शुक्रवार, 24 जून 2022

जबलपुर के महापौर

सात बार के महापौर पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जिनकी मुट्ठी में जनचेतना बंद थी 

जबलपुर के सात बार महापौर रहे। इतने सालों तक कोई मेयर नहीं रहा जितने साल पंड‍ित तिवारी रहे। बाद में वे राजसभा के दो बार सदस्य भी रहे। सेठ गोविंददास 1950 से लगातार संसद सदस्य रहे और किसी ने यह नहीं कहा ये नगरी गोविंददास की है, सब ये कहते थे कि ये नगरी पंडित भवानी प्रसाद की है। तिवारी जी की लोकप्रियता उनकी अपनी जीवनशैली के कारण थी। उस समय मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार होते हुए भी जबलपुर नगर निगम व म्युनिसपेलिटी पर सदा ही प्रजा समाजवादी का ही कब्जा रहा और जिसके सिरमौर पंडित भवानी प्रसाद तिवारी रहे। आजादी के बाद जब जबलपुर नगर पालिका का स्तरोन्नयन हो कर उसे नगर निगम का दर्जा मिला तो उसके प्रथम महापौर के पद को भवानी प्रसाद तिवारी ने सुशोभि‍त किया। उस समय नगर निगम में महापौर का चुनाव आज भी भांति पांच वर्ष के लिए और सीधे जनता द्वारा न हो कर प्रतिवर्ष प्रत्यक्ष प्रणाली अर्थात निर्वाचित पार्षदों द्वारा किया जाता था। हर‍िशंकर परसाई का मानना था कि भवानी प्रसाद तिवारी मूल रूप से कवि थे-बल्क‍ि केवल कवि थे, राजनीतिज्ञ नहीं। इसलिए राजनीति भी वे कवि की तरह करते थे और छलछंद, काटछांट, जमाना-पटाना, अवसरवादिता, निर्मम सत्ता संघर्ष कर नहीं पाते थे। परसाई कहते थे कि जन चेतना उनकी मुट्ठी में बंद थी। भवानी प्रसाद तिवारी नगर निगम की कार का व्यक्तिगत उपयोग कभी नहीं करते थे। उस समय मेयर की कार का नंबर MPJ 102 था। मेयर रहते हुए वे जबलपुर में किसी कार्यक्रम में रिक्शे से जाते थे। भवानी प्रसाद तिवारी जबलपुर के संभवतः एकमात्र ऐसे नेता थे जो हिंसक भीड़ को अपने उद्बोधन से नियंत्रित कर लेते थे। एक ऐसा ही वाक्या तिलक भूमि तलैया में हुआ जब एक सभा में भीड़ उत्तेजित व हिंसक हो गई। तब सिटी कोतवाल प्रयाग नारायण शुक्ल भवानी प्रसाद तिवारी को वहां यह अनुरोध कर के ले गए कि वे दो मिनट खड़े हो कर भाषण दे देंगे तो भीड़ शांत भी हो जाएगी और पुलिस का काम हल्का हो जाएगा। तिलक भूमि तलैया पहुंच कर जैसे ही भवानी प्रसाद तिवारी ने भाषण देना शुरू किया भीड़ शांत हो गई और पुलिस का काम बिना लाठी चार्ज किए हो गया। वर्ष 1977 में जब भवानी प्रसाद तिवारी का निधन हुआ तब उनकी शवयात्रा में इतनी भीड़ उमड़ी जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। शहर के जिस व्यक्ति को यह खबर मिली वह शवयात्रा में शामिल हुआ। सबसे ज़रूरी व महत्वपूर्ण बात यह कि भवानी प्रसाद तिवारी के बाद उनके परिवार का कोई सदस्य राजनीति में नहीं आया।


साइकिल पर चलने वाले महापौर रामेश्वर प्रसाद गुरू ने बनवाया था मालवीय चौक


रामेश्वर प्रसाद गुरू की पहचान जबलपुर में साइकिल में चलने वाले महापौर के रूप में रही है। वर्ष 1962 में क्राइस्ट चर्च स्कूल के श‍िक्षक रामेश्वर प्रसाद गुरू जबलपुर के महापौर बने थे। प्रजा समाजवादी पार्टी (पीएसपी) बनाने में रामेश्वर प्रसाद गुरू, भवानी प्रसाद तिवारी, गणेश प्रसाद नायक, सवाईमल जैन की महत्वपूर्ण भूमिका थी। रामेश्वर प्रसाद गुरू व भवानी प्रसाद तिवारी की जोड़ी मिल कर ‘प्रहरी’ अखबार निकलाती थी। उस समय ‘प्रहरी’ में छपी सामग्री को लोग ध्यान से पढ़ते थे। उस समय के लोगों की जानकारी के अनुसार गांव से लोग यह देखने आते थे कि ‘प्रहरी’ के संपादक कौन लोग और वे कैसे दिखते हैं। हर‍िशंकर परसाई ‘प्रहरी’ में नियमित रूप से लिखने वाले कुछ लोगों में से एक थे। रामेश्वर प्रसाद गुरू व भवानी प्रसाद तिवारी के साथ रामानुज लाल श्रीवास्तव ऊंट ने होली को जबलपुर का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतीक पर्व बनाया था। इन लोगों ने होली का जुलूस शुरू किया था जिसमें साहित्यकार, संस्कृति कर्मी, नेता, व्यवसायी, श‍िक्षक, विद्यार्थी, पत्रकार नाचते-गाते मोहल्लों के नुक्कड़ों पर, चौराहों पर, तिमुहानों पर इकट्ठे होते थे। लोग मिलते जाते, हुरियारों का कारवां बढ़ता जाता। कहीं कोई भदेसपन नहीं, कहीं कोई घटियापन नहीं, कोई लुच्चापन नहीं, मस्ती भरी शालीनता की रेशम की डोरी कभी टूटती नहीं।
परसाई के गद्य गुरू-रामेश्वर प्रसाद गुरू के पिता कामता प्रसाद गुरू थे, जिन्होंने हिन्दी की पहली व्याकरण पुस्तक लिखी थी। इस नाते रामेश्वर प्रसाद गुरू के भीतर साहित्य के बीज थे। उन्होंने कुमार हृदय के नाम से कविताएं भी लिखी थीं। रामेश्वर प्रसाद गुरू को हरिशंकर परसाई का गद्य गुरू भी माना जाता है। परसाई को सीधी व साफ दो टूक भाषा लिखने की प्रेरणा रामेश्वर प्रसाद गुरू ने ही दी थी।   
खोजी पत्रकार-रामेश्वर प्रसाद गुरू इलाहाबाद से प्रकाशि‍त होने वाले अंग्रेजी दैनिक नार्दन इंड‍िया पत्र‍िका के जबलपुर प्रतिनि‍ध‍ि भी थे। रामेश्वर प्रसाद गुरू के प्रिय श‍िष्यों में पत्रकार निर्मल नारद रहे हैं। गुरू जी को खोज या अन्वेक्षण का जुनून था। एक बार गुरू जी व निर्मल नारद दोनों बिलहरी के कब्रिस्तान में यह पता करने के लिए दिन भर घूमते रहे कि यहां सबसे पहले किस अंग्रेज को दफनाया गया था।   
व्यक्त‍िगत कार्य के लिए नगर निगम वाहन का उपयोग नहीं किया-सफेद पजायमा और कुर्ता पहनने वाले गुरू जी क्राइस्ट चर्च स्कूल में अध्यापन करने के दौरान जबलपुर के महापौर चुने गए। सुबह वे दीक्ष‍ितपुरा से स्कूल साइकिल से जाते थे। स्कूल के बाद नगर निगम में महापौर की आसंदी में बैठते थे। लोगों ने उनसे कहा कि उन्हें नगर निगम के चार पहिया वाहन का उपयोग करना चाहिए। रामेश्वर प्रसाद गुरू ने स्पष्ट रूप से इंकार करते हुए कहा कि वे घर से स्कूल या किसी भी व्यक्ति‍गत कार्य के दौरान साइकिल का ही उपयोग करेंगे। हां जब वे महापौर की हैसियत से कहीं भी जाएंगे, तब ही वे नगर निगम की कार का उपयोग करेंगे। नगर निगम वापस आ कर वे साइकिल से घर जाते थे। क्राइस्ट चर्च स्कूल में अध्यापन के दौरान उन्होंने कई मेधावी विद्यार्थ‍ियों को पढ़ाया था, जिसमें एचसीएल के को-फांउडर अजय चौधरी व नामी वकील विवेक तन्खा जैसे व्यक्त‍ित्व शामिल हैं।
जबलपुर का सबसे प्रस‍िद्ध मालवीय चौक बनवाया-रामेश्वर प्रसाद गुरू ने महापौर के रूप में नगर निगम में वित्तीय साधनों की कमी को देखते हुए चंदा जमा कर के सुभद्रा कुमार चौहान की प्रतिमा नगर निगम प्रांगण में स्थापित करवाई थी। उन्होंने महापौर के रूप में मदन मोहन मालवीय की प्रतिमा लगवा कर मालवीय चौक नामकरण किया था। उनके कार्यकाल में नगर निगम जबलपुर ने कई ग्रंथों का प्रकाशन किया, जो संदर्भ के रूप में आज भी प्रासंगिक व उपयोगी हैं। शहर के श‍िक्षा जगत में उनका अप्रतिम योगदान रहा। उन्होंने ड‍िस्ल‍िवा रतनसी स्कूल की स्थापना की। नगर के मॉडल हाई स्कूल में आज से 62 वर्ष पूर्व तत्कालीन प्राचार्य श‍िव प्रसाद निगम के साथ मिल कर उन्होंने महात्मा गांधी की पुण्यतिथ‍ि 30 जनवरी को मौन दिवस के रूप में मनाने की शुरूआत की थी।

एक रूपए मानदेय लेने वाले महापौर सवाईमल जैन

वर्ष 1947 में जब भवानी प्रसाद तिवारी व रामेश्वर प्रसाद गुरू ने साप्ताहिक अखबार ‘प्रहरी’ निकाला तब उस अखबार के व्यवस्थापक सवाईमल जैन थे। ये सब 35 की उम्र के आसपास के थे। यह अखबार इतना प्रखर व ओजस्वी होता था और सामग्री इतनी सनसनीखेज होती थी कि शनिवार की शाम इसके निकलते ही चौराहों पर चर्चा होने लगती थी। सब जगह ‘प्रहरी’ की चर्चा। तरूणों के लिए यह बहुत प्रेरक था। एक तरह से ‘प्रहरी’ उग्र समाजवादियों का अखबार था। उस दौरान सीमित संसाधनों में सवाईमल जैन व्यवस्थापक के रूप में ‘प्रहरी’ के प्रकाशन में मदद किया करते थे। भवानी प्रसाद तिवारी के साथ मिल कर सवाईमल जैन ने जबलपुर में शैक्षण‍िक व सांस्कृतिक गतिविध‍ियों को विस्तारित किया।
सवाईमल जैन शुरूआत में सराफा बाजार की एक गली के भीतर गली में जैन मंदिर ट्रस्ट का एक बड़ा सा अहाता में मौजूद मकान में रहते थे। यहीं उनके परिवार का प्रतिभा प्रिंटिंग प्रेस छापाखाना था। उनके परिवार द्वारा ही सुषमा साहित्य मंदिर नामक पुस्तक दुकान भी संचालित होती थी, जो जबलपुर के हर पुस्तक प्रेमी के लिए आकर्षण का केन्द्र थी। सवाईमल जैन के परिवार के छापेखाने की प्रिंटिंग मशीन की सहायता से रामनवमी 1963 के दिन जबलपुर समाचार का प्रकाशन मायाराम सुरजन ने प्रारंभ किया था। 
सवाईमल जैन ने सत्रह वर्ष की आयु से स्वतंत्रता संग्राम के सभी आंदालनों में सन् 1930, 1932, 1941 तथा 1942 में सक्रिय भाग लिया। इन आंदोलनों में बढ़ चढ़ भाग लेने से उन्हें कुल साढ़े तीन वर्ष का कारावास भी हुआ। सवाईमल जैन ने नेशनल बॉयस स्काउट्स एसोस‍िएशन संस्था का गठन कर के सत्याग्रह संबंधी अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। वर्ष 1939 में त्रिपुरी में कांग्रेस के 52 वें अधिवेशन को लाने के लिए जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ सवाईमल जैन विशेष योगदान था। उन्होंने त्रिपुरी कांग्रेस में किसानों व नवयुवकों का प्रत‍िन‍िध‍ित्व किया। सुभाष चंद्र बोस ने जब राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद त्यागा और फारवर्ड ब्लाक के साथ मंडला रवाना हुए तब उनके साथ जबलपुर से भवानी प्रसाद तिवारी व सवाईमल जैन साथ गए थे। 
देश स्वतंत्र होने के बाद सवाईमल जैन ने समाजवादी दल का गठन किया और नगर निगम चुनाव होने पर बहुमत हासिल किया। वे वर्ष 1952 से 1964 तक जबलपुर नगर निगम में महत्‍वपूर्ण पदों खासतौर से स्थायी समिति के अध्यक्ष रहे। वर्ष 1960 में सवाईमल जैन लगातार दो बार महापौर चुने गए। महापौर चुने जाने के बाद सवाईमल जैन ने निर्णय लिया कि वे मानदेय के रूप में सिर्फ एक रूपए ही लेंगे। उस समय उनके इस कदम की चर्चा पूरे देश में हुई। अपने पूर्ववर्ती की तरह सवाईमल जैन साइकिल से नगर निगम जाया करते थे। भवानी प्रसाद तिवारी की तरह ही सवाईमल जैन ने नगर निगम के वाहन का उपयोग व्यक्त‍िगत या सामाजिक कार्यों के लिए नहीं किया। महापौर के पद रहने के दौरान उनका तत्कालीन नगर निगम आयुक्त से टकराव काफ़ी सुर्ख‍ियों में रहा। सवाईमल जैन नगर निगम की फाइलों को देखने, अध्ययन करने और उनमें हस्ताक्षर आफ‍िस के अलावा घर से करना चाहते थे, लेकिन इस पर तत्कालीन नगर निगम आयुक्त को आपत्त‍ि थी। सवाईमल जैन का तत्कालीन मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू से भी एक मुद्दे को ले टकराव हुआ लेकिन अंतत: जीत सवाईमल जैन की ही हुई। सवाईमल जैन के महापौर काल में जबलपुर की सबसे बड़ी रहवासी बस्ती कमला नेहरू नगर का श‍िलान्यास हुआ था।     
सवाईमल जैन इसके बाद वर्ष 1970 के उपचुनाव और वर्ष 1972 के आम चुनाव में जबलपुर पश्च‍िम से विधायक निर्वाचित हुए। मध्यप्रदेश विधानसभा में उनका कुल कार्यकाल दिसंबर 1970 से अप्रैल 1977 तक लगभग सात वर्ष तक का रहा। इस दौरान सवाईमाल जैन मध्यप्रदेश विधानसभा की महत्वपूर्ण समितियों के सदस्य व अध्यक्ष रहे। 10 मार्च 1976 से 30 अप्रैल 1977 तक वे विधानसभा के उपाध्यक्ष रहे।

इंजीनियर और उद्यमी मुलायम चंद्र जैन जब चुने गए महापौर

पिछली शताब्दी के पांचवे व छठे दशक में जबलपुर की प्रजा समाजवादी पार्टी (पीएसपी) में सिर्फ राजनैतिज्ञ, वकील, कवि या शायर ही इसके सक्र‍िय कार्यकर्त्ता नहीं थे, बल्क‍ि इसमें इंजीनियरों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पीएसपी में सक्र‍िय इंजीनियर मुलायम चंद्र जैन वर्ष 1963 में जबलपुर के महापौर चुने गए। वे जबलपुर के प्रतिष्ठ‍ित उद्यमी व्यवसायी परिवार मुन्नी-बप्पू के प्रतिभाशाली सदस्य थे। मुलायम चंद्र जैन को जबलपुर के लोग इंजीनियर साहब और काका जी के संबोधन से पुकारते थे।   
मुलायम चंद्र जैन ने जबलपुर के मॉडल हाई स्कूल से प्रारंभ‍िक श‍िक्षा ली और आगे की पढाई के लिए नागपुर चले गए। यहां उन्होंने इंटर साइंस तक अध्ययन किया और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय (बीएचयू) चले गए। वर्ष 1943 मे बीएचयू से इंजीनियरिंग स्नातक होने के बाद जबलपुर वापस आए। इंजीनियरिंग पढ़ाई के दौरान मुलायम चंद्र जैन ने जबलपुर की गन केरिज फेक्टरी में प्रेक्ट‍िकल ट्रेनिंग की थी। उस समय वे तत्कालीन सीपी एन्ड बरार (वर्तमान मध्यप्रदेश) के जैन समुदाय के पहले इंजीनियर थे। इस दौरान मुलायम चंद्र जैन बीएचयू में स्वतंत्रता संग्राम के भूमिगत आंदोलन में शामिल हो गए। बीएचयू में मुलायम चंद्र जैन ने ब्रिटिश प्रपार्टी हवाई जहाज को बारूद से उड़ा दिया था। वहां उनके साथ देवदत्त गुप्ता, बलानी जी, राजनारायण जैसे साथी थे। राजनारायण ने इमरजंसी के बाद चुनाव में इंदिरा गांधी को हराया था। मुलायम चंद्र जैन जब जबलपुर लौटे तो जबलपुर पुलिस के पास उनकी गिरफ्तारी का वारंट आ चुका था। मुन्नी-बप्पू परिवार का उस समय जबलपुर में प्रदेश की सबसे बड़ी हाइल मिल थी। इसी आइल मिल के फायर बॉयलर्स में मुलायम चंद्र जैन ने बनारस से लाए सभी समान, कपड़े व कागजों को डाल कर सबूत मिटाने की दृष्ट‍ि से नष्ट कर दिया था। दो दिन बाद जबलपुर पुलिस ने मुलायम चंद्र जैन को गिरफ्तार कर लिया। एक महीने जबलपुर जेल में रखने के बाद उनको बनारस की जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। वहां मुलायम चंद्र जैन को जयप्रकाश नारायण व अशोक मेहता का सानिध्य मिला। गांधी जी के प्रयास के बाद अंग्रेज शासन ने स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को छोड़ा जिसमें मुलायम चंद्र जैन भी शामिल थे। यहीं मुलायम चंद्र जैन समाजवादियों के सम्पर्क में आए और प्रजा समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। 
स्वतंत्रता के बाद जबलपुर में नगर निगम का गठन हुआ। भवानी प्रसाद तिवारी महापौर  बने और मुलायम चंद्र जैन पार्षद निर्वाचित हुए। उन्होंने पार्षद रहते हुए भी स्थायी समिति को अप्रत्यक्ष रूप से संभाले रखा। नगर विकास की योजना बनाई और उनको क्र‍ियान्वित करने के रास्ते निकाले। एक इंजीनियर होने के नाते मुलायम चंद्र जैन नियोजित विकास की योजना बनाते थे। उस दौरान जबलपुर नगर निगम का यह दुर्भाग्य रहा कि नगर निगम की सत्ता पीएसपी के पास थी लेकिन प्रदेश में शासन कांग्रेस का था। इससे नगर विकास के कोष की कमी हर समय बनी रहती थी। जगमोहन दास आपसी बातचीत में मुलायम चंद्र जैन से कहते थे कि कांग्रेस में शामिल हो जाओ जबलपुर का विकास होने लगेगा। 
वर्ष 1963 में जबलपुर नगर निगम के महापौर चुनाव में मुलायम चंद्र जैन चुने गए। महापौर के रूप में मुलायम चंद्र जैन ने इंजीनियरिंग कॉलेज वाटर फिल्टरेशन प्लांट और फगुआ नाला वाटर सप्लाई जैसे महत्वपूर्ण कार्यों का क्र‍ियान्वयन कर जबलपुर को उस समय मांग के अनुसार साफ यव स्वच्छ पानी की सप्लाई की शुरूआत की। पूर्व की महापौरों की तरह मुलायम चंद्र जैन ने भी सरकारी वाहन के लिए कुछ नियम बनाए। महापौर के वाहन में कभी भी उनके परिवार का कोई सदस्य नहीं बैठा। कहीं भी वे जब जाते थे तब उनके परिवार के सदस्य उनकी निजी कार में बैठ कर पीछे चलते थे। वर्ष 1965 में डा. एससी बराट इस शर्त पर महापौर बने कि मुलायम चंद्र जैन को स्थायी समिति के अध्यक्ष का कार्यभार संभालना होगा। तब मुलायम चंद्र जैन ने महापौर का पद संभालने के बावजूद डा. बराट का सम्मान करते हुए स्थायी समिति के अध्यक्ष का कार्यभार संभाला था।   
वर्ष 1965 में अशोक मेहता के नेतृत्व में पीएसपी का विलय कांग्रेस में हो गया। मुलायम चंद्र जैन कांग्रेस में शामिल हो गए, लेकिन राजन‍ीति में पहले की तरह सक्र‍िय नहीं रहे। श्याम सुंदर मुशरान और नीतिराज सिंह चौधरी के आग्रह के बाद भी मुलायम चंद्र जैन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से खड़े नहीं हए बल्क‍ि उन्होंने दो विधानसभा सीट में अन्य लोगों के नाम की सिफारिश कर उन्हें विजयी बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
मुलायम चंद्र जैन ने जबलपुर में सिम्पलेक्स इंडस्ट्री की स्थापना की। ब्रिटिश काल में गन केरिज फेक्टरी में काम न होने पर लोगों को छुट्टी दे दी गई, तब मुलायम चंद्र जैन ने पहल की लोगों को अपने परिवार के आइल मिल में रोजगार के अवसर दिए। गन केरिज फेक्टरी के इतिहास में यह पहली व आख‍िरी बार हुआ जब मुलायम चंद्र जैन ने वहां के मूल कर्मियों को बेरोजगार होने की दशा में काम भी दिया और फेक्टरी की मशीनों का उपयोग निजी तौर पर किया। उन्होंने जर्मन मशीनों का इंडियन मॉडल बना कर उसे ‘स्वास्त‍िक’ नाम से पेटेंट करवाया था।  
मुलायम चंद्र जैन महाकोशल चेम्बर ऑफ कामर्स के अध्यक्ष रहे और इस संगठन का भवन बनवाने में बड़ी भूमिका निभाई। चेम्बर ऑफ कामर्स के पच्चीसवीं स्थापना दिवस समारोह में मुलायम चंद्र जैन के अनुरोध पर तत्कालीन रेल मंत्री माधवराव स‍िंध‍िया ने कुतुब एक्सप्रेस का नाम बदल कर महाकोशल एक्सप्रेस किया था। मुलायम चंद्र जैन वर्षों तक जबलपुर स्वतंत्रता सेनानी संघ के अध्यक्ष रहे। 

महापौर के रूप में कानूनविद्, श‍िक्षक और शायर पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’

वर्ष 1964 में जबलपुर के महापौर ऐसे व्यक्त‍ि बने जिनके व्यक्त‍ित्व में अध‍िवक्ता, श‍िक्षक, सार्वजनिक कार्यकर्त्ता, राष्ट्रीय अग्रणी और साहित्य‍िक एक साथ समाहित थी और इन सबके समन्व‍ित स्वरूप में पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ की साह‍ित्य‍िक प्रखरता व तेजस्व‍िता की प्रधानता थी। पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ का हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और फारसी भाषा में गहन अध्ययन और ज्ञान ऐसी उपलब्ध‍ियां थीं जिससे सभी लोग रश्क कर सकते हैं। उनका व्यक्ति‍त्व बहुआयामी और कभी कभी विरोधी दिशाओं में फैला हुआ था। एक ओर कानून जैसे नीरस विषय में प्रस‍िद्ध‍ि प्राप्त कानूनविद्, व‍िध‍ि श‍िक्षक व वर‍िष्ठ अध‍िवक्ता और दूसरी ओर नि:स्वार्थ देश सेवक और तेजस्वी साह‍ित्य‍िक प्रतिभा। इन सबके बीच एक संवेदनशील कवि व शायर। उन्होंने वकालत का पेशा अख्तयार किया तो खुल कर सियासी मैदान में भी रहे। उनको जहां कहीं कोई बात अपने उसूलों के ख‍िलाफ़ नज़र आई उन्होंने उसका इज़हार फौरन कर दिया। 
पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ को अदालत में किसी मामले में पैरवी के बाद बार रूम में आ कर आराम कुर्सी में आंखें बंद करके निश्चेष्ट बैठे रहने में बड़ा आनंद आता था। पन्नालाल श्रीवास्तव के अभ‍िन्न मित्र जबलपुर के मशहूर शायर प्रेमचंद श्रीवास्तव ‘मज़हर’ थे। वे जीएस कॉलेज के प्राचार्य थे। नूर साहब ने जबलपुर में उर्दू की एक बड़ी संस्था अंजुमन तरक्कीये बनाई थी। उनकी प्रेरणा से जनाब आग़ा जब्बार खां साहेब के निवास स्थान में नियमित रूप से मुशायारे का आयोजन संभव हुआ था। मुशायारों में तब हाईकोर्ट के जज, प्रमुख डाक्टर, वकील-बैरिस्टर, प्रोफेसर, प्रतिष्ठ‍ित व्यवसायी, उच्च सरकारी व सैनिक अध‍िकारी शामिल होते थे। नूर साहब ने ख़य्य़ाम और हाफ़‍िज की रूबाईयों का अनुवाद मूल फारसी से हिन्दी में किया था। जबलपुर में होने वाले मुशायरे में नूर साहब सबसे अंत में अपनी शेर व शाइरी पेश करते थे। इस वजह से लोग उनकी ग़ज़ल सुनने अक्सर दो-दो बजे रात तक बैठे रहते थे। पन्नालाल श्रीवास्तव की पुस्तक ‘मंज़‍िल मंज़‍िल’ तक़रीज़ विख्यात शायर रघुपति सहाय फ़‍िराक़ ने लिखी थी। जब यह पुस्तक छपी तब पूरे उर्दू संसार में इस बात को ले कर चर्चा हुई कि फ़‍िराक़ साहब जिस पुस्तक की तक़रीज़ लिख रहे हों, वह पुस्तक तो ख़ास होगी और ल‍िखने वाला भी ज़रूर काबिल होगा। 17 सितंबर 1972 को फ़‍िराक़ साहब ने लिखा-‘’जनाब ‘नूर’ को उर्दू से अच्छी खासी वाक़फ़‍ियत है, और वह रवां दवां तौर पर अपने ख़यालात को सफ़ाई के साथ मौज़ूं अश्आर के सांचे में ढाल देते हैं। उनका अन्दाज़े-बयान शुस्त: है, और उनके कलाम में जो ज़बान की चाश्नी है उसका रह रह कर अन्दाज़ हो जाता है।‘’    
पंडित भवानी प्रसाद तिवारी राजनीति व साहित्य में पन्नालाल श्रीवास्तव के अग्रजवत थे। पंडित तिवारी की प्रेरणा से वे राजनीति में आए। नूर साहब प्रजा समाजवादी पार्टी (पीएसपी) के साइंलेट वर्कर थे, लेकिन वे वर्ष 1952 में जब नगर निगम की राजनीति में आए, तब से वर्ष 1977 तक वे नगर निगम के सदस्य रहे। पीएसपी की ओर से नूर साहब जबलपुर नगर निगम में वर्ष 1964 में महापौर के रूप में चुने गए। उनके महापौर कार्यकाल में जबलपुर में साह‍ित्यि‍क व सांस्कृतिक वातावरण का विस्तार हुआ। नूर साहब ने ही जबलपुर में आल इंड‍िया मुशायरा की शुरूआत करवाई। उर्दू में उनकी महारत को देखते हुए उन्हें मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी के गठन के समय सदस्य मनोनीत किया गया। 
वर्ष 1964 में पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ को हितकारिणी व‍िध‍ि महाविद्यालय का प्राचार्य नियुक्त किया गया। ‘नूर’ साहब का असल जौहर उनकी इंसानियत और इंसान दोस्ती रही। इस में मेहनत तो ज्यादा पड़ती है मगर सच यही है कि फ़र‍िश्ता से इंसान बनना बेहतर है। पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ सही मानों में इंसान थे और बकौल रशीद अहमद सिद्दीकी अच्छे शायर की असल पहचान भी यही है। 

हिकमत और श़फा सिद्ध डा. एस. सी. बराट का अल्प महापौर कार्यकाल

जबलपुर नगर निगम महापौर के इतिहास में एक व‍िश‍िष्ट उपलब्ध‍ि दर्ज है, जब एक महापौर जबलपुर विश्वविद्यालय के रेक्टर और फिर कुलपति बने। यह उपलब्ध‍ि वर्ष 1965 में उस समय दर्ज हुई जब डा. एस. सी. (सत्यचरण) बराट को जबलपुर नगर निगम का महापौर नामांकित किया गया। उस समय मध्यप्रदेश के किसी नगर निगम में पहली बार एक चिकित्सक महापौर के पद पर आसीन हुआ था। राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले द्वारका प्रसाद मिश्र उस वक्त मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। वे डा. बराट के अभ‍िन्न मित्र थे। दोनों लगभग प्रतिदिन जबलपुर में होने पर पत्ते खेला करते थे। वर्ष 1965 में कुछ ऐसी परि‍स्थि‍ति निर्मित हुई और तत्कालीन जबलपुर की राजनीति में बंगला-बखरी को संतुलित करने के लिए एक अध्यादेश ला कर नगर निगम को भंग कर दिया गया था। जबलपुर में निर्विवाद छव‍ि रखने वाले डा. एस. सी. बराट को महापौर के रूप में मनोनीत किया गया। वे ऐसे व्यक्त‍ि थे जिनता सम्मान जबलपुर ही नहीं पूरे प्रदेश व देश में था। नगर के लोग उनका सम्मान करते थे और प्यार भी खूब किया करते थे। उनसे किसी को कोई खतरा नहीं था। वे घृणाहीन व्यक्त‍ि थे। डा. बराट का महापौर के रूप में कार्यकाल लगभग छह माह का रहा और बाद में उन्होंने स्वयं इस्तीफा दे दिया। उनका अल्प कार्यकाल आज भी लोग याद करते हैं। वंशीलाल पांडे के बाद डा. बराट जबलपुर विश्वविद्यालय के रेक्टर और बाद में विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने। 
डा. बराट चिकित्सा पेशा को नई ऊंचाईयां दी थीं। वे स्वतंत्रता सेनान‍ियों, श‍िक्षकों व विद्यार्थि‍यों से कोई फीस नहीं लेते थे। एक बार विद्यार्थ‍ियों के उग्र होने और सुपर मार्केट के श‍िलान्यास पत्थर को नुकसान होने पर डा. बराट ने नाराज हो कर कुछ दिन विद्यार्थ‍ियों का नि:शुल्क इलाज बंद कर दिया था, लेकिन कुछ दिन बाद वे नरम पड़ गए और अपनी परंपरा को बरकरार रखा। तीसरे पुल के पास जहां उनकी क्लीनिक थी, वहां बाहर से आने वाले मरीजों व उनके परिजन के लिए नि:शुल्क रहने की व्यवस्था की गई थी। उनके विशाल बंगले का बड़ा सा बरामदा गांव देहात से आने वाले  मरीजों के लिए महफ़ूज़ रहता था। वे वहीं बनाते, खाते-सोते और ठीक होकर ही घर लौटते थे। डा. बराट से इलाज करवाने वाले सिर्फ जबलपुर के लोग नहीं थे। होशंगाबाद, इटारसी, सागर सहित पूरे महाकोशल व बुंदेलखंड के लोग उनके पास अपने मर्ज को ले कर पहुंचते थे और ठीक हो कर खुशी-खुशी अपने घर जाते थे। डा. बराट के अभ‍िन्न सहयोगि‍यों में डा. नंदकिशोर रिछारिया, डा. चौबे व डा. श्रीवास्तव रहे हैं।
आपाधापी के इस दौर के डाक्टर और शायद मरीजों को भी मुआयना करने का डा. एस. सी. बराट का तरीका अजीब लग सकता है पर था बड़ा कारगर जो उनकी दवा के असर को दोगुना कर देता था। हीलिंग टच और मरीजों के साथ संवाद स्थापित करने में डा. बराट माहिर थे। अपनी कुर्सी के समक्ष आरामदेह  बैंच पर मरीज को वे लगभग लिटा लिया करते थे और फिर आहिस्ता-आहिस्ता पेट दबाते हुए बातचीत का सिलसिला शुरू करते कुछ इस तरह के सवालों के साथ- ‘’हां तो क्या बाहर गांव गए थे ? पानी काय का पीते हो ? रात में पक्का खाना ज्यादा खाया है। बारात में गए थे।‘’ मरीज अगर हां में जवाब देता तो कहते वहीं से ले आए हो बीमारी। कोई बात नहीं। ठीक हो जाओगे। दवा दे रहा हूं। समय से खा लेना पर कुछ खाने के बाद। और हां ठीक हो जाओ तो आकर बता देना। करीब दस पंद्रह मिनट के इस सत्र में मरीज अच्छा महसूस करता और जैसे ही उठकर चलने  को होता, तो रोक के पूछते जूता कैसा पहनते हो ? हील डेढ़ इंच काफी है। चलने में आरामदायक होना चाहिए। डा. बराट बी-काम्पलेक्स के जबर्दस्त हिमायती थे। वे कहते थे कि खाना खाते वक्त थाली में बी-काम्पलेक्स की गोली साथ में रखना चाहिए। खाना खाते-खाते साथ में बी-काम्पलेक्स खा लेना चाहिए। इसी प्रकार डा. बराट वाटरबरीज कम्पाउंड सीरप (Waterburys Compound) प्रत्येक मरीज को प्रिस्क्रि‍प्शन में लिखते थे। वैसे तो डा. बराट क्षय रोग विशेषज्ञ थे पर हर मर्ज़ की दवा जानते थे। हिकमत और श़फा दोनों ही उनको सिद्ध थी।

ज़मीनी आदमी दादा गुलाब चन्द गुप्ता जब जबलपुर के महापौर बने

सात रूपए मासिक वेतन पर भर्रू की कलम से बही खाते लिखने वाले गुलाब चन्द गुप्ता को भले ही बिहारीलाल खजांची का मुनीम कहा जाता रहा हो, लेकिन वास्तव में वे तो कलम के ही मजदूर थे। किसे पता था कि यही कलम का मजदूर एक दिन जबलपुर का महापौर ही नहीं मध्यप्रदेश विधानसभा का सदस्य भी निर्वाचित होगा।  जबलपुर नगर निगम में डा. एस. सी. बराट के इस्तीफा देने के बाद वर्ष 1965 में गुलाब चन्द गुप्ता चुने गए। उनके साथ‍ी व जबलपुर के लोग उन्हें ‘दादा’ कहते थे। गुलाब चन्द गुप्ता अपने पूर्ववर्ती महापौर की तुलना में बिल्कुल अलग थे। उनसे पूर्व जबलपुर के जितने महापौर हुए वे साहित्यकार, श‍िक्षक, उद्यमी, चिकित्सक थे। गुलाब चन्द गुप्ता ज़मीनी आदमी थे। उनके पास किसी विश्वविद्यालय की डि‍ग्री नहीं थी, उनकी विद्यालयीन श‍िक्षा भी कम थी पर संसार के जगत विश्वविद्यालय में उन्होंने जो श‍िक्षा पाई थी वह ऐसी विलक्षण और मेरीटोरियस थी जिसने गुलाब दादा के जीवन को पुरूषार्थी, उदात्त और व्यावहारिक बना दिया था। उनकी सूझबूझ व दूरदर्श‍िता किसी श्रेष्ठ व्यक्त‍ि से कम नहीं थी। दादा गुलाब चन्द गुप्ता जबलपुर की अक्खड़पन व फक्कड़पन परंपरा के प्रत‍िन‍िध‍ि थे। 
 उनकी सहज बुद्ध‍ि का लोहा सभी लोग मानते थे। दादा इस संसार के ऐसे यात्री थे जिन्होंने अपनी मंज़‍िल पा ली थी। वे उस जनता के लिए जीते थे जिस जनता के प्रत‍िन‍िध‍ित्व का दाय‍ित्व उन्होंने लिया था। उस दायित्व को वे अपनी बुद्ध‍ि, युक्त‍ि और शक्त‍ि के समन्वय से पूरा करते थे। जिस दिन उनका दाय‍ित्व पूरा हो गया उस दिन वे भगवान के प्यारे हो गए।  
दादा गुलाब चन्द का आरंभ‍िक जीवन कष्टों, आपदाओं और भीषण गरीबी में बीता था। जब वे स्वतंत्रता आंदोलन में कारावास में थे, तब पत्नी की बीमारी का समाचार आया। लोगों ने कहा ‘पेरोल’ पर जा कर देखना चाहिए। तब उन्होंने उत्तर दिया-मैं आवेदन नहीं करूंगा। और जब वह चल ही बसी तो संस्कार के लिए अध‍िकारियों ने जाने की अनुमति दी तो दादा गुलाब चन्द ने जाना स्वीकार नहीं किया। दीवारों के घेरे के बाहर उनकी अनुपस्थि‍ति में ही चिता धू धू कर उठी। 
कांग्रेस के मूल से समाजवादी शाखा फूट कर निकली थी उसके जबलपुर में प्रमुख स्तंभ दादा गुलाब चन्द गुप्ता थे। वे सक्र‍िय राजनीतिज्ञ थे और कांग्रेस के सुस्थापित वर्ग के विरोध में खड़े हुए। उन्होंने वर्ष 1930 से 1942 तक चारों आंदोलनों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और कारावास भोगा। गुलाब चन्द्र गुप्ता का नेताजी सुभाष चंद्र बोस से गहरा नाता था। उसी सम्पर्क और प्रभाव के कारण उन्होंने अपने पुत्र का नाम सुभाष रखा था। बाद में सभी पुत्रों का नामकरण सुभाष चंद्र बोस के परिवार के सदस्यों के नाम पर हुआ। सुभाष चंद्र बोस त्रिपुरी कांग्रेस अध‍िवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष पद को त्याग कर फारवर्ड ब्लाक के साथ 6 जुलाई 1939 को जब जबलपुर से मंडला रवाना हुए तब उनके साथ गुलाब चन्द गुप्ता, भवानी प्रसाद तिवारी व सवाईमल जैन भी साथ में थे। गुलाब चन्द गुप्ता और भवानी प्रसाद तिवारी का अभ‍िन्न साथ था। एक बार जबलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रभुदयाल अग्न‍िहोत्री ने कहा था कि गुलाब दादा और भवानी भाई को जोड़ देने से एक पूरा आदमी बनता था।   
वर्ष 1967 में गुलाब चन्द गुप्ता ने कटनी (मुड़वारा-रीठी) विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और विजयी हो कर विधायक बने। इस चुनाव में वे जबलपुर से कटनी अपने पुत्र के साथ वेस्पा स्कूटर में जाते थे। वे लोग सौ-सौ मील का सफर स्कूटर पर तय करते थे। विधानसभा पहुंच कर दादा गुलाब चन्द ने प्रथम सत्र से अपनी तीव्र बुद्ध‍ि व वाक् पटुता से ऐसा प्रभाव जमाया कि पूरे सदन और भोपाल के पत्रकारों ने उनका लोहा मान लिया।  उनके बारे में कहा जाता था कि वे राजनीति के मैदान के विकट ख‍िलाड़ी थे। कभी तो खेल करने के लिए खेल करते और लोगों को मोहरा बना लेते थे। सत्ता से अध‍िक उन्हें विरोध का खेल खेलने का मज़ा खूब आता था।

जन आंदोलन के प्रणेता डा. के. एल. दुबे पांच पार्षदों के सहारे चुने गए महापौर

डा. के. एल. दुबे वैसे तो होम्य‍िोपैथी चिकित्सक थे लेकिन उनकी असली पहचान जनता व कर्मचारियों के नेता के रूप में थी। डा. के. एल. दुबे कट्टर समाजवादी और राम मनोहर लोहिया के अनुयायी थे। वे मूल रूप से कानपुर देहात के ग्राम रामसारी तहसील घाटमपुर के निवासी थे। लोहिया की तरह कद काठी होने और जबलपुर में किसी भी समस्या के लिए जन आंदोलन करने के कारण लोग उन्हें ‘जबलपुर का लोहिया’ कहने लगे थे। समाजवादियों की तरह पूरे समय उत्तेजित दिखने वाले डा. के. एल. दुबे की स्थायी पोशाक धोती कुर्ता थी। उनके कुर्ते की बांह कोहनी तक मुड़ी रहती थी। तुर्शी व जुझारूपन उनका स्थायी भाव था। उनका पूरा नाम कन्हैया लाल दुबे था लेकिन शायद ही कोई उन्हें इस नाम से पहचानता था। वे तो सभी के लिए डा. के. एल. दुबे ही थे। 
कानपुर और जबलपुर में रहने के दौरान डा. के. एल. दुबे ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। कलकत्ता से होम्‍य‍िोपैथी की श‍िक्षा ग्रहण करने के बाद डा. के. एल. दुबे वर्ष 1944 में जबलपुर आ गए। उन्होंने वर्ष 1946-47 में प्रेक्ट‍िस शुरू की। तुलाराम चौक में उनकी ड‍िस्पेंसरी थी। डाक्टरी प्रेक्ट‍िस का सिलसिला वर्ष 1963-64 तक चला। इसके बाद वे राजनीति व जन सेवा में पूरी तरह से सक्र‍िय हो गए और प्रेक्ट‍िस पीछे छूट गई। 
स्वतंत्रता के पूर्व जबलपुर नगर निगम चुनाव में वे वर्ष 1945 में पहली बार राइट टाउन वार्ड से पार्षद चुने गए। वर्ष 1957 में डा. के. एल. दुबे होम साइंस कॉलेज से एमएलबी स्कूल मार्ग में गायकवाड़ कम्पाउंड में किराए के मकान में रहने आ गए। वर्ष 1957 से ही मृत्यु पर्यत तक उनका स्थायी अड्डा नगर निगम से शास्त्री ब्रिज (मोटर स्टेंड) जाने वाले रास्ते पर लक्ष्मी टेलर की दुकान हुआ करती थी। लक्ष्मी टेलर के मास्टर मूलचंद थे। इसके अलावा डा. के. एल. दुबे का दूसरा अड्डा इसी मार्ग के सामने दूसरी ओर जहांगीराबाद की अबू वकर की साइकिल दुकान थी। वे सुबह से नगर निगम पहुंच जाया करते थे और दिन भर दोनों जगहों पर वे लोगों से मिलते-जुलते थे और उनका समय बीतता था।
डा. के. एल. दुबे रहते तो राइट टाउन में थे लेकिन उनकी पूरी तरह राजनीति व जन सेवा घमापुर में केन्द्र‍ित थी। लगातार सक्र‍िय रहने के कारण वे वर्ष 1956 में पूर्वी घमापुर वार्ड और वर्ष 1973 में लालमाटी वार्ड से पार्षद चुने गए। वर्ष 1963 में कांग्रेस की ओर से नारायण प्रसाद चौधी जब जबलपुर नगर निगम के महापौर निर्वाचित हुए तब डा. के. एल. दुबे सोशलिस्ट उम्मीदवार के रूप में उप महापौर बने। इस चुनाव में डा. के. एल. दुबे ने बाबूराव परांजपे को हराया था। कहा जाता है कि जब तक डा.    के. एल. दुबे रहे तब तक बाबूराव परांजपे का राजनीति में सूर्य नहीं चमक पाया। 
डा. के. एल. दुबे घमंडहीन, जातपात न मानने वाले और लोगों में एकदम घुल जाने वाले व्यक्त‍ि थे। जाति से ब्राम्हण होने के बावजूद वे सफाई कर्मचारियों के एकमेतन नेता रहे। उन्होंने कई प्रादेश‍िक व केन्द्रीय शासन के कर्मचारियों की यूनियन को एक सूत्र में बांध कर उनका लम्बे समय तक नेतृत्व किया। वर्तमान जबलपुर पूर्व विधानसभा क्षेत्र उनका कार्यक्षेत्र रहा था और राजनीति में मुख्य आधार दलित वोट रहा। डा. के. एल. दुबे के जन आंदोलन घमापुर और आसपास के क्षेत्र से शुरू होते और धीरे धीरे पूरे शहर में उसका असर देखने को मिलता था। पानी की कमी के समय मटके फुड़वाने का जन आंदोलन उनकी ही देन है। 
डा. के. एल. दुबे का तत्कालीन नगर निगम प्रशासक एल. पी. तिवारी से हर समय टकराव बना रहता था। एल. पी. तिवारी के प्रशासन काल में जबलपुर में नगर निगम ने कई महत्वपूर्ण कार्य किए थे लेकिन डा. दुबे प्रतिदिन उनके सामने समस्याओं की फेहरिस्त रख कर आंदोलन की चेतावनी दिया करते थे। वर्ष 1967 का एक वाक्या यह भी है कि जगमोहन दास की मूर्ति स्थापित कर दी गई थी लेकिन उसका अनावरण कार्यक्रम तय नहीं हो पा रहा था। इस बात से डा. के. एल. दुबे उत्तेजित थे। उन्होंने नगर निगम प्रशासक को चेतावनी दी कि एक निश्च‍ित तारीख को वे स्वतंत्रता सेनानी व सर्वोदयी नेता गणेश प्रसाद नायक से मूर्ति का अनावरण करवा देंगे। इस बात को सुन कर एल. पी. तिवारी तुरंत भोपाल रवाना हुए और वहां से विजयाराजे स‍िध‍िंया का कार्यक्रम तय कर के आ गए। जगमोहन दास की मूर्ति का अनावरण हुआ। विजयाराजे स‍िध‍िंया मंच से उतर कर गणेश प्रसाद नायक के पास इस अनुरोध के साथ गईं कि वे ऊपर मंच पर चल कर मूर्ति का अनावरण करें। नायक जी ने विनम्रता से इंकार कर दिया। इस कार्यक्रम में डा. के. एल. दुबे ने सत्य शोधक संघ का पर्चा एक नागरिक के नाम से वितरित करवाया, जिससे काफ़ी विवाद हुआ।
डा. के. एल. दुबे वर्ष 1973-74 में सोशलिस्ट पार्टी की उम्मीदवार के रूप में जबलपुर के महापौर चुन लिए गए। उस समय सिर्फ पांच समाजवादी ही पार्षद के रूप में चुने गए थे, लेकिन डा. दुबे ने कांग्रेस व निर्दलीयों के सहयोग से जबलपुर नगर निगम की सत्ता जीत ली थी। उस समय अनिल शर्मा सोशलिस्ट उप महापौर चुने गए थे। डा. दुबे वर्ष 1975 में स्थायी समिति के कार्यवाहक अध्यक्ष चुने गए। इसी वर्ष वे नगर निगम में प्रतिपक्ष के नेता बने। डा. दुबे का जिंदगी भर कार्य क्षेत्र जबलपुर पूर्व रहा और वर्ष 1977 में विधानसभा चुनाव में वे जबलपुर पश्च‍िम कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए और विधायक निर्वाचित हुए। इसके बाद वर्ष 1980 तक डा. दुबे कांग्रेस विधायक दल के मुख्य सचेतक र‍हे। उन्होंने जबलपुर नागरिक सहकारी बैंक के अध्यक्ष का दाय‍ित्व भी निभाया और विश्वविद्यालय कोर्ट सभा के सदस्य भी रहे।           
डा. के. एल. दुबे का समाजवाद इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वे जीवन पर्यंत क‍िराए के मकान में रहे और पैदल या साइकिल से नगर निगम या अपने कार्य क्षेत्र में जाते रहे।

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