शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

सुनते हैं इश्क नाम के गुजरे हैं इक बुजुर्ग हम लोग भी फकीर उसी स‍िलसिले के हैं


जुलाई माह के आते ही कई लोगों की याद आने लगती है। ऐसे ही लोगों में सदा एक सी साधारण वेशभूषा, पजायमा और पूरी बांह की कमीज में नज़र आने वाले शेख लुकमान भी हैं। 27 जुलाई को उनकी पुण्यत‍िथ‍ि है। हमने क्या जबलपुर ने लुकमान की महत्ता को कभी समझा नहीं। शायद इसका कारण लुकमान का सीधा-सादा जीवन, सहज सम्पर्क और गायन में व्यावसाय‍िक तेवर का नहीं होना रहा हो। यद‍ि इन्हीं को वे अपनी व‍िशेषताएं बना लेते तो संभवत: भौत‍िक रूप से लुकमान समृद्ध होते। उन्होंने भौतिक संपन्नता के स्थान पर लुकमान ने हर समय दिल की संतुष्ट‍ि को वरीयता दी। यही एक ऐसा ब‍िंदु है, जो उन्हें दूसरों से अलग द‍िखाता है। उनको गुजरे अठारह वर्ष बीत गए, लेक‍िन चाहने वाले आज भी उनकी चर्चा करते हैं। रह रह कर लुकमान याद आते हैं।
शेख लुकमान मूलत: जबलपुर के थे। दो बहिन-दो भाईयों के परिवार में दूसरे नंबर के लुकमान को बचपन से ही गाने-गुनगुनाने का शौक था। यह बात उनके बेहद करीब के लोग जानते थे। जबलपुर के उपनगर गढ़ा में उनके एक दोस्त के यहां शादी हो रही थी। सेहरा पढ़ने के बाद नित्यरंजन पाठक की कव्वाली हुई। इसी महफ‍िल में दुर्गा गुरू (त‍िवारी) और एडवोकेट अब्दुल वहाब  भी मौजूद थे। जैसी ही नित्यरंजन पाठक की कव्वाली खत्म हुई, एडवोकेट वहाब के इशारे पर दुर्गा गुरू ने लुकमान से कुछ सुनाने की फरमाइश की। सभी लोगों के जोर देने पर पहले लुकमान थोड़े शर्माये और झ‍िझके। लेकिन जैसे ही उन्होंने ‘’तमन्ना के गुंचे ख‍िले जा रहे हैं, बहार आ रही है क‍ि वह आ रहे हैं’’ ग़ज़ल पेश तो लोग दीवाने हो गए। इसके बाद लुकमान सारी रात सुनाते रहे, और लोग सुनते रहे। फ‍िर जो स‍िलस‍िला शुरू हुआ वह लगभग 55 वर्ष तक जारी रहा। लुकमान जिस महफ‍िल में गायें और वह सुबह तक न चले, ऐसा बहुत ही कम हुआ।
इसके बाद दुर्गा गुरू महफ‍िलों में लुकमान को ले जाते रहे और लुकमान वहां गा कर लोगों के दिलोंद‍िमाग पर छाते रहे। एडवोकेट वहाब के बुलावे पर लुकमान मुहर्रम का मर्स‍िया पढ़ने गए। उन्हीं द‍िनों प्रस‍िद्ध साह‍ित्यकार भवानी प्रसाद त‍िवारी के यहां भी साह‍ित्य व संगीत की बैठकें जमा करती थीं। अब्दुल वहाब और भवानी प्रसाद त‍िवारी पर‍िचित थे। एक दिन वहाब साहब लुकमान को उनके घर ले गए। उस दिन की भवानी प्रसाद त‍िवारी की संगीत बैठक में एक शास्त्रीय गायक अपनी प्रस्तुति दे रहे थे। उस वक्त लुकमान के साथ सुरेन्द्र शुक्ल (अंतरराष्ट्रीय हॉकी रैफरी जिन्हें सब सुक्खन दादा के नाम से ज्यादा जानते थे) भी वहां मौजूद थे। भवानी प्रसाद त‍िवारी जरूरी काम के कारण उस समय वहां नहीं थे। जैसे ही शास्त्रीय गायक ने अपना गायन समाप्त क‍िया, वहां उपस्थि‍त लोगों ने लुकमान से गाने की फरमाइश की। साहित्य व कला के द‍िग्गज लोगों को देख कर लुकमान थोड़ा सहमे। लुकमान ने कहा-शुरू करता हूं, लेक‍िन मज़ाक नहीं उड़ाइयेगा।‘’ लुकमान ने बिना क‍िसी संगीत के वहजाद लखनवी की ग़ज़ल-‘’मस्ती नवाज साखी अंदाज काफ‍िराना, जुल्फें स‍िया घटाएं आंखें शराबखाना’’ सुनाई  तो सुनने वालों को महसूस हुआ क‍ि जैसे एक ताजा झोंका आया हो। कुछ ही देर में भवानी प्रसाद त‍िवारी वहां आ गए। महफ‍िल में मौजूद लोगों ने तिवारी जी को लुकमान की गायकी का अंदाज बयां क‍िया। लुकमान ने उन्हें पहली ग़ज़ल फ‍िर सुनायी। सुन कर भवानी प्रसाद त‍िवारी ने कहा कि अब इससे ऊंची ही बात रहे। यह महफ‍िल भी रात भर चलती रही।
लुकमान ने बताया क‍ि इस घटना के बाद तो जैसे दरवाजा ही खुल गया। भवानी प्रसाद त‍िवारी के यहां होने वाली हर हफ्ते कह शनिवारी रात की महफ‍िल में लुकमान की उपस्थि‍त‍ि और उनका गायन एक परम्परा बन गई। भवानी प्रसाद त‍िवारी के यहां उन दिनों आने वालों में केशव प्रसाद पाठक, रामानुजलाल श्रीवास्तव ऊंट’, रामेश्वर प्रसाद गुरू, गणेश प्रसाद नायक, पन्नालाल श्रीवास्तव नूर’, प्रेमचंद श्रीवास्तव मज़हर’, नर्मदा प्रसाद खरे जैसे साहित्यकारों के साथ कई युवा पत्रकार और समाजवादी शामिल थे। लुकमान भवानी प्रसाद त‍िवारी से म‍िलने और उनके यहां होने वाली महफ‍िलों में गाने को अपनी जिंदगी का महत्वपूर्ण मोड़ मानते थे।
लुकमान ने हिन्दी गीत और प्रस‍िद्ध कवियों व साह‍ित्यकारों के पद्य को गीत के रूप में कैसे गाना शुरू क‍िया, इसकी भी एक द‍िलचस्प कहानी है। क‍िसी महफ‍िल में एक बार क‍िसी सज्जन ने कहा कि हिन्दी में सुनाइए। इस पर वहीं बैठे व्यक्त‍ि ने कहा कि हिन्दी में रखा क्या है। दोनों व्यक्त‍ियों की बात सुन कर लुकमान दुखी हो गए। उन्हें लगा क‍ि हिन्दी जैसी भाषा को ले कर इससे अपमानजनक बात और क्या हो सकती है। उन्होंने तुरंत न‍िश्चय क‍िया क‍ि वे हिन्दी गीत भी गायेंगे। उर्दू में श‍िक्ष‍ित होने के कारण लुकमान हिन्दी पढ़ने में उस समय थोड़े कमजोर थे। लुकमान ने अपनी दोनों पीड़ाएं सुक्खन दादा को बतायीं। सुक्खन दादा ने लुकमान को नीरज का एक गीत-‘’व‍िरह रो रहा है, म‍िलन गा रहा है, क‍िसे याद रखूं, क‍िसे भूल जाऊं’’ द‍िया। इसे लुकमान ने उर्दू में लिपिबद्ध क‍िया और दस-बारह दिनों की कड़ी मेहनत और अभ्यास के बाद भवानी प्रसाद तिवारी के घर में जमने वाली महफ‍िल में प्रस्तुत क‍िया। गीत की प्रस्तुति के पश्चात् त‍िवारी जी ने लुकमान को हिन्दी उच्चारण के संबंध में कुछ सलाहें भी दीं। इस हिन्दी गीत से लुकमान को एक नया रंग मिला और द‍िशा भी मिली।
कवि नीरज के गीत गा कर लुकमान उत्साह‍ित हुए और उन्होंने भवानी प्रसाद त‍िवारी से उनकी रचनाओं को संगीतबद्ध कर के गाने की इच्छा व्यक्त की। लुकमान की इच्छा का सम्मान करते हुए भवानी प्रसाद त‍िवारी ने उन्हेें अपनी पुस्तक प्राण पूजादी। इस पुस्तक के पहले गीत प्यार न बांधा जाये साथी को लुकमान ने गाया। गीत को तैयार करने में लुकमान को 16 दिन लगे, क्योंक‍ि अलफाज प्रांजल हिन्दी के थे। लुकमान के गाए गीत को सुन कर पंड‍ित जी यानी क‍ि भवानी प्रसाद त‍िवारी सजल हो गए। लुकमान ने उनके गीतों का पहले भावार्थ जाना, फ‍िर उन्हें गाया। लुकमान ने धीरे-धीरे महफ‍िलों और संगीत कार्यक्रमों में भवानी प्रसाद त‍िवारी के गीतों को प्रस्तुत करना  शुरू क‍िया। लुकमान जब उनके गीत माटी की गगर‍िया प्रस्तुत करते थे, तो श्रोता झूम उठते थे। यह गीत आज भी अत्यंत लोकप्र‍िय है। इसी तरह रामानुजलाल श्रीवास्तव ऊंट के गीत ‘’ ये मस्त चला इस बस्ती से, थोड़ी-थोड़ी मस्ती ले लो, उसने तो ली सब कुछ दे कर, पर तुम थोड़ी सस्ती ले लो’’ लुकमान ने बखूबी लयबद्ध कर प्रस्तुत क‍िया जो क‍ि हर महफि‍ल में श्रोता सुनना चाहते थे।  
छठे-सातवें दशक में लुकमान के साथ ढोलक पर गुलशेर और गायन में रमजान, हमीद और अब्दुल समद साथ देते थे। हारमोन‍ियम स्वयं लुकमान बजाते थे। लुकमान के जीवित रहने तक अब्दुल समद को छोड़ कर शेष सभी की मृत्यु हो चुकी थी। लुकमान ने हारमोन‍ियम बजाना सुंदरलाल सोनी से सीखा था। सुंदरलाल सोनी ने उन्हें जो गाते हो वही बजाओ का गुरूमंत्र दे कर हारमोन‍ियम बजाना स‍िखाया। कुछ ही दिनों में लुकमान ने हारमोन‍ियम सीख कर अपने गानों में नयी तासीर पैदा कर दी।
भवानी प्रसाद त‍िवारी के यहां से उनके चर्चे जबलपुर के बाहर बनारस, इलाहाबाद, कानपुर तक जा पहुंचे। बनारस में मालवीय जयंती में लुकमान की ग़ज़लों और कव्वाली से समा बांध द‍िया। भवानी प्रसाद त‍िवारी का घर, उनके यहां की महफ‍िलें और लुकमान का साथ अटूट रहा। एक बार त‍िवारी जी के यहां महादेवी वर्मा के गीत ‘’बीन भी हूं तुम्हारी रागिनी भी हूं’’ संगीतबद्ध कर प्रस्तुत क‍िया। सुन कर भवानी प्रसाद त‍िवारी सहित सभी लोगों ने तारीफ की और अचरज भी करने लगे। इसके बाद लुकमान ने महादेवी वर्मा के गीत चिर सजग आंखें, उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना, जाग तुझको दूर जाना गाया। इस गीत को लुकमान की आवाज में सुन कर मंच के बेताज बादशाह माने वाले केशव पाठक भी वाह-वाह कर उठे।
लुकमान हिन्दी में गीत गाने के पीछे इस मुद्दे को भी मजबूती के साथ रखते थे क‍ि उर्दू वालों को भी मालूम हो क‍ि हिन्दी में भी कुछ है। लुकमान हिन्दी के साथ-साथ सरल उर्दू शब्दों का गायन में प्रयोग करते थे, जिससे आम आदमी तक संगीत पहुंचे। वे हिन्दी गीतों को उर्दू में ल‍िप‍िबद्ध कर के गाते थे। गीतों व कव्वाली को संगीतबद्ध करने या कंपोज करने को ऊपर वाले (खुदा) का आशीर्वाद मानते थे। जब भी उनके दिमाग में कुछ कौंधता, उसे वे तुरंत कंपोज कर लेते। लुकमान शेरो-शायरी को खुशामद की नहीं आमद की मानते थे। वे कहा करते थे क‍ि गीतकार ने जिस फ़‍िजां में ल‍िखा है, उसे कायम रहना चाह‍िए। लुकमान नवगीत और नयी कविता की तरह ग़ज़ल और शेरो-शायरी में प्रयोगवाद‍िता अपनाने पर जोर देते थे।
लुकमान के स‍िर्फ एक शार्ग‍िद थे, लेकिन उनके पाक‍िस्तान चले जाने से लुकमान इतने नाराज़ हुए क‍ि उन्होंने उनके इस गमन को नमकहरामी तक कहा डाला। इसके बहुत वर्षों बाद लुकमान ने सुशांत दुबे को अपना शार्ग‍िद बनाया था। इस दौरान लुकमान के साथ ढोलक पर कुबेरलाल और तबले पर शेषाद्र‍ि अय्यर संगत करते रहे और गाते भी रहे। लुकमान नौकरी से लौटने के बाद रोज शाम को घर में ही रियाज क‍िया करते थे। बाद के द‍िनों में रियाज में न‍ियमितता नहीं रही। इसका कारण उनकी स्वयं की सेहत और संगतकारों की न‍िजी व्यस्तताएं रहीं।
लुकमान ज्यादातर जबलपुर के रचनाकारों की ग़ज़लें व गीत गाते थे। इसका कारण वे बाहर के लोगों को बताना चाहते थे क‍ि जबलपुर के रचनाकारों की रचनाएं क‍ितनी सशक्त व मधुर हैं। वे उर्दू में केशव पाठक, नदीम, नूर, मजहर, विनोद श्रीवास्तव खस्ता’, अब्दुल मज़ीद नश्तर, सीमाब अकबराबादी (अल्लामा अश‍िक हुसैन), जिगर मुरादाबादी, फ‍िराक गोरखपुरी, जमील अख्तर नज्मी और दुष्यंत की ग़ज़लें व कलाम प्रस्तुत करते रहे। हिन्दी गीतकारों में वे रामावतार त्यागी, मंजूर मयंक, गोपाल स‍िंह नेपाली, राजकुमार सुमित्र के गीत गाते थे।
लुकमान के तीन पुत्र हैं। उन्होंने काम-धंधों में उलझने के कारण कभी गायन में आने की इच्छा नहीं द‍िखायी। लुकमान भी मानते थे क‍ि जीने का संघर्ष पहले और संगीत इसके बाद। स्वयं के प्रश्न पर उनका कहना रहता था क‍ि उन्होंने तो इसे चला लिया, लेकिन आज के ज़माने में यह संभव नहीं।
लुकमान को रामकथा मर्मज्ञ पंड‍ित रामक‍िंकर उपाध्याय, स्वामी अखंडानंद और शंकराचार्य स्वरूपानंद का स्नेह म‍िला और उनके समक्ष गाने का मौका म‍िला। जब भी एमएलबी स्कूल प्रांगण में रामक‍िंकर उपाध्याय के प्रवचन होते तब लुकमान नियम‍ित रूप से प्रचवन सुनने जाया करते।
लुकमान क‍िसी बंधन में फंसना नहीं चाहते थे इसलिए न तो उनके कैसेट निकले और न ही उन्हें आकाशवाणी के कांट्रेक्ट रास आए। वे गुरू-श‍िष्य परम्परा को विकसित करने के हिमायती थे। वे कहते थे क‍ि सीखने वालों में गुरू को द‍िलचस्पी रखना चाहिए और श‍िष्य को भी ईमानदारी से सीखना चाहिए।
‘’ला साक‍िया सागर, ला प‍िला.. गो क‍ि मेरी आदत नहीं, फ‍िर भी दिल की है ये हसरत मय का पी जाऊं समन्दर, ला प‍िला साक‍िया.. सुनाने वाले लुकमान ने कभी शराब को मुंह नहीं लगाया। उनका एक ही नशा था। हर दो तीन ग़ज़लों के बाद एक प्याली चाय और बीड़ी। कभी कभार कुछ दाद देने वाले  अति उत्साह व नशे की झोंक में जब महफ‍िल की शालीनता भंग करने लगते तो लुकमान हारमोन‍ियम पर से अपनी अंगुलि‍यां हटा कर चुप हो कर बैठ जाते थे। तक कुछ ही देर में गंभीर श्रोताओं की समझाइश पर या खुद की अपनी गफलत पर शर्म‍िंदा हो कर वे शांत हो जाते और सब कुछ मर्याद‍ित हो जाता।     
लुकमान संगीत के प्रत‍ि इतने समर्प‍ित और खुद के प्रति इतने फक्कड़ रहे क‍ि उन्होंने लम्बे समय तक मेहनताने के बारे में कभी नहीं सोचा। वह तो भला हो भवानी प्रसाद त‍िवारी का, क‍ि अनेक बार लुकमान को सुनते-सुनते एक बार न जाने क्या सोचा क‍ि जेब में कुछ रकम रख दी। वरना जलसों, महफ‍िलों में भाव के बंधे लुकमान गाते चले जाते थे, रात भर और अलसुबह लौटते केवल वाहवाही का खजाना ले कर। कुछ ऐसा उनकी मृत्युपर्यंत तक चलता रहा। सिर्फ तारीख बता दें, लुकमान हाजि‍र हो जाते। होलिका दहन की रात्र‍ि में सदर के मोदीबाड़ा और धुरेड़ी की रात में भवानी प्रसाद त‍िवारी के बंगले में उनका कार्यक्रम निश्च‍ित रूप से हुआ करता था।   
लुकमान के एक चाहने वाले चंद्रशेखर अग्रवाल द‍िल्ली में उनका प्रोग्राम करवाना चाहते थे। बार-बार चिट्ठी  ल‍िखी। लेकिन लुकमान क‍िसी न क‍िसी कारण से द‍िल्ली न जा पाये। जब चंद्रशेखर अग्रवाल ने एक च‍िट्ठी में नाता तोड़ने की धमकी दी तो लुकमान को द‍िल्ली जाना पड़ा। और फ‍िर क्या था, द‍िल्ली वाले लुकमान का गायन सुन कर उनके दीवाने हो गये। लुकमान ने छठे-सातवें दशक में इतना नाम कमाया क‍ि जबलपुर की कुछ प्रसि‍द्ध चीजों में लुकमान कव्वाल भी एक थे। लुकमान ने जीवन में जो भी कुछ क‍िया उससे संतुष्ट रहे। उन्हें इस बात का भी गर्व रहा क‍ि उन्हें पर‍िवारों ने चाहे वह हिन्दु या मुस्ल‍िम रहे हों-नाना, दादा, कक्का, चच्चा, मामा, भाई और एक पार‍िवार‍िक सदस्य के रूप में देखा व सम्मान द‍िया।
लुकमान महफ‍िल के समापन पर ये गीत सुनाया करते थे-
‘’ऐसी क्या बात है, चलता हूं अभी चलता हूं,
गीत एक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं ऐसी क्या बात है,
धूल इस धरती की माथे पर लगा लूं तो चलूं ऐसी क्या बात है।‘’




2 टिप्‍पणियां:

बवाल ने कहा…

गुलुष जी आपने वास्तव में उस्ताद जी की जीवनी बहुत ही सुन्दर अंदाज़ में प्रस्तुत की। आपका लेखनी की जय हो। लुक़मान साब अमर रहें।

बवाल ने कहा…

गुलुष जी आपने वास्तव में उस्ताद जी की जीवनी बहुत ही सुन्दर अंदाज़ में प्रस्तुत की। आपकी लेखनी की जय हो। लुक़मान साब अमर रहें।

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