प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक व अभिनेता गुरू दत्त का आज 9 जुलाई को जन्मदिन है। इस प्रकार आज से गुरू दत्त के जन्म शताब्दी वर्ष की शुरुआत हो रही है। गुरू दत्त को उनकी फिल्म कागज के फूल, प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम, चौदहवीं का चांद के कारण याद किया जाता है। कागज़ के फूल पहली भारतीय सिनेमास्कोप फिल्म और गुरू दत्त द्वारा आधिकारिक रूप से निर्देशित अंतिम फ़िल्म है। कागज़ के फूल में गुरू दत्त के साथ वहीदा रहमान मुख्य भूमिका में थीं। कागज़ के फूल जबलपुर के सिनेमाघरों में प्रदर्शन के रोचक किस्से हैं। इन किस्सों का पूरा श्रेय एम्पायर टॉकीज के मैनेजर रहे दुर्गा प्रसाद (डीपी) बाजपेयी को है।
1959 में जब कागज़ के फूल रिलीज हुई तो यह जबलपुर के श्रीकृष्णा टॉकीज में प्रदर्शित हुई। उस समय फिल्म का विषय लोगों को पसंद नहीं आया और यह कहानी जबलपुर में दोहराई गई। पांच-सात दिन में ही फिल्म उतर गई और इसे जबलपुर के अंदरून इलाके की सुभाष टॉकीज में स्क्रीन मिली। यहां भी कागज़ के फूल मुश्किल से चार-पांच दिन ही चल पाई। जबलपुर में कागज़ के फूल जलगांव के वसंत पिक्चर्स के जरिए डिस्ट्रीब्यूट हुई थी।
दो टॉकीजों में असफल प्रदर्शन के बाद कागज़ के फूल को अपनी टॉकीज में लगाने का निर्णय जबलपुर के पॉश क्षेत्र में स्थित डिलाइट टॉकीज के प्रबंधन ने लिया। एम्पायर के साथ डिलाइट टॉकीज में प्राय: अंग्रेजी फिल्में प्रदर्शित होती थीं। सिनेमा के शौकीन चौंक गए। उन लोगों को समझ में नहीं आया कि डिलाइट टॉकीज में गुरू दत्त की फिल्म कागज़ के फूल को दो टॉकीज में उतारने के बाद पुन: लगाने का निर्णय क्यों लिया गया? खैर कागज़ के फूल डिलाइट टॉकीज में लगी। इसका प्रदर्शन कैसा रहा इसकी जानकारी देने के पूर्व यह जान लेना भी मुनासिब होगा कि उस समय यानी कि पांचवे दशक से छठे दशक तक जबलपुर में टॉकीजों में सिर्फ दो शो में ही फिल्म का प्रदर्शन होता था। पहला शो शाम को 6 से 9 का दूसरा शो 9-12 का रहता था। शनिवार व रविवार को कोई भी फिल्म मेटिनी शो में भी चलती थी।
डिलाइट टॉकीज में कागज़ के फूल पुन: लगाई गई। आप लोगों को आश्चर्य होगा कि डिलाइट टॉकीज में इस फिल्म ने श्रीकृष्णा व सुभाष टॉकीज की कुल टिकट खिड़की से ज्यादा की कमाई की। लोग चकित रह गए। वैसे कागज़ के फूल डिलाइट टॉकीज में लगभग एक सप्ताह से ज्यादा तक चली। डीपी बाजपेयी ने इसकी वजह बताई कि डिलाइट टॉकीज में फिल्म देखने वाला दर्शकों का वर्ग अलग तरह का था।
उस समय जबलपुर में जनसंख्या के हिसाब से हिन्दी फिल्मों के दर्शक सिर्फ एक-दो फीसदी थे। वहीं रीजनल यानी की क्षेत्रीय सिनेमा के दर्शकों की संख्या आबादी की दृष्टि से 10 फीसदी तक रहती थी। यदि तमिल फिल्म प्रदर्शित होती थी तो उस समय जबलपुर में रहने वाला पूरा तमिल समुदाय फिल्म को परिवार के साथ देखने ज़रूर जाता था। एम्पायर व डिलाइट टॉकीज में प्रदर्शित होने वाले रीजनल सिनेमा का अपना जलवा होता था।
जैसा कि पूर्व में बताया गया कि कागज़ के फूल प्रथम भारतीय सिनेमास्कोप फिल्म थी इसलिए फिल्म की रील के साथ डिस्ट्रीब्यूटर फिल्म प्रोजेक्शन के लिए सिनेमास्कोप के लेंस भेजते थे। एम्पायर व डिलाइट टॉकीज में प्राय: अंग्रेजी फिल्में लगती थीं और यह सिनेमास्कोप में रहती थी इसलिए दोनों टॉकीजों के पास स्वयं के सिनेमास्कोप लेंस हुआ करते थे। बाद के दिनों में एम्पायर टॉकीज प्रबंधन ने एक और लेंस खरीद लिया।
जबलपुर की टॉकीजों से जलगांव के डिस्ट्रीब्यूटर वसंत पिक्चर्स का गहरा संबंध रहा है। इसके मालिक चंदनमल लुंकड़ थे। बताया जाता है कि लुंकड़ परिवार का उस समय के लक्ष्मी बैंक के संचालन से नाता था। वसंत पिक्चर्स शुरु से श्रीकृष्णा व सुभाष टॉकीज किराये से चलाते थे। वसंत पिक्चर्स सीपी-बरार क्षेत्र के डिस्ट्रीब्यूटर थे। डिस्ट्रीब्यूटर और किराये से श्रीकृष्णा व सुभाष टॉकीज चलाने के कारण कागज़ के फूल इन सिनेमाघरों में लगी थी।
1980 के दशक में कागज़ के फूल फिल्म को एक कल्ट क्लासिक के रूप में पुनर्जीवित किया गया। इस बार भी डिस्ट्रीब्यूटर जलगांव के वसंत पिक्चर्स थे। एम्पायर टॉकीज के मैनेजर डीपी बाजपेयी कागज़ के फूल को एम्पायर टॉकीज में इसे रि-रिलीज करने का निर्णय लिया। वसंत पिक्चर्स और एम्पायर टॉकीज के बीच एग्रीमेंट हुआ जिसमें कागज़ के फूल को तीन-चार सप्ताह लगाने का जिक्र था। एम्पायर टॉकीज के मैनेजर डीपी बाजपेयी ने लौटती डाक से एग्रीमेंट भेजा लेकिन उसमें सुधार कर लिखा गया कि तीन-चार दिन तक फिल्म चलाने के लिए सहमत हैं। खैर बात यहां आकर सहमत हुई कि जितने भी दिन होगा कागज़ के फूल एम्पायर टॉकीज में चलेगी। एम्पायर टॉकीज में दोपहर 12 बजे के सिंगल शो में कागज़ के फूल को लगाया गया। फिल्म चली खूब चली। कहां बात सिर्फ तीन-चार दिन की थी कागज़ के फूल एम्पायर टॉकीज में चार सप्ताह तक चली। खूब कलेक्शन आया। दर्शकों ने कागज़ के फूल को खूब प्यार दिया। इससे पूर्व एम्पायर टॉकीज में गुरू दत्त की प्यासा भी रि-रिलीज में खूब चली थी। कागज़ के फूल फिल्मको भारत में बनी अब तक की सबसे बेहतरीन आत्म-चिंतनशील फिल्म माना जाता है।
वक़्त ने किया क्या हंसीं सितम
तुम रहे न तुम हम रहे न हम
वक़्त ने किया...
बेक़रार दिल इस तरह मिले
जिस तरह कभी हम जुदा न थे
तुम भी खो गए, हम भी खो गए
एक राह पर चलके दो क़दम
वक़्त ने किया...
जाएंगे कहाँ सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं दिल ख़्वाब दम-ब-दम
वक़्त ने किया...
डीपी बाजपेयी का कहना है कि जगत और जीवन का सत्य ही था- कागज़ के फूल।
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