राजीव मित्तल ने नई दुनिया के माध्यम से जबलपुर के अखबार जगत को कुछ नई बातें सिखाईं। जिनमें न्यूज पैकेजिंग, फॉलोअप और कार्टून का उपयोग। उनके यह प्रयोग शुरू में संपादकीय के लोगों को समझ में नहीं आए लेकिन धीरे-धीरे सब ने इसे आत्मसात् कर लिया। उन्होंने अखबार में कार्टून व कार्टूनिस्ट को पार्ट टाइम नहीं माना, बल्कि पूर्णरूपेण संपादकीय का हिस्सा बनाया। राजीव मित्तल को जबलपुर की पत्रकारिता को हाईटेक करने का श्रेय भी जाता है। उन्होंने अखबार के दफ्तर में कागज व पेन का उपयोग बंद करवा कर रिपोर्टर व डेस्क कर्मियों को कहा कि सभी कम्प्यूटर में ही काम करेंगे। उस समय तक जबलपुर के अखबारों के दफ्तरों में कोई भी रिपोर्टर या उपसंपादक कम्प्यूटर का उपयोग नहीं करता था। राजीव मित्तल के प्रयास से सभी ने कम्प्यूटर पर काम करना सीखा। इस प्रवृत्ति का अन्य अखबारों ने अनुशरण किया। उन्होंंने नई दुनिया में अनुभवी पत्रकारों के स्थान पर नए व युवा पत्रकारों को वरीयता दी। बाद में इन्हीं पत्रकारों ने परिपक्व हो कर नाम कमाया।
राजीव मित्तल इतने अनुशासनप्रिय थे कि वे वरिष्ठ से वरिष्ठ को काम के मामले में नहीं छोड़ते थे। उन्हें संपादक के तौर पर एक चार पहिया वाहन मिला था, लेकिन वे इसका उपयोग में शहर में कभी नहीं करते थे। किसी भी संपादकीय कर्मी के साथ उसके दोपहिए पर बैठ कर वे यहां वहां जाते थे। रात में काम खत्म कर वे घर से अचानक अखबार के दफ्तर में लौट कर आ जाते थे। उनके इस व्यवहार से सभी संपादकीय कर्मी सजग व सतर्क रहते थे। विभिन्न बीट के रिपोर्टर को वे काम खत्म करने पर तुरंत घर जाने को कहते थे। उनका कहना था कि एजुकेशन बीट के रिपोर्टर को रात में नौ बजे तक बैठ कर काम करने की कोई जरूरत नहीं। उनका काम सिर्फ सात बजे तक का है। इसी प्रकार राजीव मित्तल ने नई दुनिया में अंधविश्वास बढ़ाने वाली खबरों को प्रतिबंधित कर दिया था। मार्च 2008 में वे अवकाश में बाहर गए। जब वे लौट कर आए, तब उन्होंने नई दुनिया की फाइल उठा कर पलटना शुरू की। जैसे ही उनकी नज़र देव बप्पा बाबा की सिर पर पत्थर रख कर इलाज करने की खबर पर पड़ी तो वे आग बबूला हो उठे। खबर से संबंधित तमाम लोगों को स्पष्टीकरण देना पड़ा कि उन्होंने अंधविश्वास बढ़ाने वाली खबर क्यों छापी। राजीव मित्तल ने कभी किसी प्रकार का दबाव नहीं सहा और न ही साथियों को झेलने दिया। उनकी इस नीति से कई लोग नाराज़ भी हुए।
राजीव मित्तल जब तक जबलपुर में रहे, वे ढूंढ़-ढूंढ़ कर उन जगहों व मोहल्लों में गए, जहां बाहरी संपादक शायद ही गए हों। चार खंभा, गोहलपुर या मदनमहल में रात भर खुली रहने वाली चाय की गुमटियों में उन्होंने चाय सुड़की। साथ में काम करने वालों के कैरियर की हर समय चिंता की। जबलपुर में रहने के दौरान उनकी अमृतलाल वेगड़ से भेंट हुई। यह भेंट इतनी प्रगाढ़ता में बदली कि वेगड़ जी की संभवत: अंतिम नदी परिक्रमा में वे उनके सहचर बने। एक दिन अचानक जानकारी मिली कि राजीव मित्तल नई दुनिया छोड़ कर मृणाल पांडे के बुलावे पर वापस हिन्दुस्तान जा रहे हैं। उस समय उनके शुभचिंतकों ने समझाया भी, लेकिन शायद लखनऊ के नजदीक होने के कारण वे मेरठ चले गए। मृणाल पांडे के हटने से राजीव मित्तल भी हिन्दुस्तान में अनमने से हो गए। वहां उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा। एक दिन खबर मिली कि उन्होंने हिन्दुस्तान छोड़ दिया और साथ ही पत्रकारिता से दूरी बना ली।
राजीव मित्तल को सिर्फसंपादकीय कर्मी ही नहीं बल्कि नई दुनिया के सभी विभागों के लोग प्यार करते थे। जब उन्होंने हिन्दुस्तान जाने के लिए लखनऊ की ट्रेन पकड़ी, तब स्टेशन में भावुकता वाला नजारा था। विदाई देने वालों की भीड़ स्टेशन पर उमड़ गई। जो आ सकता था वह सब स्टेशन पर थे। कोई रास्ते के लिए खाना ले कर आया था तो कोई स्मृति चिन्ह ले कर। कुछ लोगों की आंखें नम दिख रही थीं। मैंने किसी संपादक की ऐसी विदाई कभी नहीं देखी और शायद ऐसी होगी भी नहीं।
राजीव मित्तल के बाद के जबलपुर प्रवास के दौरान मैंने उनसे कहा कि आप को जबलपुर नहीं छोड़ना था। उन्होंंने इस बात को स्वीकारा। इसे वे अपनी गलती मानते थे। जितने भी दिन वे जबलपुर में रहे, वे शहर और यहां के लोगों से प्यार करने लगे थे। साथियों की चिंता करते थे। चाहे वह कैरियर की हो या पारिवारिक या व्यक्तिगत। अंत तक उनके दिल में जबलपुर धड़कता था। सरोकार से गहरा वास्ता रखने वाले स्पष्टवादी व अनुशासनप्रिय राजीव मित्तल जी को श्रद्धांजलि।
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