- मनोहर नायक
गायत्री नायक |
‘ माँ के मन में प्रार्थनाएँ ही प्रार्थनाएँ थीं ‘ ... ये हमेशा , हमेशा थीं , पर कुछ विशेष तिथियाँ भी थी, जैसे आज की भाद्र शुक्ल सप्तमी की तिथि... सन्तान सप्तमी , इसे संतान सातें भी कहते हैं । बच्चों के सुदीर्घ, स्वस्थ और सुखी जीवन के लिये माएँ इस दिन पूजा करतीं और प्रसाद में पुए चढा़ये जाते , बड़े -बड़े पुए बनते और तीन,पाँच या सात का भोग लगता । प्रसंगवश , नीलू रघुवंशीजी की सन्तान सप्तमी पर एक सुंदर कविता है ।... पुओं की मिठास के साथ माँ की स्मृति की मिठास और महक आज मन में घुलती रही और जी यह लिखने का हो आया ...।
————पोलैंड के महाकवि तादेउष रूज़ेविच अपनी पुस्तक ‘ विदा होती माँ’ में कहते हैं , ‘ जब कोई माँ अपनी आँखें फेर लेती है, उसकी संतान भटकने लगती है, एक ऐसी दुनिया में खो जाती है जो प्रेम और ऊष्मा से वंचित कर दी गयी है। कल मातृदिवस है।मुझे याद नहीं जब में बच्चा था तो क्या ऐसा कोई सरकारी दिन हुआ करता था... जब में बच्चा था तो प्रत्येक दिन मातृदिवस था, प्रत्येक सुबह मातृदिवस होती थी और दोपहर और शाम और रात।... इस समय जब में इन शब्दों को लिख रहा हूँ, माँ की ख़ामोश आँखें मुझ पर टिकी हैं— मेरे हाथ पर इन गूंगे अँधे शब्दों पर ।...हमारी माँओं की आँखें, जो दिलों और विचारों को भेदती हैं, हमारा अंत:करण है, वे हमें परखती हैं और प्रेम करती हैं...प्रेम और चिंता से भरपूर— माँ की आँखें !’...———‘एक धूल भरी पीली दुपहरी में हम पहुँचे थे वहाँ बहुत दिनों से दिखाना चाहती थी माँ अपने बचपन का गाँव ... माँ कितने आगे निकल जाती थी हम सबको छोड़ जैसे अपने बचपन में किलकारियाँ मारती हुई ... पहाड़ वाला मन्दिर। घर के पास बावड़ी उसमें बचपन से हिलता हुआ पानी स्कूल, अस्पताल, हाट.......माँ के बचपन का सब कुछ था वहाँ हर रोज़ सिर्फ़ माँ नहीं थी वह तो थी अपने बचपन में ।’ मंजूषा निलेकर की यह कविता जब पढ़ी थी तब एकदम वह दृश्य आँखों में घूम गया जब माँ इलाहाबाद आयीं थीं और मैं उन्हें महिला विद्यापीठ लेकर गया था, जहाँ माँ चौदह साल रहकर पढ़ीं थीं, छठी से लेकर एमए तक। विद्यापीठ में घुसते ही उमंगित-तरंगित माँ जैसे एकाएक अपने बचपन के , विद्यापीठ के दिनों में लौट गयीं...न जाने कहाँ से उनमें नयी स्फूर्ति आ गयी, वे एक के बाद एक चीज़ें बताने लगीं... मनोहर ये ऑफ़िस, ये वो कमरा जहाँ शाम को गुरुजी की साहित्यकारों के साथ गोष्ठी होती थी और भक्तिन आवाज़ लगाती थी ,’ गायत्री भैया गुरूजी बुलावत हैंई’ , और यह भक्तिन की रसोई,इसमें केवल मैं ही जा सकती थी... और यह मेरा कमरा , मैदान में यह कुआँ, इसकी जगत पर बैठकर मैं सितार का अभ्यास करती थी... माँ बताये जा रही थी, वे उस परिसर की ख़ुशबू,ध्वनियों , दृश्य-दृश्यांतरों और वातावरण को अपने भीतर समा लेना चाहती थीं ।यह इत्तफ़ाक ही था कि माँ के एलगिन रोड की विद्यापीठ छोड़ने के इकत्तीस साल बाद में बगल की एडमॉन्स्टन रोड के पत्रिका हॉउस में ‘ अमृत प्रभात’ में नौकरी करने पहुँचा था। माँ(गायत्री नायक) और दादा ( पिता गणेश प्रसाद नायक ) मेरे पास आये हुए थे । माँ १९३५ में विद्यापीठ पढ़ने आयीं थीं ... लेकिन इस नौ साल की लड़की की कथा यहाँ से शुरू नहीं होती।
गोपाल प्रसाद-सरस्वती नायक की तीन संतानों में माँ सबसे छोटी थीं। वे २२ जनवरी १९२६ में जन्मी थीं। बड़े भाई राधिका प्रसाद, सावित्री मौसी और माँ ।माँ-पिता को बच्चे बाबू-बाई कहते थे।माँ मझंली बाई कहलाती थीं ,क्योंकि छह भाइयों में बाबू मंझले थे ।उनके बड़े भाई गजाधर प्रसाद वैद्य थे । वे प्लेग के रोगियों का इलाज करते उसी से ग्रस्त होकर अल्पायु में नहीं रहे थे। उनकी दो संतानों में चंदा मौसी पाँच और जीवन मामा डेढ़ बरस के थे । मां की काकी, बड़ी बाई पच्चीस की थीं । छोटी-सी गोरी- चिट्टी बड़ी बाई को मन्ना(भवानी प्रसादजी मिश्र ) भारत माता कहते थे , दिल्ली में जीवन मामा मन्ना के पड़ोसी थे।बाबू ने बड़े भाई के परिवार को साथ रखा । बाबू कटनी से नैनी के बीच के स्टेशनों में स्टेशन मास्टर रहे। वे गाँधीजी के अनुयायी, राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत व्यक्ति थे। पथरिया स्टेशन में रहते हुए उन्होंने हड़ताल करा दी थी । १९४२ में स्टेशन की इमारत पर तिरंगा फहरा दिया था तो कुछ समय निलम्बित रहे, बाद में दंडस्वरूप छोटी स्टेशनों पर ही नियुक्ति मिली। वे बेहद कार्यकुशल, मिलनसार , उदार, और सबको साथ लेकर चलने वाले व्यक्ति थे और अपने समय से आगे की सोच वाले ।जब उन्होंने बड़ौदा की आर्य कन्या विद्यालय की छात्राओं की जबलपुर में प्रभात फेरी देखी तो उससे इस कदर अभिभूत हुए कि अपनी छोटी-छोटी बेटियों को , जो उस समय पिता के साथ स्टेशन पर सिगनल अप-डाउन करतीं, ड्राइवरों को गोला देतीं, मुसाफ़िरों को पानी पिलातीं या किसी ट्रेन से एक-दो स्टेशन जाकर दूसरी से लौट आतीं, पढ़ने के लिये बड़ौदा भेज दिया। वहाँ वे साल-डेढ़ साल रहीं। वे वहाँ ख़ूब मज़े से रहीं ,बतातीं थीं कि बहुत दूध मिलता था, डकार लेकर , थोड़ा टहलकर और पी लेते थे।१९३५ में महादेवीजी ने इलाहाबाद में महिला विद्यापीठ शुरू किया तो दोनों बहनें वहाँ आ गयीं , क्योंकि बाबू तब नैनी में थे, बड़ौदा दूर था, खानपान , भाषा आदि की परेशानी थी। विद्यापीठ छात्रावास की माँ - मौसी पहली छात्राएँ थीं। वे नवरात्र के दिन थे,मैं जबलपुर आया हुआ था,टीवी पर पंडालों में चल रहे गरबा नृत्य को दिखाया जा रहा था, एकाएक माँ ने कहा, मनोहर आज के फ़िल्मी गानों पर होने वाले गरबा को देखकर कोई विश्वास नहीं करेगा कि बड़ौदा में बहत्तर साल पहले हम छोटी-छोटी लड़कियाँ क्या गाते हुए गरबा करते थे...यह कहते हुए वे गाने लगीं,’ देसड़िया नी भाजे गंधीजी अवे गांड्यो थयो ‘..... गरबा करते हुए ये बच्चियाँ गाती थीं—ये गाँधी तो देश के लिये पागल हो गया है।
माँ का टीपना (कुंडली) का नाम लोकप्रियाबाई था। वे लोकप्रिय थीं भी। हॉस्टल में ८० लड़कियाँ थीं। माँ का रुआब अलग था ।पहले उन्होंने गायन लिया था , पुणे के सदाशिव दत्तात्रेय आप्टे संगीत शिक्षक थे। क्लास में उनकी सीट नियत थी, वहाँ कोई नहीं बैठता था। भक्तिन की रसोई में केवल वे ही जा सकती थीं , छात्रावास में कोने का कमरा उनका था , साफ़ -सुथरा। उनके साथ रीवां की कुसुम वर्मा , जबलपुर की शकुन तिवारी व बनारस की रुक्मणि गुप्तारहती थीं ... छात्राएँ इस कमरे को ‘ महल ‘ कहती थीं।बाबू सबके लिये लड्डू, भुट्टे आदि भेजते।भुट्टा खाने के बाद पीने के लिये एक बड़े बर्तन में ख़ूब सा मठा भेजते और हिदायत रहती कि सब मिलकर खाना। महादेवीजी कामाँ पर इतना अधिक स्नेह और बाई-बाबू इतना विश्वास कि सुदूर मणिपुर,असम ,बंगाल आदि की छात्राओंको छुट्टियों में गुरुजी बाबू के पास ही रहने भेज देतीं ।रीवां की कुसुम मौसी, जबलपुर की शकुन मौसी आदि से अंत तक घनिष्ठता बनी रही , माँ को कई छात्राएँ जिज्जी कहतीं । संयोग से उस दिन माँ को विद्यापीठ में पुरानी सखी लक्ष्मीजी मिल गयीं।उनके पति आत्माराम शाह माँ को गायत्री अक्का कहते थे... शाम को हम उनके घर गये थे , उनकी छत तो बोनसाई का बाग़ीचा थी। रहते- पढ़ते हुए वे गुरुजी के निकट आती गयीं। अनेक काम उनकी ज़िम्मेदारी हो गये। छात्रावास की सारी लड़कियों के हालचाल जानना,इंचार्ज मैडम को बताना।शाम को सभी को डाक बाँटना। यही काम करते हुए उन्हें जबलपुर सेंट्रल जेल से दो क़ैदियों के पत्र मिले थे, जिन्हें वे नहीं जानती थीं,इनमें एक थे भवानी प्रसादजी तिवारी और दूसरे थे गणेश प्रसादजी नायक।ये चाहते थे कि माँ उन्हें नियमित रूप से बाहर की गतिविधियों के बारे में लिखती रहें,माँ यह करती रहीं। तिवारीजी तो माँ के बड़े भाई से रहे, माँ उनके परिवार की सदस्य ही थीं। नायकजी से १९५० में माँ का विवाह हुआ, इसकी अलग कथा है माँ बताती तीं कि स्वतंत्रा संग्राम से जुड़े परिवारों की लड़कियां विद्यापीठ में महादेवीजी के संरक्षण में पढ़ती थीं ... विद्यापीठ में एक बड़ा काम यह था कि शाम को महादेवीजी के मेल-मुलाक़ातियों और गोष्ठियों के लिये चाय आदि का इंतज़ाम करना, इसी काम के लिये भक्तिन ‘गायत्री भइया’ की टेर लगाती थी। गुरुजी माँ से पूंछती, तुमने पी... इस तरह माँ ने बीए से चाय पीनी शुरू की । इन बैठकों मे निरालाजी, पंतजी आदि अक्सर आते थे। एक बार निरालाजी छात्रावास में आये। वहाँ वे यह कहते हुए आये कि ‘शेर की माँद मे आ गया है सियार ।’ गुरुजी ने कहा , गत्ती सितार अच्छा बजाती है,माँ ने निराला जी को पहले उन्हीं का गीत ‘ फिर संवार सितार लो ‘ सुनाया,फिर उसके बाद सितार।गणेश प्रसाद नायक
मौसी दसवीं पास करने तक वहाँ रहीं, फिर उनका विवाह हो गया। दोनों लड़कियों के दसवीं पास करने पर बाबू ने , जो उस समय डभौरा में थे,पूरे गाँव को भोज दिया था। लड़कियों का उस ज़माने में इतना पढ़ना बड़ी बात थी ।माँ ने वहाँ रहते हुए एमए किया।माँ को रोकने के लिये गुरुजी ( महादेवीजी )ने उन्हें पढ़ाने का काम दे दिया,वे ‘४८ तक वहाँ रहीं। बाबू माँ का नाम हमेशा गायत्री नायक एम.ए. लिखते । माँ के सवसे छोटे चाचा राम प्रसाद नायक, नन्हें कक्का थे। वे इलाहाबाद विश्व विद्यालय से हिंदी में पीएचडी कर रहे थे। दसवीं के बाद उन्होंने माँ को इलाहाबाद के सिलाई-बुनाई विद्यालय में डालने का तय करके माँ को लेने आये। ट्रेन में बैठी माँ रो रही थीं कि और पढ़ा है , बाबू उन्हें समझा रहे थे कि हम तुम्हें पढ़ायेंगे , अभी नन्हें भैया की बात मान लो... संयोग यह हुआ कि वहाँ पहुँचकर पता कि वह विद्यालय प्रौढ़ और विधवा स्त्रियों के लिये है तो कक्का उल्टे पाँव लौट आये । बाद में एक बार और यह हुआ कि बाबू ने उन्हें लखनऊ के मॉरिस कॉलेज भेजा ,जीवन मामा भी मेडिकल में दाखिला लेने गये थे , उन्हें प्रवेश नहीं मिला तो दो महीने बाद लौट आये, लेकिन इस बीच माँ को मॉरिस कॉलेज की साप्ताहिक सभा में सितार बजाने मिलने लगा और वे जानी जाने लगीं । बाबू संगीत प्रेमी थे, माँ को पहला भजन जो उन्होंने सिखाया वह था , ‘ बाज रही गिरधर की मुरलिया ।’ बाबू विनोदी भी थे , बाई हरितालिका तीज का व्रत रखती और पकवान बनातीं, बाबू उनकी मदद करते हुए गाते ‘ कैसे बने पकवान , आज हम तीजा उपासे।’इंटर से माँ ने सितार भी एक विषय के रूप में लिया, और वह उनके क़रीब आता गया। गाना आप्टे जी और सितार एसआर मावलंकरजी सिखाते। कॉलेज के वाद्यवृंद में वे साड़ी पहन कर जलतरंग भी बजातीं । गुरुजी को बिन बताये चुपचाप इलाहाबाद विश्व विद्यालय की संगीत प्रतियोगिता में हिस्सा लिया,निर्णायक उस्ताद अलाउद्दीन खान थे, माँ प्रथम आयीं, नियमानुसार विश्वविद्यालय के संगीत जलसे में पहली प्रस्तुति उनकी हुई।लखनऊ के मॉरिस कॉलेज से स्वाधंयायी छात्रा के रूप में मध्यमा और विशारद की क्रमशः प्रमाणपत्र और उपाधि परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में पास कीं ।मध्यमा में परीक्षक बाबा अलाउद्दीन थे। डेढ़ घंटे परीक्षा ली ,कोर्स की सभी रागें पूछीं,फिर बोले क्या सुनाओगी ,माँ ने कहा ‘ श्री ‘ तो आश्चर्य से बोले गा लोगी, सुनी तो प्रसन्न हुए। मॉरिस कॉलेज के कुलपति रातन्जनकर जी थे,माँ को पहले सुन चुके थे। उन्होंने मावलंकरजी से पहले ही कह दिया कि तेरी स्टुडेंट पहले नंबर आयेगी।हुआ भी यही। बीए में भी संगीत एक विषय था । बनारस में परीक्षा थी ,परीक्षक थे विनायकराव पटवर्धन। उन्होंने माँ से कहा था कि सितार कभी न छोड़ना।बीस वर्ष बाद परीक्षक होकर भातखंडे विद्यालय, जबलपुर आये तो वहाँ की सितार शिक्षिका माँ को एकदम पहचान गये। गुरुजी का माँ पर विशेष स्नेह था इसलिये चिंतित रहती कि सितार के कारण यह पढ़ाई में न पिछड़ जाये,क्योंकि माँ समय मिलते ही घंटों सितार बजातीं। कुएँ की जगत पर रियाज़ करते रात दो बज जाते। जीवन मामा ने थोड़ा तबला सीखा था। माँ छुट्टी में घर आतीं तो सुबह चार बजे उठकर राग की अवतारणा के लिये नहाकर गीले वस्त्रों मे सितार बजाती, मामाजी को ठेका देना पड़ता। एमए में माँ जब सेकेंड डिवीजन पास हुईं तो गुरुजी ने उनसे रिजल्ट देखने के बाद पैर छुआये ईनाम में किताबें दीं। झूठी शिकायत पर एक बार उन्हें डाँट दिया फिर मनाने के लिये कहा कि , ‘ गत्ती प्यार तुम्हें करती हूँ तो क्या चौकवाली लड़की को डाँटने जाउँगी । ‘ इलाहाबाद पहुँचकर जब मैं उनसे मिला और परिचय दिया तो बोलीं अरे तुम तो मेरे नाती हो।उनके परिवार के रामजी पांडे मेरे गहरे मित्र थे इस कारण भी गुरुजी से ख़ूब मिलना होताथा।माँ के स्नेह में वे बँधी थी। ज्ञानपीठ लेने वे दिल्ली आयी थीं। जनसत्ता के रविवारी सम्पादक , मेरे मित्र कवि मंगलेश डबराल ने ऐन समय कहा महादेवीजी से इंटरव्यू कर लो। रात जब पहुँचा तब वे आराम करने की तैयारी मे थी। फ़ौरन तैयार हो गयीं। कोई शुरुआती कविता हाथ से लिखकर देने को कहा तो जो दी , उसे देख मैंने कहा कि यह छप चुकी है, तो दूसरी लिखकर दी । दूसरे दिन छोटी सी रागिनी को लेकर मैं और रंजना उनसे मिलने गये तो ख़ूब ख़ुश हुईं और रागिनी को खिलाती रहीं।पंडित रविशंकर का १९९५ में ७५वीं जयंती थी। अभय कुमार दुबे के साथ ‘समय चेतना’ पत्रिका निकाली थी। शनिवार छुट्टी के दिन पंडितजी के यहाँ बिन पहले से समय लिये इंटरव्यू के लिये पहुँच गया। वहाँ ताँता लगा था। अगले दिन पंडितजी अमरीका जा रहे थे। मैंने इंटरव्य की फ़रमाइश की जिसे नकार दिया गया। वे कुछ काग़ज़ दखने लगे , मैं खडा़ रहा। वे फिर बोले नहीं हो सकेगा....मैंने कहा मैं तो यह सोच रहा था कि जबलपुर में सुशीलचंद्र पटैरिया के यहाँ जब पहली बार आपके दर्शन किये तब मैं सात साल का था.... पंडितजी बोले, क्या मिसेज पटैरिया अब भी सितार बजाती हैं ,मैंने कहा यह तो नहीं बता सकता ,पर हाँ उन्हें मेरी माँ सितार सिखाती थीं, पंडितजी बोले , अरे तब तो तुम्हारी माँ से मिला हूँ मैं,अच्छा सिखाती थीं,मैंने नोट्स देखे थे ....अच्छा अब जाना तो दोनों को मेरा आशीर्वाद कहना... जबलपुर भी क्या शहर था, लोग रिकॉर्ड की बात करते हैं ,डॉ हर्षे के यहाँ मैंने दस घंटे लगातार बजाया था।....कहना न होगा पंडितजी ने बीच-बीच में समय निकालकर घंटे भर से ज़्यादा बात की। यह सब माँ के कारण हो पाया। विनोबा भावे के समक्ष सितार वादन
माँ के जीवन में महादेवीजी, विद्यापीठ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विद्यापीठ की ओर से सभा- समारोह में राष्ट्रीय गीत आदि गाने जाती। हिंदी साहित्य सम्मेलन के एक समारोह में वे वंदेमातरम् गाने गयीं थीं , छोटी कक्षा में थीं तो मंच पर गाँधीजी ने हाथ पकड़कर पूछा, वंदे मातरम् गाओगी , माँ ने हामी भरी तो पीठ पर प्यारी धौल जमाते हुए उन्होंने कहा, ज़ोर से गाना ! ऐसी ढेरों यादें हैं ।कुछ क्लासें गुरुजीहा कि क घर पर लेतीं थीं।माँ बतातीं कि वे ख़ूब खिलातीं और फिर ‘ पेटू ‘कहकर खिलखिलाकर हँसतीं। माँ अन्य छात्राओं के साथ जब परीक्षा देने बनारस जातीं तो कहतीं , होली पर भाग आना... धुलेड़ी को उनका जन्मदिन पड़ता था । इस दिन सबको वे गुलाल लगातीं और रंगबिरंगे चेहरों को देख ख़ूब हँसतीं ।रात को सबके साथ मेस हलुवा, पुड़ी, रायता खातीं और सबसे गले मिलतीं , बड़वानी की दुबली - पतली मन्नो बहिनजी से थोड़ा ही मिलतीं, कहतीं तुम्हारी हड्डियाँ गड़ती हैं , लेकिन दोहरे बदन की शैल बहिनजी से देर तक मिलती । माँ की पढ़ाई से आश्वस्त होने पर और सितार के प्रति लगन देखकर वाद्य विशारद की परीक्षा के लिये संगीत शिक्षक के साथ लखनऊ भेजा और अपनी सहेली कवयत्री तोरनदेवी लली के यहाँ ठहरने की व्यवस्था करायी। माँ पाँच छात्राओं के साथ एमए की परीक्षा देने गयीं थीं । बीएचयू के ‘ नगवा ‘ हॉस्टल में इन्हें ठहराया गया था । हड़बड़ी में जो दही पेड़ा दिया गया , वह नहीं खाया ...बाद में पता चला कि दूध में मरी छिपकली मिली थी ।शाम को कमरे पर आकर मालवीयजी ने कहा कि कुछ अनर्थ हो जाता तो मैं महादेवीजी को क्या मुँह दिखाता । माँ को एमए की उपाधि मालवीयजी, नेहरूजी और राधाकृष्णन की उपस्थित में मिली। विनोबा ने सितार सुनकर उन्हें हमेशा सरस्वती कहा।एक समय लखनऊ,इलाहाबाद और फिर जबलपुर में उनके बहुत कार्यक्रम होते थे।माँ ने ४६ में एमए कियपर गुरुजी ने रोक लिया । वहाँ प्रशिक्ण का कोर्स करते हुए दो साल पढ़ाती रहीं। वहाँ क्लास लेना पहले शुरू कर दिया था। उस समय लड़कियीं को पढ़ाने का चलनन वहीं था। बाबू को भी तानें सुनने पड़ते कि क्या लड़की से नौकरी करानी है...आर्थिक बोझ भीथा। कमरे का किराया और शिक्षण शुल्क तीन -तीन रुपये और मेस पहले बारह से फिर बीस रुपये हो गया था ।गुरुजी की अनुमति से पहले तीसरी कक्षा को पढ़ाने लगीं तो कमरे का किराया माफ़ हो गया। धीरे -धीरे पढ़ाने के घंटे बढ़ाते हुए उन्होंने सारे शुल्क माफ़ करा लिये। महादेवी वर्मा के साथ दायीं ओर गायत्री नायक एवं बायीं ओर चंद्रप्रभा पटेरिया
माँ को बाई-बाबू के गुण मिले। वे शांत पर दृढ़प्रतिज्ञ थीं। कर्मठता तो जैसे साकार। दादा-माँ के विवाह में विवाद था पर बाबू ने माँ की मानी । पिता के परिवार की भागीदारी नहीं हुई। भवानी प्रसाद तिवारी के घर से विवाह हुआ, रात को बिसमिल्लाह खान की शहनाई बजी। प्रहरी पत्रिका मे बैनर था ‘गणेश गायत्री के विवाह का हाथी झूमता निकला’। बाद में अपने कामों से, सरोकारों और स्वभाव से उन्होंने सबका दिल जीत लिया ।हमारी आजी, जिन्हें जिज्जी कहते थे,माँ जिस रोज़ सितार न बजायें तो कहतीं, काय री आज नई बजाओ ! उन्हीं ने ज़ोर दिया तो माँभातखंडे विद्यालय में शिक्षिका बनीं।यह विद्यालय स.भ.देशपांडेजी की कल्पना थी। वे , पंचभाईजी, धनोप्याजी वहाँ माँ को चाहते थे। देशपांडेजी के बाद माँ प्राचार्या बनी। तब उन्हें यह बात सालती थी कि जैसे उन्होंने देशपांडे जी से उनका विद्यालय छीन लिया हो। देशपांडेजी की विदाई के दिन कॉलेज संचालन समिति के अध्यक्ष भवानी प्रसाद तिवारी के भाषण से उन्हें राहत मिली। तिवारीजी ने कहा कि हम गुरुओं को विदा नहीं करते, बल्कि उनसे निवेदन करते हैं कि-पुनरपि आगमनाय-फिर पधारिये।माँ घर-बाहर कामों में लगी रहतीं।घर में मेहमानों का आना लगा रहता। साल भर की पापड़, बड़ियाँ, कई तरह के अचार, मुरब्बे,अन्य तीज त्योहारों पकवान बनातीं । भातखंडे शामतीन बजे जातीं ,साढे आठ तक लौटतीं। मीटिंग के लिये खैरागढ़ और परीक्षाएँ लेने अन्यान्य शहरों का आना-जाना लगा रहता । प्राचार्या बनी तो यूजीसी,दिल्ली व भोपाल के चक्कर लगते रहते। विद्यालय के काम को , उसके यश को ख़ूब आगे बढ़ाया, कोई कसर न छोड़ी। पिता का सार्वजनिक - राजनीतिक जीवन था , उनके मित्र, बाहर के कार्यकर्ता आते, और वह ज़माना भी ऐसा था कि,’ रात एक बजे भी रिक्शे पर बिस्तर बंद- बक्से लादे / आने वाले रिश्तेदारों को कोई संकोच नहीं होता था ‘.... कई बार रात में चूल्हा जलता। दोनों की आमदनी सीमित पर निर्वाह किया जाता, पिता माँ को ‘ अन्नपूर्णा ‘ कहते ।दादा का एक पांव घर में और एक बाहर होता,माँ को ही सब कामों में पहल करनी पड़ती । मेरी नौकरी के समय दादा मीसा में बंद थे तो माँ ने ही उनसे कहा स्वीकृति दे दो, मंजु-अनुपम का विवाह भी इसी दौरान तय हुआ, रंजना के पिता जब बात चलाने आये तब पिता हैदराबाद जाने की तैयारी में व्यस्त थे, माँ ने उन्हेंं मेरे नाम पत्र देकर कहा कि आप इलाहाबाद होकर मनोहर से मिलते हुए जाइये। अम्मीजी( तिवारीजी की पत्नी) ने जयप्रकाश का रिश्ता बताया जिसे माँ ने स्वीकारा। अमर का विवाह तो दादा के जाने के बाद ही हुआ। मीसा वाला काल बेहद सख़्त था, वे घोर अभावों के दिन थे, माँ पर उधारी बहुत हो जाती। पर माँ ने धीरज कभी नहीं खोया,न हिम्मत हारी।दादा की गिरफ़्तारी के बाद की जन्माष्टमी पर आरती करते हुए उनका मन भर आया , कंठ अवरुद्ध हो गया पर यह भी कृष्ण जन्म ,बंदीगृह की कथा के स्मरण से उपजा उद्वेग था, हिम्मत का टूटना नहीं ।अंतिम दिनों में कहती थीं, बाई- बाबू की बहुत याद आती है,और गातीं,’ गोपाल तुम्हारी वीणा ने छेड़ी यह तान निराली है , जिसकी धुन मोहक है सबको मदमस्त बनाने वाली है /तुमने सचमुच नायक होकर यह अनुपम सुयश कमाया है/ जो लता शुष्क थी उसका तुमने जीवन सरस बनाया है’।— बाबू ने १९३० में अपनी बालविधवा चचेरी बहन सुमित्रा का पुनर्विवाह किया था तब सम्राट उपनामधारी कवि ने उनकी प्रशस्ति में इन पंक्तियों वाली कविता लिखी थी, हालांकि बाबू को जाति से बाहर कर दिया गया था। इस शादी की एक पारिवारिक तस्वीर में चार साल की माँ फ्रॉक पहने फ़र्श पर बैठी हैं, इसे देखकर लगताहै कि माँ भी कभी बच्ची थी.... माँ जबलपुर की साँस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेतीं, ख़ूब अच्छा बोलतीं। उनका बहुत मान -सम्मान था । ‘सुरों के सहयात्री' नाम से संस्मरणों की पुस्तक लिखी । १५ जनवरी २०१२ को माँ हमसे विदा हो गयीं । माँ के फूल लेकर अपने मित्र ब्रजभूषण शकरगायें के साथ इलाहाबाद गया। सुबह अँधेरे पहुँचा,सिविल लाइंस की तरफ़ उतरकर पहले एलगिन रोड का रिक्शा किया... विद्यापीठ पहुँच कर माँ के फूल निकाले और गेट पर हाथों में फूल लिये कुछ मिनिट माँ का स्मरण करते हुए मौन खड़ा रहा।
‘एक धूल भरी पीली दुपहरी में हम पहुँचे थे वहाँ
बहुत दिनों से दिखाना चाहती थी माँ
अपने बचपन का गाँव
... माँ कितने आगे
निकल जाती थी हम सबको छोड़
जैसे अपने बचपन में
किलकारियाँ मारती हुई
... पहाड़ वाला मन्दिर।
घर के पास बावड़ी
उसमें बचपन से हिलता हुआ पानी
स्कूल, अस्पताल, हाट.......
माँ के बचपन का सब कुछ था वहाँ
हर रोज़
सिर्फ़ माँ नहीं थी
वह तो थी अपने बचपन में ।’
मंजूषा निलेकर की यह कविता जब पढ़ी थी तब एकदम वह दृश्य आँखों में घूम गया जब माँ इलाहाबाद आयीं थीं और मैं उन्हें महिला विद्यापीठ लेकर गया था, जहाँ माँ चौदह साल रहकर पढ़ीं थीं, छठी से लेकर एमए तक। विद्यापीठ में घुसते ही उमंगित-तरंगित माँ जैसे एकाएक अपने बचपन के , विद्यापीठ के दिनों में लौट गयीं...न जाने कहाँ से उनमें नयी स्फूर्ति आ गयी, वे एक के बाद एक चीज़ें बताने लगीं... मनोहर ये ऑफ़िस, ये वो कमरा जहाँ शाम को गुरुजी की साहित्यकारों के साथ गोष्ठी होती थी और भक्तिन आवाज़ लगाती थी ,’ गायत्री भैया गुरूजी बुलावत हैंई’ , और यह भक्तिन की रसोई,इसमें केवल मैं ही जा सकती थी... और यह मेरा कमरा , मैदान में यह कुआँ, इसकी जगत पर बैठकर मैं सितार का अभ्यास करती थी... माँ बताये जा रही थी, वे उस परिसर की ख़ुशबू,ध्वनियों , दृश्य-दृश्यांतरों और वातावरण को अपने भीतर समा लेना चाहती थीं ।यह इत्तफ़ाक ही था कि माँ के एलगिन रोड की विद्यापीठ छोड़ने के इकत्तीस साल बाद में बगल की एडमॉन्स्टन रोड के पत्रिका हॉउस में ‘ अमृत प्रभात’ में नौकरी करने पहुँचा था। माँ(गायत्री नायक) और दादा ( पिता गणेश प्रसाद नायक ) मेरे पास आये हुए थे । माँ १९३५ में विद्यापीठ पढ़ने आयीं थीं ... लेकिन इस नौ साल की लड़की की कथा यहाँ से शुरू नहीं होती।
गोपाल प्रसाद-सरस्वती नायक की तीन संतानों में माँ सबसे छोटी थीं। वे २२ जनवरी १९२६ में जन्मी थीं। बड़े भाई राधिका प्रसाद, सावित्री मौसी और माँ ।माँ-पिता को बच्चे बाबू-बाई कहते थे।माँ मझंली बाई कहलाती थीं ,क्योंकि छह भाइयों में बाबू मंझले थे ।उनके बड़े भाई गजाधर प्रसाद वैद्य थे । वे प्लेग के रोगियों का इलाज करते उसी से ग्रस्त होकर अल्पायु में नहीं रहे थे। उनकी दो संतानों में चंदा मौसी पाँच और जीवन मामा डेढ़ बरस के थे । मां की काकी, बड़ी बाई पच्चीस की थीं । छोटी-सी गोरी- चिट्टी बड़ी बाई को मन्ना(भवानी प्रसादजी मिश्र ) भारत माता कहते थे , दिल्ली में जीवन मामा मन्ना के पड़ोसी थे।बाबू ने बड़े भाई के परिवार को साथ रखा । बाबू कटनी से नैनी के बीच के स्टेशनों में स्टेशन मास्टर रहे। वे गाँधीजी के अनुयायी, राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत व्यक्ति थे। पथरिया स्टेशन में रहते हुए उन्होंने हड़ताल करा दी थी । १९४२ में स्टेशन की इमारत पर तिरंगा फहरा दिया था तो कुछ समय निलम्बित रहे, बाद में दंडस्वरूप छोटी स्टेशनों पर ही नियुक्ति मिली। वे बेहद कार्यकुशल, मिलनसार , उदार, और सबको साथ लेकर चलने वाले व्यक्ति थे और अपने समय से आगे की सोच वाले ।जब उन्होंने बड़ौदा की आर्य कन्या विद्यालय की छात्राओं की जबलपुर में प्रभात फेरी देखी तो उससे इस कदर अभिभूत हुए कि अपनी छोटी-छोटी बेटियों को , जो उस समय पिता के साथ स्टेशन पर सिगनल अप-डाउन करतीं, ड्राइवरों को गोला देतीं, मुसाफ़िरों को पानी पिलातीं या किसी ट्रेन से एक-दो स्टेशन जाकर दूसरी से लौट आतीं, पढ़ने के लिये बड़ौदा भेज दिया। वहाँ वे साल-डेढ़ साल रहीं। वे वहाँ ख़ूब मज़े से रहीं ,बतातीं थीं कि बहुत दूध मिलता था, डकार लेकर , थोड़ा टहलकर और पी लेते थे।१९३५ में महादेवीजी ने इलाहाबाद में महिला विद्यापीठ शुरू किया तो दोनों बहनें वहाँ आ गयीं , क्योंकि बाबू तब नैनी में थे, बड़ौदा दूर था, खानपान , भाषा आदि की परेशानी थी। विद्यापीठ छात्रावास की माँ - मौसी पहली छात्राएँ थीं। वे नवरात्र के दिन थे,मैं जबलपुर आया हुआ था,टीवी पर पंडालों में चल रहे गरबा नृत्य को दिखाया जा रहा था, एकाएक माँ ने कहा, मनोहर आज के फ़िल्मी गानों पर होने वाले गरबा को देखकर कोई विश्वास नहीं करेगा कि बड़ौदा में बहत्तर साल पहले हम छोटी-छोटी लड़कियाँ क्या गाते हुए गरबा करते थे...यह कहते हुए वे गाने लगीं,’ देसड़िया नी भाजे गंधीजी अवे गांड्यो थयो ‘..... गरबा करते हुए ये बच्चियाँ गाती थीं—ये गाँधी तो देश के लिये पागल हो गया है।
माँ का टीपना (कुंडली) का नाम लोकप्रियाबाई था। वे लोकप्रिय थीं भी। हॉस्टल में ८० लड़कियाँ थीं। माँ का रुआब अलग था ।पहले उन्होंने गायन लिया था , पुणे के सदाशिव दत्तात्रेय आप्टे संगीत शिक्षक थे। क्लास में उनकी सीट नियत थी, वहाँ कोई नहीं बैठता था। भक्तिन की रसोई में केवल वे ही जा सकती थीं , छात्रावास में कोने का कमरा उनका था , साफ़ -सुथरा। उनके साथ रीवां की कुसुम वर्मा , जबलपुर की शकुन तिवारी व बनारस की रुक्मणि गुप्तारहती थीं ... छात्राएँ इस कमरे को ‘ महल ‘ कहती थीं।बाबू सबके लिये लड्डू, भुट्टे आदि भेजते।भुट्टा खाने के बाद पीने के लिये एक बड़े बर्तन में ख़ूब सा मठा भेजते और हिदायत रहती कि सब मिलकर खाना। महादेवीजी कामाँ पर इतना अधिक स्नेह और बाई-बाबू इतना विश्वास कि सुदूर मणिपुर,असम ,बंगाल आदि की छात्राओंको छुट्टियों में गुरुजी बाबू के पास ही रहने भेज देतीं ।रीवां की कुसुम मौसी, जबलपुर की शकुन मौसी आदि से अंत तक घनिष्ठता बनी रही , माँ को कई छात्राएँ जिज्जी कहतीं । संयोग से उस दिन माँ को विद्यापीठ में पुरानी सखी लक्ष्मीजी मिल गयीं।उनके पति आत्माराम शाह माँ को गायत्री अक्का कहते थे... शाम को हम उनके घर गये थे , उनकी छत तो बोनसाई का बाग़ीचा थी। रहते- पढ़ते हुए वे गुरुजी के निकट आती गयीं। अनेक काम उनकी ज़िम्मेदारी हो गये। छात्रावास की सारी लड़कियों के हालचाल जानना,इंचार्ज मैडम को बताना।शाम को सभी को डाक बाँटना। यही काम करते हुए उन्हें जबलपुर सेंट्रल जेल से दो क़ैदियों के पत्र मिले थे, जिन्हें वे नहीं जानती थीं,इनमें एक थे भवानी प्रसादजी तिवारी और दूसरे थे गणेश प्रसादजी नायक।ये चाहते थे कि माँ उन्हें नियमित रूप से बाहर की गतिविधियों के बारे में लिखती रहें,माँ यह करती रहीं। तिवारीजी तो माँ के बड़े भाई से रहे, माँ उनके परिवार की सदस्य ही थीं। नायकजी से १९५० में माँ का विवाह हुआ, इसकी अलग कथा है माँ बताती तीं कि स्वतंत्रा संग्राम से जुड़े परिवारों की लड़कियां विद्यापीठ में महादेवीजी के संरक्षण में पढ़ती थीं ... विद्यापीठ में एक बड़ा काम यह था कि शाम को महादेवीजी के मेल-मुलाक़ातियों और गोष्ठियों के लिये चाय आदि का इंतज़ाम करना, इसी काम के लिये भक्तिन ‘गायत्री भइया’ की टेर लगाती थी। गुरुजी माँ से पूंछती, तुमने पी... इस तरह माँ ने बीए से चाय पीनी शुरू की । इन बैठकों मे निरालाजी, पंतजी आदि अक्सर आते थे। एक बार निरालाजी छात्रावास में आये। वहाँ वे यह कहते हुए आये कि ‘शेर की माँद मे आ गया है सियार ।’ गुरुजी ने कहा , गत्ती सितार अच्छा बजाती है,माँ ने निराला जी को पहले उन्हीं का गीत ‘ फिर संवार सितार लो ‘ सुनाया,फिर उसके बाद सितार।
गणेश प्रसाद नायक |
मौसी दसवीं पास करने तक वहाँ रहीं, फिर उनका विवाह हो गया। दोनों लड़कियों के दसवीं पास करने पर बाबू ने , जो उस समय डभौरा में थे,पूरे गाँव को भोज दिया था। लड़कियों का उस ज़माने में इतना पढ़ना बड़ी बात थी ।माँ ने वहाँ रहते हुए एमए किया।माँ को रोकने के लिये गुरुजी ( महादेवीजी )ने उन्हें पढ़ाने का काम दे दिया,वे ‘४८ तक वहाँ रहीं। बाबू माँ का नाम हमेशा गायत्री नायक एम.ए. लिखते । माँ के सवसे छोटे चाचा राम प्रसाद नायक, नन्हें कक्का थे। वे इलाहाबाद विश्व विद्यालय से हिंदी में पीएचडी कर रहे थे। दसवीं के बाद उन्होंने माँ को इलाहाबाद के सिलाई-बुनाई विद्यालय में डालने का तय करके माँ को लेने आये। ट्रेन में बैठी माँ रो रही थीं कि और पढ़ा है , बाबू उन्हें समझा रहे थे कि हम तुम्हें पढ़ायेंगे , अभी नन्हें भैया की बात मान लो... संयोग यह हुआ कि वहाँ पहुँचकर पता कि वह विद्यालय प्रौढ़ और विधवा स्त्रियों के लिये है तो कक्का उल्टे पाँव लौट आये । बाद में एक बार और यह हुआ कि बाबू ने उन्हें लखनऊ के मॉरिस कॉलेज भेजा ,जीवन मामा भी मेडिकल में दाखिला लेने गये थे , उन्हें प्रवेश नहीं मिला तो दो महीने बाद लौट आये, लेकिन इस बीच माँ को मॉरिस कॉलेज की साप्ताहिक सभा में सितार बजाने मिलने लगा और वे जानी जाने लगीं । बाबू संगीत प्रेमी थे, माँ को पहला भजन जो उन्होंने सिखाया वह था , ‘ बाज रही गिरधर की मुरलिया ।’ बाबू विनोदी भी थे , बाई हरितालिका तीज का व्रत रखती और पकवान बनातीं, बाबू उनकी मदद करते हुए गाते ‘ कैसे बने पकवान , आज हम तीजा उपासे।’
इंटर से माँ ने सितार भी एक विषय के रूप में लिया, और वह उनके क़रीब आता गया। गाना आप्टे जी और सितार एसआर मावलंकरजी सिखाते। कॉलेज के वाद्यवृंद में वे साड़ी पहन कर जलतरंग भी बजातीं । गुरुजी को बिन बताये चुपचाप इलाहाबाद विश्व विद्यालय की संगीत प्रतियोगिता में हिस्सा लिया,निर्णायक उस्ताद अलाउद्दीन खान थे, माँ प्रथम आयीं, नियमानुसार विश्वविद्यालय के संगीत जलसे में पहली प्रस्तुति उनकी हुई।लखनऊ के मॉरिस कॉलेज से स्वाधंयायी छात्रा के रूप में मध्यमा और विशारद की क्रमशः प्रमाणपत्र और उपाधि परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में पास कीं ।मध्यमा में परीक्षक बाबा अलाउद्दीन थे। डेढ़ घंटे परीक्षा ली ,कोर्स की सभी रागें पूछीं,फिर बोले क्या सुनाओगी ,माँ ने कहा ‘ श्री ‘ तो आश्चर्य से बोले गा लोगी, सुनी तो प्रसन्न हुए। मॉरिस कॉलेज के कुलपति रातन्जनकर जी थे,माँ को पहले सुन चुके थे। उन्होंने मावलंकरजी से पहले ही कह दिया कि तेरी स्टुडेंट पहले नंबर आयेगी।हुआ भी यही। बीए में भी संगीत एक विषय था । बनारस में परीक्षा थी ,परीक्षक थे विनायकराव पटवर्धन। उन्होंने माँ से कहा था कि सितार कभी न छोड़ना।बीस वर्ष बाद परीक्षक होकर भातखंडे विद्यालय, जबलपुर आये तो वहाँ की सितार शिक्षिका माँ को एकदम पहचान गये। गुरुजी का माँ पर विशेष स्नेह था इसलिये चिंतित रहती कि सितार के कारण यह पढ़ाई में न पिछड़ जाये,क्योंकि माँ समय मिलते ही घंटों सितार बजातीं। कुएँ की जगत पर रियाज़ करते रात दो बज जाते। जीवन मामा ने थोड़ा तबला सीखा था। माँ छुट्टी में घर आतीं तो सुबह चार बजे उठकर राग की अवतारणा के लिये नहाकर गीले वस्त्रों मे सितार बजाती, मामाजी को ठेका देना पड़ता। एमए में माँ जब सेकेंड डिवीजन पास हुईं तो गुरुजी ने उनसे रिजल्ट देखने के बाद पैर छुआये ईनाम में किताबें दीं। झूठी शिकायत पर एक बार उन्हें डाँट दिया फिर मनाने के लिये कहा कि , ‘ गत्ती प्यार तुम्हें करती हूँ तो क्या चौकवाली लड़की को डाँटने जाउँगी । ‘ इलाहाबाद पहुँचकर जब मैं उनसे मिला और परिचय दिया तो बोलीं अरे तुम तो मेरे नाती हो।उनके परिवार के रामजी पांडे मेरे गहरे मित्र थे इस कारण भी गुरुजी से ख़ूब मिलना होताथा।माँ के स्नेह में वे बँधी थी। ज्ञानपीठ लेने वे दिल्ली आयी थीं। जनसत्ता के रविवारी सम्पादक , मेरे मित्र कवि मंगलेश डबराल ने ऐन समय कहा महादेवीजी से इंटरव्यू कर लो। रात जब पहुँचा तब वे आराम करने की तैयारी मे थी। फ़ौरन तैयार हो गयीं। कोई शुरुआती कविता हाथ से लिखकर देने को कहा तो जो दी , उसे देख मैंने कहा कि यह छप चुकी है, तो दूसरी लिखकर दी । दूसरे दिन छोटी सी रागिनी को लेकर मैं और रंजना उनसे मिलने गये तो ख़ूब ख़ुश हुईं और रागिनी को खिलाती रहीं।पंडित रविशंकर का १९९५ में ७५वीं जयंती थी। अभय कुमार दुबे के साथ ‘समय चेतना’ पत्रिका निकाली थी। शनिवार छुट्टी के दिन पंडितजी के यहाँ बिन पहले से समय लिये इंटरव्यू के लिये पहुँच गया। वहाँ ताँता लगा था। अगले दिन पंडितजी अमरीका जा रहे थे। मैंने इंटरव्य की फ़रमाइश की जिसे नकार दिया गया। वे कुछ काग़ज़ दखने लगे , मैं खडा़ रहा। वे फिर बोले नहीं हो सकेगा....मैंने कहा मैं तो यह सोच रहा था कि जबलपुर में सुशीलचंद्र पटैरिया के यहाँ जब पहली बार आपके दर्शन किये तब मैं सात साल का था.... पंडितजी बोले, क्या मिसेज पटैरिया अब भी सितार बजाती हैं ,मैंने कहा यह तो नहीं बता सकता ,पर हाँ उन्हें मेरी माँ सितार सिखाती थीं, पंडितजी बोले , अरे तब तो तुम्हारी माँ से मिला हूँ मैं,अच्छा सिखाती थीं,मैंने नोट्स देखे थे ....अच्छा अब जाना तो दोनों को मेरा आशीर्वाद कहना... जबलपुर भी क्या शहर था, लोग रिकॉर्ड की बात करते हैं ,डॉ हर्षे के यहाँ मैंने दस घंटे लगातार बजाया था।....कहना न होगा पंडितजी ने बीच-बीच में समय निकालकर घंटे भर से ज़्यादा बात की। यह सब माँ के कारण हो पाया।
विनोबा भावे के समक्ष सितार वादन |
महादेवी वर्मा के साथ दायीं ओर गायत्री नायक एवं बायीं ओर चंद्रप्रभा पटेरिया |
माँ को बाई-बाबू के गुण मिले। वे शांत पर दृढ़प्रतिज्ञ थीं। कर्मठता तो जैसे साकार। दादा-माँ के विवाह में विवाद था पर बाबू ने माँ की मानी । पिता के परिवार की भागीदारी नहीं हुई। भवानी प्रसाद तिवारी के घर से विवाह हुआ, रात को बिसमिल्लाह खान की शहनाई बजी। प्रहरी पत्रिका मे बैनर था ‘गणेश गायत्री के विवाह का हाथी झूमता निकला’। बाद में अपने कामों से, सरोकारों और स्वभाव से उन्होंने सबका दिल जीत लिया ।हमारी आजी, जिन्हें जिज्जी कहते थे,माँ जिस रोज़ सितार न बजायें तो कहतीं, काय री आज नई बजाओ ! उन्हीं ने ज़ोर दिया तो माँभातखंडे विद्यालय में शिक्षिका बनीं।यह विद्यालय स.भ.देशपांडेजी की कल्पना थी। वे , पंचभाईजी, धनोप्याजी वहाँ माँ को चाहते थे। देशपांडेजी के बाद माँ प्राचार्या बनी। तब उन्हें यह बात सालती थी कि जैसे उन्होंने देशपांडे जी से उनका विद्यालय छीन लिया हो। देशपांडेजी की विदाई के दिन कॉलेज संचालन समिति के अध्यक्ष भवानी प्रसाद तिवारी के भाषण से उन्हें राहत मिली। तिवारीजी ने कहा कि हम गुरुओं को विदा नहीं करते, बल्कि उनसे निवेदन करते हैं कि-पुनरपि आगमनाय-फिर पधारिये।
माँ घर-बाहर कामों में लगी रहतीं।घर में मेहमानों का आना लगा रहता। साल भर की पापड़, बड़ियाँ, कई तरह के अचार, मुरब्बे,अन्य तीज त्योहारों पकवान बनातीं । भातखंडे शामतीन बजे जातीं ,साढे आठ तक लौटतीं। मीटिंग के लिये खैरागढ़ और परीक्षाएँ लेने अन्यान्य शहरों का आना-जाना लगा रहता । प्राचार्या बनी तो यूजीसी,दिल्ली व भोपाल के चक्कर लगते रहते। विद्यालय के काम को , उसके यश को ख़ूब आगे बढ़ाया, कोई कसर न छोड़ी। पिता का सार्वजनिक - राजनीतिक जीवन था , उनके मित्र, बाहर के कार्यकर्ता आते, और वह ज़माना भी ऐसा था कि,’ रात एक बजे भी रिक्शे पर बिस्तर बंद- बक्से लादे / आने वाले रिश्तेदारों को कोई संकोच नहीं होता था ‘.... कई बार रात में चूल्हा जलता। दोनों की आमदनी सीमित पर निर्वाह किया जाता, पिता माँ को ‘ अन्नपूर्णा ‘ कहते ।दादा का एक पांव घर में और एक बाहर होता,माँ को ही सब कामों में पहल करनी पड़ती । मेरी नौकरी के समय दादा मीसा में बंद थे तो माँ ने ही उनसे कहा स्वीकृति दे दो, मंजु-अनुपम का विवाह भी इसी दौरान तय हुआ, रंजना के पिता जब बात चलाने आये तब पिता हैदराबाद जाने की तैयारी में व्यस्त थे, माँ ने उन्हेंं मेरे नाम पत्र देकर कहा कि आप इलाहाबाद होकर मनोहर से मिलते हुए जाइये। अम्मीजी( तिवारीजी की पत्नी) ने जयप्रकाश का रिश्ता बताया जिसे माँ ने स्वीकारा। अमर का विवाह तो दादा के जाने के बाद ही हुआ। मीसा वाला काल बेहद सख़्त था, वे घोर अभावों के दिन थे, माँ पर उधारी बहुत हो जाती। पर माँ ने धीरज कभी नहीं खोया,न हिम्मत हारी।दादा की गिरफ़्तारी के बाद की जन्माष्टमी पर आरती करते हुए उनका मन भर आया , कंठ अवरुद्ध हो गया पर यह भी कृष्ण जन्म ,बंदीगृह की कथा के स्मरण से उपजा उद्वेग था, हिम्मत का टूटना नहीं ।अंतिम दिनों में कहती थीं, बाई- बाबू की बहुत याद आती है,और गातीं,’ गोपाल तुम्हारी वीणा ने छेड़ी यह तान निराली है , जिसकी धुन मोहक है सबको मदमस्त बनाने वाली है /तुमने सचमुच नायक होकर यह अनुपम सुयश कमाया है/ जो लता शुष्क थी उसका तुमने जीवन सरस बनाया है’।— बाबू ने १९३० में अपनी बालविधवा चचेरी बहन सुमित्रा का पुनर्विवाह किया था तब सम्राट उपनामधारी कवि ने उनकी प्रशस्ति में इन पंक्तियों वाली कविता लिखी थी, हालांकि बाबू को जाति से बाहर कर दिया गया था। इस शादी की एक पारिवारिक तस्वीर में चार साल की माँ फ्रॉक पहने फ़र्श पर बैठी हैं, इसे देखकर लगताहै कि माँ भी कभी बच्ची थी.... माँ जबलपुर की साँस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेतीं, ख़ूब अच्छा बोलतीं। उनका बहुत मान -सम्मान था । ‘सुरों के सहयात्री' नाम से संस्मरणों की पुस्तक लिखी । १५ जनवरी २०१२ को माँ हमसे विदा हो गयीं । माँ के फूल लेकर अपने मित्र ब्रजभूषण शकरगायें के साथ इलाहाबाद गया। सुबह अँधेरे पहुँचा,सिविल लाइंस की तरफ़ उतरकर पहले एलगिन रोड का रिक्शा किया... विद्यापीठ पहुँच कर माँ के फूल निकाले और गेट पर हाथों में फूल लिये कुछ मिनिट माँ का स्मरण करते हुए मौन खड़ा रहा।
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