'पहल’ का अंक 125 हमारी और उसकी यात्रा का अब आख़िरी अंक होगा। अभी तक यह ख़बर अफ़वाहों में थी जो सच निकली। यह निर्णय हमारे और 'पहल’ से जुड़े तमाम लोगों के लिए तकलीफ़देह है। हर चीज़ की एक आयु होती है, जबकि हम अपनी सांसों से अधिक जी चुके हैं। हमारे संपादकीय साथी मिल जुल कर इससे सहमत हैं। उन्हें मेरी सेहत को लेकर चिन्ता और शुभकामना है। पहल के मंच का एक बैक स्टेज भी है जो सामने आया नहीं और संभवत: कभी नहीं आयेगा। वह एक बहुत बड़ी दुनिया है जो आती जाती रही, बदलती रही, घूमती रही।
जब हमने पहल शुरू की हम संपादक नहीं थे। उसकी कलाओं और मशक्कतों से अवगत नहीं थे। आज भी हम पूरा पूरी संपादक नहीं हैं, एक समूह है जो मिल जुल कर गाड़ी चलाता रहा। संपादन की मुख्य धाराओं के अगल बगल से निकलते रहे पर पारंगत नहीं हो सके। बस एक पंक्ति हमारी जरूर थी उस पर जोश, जज़्बे और आवेग के साथ चलते रहे। हमारी शैली यही थी जिसमें ताज़ा और आज़ाद ख्याल बने रहे। एक ज़रूरी सुचारु व्यवस्था न होने के कारण हम अब थक भी रहे हैं। हमने कभी 'पहल’ को एक संस्था या सत्ता की व्यवस्था नहीं दी। चीज़ें आती रहीं, हम निपटते रहे, अपने को भ्रष्ट होने से बचाते रहे।
हमें अपनी ही पंक्ति पर बार बार बदलते समय और उसमें आते जाते तूफानों और सच्ची प्रतिभाओं की पहचान करती थी सो हमें तटस्थता और कठोरता की शैलियों का पालन करना पड़ा। हज़ारों लोग पहल में छपने से वंचित रह गये। हम जितना कर सके वह खरा था। नये जमाने के शत्रुओं की पहचान भी ज़रूरी थी। प्रगति विरोधी, साम्प्रदायिक और तानाशाह शक्तियों और घरानों से हमारी मुठभेड़ चलती रही। हम पर्याप्त मरते जीते रहे। 'पहल’ का टिकट बहुतों ने लिया पर कुछ बीच में उतर गये, कुछ आजीवन साथ निभा सके, इसके लिए कमिटमेन्ट अनिवार्य था जो हमारे रक्त और रगों में था। इसमें पाठक, लेखक, वित्तीय सहयोगी, अनाम शुभचिन्तक, पक्षधर, मोहब्बत करने वाले, बैक स्टेज, अण्डरवर्ल्ड के लोग शामिल हैं। इसका बयान एक लम्बी जीवनी बन सकता है जिसकी ज़रूरत नहीं है। और 47 वर्ष बाद अनेक लोग गुमनामी में रहना चाहते हैं या लापता हैं।
हमारे पास फूटी कौड़ी नहीं थी और शुरूआत हो गई। आज भी हमारे पास फूटी कौड़ी नहीं है। मनोबल है। आश्चर्य की बात है कि ऐसे सैकड़ा में लोग हैं जो जब चाहे स्वयंस्फूर्त राशियाँ, छोटी बड़ी जब तब पहल के नाम करते रहे। कुछ तो ऐसे आजीवन है कि कतई व्यक्त नहीं होना चाहते। यही उनकी शर्त है। हम मानते हैं कि प्रायोजित सम्पदा से छोटी पत्रिकाओं का काम नहीं हो सकता। ईंधन चाहिए। जब ख़त्म होने लगे ईंधन जुटाया जाय और झोंक दिया जाय। फिर विचार की अग्नि और जीवन तथा साहित्य की बुनियादी लड़ाईयों का साथ न छोड़ा जाय। 50-60 साल के इतिहास में अनेक गर्वीली और शानदार साहित्यिक पत्रिकाएँ हिन्दी में निकलीं। कुछ अच्छी थीं पर उनके साथ संपादक की जीविका का सवाल था या संस्थान निर्भर थीं। बहरहाल, हमारा मार्ग यह था कि पत्रिका मात्र चंदे से नहीं असंख्य जुड़ावों से चले। पहल की आंतरिक रचना प्रक्रिया एक ऐसी कृतज्ञता में है जिसके हक़दार देश भर के अनगिनत साहित्य प्रेमी हैं। हमारे साथ चुपचाप सूंघने वाली, जलने वाली, दोहरा सलूक करने वाली हस्तियाँ भी छाया की तरह लगी रहीं, पर हमारे भीतर भी बिल्लियाँ और चीटियाँ चौबीस घंटे जीवन्त थीं।
हमने संपादकीय घोषणाएँ नहीं कीं और उसके अतिरेक से बचते रहे 50 साल में कोई फतवा हमारा नहीं है। हमने रचनाएँ आदर, प्यार, आग्रह से मांगीं और उन्हें प्रस्तुत किया। इस अंक में कृष्ण मोहन का एक उदाहरण है कि जिनसे बीस साल पहले कविताएँ मांगी थीं और बीस साल बाद उन्होंने स्मरण करते हुए कविताएँ भेजीं। भूखण्ड तप रहा है। संगतकार, कपड़े के जूते, रामसिंह, क्रागुएवात्स, कोठ का बांस, लेबर कॉलोनी के बच्चे, कविता की रंगशाला, ब्रूनो की बेटियाँ, सीलमपुर की लड़कियाँ, यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश, गांधी मझे भेंटला जैसी कविताएँ प्राप्त कीं और याद इसके साथ ही टूट जाती है। कुंवरनारायण, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह के युग के बाहर जो नई कविता थी, पौद-फुलवारी बन रही थी, उसे एक संसार की रोशनी देने की कोशिश की और एक नया पाठक-वर्ग बनता रहा।
इससे अधिक कहना, अहंकार होगा। इसलिए बकवास और नहीं। एक मुहावरा याद आता है, जो सैनफ्रांसिस्को में एक नारे की तरह लगाया गया - शट अप एण्ड राइट। यह वाचिकों के लिए भी एक नसीहत है। कहना मात्र यह है कि पहल एक देह की तरह थी, जिसकी आयु भी है। यह आयु आ गई, इसको स्वीकार करते हैं। संपादन के लिए जहाँ सम्पादक पीर, बाबर्ची, भिश्ती, खर सब कुछ हो अच्छी सेहत ज़रूरी है। पर यह अंत श्मशान में नहीं, इतिहास में दर्ज हो सकेगा यह उम्मीद करते हैं। हम अमर नहीं थे और मर भी नहीं रहे हैं।
हमारा ढांचा शिथिल पड़ रहा है क्योंकि यह महामारी जाने से इन्कार नहीं कर रही है। इसने हमारे ताने बाने को उलट पलट दिया है। यह महामारी चंचल है, बार-बार अपने को बदलती है, इसने सत्ताओं को भीतरी तौर पर खुश और मन माफिक बनाया है। हमारे कई साथी जो प्रकाश स्तम्भ की तरह थे, इसकी चपेट में चले गये। कुछ को वर्तमान अंधी सत्ता ने मौन और निष्क्रिय कर दिया। हम मुखौटे उतारते रहे और अब प्रतिदिन नए मुखौटे तैयार हो रहे हैं। ऐसे वक़्त में हम आपसे विदा ले रहे हैं।
यही समय है जब हम कुछ अच्छी ख़बरें भी बताएँ और उन लोगों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करें जिन्होंने विविध प्रकार से, विभिन्न समयों में स्वयं स्फूर्त पहल को जारी रखने में सहयोग दिया। यह कतई व्यवसायिक मार्ग नहीं बना।
'पहल’ शुरू से ही चूंकि एक अनियतिकालीन क़िताब की शक्ल में निकलती रही, पत्रिका के फॉर्म में नहीं, इसलिए आपात काल की विपत्तियों में अपना बचाव केन्द्रीय गृह मंत्रालय और सूचना प्रसारण मंत्रालय की जटिल तहक़ीक़ातों से कर सके। बाद में रणनीतिक कारणों से पहल के मुद्रणालय और प्रकाशक बदल बदल जाते रहे। ये केवल छापाख़ाने ही नहीं थे ये हमारे साथी थे जहाँ लेन देन का तात्कालिक दबाव नहीं था। इलाहाबाद प्रेस के स्वामी रवीन्द्र कालिया पर तो यदा-कदा पुलिस की छापामारी और पूछताछ भी होती रही। बहरहाल, जबलपुर के सामाजिक कार्यकर्त्ता दुर्गाशंकर शुक्ल के पंकज प्रिंटर्स और द्वारिका तिवारी के महाकोशल ऑफ़सेट, इलाहाबाद में परिमल प्रकाशन के शिवकुमार सहाय, इम्पैक्ट के राधारमण (पियरलेस प्रिंटर्स), रवीन्द्र कालिया के इलाहाबाद प्रेस, नीलाभ के नीलाभ प्रकाशन के सहयोग से 'पहल’ निकली। आपातकाल में जबलपुर के चित्रा प्रिंटर्स के यहाँ रातों को ट्रेडिल पर अत्यंत गोपनीय तरह से हमारे प्रतिरोधी पर्चे भी छपते रहे। 'पहल’ के अनेक अंक देश के सुप्रसिद्ध तबला वादक आह्लाद पंडित ने अपना काम छोड़ कर नागपुर के एक मराठी प्रेस से प्रकाशित कराए।
आपात काल में ही सतना के सिंधु प्रेस में पहल का एक अंक छापा गया। एक ऐसा दौर था जब 'पहल’ पंचकूला के देश निर्मोही ने आधार प्रकाशन से प्रकाशित किया। पहल के कुछ अंक छापा कला के उस्ताद मोहन गुप्त के सारांश प्रकाशन, दिल्ली में भी छपे। यह सब अबाध चलता रहा, हाँ मशक्कत बहुत थी। और अंतिम दौर का लम्बा समय यादगार है जब पहल के प्रकाशन, वितरण और तमाम दैनिक झंझटों को उठाने वाले गौरीनाथ ने अंतिका प्रकाशन से पहल को संभव बनाया। इसमें अशोक भौमिक और जितेन्द्र भाटिया की असाधारण भूमिका थी। पता ही नहीं चला कि एक बड़ा चित्रकार और एक बड़ा लेखक पहल की गाड़ी खींच रहा है। अब शिवकुमार सहाय, आह्लाद पंडित, राधारमण, नीलाभ, रवीन्द्र कालिया जीवित नहीं हैं कि इन पंक्तियों को पढ़ सकें। मात्र इसका ज़िक्र नाकाफ़ी है। ये लोग अपनी घनघोर मुसीबतों और तकलीफ़ों के मध्य पहल का काम प्राथमिकता से करते रहे। जब लगता था आगे रास्ता बंद हो जायेगा, इन्होंने रास्ते खोले।
बैक स्टेज और परदे के पीछे गहरे संकोच के साथ कुछ और लोग भी खड़े हैं जो कभी सामने आना नहीं चाहते थे। 'पहल’ की नींव का पत्थर उन्होंने लगाया है। पहल की दूसरी पारी में जब उसके पुनर्गठन की शुरूआत हुई तो मैंने अपने पुराने दोस्त राजकुमार केसवानी को आमंत्रित किया और वे मेरा आग्रह मान गये। वे नैतिक रूप से कठिन, बेहद मानवीय और एक छुपे हुए लेखक हैं। उर्दू रजिस्टर की कल्पना, योजना उन्हीं की थी जिससे पहल की एक बड़ी कमी पूरी हुई। राजकुमार का कलश भरा हुआ है और वह दुर्लभ है। इसको रचनावली में परिवर्तित करने के लिए स्वयं उन्हें कई जीवन लगेंगे। लेकिन उन्होंने पहल को गहरी प्राथमिकता के साथ अपना सर्वोत्तम दिया। जब कि वे एक पुरस्कृत पत्रकार हैं और उनका जीवन परिचय विरल है। राजसत्ता में गहरी पैठ के बावजूद उनकी स्वतंत्रता जानी मानी है और अभी भी वे पूरी तरह श्रमजीवी हैं। जब उन्हें पता चला कि हम 'पहल’ में सरकारी विज्ञापन नहीं लेंगे तो वे उत्साह और खुशी के साथ हमारे अभिन्न हुए। पहल से जुडऩे के बाद उनकी जहान-ए-रूमी, दास्तान-ए-मुग़ले-आज़म और कशकोल जैसी कृतियाँ आईं। और काम अभी जारी है। उन्होंने हमें विपथगामी होने से बार-बार बचाया। नई पारी में वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र दानी और युवा रचनाकार पंकज स्वामी भी पहल की संपादक मंडली में शामिल हुए। वास्तव में पहल का प्रमुख काम यह लोग करते थे, मैं श्रेय लेता रहा। इन दोनों कथाकारों का रचनात्मक सफ़र जारी है। पंकज स्वामी का पहला संग्रह इस अंतिम अंक के साथ आ रहा है। उनका पदार्पण हिन्दी कथा मंच पर हो रहा है। पहल के मुखपृष्ठों की हिन्दी जगत में एक अलग पहचान है। मुखपृष्ठ कभी दोहराये नहीं गये। यह काम प्रयोगशील अवधेश वाजपेयी ने किया जिनकी चित्रकला की अब भारतभूमि में बड़ी पहचान बन रही है। मुखपृष्ठों को अंतिम रूप देने में संजय आनंद भुलाये नहीं जा सकेंगे, जबकि उनकी घनघोर व्यस्तताएँ रही हैं। और हमारे चुपचाप जुटे हुए श्रमिक मनोहर बिल्लौरे हैं जो सुबह शाम 'पहल’ के काम के लिए उपस्थित रहे। उन्होंने पहल का पूरा इतिहास और पहल संपादक की सारी बिखरी चीज़ें संभाल के रखी हैं। 'पहल’ की वेबसाइट को निरंतरता से संचालन करने वाले कुलभूषण का शुक्रिया जो सुदूर दक्षिण में रहते हुए यह काम अथक करते रहे। सहभागिता का एक उदाहरण यह भी है कि 'पहल’ का अक्षर संयोजन करने वाले पीयूष जोधानी अब तक उसके 50 अंकों को तैयार कर चुके है।
अंत में, पहल के झोंकों को सुगंध से भरने वाले दिवंगतों और जीवितों को हमारा सलाम और शुक्रिया।
सर्वश्री राहुल बारपुते, मायाराम सुरजन, कमलेश्वर, श्याम कश्यप, वीरेन्द्र कुमार बरनवाल, सुदीप बैनर्जी, एल.के. जोशी, रमाकांत, कामरेड रतिनाथ मिश्र, विनोद कुमार श्रीवास्तव, अनूपकुमार, बुद्धिनाथ मिश्र, प्रकाश दुबे, सुधीर अग्रवाल, परितोष चक्रवर्ती, एन.के. सिंह, कमलेश अवस्थी, चमनलाल, रमेश मुक्तिबोध, संजीव कुमार, ईशमधु तलवार, यशवंत व्यास, निरुपमा दत्त, शंकर, शैलेन्द्र शैल, सुशील शुक्ल, गुलाम मोहम्मद शेख, प्रदीप सक्सेना, दिवाकर झा, सत्येन्द्र सिंह ठाकुर आप सब बहुत याद आते हैं।
राजकुमार केसवानी पहल 91 से जुड़े थे। उन्होंने विदाई नोट में लिखा-
दोस्तों,
यह 'पहल’ का अंतिम अंक है।
इस एक वाक्य को लिखने के लिए जितने साहस की आवश्यकता थी, उसे जुटाने में कई माह लग गए। इससे आगे की बात तो शायद किसी फूटे झरने की मानिंद बेतरतीब और बेसाख़्ता ही निकल पड़े।
47 बरस और 125 अंक। 47 बरस पहले कथाकार ज्ञानरंजन ने एक वैचारिक महायज्ञ की योजना बनाई। हर काल और हर समय में सामाजिक विषमताओं से जूझने के लिए ऐसे यज्ञ की आवश्यकता होती ही है। इस यज्ञ में पहली आहुति ख़ुद ज्ञानरंजन ने दी - अपने कथाकार की। उसके बाद उनकी तलाश शुरू हुई उन लोगों की जो जिनके भीतर सामाजिक प्रतिबद्धता और संवेदना की लौ लगी हो या उसका स्पर्श हो। अपने जाने-सुने और निज अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि ज्ञानरंजन ने कई सारे मामलों में अपने आप से बेख़बर लोगों को अल्लादीन के चराग़ की तरह रगड़-रगड़ कर उनके भीतर के जिन को बाहर निकाल दिखाया।
मेरे लिए निजी तौर पर 'पहल’ में ज्ञान जी के साथ संपादक का पद पाना ठीक वैसा ही है जैसे किसी स्कूल या कालेज के छात्र को उसी स्कूल-कालेज में टीचर का पद मिल जाए। फ़र्क है तो सिर्फ़ इतना कि यहां टीचर बनकर भी छात्र की तरह सीखने का क्रम ही जारी रहा। ख़ासकर अनुशासन।
'पहल’ में मेरी वास्तविक और सक्रिय सहभागिता कोई दस बरस पहले शुरू हुई, जब 90 अंक पर आकर इस पत्रिका का सफ़र कुछ अरसे के लिए थम गया था। पाठकों और लेखको में बराबर की बेचैनी थी। ज्ञान जी से मेरे मुहब्बत के रिश्तों से बाख़बर दोस्तों का एक ही सवाल होता - 'पहल’ बंद कैसे हो सकता है? आख़िर हुआ क्या है? यही वो अवसर था, जब मित्रों और अवसरवादियों की ख़ासी पहचान हुई। मित्रों को फ़िक्र थी कि 'पहल’ फिर से किस तरह शुरू हो तो अवसरवादियों की फ़िक्र थी इस बात की कहानियां कैसे बनें। कहानियां बनीं। कुछ देर, कुछ दूर तक चलीं और मुंह के बल गिर पड़ीं।
इस वक़्त मुझे सबसे ज़्यादा याद आ रही है मंगलेश डबराल की। उसे स्वर्गीय नहीं लिख पाता सो नहीं लिख रहा। मंगलेश बार-बार फोन करके कहता कि राजकुमार, अगर 'ज्ञान भाई’ की सेहत की बात है या कोई आर्थिक संकट है, तो हम लोग मिलकर उनकी मदद क्यों नहीं कर सकते। तुम उन्हें समझाओ।
ज्ञानरंजन को समझाओ? कैसे? मैं ख़ुद नहीं जानता था कि यह किस तरह होगा, मगर यह ख़ुद-ब-ख़ुद ही हो गया। ज्ञान जी भोपाल आए। इस बार उनमें सामान्य चहचहाहट कम और संजीदगी ज़्यादा थी। मुझे लगने लगा कि उन पर 'पहल’ का प्रकाशन बंद हो जाने का नकारात्मक असर हुआ है। जिस लम्हे उन्होने ज़रा फ़ारिग़ होकर आसन जमाया तो अहसास हुआ कि 'पहल’ का प्रकाशन बंद नहीं हुआ। बस कुछ देर से थमा हुआ है।
मैने 'पहल’ को लेकर तमाम मित्रों की चिंताओं से उन्हें अवगत कराया। उनके जवाब से पता लगा कि वे इन तमाम बातें उन तक पहले से ही उन तक पहुंच चुकी हैं। कुछ देर की बातचीत से लगने लगा कि इस स्थिति से वे ख़ुद भी ख़ुश नहीं हैं लेकिन समस्याएं भी बहुत हैं। उनकी सेहत और आर्थिक आवश्यकताएं। फिर भी वे 'पहल’ को जारी रखने के लिए तैयार थे। मुझसे उन्होने एक सवाल किया - तुम साथ आओगे?
यह 2010 की बात है। मैं 'दैनिक भास्कर’ से संपादक के पद से रिटायर होकर बैठा था। उम्र भर की आपाधापी में छूट रहे लिखने-पढऩे वाले पचासों काम थे, जिनको पूरा करने का इरादा बांध रहा था। तभी ज्ञान जी का भोपाल आना हुआ।
अगले ही दिन से नई-नई योजनाएं बनने लगीं। नए-नए फ़ैसले हुए। सबसे अहम फ़ैसला था - 'पहल’ के लिए किसी सरकार से कोई विज्ञापन नहीं मांगेंगे। मुझे इस बात की ख़ुशी है कि इस फ़ैसले के बाद पूरे 35 अंक प्रकाशित हुए लेकिन कभी किसी सरकार या संस्थान से कोई इश्तिहार मांगा नहीं। हां, 'पहल’ के प्रेमियों ने स्व-स्फ़ूर्त पहल करके अपना प्रेम ज़रूर प्रदर्शित किया और भरपूर मदद की।
कई किस्से हैं. एक बार एक रिटायर्ड सेना अधिकारी ने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपनी संपति से एक बड़ी राशि 'पहल’ के लिए देने की इच्छा प्रकट की। उनकी चाहत थी कि किसी आर्थिक उलझन की वजह से पत्रिका बंद न हो जाए। ऐसे अवसरों पर ज्ञान जी की हालत देखकर मुझे एक भोपाली शब्द बहुत याद आता था - भैरा जाना। ज्ञान जी किसी मोटी रकम की आहट भर से बुरी तरह भैरा जाते थे। उसी हालत में मुझसे बात करके अपना निर्णय सुना देते - नहीं यार यह ग़लत बात है। किसी की उम्र भर की कमाई लेकर हम क्यों काम करें?
एक योजना बनी कि 'पहल’ के पुराने विशेषांक, जिनकी बार-बार और लगातार मांग बनी रहती है, उनको पुस्तक रूप में प्रकाशित कर दिया जाए। इस तरह समाज के लिए कुछ ज़रूरी चीज़ें महफ़ूज़ भी हो जाएंगी और उपलब्धता भी बनी रहेगी। इसकी ज़िम्मेदारी भी मुझ पर छोड़ दी।
इस सिलसिले में वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी से बातचीत हुई। वह भोपाल आ गए. हम तीनो बैठे। अरुण इस प्रोजेक्ट को लेकर बहुत एक्साईटेड थे। उन्होने 'पहल’ के एक अंक के प्रकाशन पर आने वाले ख़र्च को लेकर सवाल किया। ख़ासी रक़म थी। एक मिनट के मौन के बाद उनका प्रस्ताव आया कि 'पहल सीरीज़’ की एक किताब छापने के एवज़ में वो 'पहल’ के एक अंक पर ख़र्च होने वाली राशि का भुगतान करेंगे। इस तरह हम आर्थिक चिंताओं से मुक्त हो जाएंगे।
प्रस्ताव काफ़ी लुभावना था। सहमति सी बन गई। लेकिन शांत चित होकर अकेले में विचार किया तो बात जमी नहीं। इसमे एक बहुत बड़ा नैतिक संकट था। इन सारे अंकों में प्रकाशित लेखकों में से कभी किसी को कोई मुवाअज़ा नहीं मिला। अब उनके श्रम को हम पत्रिका के प्रकाशन का साधन बना लें, यह उचित नहीं। बहुत सोच-विचार के बाद हमने प्रस्ताव दिया कि जितनी रकम वो ख़र्च करने का इरादा करते हैं, वह सारी रकम उस अंक के लेखकों में समान रूप से बांट दें। साथ ही बाद में अर्जित होने वाली रायल्टी भी सीधे उन्हीं को भेजी जाए।
इस बात पर सहमति हुई और काम शुरू हुआ। कारणों की तह में जाने की बात छोड़कर इतना भर बताऊंगा कि यह प्रोजेक्ट चार पुस्तकों के प्रकाशन तक सीमित होकर दम तोड़ गया। इन पुस्तकों में 'नव जागरण और इतिहास चेतना’ और 'मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र : एक चिंतन’ जैसी मह्त्वपूर्ण पुस्तकें सम्मिलित हैं।
'पहल’ की वापसी का भरपूर स्वागत हुआ। राजेंद्र यादव ने तो दैनिक 'अमर उजाला’ में बाकायदा एक लेख लिखा - 'इस पहल का स्वागत है।’ इस स्वागत में सैंकड़ों नाम शामिल होते चले गए। एक काबिले ज़िक्र बात यह भी कि इस स्वागत के साथ मदद के लिए भी कई सारे हाथ आगे बड़ते चले आए। इन सबकी प्रतिबद्धता किसी एक व्यक्ति या एक पत्रिका के प्रति नहीं बल्कि उस विचार के लिए थी जिस विचार के परिष्कार के लिए 'पहल’ पहचानी जाती रही है।
तैयारी शुरू हुई नई योजना बनाने से। इस योजना में उर्दू-हिंदी के साथ ही साथ समस्त भारतीय भाषाओं को शामिल करना भी था। हमेशा की तरह नहीं बल्कि इस तरह कि वह भाषा का एक मुक़म्मल नक़्शा बन जाए। हर रंग अलग मगर हर रंग में शामिल। इसी कोशिश में सरहद की हद को भी लांघने का इरादा बना लिया। कराची में 'आज’ जैसी प्रतिष्ठित उर्दू पत्रिका के संपादक, मित्र अजमल कमाल को 'पहल’ में साथी संपादक की भूमिका के लिए आमंत्रित किया। इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में अजमल को कुछ देर ज़रूर लगी लेकिन सहयोग हमेशा मिलता रहा। बाद को अजमल को सार्क यूनीवर्सिटी, दिल्ली में अध्ययन के लिए स्कालरशिप मिली तो उसने एक अर्से तक बाकायदा संपादकीय भागीदारी भी निभाई। और बहुत ख़ूब निभाई।
इसी तरह विचार बना कि सामाजिक संवाद के लिए पत्रिका को अकेले अक्षर तक ही सीमित करना ज़रा अन्यायपूर्ण है। कार्टून जैसी प्रभावकारी विधा को समिलित करने की ग़रज़ से लेखक-कार्टूनिस्ट मित्र राजेंद्र धोड़पकर को आमंत्रित किया। राजेंद्र ने अपनी तमाम अख़बारी और दीगर ज़िम्मेदारियों के साथ ही साथ इस विचार का साथ देने का निर्णय लिया। और क्या ख़ूब साथ दिया। मित्रों की प्रशंसा का आधिक्य चाटुकारिता बन जाता है। सो इतना भर ज़रूर कहूंगा कि राजेंद्र धोड़पकर ने अपने योगदान से 'पहल’ के ज़रिए जो काम किया उसे आप सबने देखा और सराहा है।
इन सफ़लताओं के साथ ही कुछ असफ़लताएं याद करना भी ज़रूरी है। योजनाएं तो बहुत बनीं लेकिन सब सिरे नहीं लगीं। मसलन इंटरव्यू की श्रंखला। व्यक्ति और समाज। व्यक्ति और रचना। गोया उसका आंतरिक और बाहरी संसार। इसके लिए ज़रूरी संसाधन को दोष देते हुए अपनी व्यक्तिगत कमज़ोरियों को भी शामिल करना आवश्यक है।
इसी तरह 'पहल’ सम्मान को फिर से प्रचलित करने का विचार। यह काम ज़रूरी तो लगता था लेकिन अर्थशास्त्र के सिद्धांत इस विचार के आड़े आते रहे और यह भी हो न सका। इन्हीं सिद्धांतों ने कई सारी योजनाओं को ध्वस्त किया।
मेरी अपनी एक निजी असफलता का उल्लेख भी आवश्यक है। ज्ञानरंजन के साथ काम तो बांट लिया लेकिन उनकी चिंताए नहीं बाँट पाया। इसकी वजह शायद यह रही कि मैं 'पहल’ से अधिक ज्ञान जी से जुड़ा था, जबकि ज्ञानजी का सब कुछ 'पहल’ से जुड़ा था।
इस वक़्त न जाने क्यों मुझे पत्रिका 'शेष’ के प्रकाशक-संपादक हसन जमाल को याद करने का बहुत मन हो रहा है। वे ज़माने से बहुत ख़फ़ा हैं। ख़फ़्तगी ज़ाहिर करने का उनका तरीका ज़माने को भी नहीं भाता था। मैं निजी तौर पर मानता हूं कि ज़माने ने उनकी कोशिशों की क़द्र न की। एक सुंदर विचार और निस्वार्थ भाव से हिंदी-उर्दू की खाई को पाटने की कोशिश में उन्होने ख़ुद को खाई में फंसा लिया और 'शेष’ का प्रकाशन बंद हो गया। हसन जमाल 'पहल’ के साथी रहे हैं और उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है।
'पहल’ ज्ञानरंजन की एक लम्बी कहानी है, जिसके पात्र अनेकानेक कवि, लेखक, विचारक हैं। इनमे से अधिकांश ने अपने-अपने कारनामो से अपनी एक अलग पहचान बनाई। इस पहचान के साथ-साथ पहल की पहचान भी जुड़ती और बड़ती रही है।
हर कहानी का अंत होता है, लेकिन कहानी कभी ख़त्म नहीं होती। मनुष्य का पुनर्जन्म का सिद्धांत अब तक मात्र एक विचार है लेकिन कहानी के संदर्भ में यह एक स्थापित सत्य है। हर पुरानी कहानी नए संदर्भों में, नए देश-काल में, नए नाम और नए रंग-रूप में जन्म लेती रहती है। किसी कुम्हार के घड़े की तरह। मिट्टी वही लेकिन टूटकर बिखरकर भी बन जाती है कभी घड़ा, कभी कटोरा और कभी प्याला।
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