- मनोहर नायक
गाँधीजी की डेढ़ सौंवीं जयंती पर कई देखी-सुनी-पढ़ी बातें याद आयीं। सारी बातें और प्रसंग अत्यंत निकट और आसपास के लोगों से जुड़े हुए हैं, जिनको गाँधीजी का जादुई स्पर्श मिला या जो इस बेजोड़ नेता से जीवन और कर्म में प्रेरित हुए। यह सब याद करते हुए लगता है देश में ऐसे अनगिनत लोग होंगे जिनके प्रियजनों-परिजनों को गाँधीजी का दरस-परस और सामीप्य मिला होगा। लोगों के पास और भी अनूठे, अछूते और प्रेरणादायी संस्मरण सुनाने को होंगे। मैं ख़ुद कई ऐसे परिवारों को जानता हूं और जबलपुर, इलाहाबाद, भोपाल, दिल्ली में अनेकानेक क़िस्से सुने हैं। जबलपुर जब भी जाना होता है तो ज्ञानजी (कथाकार, सम्पादक ज्ञानरंजन) के साथ सुपर मार्केट कॉफी हाउस में बैठक जमती है। चारेक साल पहले एक दिन उन्होंने कहा कि तुम नहीं जानते अनेक असहमतियां होते हुए भी गाँधी का मेरे ऊपर बहुत प्रभाव है। सादगी, मितव्ययिता, हिसाब-किताब और जीवन में अनुशासन बहुत कुछ उन्हीं के असर से है। ज्ञानजी का कहना था कि गाँधी बहुत जटिल व्यक्ति हैं और उन्हें जीवन में उतारना बहुत कठिन है। ज्ञानजी उस दिन गाँधी पर काफ़ी बोले। उनके लेखक पिता रामनाथ सुमन मनसा-वाचा-कर्मणा गाँधीवादी थे और वर्धा-सेवाग्राम में कई वर्ष गाँधीजी के पास रहे। गाँधी के विकटपने की मिसाल देते हुए ज्ञानजी ने बताया था कि सुमनजी से किसी हिसाब में ग्यारह पैसे की चूक हो गई तो गाँधीजी ने उनसे कहा कि आप अब दूसरा काम सम्हालिये। ज्ञानजी के पिता- माता दोनों स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे | खादी उनके लिये विचार और वस्त्र दोनों थी , घर खादीमय था | उनकी माँ का निधन 94 वर्ष की आयु में हुआ, वे अंत तक खादी पहनती रहीं। उस दिन ख़ुद अपने जीवन पर पीछे नज़र दौड़ायी तो पाया कि पिता के अनुशासन में ज्ञानजी की तरह मैंने भी घर में गाँधीवाद को काफ़ी सहन किया जबकि तब उससे बाहर की दुनिया काफ़ी दिलकश और दिलदार लगती थी। ज्ञानजी की तरह हमने भी कई बरस खादी ही पहनी। ज्ञानजी ने कहा था कि नौकरी लगते ही सबसे पहले उन्होंने खादी को तिलांजलि दी, 'अरे बड़ा अजीब लगता था, पैंट में थोड़ी देर में ही घुटना बन जाता था।’गणेश प्रसाद नायक
मेरे जन्म के समय, 1954 में मेरे पिता गणेश प्रसाद नायक आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए कांग्रेस से समाजवादी पार्टी और फिर जेपी के साथ सर्वोदय में आ चुके थे और उनकी प्रतिष्ठा एक गाँधीवादी नेता की थी। घर में सब कपड़े-लत्ते खादी के थे, एक चिंधी तक सूती नहीं। रूमाल और चौके के छन्ने भी खादी के। पिता तो खादी का व्रत 193० में ले चुके थे। माँ (गायत्री नायक) ने भी अंत तक खादी पहनी। दो अक्तूबर से गाँधी आश्रम खादी भंडार में छूट मिलती थी तो साल भर के कपड़े आ जाते थे। माता-पिता के साथ जबलपुर में जवाहरगंज के खद्दर भंडार कपड़ा खरीदने बरसों गए। यह वह समय था जब घरों की बैठकों में नेताओं की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगी रहती थीं। हमारी बैठक में एक बड़ी गाँधीजी की तस्वीर थी, उससे छोटी नेहरू-पटेल-राजेंद्र प्रसाद की थी जिस पर लिखा था 'देश के नेता’। एक जयप्रकाशजी की थी, जिसके नीचे लिखा हुआ था 'सबसे बड़ा धर्म मानवता’। एक फ़ोटो फ़ार्वर्ड ब्लॉक के नेताओं की थी जिसमें नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ हरिविष्णु कामथ, लक्ष्मण सिंह चौहान (सुभद्राकुमारी चौहान के पति), सवाईमल जैन, शिवप्रसाद चिनपुरिया के साथ हमारे पिता थे। फिर विनोबा के साथ उनकी फ़ोटो और कुछेक अन्य के साथ, एक तस्वीर हमारी माँ की गुरुजी महादेवी वर्मा की थी। हम तीन भाई, एक बहन के बचपन और किशोरवय ऐसी ही यादों से भरपूर हैं। तब 3० जनवरी को 11 बजे हूटर बजने पर लोग ठहर जाते थे, जबकि ठहर जाने की न धौंस थी न दबाव। यह वह समय था जब परिवारों के कपड़ों की अलमारी में गाँधी टोपियां होती थीं। तकलियां सहेज कर रखी जाती थीं। दो अक्तूबर, 3० जनवरी को गाँधी को याद किया जाता था और गाँधी टोपी, चरखा और तकली खुले में निकल आते थे। पिता तो बहुत चरखा कातते थे। वे हाथ काते सूत की माला से ही किसी का स्वागत करते। घर में जब विनोबा आये, जयप्रकाशजी आये तो उनका स्वागत इन्हीं गुंडियों से किया, बाहरी कार्यक्रमों में भी वे यही पहनाते। मीसा में जबलपुर सेंट्रल जेल में उनके बायें कंधे के पास एक हड्डी बढ़ गयी। हाथ में झुनझुनी रहती। वे मेडिकल कॉलेज आते इलाज के लिए पर फ़ायदा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने फिर चरखा शुरू किया और कातते हुए हाथ ऊपर-नीचे होने से वह दुरुस्त हो गया। घर के पास ही उन्होंने एक बड़ा हॉल बनवाया था जिसमें बाहर से आने वाले सर्वोदयी व अन्य सामाजिक कार्यकर्ता ठहरते। कुछेक को छोड़कर बाक़ी हमारे घर ही भोजन करते। इसे सर्वोदय कार्यालय कहा जाता। शिक्षक संघ, स्वाधीनता संग्राम सैनिक संघ की बैठकें यहीं होतीं। दो अक्तूबर, 3० जनवरी को सुबह सात बजे कार्यक्रम होता जिसमें आमतौर पर सेठ गोविंद दास और महेशदत्त मिश्र मौजूद रहते। गोविंद दास तो समय के पाबंद थे, वे सबसे पहले पहुंचते। फुआरे पर नगर कांग्रेस कमेटी की सभा शाम को होती। ऐसा ही एक दिन 12 फरवरी का होता। इस दिन गाँधीजी की भस्म नर्मदा में विसर्जित की गयी थीं। पिता नर्मदा के तट तिलवारा घाट में सर्वोदय मेला आयोजित करते। काफ़ी लोग इकट्ठे होते। हम बच्चे नगर निगम के ट्रक पर पहले पहुंच जाते। शामियाना लगता और लाउडस्पीकर में गाने शुरू हो जाते.... 'सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की यह अमर कहानी’, 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।’ प्रार्थना होती, कताई होती। गोविंद दास जी, व्यौहार राजेंद्र सिंह, भवानी प्रसाद तिवारी, सवाईमल जैन, महेशदत्त मिश्र, रामेश्वर प्रसाद गुरु तमाम लोग आते, भाषण होते। कई बार दादा धर्माधिकारी के अद्भुत भाषण सुनने को मिलते।देखते ही देखते दो अक्तूबर, 3० जनवरी और 12 फरवरी के आयोजनों में बाद में बमुश्किल लोग जुटते , और एहसास होने लगा था कि गाँधीजी का महत्त्व कम होने लगा है | जल्दी ही वह दौर भी देखा जब गाँधी मजबूरी का नाम हो गये... अब एक बार वे फिर मज़बूती के पर्याय हैं।गाँधीजी का बाहर जो हाल हो रहा हो, उनसे एक रिश्ता बन गया, यह नेहरूजी से भी बना। जबलपुर की मुख्य सड़क पर जवाहरलाल को 'ऋतुराज’ की तरह निकलते देखा था। बाद में दोनों को लेकर उलझनें भी पेश आयीं पर दिल से उनकी सरदारी नहीं गयी। यह मामला वैसा ही था जैसा खुशवंत सिंह ने लिखा था कि बापू के शराब और ब्रह्मचर्य संबंधी विचार बेहद अटपटे हैं लेकिन मैं नहीं चाहता कि उनकी जो मूर्ति मन में है उसे कोई ठेस पहुंचे। पिता वैसे तो ज़रा सी ग़लती पर भी आवेश में आ जाते थे लेकिन उनकी मूल प्रकृति शांत, प्रसन्न और उदार थी। परसाईजी ने एक बार मुझसे कहा था कि नायक जी के होंठों पर हंसी और नाक पर ग़ुस्सा रहता था | मैट्रिक करने के बाद उन्होंने कहा कि इतने साल में यदि खादी के संस्कार नहीं बने तो अपनी मर्ज़ी का पहनो और घर में फिर सूती और टेरीकॉट का बेधड़क प्रवेश हुआ। पर पिता ने तो घोर ग़रीबी के दिनों में खादी का संकल्प लिया था और तीन काम तय किये थे, पढ़ना, इसके लिए ट्यूशन करना, ताकि आधिकाधिक स्वावलम्बी हों और आज़ादी के लिए काम करना। यह 193० की बात है, तब वे सत्रह के थे। दो साल बाद खादी दुगनी महँगी हो गयी। पिता ने गाँधीजी को लिखा कि मेरा जैसा छात्र इस गरीबी, महँगाई में खादी का संकल्प कैसे निभाये? उनका पोस्टकार्ड आया, 'डियर गणेश प्रसाद, वेयर देअर इज़ ए विल, देयर इज़ ए वे। कट शार्ट यूअर एक्सपेंसेस, बापू |'सन् 33 में गाँधीजी संभवत: पहली बार जबलपुर आये थे। एक सभा में पिताजी गाँधीजी के सामने बैठ गए, वे उन्हें एकटक देखे जा रहे थे, तब गाँधीजी ने उनसे कहा, ऐसे मत देखो, ध्यान बँटता है। इसी समय एक सभा हमारे मोहल्ले दीक्षितपुरा के उपरैनगंज वार्ड में स्थित सिमरिया वाली रानी की कोठी में हुई। प्रसंगवश, माखनलालजी चतुर्वेदी ने इसी कोठी से 'कर्मवीर’ निकाला था। तब उनका प्रेस भी यहीं था। गाँधीजी की यह सभा महिलाओं की थी। इसके बारे में मुझे मेरी माँ के ताऊजी के पुत्र मामा जीवन नायक ने, जो उस समय ग्यारह वर्ष के थे, बताया था। इसी कोठी के पीछे गली में हमारा ननिहाल 'नायक निवास’ है। मामाजी अपनी माँ को लेकर वहां गये थे। भाषण के बाद गाँधीजी झोली फैलाकर एक-एक कतार में गये और चंदा लिया। झोली भरने पर वे जाकर एक जगह उसे उलट आते। घर लौटते हुए मामाजी को उनकी माँ ने बताया कि वे कान के झुमके दे आयी हैं। माँ को छोड़कर मामाजी फिर वहां आ गये। तभी एक सज्जन ने कहा कि कान की एक बाली नहीं मिल रही है। गाँधीजी जा चुके थे , उन्हें जाकर बताया गया तो उन्होंने कहा, 'कोई माँ, बहन बापू को एक कान का गहना नहीं देगी। देगी तो दोनों। न दे तो एक भी न दे। और तलाश करो।’ अंत में गाँधीजी की बात को सही ठहराता दूसरा झुमका दरी के धागे में फंसा हुआ मिल गया।दूसरे विश्व युद्ध में गाँधीजी ने जनता से अपील की कि भारत को उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ युद्ध में घसीटा जा रहा है इसलिए वह युद्ध में धन-जन की कोई मदद न करे। इसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करते हुए सत्याग्रहियों का चुनाव अपने हाथ में लिया। सत्याग्रहियों की नैतिक व चारित्रिक मर्यादाएं निश्चित कीं। सत्याग्रह की विधि निर्धारित की। विनोबाजी को प्रथम सत्याग्रही बनाया। पिता का नाम नगर की पहली सूची में था पर गोविंद दास और द्बारिका प्रसाद मिश्र ने उनसे कहा कि सूची के मुताबिक सत्याग्रह होने पर बाद में तो सत्याग्रह कराने वाला कोई न होगा इसलिए तुम बाद में सत्याग्रह करना, तब तक सत्याग्रही तैयार करो और अपनी परीक्षा भी दे लो। नियम यह था कि सत्याग्रही पुलिस को सूचना देते थे। समय, स्थान बताते थे, पुलिस उन्हें सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार कर ले जाती थी। मार्च में पिताजी की परीक्षा हो गई। दूसरी लिस्ट तक पुलिस गिरफ़्तार करती रही, लेकिन फिर तीसरी लिस्ट के सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी बंद कर दी। पहले ही नहीं सत्याग्रह के बाद भी गिरफ़्तारी रुक गयी। पिता नई-नई विधि से तब भी गिरफ़्तारी कराते। पिता ने अपने सत्याग्रह का दिन तय कर लिया था पर इसके पहले मूलचंद यादव नाम के सत्याग्रही की गिरफ़्तारी आवश्यक थी। पिताजी ने एक परचा बनाया कि सरकारी कर्मचारी युद्ध में सहयोग न करें। इसकी कई प्रतियां टाइप करायीं। सत्याग्रही की यूनीफार्म बनायी - सफ़ेद पेंट, सफ़ेद कमीज़, गाँधी टोपी और झोला। सत्याग्रही से कहा कि कचहरी की शांति भंग न करे, न कोई नारा लगाये। सिर्फ़ कहे कि गाँधीजी का संदेश देने आया हूँ। उसे सबसे पहले सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पूरे सम्मान के साथ पत्र देना था। जब सत्याग्रही पत्र लेकर बाहर निकलने लगा तो मजिस्ट्रेट ने उसे रोककर पुलिस बुलाकर जेल भेज दिया, इसी की उम्मीद थी। इस सत्याग्रही की अनोखी विधि की अख़बारों में चर्चा हुई। लेकिन प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने इस विधि को गाँधीजी के विचारों के विपरीत बताकर उस सत्याग्रही को अमान्य कर दिया। पिता ने गाँधीजी को पत्र लिखा कि सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी न होने से यह विधि अपनायी, जोकि किसी भी तरह आपके उसूलों का उल्लंघन नहीं है। उन्होंने गाँधीजी को मजिस्ट्रेट को दिये पत्र की कॉपी भी भेजी। इसके बाद पिता सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार हो गए। पहले वे जबलपुर जेल में रहे फिर नागपुर भेज दिये गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि गाँधीजी ने प्रदेश कांग्रेस के फ़ैसले को रद्द करने का आदेश देते हुए सत्याग्रही को मान्य घोषित किया और कहा कि उस लड़के ने बहुत ही सूझबूझ से काम लिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गिरिजाशंकर अग्निहोत्री ने प्रेस को इस फ़ैसले की सूचना दी थी। नागपुर जेल से छूटकर पिताजी सीधे सेवाग्राम गए। दिन भर गाँधीजी की कुटी के बाहर खड़े रहे। शाम को महादेव देसाई मिले उन्होंने घूमते समय गाँधीजी से भेंट करने को कहा, तभी गाँधीजी कुटी से निकले और पिता पर नज़र पड़ी तो पूछा, कहां से आये हो? नागपुर जेल से सुनकर बोले, तो भोजन कर लो। नागपुर जेल में कैदियों द्बारा काता तीन सेर सूत भेंट करने पर गाँधीजी बोले, 'बहुत कम काता।’ इत्तफ़ाक यह हुआ कि भोजन की पांत में गाँधीजी पिताजी की बगल में आकर बैठ गए और दोने में जैसे ही दाल परसी गई उन्होंने लहसुन की भुसी की पुड़िया खोल के अपनी दाल में और फिर पिताजी की दाल में डाल दी। पिताजी प्याज-लहसुन नहीं खाते थे , पर उस दिन जी कड़ा करके दाल पी। नागपुर जेल में लड़कर उन्होंने राजनैतिक कैदियों के लिए किचन खुलवाया था और जब वहां सब्ज़ी में प्याज पड़ी तो उसे बंद करने के लिए उपवास कर दिया। वे अपनी पर अड़ने वाले व्यक्ति थे , अंत में उनके हिसाब की एक अलग छोटी किचन और बनी। जेल में उन्हें उपाधि दी गयी थी, 'कुछ झुकी कमर पर ज़ोर दिये/ डिक्टेटरशिप का बोझ लिये/ सुबह चार बजे उठ चरखा कातें/ मुँह में मीठे बोल लिये।’ जेल में लड़कर और फिर अनशन करके उन्होंने लोहे के तसले में खाना देना बंद करवाया था। दूध बंद होने पर सत्याग्रह शुरू करवाया था। ... भोजन के बाद टहलते हुए उन्होंने गाँधीजी को दूध बंद होने की बात बतायी। गाँधीजी ने कहा तुम नागपुर वापस जाकर सत्याग्रह बंद करने का संदेश दो और घर जाकर इस पर वक्तव्य दो, वे ख़ुद भोजन में दूध की आवश्यकता पर सरकार को लिखेंगे। बाद में जेल में भोजन की जाँच पर कमीशन बना, जिसने आठ ओंस दूध ज़रूरी माना। तब से जेल में 6० से 4०० ग्राम तक दूध मिलने लगा | पिता ने जीवन भर संघर्ष किया पर गांधी- प्रेरित सिद्धांतों से कभी डिगे नहीं... कई बार जेल यात्राएँ कीं, मीसाबंदी भी रहे, पर कभी पैरोल नहीं लिया | 1944 में अपने पिता की मृत्यु पर उनके के अंतिम दर्शनों के लिए पैरोल नहीं लिया।हमारे नाना गोपाल प्रसाद नायक स्वाभिमानी, स्वावालम्बी और स्वाध्यायी थे। 'सरस्वती’ केगोपाल प्रसाद नायक
संपादक समालोचक और साहित्यकार महावीर प्रसाद द्बिवेदी के प्रिय छात्र रहे | द्बिवेदीजी पहले कंपनी सरकार की जीआईपी रेलवे में थे। झांसी स्टेशन पर उनकी मूर्ति भी है। वे नाना को रेलवे में लाना चाहते थे और मौक़ा पाकर वे उन्हें रेलवई में ले आये। नाना अपने काम में बहुत ही मेहनती और ईमानदार थे। देशप्रेम की भावना से भरपूर थे। जबलपुर-इलाहाबाद के बीच के स्टेशनों पर वे रहे। पता चलता कि अमुक नेता फलां गाड़ी से निकल रहा है तो गाड़ी रुकवाकर नेता को दूध-फल भेंट करते। वे पहले स्टेशन मास्टर थे , जो अपनी मांगों को लेकर पूरे स्टाफ़ के साथ हड़ताल पर बैठ गए। अगस्त 42 में उन्होंने स्टेशन पर तिरंगा फहरा दिया। वे निलंबित हो गये और एक साल बाद जब लिये गए तब बहुत छोटे स्टेशनों पर उन्हें रखा गया। उनकी एक चचेरी बहन सुमित्रा थीं, जो कम उम्र की थीं और एक साल में विधवा हो गयी थीं। उनके पिता ने सुमित्रा को इनके पास भेज दिया। सुमित्रा की हालत देख उनका हृदय विदीर्ण हो गया। प्रण किया जब तक इसका फिर विवाह न करेंगे अन्न नहीं खायेंगे। यह 193० की बात है। कपड़ों, सजधज और खाने के शौकीन गोपाल प्रसाद मोटा पहनने लगे। अलोना खाने लगे। कमलगटा, कसेरू, महावरी, मूंगफली, सिंघाड़ा और ऋतुफल यही आहार हो गया। पान, तम्बाकू, भाँग और खुशबूदार तेल - फुलेल सब बंद। उनकी दो बेटियां और उनसे बड़ा एक बेटा था। यह निश्चय भी किया कि अब उनकी संतान नहीं होगी। वे सूत कातने और रामचरित मानस के परायण में रम गए। सुमित्रा इस बीच मिडिल पास हो गयीं। नाना ने गाँधीजी को पत्र लिखकर संकल्प के बारे में बताया। उन्होंने कहा, निर्णय बेशक सही है पर विधवा-विवाह के लिए समाज तैयार नहीं है। यह क्रांतिकारी काम है। ब्राह्मण वर्ग तो कदापि तैयार न होगा। याद रहे कोई साथ न देगा। सगे-संबंधी मुँह फेर लेंगे। पर क्या विघ्न के भय से पीछे हट जाओगे? संकल्प लिया है तो पूरा करो। हिम्मत रखो, भगवान पर भरोसा रखो। मालवीयजी ने भी ऐसा ही लिखा। महावीर प्रसाद द्बिवेदी ने उन्हें 'बाल विधवा-विलाप’ शीर्षक अपनी कविता भेजी और लिखा, 'मैं विधवा-विवाह को धर्मसंगत मानता हूं और हिंदू-धर्म की कठोर रूढ़ियों के विरुद्ध हूं। लोग निंदा करें या स्तुति - इस पर हर्ष-विषाद में न पड़कर जो ठीक समझ रहे हो वही करना। अंतत: तीन साल बाद रानीपुर में विवाह हुआ। नाना तब वहीं स्टेशन मास्टर थे। पिता और भाइयों के सिवा कोई नहीं आया। जमींदार, जागीरदार आसपास के आये, मित्र मंडली आयी और धूमधाम से विवाह हुआ। इतने साल बाद जब नाना ने नमक वाला भोजन किया तो जीभ में छाले पड़ गए। शादी में विदा के समय 'सम्राट’ उपनामधारी कवि ने नाना को एक मानपत्र दिया, जिसकी कुछ पंक्तियां ये थीं: 'गोपाल तुम्हारी वीणा ने यह छेड़ी तान निराली है/ जिसकी धुन मोहक है सबको मदमस्त बनाने वाली है/ तुमने सचमुच नायक बन कर यह अनुपम सुयश कमाया है/ जो लता शुष्क थी उसका तुमने जीवन सरस बनाया है।’ शादी में बारातियों को चाँदी की तकली भेंट की गयी थी। वे जाति से निकाल दिये गए पर कुछ साल बाद झांसी में जिझौतिया ब्राह्मणों के अधिवेशन में वापस ले लिये गए। मेरी माँ का वहां जुलूस भी निकला , क्योंकि वे समाज की पहली मैट्रिकुलेट लड़की थीं।नाना जबलपुर में वड़ोदरा की लड़कियों की प्रभात फेरी देखकर इतने प्रभावित हुए कि अपनी मां गायत्री नायक
सात-आठ साल की बेटियों को वड़ोदरा पढ़ने भेज दिया। कई साल पहले इन्हीं शारदेय नवरात्र के दिनों में माँ ने मुझसे कहा था कि आजकल तो टीवी पर गरबा देखो तो सब कहीं ये फ़िल्मी गानों पर होते दिखते हैं। तुम कल्पना नहीं कर सकते कि बहत्तर साल पहले हम छोटी-छोटी लड़कियां वड़ोदरा की स्कूल में यह गाते हुए गरबा करते थे, यह कहते हुए उन्होंने गाते हुए वह पंक्ति सुनायीं, ' देसड़िया नी भाजे गंधीजी अवे गांड्यो तो ' , जिसका अर्थ था कि 'ये गाँधी तो देश के लिए पागल हो गया है’ - इसे ही गाते हुए माँ और सहेलियां गरबा किया करती थीं। वड़ोदरा में भाषा, खानपान की दिक़्क़त थी तो नाना ने दोनों को इलाहाबाद में महादेवीजी की महिला विद्यापीठ में भेज दिया। सावित्री मौसी तो थोड़े समय रहीं पर माँ छठवीं से एम.ए. तक वहीं पढ़ीं और महादेवी की प्रिय छात्रा रहीं। यहीं जब वे छठी-सातवीं में ही थीं तब गाँधीजी हिंदी साहित्य सम्मेलन के किसी कार्यक्रम में आए। वहां स्कूल की छात्राओं के साथ माँ को 'वंदे मातरम्’ गाना था। जब वे गाँधीजी के सामने से निकलीं तो उन्होंने उनका हाथ पकड़कर पूछा, 'वंदे मातरम् गाओगी।’ हां, कहने पर पीठ पर एक धौल जमाते हुए गाँधीजी ने कहा 'ज़ोर से गाना।’ गाँधीजी की भस्म जब गंगा में विसर्जन के लिए इलाहाबाद आयी तब माँ रामधुन गाती पैदल संगम तक गयी थीं।... जीवन नायक
हमारे जीवन मामा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य में दाखिले के प्रत्याशी थे। उन्हें स्टेशन के सामने रीवां कोठी में कमरा मिल गया था। रीवां राज्य परिवार के लाल पद्मधर सिंह वहीं रहते थे। वे विद्यार्थी आंदोलन के नेता थे। मामाजी उनके करीब आये और आंदोलन में समय देने लगे। यह सन् 42 का वक़्त था एकाएक आंदोलन उग्र हो गया। पुलिस ने गोली चलायी और पद्मधर सिंह का प्राणांत हो गया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ भवन का नाम उन्हीं के नाम पर है और उनकी प्रतिमा भी वहां लगी हुई है। मामाजी बताते थे कि पद्मधर माखनलाल चतुर्वेदी की दो पंक्तियां, अक्सर गुनगुनाया करते थे: 'जो कष्टों से घबराऊं, मुझमें कायर में भेद कहां/बदले में ख़ून बहाऊं, तो मुझमें डायर में भेद कहां।’इस घटना के बाद मामाजी का नाम विश्वविद्यालय से ख़ारिज हो गया। मामाजी तब बंबई आ गए और एक परिचित के साथ दादर में रहने लगे उन्हें वहीं के डिसल्वा पब्लिक स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने का काम मिल गया। उनकी बिल्डिंग के पास ही सड़क पार आराम बिल्डिंग थी जहां वे ट्यूशन पढ़ाते थे। एक दिन तीसरी मंजिल से सीढ़ियां उतरते उनकी मुलाक़ात उत्तमराव से हो गयी जो फ़ोटो-पत्रकार थे। कुछ अंग्रेजी समाचारपत्रों के लिए नियम से लिखते थे और 'द ओरिएंट’ के अधिकृत संवाददाता थे। उन्होंने मामाजी के बारे में सभी जानकारियां जुटा रखी थीं। उन्होंने अपनी मंशा बतायी तो ट्यूशन के बाद मामाजी एक घंटा का समय उन्हें देने लगे। टेलीफोन के संदेश लिखना आदि काम था। चाय और खाने की सामग्री के अलावा पढ़ने को भी काफ़ी कुछ रहता। मामाजी के शब्दों में : 'सन् 42 का अगस्त आ गया था। शुरू से ही बंबई के वातावरण में अकुलाहट छा रही थी। कांग्रेस के बड़े नेता आ रहे थे। माहौल में बेचैनी और छटपटाहट थी। पहला हफ़्ता बीता कि ऐलान हुआ कल शिवाजी पार्क में सभा है, गाँधीजी बोलेंगे। भारी भीड़ उमड़ पड़ी। पर न गाँधीजी आए न सभा हुई। लेकिन उनका संदेश सब कहीं पहुंच गया - 'तुम्हीं सिपाही हो, तुम्हीं नेता हो। करो या मरो।’ सभी की ज़ुबान पर था, 'करो या मरो।’ फिर एक ख़बर आग की तरह फैली- 'गाँधीजी पकड़ लिये गए, सारे नेता गिरफ़्तार हो गए।’ एक सनसनी और बौखलाहट फिर चिल्लाहट में बदल गयी, 'अंग्रेजों भारत छोड़ो।’ सड़क को अवरुद्ध किया जाने लगा। रस्से बांध कर खम्भों को सड़क पर लिटा दिया गया। घर का बेकार सामान सड़क पर आ गया। लड़के रातभर खंभे पीटते रहे, 'धन्न-धन्न।’ उस रात शायद ही कोई सोया। सुबह यातायात ठप्प था। दोपहर में सेना आ गयी। लोगों को पकड़कर अवरोध उठाये जाने लगे।’ मामाजी से रहा नहीं गया तो वे जैसे-तैसे 'आराम,’ बिल्डिंग पहुंचे और पढ़ने वाले बच्चों के लिए घंटी बजाई तो दरवाज़ा खुलने से पहले दो सर्जेटों ने बंदूकें अड़ा दीं और कहा नीचे चलकर सड़क साफ़ करो। तब तक दरवाज़ा खुल चुका था, मामाजी ने लड़कों से उत्तमराव को सब बताने को कहा। नीचे कई लोग कतार में थे। बाद में एक में ट्रक में लादकर कोतवाली लाकर एक-एक छोटे-से कमरे में कई-कई लोग ढूंस दिए गए। रात में मामाजी की तंद्रा तब खुली जब एक सिपाही ने उनसे कहा बाहर चलो। बाहर उत्तमराव थे। लड़कों ने उन्हें बता दिया था। पुलिस अधिकारी ने मामाजी को उनके हवाले किया और उत्तमराव की बेबी आस्टिन में वे चल दिये। रास्ते में उत्तमराव ने धीरे से कहा, पता चला है कि बापू पुने में हैं। दो बजे गाड़ी है। अपन चलेंगे। उनका दर्शन करेंगे। मैं सुतार (बढ़ई) बनूंगा तुम मेरे मददगार। दूरबीन का इंतज़ाम है। तुम खाना खाकर एक घंटे सो लो। फिर दोनों ने ट्रेन पकड़ी। पौने दो घंटे में ठिकाने लगे। बाहर निकलकर तमिलभाषी उत्तमराव ने मराठी में बात कर एक टैक्सी वाले को तैयार किया और सीधे चलने को कहा, जब टैक्सी मुख्य सड़क पर आयी तो थोड़ा चलकर उतर गए और एक दिशा में इशारा करके बोले अपन को वहां टीले तक चलना है। पत्थर और झाड़ियां हैं, सम्हलकर। अपने पास 45 मिनट हैं। पसीने से लथपथ दोनों 38 मिनट में वहाँ पहुंचे। उत्तमराव ने दूरबीन तैयार की। साफ़्टवुड के छह टुकड़े थे, एक दूसरे में फिट होने वाले। उनमें शीशे फंसाने के लिए खांचे थे। सबको जोड़कर दूरबीन बन जाती थी। ऊपर लगे शीशे पर सामने की चीज़ का अक्स पड़ता था जो नीचे के शीशे में दिखायी देता था। मामाजी पास ही लेट गए। फिर एक कंकड़ उन्हें लगा। आँखें खोलीं तो उत्तमराव इशारे से बुला रहे थे। पौ फट चुकी थी। उजाला फैल गया था। यह गाँधीजी के सुबह की सैर का वक़्त होता है। उत्तमराव ने दूरबीन से सिर हटाया और कहा, 'देखो! भगवान का लाख-लाख शुक्र!’ अगस्त ’42 की वह नौ तारीख की सुबह थी। मैंने दूरबीन से देखा आगा खां महल के प्रांगण में सफ़ेद चादर ओढ़े गाँधीजी फुर्ती से टहल रहे हैं। बाद में लौटकर उत्तमराव ने यह ख़बर भेजी और उनका अख़बार संभवत: यह ख़बर पहले पहल देने वाला बना।गाँधी शताब्दी के समय 1969 में गाँधी साहित्य प्रचार के लिए जबलपुर नगर निगम प्रशासक एलपी तिवारी ने एक रुपये महीने पर पिताजी को दूकान दी थी, अच्छे साहित्य के प्रचार के लिए। इस सत्साहित्य ग्रंथागार में गाँधी-विनोबा और अन्य साहित्य मिलता था। पहले मैं उसमें बैठता था तो गाँधीजी की लिखी और उन पर लिखी कई किताबें पढ़ीं। अब मेरे छोटे भाई जयप्रकाश बैठते हैं। इस दुकान को भी पचास वर्ष हो गए। उस समय आसपास ऐसे अनेक लोग थे जो गाँधी के अनुयायी थे। शहर और बाहर के पिताजी के मित्र हमारे तमाम चाचा गांधी की गोपियां थे | ये स्मृतियां बताती हैं कि गाँधीजी ने लोगों को किस गहराई से प्रभावित किया |आज के कठिन और उद्विग्न समय में गाँधीजी के साथ उन सबको याद करना बेहद ज़रूरी है... वैसे तो, इनकी 'जस की देह को जरा मरन नहीं होय!'(पिछले साल सत्य हिंदी.कॉम में प्रकाशित)
गाँधीजी की डेढ़ सौंवीं जयंती पर कई देखी-सुनी-पढ़ी बातें याद आयीं। सारी बातें और प्रसंग अत्यंत निकट और आसपास के लोगों से जुड़े हुए हैं, जिनको गाँधीजी का जादुई स्पर्श मिला या जो इस बेजोड़ नेता से जीवन और कर्म में प्रेरित हुए। यह सब याद करते हुए लगता है देश में ऐसे अनगिनत लोग होंगे जिनके प्रियजनों-परिजनों को गाँधीजी का दरस-परस और सामीप्य मिला होगा। लोगों के पास और भी अनूठे, अछूते और प्रेरणादायी संस्मरण सुनाने को होंगे। मैं ख़ुद कई ऐसे परिवारों को जानता हूं और जबलपुर, इलाहाबाद, भोपाल, दिल्ली में अनेकानेक क़िस्से सुने हैं। जबलपुर जब भी जाना होता है तो ज्ञानजी (कथाकार, सम्पादक ज्ञानरंजन) के साथ सुपर मार्केट कॉफी हाउस में बैठक जमती है। चारेक साल पहले एक दिन उन्होंने कहा कि तुम नहीं जानते अनेक असहमतियां होते हुए भी गाँधी का मेरे ऊपर बहुत प्रभाव है। सादगी, मितव्ययिता, हिसाब-किताब और जीवन में अनुशासन बहुत कुछ उन्हीं के असर से है। ज्ञानजी का कहना था कि गाँधी बहुत जटिल व्यक्ति हैं और उन्हें जीवन में उतारना बहुत कठिन है। ज्ञानजी उस दिन गाँधी पर काफ़ी बोले। उनके लेखक पिता रामनाथ सुमन मनसा-वाचा-कर्मणा गाँधीवादी थे और वर्धा-सेवाग्राम में कई वर्ष गाँधीजी के पास रहे। गाँधी के विकटपने की मिसाल देते हुए ज्ञानजी ने बताया था कि सुमनजी से किसी हिसाब में ग्यारह पैसे की चूक हो गई तो गाँधीजी ने उनसे कहा कि आप अब दूसरा काम सम्हालिये। ज्ञानजी के पिता- माता दोनों स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे | खादी उनके लिये विचार और वस्त्र दोनों थी , घर खादीमय था | उनकी माँ का निधन 94 वर्ष की आयु में हुआ, वे अंत तक खादी पहनती रहीं। उस दिन ख़ुद अपने जीवन पर पीछे नज़र दौड़ायी तो पाया कि पिता के अनुशासन में ज्ञानजी की तरह मैंने भी घर में गाँधीवाद को काफ़ी सहन किया जबकि तब उससे बाहर की दुनिया काफ़ी दिलकश और दिलदार लगती थी। ज्ञानजी की तरह हमने भी कई बरस खादी ही पहनी। ज्ञानजी ने कहा था कि नौकरी लगते ही सबसे पहले उन्होंने खादी को तिलांजलि दी, 'अरे बड़ा अजीब लगता था, पैंट में थोड़ी देर में ही घुटना बन जाता था।’
गणेश प्रसाद नायक |
मेरे जन्म के समय, 1954 में मेरे पिता गणेश प्रसाद नायक आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए कांग्रेस से समाजवादी पार्टी और फिर जेपी के साथ सर्वोदय में आ चुके थे और उनकी प्रतिष्ठा एक गाँधीवादी नेता की थी। घर में सब कपड़े-लत्ते खादी के थे, एक चिंधी तक सूती नहीं। रूमाल और चौके के छन्ने भी खादी के। पिता तो खादी का व्रत 193० में ले चुके थे। माँ (गायत्री नायक) ने भी अंत तक खादी पहनी। दो अक्तूबर से गाँधी आश्रम खादी भंडार में छूट मिलती थी तो साल भर के कपड़े आ जाते थे। माता-पिता के साथ जबलपुर में जवाहरगंज के खद्दर भंडार कपड़ा खरीदने बरसों गए। यह वह समय था जब घरों की बैठकों में नेताओं की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगी रहती थीं। हमारी बैठक में एक बड़ी गाँधीजी की तस्वीर थी, उससे छोटी नेहरू-पटेल-राजेंद्र प्रसाद की थी जिस पर लिखा था 'देश के नेता’। एक जयप्रकाशजी की थी, जिसके नीचे लिखा हुआ था 'सबसे बड़ा धर्म मानवता’। एक फ़ोटो फ़ार्वर्ड ब्लॉक के नेताओं की थी जिसमें नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ हरिविष्णु कामथ, लक्ष्मण सिंह चौहान (सुभद्राकुमारी चौहान के पति), सवाईमल जैन, शिवप्रसाद चिनपुरिया के साथ हमारे पिता थे। फिर विनोबा के साथ उनकी फ़ोटो और कुछेक अन्य के साथ, एक तस्वीर हमारी माँ की गुरुजी महादेवी वर्मा की थी। हम तीन भाई, एक बहन के बचपन और किशोरवय ऐसी ही यादों से भरपूर हैं। तब 3० जनवरी को 11 बजे हूटर बजने पर लोग ठहर जाते थे, जबकि ठहर जाने की न धौंस थी न दबाव। यह वह समय था जब परिवारों के कपड़ों की अलमारी में गाँधी टोपियां होती थीं। तकलियां सहेज कर रखी जाती थीं। दो अक्तूबर, 3० जनवरी को गाँधी को याद किया जाता था और गाँधी टोपी, चरखा और तकली खुले में निकल आते थे। पिता तो बहुत चरखा कातते थे। वे हाथ काते सूत की माला से ही किसी का स्वागत करते। घर में जब विनोबा आये, जयप्रकाशजी आये तो उनका स्वागत इन्हीं गुंडियों से किया, बाहरी कार्यक्रमों में भी वे यही पहनाते। मीसा में जबलपुर सेंट्रल जेल में उनके बायें कंधे के पास एक हड्डी बढ़ गयी। हाथ में झुनझुनी रहती। वे मेडिकल कॉलेज आते इलाज के लिए पर फ़ायदा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने फिर चरखा शुरू किया और कातते हुए हाथ ऊपर-नीचे होने से वह दुरुस्त हो गया। घर के पास ही उन्होंने एक बड़ा हॉल बनवाया था जिसमें बाहर से आने वाले सर्वोदयी व अन्य सामाजिक कार्यकर्ता ठहरते। कुछेक को छोड़कर बाक़ी हमारे घर ही भोजन करते। इसे सर्वोदय कार्यालय कहा जाता। शिक्षक संघ, स्वाधीनता संग्राम सैनिक संघ की बैठकें यहीं होतीं। दो अक्तूबर, 3० जनवरी को सुबह सात बजे कार्यक्रम होता जिसमें आमतौर पर सेठ गोविंद दास और महेशदत्त मिश्र मौजूद रहते। गोविंद दास तो समय के पाबंद थे, वे सबसे पहले पहुंचते। फुआरे पर नगर कांग्रेस कमेटी की सभा शाम को होती। ऐसा ही एक दिन 12 फरवरी का होता। इस दिन गाँधीजी की भस्म नर्मदा में विसर्जित की गयी थीं। पिता नर्मदा के तट तिलवारा घाट में सर्वोदय मेला आयोजित करते। काफ़ी लोग इकट्ठे होते। हम बच्चे नगर निगम के ट्रक पर पहले पहुंच जाते। शामियाना लगता और लाउडस्पीकर में गाने शुरू हो जाते.... 'सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की यह अमर कहानी’, 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।’ प्रार्थना होती, कताई होती। गोविंद दास जी, व्यौहार राजेंद्र सिंह, भवानी प्रसाद तिवारी, सवाईमल जैन, महेशदत्त मिश्र, रामेश्वर प्रसाद गुरु तमाम लोग आते, भाषण होते। कई बार दादा धर्माधिकारी के अद्भुत भाषण सुनने को मिलते।
देखते ही देखते दो अक्तूबर, 3० जनवरी और 12 फरवरी के आयोजनों में बाद में बमुश्किल लोग जुटते , और एहसास होने लगा था कि गाँधीजी का महत्त्व कम होने लगा है | जल्दी ही वह दौर भी देखा जब गाँधी मजबूरी का नाम हो गये... अब एक बार वे फिर मज़बूती के पर्याय हैं।
गाँधीजी का बाहर जो हाल हो रहा हो, उनसे एक रिश्ता बन गया, यह नेहरूजी से भी बना। जबलपुर की मुख्य सड़क पर जवाहरलाल को 'ऋतुराज’ की तरह निकलते देखा था। बाद में दोनों को लेकर उलझनें भी पेश आयीं पर दिल से उनकी सरदारी नहीं गयी। यह मामला वैसा ही था जैसा खुशवंत सिंह ने लिखा था कि बापू के शराब और ब्रह्मचर्य संबंधी विचार बेहद अटपटे हैं लेकिन मैं नहीं चाहता कि उनकी जो मूर्ति मन में है उसे कोई ठेस पहुंचे। पिता वैसे तो ज़रा सी ग़लती पर भी आवेश में आ जाते थे लेकिन उनकी मूल प्रकृति शांत, प्रसन्न और उदार थी। परसाईजी ने एक बार मुझसे कहा था कि नायक जी के होंठों पर हंसी और नाक पर ग़ुस्सा रहता था | मैट्रिक करने के बाद उन्होंने कहा कि इतने साल में यदि खादी के संस्कार नहीं बने तो अपनी मर्ज़ी का पहनो और घर में फिर सूती और टेरीकॉट का बेधड़क प्रवेश हुआ। पर पिता ने तो घोर ग़रीबी के दिनों में खादी का संकल्प लिया था और तीन काम तय किये थे, पढ़ना, इसके लिए ट्यूशन करना, ताकि आधिकाधिक स्वावलम्बी हों और आज़ादी के लिए काम करना। यह 193० की बात है, तब वे सत्रह के थे। दो साल बाद खादी दुगनी महँगी हो गयी। पिता ने गाँधीजी को लिखा कि मेरा जैसा छात्र इस गरीबी, महँगाई में खादी का संकल्प कैसे निभाये? उनका पोस्टकार्ड आया, 'डियर गणेश प्रसाद, वेयर देअर इज़ ए विल, देयर इज़ ए वे। कट शार्ट यूअर एक्सपेंसेस, बापू |'
सन् 33 में गाँधीजी संभवत: पहली बार जबलपुर आये थे। एक सभा में पिताजी गाँधीजी के सामने बैठ गए, वे उन्हें एकटक देखे जा रहे थे, तब गाँधीजी ने उनसे कहा, ऐसे मत देखो, ध्यान बँटता है। इसी समय एक सभा हमारे मोहल्ले दीक्षितपुरा के उपरैनगंज वार्ड में स्थित सिमरिया वाली रानी की कोठी में हुई। प्रसंगवश, माखनलालजी चतुर्वेदी ने इसी कोठी से 'कर्मवीर’ निकाला था। तब उनका प्रेस भी यहीं था। गाँधीजी की यह सभा महिलाओं की थी। इसके बारे में मुझे मेरी माँ के ताऊजी के पुत्र मामा जीवन नायक ने, जो उस समय ग्यारह वर्ष के थे, बताया था। इसी कोठी के पीछे गली में हमारा ननिहाल 'नायक निवास’ है। मामाजी अपनी माँ को लेकर वहां गये थे। भाषण के बाद गाँधीजी झोली फैलाकर एक-एक कतार में गये और चंदा लिया। झोली भरने पर वे जाकर एक जगह उसे उलट आते। घर लौटते हुए मामाजी को उनकी माँ ने बताया कि वे कान के झुमके दे आयी हैं। माँ को छोड़कर मामाजी फिर वहां आ गये। तभी एक सज्जन ने कहा कि कान की एक बाली नहीं मिल रही है। गाँधीजी जा चुके थे , उन्हें जाकर बताया गया तो उन्होंने कहा, 'कोई माँ, बहन बापू को एक कान का गहना नहीं देगी। देगी तो दोनों। न दे तो एक भी न दे। और तलाश करो।’ अंत में गाँधीजी की बात को सही ठहराता दूसरा झुमका दरी के धागे में फंसा हुआ मिल गया।
दूसरे विश्व युद्ध में गाँधीजी ने जनता से अपील की कि भारत को उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ युद्ध में घसीटा जा रहा है इसलिए वह युद्ध में धन-जन की कोई मदद न करे। इसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करते हुए सत्याग्रहियों का चुनाव अपने हाथ में लिया। सत्याग्रहियों की नैतिक व चारित्रिक मर्यादाएं निश्चित कीं। सत्याग्रह की विधि निर्धारित की। विनोबाजी को प्रथम सत्याग्रही बनाया। पिता का नाम नगर की पहली सूची में था पर गोविंद दास और द्बारिका प्रसाद मिश्र ने उनसे कहा कि सूची के मुताबिक सत्याग्रह होने पर बाद में तो सत्याग्रह कराने वाला कोई न होगा इसलिए तुम बाद में सत्याग्रह करना, तब तक सत्याग्रही तैयार करो और अपनी परीक्षा भी दे लो। नियम यह था कि सत्याग्रही पुलिस को सूचना देते थे। समय, स्थान बताते थे, पुलिस उन्हें सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार कर ले जाती थी। मार्च में पिताजी की परीक्षा हो गई। दूसरी लिस्ट तक पुलिस गिरफ़्तार करती रही, लेकिन फिर तीसरी लिस्ट के सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी बंद कर दी। पहले ही नहीं सत्याग्रह के बाद भी गिरफ़्तारी रुक गयी। पिता नई-नई विधि से तब भी गिरफ़्तारी कराते। पिता ने अपने सत्याग्रह का दिन तय कर लिया था पर इसके पहले मूलचंद यादव नाम के सत्याग्रही की गिरफ़्तारी आवश्यक थी। पिताजी ने एक परचा बनाया कि सरकारी कर्मचारी युद्ध में सहयोग न करें। इसकी कई प्रतियां टाइप करायीं। सत्याग्रही की यूनीफार्म बनायी - सफ़ेद पेंट, सफ़ेद कमीज़, गाँधी टोपी और झोला। सत्याग्रही से कहा कि कचहरी की शांति भंग न करे, न कोई नारा लगाये। सिर्फ़ कहे कि गाँधीजी का संदेश देने आया हूँ। उसे सबसे पहले सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पूरे सम्मान के साथ पत्र देना था। जब सत्याग्रही पत्र लेकर बाहर निकलने लगा तो मजिस्ट्रेट ने उसे रोककर पुलिस बुलाकर जेल भेज दिया, इसी की उम्मीद थी। इस सत्याग्रही की अनोखी विधि की अख़बारों में चर्चा हुई। लेकिन प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने इस विधि को गाँधीजी के विचारों के विपरीत बताकर उस सत्याग्रही को अमान्य कर दिया। पिता ने गाँधीजी को पत्र लिखा कि सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी न होने से यह विधि अपनायी, जोकि किसी भी तरह आपके उसूलों का उल्लंघन नहीं है। उन्होंने गाँधीजी को मजिस्ट्रेट को दिये पत्र की कॉपी भी भेजी। इसके बाद पिता सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार हो गए। पहले वे जबलपुर जेल में रहे फिर नागपुर भेज दिये गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि गाँधीजी ने प्रदेश कांग्रेस के फ़ैसले को रद्द करने का आदेश देते हुए सत्याग्रही को मान्य घोषित किया और कहा कि उस लड़के ने बहुत ही सूझबूझ से काम लिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गिरिजाशंकर अग्निहोत्री ने प्रेस को इस फ़ैसले की सूचना दी थी। नागपुर जेल से छूटकर पिताजी सीधे सेवाग्राम गए। दिन भर गाँधीजी की कुटी के बाहर खड़े रहे। शाम को महादेव देसाई मिले उन्होंने घूमते समय गाँधीजी से भेंट करने को कहा, तभी गाँधीजी कुटी से निकले और पिता पर नज़र पड़ी तो पूछा, कहां से आये हो? नागपुर जेल से सुनकर बोले, तो भोजन कर लो। नागपुर जेल में कैदियों द्बारा काता तीन सेर सूत भेंट करने पर गाँधीजी बोले, 'बहुत कम काता।’ इत्तफ़ाक यह हुआ कि भोजन की पांत में गाँधीजी पिताजी की बगल में आकर बैठ गए और दोने में जैसे ही दाल परसी गई उन्होंने लहसुन की भुसी की पुड़िया खोल के अपनी दाल में और फिर पिताजी की दाल में डाल दी। पिताजी प्याज-लहसुन नहीं खाते थे , पर उस दिन जी कड़ा करके दाल पी। नागपुर जेल में लड़कर उन्होंने राजनैतिक कैदियों के लिए किचन खुलवाया था और जब वहां सब्ज़ी में प्याज पड़ी तो उसे बंद करने के लिए उपवास कर दिया। वे अपनी पर अड़ने वाले व्यक्ति थे , अंत में उनके हिसाब की एक अलग छोटी किचन और बनी। जेल में उन्हें उपाधि दी गयी थी, 'कुछ झुकी कमर पर ज़ोर दिये/ डिक्टेटरशिप का बोझ लिये/ सुबह चार बजे उठ चरखा कातें/ मुँह में मीठे बोल लिये।’ जेल में लड़कर और फिर अनशन करके उन्होंने लोहे के तसले में खाना देना बंद करवाया था। दूध बंद होने पर सत्याग्रह शुरू करवाया था। ... भोजन के बाद टहलते हुए उन्होंने गाँधीजी को दूध बंद होने की बात बतायी। गाँधीजी ने कहा तुम नागपुर वापस जाकर सत्याग्रह बंद करने का संदेश दो और घर जाकर इस पर वक्तव्य दो, वे ख़ुद भोजन में दूध की आवश्यकता पर सरकार को लिखेंगे। बाद में जेल में भोजन की जाँच पर कमीशन बना, जिसने आठ ओंस दूध ज़रूरी माना। तब से जेल में 6० से 4०० ग्राम तक दूध मिलने लगा | पिता ने जीवन भर संघर्ष किया पर गांधी- प्रेरित सिद्धांतों से कभी डिगे नहीं... कई बार जेल यात्राएँ कीं, मीसाबंदी भी रहे, पर कभी पैरोल नहीं लिया | 1944 में अपने पिता की मृत्यु पर उनके के अंतिम दर्शनों के लिए पैरोल नहीं लिया।
हमारे नाना गोपाल प्रसाद नायक स्वाभिमानी, स्वावालम्बी और स्वाध्यायी थे। 'सरस्वती’ के
संपादक समालोचक और साहित्यकार महावीर प्रसाद द्बिवेदी के प्रिय छात्र रहे | द्बिवेदीजी पहले कंपनी सरकार की जीआईपी रेलवे में थे। झांसी स्टेशन पर उनकी मूर्ति भी है। वे नाना को रेलवे में लाना चाहते थे और मौक़ा पाकर वे उन्हें रेलवई में ले आये। नाना अपने काम में बहुत ही मेहनती और ईमानदार थे। देशप्रेम की भावना से भरपूर थे। जबलपुर-इलाहाबाद के बीच के स्टेशनों पर वे रहे। पता चलता कि अमुक नेता फलां गाड़ी से निकल रहा है तो गाड़ी रुकवाकर नेता को दूध-फल भेंट करते। वे पहले स्टेशन मास्टर थे , जो अपनी मांगों को लेकर पूरे स्टाफ़ के साथ हड़ताल पर बैठ गए। अगस्त 42 में उन्होंने स्टेशन पर तिरंगा फहरा दिया। वे निलंबित हो गये और एक साल बाद जब लिये गए तब बहुत छोटे स्टेशनों पर उन्हें रखा गया। उनकी एक चचेरी बहन सुमित्रा थीं, जो कम उम्र की थीं और एक साल में विधवा हो गयी थीं। उनके पिता ने सुमित्रा को इनके पास भेज दिया। सुमित्रा की हालत देख उनका हृदय विदीर्ण हो गया। प्रण किया जब तक इसका फिर विवाह न करेंगे अन्न नहीं खायेंगे। यह 193० की बात है। कपड़ों, सजधज और खाने के शौकीन गोपाल प्रसाद मोटा पहनने लगे। अलोना खाने लगे। कमलगटा, कसेरू, महावरी, मूंगफली, सिंघाड़ा और ऋतुफल यही आहार हो गया। पान, तम्बाकू, भाँग और खुशबूदार तेल - फुलेल सब बंद। उनकी दो बेटियां और उनसे बड़ा एक बेटा था। यह निश्चय भी किया कि अब उनकी संतान नहीं होगी। वे सूत कातने और रामचरित मानस के परायण में रम गए। सुमित्रा इस बीच मिडिल पास हो गयीं। नाना ने गाँधीजी को पत्र लिखकर संकल्प के बारे में बताया। उन्होंने कहा, निर्णय बेशक सही है पर विधवा-विवाह के लिए समाज तैयार नहीं है। यह क्रांतिकारी काम है। ब्राह्मण वर्ग तो कदापि तैयार न होगा। याद रहे कोई साथ न देगा। सगे-संबंधी मुँह फेर लेंगे। पर क्या विघ्न के भय से पीछे हट जाओगे? संकल्प लिया है तो पूरा करो। हिम्मत रखो, भगवान पर भरोसा रखो। मालवीयजी ने भी ऐसा ही लिखा। महावीर प्रसाद द्बिवेदी ने उन्हें 'बाल विधवा-विलाप’ शीर्षक अपनी कविता भेजी और लिखा, 'मैं विधवा-विवाह को धर्मसंगत मानता हूं और हिंदू-धर्म की कठोर रूढ़ियों के विरुद्ध हूं। लोग निंदा करें या स्तुति - इस पर हर्ष-विषाद में न पड़कर जो ठीक समझ रहे हो वही करना। अंतत: तीन साल बाद रानीपुर में विवाह हुआ। नाना तब वहीं स्टेशन मास्टर थे। पिता और भाइयों के सिवा कोई नहीं आया। जमींदार, जागीरदार आसपास के आये, मित्र मंडली आयी और धूमधाम से विवाह हुआ। इतने साल बाद जब नाना ने नमक वाला भोजन किया तो जीभ में छाले पड़ गए। शादी में विदा के समय 'सम्राट’ उपनामधारी कवि ने नाना को एक मानपत्र दिया, जिसकी कुछ पंक्तियां ये थीं: 'गोपाल तुम्हारी वीणा ने यह छेड़ी तान निराली है/ जिसकी धुन मोहक है सबको मदमस्त बनाने वाली है/ तुमने सचमुच नायक बन कर यह अनुपम सुयश कमाया है/ जो लता शुष्क थी उसका तुमने जीवन सरस बनाया है।’ शादी में बारातियों को चाँदी की तकली भेंट की गयी थी। वे जाति से निकाल दिये गए पर कुछ साल बाद झांसी में जिझौतिया ब्राह्मणों के अधिवेशन में वापस ले लिये गए। मेरी माँ का वहां जुलूस भी निकला , क्योंकि वे समाज की पहली मैट्रिकुलेट लड़की थीं।
गोपाल प्रसाद नायक |
संपादक समालोचक और साहित्यकार महावीर प्रसाद द्बिवेदी के प्रिय छात्र रहे | द्बिवेदीजी पहले कंपनी सरकार की जीआईपी रेलवे में थे। झांसी स्टेशन पर उनकी मूर्ति भी है। वे नाना को रेलवे में लाना चाहते थे और मौक़ा पाकर वे उन्हें रेलवई में ले आये। नाना अपने काम में बहुत ही मेहनती और ईमानदार थे। देशप्रेम की भावना से भरपूर थे। जबलपुर-इलाहाबाद के बीच के स्टेशनों पर वे रहे। पता चलता कि अमुक नेता फलां गाड़ी से निकल रहा है तो गाड़ी रुकवाकर नेता को दूध-फल भेंट करते। वे पहले स्टेशन मास्टर थे , जो अपनी मांगों को लेकर पूरे स्टाफ़ के साथ हड़ताल पर बैठ गए। अगस्त 42 में उन्होंने स्टेशन पर तिरंगा फहरा दिया। वे निलंबित हो गये और एक साल बाद जब लिये गए तब बहुत छोटे स्टेशनों पर उन्हें रखा गया। उनकी एक चचेरी बहन सुमित्रा थीं, जो कम उम्र की थीं और एक साल में विधवा हो गयी थीं। उनके पिता ने सुमित्रा को इनके पास भेज दिया। सुमित्रा की हालत देख उनका हृदय विदीर्ण हो गया। प्रण किया जब तक इसका फिर विवाह न करेंगे अन्न नहीं खायेंगे। यह 193० की बात है। कपड़ों, सजधज और खाने के शौकीन गोपाल प्रसाद मोटा पहनने लगे। अलोना खाने लगे। कमलगटा, कसेरू, महावरी, मूंगफली, सिंघाड़ा और ऋतुफल यही आहार हो गया। पान, तम्बाकू, भाँग और खुशबूदार तेल - फुलेल सब बंद। उनकी दो बेटियां और उनसे बड़ा एक बेटा था। यह निश्चय भी किया कि अब उनकी संतान नहीं होगी। वे सूत कातने और रामचरित मानस के परायण में रम गए। सुमित्रा इस बीच मिडिल पास हो गयीं। नाना ने गाँधीजी को पत्र लिखकर संकल्प के बारे में बताया। उन्होंने कहा, निर्णय बेशक सही है पर विधवा-विवाह के लिए समाज तैयार नहीं है। यह क्रांतिकारी काम है। ब्राह्मण वर्ग तो कदापि तैयार न होगा। याद रहे कोई साथ न देगा। सगे-संबंधी मुँह फेर लेंगे। पर क्या विघ्न के भय से पीछे हट जाओगे? संकल्प लिया है तो पूरा करो। हिम्मत रखो, भगवान पर भरोसा रखो। मालवीयजी ने भी ऐसा ही लिखा। महावीर प्रसाद द्बिवेदी ने उन्हें 'बाल विधवा-विलाप’ शीर्षक अपनी कविता भेजी और लिखा, 'मैं विधवा-विवाह को धर्मसंगत मानता हूं और हिंदू-धर्म की कठोर रूढ़ियों के विरुद्ध हूं। लोग निंदा करें या स्तुति - इस पर हर्ष-विषाद में न पड़कर जो ठीक समझ रहे हो वही करना। अंतत: तीन साल बाद रानीपुर में विवाह हुआ। नाना तब वहीं स्टेशन मास्टर थे। पिता और भाइयों के सिवा कोई नहीं आया। जमींदार, जागीरदार आसपास के आये, मित्र मंडली आयी और धूमधाम से विवाह हुआ। इतने साल बाद जब नाना ने नमक वाला भोजन किया तो जीभ में छाले पड़ गए। शादी में विदा के समय 'सम्राट’ उपनामधारी कवि ने नाना को एक मानपत्र दिया, जिसकी कुछ पंक्तियां ये थीं: 'गोपाल तुम्हारी वीणा ने यह छेड़ी तान निराली है/ जिसकी धुन मोहक है सबको मदमस्त बनाने वाली है/ तुमने सचमुच नायक बन कर यह अनुपम सुयश कमाया है/ जो लता शुष्क थी उसका तुमने जीवन सरस बनाया है।’ शादी में बारातियों को चाँदी की तकली भेंट की गयी थी। वे जाति से निकाल दिये गए पर कुछ साल बाद झांसी में जिझौतिया ब्राह्मणों के अधिवेशन में वापस ले लिये गए। मेरी माँ का वहां जुलूस भी निकला , क्योंकि वे समाज की पहली मैट्रिकुलेट लड़की थीं।
नाना जबलपुर में वड़ोदरा की लड़कियों की प्रभात फेरी देखकर इतने प्रभावित हुए कि अपनी
सात-आठ साल की बेटियों को वड़ोदरा पढ़ने भेज दिया। कई साल पहले इन्हीं शारदेय नवरात्र के दिनों में माँ ने मुझसे कहा था कि आजकल तो टीवी पर गरबा देखो तो सब कहीं ये फ़िल्मी गानों पर होते दिखते हैं। तुम कल्पना नहीं कर सकते कि बहत्तर साल पहले हम छोटी-छोटी लड़कियां वड़ोदरा की स्कूल में यह गाते हुए गरबा करते थे, यह कहते हुए उन्होंने गाते हुए वह पंक्ति सुनायीं, ' देसड़िया नी भाजे गंधीजी अवे गांड्यो तो ' , जिसका अर्थ था कि 'ये गाँधी तो देश के लिए पागल हो गया है’ - इसे ही गाते हुए माँ और सहेलियां गरबा किया करती थीं। वड़ोदरा में भाषा, खानपान की दिक़्क़त थी तो नाना ने दोनों को इलाहाबाद में महादेवीजी की महिला विद्यापीठ में भेज दिया। सावित्री मौसी तो थोड़े समय रहीं पर माँ छठवीं से एम.ए. तक वहीं पढ़ीं और महादेवी की प्रिय छात्रा रहीं। यहीं जब वे छठी-सातवीं में ही थीं तब गाँधीजी हिंदी साहित्य सम्मेलन के किसी कार्यक्रम में आए। वहां स्कूल की छात्राओं के साथ माँ को 'वंदे मातरम्’ गाना था। जब वे गाँधीजी के सामने से निकलीं तो उन्होंने उनका हाथ पकड़कर पूछा, 'वंदे मातरम् गाओगी।’ हां, कहने पर पीठ पर एक धौल जमाते हुए गाँधीजी ने कहा 'ज़ोर से गाना।’ गाँधीजी की भस्म जब गंगा में विसर्जन के लिए इलाहाबाद आयी तब माँ रामधुन गाती पैदल संगम तक गयी थीं।...
मां गायत्री नायक |
सात-आठ साल की बेटियों को वड़ोदरा पढ़ने भेज दिया। कई साल पहले इन्हीं शारदेय नवरात्र के दिनों में माँ ने मुझसे कहा था कि आजकल तो टीवी पर गरबा देखो तो सब कहीं ये फ़िल्मी गानों पर होते दिखते हैं। तुम कल्पना नहीं कर सकते कि बहत्तर साल पहले हम छोटी-छोटी लड़कियां वड़ोदरा की स्कूल में यह गाते हुए गरबा करते थे, यह कहते हुए उन्होंने गाते हुए वह पंक्ति सुनायीं, ' देसड़िया नी भाजे गंधीजी अवे गांड्यो तो ' , जिसका अर्थ था कि 'ये गाँधी तो देश के लिए पागल हो गया है’ - इसे ही गाते हुए माँ और सहेलियां गरबा किया करती थीं। वड़ोदरा में भाषा, खानपान की दिक़्क़त थी तो नाना ने दोनों को इलाहाबाद में महादेवीजी की महिला विद्यापीठ में भेज दिया। सावित्री मौसी तो थोड़े समय रहीं पर माँ छठवीं से एम.ए. तक वहीं पढ़ीं और महादेवी की प्रिय छात्रा रहीं। यहीं जब वे छठी-सातवीं में ही थीं तब गाँधीजी हिंदी साहित्य सम्मेलन के किसी कार्यक्रम में आए। वहां स्कूल की छात्राओं के साथ माँ को 'वंदे मातरम्’ गाना था। जब वे गाँधीजी के सामने से निकलीं तो उन्होंने उनका हाथ पकड़कर पूछा, 'वंदे मातरम् गाओगी।’ हां, कहने पर पीठ पर एक धौल जमाते हुए गाँधीजी ने कहा 'ज़ोर से गाना।’ गाँधीजी की भस्म जब गंगा में विसर्जन के लिए इलाहाबाद आयी तब माँ रामधुन गाती पैदल संगम तक गयी थीं।...
जीवन नायक |
हमारे जीवन मामा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य में दाखिले के प्रत्याशी थे। उन्हें स्टेशन के सामने रीवां कोठी में कमरा मिल गया था। रीवां राज्य परिवार के लाल पद्मधर सिंह वहीं रहते थे। वे विद्यार्थी आंदोलन के नेता थे। मामाजी उनके करीब आये और आंदोलन में समय देने लगे। यह सन् 42 का वक़्त था एकाएक आंदोलन उग्र हो गया। पुलिस ने गोली चलायी और पद्मधर सिंह का प्राणांत हो गया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ भवन का नाम उन्हीं के नाम पर है और उनकी प्रतिमा भी वहां लगी हुई है। मामाजी बताते थे कि पद्मधर माखनलाल चतुर्वेदी की दो पंक्तियां, अक्सर गुनगुनाया करते थे: 'जो कष्टों से घबराऊं, मुझमें कायर में भेद कहां/बदले में ख़ून बहाऊं, तो मुझमें डायर में भेद कहां।’
इस घटना के बाद मामाजी का नाम विश्वविद्यालय से ख़ारिज हो गया। मामाजी तब बंबई आ गए और एक परिचित के साथ दादर में रहने लगे उन्हें वहीं के डिसल्वा पब्लिक स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने का काम मिल गया। उनकी बिल्डिंग के पास ही सड़क पार आराम बिल्डिंग थी जहां वे ट्यूशन पढ़ाते थे। एक दिन तीसरी मंजिल से सीढ़ियां उतरते उनकी मुलाक़ात उत्तमराव से हो गयी जो फ़ोटो-पत्रकार थे। कुछ अंग्रेजी समाचारपत्रों के लिए नियम से लिखते थे और 'द ओरिएंट’ के अधिकृत संवाददाता थे। उन्होंने मामाजी के बारे में सभी जानकारियां जुटा रखी थीं। उन्होंने अपनी मंशा बतायी तो ट्यूशन के बाद मामाजी एक घंटा का समय उन्हें देने लगे। टेलीफोन के संदेश लिखना आदि काम था। चाय और खाने की सामग्री के अलावा पढ़ने को भी काफ़ी कुछ रहता। मामाजी के शब्दों में : 'सन् 42 का अगस्त आ गया था। शुरू से ही बंबई के वातावरण में अकुलाहट छा रही थी। कांग्रेस के बड़े नेता आ रहे थे। माहौल में बेचैनी और छटपटाहट थी। पहला हफ़्ता बीता कि ऐलान हुआ कल शिवाजी पार्क में सभा है, गाँधीजी बोलेंगे। भारी भीड़ उमड़ पड़ी। पर न गाँधीजी आए न सभा हुई। लेकिन उनका संदेश सब कहीं पहुंच गया - 'तुम्हीं सिपाही हो, तुम्हीं नेता हो। करो या मरो।’ सभी की ज़ुबान पर था, 'करो या मरो।’ फिर एक ख़बर आग की तरह फैली- 'गाँधीजी पकड़ लिये गए, सारे नेता गिरफ़्तार हो गए।’ एक सनसनी और बौखलाहट फिर चिल्लाहट में बदल गयी, 'अंग्रेजों भारत छोड़ो।’ सड़क को अवरुद्ध किया जाने लगा। रस्से बांध कर खम्भों को सड़क पर लिटा दिया गया। घर का बेकार सामान सड़क पर आ गया। लड़के रातभर खंभे पीटते रहे, 'धन्न-धन्न।’ उस रात शायद ही कोई सोया। सुबह यातायात ठप्प था। दोपहर में सेना आ गयी। लोगों को पकड़कर अवरोध उठाये जाने लगे।’ मामाजी से रहा नहीं गया तो वे जैसे-तैसे 'आराम,’ बिल्डिंग पहुंचे और पढ़ने वाले बच्चों के लिए घंटी बजाई तो दरवाज़ा खुलने से पहले दो सर्जेटों ने बंदूकें अड़ा दीं और कहा नीचे चलकर सड़क साफ़ करो। तब तक दरवाज़ा खुल चुका था, मामाजी ने लड़कों से उत्तमराव को सब बताने को कहा। नीचे कई लोग कतार में थे। बाद में एक में ट्रक में लादकर कोतवाली लाकर एक-एक छोटे-से कमरे में कई-कई लोग ढूंस दिए गए। रात में मामाजी की तंद्रा तब खुली जब एक सिपाही ने उनसे कहा बाहर चलो। बाहर उत्तमराव थे। लड़कों ने उन्हें बता दिया था। पुलिस अधिकारी ने मामाजी को उनके हवाले किया और उत्तमराव की बेबी आस्टिन में वे चल दिये। रास्ते में उत्तमराव ने धीरे से कहा, पता चला है कि बापू पुने में हैं। दो बजे गाड़ी है। अपन चलेंगे। उनका दर्शन करेंगे। मैं सुतार (बढ़ई) बनूंगा तुम मेरे मददगार। दूरबीन का इंतज़ाम है। तुम खाना खाकर एक घंटे सो लो। फिर दोनों ने ट्रेन पकड़ी। पौने दो घंटे में ठिकाने लगे। बाहर निकलकर तमिलभाषी उत्तमराव ने मराठी में बात कर एक टैक्सी वाले को तैयार किया और सीधे चलने को कहा, जब टैक्सी मुख्य सड़क पर आयी तो थोड़ा चलकर उतर गए और एक दिशा में इशारा करके बोले अपन को वहां टीले तक चलना है। पत्थर और झाड़ियां हैं, सम्हलकर। अपने पास 45 मिनट हैं। पसीने से लथपथ दोनों 38 मिनट में वहाँ पहुंचे। उत्तमराव ने दूरबीन तैयार की। साफ़्टवुड के छह टुकड़े थे, एक दूसरे में फिट होने वाले। उनमें शीशे फंसाने के लिए खांचे थे। सबको जोड़कर दूरबीन बन जाती थी। ऊपर लगे शीशे पर सामने की चीज़ का अक्स पड़ता था जो नीचे के शीशे में दिखायी देता था। मामाजी पास ही लेट गए। फिर एक कंकड़ उन्हें लगा। आँखें खोलीं तो उत्तमराव इशारे से बुला रहे थे। पौ फट चुकी थी। उजाला फैल गया था। यह गाँधीजी के सुबह की सैर का वक़्त होता है। उत्तमराव ने दूरबीन से सिर हटाया और कहा, 'देखो! भगवान का लाख-लाख शुक्र!’ अगस्त ’42 की वह नौ तारीख की सुबह थी। मैंने दूरबीन से देखा आगा खां महल के प्रांगण में सफ़ेद चादर ओढ़े गाँधीजी फुर्ती से टहल रहे हैं। बाद में लौटकर उत्तमराव ने यह ख़बर भेजी और उनका अख़बार संभवत: यह ख़बर पहले पहल देने वाला बना।
गाँधी शताब्दी के समय 1969 में गाँधी साहित्य प्रचार के लिए जबलपुर नगर निगम प्रशासक एलपी तिवारी ने एक रुपये महीने पर पिताजी को दूकान दी थी, अच्छे साहित्य के प्रचार के लिए। इस सत्साहित्य ग्रंथागार में गाँधी-विनोबा और अन्य साहित्य मिलता था। पहले मैं उसमें बैठता था तो गाँधीजी की लिखी और उन पर लिखी कई किताबें पढ़ीं। अब मेरे छोटे भाई जयप्रकाश बैठते हैं। इस दुकान को भी पचास वर्ष हो गए। उस समय आसपास ऐसे अनेक लोग थे जो गाँधी के अनुयायी थे। शहर और बाहर के पिताजी के मित्र हमारे तमाम चाचा गांधी की गोपियां थे | ये स्मृतियां बताती हैं कि गाँधीजी ने लोगों को किस गहराई से प्रभावित किया |आज के कठिन और उद्विग्न समय में गाँधीजी के साथ उन सबको याद करना बेहद ज़रूरी है... वैसे तो, इनकी 'जस की देह को जरा मरन नहीं होय!'
(पिछले साल सत्य हिंदी.कॉम में प्रकाशित)
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