रविवार, 26 फ़रवरी 2012

रंग कर्मियों के जत्थे उदास हैं



(रंगकर्मी, निर्देशक और कवि अलखनंदन का पिछले दिनों भोपाल में निधन हो गया। उनके संबंध में विख्यात साहित्यकार ज्ञानरंजन ने एक महत्वपूर्ण संस्मरण आलेख लिखा है। यह आलेख नागपुर से प्रकाशित लोकमत में 26 फरवरी को प्रकाशित हुआ है।)

रंगकर्मी, निर्देशक और कवि अलखनंदन ने चार दशकों तक निरंतर रंगकर्म करते हुए अनेक बेजोड़ नाटकों की प्रस्तुतियाँ देश भर में की हैं। उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सर्वोच्च सम्मान भी मिला जो इसी वर्ष मार्च में दिल्ली में दिया जाना था, पर मृत्यु ने इसे संभव नहीं होने दिया। इसी 12 फरवरी को मात्र 64 वर्ष की उम्र में, भोपाल में उनका निधन हुआ। देश और मध्यप्रदेश में इस निधन से रंग कर्मियों को गहरा आघात लगा है। उनके अपने रंग-मंडल के अनगिनत सदस्य और पूरा वक्ती कार्यकर्त्ता गहरे शोक में हैं। भोपाल के भारत-भवन से बाहर स्वतंत्र रूप से नाटकों का मंचन करना और श्रमजीवी तरीके से 'नट बुंदेले' नाम की रंग संस्था को राष्ट्रीय पहचान देना एक ऐसा चुनौतीपूर्ण काम था जिसे अलखनंदन ने बखूबी संगठित और संपादित किया। जबकि अपार साधनों के बावजूद भारत-भवन अपना रंगमंडल नहीं चला पाया। हम सभी जानते हैं कि हिन्दी में मौलिक नाटकों की लम्बी कमी, साधनों का अभाव, और घटते दर्शकों की परिस्थितियों के कारण निरंतर रंग-कर्म करना अब मुश्किलों भरा काम है। इसलिये अलखनंदन जैसे सक्रिय रंगकर्मी की मौत एक बड़ा सांस्कृतिक आघात है।


अलखनंदन मजबूत काठी के स्वस्थ और सकारात्मक व्यक्ति थे। शरीर पुखता और कसरती था। किशोर अवस्था से ही भारतीय भाषाओं के साहित्य और खासतौर पर लोक-नाट्‌य की पढ़ाई करने लगे थे। वे उदार वामपंथी थे, आत्महत्या के विरुद्ध थे, लेकिन आजीवन कठोर परिश्रम और रंगकर्म की लगातार रात-दिन जागती दिनचर्याओं और मुठभेड़ों ने उन्हें पता ही नहीं चला, धीरे-धीरे तोड़  दिया। उनके फेंफड़े तबाह हुए और चौबीस घंटों की आक्सीजन उन्हें लग गई। उन्हें 'फाइब्रोसिस ऑफ लंग्स' की बीमारी थी। उपचार बहुत हुआ पर चारागर हार गये। अलखनंदन 1948 में बिहार के लड़ाकू जिला भोजपुर में पैदा हुए और फरवरी 2012 में उनका निधन हुआ। बिहार से विस्थापित होकर वे छत्तीसगढ, सरगुजा और बुंदेलखण्ड के इलाकों में बार-बार जाते रहे। इन इलाकों से उनका गहरा लगाव और प्रेम था। उनकी समूची बुनावट में जो मिश्रण था वह इसी घुमंतू आचरण का परिणाम था। वे भोजपुरी बोलना कभी नहीं भूले, जबकि उनका अंतिम लेण्डस्केप बुंदेलखण्ड ही बना। जबलपुर आकर वे स्थिर हुए और प्राण प्रण से काम करना शुरू हुआ। उनकी काया में जो भाषा तैर रही थी वह संघर्षशील हिन्दी पट्टियों में ही तैयार हुई थी। अलखनंदन कुंभकार के चाक की तरह अविराम अपने जीवन को चलाते रहे। उन्होंने नाटक किये भी और लिखे भी।
भोजपुर से जबलपुर
मेरी अलखनंदन से मुलाकातें 1970 के आसपास शुरू हुईं। मुझे इलाहाबाद से आये 10 वर्ष हो चुके थे और जबलपुर शहर की आत्मा को हमने पकड़ लिया था। यही वह समय था जब अलख में नाटकों का कीड़ा पैदा हुआ। उसने आरंभिक दिनों में नौटंकी, रामलीलाएं खूब देखीं और आधुनिक नाटकों की तरफ उसका रुझान बढ ने लगा था। वह चौबीस घंटा बेचैन प्राणी था और नींद में भी संवाद बोलते-बोलते उठ बैठता था। वह सतपुला (जबलपुर का एक अंचल जहां से आर्डिनेंस फेक्ट्री इस्टेट द्याुरू होती थी और जहां श्रमिकों के क्वार्टर्स भी थे) से शहर के मध्य तक हांफता हुआ, मिलन की उतावलियों के साथ, युवकों की तरह कभी सायकिल से कभी पैदल आता जाता था। बीच में कभी घमापुर में कहानीकार राजेन्द्र दानी से भी बैठक करता था। उसकी आवारगी सोद्देश थी। शामों का वार्तालाप, मित्र मिलन, कार्य-योजनाएं, देर रात तक नाटकों का पाठ, रिहर्सल आदि होते रहते थे। उस समय तक नई पीढ़ी पर हरिशंकर परसाई का जादू चढ़ ने लगा था। विनोद कुमार शुक्ल और नरेश सक्सेना को शहर छोड़ कर गये हुए लगभग एक दशक हो रहा था। मुक्तिबोध की मृत्यु हो चुकी थी, लेकिन उनके सृजन का साया शहर पर जबरदस्त रूप से मंडरा रहा था। परसाई की उपस्थिति और मुक्तिबोध की अनुपस्थिति ने छात्रों, अध्यापकों, लेखकों, पत्रकारों और रंग-कर्मियों को उत्तेजित किया हुआ था। भोजपुर के बाद एक नया अलखनंदन जबलपुर में पैदा हो रहा था। तीस साल वह जबलपुर में रहा और तीस साल भोपाल में। शुरूआत उसकी जबलपुर में हुई और अंत भोपाल में। राजधानी में, सर्वसाधारण से जुड़े रंग-कर्म और लोकप्रिय रंगमंच की वजह से वह नाटक के संसार का सिरमौर बना और मुखयमंत्री, संस्कृति मंत्री को भी उसका गुणगान करना पड़ा। जबकि उसकी शवयात्रा में अभिनेता, राजनैतिक-सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता, लेखक, दर्शक, स्तंभकार और हिन्दी-उर्दू की दुनिया के बहुत से लोग शामिल थे।
कारंत का साथ
मेरी मुलाकातें उससे सातवें-आठवें दशक में खूब हुईं और जल्दी ही हम एक दूसरे के साथी हो गये। उसके भीतर मुझे अपना आवारापन नज़र आता था। इलाहाबाद से उखड़  जाने के बाद मैं जबलपुर में अपने ठिकाने बना रहा था। उन दिनों जबलपुर बहुत ही खूबसूरत और शानदार था, सांस्कृतिक रूप से खूब सम्पन्न। इसी वजह से मैं एक आंशिक कम्यूनिस्ट बन सका। हमने मिल-जुलकर विवेचना जैसी रंग-संस्था का निर्माण किया, जिसने अब अपनी कीर्ति के 50 वर्ष पूरे कर लिये हैं। इसी समय अलखनंदन एक पक्का युवक हुआ और उसने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ  के लोक-नाट्‌यों, लोक-संगीत का गहरा अध्ययन कर लिया था, जिस वजह से बाद में वह अपने रंगमंच पर काव्यात्मक-बिंबों की रचना और लोकतत्वों का पनराविष्कार और नवाचार के लिये चर्चित हो सका। इसी आधारभूमि की वजह से अलखनंदन को भारत-भवन में रहते हुए कारंत जैसे विश्वविख्यात निर्देशक का न केवल साथ मिला बल्कि उनके माहिर रंग-संगीत का अनुभव भी मिला। विदित हो कि भारत-भवन के रंगमंडल में अलखनंदन आठ सालों तक ब. व. कारंत के सहायक निर्देशक रहे। कारंत के बाद अलख सर्वोच्च निर्देशक पद पर जाने के लिये पूरी योग्यता रखने बावजूद उससे इसलिये वंचित रहे कि उन दिनों के एक जाने-माने संस्कृति-जार ने ऐसी संभावना से उन्हें वंचित कर दिया।

जबलपुरिया शुरुआत
सातवें दशक के अंतिम दौर में जबलपुर की अपनी रक्षा-मंत्रालय की अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर पूरा वक्ती रंग कर्म करने की बात अलख मुझसे हमेशा करते थे। मैं उन्हें रोकता था पर वे नहीं माने। उन्होंने चुपचाप अंतिम निर्णय कर लिया। अलखनंदन एक बेचैन, मेहनती और जिद्दी आदमी था। निर्णय में उसकी भावुकता नहीं थी, मेरे रोकने में जरूर थी। कुछ ही दिनों पहले जबलपुर में पंकज स्वामी को एक साक्षात्कार देते हुए, अलख ने कहा था कि अगर मुझे 250 वर्ष का जीवन मिले तो उतने ही समय तक रंग कर्म करते हुए थकूंगा नहीं। इसलिये उसने नौकरी छोड़  दी और आजाद हो गया। वह बिल्कुल निडर था और लक्ष्यभेद के लिये तत्पर था। बाद में उसने भोपाल के एक बड़े उर्दू शायर फज्ल ताविश के नाटक 'डरा हुआ आदमी' की शानदार यादगार प्रस्तुति की और जबलपुर में भी 'विवेचना' ने इसका मंचन किया।
जहां तक मुझे याद आता है अलखनंदन की जबलपुरिया शुरूआत एक नुक्कड़ नाटक से हुई - 'जैसे हम लोग'। इसे हिन्दी के कथाकार शशांक ने लिखा था। शशांक तब मनोविज्ञान के छात्र थे और उन्हें इस नाटक को समय पर लिख देने के लिये मैंने एक कमरे में बंद कर दिया था। एक स्थानीय रंग-संस्था 'कचनार' के लिये अलख ने मशहूर नाटकों, 'रंग गंधर्व' और 'तीन अपाहिज' का निर्देशन किया। विवेचना के साथ उन्होंने 'दुलारी बाई', 'बकरी', 'इकतारे की आँख', 'बहुत बड़ा सवाल', और 'वेटिंग फॉर द गोडो' जैसे बड़े नाटक किये और इन नाटकों ने खूब धूम मचाई। इसी दौरान अलख ने धमतरी, रायपुर, बिलासपुर और बाद में अम्बिकापुर, रायगढ  में ऐसी कार्यशालाएं कीं जिनसे स्थानीय रंगकर्मी उभर कर आ सके। आज भी वे नाटक के जीते-जागते केन्द्र बने हुए हैं। यह 1975 से 1980 का समय था।
राष्ट्रीय पहचान
अलख के जीवन का दूसरा दौर उसकी राष्ट्रीय पहचान का है, जिसमें वह जबलपुर से भोपाल प्रवास पर गया और प्रमुखतः वहीं रह गया। उस समय भारत-भवन में रंगमंडल का ताना-बाना बुना जा रहा था और अलख उसके संस्थापकों, निर्माताओं में एक प्रमुख व्यक्ति था। उसने लगभग आठ वर्ष तो देश के विख्यात और महान रंगशिल्पी ब. व. कारंत के साथ ही काम किया। कुल 16 वर्ष अलखनंदन भारत भवन में रहा। उसने 'आधे अधूरे', 'क्लर्क की मौत', 'आगरा बाज़ार', 'शस्त्र संतान', 'चंदा बेड़नी', 'ताम्र पत्र', 'जगर मगर अंधेर नगर' और 'चारपाई' जैसे सफल नाटकों की प्रस्तुति की। मोहन राकेश, रामेश्वर प्रेम, हबीब तनवीर, त्रिपुरारी शर्मा और मणि मधुकर के नाटकों के अलावा उसने स्वयं के भी नाटक किये। उसका एक खास काम यह था कि उसने बच्चों के लिये 10 से अधिक नाटकों की परिकल्पना की और उनका मंचन किया, करवाया। एशिया कविता समारोह में उसने श्रीकांत वर्मा के 'मगध' की नाट्‌य प्रस्तुति की थी, जिसे खूब सराहना मिली। उसने बेंगलुरू में उर्दू थियेटर की स्थापना की और २० साल तक देश के बड़े नाट्‌य समारोहों में यादगार प्रस्तुतियाँ भी उसके खाते में हैं।

नट बुंदेले का अवदान
भारत भवन से मुक्त होने से पहले ही उसने एक नाटक टुकड़ी 'नट बुंदेले' की स्थापना कर ली थी, जिसमें वह शेष जीवन काम करता रहा। यही उसका मौलिक दस्ता था। वह लगातार कविताएं लिख रहा था। उसके दो-तीन संग्रह आये, पहला कविता संग्रह 2003 में आया था, जिसका नाम 'घर नहीं पहुँच पाता' था। वह अपने नाटकों में कविताओं का प्रयोग अक्सर करता था। उसके एक नाटक में मुक्तिबोध की एक कविता का पाठ मैंने भी किया था।

अलखनंदन ने जब 'ताम्र पत्र', नट बुंदेले के बैनर पर किया तब वह रंग भाषा में एक सृजनात्मक मुठभेड  करने की क्षमता पैदा कर चुका था। उसका कद इतना बड़ा हुआ कि उसके एक नाटक 'महानिर्वाण' में खुद ब. व. कारंत ने एक अभिनेता की हैसियत से काम किया। यह 1994-95 की घटना है। भोपाल गैस त्रासदी पर उसके नाटक 'बांझ घाटी' के समय विख्यात अभिनेत्री विभा मिश्रा से उसका गहरा विवाद भी हुआ। उसने अरुण पांडे, सीताराम सोनी, राजेन्द्र कामले, गौरीशंकर यादव, अजय घोष, आलोक चटर्जी, तपन बेनर्जी, इरफान सौरभ और रंजना भट्ट जैसे बड़े अभिनेता थियेटर की दुनिया को दिये और बसंत काशीकर जैसे युवा रंग निर्देशक को गहरी प्रेरणाएं।
अलखनंदन को शिखर सम्मान, संगीत नाटक अकादमी का शीर्ष राष्ट्रीय सम्मान, हबीब तनवीर सम्मान, स्पंदन पुरस्कार और नरसी सम्मान आदि अनेक सम्मान मिले। पर उसका वास्तविक सम्मान रंग जनों के भीतर था। कहते हैं कि वह भोपाल शहर में होने वाला, भरसक, हर नाटक देखता था। भारत भवन में उसके लिये एक कुर्सी सदैव खाली रहती थी। वह नाटक देखता और चुपचाप लौट जाता था। वह तत्काल प्रतिक्रिया नहीं देता था। जिस दिन यह कुर्सी खाली रह जाती थी, इसका मतलब होता था कि अलखनंदन भोपाल में नहीं है। अब यह कुर्सी सदैव खाली रहेगी।

2 टिप्‍पणियां:

तिथि दानी ने कहा…

आगे आने वाले समय में भी अलख अंकल का रंगकर्म प्रेरणास्पद रहेगा। तिथि दानी

तिथि दानी ने कहा…

आगे आने वाले समय में भी अलख अंकल का रंगकर्म प्रेरणास्पद रहेगा। तिथि दानी

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