अन्ना का डोसा कॉफी हाउस और यहां 57 वर्ष से काम कर रहे रैफल |
अन्ना का डोसा-1958 में एसआर राजन ने कभी नहीं सोचा नहीं था कि 65 वर्ष बाद उनके द्वारा स्थापित किया गया कॉफी हाउस जबलपुर के परिवारों में इतना लोकप्रिय हो कर एक परंपरा बन जाएगा। आज मार्डन काफी हाउस के नाम से पहचाना जाने वाला रेस्त्रां वैसे तो बोलचाल की भाषा में ‘अन्ना का डोसा’ ही कहलाया जाता है। अब इसे राजन के बड़े बेटे राजकुमार सिंह (राजू) संभाल रहे है। वे भी पिछले 46 वर्षों से अपने पिता के शुरू किए गए व्यवसाय को देख रहे हैं। उनके कॉफी हाउस में डोसा व इडली के साथ सांभर और चटनी खाने वालों की संख्या सबसे ज्यादा रहती है। वैसे इस कॉफी हाउस की एक विशेषता यह भी है कि जो भी व्यक्ति या परिवार यहां एक बार आया वह इससे जुड़ गया।
यहां आने वालों का अनुभव कभी खराब नहीं रहा-शहर के एक प्रसिद्ध उद्योगपति यहां अक्सर आते रहते हैं। वे पिछले तीन दशक से इस कॉफी हाउस में नियमित रूप से आ रहे हैं। वे सप्ताह में यहां एक बार जरूर आते हैं। इतने वर्षों में उनका अनुभव कभी खराब नहीं रहा। अनुभव का अर्थ ग्राहकों की त्वरित सेवा, गुणवत्ता और खाद्य सामग्री का दूसरे रेस्त्रां या काफी हाउस की तुलना में ज्यादा परोसना ऐसी बातें हैं, जिनसे कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। डोसा तो आजकल हर जगह बनता है लेकिन यहां की बात कुछ निराली और अलग है। यहां परोसने वाले लोगों के व्यवहार की भी तारीफ है। एक व्यवसायी का मानना है कि किसी भी संस्थान की पहचान और लोकप्रियता में व्यवहार कुशलता की भी अहम भूमिका रहती है।
स्टूडेंट लीडर का रहा अड्डा-अन्ना का डोसा कॉफी हाउस शुरु से किशोर उम्र के लड़के लड़कियों में भी बेहद लोकप्रिय है। एक समय में यह जबलपुर के स्टूडेंट लीडरों का अड्डा भी रहा है। इसका कारण रेस्त्रां का अपना एक अनुशासन भी है। वैसे इस रेस्त्रां में एक बार में 35 से 50 लोग बैठ सकते हैं, लेकिन यहां रविवार और मंगलवार को बेहद भीड़ रहती है, इसलिए कई बार तो लोगों को अपने परिवार के साथ अपनी बारी का इंतजार भी करना पड़ता है। फास्ट फूड का क्रेज बढ़ गया है इसके बावजूद स्वाद की बात आती है तो लोग यहां के स्वादिष्ट डोसे को ही प्राथमिकता देते हैं।
किसी भी प्रकार की जीत और अन्ना का डोसा-अन्ना का डोसा कॉफी हाउस जीवन में किसी प्रकार की जीत और खासतौर से शर्त जीतने पर अन्ना का डोसा खाने के लिए भी पहचाना जाता है। जबलपुर के लाखों लोग फुटबाल, हॉकी, बिलियर्ड, स्नूकर में जीतने या किसी भी तरह शर्त जीतने पर अन्ना का डोसा खाने की शर्त रखते आ रहे हैं।
57 वर्ष से गहरा नाता है रैफल का रेस्त्रां से-इस रेस्त्रां की एक खास बात यहां के मेन कुक या हेड शेफ रैफल हैं। वे रेस्त्रां से 1966 से जुड़े हुए हैं। उस समय उनकी उम्र 8-9 वर्ष थी और वे परोसने का काम करते थे। उन्होंने धीरे-धीरे मालिक राजन से दक्षिण भारतीय खाना बनाना सीखा और आज लोग रैफल के बनाए डोसे, इडली, सांभर चने की दाल की चटनी को चटखारे ले कर खा रहे हैं। इस रेस्त्रां की दूसरी खासियत इसका पिछले 65 सालों से एक सा स्वाद है। रेस्त्रां में किसी भी चीज में कोई खास मसाला नहीं डाला जाता और जैसी मान्यता है उसी के अनुसार बनाया जाता है। लेकिन दूसरे रेस्त्रां या काफी हाउस के मुकाबले वे डोसा या इडली बनाते समय चावल व उड़द दाल का एक अलग मिश्रण व अनुपात रखते हैं। इस वजह से उनका डोसा व इडली नरम रहते हैं और खाने में लजीज लगते हैं। रेस्त्रां में दो छोटे हॉल व दो छोटे कमरे हैं। यहां की क्राकरी साधारण है। अन्ना के डोसे में महंगाई से खाद्य सामग्री का मूल्य तय होता है। जब रेस्त्रां शुरु हुआ था तब एक मसाला डोसा 15 पैसे में और वर्ष 1966 में 25 पैसे में आता था। अब इसकी कीमत 70 रुपए हो गई।🔷
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें