बुधवार, 31 अगस्त 2011

जबलपुर में परसाई जन्मदिवस आयोजित: राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोषी, राहुल बारपुते और आलोक मेहता ने खुल कर एकतरफा शरद जोशी का महिमा मंडन किया, परसाई का नहीं-ज्ञानरंजन

बलपुर में 22 अगस्त को प्रसिद्ध व्यंग्यकार और विचारक हरिशंकर परसाई का जन्मदिवस ‘विवेचना’ और ‘पहल’ के संयुक्त तत्वावधान में मनाया गया। विवेचना कई वर्षों से 22 अगस्त को परसाई का जन्मदिवस विचार गोष्ठी और परसाई की सूक्तियों पर आधारित कार्टून प्रदर्शनी के माध्यम से आयोजित करती आ रही है। इस वर्ष जबलपुर में डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, कवि नरेश सक्सेना और लीलाधर मंडलोई को आमंत्रित किया गया था। डा. विश्वनाथ त्रिपाठी अस्वस्थता के कारण जबलपुर नहीं आ सके, लेकिन नरेश सक्सेना, लीलाधर मंडलोई के साथ कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डा. अरूण कुमार ने परसाई के व्यंग्य को नए रूप में परिभाषित किया। लीलाधर मंडलोई ने कहा कि परसाई ग्रामीण व कस्बाई परिवेश के जीवंत व्यक्तित्व थे, जो परिवार का बोझ उठाना जानते थे। उनके अपने जीवन संघर्ष की छाया, उनके लेखन में झलकती है। नरेश सक्सेना ने वर्ष 1952 से अपने जबलपुर के संबंधों को याद करते हुए कहा कि परसाई जी उनको जीने की राह दिखाई। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डा. अरूण कुमार ने कहा कि लोकप्रिय किंतु सृजनात्मक साहित्य पर आलोचकों की दृष्टि नहीं पड़ती। परसाई जी की रचनाएं समाज की आंखें खोलती हैं। उनकी रचनाएं छोटी होते हुए भी सारगर्भित हैं। कार्यक्रम में कार्टूनिस्ट राजेश दुबे की परसाई के व्यंग्य और सूक्तियों पर आधारित पोस्टर प्रदर्शनी ने सोचने को मजबूर किया।

विचार गोष्ठी के पश्चात् नरेश सक्सेना और लीलाधर मंडलोई ने अपनी नई व पुरानी कविताओं से उपस्थित लोगों को उद्वेलित किया। इस कार्यक्रम में पहल के संपादक और विख्यात साहित्यकार ज्ञानरंजन ने हरिशंकर परसाई पर विचारोत्तेजक लिखित वक्तव्य दिया। यह वक्तव्य यहां ज्यों का त्यों प्रस्तुत है:-

सभागार में भाई नरेश सक्सेना, लीलाधर मंडलोई और आपकी मंच पर उपस्थिति, जबलपुर के वर्तमान में स्वर्गीय हरिशंकर परसाई के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है। देश के सुप्रसिद्ध चित्रकार और नर्मदा के मशहूर यात्री अमृतलाल वेगड़ हमारे अभिन्न श्रोता रहे हैं। यहां दमोह, सिवनी, नरसिंहपुर, कटनी और श्रीधाम से भी लोग आए हैं। नगर के गणमान्य संस्कृतिकर्मी, रचनाकार और बुद्धिजीवी भी उपस्थित हैं। दमोह के सामाजिक कार्यकर्ता, यहां परसाई जी का तैल चित्र ले कर आए हैं, जो सभागार में रखा है। परसाई जी पर आयोजन हम इसलिए नहीं करते कि यह एक स्थानीय धर्म है, परसाई का काम एक बड़े आकार का और बड़े संदेशों से भरपूर है, परसाई किचिंत स्थानीयता के चंगुल में रहे थे, पर उनका लेखन इससे मुक्त था। हम चाहते हैं कि परसाई पर बात कुछ आगे बढ़े।

परसाई के अनेक भक्त उनके लायक नहीं थे। कई गुमनाम रूप से उनके खिलाफ भी थे, क्योंकि परसाई के व्यंग्य और उनके विचार को पचाना बहुत मुश्किल था। वह उनके भीतर ही घुसपैठ करता था और वे लाचार होते थे। समकालीनता परसाई के खिलाफ थी। परसाई रचनावली का आना बहुत महत्वपूर्ण हुआ, पर उसके अध्यापक, संपादक, परसाई के बड़े अवदान की बावत न तो ठीक से बता सके और न उनसे संबंधित बहसों को जन्म दे सके। परसाई के समकालीन दुर्भाग्यों पर मैं कई बार टिप्पणी कर चुका हूं। सातवें दशक में परिमल की विचारधारा और उसके शस्त्रों ने श्रीलाल शुक्ल का विनोदपूर्ण उपहास करके यह बता दिया था कि परसाई के लिए भी कांटे तैयार हैं। जिस समय परसाई अपने प्रारंभिक दौर में थे, उस समय बहुत कम लोगों का रूझान परसाई के प्रति था। मैं साहित्यिक संसार की बात कर रहा हूं। नामावर लोग तो दूर थे। मुक्तिबोध ने परसाई का साथ दिया, पर वह गहरा आलोचकीय साथ नहीं था। वह एक गहरी मैत्री थी और विचारों का साथ था। मध्यप्रदेश में ही आप देखें, राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोषी, राहुल बारपुते और आलोक मेहता जैसे बड़े और दिग्गज पत्रकारों-संपादकों ने खुल कर एकतरफा शरद जोशी का महिमा मंडन किया, परसाई का नहीं। एकमात्र मायाराम सुरजन, परसाई के सपोर्टर बने। इस सब के अलावा कुछ बेहद जरूरी नाम हैं, जो परसाई की मूल्यवान आलोचना में अग्रणी हैं। दो नाम मैं यहां पर लूंगा-सर्वश्री सुरेन्द्र चौधरी और विश्वनाथ त्रिपाठी का। सुरेन्द्र चौधरी एक बड़ी प्रतिभा थी, उनमें बोहमीन तत्व भी थे, संभवतः इसलिए उनको घेर लिया गया। उन्होंने परसाई के बारे में थोड़ा ही लिखा पर उनकी पहचान गहरी और से भरी-पूरी थी। मित्रों, कृपया देखें कि सुरेन्द्र चौधरी जिनकी रचनावली अभी हाल ही में आई है, ने हमारे परसाई पर अनोखी बातें क्या कहीं ? वे जब परसाई पर विचार करते थे, तो हिंदी व्यंग्य की जातीय परंपरा उनके सामने रहती थी। इसलिए उन्होंने लिखा-‘‘ व्यंग्य जातीय इच्छा की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति है।’’ परसाई को उन्होंने व्यंग्य का विचारक कहा। अप संस्कृति के स्त्रोतों पर परसाई निरंतर व्यंग्य करते हैं, अपराजित उत्साह के साथ। इसके बाद सबसे यादगार काम किया आलोचक व रचनाकार डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने। उन्होंने परसाई पर एक मोनोग्राफ जैसी विधा में जो लिखा है, वह परसाई पर अकेली कृति है। त्रिपाठी जी ने परसाई को देश-दृष्टि और विश्व-दृष्टि से जोड़ा, उनकी यह कृति मूल्यवान किंतु अधूरी है। अधूरी इस मामले में कि, डा. साहब के पास परसाई पर लिखने के लिए जो कुछ बकाया है, वह उनके अधूरे साक्षात्कार को एक बड़े और संपूर्ण साक्षात्कार में बदल देगा। मित्रों, परसाई पर अगला अध्याय इस देश में त्रिपाठी जी लिख सकते हैं। हमारे दुर्भाग्य से वे गहरी अस्वस्थता के कारण हमारे बीच नहीं आ सके। विश्वनाथ त्रिपाठी जिनको प्यार करते हैं, उन पर लिखते जरूर हैं। अभी-अभी उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे महान गद्य-शिल्पी पर अपनी ताजा कृति प्रकाषित की है। परसाई जी के प्रति उनकी जो साध है, वह पुरानी है, गहरी है। त्रिपाठी जी ने ही लिखा था कि परसाई जी की रचनाएं स्वातंत्रोत्तर भारत का चेहरा है।

श्रोताओं। मैं आपको यह बता दूं कि निमाड़ के मशहूर कला समीक्षक और निबंधकार नर्मदा प्रसाद उपाध्याय पिछले दस वर्षों से परसाई पर एक ग्रंथ की कल्पना ले कर काम कर रहे हैं और उनसे मैं जुड़ा हूं, पर वह काम विश्वनाथ जी के काम की जगह नहीं ले सकता। नए लोग भी काम करेंगे। नरेश सक्सेना और लीलाधर मंडलोई, परसाई जी के प्रियतम रहे हैं। नरेश जी ने जबलपुर में पढ़ाई की और परसाई जी का गहरा सानिध्य प्राप्त किया। लीलाधर मंडलोई जो आज न केवल एक बड़े कवि हैं, बल्कि हिंदी मीडिया के गहरे जानकार भी, वे भी जबलपुर-काल में परसाई की छाया में ही आगे बढ़े। हमारे अध्यक्ष अरूण कुमार जी परसाई पर जो कुछ बोलते हैं, वह पूरी तरह मौलिक होता है। मौलिक चीजें जीवंत और ताजा होती हैं। ये बातें हमें सीधे स्पर्श करती हैं।

अंत में मित्रों, कहना चाहूंगा कि परसाई पर आलोचनात्मक लेखन हो, परिचर्चा हो, बहसें हों, फिल्म या धारावाहिक का निर्माण हो, रंगकर्म हो, कुछ भी करते हुए परसाई जी के आत्मकथ्य के गंभीर बिंदुओं पर हमें ध्यान रखना चाहिए। 1997 में हरिशंकर परसाई ने एक आत्मकथ्य तैयार किया था, उसका संक्षिप्त सा हिस्सा यहां पढ़ कर, मैं अपनी बात समाप्त करूंगा, सबका स्वागत करूंगा और भविष्य में परसाई के बहाने गंभीर आयोजनों में आप सब की भागीदारी की कामना करूंगा। ‘विवेचना’ यह आयोजन वर्षों से करती आ रही है। ‘परसाई’ विवेचना के निर्माता थे।

‘‘अपनी कैफियत दूं, तो हंसना-हंसाना, विनोद करना अच्छी बातें होते हुए भी, मैंने मनोरंजन के लिए कभी नहीं लिखा। मेरी रचनाएं पढ़ कर हंसी आना स्वाभाविक है। यह मेरा यथेष्ट नहीं। और चीजों की तरह मैं व्यंग्य को उपहास, मखौल न मान कर एक गंभीर चीज मानता हूं। साहित्य के मूल्य, जीवन मूल्यों से बनते हैं। वे रचनाकार के एकदम अंतस से पैदा नहीं होते। जो दावा करते हैं कि उनके अंतस से ही सब मूल्य पैदा होते हैं, वे पता नहीं किस दुनिया में रहते हैं। जीवन जैसा है, उससे बेहतर होना चाहिए। राजनीति से मुझे परहेज नहीं है। जो लेखक राजनीति से पल्ला झाड़ते हैं, वे वोट क्यों देते हैं। वोट देने से ही राजनीति शुरू होती है। बुद्धिजीवी चाहे सक्रिय राजनीति से भाग न लें, पर वह अराजनैतिक नहीं हो सकता। जो अराजनैतिक होने का दावा करते हैं, उनकी राजनीति बड़ी खतरनाक और गंदी है।’’

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