देश में दुर्गा पूजन का सार्वजनिक रूप से आयोजन 11 सदी से प्रारंभ हुआ। इसका सर्वाधिक प्रचार प्रसार नागरिकों के मध्य बंगाल से हुआ और धीरे धीरे इसने व्यापक रूप ले लिया। जबलपुर में जब प्रवासी बंगला परिवारों का जबलपुर आगमन हुआ तो वे अपने साथ वहां की संस्कृति, परम्पराएं, लोकोत्तर-मान्यताएं और धार्मिक आस्थाएं भी साथ लेकर आए। उनके आगमन के साथ ही मां दुर्गा की नवरात्रि में स्थापना और पूजा का क्रम प्रारंभ हुआ।
दुर्गा की मिट्टी की मूर्ति बनाकर नवरात्रि में उनकी पूजा सबसे पहले जबलपुर में सन् 1872 में बृजेश्वर दत्त के घर में प्रारंभ हुई। उनके घर में दुर्गा पूजा के अवसर पर जबलपुर नगर के सभी गणमान्य एकत्रित होकर देवी पूजा करते थे। तीन वर्ष के अंतराल के बाद दुर्गा आराधना अंबिका चरण बैनर्जी के आवास में होने लगी। उसके बाद दुर्गा पूजा का उत्सव बंगाली क्लब बंगाली क्लब में बंगला समाज द्वारा मनाया जाने लगा।
जबलपुर के मूल निवासी भी बंगला समाज के दुर्गोत्सव से प्रभावित हुए। जबलपुर के मूल वाशिन्दों ने दुर्गा प्रतिमा स्थापित कर नवरात्रि में पूजन अर्चना प्रारंभ कर दी। कलमान सोनी ने 1878 में सुनरहाई में दुर्गा प्रतिमा की स्थापना की। सुनरहाई या सराफा जबलपुर नगर का सोना-चांदी के व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। यहां देवी प्रसाद चौधरी व उमराव प्रसाद ने सर्वांग आभूषण अलंकृत एक सुंदर दुर्गा प्रतिमा बनवाई। इसके मूर्तिकार मिन्नी प्रसाद प्रजापति थे। तब से उन्हीं का परिवार सुनरहाई की दुर्गा प्रतिमा का निर्माण करने लगा। इस परिवार की तीसरी पीढ़ी तक यह कार्य किया गया। दालचन्द जौहरी परिवार में देवी काली की चांदी की प्रतिमा जबलपुर में काफ़ी प्रसिद्ध हुई। वर्तमान में जबलपुर नगर व उपनगरीय क्षेत्रों में 500 दुर्गा प्रतिमाओं की स्थापना की जाती है। इनमें जबलपुर के विभिन्न बंगला क्लब व कालीबाड़ी का दुर्गा पूजन देखने दूसरे शहरों के लोग नवरात्रि में जबलपुर आते हैं।
रामलीला की शुरुआत
भारत में रामलीला का प्रारंभ संभवत: संत तुलसीदास के समय रामनगर (वाराणसी) में हुआ। कालांतर में देश के अन्य शहर या नगर ने भी इसका अनुशरण किया। उसी समय अनेक घुमन्तू रामलीला मंडलियां अस्तित्व में आईं जिन्होंने अनेक स्थानों में अभिनय से राम के जीवन के प्रसंगों को प्रस्तुत किया।
जबलपुर के मिलौनीगंज में डल्लन पंडित नाम के एक विप्र रहते थे। उन्होंने जबलपुर नगर में रामलीला प्रारंभ करने की दिशा में गंभीर प्रयास किया। इस क्षेत्र के संपन्न व्यापारियों से आर्थिक सहायता लेकर रामलीला का श्रीगणेश किया गया।
रेलमार्ग प्रारंभ होने के पूर्व जबलपुर का पूरा व्यापार मिर्जापुर से होता था। इन दोनों स्थानों को जोड़ने वाला प्रमुख मार्ग मिर्जापुर रोड कहलाता था। बैलगाड़ियों के काफिले माल भर कर इस मार्ग से जबलपुर आते और यहां पुन: माल लेकी मिर्जापुर लौटते। लल्लामान मोर मिर्जापुर के एक प्रतिष्ठित थोक व्यापारी थे।
मिर्जापुर-जबलपुर मार्ग पर उनके सार्थवाह (व्यापारी) चलते थे जिनमें माल से भरी सैकड़ों गाड़ियां होती थीं। वे उदार और धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। इस मार्ग पर उन्होंने सार्थवाहों, तीर्थ यात्रियों व पथिकों की सुविधा के लिए 108 बावलियां बनवाई थीं।
एक समय लल्लामान मोर जब अपनी एक बावली का उद्यापन करवा रहे थे तभी उन्हें एक अंग्रेज सैनिक टुकड़ी मिली जो भोजन व पानी न मिल पाने के कारण बुरी दशा में थी। उन्होंने तीन दिनों तक उन सैनिकों का अतिथि सत्कार किया। इसके बदले में अंग्रेज अधिकारी ने आश्वासन दिया कि जब कभी भी उन्हें सहायता की जरूरत हो तो वे उन्हें अवश्य याद करें। एक बार डल्लन पंडित जिन्होंने जबलपुर में रामलीला का शुभारंभ किया था अचानक एक मुकदमे में फंस गए। उन्होंने लल्लामन मोर से इस मामले में सहायता के लिए निवेदन किया। लल्लामन मोर ने तुंरत अंग्रेज अधिकारियों से मिलकर डल्लन पंडित को इस परेशानी से मुक्ति दिलाई।
वर्तमान रामलीला 1865 में प्रारंभ हुई, जिसके साथ रज्जू महाराज का नाम मुख्य रूप से जुड़ा है। इनके निधन के बाद नत्थू महाराज ने रामलीला की बागडोर सम्हाली। मिलौनीगंज के सभी व्यापारियों ने तन, मन, और धन से धार्मिक अनुष्ठान में अपना सहयोग दिया। इनमें मोथाजी मुनीम, साव गोपालदास, प्रभुलाल (पुत्ती) पहारिया, चुनकाई तिवारी, पंडित डमरूलाल पाठक और मठोलेलाल रिछारिया इसके प्रमुख सूत्रधार थे। बिजली आगमन के पूर्व यहां रामलीला मिट्टी के तेल के भपकों व पेट्रोमेक्स की रौशनी में होती थी। 1925 में जबलपुर में बिजली आ गई। अब रामलीला विद्युत प्रकाश में होने लगी जिससे उसका आकर्षण और बढ़ गया।
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। इसके कारण 1942 तक रामलीला का मंचन स्थगित रहा। 1943 में इसके प्रदर्शन हेतु सरकारी आदेश मिल जाने पर रामलीला फिर से प्रारम्भ हो गई। इस बार छोटेलाल तिवारी, गोविन्ददास रावत और डॉ. नन्दकिशोर रिछारिया ने इसके संचालन में अथक सहयोग दिया। 1965 में इसके सौ वर्ष पूरे होने पर इसकी शताब्दी मनाई गई।
जबलपुर के सदर क्षेत्र में फौजी छावनी थी। इसका प्रमुख मार्ग ईस्ट-स्ट्रीट कहलाता था। इस क्षेत्र में फौजी अधिकारी ही खरीद-फरोख्त करते दिखाई देते थे। इसमें छोटी-छोटी गलियाँ भी थीं जिनमें सैनिक संस्थानों के कर्मचारी रहते थे। उन्हीं दिनों शिवनारायण वाजपेयी नाम के एक उद्यमी सज्जन उत्तरप्रदेश से यहाँ आए और अपने भविष्य को सँवारने में लग गए। एक दूसरे सज्जन ईश्वरीप्रसाद तिवारी भी यहाँ आकर बस गए और ठेकेदारी का व्यवसाय शुरू किया। वे अपने साथ उत्तरप्रदेश से पासी जाति के लोगों को भी लाये थे जो उनके ठेकों में काम करते थे। तिवारी जी को 1881 में खन्दारी जलाशय निर्माण और बाद में हाईकोर्ट की भव्य इमारत बनाने का भी ठेका मिल गया। इन दोनों परिवारों में धार्मिक आयोजनों के प्रति बहुत रुचि थी। इन्हीं लोगों के प्रोत्साहन और सहयोग से सदर क्षेत्र में पहले-पहल रामलीला आरम्भ की गई। फौजी छावनी क्षेत्र में, जहाँ अंग्रेजों की सर्वोपरि सत्ता हो, ऐसे धार्मिक आयोजन करना बड़े साहस का काम था। जब असहयोग आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर था, तब इस क्षेत्र के प्रख्यात समाज-सेवी नरसिंहदास अग्रवाल व नन्दकिशोर मिश्र के सहयोग से रामलीला सफलता से आयोजित होती रही।
जैसे-जैसे नगर की जनसंख्या में वृद्धि होती गई, वैसे-वैसे नई-नई आवासीय बस्तियाँ बनती गईं। ये बस्तियाँ सदर और मिलौनीगंज क्षेत्रों से काफी दूरी पर थीं। धर्मप्रिय जनता को रामलीला आयोजन स्थलों तक पहुँचने में जब बहुत असुविधा होने लगी तो यहाँ के निवासियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में लघु रूप से रामलीलायें आरम्भ कीं। इनमें घमापुर, गढ़ा-पुरवा और गनकैरिज फैक्टरी क्षेत्र प्रमुख हैं।🔹
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें