नश्तर के शेर, नज़्म और क़व्वाली ने पाई शोहरत और खुद गुमानामी में खोए रहे
जिगर मुरादाबादी के उस्ताद भाई ‘अहमर’ मुरादाबादी नश्तर के उस्ताद थे। नश्तर और शोहरत दोनों का चोली दामन का साथ रहा। अब्दुल रहमान कांच वाले, शंकर शंभू, सलीम चिश्ती, यूसुफ आज़ाद जैसे मारूफ़ क़व्वालों ने नश्तर के कलामों को रिकार्ड किया। अनूप जलोटा, सलमा आग़ा, रूना लैला जैसे ग़ज़ल गायकों ने नश्तर की ग़ज़लों को अपनी जादुई आवाज़ से गाया। नश्तर की लिखी नज़्म ‘पगली’ को मुल्क की शोहरत हासिल हुई। सलीम चिश्ती ने इसे गाया और इसके लाखों रिकार्ड व कैसेट निकले। क़व्वाली की दुनिया में ‘पगली’ को जो शोहरत मिली वह बहुत कम को नसीब़ होती है। ‘पगली’ के रिकार्ड का यह आलम था कि जब यह सार्वजनिक रूप से लाउड स्पीकर में बजता था, तब लोग अपना काम-धंधा छोड़ कर इसे सुनने में इतने मशगूल हो जाते थे कि उनको समय से फेक्ट्री जाने में देरी की चिंता नहीं रहती थी। ‘पगली’ को गाने के लिए क़व्वाल सलीम चिश्ती ‘नश्तर’ के दरवाजे पर तीन दिन तक पड़े रहे। नश्तर की ‘पगली’ वास्तविक किरदार रही। पुराने लोगों को याद है यह पगली घंटाघर से फूटाताल तक पत्थर उठाए घूमती रहती थी। नश्तर की लिखी नज़्म ‘बोलो जी तुम क्या क्या खरीदोगे’, ‘पगला’, ‘पाप का बोल बाला है’ सहित कई क़व्वाली के रूप में मशहूर हुईं। नश्तर को क़व्वाली का उम्दा शायर माना गया।
अब्दुल माज़िद ‘नश्तर’ क़व्वाली, ग़ज़लों, नज़्मों तक सीमित नहीं रहे बल्कि उन्होंने दादरा,, ठुमरी, होली, दीवाली और देशभक्ति गीतों में भी अपना कमाल दिखाया। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा के काव्य कृष्यायन का उर्दू ज़ुबान में तर्जुमा भी किया। उम्र के आखिरी समय में उनकी आंखों की रोशनी जाती रही,इसके बावजूद भी शेरो शाइरी से उनका रिश्ता बरक़रार रहा।
अब्दुल माज़िद का ने अपना तख़ल्लुस ‘नश्तर’ (घाव पर चीरा लगाने वाला औज़ार) रखा लेकिन वे दुनियादारी से दूर एक शांत व नरम व्यक्ति रहे। समय-समय पर उनको नश्तर ही चुभते रहे। मुल्क के तमाम क़व्वालों ने उनकी नज़्म को गाया परन्तु ‘नश्तर’ को इसके लिए कोई रॉयल्टी मिली हो ऐसा नहीं लगता। लाखों में रिकार्ड व कैसेट बिके। शोहरत गायक को मिली लिखने वाला अनाम ही रहा। नश्तर के रिकार्ड एचएमवी, सारेगम और तो और पाकिस्तान के कोलंबिया कंपनी ने भी निकाले। इतने सालों में नश्तर के शेर-शाइरी, नज़्म, ग़ज़ल का कोई दस्तावेजीकरण नहीं हो पाया। उनका लिखा बिखरा ही रहा। अब जबलपुर के नईम शाह ने ‘कलाम-ए-नश्तर’ में इसे एक जगह एकत्रित कर एक पुस्तक का रूप दे कर एक नेक काम किया है। नईम शाह ने नश्तर के उर्दू के कलाम को हिन्दी में कर के इसे आने वाली नस्लों के लिए एक तोहफा देने के मकसद से किया है।
अंत में नश्तर जबलपुरी के शब्दों में-
उम्रे दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में
लो मुबारक तुम्हें शहर अपना
हम तो मेहमान थे चार दिन के
चेहरा ख़ाक आलूद आंखे नम नज़र बहकी हुई
जा रही है एक पगली जाने क्या बकती हुई 🔷
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