23 जून को समाचार पत्रों में प्रकाशित शोक सूचना से जानकारी मिली कि आज बाबा सोलंकी की तेरहवीं हैं। विज्ञापन में उनके निधन की तारीख 10 जून दर्ज थी। बाबा यानी कि प्रमोद सोलंकी की पहचान जबलपुर में रौशनी और ध्वनि के इकलौते जादूगर के रूप में रही है। मुझे शोक सूचना पढ़ कर इसलिए पीढ़ा हुई कि जबलपुर शहर में किसी भी नाट्य, साहित्यिक, संगीत या कला संस्था ने बाबा सोलंकी को श्रद्धांजलि नहीं दी। यदि उनके निधन के पश्चात् संस्थाओं द्वारा श्रद्धांजलि दी जाती तो मुझे समाचारों पत्रों में प्रकाशित समाचारों के माध्यम से जानकारी मिल जाती कि बाबा सोलंकी अब इस संसार में नहीं रहे। वैसे जबलपुर की साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा तथाकथित सम्मान और काव्य गोष्ठियों के समाचार अक्सर पढ ने मिल जाते हैं। ऐसे में विवेचना, विवेचना रंगमंडल, मराठी समाज सहित कई संस्थाओं जिनसे बाबा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे हैं, द्वारा बाबा सोलंकी को श्रद्धांजलि न देना आश्चर्यजनक और दुखद है।
1964 में यवतमाल से अपने पिता की डांट खा कर जबलपुर भाग आए 17 वर्ष के लड़के के बारे में किसी ने नहीं सोचा था कि भविष्य में वह जबलपुर के कला क्षेत्र के लिए एक जरूरत बन जाएगा। पिछले चार दशकों से यह व्यक्ति जबलपुर में आयोजित होने वाली संगीत सभाओं, नाट्य प्रस्तुतियों और मंचीय कलाओं से जुड़ी हर गतिविधियों में मंच के पास कार्यक्रम की शुरूआत से ले कर अंत तक अपने के स्पर्श से मंच पर प्रकाश और ध्वनि का कुछ ऐसा ताना बाना बुन देता था कि दर्शक एवं श्रोता एक सुखद अनुभूति में खो से जाते थे। जबलपुर के कला रसिक उसे प्रमोद (बाबा) सोलंकी के नाम से जानते थे और दर्शक-श्रोता उन्हें नाम से नहीं जानते थे, वे उन्हें चेहरे से अवश्य पहचान लेते थे।
बाबा सोलंकी ने अपनी शिखर तक पहुंचने की कहानी मुझे वर्ष 1997 में जिस विनम्रता और सहजता से सुनाई थी, दरअसल वह उतनी आसान नहीं थी, उनकी संघर्ष गाथा। बाबा पिछले छह महीने से डायबीटिज के कारण अस्वस्थ थे। उनकी दोनों किडनियां खराब हो चुकी थीं। लगभग हर दूसरे दिन उनका डायलिसिस होता था। बीमार होने के पूर्व ही उन्होंने काम काज की जिम्मेदारी अपने बेटे को सौंप दी थी। जब उन्होंने सक्रिय रूप से काम करना छोड़ा, तब वे शीर्ष पर थे। उन्हें जितना सम्मान बड़े कलाकारों, निर्देशकों और आम जनता से मिला, शायद उतना सम्मान और सामीप्य जबलपुर के किसी कलाकार को नहीं मिला। बाबा सोलंकी जबलपुर के कला मंच के साथ ही साथ प्रदेश के कई क्षेत्रों में प्रकाश और ध्वनि संयोजन (लाइट एंड साउंड) के पर्याय और आवश्यकता बन गए थे। यदि कहा जाए कि उन्होंने इस विधा को कला क्षेत्र में एक मान्यता दिलवाई, तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।
बाबा सोलंकी ने स्कूली जीवन से प्रकाश और ध्वनि संयोजक को एक शौक के रूप में अपनाया था। उस समय वे यवतमाल में रहते थे और खाली समय में एक फिल्म थिएटर में ऑपरेटर के सहायक के रूप में काम करते थे। उनके पिता को बाबा का यह तकनीकी शौक पसंद नहीं था। पिता के जोर देने पर उन्होंने कॉलेज में कॉमर्स विषय में प्रवेश ले लिया। प्रथम वर्ष में ही फेल होने पर बाबा को पिता की डांट खानी पड़ी और वे जबलपुर रेलवे में कार्यरत अपने भाई सुधीर चौहान के पास आ गए। जबलपुर में आ कर बाबा मराठी समाज से जुड गए और यहीं से उनका नाटकों से भी जुड़ाव हुआ। 1967 में जबलपुर में बाहर से आ कर मराठी व्यवसायिक नाटक करने वालों की संख्या अचानक बढ़ी और इनके साथ बाबा सोलंकी ने जुड कर प्रकाश और ध्वनि संयोजन का कार्य करना शुरू किया। उस समय बाबा ने मराठी रंगमंच के बाल कुलटकर, श्रीराम लागू, नाना साहब सिरगोपीकर, दादा कोंडके (लोक नाट्य), शरद तलवारकर और विजया मेहता जैसे निर्देशकों के साथ काम कर प्रकाश संयोजन की बारीकियों को सीखा। इसी तरह बाबा स्थानीय मराठी नाट्य संस्थाओं से जुड़े और उन्होंने 1967 में स्वयं के प्रकाश और ध्वनि उपकरणों से काम करना शुरू किया।
बाबा सोलंकी ने केशवराम गांवडे निर्देशित मराठी नाटक 'तू बेड़ा कुम्बार' में प्रकाश और ध्वनि संयोजन की जिम्मेदारी संभाल कर पहली बार स्वतंत्र कार्य किया। उस समय पैसों और संसाधनों की कमी को देखते हुए बाबा ने प्रकाश संयोजन के लिए स्पाट लाइट स्वयं बनाया था। इसके लिए उन्होंने एल्युमीनियम शीट का उपयोग किया। 'तू बेड़ा कुम्बार' प्रस्तुति काफी चर्चित व सफल रही और इसमें किए गए प्रकाश संयोजन से जबलपुर के नाट्य प्रेमी दर्शकों को भी एक नया अनुभव हुआ।
इसके बाद बाबा सोलंकी ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा और वे निरंतर आगे बढ़ते गए। उन्होंने सैद्धांतिक ज्ञान न होने के बावजूद प्रत्येक नाट्य प्रस्तुतियों में प्रकाश संयोजन को ले कर ऐसे प्रयोग किए, जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्राध्यापकों के साथ बड़े-बड़े निर्देशकों को भी अंचभित कर देते थे।
बाबा सोलंकी को हिन्दी रंगमंच से परिचित करवाने का श्रेय मंचीय हास्य कलाकार डी. के. कुलकर्णी को है। सातवें दशक में नाट्य निर्देशक श्याम खत्री के साथ बाबा सोलंकी ने बहुत काम किया। बाबा सोलंकी ने एक पुराने अनुभव को याद करते हुए बताया था कि श्याम खत्री के साथ मिल कर उन्होंने 'पराजित' नाटक के एक दृश्य में अंधेरा रख कर और सिगरेट जला कर धुंए के प्रभाव को मंच पर आत्मा के स्वरूप में प्रगट किया था। उनका कहना था कि स्मोक मशीन न होने और इसी प्रकार अन्य उपकरणों के अभाव के चलते उन्हें प्रकाश संयोजन में कई प्रयोग करने पड़े। बाबा सोलंकी ने श्याम खत्री द्वारा निर्देशित मराठी से हिन्दी में अनुवादित 'दिया जले सारी रात' में भी प्रकाश संयोजन में प्रयोग किए। बाबा ने सातवें दशक की शुरूआत में श्याम खत्री के एक प्रसिद्ध हिन्दी नाटक 'विषपायी' में पहली बार प्रकाश संयोजन के लिए डीमर्स का उपयोग किया। इसी प्रस्तुति के संबंध में उन्होंने बताया कि प्रकाश संयोजन की बदौलत एक दृश्य में मुख्य महिला पात्र की निभाने वाली कलाकार पर क्रास का रिफ्लेक्शन प्रकाश संयोजन से उभारा गया था और इस दृश्य को दर्शकों ने बहुत सराहा था। बाद में 'विषपायी' के लगातार पच्चीस प्रदर्शन हुए, जो अपने आप में एक रिकार्ड है।
सर्वप्रथम नाटकों में डीमर्स का उपयोग और इसके लिए प्रेरित करने के लिए बाबा सोलंकी जबलपुर पालीटेक्निक कालेज के बापू धांडे का नाम लेना भी नहीं भूलते हैं। बाबा ने बताया कि 'विषपायी' में ही नाव का दृश्य को भी प्रकाश संयोजन के माध्यम से प्रस्तुत किया गया था और यह दृश्य नाट्य प्रस्तुति की हाई लाइट थी।
श्याम खत्री के जबलपुर से बाहर ट्रांसफर होने पर बाबा सोलंकी और कचनार संस्था का जुड़ाव हुआ। बाबा ने संस्था की नाट्य प्रस्तुति 'खून में बोई धान' और 'इतिहास चक्र' जैसे नाटक किए। इन दोनों नाट्य प्रस्तुतियों ने इलाहाबाद और बंबई में आयोजित अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इन्हीं प्रस्तुतियों के माध्यम से बाबा को जबलपुर के बाहर भी प्रकाश और ध्वनि संयोजन कला में जौहर दिखाने को मिले। बंबई की प्रतियोगिता में 'इतिहास चक्र' की प्रस्तुति और इसके प्रकाश संयोजन से निर्णायक फिल्म अभिनेता जयराज और होमी वाडिया बहुत प्रभावित हुए और कलाकारों के साथ बाबा सोलंकी को खुशी में गले लगा लिया।
इसके बाद जबलपुर के नाट्य प्रेमी एवं बैंक कर्मी तरूण जागीरदार ने बाबा सोलंकी को प्रोत्साहित किया और आर्थिक सहायता भी दी। बाबा सोलंकी ने यहीं से स्वयं के उपकरण जोड़ना भी शुरू कर दिए। जागीरदार की सहायता से बाबा ने प्रकाश संयोजन के लिए दो-दो स्पाट और डीमर खरीदे। इसी दौरान जागीरदार के मराठी नाटक 'हीरात फुल्ला परिजात' का मंचन हुआ और इसमें बाबा ने अपने बनाए गए उपकरणों के साथ आधुनिकतम उपकरणों का प्रकाश संयोजन में उपयोग किया। आधुनिक मराठी रंगमंच बाबा सोलंकी, राजेन्द्र रानाडे और रवि परांजपे के साथ काम कर चुके थे।
1975-77 में 'विवेचना' के माध्यम से अलखनंदन जबलपुर में हिन्दी रंगमंच को सक्रिय रखे थे। बाबा सोलंकी ने अलखनंदन के निर्देशन में गिनीपिग और वेटिंग फार गोदो का प्रकाश संयोजन किया। इन नाटकों के प्रकाश संयोजन की समीक्षकों ने भी तारीफ की। प्रसिद्ध रंगकर्मी बंशी कौल वेटिंग फार गोदो को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रस्तुत कर चुके थे। बंशी कौल ने जब भोपाल के रवीन्द्र भवन में अलखनंदन की प्रस्तुति को देखा, तो वे बाबा सोलंकी की मौलिक प्रकाश संयोजन और ध्वनि व्यवस्था से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसकी चर्चा दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तक में की। बाबा ने बताया कि अलखनंदन को भारत भवन में पहुंचाने के लिए वेटिंग फार गोदो का महत्वपूर्ण योगदान है।
प्रकाश संयोजन के अतिरिक्त ध्वनि संयोजन में भी बाबा सोलंकी का जबलपुर में कोई जवाब नहीं रहा। जबलपुर में होने वाली स्तरीय संगीत सभाओं में बाबा सोलंकी और उनकी ध्वनि व्यवस्था एक आवश्यकता का रूप ले चुकी थीं। आयोजकों के साथ-साथ कई बार ऐसा भी हुआ है कि कलाकार ने पहले आयोजन स्थल में बाबा की मौजूदगी की पुष्टि की और फिर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया। सातवें-आठवें दशक में होने वाले 'भूले-बिसरे गीतों' के श्रंखलाबद्ध कार्यक्रम की प्रकाश और ध्वनि की परिकल्पना बाबा सोलंकी की ही रहा करती थी। इस कार्यक्रम के बंद हो जाने के बाद बाबा फिर किसी आर्केस्ट्रा कार्यक्रम से नहीं जुड़े। उनका कहना था कि ध्वनि के नाम पर सिर्फ धूम धड़ाका ही रह गया था। ध्वनि संयोजन के संबंध में उन्होंने कई ऐसे मजेदार और रोचक किस्से सुनाए, यदि उनका यहां जिक्र किया जाए तो यह स्थान ही कम पड़ जाए। बाबा गायकों में किशोरी आमोनकर, जगजीत सिंह, अहमद-मोहम्मद हुसैन, पीनाज मसानी, पंकज उधास, तलत अजीज, महेन्द्र कपूर और वादकों में बिस्मिल्लाह खां, जाकिर हुसैन, के अलावा जबलपुर में सोवियत संघ के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत किए गए कार्यक्रम में अपने प्रकाश और खासतौर से ध्वनि संयोजन को महत्वपूर्ण मानते थे।
1967-68 में फिल्म गायक महेन्द्र कपूर ने उनके द्वारा किए गए ध्वनि संयोजन से सिर्फ 40 वॉट के एम्पलीफायर में गाया था। 1995 में जब सतना के एक कार्यक्रम में महेन्द्र कपूर गाने पहुंचे और यहां उन्होंने एक हजार वॉट के एम्पलीफायर सिस्ट्म में गाया। कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात् उन्होंने ध्वनि संयोजन की प्रशंसा की और इसके नियंत्रक को तुरंत बुलवाया। बाबा सोलंकी के सामने देख कर उन्हें लगभग 27-28 वर्ष पुराना वाक्या याद आ गया। उन्होंने इस घटना को सबको सुनाया। महेन्द्र कपूर के दोनों कार्यक्रमों को बाबा अपने जीवन की अविस्मरणीय घटना मानते थे।
प्रसिद्ध तबला वादक जाकिर हुसैन बाबा के बनाए 'साउंड मिक्सर' पर बैठ कर उनके ध्वनि संयोजन की तारीफ कर चुके थे। मशहूर शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खां से बाबा की तकरार आज तक कला रसिकों को याद है। जबलपुर में जब भी अहमद-मोहम्मद हुसैन और पीनाज मसानी अपने कार्यक्रम के सिलसिले में आए, तब-तब उन्होंने आयोजकों से बाबा सोलंकी की ध्वनि व्यवस्था और संयोजन रखने की शर्त रखी। वर्ष 1996 में गजल गायक तलत अजीज ने जबलपुर के प्रसिद्ध और अत्याधुनिक तरंग प्रेक्षागृह में रोटरी क्लब के एक कार्यक्रम में बाबा सोलंकी के ध्वनि संयोजन को वरीयता दे कर इस क्षेत्र के तकनीकी विशेषज्ञों को हतप्रभ कर दिया था। कुछ ऐसे भी कलाकार रहे हैं, जो कार्यक्रम के पहले बाबा को देख कर और उनके पास आ कर संतुष्ट होते थे।
इस संबंध में बाबा ने बताया था कि वे स्वयं गंधर्व विद्यालय से तबले में विशारद थे और इस वजह से संगीत का मर्म समझ कर वे कार्यक्रम में गायक की आवाज की पिच को कम-ज्यादा, शार्पनेस, बेस गहराई को माइक के नियंत्रण के माध्यम से दर्शकों को व श्रोताओं तक पहुंचाते थे। जिससे संगीत के आनंद की अनुभूति होती थी। बाबा ने बताया कि ध्वनि नियंत्रण और संयोजन में सभी की अच्छाई-बुराई झेलनी पड़ती थी। गायकों-वादकों के साथ दर्शकों-श्रोताओं को भी संतुष्ट करना पड़ता था।
बाबा सोलंकी मंच के अलावा गोंडवाना उत्सव में मदनमहल किले में 'लाइट एंड साउंड' का एक अद्भुत प्रयोग कर चुके थे। ग्रेनेडियर्स रेजीमेंट के लिए भी उन्होंने 'लाइट एंड साउंड' के माध्यम से एक युद्ध रूपक प्रस्तुत किया, जो काफी चर्चित हुआ। मंच के अलावा बाबा ने दूरदर्द्गान की तीन फिल्मों में भी प्रकाश संयोजन किया। मुक्तिबोध के जीवन पर 'तुम निर्भय जो सूर्य गगन' में उनके इस क्षेत्र में पहली बार किए गए प्रकाश संयोजन से दूरदर्शन के प्रोड्यूसर सत्येन्द्र प्रधान अत्यंत प्रभावित हुए थे। प्रधान की टिप्पणी थी-''लगता नहीं कि यह आदमी पहली बार इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए प्रकाश संयोजन कर रहा है।'' वर्ष 1997 में दूरदर्शन के राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए स्वतंत्रता पर बन रही फिल्म में बाबा के प्रकाश संयोजन की काफी तारीफ हुई थी। उनके पास उपलब्ध उपकरणों और उनसे किए गए प्रकाश संयोजन से दूरदर्द्गान के प्रोड्यूसर को काफी तसल्ली मिली। बाबा ने प्रसिद्ध जादूगर आनंद को उनके शो के लिए भी प्रकाश और ध्वनि की एक परिकल्पना बना कर दी थी। बाबा ने बताया था कि जादूगर आनंद के शो में लेजर इफेक्ट बहुत सामान्य सी चीज रहती थी।
बाबा ने बाद के दिनों में अपनी विरासत दो भतीजों सुरेश और राजू एवं बेटे मोहन को सौंप दी थी। प्रकाश और ध्वनि संयोजन से 46 वर्षों तक जुड़े रहे बाबा अपने सहयोगी दिलीप झाड़े के मिले सहयोग को कभी नहीं भुला पाए। बाबा कहना था कि बचपन से जुड़े दिलीप झाड़े के पास कोई सैद्धांतिक शिक्षा या ज्ञान नहीं है, लेकिन व्यवहारिक ज्ञान में उसका कोई सानी नहीं है। किसी भी मंच में, कितनी भी ऊंचाई पर लाइट बांधने का कार्य आज जबलपुर में दिलीप के अलावा कोई नहीं कर सकता है। दिलीप का जोखिम भरा स्वभाव ही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है।
प्रकाश और ध्वनि संयोजन में नए लोगों की संभावना पर बाबा कहते थे कि सबसे बड़ी बात समर्पण की भावना का अभाव है। प्रकाश और ध्वनि संयोजन के लिए किसी कार्यक्रम में सबसे पहले आना पड ता है और कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात् सबसे अंत में जाने वालों में हम ही लोग होते थे। इसी कारण से नए और सीखने वालों की कमी है। लोग सिर्फ कुर्सी पर बैठ कर आपरेटिंग करना चाहते हैं, जबकि यहां तो लाइट बांधने से खोलने और उठा कर रखने तक सब कुछ करना पड़ता है।
बाबा सोलंकी प्रकाश संयोजन में किसी से प्रभावित नहीं रहे और न ही कोई उनकी प्रेरणा रहा। बाबा प्रकाश संयोजन में मौलिक कार्य करते रहे, परन्तु वे प्रकाश संयोजन में दो शैलियों कलकत्ता और बंबई को निर्धारित करते थे। बाबा के अनुसार कलकत्ता के रंगकर्मी प्रकाश उपकरणों का बहुतायत से प्रयोग करते थे और वहीं बंबई के प्रकाश संयोजक कम उपकरण में ज्यादा कार्य करते थे। बाबा स्वयं को बंबई के प्रकाश संयोजकों के करीब ज्यादा पाते थे। प्रकाश और ध्वनि संयोजन में बाबा के योगदान को देख कर प्रसिद्ध रंगकर्मी नादिरा बब्बर ने बंबई में कुछ वर्ष पूर्व एकजुट नाट्य समारोह में उनको सम्मानित किया था। यह समारोह बैक स्टेज में योगदान देने वालों को सम्मानित करने के लिए खासतौर से आयोजित किया गया था।
जबलपुर के रंगकर्मियों का मानना था कि बाबा सोलंकी मराठी रंगमंचीय शैली से प्रकाश संयोजन करते थे, जिसकी अपनी कुछ बाध्यताएं थीं। इसके बावजूद सीमित संसाधनों में उनका कार्य करने का ढंग और प्रकाश प्रभाव और संयोजन अद्भुत था और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि बाबा प्रकाश और ध्वनि संयोजन से एक 'मिशन' की तरह जुड़े थे।
1964 में यवतमाल से अपने पिता की डांट खा कर जबलपुर भाग आए 17 वर्ष के लड़के के बारे में किसी ने नहीं सोचा था कि भविष्य में वह जबलपुर के कला क्षेत्र के लिए एक जरूरत बन जाएगा। पिछले चार दशकों से यह व्यक्ति जबलपुर में आयोजित होने वाली संगीत सभाओं, नाट्य प्रस्तुतियों और मंचीय कलाओं से जुड़ी हर गतिविधियों में मंच के पास कार्यक्रम की शुरूआत से ले कर अंत तक अपने के स्पर्श से मंच पर प्रकाश और ध्वनि का कुछ ऐसा ताना बाना बुन देता था कि दर्शक एवं श्रोता एक सुखद अनुभूति में खो से जाते थे। जबलपुर के कला रसिक उसे प्रमोद (बाबा) सोलंकी के नाम से जानते थे और दर्शक-श्रोता उन्हें नाम से नहीं जानते थे, वे उन्हें चेहरे से अवश्य पहचान लेते थे।
बाबा सोलंकी ने अपनी शिखर तक पहुंचने की कहानी मुझे वर्ष 1997 में जिस विनम्रता और सहजता से सुनाई थी, दरअसल वह उतनी आसान नहीं थी, उनकी संघर्ष गाथा। बाबा पिछले छह महीने से डायबीटिज के कारण अस्वस्थ थे। उनकी दोनों किडनियां खराब हो चुकी थीं। लगभग हर दूसरे दिन उनका डायलिसिस होता था। बीमार होने के पूर्व ही उन्होंने काम काज की जिम्मेदारी अपने बेटे को सौंप दी थी। जब उन्होंने सक्रिय रूप से काम करना छोड़ा, तब वे शीर्ष पर थे। उन्हें जितना सम्मान बड़े कलाकारों, निर्देशकों और आम जनता से मिला, शायद उतना सम्मान और सामीप्य जबलपुर के किसी कलाकार को नहीं मिला। बाबा सोलंकी जबलपुर के कला मंच के साथ ही साथ प्रदेश के कई क्षेत्रों में प्रकाश और ध्वनि संयोजन (लाइट एंड साउंड) के पर्याय और आवश्यकता बन गए थे। यदि कहा जाए कि उन्होंने इस विधा को कला क्षेत्र में एक मान्यता दिलवाई, तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।
बाबा सोलंकी ने स्कूली जीवन से प्रकाश और ध्वनि संयोजक को एक शौक के रूप में अपनाया था। उस समय वे यवतमाल में रहते थे और खाली समय में एक फिल्म थिएटर में ऑपरेटर के सहायक के रूप में काम करते थे। उनके पिता को बाबा का यह तकनीकी शौक पसंद नहीं था। पिता के जोर देने पर उन्होंने कॉलेज में कॉमर्स विषय में प्रवेश ले लिया। प्रथम वर्ष में ही फेल होने पर बाबा को पिता की डांट खानी पड़ी और वे जबलपुर रेलवे में कार्यरत अपने भाई सुधीर चौहान के पास आ गए। जबलपुर में आ कर बाबा मराठी समाज से जुड गए और यहीं से उनका नाटकों से भी जुड़ाव हुआ। 1967 में जबलपुर में बाहर से आ कर मराठी व्यवसायिक नाटक करने वालों की संख्या अचानक बढ़ी और इनके साथ बाबा सोलंकी ने जुड कर प्रकाश और ध्वनि संयोजन का कार्य करना शुरू किया। उस समय बाबा ने मराठी रंगमंच के बाल कुलटकर, श्रीराम लागू, नाना साहब सिरगोपीकर, दादा कोंडके (लोक नाट्य), शरद तलवारकर और विजया मेहता जैसे निर्देशकों के साथ काम कर प्रकाश संयोजन की बारीकियों को सीखा। इसी तरह बाबा स्थानीय मराठी नाट्य संस्थाओं से जुड़े और उन्होंने 1967 में स्वयं के प्रकाश और ध्वनि उपकरणों से काम करना शुरू किया।
बाबा सोलंकी ने केशवराम गांवडे निर्देशित मराठी नाटक 'तू बेड़ा कुम्बार' में प्रकाश और ध्वनि संयोजन की जिम्मेदारी संभाल कर पहली बार स्वतंत्र कार्य किया। उस समय पैसों और संसाधनों की कमी को देखते हुए बाबा ने प्रकाश संयोजन के लिए स्पाट लाइट स्वयं बनाया था। इसके लिए उन्होंने एल्युमीनियम शीट का उपयोग किया। 'तू बेड़ा कुम्बार' प्रस्तुति काफी चर्चित व सफल रही और इसमें किए गए प्रकाश संयोजन से जबलपुर के नाट्य प्रेमी दर्शकों को भी एक नया अनुभव हुआ।
इसके बाद बाबा सोलंकी ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा और वे निरंतर आगे बढ़ते गए। उन्होंने सैद्धांतिक ज्ञान न होने के बावजूद प्रत्येक नाट्य प्रस्तुतियों में प्रकाश संयोजन को ले कर ऐसे प्रयोग किए, जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्राध्यापकों के साथ बड़े-बड़े निर्देशकों को भी अंचभित कर देते थे।
बाबा सोलंकी को हिन्दी रंगमंच से परिचित करवाने का श्रेय मंचीय हास्य कलाकार डी. के. कुलकर्णी को है। सातवें दशक में नाट्य निर्देशक श्याम खत्री के साथ बाबा सोलंकी ने बहुत काम किया। बाबा सोलंकी ने एक पुराने अनुभव को याद करते हुए बताया था कि श्याम खत्री के साथ मिल कर उन्होंने 'पराजित' नाटक के एक दृश्य में अंधेरा रख कर और सिगरेट जला कर धुंए के प्रभाव को मंच पर आत्मा के स्वरूप में प्रगट किया था। उनका कहना था कि स्मोक मशीन न होने और इसी प्रकार अन्य उपकरणों के अभाव के चलते उन्हें प्रकाश संयोजन में कई प्रयोग करने पड़े। बाबा सोलंकी ने श्याम खत्री द्वारा निर्देशित मराठी से हिन्दी में अनुवादित 'दिया जले सारी रात' में भी प्रकाश संयोजन में प्रयोग किए। बाबा ने सातवें दशक की शुरूआत में श्याम खत्री के एक प्रसिद्ध हिन्दी नाटक 'विषपायी' में पहली बार प्रकाश संयोजन के लिए डीमर्स का उपयोग किया। इसी प्रस्तुति के संबंध में उन्होंने बताया कि प्रकाश संयोजन की बदौलत एक दृश्य में मुख्य महिला पात्र की निभाने वाली कलाकार पर क्रास का रिफ्लेक्शन प्रकाश संयोजन से उभारा गया था और इस दृश्य को दर्शकों ने बहुत सराहा था। बाद में 'विषपायी' के लगातार पच्चीस प्रदर्शन हुए, जो अपने आप में एक रिकार्ड है।
सर्वप्रथम नाटकों में डीमर्स का उपयोग और इसके लिए प्रेरित करने के लिए बाबा सोलंकी जबलपुर पालीटेक्निक कालेज के बापू धांडे का नाम लेना भी नहीं भूलते हैं। बाबा ने बताया कि 'विषपायी' में ही नाव का दृश्य को भी प्रकाश संयोजन के माध्यम से प्रस्तुत किया गया था और यह दृश्य नाट्य प्रस्तुति की हाई लाइट थी।
श्याम खत्री के जबलपुर से बाहर ट्रांसफर होने पर बाबा सोलंकी और कचनार संस्था का जुड़ाव हुआ। बाबा ने संस्था की नाट्य प्रस्तुति 'खून में बोई धान' और 'इतिहास चक्र' जैसे नाटक किए। इन दोनों नाट्य प्रस्तुतियों ने इलाहाबाद और बंबई में आयोजित अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इन्हीं प्रस्तुतियों के माध्यम से बाबा को जबलपुर के बाहर भी प्रकाश और ध्वनि संयोजन कला में जौहर दिखाने को मिले। बंबई की प्रतियोगिता में 'इतिहास चक्र' की प्रस्तुति और इसके प्रकाश संयोजन से निर्णायक फिल्म अभिनेता जयराज और होमी वाडिया बहुत प्रभावित हुए और कलाकारों के साथ बाबा सोलंकी को खुशी में गले लगा लिया।
इसके बाद जबलपुर के नाट्य प्रेमी एवं बैंक कर्मी तरूण जागीरदार ने बाबा सोलंकी को प्रोत्साहित किया और आर्थिक सहायता भी दी। बाबा सोलंकी ने यहीं से स्वयं के उपकरण जोड़ना भी शुरू कर दिए। जागीरदार की सहायता से बाबा ने प्रकाश संयोजन के लिए दो-दो स्पाट और डीमर खरीदे। इसी दौरान जागीरदार के मराठी नाटक 'हीरात फुल्ला परिजात' का मंचन हुआ और इसमें बाबा ने अपने बनाए गए उपकरणों के साथ आधुनिकतम उपकरणों का प्रकाश संयोजन में उपयोग किया। आधुनिक मराठी रंगमंच बाबा सोलंकी, राजेन्द्र रानाडे और रवि परांजपे के साथ काम कर चुके थे।
1975-77 में 'विवेचना' के माध्यम से अलखनंदन जबलपुर में हिन्दी रंगमंच को सक्रिय रखे थे। बाबा सोलंकी ने अलखनंदन के निर्देशन में गिनीपिग और वेटिंग फार गोदो का प्रकाश संयोजन किया। इन नाटकों के प्रकाश संयोजन की समीक्षकों ने भी तारीफ की। प्रसिद्ध रंगकर्मी बंशी कौल वेटिंग फार गोदो को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रस्तुत कर चुके थे। बंशी कौल ने जब भोपाल के रवीन्द्र भवन में अलखनंदन की प्रस्तुति को देखा, तो वे बाबा सोलंकी की मौलिक प्रकाश संयोजन और ध्वनि व्यवस्था से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसकी चर्चा दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तक में की। बाबा ने बताया कि अलखनंदन को भारत भवन में पहुंचाने के लिए वेटिंग फार गोदो का महत्वपूर्ण योगदान है।
प्रकाश संयोजन के अतिरिक्त ध्वनि संयोजन में भी बाबा सोलंकी का जबलपुर में कोई जवाब नहीं रहा। जबलपुर में होने वाली स्तरीय संगीत सभाओं में बाबा सोलंकी और उनकी ध्वनि व्यवस्था एक आवश्यकता का रूप ले चुकी थीं। आयोजकों के साथ-साथ कई बार ऐसा भी हुआ है कि कलाकार ने पहले आयोजन स्थल में बाबा की मौजूदगी की पुष्टि की और फिर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया। सातवें-आठवें दशक में होने वाले 'भूले-बिसरे गीतों' के श्रंखलाबद्ध कार्यक्रम की प्रकाश और ध्वनि की परिकल्पना बाबा सोलंकी की ही रहा करती थी। इस कार्यक्रम के बंद हो जाने के बाद बाबा फिर किसी आर्केस्ट्रा कार्यक्रम से नहीं जुड़े। उनका कहना था कि ध्वनि के नाम पर सिर्फ धूम धड़ाका ही रह गया था। ध्वनि संयोजन के संबंध में उन्होंने कई ऐसे मजेदार और रोचक किस्से सुनाए, यदि उनका यहां जिक्र किया जाए तो यह स्थान ही कम पड़ जाए। बाबा गायकों में किशोरी आमोनकर, जगजीत सिंह, अहमद-मोहम्मद हुसैन, पीनाज मसानी, पंकज उधास, तलत अजीज, महेन्द्र कपूर और वादकों में बिस्मिल्लाह खां, जाकिर हुसैन, के अलावा जबलपुर में सोवियत संघ के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत किए गए कार्यक्रम में अपने प्रकाश और खासतौर से ध्वनि संयोजन को महत्वपूर्ण मानते थे।
1967-68 में फिल्म गायक महेन्द्र कपूर ने उनके द्वारा किए गए ध्वनि संयोजन से सिर्फ 40 वॉट के एम्पलीफायर में गाया था। 1995 में जब सतना के एक कार्यक्रम में महेन्द्र कपूर गाने पहुंचे और यहां उन्होंने एक हजार वॉट के एम्पलीफायर सिस्ट्म में गाया। कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात् उन्होंने ध्वनि संयोजन की प्रशंसा की और इसके नियंत्रक को तुरंत बुलवाया। बाबा सोलंकी के सामने देख कर उन्हें लगभग 27-28 वर्ष पुराना वाक्या याद आ गया। उन्होंने इस घटना को सबको सुनाया। महेन्द्र कपूर के दोनों कार्यक्रमों को बाबा अपने जीवन की अविस्मरणीय घटना मानते थे।
प्रसिद्ध तबला वादक जाकिर हुसैन बाबा के बनाए 'साउंड मिक्सर' पर बैठ कर उनके ध्वनि संयोजन की तारीफ कर चुके थे। मशहूर शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खां से बाबा की तकरार आज तक कला रसिकों को याद है। जबलपुर में जब भी अहमद-मोहम्मद हुसैन और पीनाज मसानी अपने कार्यक्रम के सिलसिले में आए, तब-तब उन्होंने आयोजकों से बाबा सोलंकी की ध्वनि व्यवस्था और संयोजन रखने की शर्त रखी। वर्ष 1996 में गजल गायक तलत अजीज ने जबलपुर के प्रसिद्ध और अत्याधुनिक तरंग प्रेक्षागृह में रोटरी क्लब के एक कार्यक्रम में बाबा सोलंकी के ध्वनि संयोजन को वरीयता दे कर इस क्षेत्र के तकनीकी विशेषज्ञों को हतप्रभ कर दिया था। कुछ ऐसे भी कलाकार रहे हैं, जो कार्यक्रम के पहले बाबा को देख कर और उनके पास आ कर संतुष्ट होते थे।
इस संबंध में बाबा ने बताया था कि वे स्वयं गंधर्व विद्यालय से तबले में विशारद थे और इस वजह से संगीत का मर्म समझ कर वे कार्यक्रम में गायक की आवाज की पिच को कम-ज्यादा, शार्पनेस, बेस गहराई को माइक के नियंत्रण के माध्यम से दर्शकों को व श्रोताओं तक पहुंचाते थे। जिससे संगीत के आनंद की अनुभूति होती थी। बाबा ने बताया कि ध्वनि नियंत्रण और संयोजन में सभी की अच्छाई-बुराई झेलनी पड़ती थी। गायकों-वादकों के साथ दर्शकों-श्रोताओं को भी संतुष्ट करना पड़ता था।
बाबा सोलंकी मंच के अलावा गोंडवाना उत्सव में मदनमहल किले में 'लाइट एंड साउंड' का एक अद्भुत प्रयोग कर चुके थे। ग्रेनेडियर्स रेजीमेंट के लिए भी उन्होंने 'लाइट एंड साउंड' के माध्यम से एक युद्ध रूपक प्रस्तुत किया, जो काफी चर्चित हुआ। मंच के अलावा बाबा ने दूरदर्द्गान की तीन फिल्मों में भी प्रकाश संयोजन किया। मुक्तिबोध के जीवन पर 'तुम निर्भय जो सूर्य गगन' में उनके इस क्षेत्र में पहली बार किए गए प्रकाश संयोजन से दूरदर्शन के प्रोड्यूसर सत्येन्द्र प्रधान अत्यंत प्रभावित हुए थे। प्रधान की टिप्पणी थी-''लगता नहीं कि यह आदमी पहली बार इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए प्रकाश संयोजन कर रहा है।'' वर्ष 1997 में दूरदर्शन के राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए स्वतंत्रता पर बन रही फिल्म में बाबा के प्रकाश संयोजन की काफी तारीफ हुई थी। उनके पास उपलब्ध उपकरणों और उनसे किए गए प्रकाश संयोजन से दूरदर्द्गान के प्रोड्यूसर को काफी तसल्ली मिली। बाबा ने प्रसिद्ध जादूगर आनंद को उनके शो के लिए भी प्रकाश और ध्वनि की एक परिकल्पना बना कर दी थी। बाबा ने बताया था कि जादूगर आनंद के शो में लेजर इफेक्ट बहुत सामान्य सी चीज रहती थी।
बाबा ने बाद के दिनों में अपनी विरासत दो भतीजों सुरेश और राजू एवं बेटे मोहन को सौंप दी थी। प्रकाश और ध्वनि संयोजन से 46 वर्षों तक जुड़े रहे बाबा अपने सहयोगी दिलीप झाड़े के मिले सहयोग को कभी नहीं भुला पाए। बाबा कहना था कि बचपन से जुड़े दिलीप झाड़े के पास कोई सैद्धांतिक शिक्षा या ज्ञान नहीं है, लेकिन व्यवहारिक ज्ञान में उसका कोई सानी नहीं है। किसी भी मंच में, कितनी भी ऊंचाई पर लाइट बांधने का कार्य आज जबलपुर में दिलीप के अलावा कोई नहीं कर सकता है। दिलीप का जोखिम भरा स्वभाव ही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है।
प्रकाश और ध्वनि संयोजन में नए लोगों की संभावना पर बाबा कहते थे कि सबसे बड़ी बात समर्पण की भावना का अभाव है। प्रकाश और ध्वनि संयोजन के लिए किसी कार्यक्रम में सबसे पहले आना पड ता है और कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात् सबसे अंत में जाने वालों में हम ही लोग होते थे। इसी कारण से नए और सीखने वालों की कमी है। लोग सिर्फ कुर्सी पर बैठ कर आपरेटिंग करना चाहते हैं, जबकि यहां तो लाइट बांधने से खोलने और उठा कर रखने तक सब कुछ करना पड़ता है।
बाबा सोलंकी प्रकाश संयोजन में किसी से प्रभावित नहीं रहे और न ही कोई उनकी प्रेरणा रहा। बाबा प्रकाश संयोजन में मौलिक कार्य करते रहे, परन्तु वे प्रकाश संयोजन में दो शैलियों कलकत्ता और बंबई को निर्धारित करते थे। बाबा के अनुसार कलकत्ता के रंगकर्मी प्रकाश उपकरणों का बहुतायत से प्रयोग करते थे और वहीं बंबई के प्रकाश संयोजक कम उपकरण में ज्यादा कार्य करते थे। बाबा स्वयं को बंबई के प्रकाश संयोजकों के करीब ज्यादा पाते थे। प्रकाश और ध्वनि संयोजन में बाबा के योगदान को देख कर प्रसिद्ध रंगकर्मी नादिरा बब्बर ने बंबई में कुछ वर्ष पूर्व एकजुट नाट्य समारोह में उनको सम्मानित किया था। यह समारोह बैक स्टेज में योगदान देने वालों को सम्मानित करने के लिए खासतौर से आयोजित किया गया था।
जबलपुर के रंगकर्मियों का मानना था कि बाबा सोलंकी मराठी रंगमंचीय शैली से प्रकाश संयोजन करते थे, जिसकी अपनी कुछ बाध्यताएं थीं। इसके बावजूद सीमित संसाधनों में उनका कार्य करने का ढंग और प्रकाश प्रभाव और संयोजन अद्भुत था और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि बाबा प्रकाश और ध्वनि संयोजन से एक 'मिशन' की तरह जुड़े थे।
1 टिप्पणी:
सुन्दर आलेख
बहुत अच्छी रचना
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