बुधवार, 18 मई 2022

धार्मिक आस्थाएँ एवं मिथक प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं-ज्ञानरंजन

 (17 मई 2022 को रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर की कला वीथ‍िका में कदमसंस्था के आयोजन में पहल के संपादक ज्ञानरंजन का दिया गया व्याख्यान)


श्रोताओं, जब मैं आपके सामने अपने छोटे वक्तव्य की शुरुवात करने जा रहा हूँ, एक सूचना देना चाहूँगा कि दुनिया की एक तिहाई मिट्टी दूषित और खराब हो चुकी है। क़दम संस्था के निर्माता योगेश गनोरे जी के लम्बे और निरन्तर आग्रह के बाद बहुत संकोच के साथ आज मैं यहाँ उपस्थित हूँ। याद नहीं कितने सालों बाद आज यह संक्षिप्त व्याख्यान देने जा रहा हूँ। मैं देश दुनिया के पर्यावरण के लोकप्रिय सूत्रों को आपके समक्ष रखना चाहता हूँ। यहाँ यश-गाथा, आलोचना और समीक्षाओं के साथ क़दम की लम्बी यात्रा के दौर को देखा जा सकता है। इसमें एक दिग्दर्शन भी है। यह देखना ज़रूरी है कि क़दम के घनीभूत क्रियाकलापों में, आत्मीय आंदोलन, पर्यावरण प्रेम, प्रकृति से संवाद के बीच बौद्धिक जागरण और चेतना की कोई भूमिका है कि नहीं। कहीं चले जा रहे हैं, केवल चले जा रहे हैं, इस हवा में यांत्रिकता तो नहीं उभर रही है? ज़रूरत है कि समय के आयने में अपने समर्पण को भी देखें।

बंधुओं, जब आप अपनी सोद्देश्य दिनचर्या में डूबे रहते हैं, स्वप्न देखते हैं, तल्लीन और मशगूल रहते हैं तो यह एक स्थानीय हरक़त और समाचार होता है। पौधा ब्रह्माण्ड से जुड़ा है और विश्वदृष्टि विकसित करने के लिए प्रेरित करता है। इस जबलपुर शहर में पौधे से जुड़ा क़दम का कार्य-व्यापार है। वह घट रहा है या बढ़ रहा है, इसे देखिये। क़दम के सदस्यों, भक्तगणों, कार्यकर्त्ताओं, परिवार जनों, स्कूली बच्चों और जन्मदिन को पौधारोपण से यादगार बनाने वाले अनाम साथियों - आप पौधा लगा रहे हैं, दीपक जला रहे हैं, आप मोमबत्तियां लेकर चल पड़े हैं। आपका काम क़ीमती, आदर्शों से भरा, स्थानीय और आत्मजयी है। इस अवसर पर थोड़ा अगल बगल, आगे पीछे भी देखते चलें। अपने ही देश में अभी चार-पाँच दशक पूर्व दक्षिण के क़ीमती चंदन के जंगल तस्करी की भेंट चढ़ गये। वीरप्पन को घेरा नहीं जा सका। उसके मरणोपरान्त भी सिलसिला चला हुआ है। पाखण्ड देखिये कि अब मध्यप्रदेश में सत्ता चंदन के जंगल लगायेगी। इसी इलाके में हाथीदांत की तस्करी भी हुई और हज़ारों हाथियों की हत्या होती रही।  इसलिए मुझे एक अनाम कवि की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं - केवल दो चार पंक्तियाँ सुनें -

आज  जो  अंकुर है

कल वही पौधा होगा

और   परसों   वही

बाज़ार का सौदा होगा

पेड़ अखिल विश्व के काला बाज़ारों में खप रहे हैं। कहानी नई नहीं पुरानी है और हालत गंभीर हैं। आप एक पौधा लगाते हैं, सारी शक्ति झोंक देते हैं, समूची दुनिया एकत्र हो जाती है और दूसरी तरफ सौ वृक्ष कट जाते हैं। यह सच्चाई आपको निराश करने, हताश करने के लिए नहीं बता रहा हूँ, दिमाग़ी तौर पर मज़बूत बनाने की कोशिश कर रहा हूँ।

दोस्तों, संसार से करोड़ों ज़रूरी चीज़ें लुप्त हो गईं, हर दिन हो रही हैं। इनमें क़ीमती चीज़ें और व्यर्थ की चीज़ें भी होती हैं। इन क़ीमती चीज़ों का पुनर्जन्म नहीं होगा। ये मनुस्मृति के दायरे से बाहर होंगी। ये हमारा ही करिश्मा है। हमारी धार्मिक आस्थाएँ एवं मिथक हैं। ये आस्थाएँ  पहाड़ों, जंगलों, नदियों को; मूलतः प्रकृति को ही नष्ट कर रही हैं। आत्महत्याओं को हमारी उन्मादी जनता आस्था कहती है। प्राचीन आस्थाओं में वृक्ष भी बचता था और जीवन भी। अब आस्था मग़रूर लोगों, शास्ताओं का हथियार है। मतलब आदमी वैचारिक भ्रष्ट है तो वृक्ष नहीं बचेंगे।

मैं अपनी मुख्य शुरूवात, दो कविताओं के पाठ से करूँगा। पहली कविता सुप्रसिद्ध कवि नरेश सक्सेना की है और दूसरी राजस्थानी कवि विनोद पदरज की; जिनकी कविताएँ इसी सभागार में क़दम के तत्वावधान में पढ़ी गईं थीं। नरेश सक्सेना की कविता का शीर्षक है - एक वृक्ष भी बचा रहे और विनोद पदरज की कविता - सौ पेड़ों के नाम का । इन कविताओं का सीधा सम्बन्ध क़दम के उद्देश्यों से है। लेकिन इन कविताओं ने पर्यावरण पर विश्वदृष्टि फेंकी है और ये हमें अपने कार्यों को संसार के बड़े विमर्शों से जोड़ती हैं। सुनिये -

अंतिम समय में जब कोई नहीं जायेगा साथ

एक वृक्ष ही जायेगा

अपनी चिड़ियों-गिलहरियों से बिछुड़कर

साथ जायेगा एक वृक्ष

अग्नि में प्रवेश करेगा वही मुझसे पहले

 

कितनी लकड़ी लगेगी

श्मशान की टाल वाला पूछेगा

ग़रीब से ग़रीब से ग़रीब भी सात मन तो लेता ही है

 

लिखता हूँ अंतिम इच्छाओं में

कि बिजली के दाहघर में हो मेरा संस्कार

ताकि मेरे बाद

एक बेटे और बेटी के साथ

एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में।

दोस्तों, संदेश है कि जब तक रूढ़ियाँ नहीं टूटेंगी, हमारे लक्ष्य पूरे नहीं होंगे। बिजली के दाहघर पर इस हिन्दू देश में क्यों ताले पड़े हैं; यह हमारे समग्र दायित्व-बोध का हिस्सा है।

विनोद पदरज की कविता :- सौ पेड़ों के नाम’ -

साढ़ बीत जाता था

पुरवा नहीं चलती थी

बरखा नहीं होती थी

तो अपनी सांवली चट्टान जैसी पीठ

बीजणी की डण्डी से खुजाते

बाबा कहते थे

सौ पेड़ों का नाम लो

पुरवा चलेगी  बरखा आएगी

 

पर मुझको तो याद नहीं थे

सौ पेड़ों के नाम

आम  पीपल  बड़

शीशम और पलाश

खैर  खिरणी  धौंक

नीम  बबूल  अमलतास

फिर मैं चुप हो जाता था

बड़े भाई कुछ और नाम जोड़ते थे

काका कुछ और

अंततः बाबा ही

सौ पेड़ों के नाम लेते थे एक सांस में

पुरवा चलने लगती थी

बरखा होने लगती थी अटाटूट

ताल तलैया भर जाते थे

खेत तरबतर हो जाते थे

 

बाबा चले गये

और किसी को याद नहीं सौ पेड़ों के नाम

जितने नाम हम लेते हैं

उतनी सी बरखा होती है।

आप सभी को याद होगी अपने बचपन की जब लाखों बच्चे आती-पाती’, ‘आम की पातीका खेल खेलते थे और वनस्पतियों के प्रति प्रेम शुरू से पुष्ट होता था।

संदेश देखें कि स्मृति-लोप, पर्यावरण के सवाल और क्रिया-कलापों में शुद्धता गार्ड करना कितना ज़रूरी है। गार्ड लठैत नहीं करते, हमारा विवेक करता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे मंच पर घुसपैठ है और एक चतुर व्यापारी कविता पढ़ जाता है।

बहरहाल, कविता में एक शोक है, अतीत का लोप है और उसके दुष्परिणाम। क्या क़दम के उद्देश्यों के बीच यह ऐतिहासिक गतिरोध नहीं है? कविता अपना आत्मलोचन भी करती है।

दोस्तों, आइये देखें कि हमारी दुनिया में क्या हो रहा है। बीसवीं सदी के बाद अब इक्कीसवीं सदी में सत्ता, राजनीति, समाज, संस्कृति, पर्यावरण और शक्ति की संरचनाओं के सम्मुख मनुष्य की नियति से जुड़े जो कठिन प्रश्न उठे हैं  उनका सामना कठिन हो गया है।

हमारे समय में करोड़ों चीज़ें गायब हो रही हैं। यह चोरी नहीं सभ्यता पर डकैती है। क्योंकि गायब होने की गति तूफानी है। यह कैसा समय है कि जल्लाद आनंद से झूम रहे हैं। मैना के पंख गायब हो गये हैं। जूते हैं  पर पैर नहीं। सरगोशियाँ हैं पर स्पंदन नहीं। बीस लाख लोगों के इस शहर में एक अकेला पौधा जूझ रहा है। मित्रों, समय बहुत दुष्ट चीज़ है, आसानी से पकड़ में नहीं आता। महाभारत में यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है कि दुनिया में सबसे मूल्यवान क्या है? युधिष्ठिर का उत्तर है - समय। और यही समय हमारी हथेलियों से रेत की तरह झर रहा है। पौधों में जो मिट्टी हम डाल रहे हैं वह कितनी आर्गेनिक (जैविक) है  हम नहीं जानते। जगह जगह की मिट्टी, पानी बदल जाते हैं, इसलिए पहचान कठिन है।

करोड़ों चीज़ें गायब हैं और हम याद करें तो सौ दो सौ चीज़ें याद रह गयी हैं। तितलियाँ गायब हैं, जुगनू नहीं दीखते, गौरैय्या गायब है और कव्वे। गुल्लक गायब है और वीणा। अमेज़ान के जंगल कम हो गये, ब्राजील के जंगल जल गये। मनुष्य मात्र एक फेंफड़ा लेकर जीवित है। बांसुरी गायब है और कदम्ब का पेड़। सारंगी गायब है और सुरपराग। लाहुल स्पिति में बारिश नहीं होती। नैनीताल गेठिया से तीस मील दूर झरने की आवाज़ आती थी। सन्नाटे गायब हैं, शोर भरपूर है। काली घनी रातें दिखाई नहीं देतीं, आकाश बदल गये हैं। स्मृति लोप इतना है कि मुझे तीन जगह 17 तारीख दर्ज़ करनी पड़ी। और ट्रैफिक जैम इतना है कि घड़ियाँ बेकार हो गईं। भवानी भाई के सतपुड़ा के घने जंगल वैसे नहीं रह गये। हरी घाटी गायब है। नीलगिरि गंजी हो गयी और सुंदरबन में अब सुंदर नहीं बचा। दण्डकारण्य में अब बारूद की गंध भर गई है। इसी शहर के कथाकार तरुण भटनागर के उपन्यासों से पता चलता है कि जब तक जंगल जंगलियों के पास था, सुरक्षित था अब नये नागरिक आप हैं, जंगलों का नया रजिस्टर लेकर तबाह करने।

मैं आपको वृक्षों के आयाम और त्रासदी के उदाहरण दे रहा हूँ। क्योंकि सरस्वती लुप्त हुई तो वाटर-वर्ल्ड आने ही थे। शहनाई गायब हो रही है तो डी जे विकल्प बना। हमारी आस्थाओं ने विकृतियों को जन्म दिया है। पता नहीं किन ओस की बूंदों से नहाई दूबों से पूजा पाठ हो रहा है। ऐसा नहीं कि पेड़ों को बचाने के सकारात्मक आन्दोलनकारी क़दम नहीं उठे। उठे पर पैर तोड़ दिये गये। उत्तराखण्ड के जंगलों को बचाने के लिए सौ साल से कोशिश हुई। चिपको आंदोलन हम भूले नहीं। हज़ारों मर्द औरतें पेड़ों का आलिंगन कर अड़े रहे, लेकिन यात्राओं ने, विकास की अंधी अवधारणाओं ने पेड़ काट डाले। आजीवन उपवास करने वाले मर गये। इतिहास में तो दर्ज  है पर प्रेरणाओं में नहीं, शिक्षा में नहीं। उत्तराखण्ड के पहाड़ दरक गये, झरने कुपथगामी हो गये। गांव गायब हो गये, लेकिन वृक्षों की कटाई का विकास नहीं थमा।

साथियों, अगर वृक्ष नहीं कटेगा तो सभ्यताओं का रंग रोगन कहाँ से आयेगा। टिम्बर, वार्निश, पालिश कैसे बनेगी? ये सवाल बहुत सारे लोगों से बार बार पूछे जाने चाहिए। इन सवालों को उठाया जाना ही उनके उत्तर पाने एवं समाधान ढूढ़ने की दिशा में पहला क़दम होगा। ज़रूरी यह है कि ये सवाल उठाये जायें हर मंच से क्योंकि सारे समाधान और विकल्प अंततः इन्हीं के बीच से निकलकर आएंगे। हमारी दुनिया विकल्पहीन नहीं है, पर उस तक पहुँचने के लिए कठोर क़दम उठाने होंगे। समग्र दायित्वबोध एक चुनौती है; इसमें एक नहीं असंख्य चुनौतियाँ शामिल हैं। इन्हें दिमाग के दर्पण में देखें और विमर्श करें। छोटे-छोटे समूह बनायें और क़दम बढ़ाएं। अन्यथा रासायनिक कूड़े से कितनी मछलियाँ मारी जायेंगी, कितनी जलधाराएँ अपवित्र होंगी, कितने वन उजाड़ होंगे, हमें इसका डेटा नहीं पता चलेगा।

यह उचित है कि रथ हम सब मिलकर खींचें। इसी को समग्र दायित्वबोध कहेंगे। लेकिन हर व्यक्ति की विधा भिन्न है, उसकी रचनात्मक शैलियाँ भिन्न हैं। हिन्दी पट्टी में पहला महत्त्वपूर्ण उपन्यास वीरेन्द्र कुमार जैन का था - डूब। जिन्होंने हरियाली पर, नागरिक बसाहट पर विकास के बुल्डोजर का मार्मिक चित्रण किया। इसके बाद टिहरी की डूब हमारे इतिहास में दर्ज़ है; इसकी महान औपन्यासिक रचना विद्यासागर नौटियाल ने की। नर्मदा बचाओ आंदोलन भी लम्बा खिंचा, पर असफल हुआ। उसे प्रेमशंकर रघुवंशी ने अपनी लम्बी कविता में गुंजित किया। कई बार आंदोलन असफल होते हैं। बड़े बांधों ने नदियों का चरित्र बदल दिया; उन्हें जलाशयों में बदल दिया। हमारे शहर में हज़ारों गाँच, बरगी की डूब में आये। इसे लोग भूल गये और नये सौन्दर्य, सैर-सपाटे में व्यस्त हो गये। कृतघ्न जातियों का यही हश्र होता है, वे प्रकृति विनाश का जश्न मनाती हैं। हाल ही में बुलेट ट्रेन की कल्पना हमारा नया आघात था। पेड़ों की गणना नहीं कर सकते जो काटे गये। वह तो मुम्बई में आरे के जंगल बचाने का जबरदस्त जन-आंदोलन हुआ और कुछ बचा। हमारे संसार में यह सब घटित हो रहा है  तो आपको उसे देखना होगा। यही समग्र आत्मबोध की परिकल्पना है। हमारे देश में एक प्राचीन मिथक है। जब सृष्टि डूब रही थी, जल प्रलय के दिन, तब वट का एक पत्ता जल के ऊपर बचा रहा। विश्वास है कि वही सृष्टि को बचायेगा। यह वृक्ष प्रयाग में संगम के किनारे है, जो अब किले के भीतर है। सेना के और रिजर्व र्बैंक के कब्ज़े में। नहीं तो लोग उसका पूजा पाठ शुरू कर देते और महान मिथक को निरर्थक बना देते।

हमारे शहर में क़दम संस्था एक वृक्ष की शक्ल ले रही है, उसकी शाखाएँ कई स्थानों पर तैयार हो रही हैं। मुहावरे में कहें तो, ‘जितनी शाखाएँ उतने पेड़। क़दम की तस्वीर अभी तो सुन्दर है। कभी-कभी तस्वीरें और छवियां एक व्यक्ति के जीवन में दूर भविष्य तक जीवित रह सकती हैं।

लेकिन जब विस्तार होता है तो भीड़ सदस्य बनने लगती है। चेतना मंद होने लगती है। उद्देश्य की पवित्रता सफलताओं के आगे सोने लगती है। सुख मिलने लगता है। आप जो क़दम के नियंता हैं, योजनाकार हैं, बलिदानी हैं, संगतकार हैं  कैसे देखेंगे कि मात्र श्रेय लेने वाले भी तो आपके आंगन के चारों तरफ नहीं मंडरा रहे हैं।

बहरहाल, आप जिस सीढ़ी पर हैं  वहाँ से भविष्य को देखने के लिए गजानन माधव मुक्तिबोध की कुछ सुनहरी पंक्तियों का उदाहरण दूंगा ताकि कविता से शुरू होकर कवि के बयान पर ही अंत हो -

‘‘वीरान मैदान, अंधेरी रात, खोया हुआ रास्ता, हाथ में एक पीली मद्धम लालटेन। यह लालटेन समूचे पथ को पहले से उद्घाटित करने में असमर्थ है। केवल थोड़ी सी जगह पर ही उसका प्रकाश है। ज्यों ज्यों वह क़दम बढ़ाता जायेगा, थोड़ा थोड़ा उद्घाटन होता जायेगा। चलने वाला पहले से नहीं जानता कि क्या उद्घाटित होगा। उसे अपनी पीली मद्धम लालटेन का ही सहारा है। वह शुरू में यह भी नहीं बता सकता कि रास्ता किस ओर घूमेगा और किन किन वास्वतिकताओं का सामना करना पड़ेगा।’’

आपके लिए अपने पथ पर बढ़ते जाने का काम ही महत्त्वपूर्ण है। यही आपका प्राप्य है, यही आपकी खोज है। यही आपका आत्मसंघर्ष है।?

विश्वास है मेरे मंतव्य को, इशारों को आप लोगों ने ग्रहण किया होगा।


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