समकालीन कहानी में महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। अमृतलाल बेगड़ ने चित्रकला के साथ नर्मदा के सौंदर्य को लेखन के माध्यम से प्रतिष्ठित कर स्वयं भी प्रतिष्ठा अर्जित की है। इस कार्य के लिए साहित्य अकादमी ने भी उन्हें सम्मानित किया है।
जबलपुर में साहित्य आंदोलन समय के साथ कभी तेजी से तो कभी विलंबित गति से चलता रहा है, लेकिन ठहराव नहीं आया। विभिन्न संस्थाओं ने समय-समय पर छोटे-बडे आयोजनों के माध्यम से जबलपुर की सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत बना कर रखा है।
मान्यताओं के अनुसार जबलपुर में साहित्यिक परम्पराओं की शुरूआत कलचुरि काल से प्रारंभ होती हैं। भारतेंदु युग के ठाकुर जगमोहन सिंह श्रृंगार रस के कवि और गद्य लेखक के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। उनका जिक्र रामचंद्र श्ुाक्ल ने भी किया है। सन् १९०० के पश्चात् जबलपुर में कई साहित्यिक संगठन बने और कवि गोष्ठियां आयोजित करने की शुरूआत हुई, जो आज भी जारी हैं। उस समय के कवियों में लक्ष्मी प्रसाद पाठक, विनायक राव, जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, बाबूलाल शुक्ल, सुखराम चौबे, छक्कूलाल बाजपेयी का नाम उल्लेखनीय है। जबलपुर साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन में भी अग्रणी रहा है। काव्य सुधा निधि के संपादक रघुवर प्रसाद द्विवेदी ने छंद काव्य को व्यवस्थित रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कामता प्रसाद गुरू और गंगा प्रसाद अग्निहोत्री ने जबलपुर में खड़ी हिन्दी में काव्य की नई धारा को विकसित करने में सफल रहे। सन् १९१७ में जबलपुर में हिन्दी साहित्य सम्मलेन के आयोजन से हिन्दी को मातृभाषा के रूप में स्थापित करने में बहुत सहायता मिली। इसके पश्चात् जबलपुर के साहित्यकारों ने राष्ट्रप्रेम, प्रकृति और छायावाद के विविध आयामों के साथ रचनाकर्म किया। चौथे व पांचवे दशक में सुभद्रा कुमारी चौहान, रामनुजलाल श्रीवास्तव, केशव प्रसाद पाठक, नर्मदा प्रसाद खरे और भवानी प्रसाद तिवारी ने कविता में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। सुभद्रा कुमारी चौहान की वीर रस की 'झांसी की रानी' को आज भी चाव से सुना जाता है। केशव प्रसाद पाठक ने उमर खय्याम की रूबाइत का अनुवाद कर प्रसिद्ध हो गए। केशव प्रसाद पाठक का अनुवाद तो बच्चन, मैथिलीशरण गुप्त और पंत से भी बेहतर माना गया है। रामानुज लाल श्रीवास्तव ने हिन्दी में छायावादी गीत और उर्दू में 'ऊंट' नाम से व्यंग्य लिखा। उन्होंने प्रेमा प्रकाशन के माध्यम से जबलपुर में साहित्यिक वातावरण के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया। 'प्रेमा' की अपने समय में साहित्यिक पत्रिकाओं में बड ी प्रतिष्ठा रही है। 'प्रेमा' के माध्यम से अनेक प्रतिभाएं उभरीं, जिनमें नर्मदा प्रसाद खरे महत्वपूर्ण थे। भवानी प्रसाद तिवारी साहित्कार होने के साथ-साथ राजनैतिक कार्यकर्ता भी थे। स्वतंत्रता आंदोलन में जेल यात्रा में उन्होंने गीतांजलि का अनुवाद किया। भवानी प्रसाद तिवारी द्वारा किए गए गीतांजलि के अनुवाद में जो सरलता, सहजता व सरसता थी, वह उन्हें दूसरे अनुवादों से अलग पहचान देती है।
पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन व विकास के साथ जबलपुर में ऊषा देवी मित्रा, देवीदयाल चतुर्वेदी 'मस्त', इंद्र बहादुर खरे, रामेश्वर शुक्ल अंचल जैसे साहित्यकार भी उभरे। रामेश्वर प्रसाद गुरू और भवानी प्रसाद तिवारी के संपादन में प्रकाशित 'प्रहरी' व 'वसुधा' से गद्य व व्यंग्य लेखन को नया आयाम मिला। प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने उपर्युक्त पत्रिकाओं से शुरूआत कर शिखर में पहुंचे।
सातवें दशक के में ज्ञानरंजन ने 'पहल' का प्रकाशन शुरू किया। 'पहल' से जबलपुर को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान मिली। पहल ने कालांतर में देश और भूमंडल को छूआ। 'पहल' की यात्रा स्थानीयता से से भूमंडल यानी विश्वदृष्टि की यात्रा रही। 'पहल' के पाकिस्तानी साहित्यकारों और अफ्रीकी कविताओं पर केन्द्रित अंक काफी चर्चित रहे।
जबलपुर के निवासी कवि सोमदत्त ने अपनी प्रयोगधर्मिता के कारण राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने गए। वर्तमान में मलय की गिनती समकालीन श्रेष्ठ कवियों में होती है। अभी हाल ही में लीलाधर मंडलोई ने देश के श्रेष्ठ ११ कवियों की रचनाओं के संग्रह का संपादन किया है, जिसमें उन्होंने मलय को भी शामिल किया है। इसे तार सप्तक के पश्चात महत्वपूर्ण माना गया है। राजेन्द्र दानी, अशोक शुक्ल जैसे रचनाकार समकालीन कहानी में महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। अमृतलाल बेगड़ ने चित्रकला के साथ नर्मदा के सौंदर्य को लेखन के माध्यम से प्रतिष्ठित कर स्वयं भी प्रतिष्ठा अर्जित की है। इस कार्य के लिए साहित्य अकादमी ने भी उन्हें सम्मानित किया है।
जबलपुर में साहित्य आंदोलन समय के साथ कभी तेजी से तो कभी विलंबित गति से चलता रहा है, लेकिन ठहराव नहीं आया। विभिन्न संस्थाओं ने समय-समय पर छोटे-बडे आयोजनों के माध्यम से जबलपुर की सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत बना कर रखा है।
1 टिप्पणी:
शानदार प्रस्तुति के लिए आभार पंकज जी!
"रामकृष्ण गौतम"
एक टिप्पणी भेजें