ऊपर की कतरन जबलपुर से प्रकाशित दैनिक देशबन्धु के 1 अप्रैल के अंक में छपी हुई एक सिंगल कॉलम की खबर है। इस खबर के प्रकाशन के कई मायने हैं। पहला तो देशबन्धु के क्राइम बीट के रिपोर्टर ने अपनी ड्यूटी निभाते हुए जबलपुर की एक महिला डॉन चित्रा के निधन की खबर को लिखा है। उसकी जैसी समझ थी, उसने खबर को लिखा और समाचार पत्र में उसे प्रस्तुत किया गया। दूसरा क्या महिला डॉन के निधन को इतनी जगह देनी चाहिए ? देशबन्धु जैसे सरोकार वाले समाचार पत्र में किसी महिला डॉन के निधन और उसके कार्यों की अतिरंजित प्रस्तुति, यह सोचने को मजबूर करती है कि इसी समाचार पत्र को ग्रामीण पत्रकारिता के लिए एक बार नहीं, बल्कि कई बार स्टेट्समेन अवार्ड जैसे पुरस्कार मिल चुके हैं।
देशबन्धु में 'और दहाड़ हो गई शांत' शीर्षक से प्रकाशित समाचार का सार यह है कि जबलपुर की महिला डॉन चित्रा का बीमारी से निधन हो गया। वह पुलिस के लिए चुनौती थी और उसके निधन से सिंहनी जैसी दहाड़ भी शांत हो गई। उसने महिला होते हुए शहर में अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। अवैध महुआ से शराब बनाने वाली चित्रा ने पुलिस को नाकों चने चबाने विवश कर दिया था। बेधड़क कच्ची शराब का कारोबार करने वाली चित्रा पुलिस के लिए हमेशा सिरदर्द बनी रही और उसने पुलिस का डट कर मुकाबला किया। निधन की खबर सुन कर उसके घर में स्थानीय लोग व व्यापारियों का तांता लग गया।
देशबन्धु में प्रकाशित समाचार से यह बोध होता है कि जैसे चित्रा नाम की महिला डॉन महिलाओं के लिए एक आदर्श थी। उसने शायद लीक से हट कर कोई काम किया हो। जैसे स्वतंत्रता के पूर्व अंग्रेजों से डट कर मुकाबला किया जाता था, वैसे ही उसने पुलिस से मुकाबला किया। मुद्दा यह है कि समाज में किसी भले आदमी या स्वतंत्रता सेनानी के निधन के समाचार को क्या इतना स्थान मिलता है, जितना महिला डॉन चित्रा के निधन को स्थान मिला ? क्या नेक या अच्छे काम करने वाले के लिए समाचार पत्र में जगह नहीं बची ? लगता है कि टेलीविजन चैनलों की तरह यहां भी टीआरपी का चक्कर है या प्रिंट मीडिया में काम करने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्रभावित हो कर आपराधिक दुनिया को महिमा मंडित करने लगे हैं।
दरअसल देशबन्धु कभी भी मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ में बिक्री के मामले में नंबर वन नहीं रहा, लेकिन समाचारों की दृष्टि से उसे हर समय गंभीरता से लिया जाता रहा है। देशबन्धु ने सामाजिक सरोकारों को प्राथमिकता देते हुए खबरों का प्रस्तुतिकरण किया है। मुझे याद है कि लगभग 12-13 वर्ष पूर्व भोपाल के अग्रणी समाचार पत्र के संपादक ने कहा था कि यदि समाचार पढ़ना है, तो जबलपुर में देशबन्धु से बेहतर कोई समाचार पत्र नहीं है। 90 की शुरुआत में जब रमेश अग्रवाल समूह ने जबलपुर से नव-भास्कर निकाला, तब गिरीश अग्रवाल ने स्वीकारा था कि देशबन्धु का पेज मेकअप और ले-आउट सबसे अच्छा है। इस दृष्टि से देखें तो उपर्युक्त टिप्पणियां यह सिद्ध करती हैं कि देशबन्धु एक उत्कृष्ट स्तर के समाचार पत्र के रुप में मान्य था।
जबलपुर में देशबन्धु और युगधर्म पत्रकारिता के स्कूल माने जाते थे। दोनों समाचार पत्रों के संपादक स्वर्गीय मायाराम सुरजन (देशबन्धु) और भगवतीधर वाजपेयी (युगधर्म) जबलपुर की पत्रकारिता के पितृ के रुप में मान्य थे। देशबन्धु में कार्यरत कई पत्रकार वर्तमान में प्रदेश व देश के प्रमुख समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे हैं, इसकी सिर्फ एक वजह उनका देशबन्धु में कार्य करना रहा है। देशबन्धु रायपुर के संपादक ललित सुरजन को तो एक समय भारत के सबसे उदीयमान संपादक तक माना गया था। देशबन्धु जबलपुर में कार्य कर चुके राजेश पाण्डेय और राजेश उपाध्याय क्रमशः वर्तमान में नई दुनिया इंदौर और दैनिक भास्कर भोपाल जैसे संस्करणों के संपादक हैं।
7 अप्रैल से देशबन्धु का दिल्ली संस्करण शुरु हो रहा है। हो सकता है इससे वह राष्ट्रीय समाचार पत्रों में गिने जाने लगे, लेकिन इस प्रकार के समाचार उसकी प्रतिष्ठा को ही धूमिल करेंगे। हम सब जानते हैं कि देशबन्धु की एक उत्कृष्ट परंपरा रही है और क्षेत्रीय स्तर पर उसे एक मिसाल के रुप में देखा जाता है।
देशबन्धु में 'और दहाड़ हो गई शांत' शीर्षक से प्रकाशित समाचार का सार यह है कि जबलपुर की महिला डॉन चित्रा का बीमारी से निधन हो गया। वह पुलिस के लिए चुनौती थी और उसके निधन से सिंहनी जैसी दहाड़ भी शांत हो गई। उसने महिला होते हुए शहर में अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। अवैध महुआ से शराब बनाने वाली चित्रा ने पुलिस को नाकों चने चबाने विवश कर दिया था। बेधड़क कच्ची शराब का कारोबार करने वाली चित्रा पुलिस के लिए हमेशा सिरदर्द बनी रही और उसने पुलिस का डट कर मुकाबला किया। निधन की खबर सुन कर उसके घर में स्थानीय लोग व व्यापारियों का तांता लग गया।
देशबन्धु में प्रकाशित समाचार से यह बोध होता है कि जैसे चित्रा नाम की महिला डॉन महिलाओं के लिए एक आदर्श थी। उसने शायद लीक से हट कर कोई काम किया हो। जैसे स्वतंत्रता के पूर्व अंग्रेजों से डट कर मुकाबला किया जाता था, वैसे ही उसने पुलिस से मुकाबला किया। मुद्दा यह है कि समाज में किसी भले आदमी या स्वतंत्रता सेनानी के निधन के समाचार को क्या इतना स्थान मिलता है, जितना महिला डॉन चित्रा के निधन को स्थान मिला ? क्या नेक या अच्छे काम करने वाले के लिए समाचार पत्र में जगह नहीं बची ? लगता है कि टेलीविजन चैनलों की तरह यहां भी टीआरपी का चक्कर है या प्रिंट मीडिया में काम करने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्रभावित हो कर आपराधिक दुनिया को महिमा मंडित करने लगे हैं।
दरअसल देशबन्धु कभी भी मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ में बिक्री के मामले में नंबर वन नहीं रहा, लेकिन समाचारों की दृष्टि से उसे हर समय गंभीरता से लिया जाता रहा है। देशबन्धु ने सामाजिक सरोकारों को प्राथमिकता देते हुए खबरों का प्रस्तुतिकरण किया है। मुझे याद है कि लगभग 12-13 वर्ष पूर्व भोपाल के अग्रणी समाचार पत्र के संपादक ने कहा था कि यदि समाचार पढ़ना है, तो जबलपुर में देशबन्धु से बेहतर कोई समाचार पत्र नहीं है। 90 की शुरुआत में जब रमेश अग्रवाल समूह ने जबलपुर से नव-भास्कर निकाला, तब गिरीश अग्रवाल ने स्वीकारा था कि देशबन्धु का पेज मेकअप और ले-आउट सबसे अच्छा है। इस दृष्टि से देखें तो उपर्युक्त टिप्पणियां यह सिद्ध करती हैं कि देशबन्धु एक उत्कृष्ट स्तर के समाचार पत्र के रुप में मान्य था।
जबलपुर में देशबन्धु और युगधर्म पत्रकारिता के स्कूल माने जाते थे। दोनों समाचार पत्रों के संपादक स्वर्गीय मायाराम सुरजन (देशबन्धु) और भगवतीधर वाजपेयी (युगधर्म) जबलपुर की पत्रकारिता के पितृ के रुप में मान्य थे। देशबन्धु में कार्यरत कई पत्रकार वर्तमान में प्रदेश व देश के प्रमुख समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे हैं, इसकी सिर्फ एक वजह उनका देशबन्धु में कार्य करना रहा है। देशबन्धु रायपुर के संपादक ललित सुरजन को तो एक समय भारत के सबसे उदीयमान संपादक तक माना गया था। देशबन्धु जबलपुर में कार्य कर चुके राजेश पाण्डेय और राजेश उपाध्याय क्रमशः वर्तमान में नई दुनिया इंदौर और दैनिक भास्कर भोपाल जैसे संस्करणों के संपादक हैं।
7 अप्रैल से देशबन्धु का दिल्ली संस्करण शुरु हो रहा है। हो सकता है इससे वह राष्ट्रीय समाचार पत्रों में गिने जाने लगे, लेकिन इस प्रकार के समाचार उसकी प्रतिष्ठा को ही धूमिल करेंगे। हम सब जानते हैं कि देशबन्धु की एक उत्कृष्ट परंपरा रही है और क्षेत्रीय स्तर पर उसे एक मिसाल के रुप में देखा जाता है।
6 टिप्पणियां:
वाकई!!
कृपया इसे भी देखें
कलाम की "मुस्कान" और छत्तीसगढ़ के अखबार
अब प्रसार संख्या घटती जा रही है, देशबन्धु की। लेकिन मैने व्यक्तिगत तौर पर, इसे समाचारों के लिये निष्पक्ष पाया है।
इस कटिंग को दुखद तो नहीं कहना चाहिये, यह आज के जमाने की सोच को दर्शाता है।
दुनिया बदल गयी तो इन्होंने क्या ठेका ले रखा है, मुस्कान भरे समाचारों का?
सुनील कुमार जी का 'आजकल' बहुत याद आता है।
घूमता आईना, रायपुर डायरी, परसाई से पूछिये …
… और भी क्या-क्या, मत पूछिये
हम खुद जबलपुर के वासिंदे हैं..पहली बार नाम सुन रहे हैं बस मिडिया का खेल है वर्ना कौन जाने इन्हें.
पैदायशी ठेठ जबलपुरिया हम है जी मध्य क्षेत्र के ...ये चित्र जी कौन थी पहली बार पढ़ रहा हूँ खैर आपके आलेख की प्रशंसा तो करना होगी जो ...
शहर की तासीर भी है,कुछ पत्रकारिता की समझ कम है। कोई गुन्डा परेशान करे,तो सलाह मे उससे बडे गुन्डे का नाम मिलता है। वैसे मिडिया यह कह कर पल्ला ना झाडे कि लोग यही देखना,सुनना चाहते है,वो यह भी सौचे की लोगो को क्या देखना,सुनना चाहिऐ।
durbhaagy hai is desh kaa
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