गुरुवार, 10 सितंबर 2020

द्वार‍िका प्रसाद म‍िश्र: सत्ता की चमक, सत्ता का नशा

  •  मनोहर नायक 

द्वारिका प्रसाद मिश्र का स्वतंत्रता सेनानी और उस दौर के बड़े नेता के तौर पर आदर रहा है... लेकिन लोकल पैट्रीअटिज़म (patriotism) के नाम पर कसीदे पढ़े जाना उचित नहीं है, तर्कसंगत और संतुलित होना और ज़रूरी है। कांग्रेस सदैव मध्यमार्गी पार्टी के बनिस्बत एक जमावड़ा रही है, जिसमें धुर वामपंथियों से लेकर दक्षिणपंथी, समाजवादी, उदारवादी और ठेठ कांग्रेसी सभी सहअस्तित्व और सहअलगाव के साथ गुज़र करते रहे... इनमें मुख्यत: मिश्र, मालवीय, टंडन, शुक्ल आदि का झुकाव दाहिनी ओर था पर वे सब संघ समर्थक थे, ऐसा भी ज़रूरी नहीं। सरदार पटेल गांधीजी से वचनबद्ध थे और नेहरूजी से पुरानी कामरेडरी थी, इसलिए वे नेहरूजी के तरफ़दार और अनुकूल बने रहे, वरना वे भी दायीं बाजू झुके हुए थे.. संगठन पर उनका क़ब्ज़ा था, जिसके कारण जवाहरलाल के चाहते हुए भी समाजवादियों को कांग्रेस से बाहर होना पड़ा था, एक समय तो वे संघ का कांग्रेस में विलय भी कराना चाहते थे, जो सौभाग्य से नेहरूजी के कारण नहीं हुआ।
राजेंद्र बाबू का सोमनाथ प्रसंग तो बहुचर्चित है ही...पटेल के परिदृश्य से जाने के बाद नेहरू समाजवादियों को बुलाते रहे ताकि मध्य और वामपंथियों का कांग्रेस में पलड़ा कुछ भारी हो और वे अपने 'साइंटिफ़िक टेम्पर’ के विचार पर तेज़ी से आगे बढ़ सकें, पर लोहियाजी के कारण यह संभव न हुआ... लोहियाजी विलक्षण मेधावी और प्रखर राजनीतिक थे, आमजन से लेकर बुद्धिजीवियों तक उनका असीम प्रभाव था, जो उन्होंने अंध-नेहरू और कांग्रेस विरोध में उल्खर्च दिया, मेरे हिसाब से इस तरह स्वतंत्रता के बाद इंदिरा गांधी नहीं , राममनोहर लोहिया भारतीय राजनीति के पहले प्रतिहिंसक राजनीतिक थे...  उनकी तरह नेहरूजी के घोर विरोधी कृपलानी और मसानी भी थे पर लोहियाजी का मामला my way is high way वाला था इसलिए दोनों किनारा कर गए... जेपी, अच्युत पटवर्धन और अशोक मेहता तो ख़ैर विरोधी होते हुए भी लोहियाजी जैसे कटु नहीं हो सकते थे, इसलिए ये क्रमश: सर्वोदय, अध्यात्म और कांग्रेस में चले गये।
इससे हुआ यह कि नेहरू कमज़ोर पड़े, इस अर्थ में भी कि संघ हर तरह से उन्हें हर बात का दोषी ठहराने में लगा हुआ था, लोहियाजी के अंधाधुंध विरोध ने उसकी मदद की |  इंदिराजी के बाद तो कांग्रेस में भी नेहरू एक हद तक दरकिनार  हुए... सामने सिर्फ़ इंदिरा-राजीव-सोनिया  रह गए | इससे जिस नेहरू को आज़ाद भारत में लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा प्रतीक बनना चाहिए था, वे सारी बुराइयों की जड़ मान लिये गये... वह तो उनका किया-धरा-बनाया हुआ इतना है कि उनकी हस्ती मक़बूलियत से क़ायम है। इससे पहले नेहरू के ख़िलाफ़ आवाज़ द्बारिका प्रसाद मिश्र ने उठाई, जनसंघ के अध्यक्ष के लिए उनका नाम हवा में था ही... मूल योजना में कहते हैं तीन लोग थे, रविशंकर शुक्ल, गोविन्द दास और मिश्रजी। इनमें से दो ऐन मौक़े पर खिसक लिए और मिश्रजी बोलकर अड़धप में आ गए. वे कांग्रेस से बाहर कर दिए गए, पर वे संघम्-शरणम् होने की हिम्मत नहीं जुटा पाये, वे समाजवादियों की मदद से उपचुनाव लड़े, चुनाव चिन्ह था दीपक... उनके मुख्य चुनाव संचालक थे मेरे पिता गणेश प्रसादजी नायक और भवानी प्रसादजी तिवारी थे... जीतते-जीतते मिश्रजी कांग्रेसी तिकड़म से हार गए। कांग्रेस में वापसी पर शायद मढ़ाताल मैदान में स्वागत सभा हुई थी, जिसमें मैं गया था, पर कुछ समझ नहीं आया था, लेकिन घर में बड़ों की बातों से यह पता चला कि उनकी वापसी को वनवास से वापसी कहा गया था, क्योंकि वे एक दशक से अधिक कांग्रेस से बाहर रहे।
मिसिरजी ने राजनीति में  सकल कर्म किये.... बदले की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी थी... गोविन्द-द्बारिका की एक ज़माने में प्रसिद्ध जोड़ी के टूटने और गोविन्द-परिवार से बदले को लेकर अनेक कहानियाँ चर्चित रही हैं, बखरी के बरक्स उन्होंने बिड़ी वालों का गुट खड़ा किया।
मिश्रजी में अतिशय दम्भ भी था, जिसे कई बार ग़लती से स्वाभिमान समझ लिया जाता था। बहरहाल, वनवास से लौटने पर उन्हें राजपाट भी मिला। मिश्रजी सत्ता के व्यक्ति रहे हैं। सत्ता से उनमें चमक आती थी, और नशा भी। सत्ता की इस चमक को भोलेभाले पत्रकार लोकप्रियता मान बैठते हैं। पत्रकार कुंजबिहारी पाठक के तो वे 'प्रदेश प्राण’ थे, जो कि शायद वे कभी नहीं रहे, हाँ प्रदेश के महज़ मुख्यमंत्री ज़रूर रहे। उनके काल में घोटाले हुए। बस्तर गोलीकांड में आरोपों में घिरे। यह कांड उनके अहम् का ही विस्तार था। चुनाव धांधली  में ग्रस्त हुए... लोकप्रियता का आलम यह था कि उसी दौरान तिलक भूमि तलैया की सभा में जनक्षोभ के कारण उन्हें भागना पड़ा, चप्पल भी छूट गयी। वृंदावन दुबे आड़ करते हुए उन्हें निकाल ले गए। जाते-जाते मिश्रजी धमका गये, कि मैं जानता हूँ कौन कर रहा है यह, मैं देख लूंगा। इसका बदला उन्होंने जबलपुर और महाकौशल से लिया, उनके कार्यकाल में कोई विकास कार्य यहां नहीं हुआ।
यह उनका अहंकार ही था जिसके कारण वे सरकार से हाथ धो बैठे। दिलचस्प यह कि यह कारनामा उसी जनसंघ ने किया जिसके वे अध्यक्ष बनने वाले थे। संंविद सरकार का तिलिस्म लोहियाजी का रचा हुआ था। मधु लिमये इस प्रयोग में जनसंघ का साथ न लेने के लिए डाक्टर लोहिया से आग्रह करते रहे पर ग़ैरकांग्रेसवाद के प्रणेता बहुत जल्दी में थे।
राजनीति की विडम्बना देखिये... जाने - अनजाने, लोहियाजी ने मध्यप्रदेश में तो कम से कम कांग्रेस के नेहरू-विरोधी, उस दक्षिणपंथी ख़ेमे के एक नेता, मिसिरजी को , ध्वस्त कर दिया, जिसने समाजवादियों को कांग्रेस से बाहर किया था। यह लिमये ही थे जिन्होंने जनसंघ की दोहरी सदस्यता के मामले को ऐसा तूल दिया कि भावरूपेण जनता पार्टी फिर अपने घटकों में फ़र्द- फ़र्द  हो गयी और तब जनसंघ भाजपा के नाम-रूप में उभरी। वैसे जनसंघ कुछ समय और जनता पार्टी में रहता, पर अंतत: मुझे अलग होना ही था, क्योंकि उसका अपना संघ वाला कट्टर राष्ट्रवादी-हिंदुत्ववादी सूत्रबद्ध एजेंडा था, जनता पार्टी तो उस दिशा में उसका एक पड़ाव या क़दम था।
यह भी ग़ौरतलब है कि मिश्रजी आगे चलकर कांग्रेस हाईकमान में प्रमुख व्यक्ति बने, जबकि जबलपुर ही नहीं प्रदेश में कांग्रेस की जो हालत है उसके बीज उन्होंने ही बोये। बरसों बखरी-पटेल गुट झों-झों करते रहे। आज दोनों खलास हैं। हालत यह है कि उनके बाद महाकौशल से कोई मुख्यमंत्री ही नहीं बना। उनका एक शगल बाहर से लोगों को प्रदेश में बैठाना था। विश्वविद्यालयों में ऐसा वे करते रहे। बिहार के मुंदर शर्मा संपादक बन गए पर मिसिरजी ने उन्हें पीसीसी का अध्यक्ष भी बनवा दिया। इंदिरा के ज़माने  में जनाधार वाले नेताओं के बदले  संगठन में अपने मोहरों को ऊंचे पदों पर बैठाना आम चलन था | कांग्रेस जब विभाजित हुई तब ज़्यादातर बुजुर्ग, निजलिंगप्पा, कामराज, अर्स सब संगठन कांग्रेस में थे। इंदिरा गांधी को भी अपने ख़ेमे की प्रामाणिकता के लिए कुछ खूसट सीनियरों की ज़रूरत थी। इनमें दो उन्नावी टेलेंट उन्हें मिले, मिश्रजी और उमाशंकर दीक्षित। मिसिरजी ने यहाँ वही काम किया जिसमें वे माहिर थे- उठाने-गिराने का काम, मोहरों की अदला-बदली का काम। 'दिनमान’ उन्हें 'कलह विशेषज्ञ’ लिखता रहा। इंदिरा गांधी पर कांग्रेस के ओजहरण, उसे कठपुतली पार्टी बना देने का आरोप है। क्या इसका कुछ हिस्सा उनके सलाहकारों को समर्पित नहीं करना चाहिए? सत्ता ही मिश्रजी की बैटरी थी, पार्टी जब ताक़तवर थी, तब ही वे 'चाणक्य’  हो पाये।
मिश्रजी पढ़े-लिखे अत्यंत समझदार नेता थे। राजनीति, शासन, पत्रकारिता, साहित्य सबके अनुभवी, अंतरदृष्टि सम्पन्न। एक ज़माने में जुझारू भी रहे होंगे। किताबें लिखीं, महत्वाकांक्षी 'कृष्णायन’ पर आरोप लगे। ग़ालिब के शेरों का दोहाकरण बेहद दोयम दर्ज़े का काम था। अपनी आत्मकथा लिखी। मिश्रजी का मामला स्वतंत्रता संग्राम के कई रत्नों जैसा है, जिन्हें सत्ता ने धुंधला कर दिया। किसी का भी मूल्यांकन समग्र और सर्वांग होना चाहिए। मिश्रजी का जो पक्ष ज़्यादा उजागर है वह कम से कम गौरवान्वित करने वाला तो नहीं है | हाँ, मुख्यमंत्री, मंत्री, कुलपति, प्रशासक, आयुक्त होना भर अगर गौरव से भरने के लिए काफ़ी है, तो अलग बात। किसी को भी वाजिब श्रेय देना ही श्रेयस्कर है। इन जैसे किरदारों से एक ठीकठाक कालांतर हो चुका है, तो उनको विश्लेषक दृष्टि से देखा जाना चाहिए। जो त्याग-तपस्या की उसके लिए उन्हें पर्याप्त पद-प्रतिष्ठा मिली।
मिश्रजी अंतिम वर्षों में शहर के सीमांत में 'उत्तरायण’ में रहते थे। कोई भी गणमान्य या सत्ता-पुरुष नगर में आता तो उनके पास उसका जाना होता और यह मुलाक़ात अगले रोज़ अख़बार में छोटी सी ख़बर बनती कि फ़लां ने पंडितजी से राजनीतिक मंत्रणा की। दिल्ली में जब उनका निधन हुआ तो मैं एम्स गया। एक कमरे में स्ट्रेचर गाड़ी पर उनका शव रखा था। हैरानी की बात कि वहां कोई भी नहीं था, सिवाय श्याम बिलोहा के। 
मेरी उनसे एक मुलाक़ात है। इमरजेंसी हट गयी थी, चुनाव की घोषणा हो चुकी थी। एक दिन ग्यारह बजे मैंं विश्वविद्यालय की तरफ से लौट रहा था कि साइंस कॉलेज के पास वृंदावन दुबे जी ने आवाज़ दी और कहा, दादा से मिलने चलो। वहां पहुँचे तो देखा मिश्र जी लॉन में टहल रहे हैं। दुबेजी ने तीन कोनों पर जाकर उनके चरण छुये पर उन्होंने आँख उठाकर नहीं देखा। फिर एक कुर्सी पर जब विराज गए तो उन्होंने फिर पैर पड़े, तब उन्होंने कहा, कैसे हो वृंदावन। दुबेजी ने जब मेरा परिचय कराया तो फिर वे मुझसे से बात करते रहे। पिताजी का स्वास्थ्य, हालचाल, आगे की योजना आदि की बातें पूछींं... मैंने उनसे पूछा कि कांग्रेस का यहाँ क्या होगा, तो तपाक से बोले, कांग्रेस हारेगी, फिर कुछ ठहरकर कहा, अगर भवानी तिवारी कांग्रेस से लड़ें तो टक्कर हो सकती है। ...पापाजी (तिवारीजी) के पास रोज़ ही जाना होता था, शाम को उन्हें बताया कि मिश्रजी ऐसा कह रहे थे, तो उन्होंने तम्बाकू फाँक कर, हाथ झाड़ते हुए कहा कि राज्यसभा हो आए, अब चुनाव में कौन पड़े।

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