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(मनोहर नायक से प्रत्यक्ष या फोन पर जब भी जबलपुर
की बातचीत होती थी तब एक नाम बार-बार आता था-शिब्बू दादा। शिब्बू दादा को मैंने
सबसे पहले पत्रकार नलिनकांत बाजपेयी के लाल कुआं हनुमानताल के घर में सुना था।
उनके गायन को देर तक सुना गया और वहां मौजूद किसी भी व्यक्ति की इच्छा थी कि उनका
गायन खत्म ही नहीं हो चलता रहे। इसके बाद कुछ और मौकों पर शिब्बू दादा का गायन
सुना। मनोहर नायक से उनकी विशिष्टताओं की जानकारी मिलती थी। शिब्बू दादा जबलपुर
में वाचिक परंपराओं में जीवित थे। कभी उनके बारे में विस्तार से नहीं लिखा गया।
उनके जैसे और व्यक्तित्वों पर भी नहीं लिखा गया। क्यों नहीं लिखा गया यह एक अलग
विषय है, जबकि शिब्बू दादा के नजदीकियों
में जबलपुर के कई वरिष्ठ पत्रकार व लेखक रहे। इस बार 4 जनवरी
को शिब्बू दादा का जन्मदिन मनाया गया। जन्मदिन मनाने का उद्देश्य था कि कलाकार कभी
मृत नहीं होता वह हर समय जीवित रहता है। इस आयोजन मैं मुझे बोलने की जिम्मेदारी दी
गई। ऐसे कार्यक्रम में सीमित समय में विस्तृत बोलना संभव नहीं होता है। विचार आया
कि जितना भी संभव हो शिब्बू दादा पर लिखा जाए। पूरे संदर्भ का श्रेय मनोहर नायक को
है। यह मेरा मूल लेख नहीं है दरअसल यह मनोहर नायक से समय-समय पर की गई बातचीत का
निचोड़ है। मनोहर नायक के आभार के साथ शिब्बू दादा के अनोखे व्यक्तित्व को जानिए।)
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जैसी साफ सुथरी वेशभूषा वैसा ही साफ सुथरा जीवन जीने वाले शिब्बू
दादा
शिब्बू
दादा का जन्म दिवस पिछले दिनों (4 जनवरी को) उनसे
स्नेह करने वालों ने मनाया। शिब्बू दादा को आज भले जबलपुर की नई पीढ़ी न
जानती-पहचानती हो लेकिन छठे दशक से उनकी मृत्यु तक जुड़े लोगों के दिल में वे
धड़कते रहते थे। दरअसल शिब्बू दादा जबलपुर की उस नर्बदा परंपरा के प्रतीक थे जिसके
भीतर प्रेम, आत्मीयता, लगाव और युवाओं
को प्रोत्साहन देने जैसे भाव थे। शिब्बू दादा के यह भाव जिंदगी भर बने रहे। वैसे
उनका नाम शिव कुमार शुक्ला था लेकिन स्वभाव, सर्वमान्य व
वरिष्ठ होने के कारण सबके लिए वे शिब्बू दादा ही थे।
जबलपुर
में संगीत की दो धाराएं शास्त्रीय व सुगम साथ-साथ चलीं हैं। दोनों धाराओं ने एक
दूसरे का सम्मान किया। शिब्बू दादा जबलपुर की सुगम संगीत के 'दादा' यानी कि शिखर पुरुष रहे। यह अज़ीब बात है कि
उन्होंने संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली लेकिन मधुर आवाज़, गीत व संगीत की सहजता और कोई नाज-नखरे न होने से वे जीवन भर लोकप्रिय बने
रहे। वे कव्वाली गाया करते थे। जबलपुर के शायर नश्तर की मां नज्म को जब वे मंच पर
गाते थे तब सुनने वालों की जबान से सिर्फ वाह-वाह ही निकलता था। एक बार जबलपुर के
निकट गोटेगांव कस्बे में उनका कार्यक्रम था तब मंच के पास घूंघट डाले महिलाओं ने
फरमाइश की- '' दादा मां तो सुना दो।'' शिब्बू
दादा बाद के दिनों में भजन व भक्ति गीत गाने लगे थे। गायन में उनका साथ लम्बे समय
तक शशि नगाइच, रवि श्रीवास्तव, जितेन्द्र
शुक्ला (जित्तू) ने दिया और ढोलक में कल्लू संगत दिया करते थे। शिब्बू दादा संगीत
व गायन के लिए प्रेरित थे लेकिन खेलों व फिल्मों में उनका बड़ा रूझान था।
शिब्बू
दादा जबलपुर के दीक्षितपुरा के वाशिन्दे थे। रामेश्वर प्रसाद गुरू के घर के दाएं
ओर गली में उनका घर था। पत्रकार व लेखक शारदा पाठक उनके घनिष्ठ मित्र थे। कॉलेज
में रजनीश उनके सीनियर थे और हनुमान प्रसाद वर्मा ने डीएन जैन कॉलेज में उनको
पढ़ाया था और शिब्बू दादा उनके मुरीद थे।
शिब्बू
दादा की लोकप्रियता के अनेक कारण थे। वे जबर्दस्त अड्डेबाज थे। जबलपुर के
चौगड्डे-चौगड्डे (चौराहों) में उनकी नियमित बैठक जमती थी। घर से
साइकिल निकलती तो एक से एक अड्डे से दूसरे अड्डे और न जाने पूरे शहर में घूमते हुए
शिब्बू दादा निकल पड़ते थे। उनका प्रसन्नचित रहना और ठहराव व धैर्यवान स्वभाव किसी
को नाराज नहीं करता था। शहर भर के अड्डों में जमे लोग चाहते थे कि शिब्बू दादा उन
लोगों के साथ ज्यादा देर तक बैठकर गप्पियाएं। शिब्बू दादा किसी को निराश नहीं करते
थे। वे प्रेमी स्वभाव के भावुक व्यक्ति थे। वैसे भी जीवन भर उन्होंने किसी को भी
निराश व नाराज नहीं किया। प्रकृति से चंचल व मस्तमौला शिब्बू दादा जब अपनी साइकिल
से निकलते तब रास्ते भर उनके जानने पहचानने वाले मिल जाते थे। जबलपुर में चुनावी सभाओं,
मुशायरा, कवि सम्मेलन, खेल
के मैचों में उनकी मौजूदगी रहती थी। शिब्बू दादा की वेशभूषा साफ सुथरी थी वैसा ही
उनका पूरा जीवन साफ सुथरा रहा।
शिब्बू
दादा की मित्र मंडली वृहद थी लेकिन पुरूषोत्तम शर्मा,
देवी मास्साब, बंशू मास्साब, ओंकार रावत उनके अभिन्न थे। शिब्बू दादा मिष्ठान के साथ भांग के शौकीन थे।
शंकर पहलवान के यहां भांग का इंतजाम रहा करता था। वैसे अंदरून जबलपुर के
दीक्षितपुरा, सुनरहाई, नुनहाई, तिलक भूमि की तलैया, कमानिया, फव्वारा,
निवाड़गंज, मिलौनीगंज, अंधेरदेव
इलाकों में उनके अड्डे, मित्र, मिष्ठान
व भांग सब कुछ उपलब्ध रहते थे। नुनहाई में दालचंद सराफ के दामाद शिव प्रसाद सोनी
उनके परम मित्र थे। सोनी जी के यहां शिब्बू दादा का बड़ा अड्डा जमता था। जबलपुर के
श्रेष्ठ बांसुरी वादक चंदू पार्थसारथी के साथ महफ़िल जमती थी। घंटों गायन-वादन
चलता रहता था। ऐसी महफ़िल में शिब्बू दादा किस्से कहानी और चुटकुले सुनाते थे। यह
सब उनको पसंद था। उनकी चिट्ठियों का लेखन अद्भुत रहता था। चिट्ठियों में शहर का
पूरा वृत्तांत रहता था। जिस व्यक्ति को चिट्ठी लिखी जाती थी उसे शिब्बू दादा के
हवाले से शहर की पल-पल की खबर मिल जाती थी।
शिब्बू
दादा की युवाओं से दोस्ती रहती थी। युवा उनको बेहद पसंद करते थे और शिब्बू दादा
उनमें लोकप्रिय थे। शिब्बू दादा युवाओं और खासतौर से युवा कलाकारों को प्रोत्साहित
करते थे। हुनरमंद को मंच देने में वे आगे रहते थे। खाने पीने के शौकीन तो थे ही
शिब्बू दादा लेकिन उन्होंने अपने समय में कितने बेरोजगारों को बड़कुल की खोवे की
जलेबी और निवाड़गंज में समोसे खिलवाए न होंगे। शिब्बू दादा मिष्ठान व नमकीन का
धीमे-धीमे रस लेकर आनंद लिया करते थे। इस प्रकार का ठहराव चाहे वह स्वभाव का हो या
गायन-वादन का या स्वाद लेने का हो वह बेहद कम लोगों में देखने को मिलता है।
शिब्बू
दादा वैसे तो भारतीय रेल में नौकरी करते थे। नौकरी में उनकी तैनाती टिकट खिड़की पर
थी। उस समय जबलपुर का रेलवे स्टेशन और प्लेटफार्म उतना विशाल व भव्य नहीं था जितना
आज है। शिब्बू दादा की टिकट खिड़की बिल्कुल सामने की ओर थी इसलिए वे खिड़की से
स्टेशन पर आने-जाने वाले पर सतर्क निगाह रखते थे। उनकी नज़रों से कोई बच नहीं पाता
था। शिब्बू दादा को जबलपुर रेलवे स्टेशन में शहर का 'ब्रांड एम्बेसेडर' कहना ज्यादा बेहतर होगा। उनको खबर
रहती थी कि शहर की विभूतियों में से कौन किस गाड़ी से जा रहा है और कौन आ रहा है।
जबलपुर स्टेशन बंबई-कलकत्ता ट्रेन रूट का महत्वपूर्ण पड़ाव था। शिब्बू दादा को यह
जानकारी भी रहती थी कि किस ट्रेन से कौन सा क्रिकेट खिलाड़ी, साहित्यकार, फिल्मी कलाकार या राजनेता जबलपुर स्टेशन
से गुजरने वाला है।
शिब्बू
दादा बाहर से आने वाली ऐसी किसी भी विभूति का स्टेशन पर स्वागत करते थे। उनका
स्वागत का तरीका भी अनोखा था। पारम्परिक स्वागत के साथ विभूति को बड़कुल की खोवे
की जलेबी खिलाई जाती थी। ऐसे मौके पर शिब्बू दादा और उनके अनुयायी युवाओं की फौज
भी रहती थी। उस समय सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले 'नवभारत'
में खबर छपती कि शिब्बू दादा द्वारा स्टेशन पर खोवे की जलेबी से
स्वागत किया गया। एक किस्सा ऐसा ही था और उसका सार यह था कि उन दिनों इलाहाबाद में
लाल बहादुर शास्त्री क्रिकेट टूर्नामेंट हुआ करता था। इसमें पूर्व और वर्तमान
क्रिकेट खिलाड़ियों की मिली जुली टीम के बीच मुकाबला होता था। बंबई से पॉली उमरीगर,
चंदू बोर्डे, किरमानी और अन्य खिलाड़ी बंबई से
इलाहाबाद जा रहे थे। शिब्बू दादा ने उनका स्वागत खोवे की जलेबी से किया और मनोहर
नायक ने पान पेश किए। इस स्वागत-सत्कार की खबर 'नवभारत'
में छपी।
फिल्म
अभिनेता प्रेमनाथ तो कई बार अपने गृह नगर जबलपुर की यात्रा के दौरान और वापस बंबई
जाते वक्त शिब्बू दादा से मिलने स्टेशन की टिकट खिड़की पर पहुंच जाया करते थे। एक
बार बचपन में ऋषि कपूर अपने भाई बहिनों व मां कृष्णा कपूर के साथ ननिहाल आए तो
शिब्बू दादा उनको टिकट खिड़की पर ले आए और उनका स्वागत दादा स्टाइल में किया गया।
प्रेमनाथ की अंतरंगता के कारण जबलपुर में एम्पायर टॉकीज के बाजू वाले बंगले में कई
बार शिब्बू दादा की गीत संगीत की महफ़िलें जमीं।
शिब्बू
दादा की मित्रता जबलपुर तक सीमित नहीं थी। उनके मित्र बंबई के टेस्ट क्रिकेट
अम्पायर अहमद मोहम्मद मामसा हुआ करते थे। बंबई में जब भी टेस्ट मैच होता तो
एम्पायर मामसा के सौजन्य से शिब्बू दादा पूरी तैयारी से पांच दिनों के लिए बंबई
पहुंच जाते। उनके एक दोस्त मानिकपुर के स्टेशन मास्टर थे। वह भी उनके साथ कई बंबई
दौरे में साथ हो लिया करते थे।
किसी
भी खेल के मैच का लुफ्त उठाने के साथ साथ शिब्बू दादा फिल्म देखने के शौकीन थे
खासतौर से राज कपूर की फिल्मों के। किसी भी शहर जाते तो वहां कोई न कोई फिल्म
ज़रूर देखते। एक बार जबलपुर के हजारी परिवार की बारात में झांसी गए। साथ में आदत
के मुताबिक युवा साथियों को साथ ले जाने की बात हुई लेकिन इस शर्त के साथ कि उनके
साथ दो ही लोग जाएंगे। बारात में शिब्बू दादा के साथ उनके पसंदीदा मनोहर नायक व
अशेष गुरू गए। जबलपुर से बारात अगले दिन झांसी पहुंच गई। रात में शादी थी,
सोचा तांगे से शहर भी घूम लिया जाए और दिन में कोई फिल्म भी देख ली
जाए। तांगे में झांसी शहर घूमते हुए हादसा यह हो गया कि अचानक घोड़ा बैठ गया और
बैठी सवारी पलट गईं। खैर कोई गंभीर घटना नहीं हुई और शिब्बू दादा व उनके दोनों
साथियों ने श्याम बेनेगल की 'अंकुर' देख
ली।
जिस समय जबलपुर में
शिब्बू दादा सुगम संगीत के शीर्ष पर थे उसी समय लुकमान का भी ढंका बज रहा था।
दोनों गायक एक दूसरे का सम्मान करते थे। दोनों गायकों की दुनिया अलग थी। लुकमान का
चयन अदबी था और शिब्बू दादा में सामान्य जन शामिल थे। लुकमान ''खास' के और शिब्बू दादा' आम'
के गायक थे। कहा जाता है कि जबलपुर की राजनीति में जो हैसियत भवानी
प्रसाद तिवारी ने अर्जित की थी वही हैसियत शिब्बू दादा ने जबलपुर के सुगम संगीत
क्षेत्र में हासिल की।
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