सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

व‍िवेचना रंगमंडल राष्ट्रीय नाट्य समारोह रंग परसाई 2021: नाटकों के विकास में अभ‍िनेता की अनुपस्थि‍त‍ि

 

जबलपुर में पिछले द‍िनों व‍िवेचना रंगमंडल ने 28 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह रंग परसाई को अलग ढंग से आयोज‍ित क‍िया। कोरोना काल में बंद‍िशों के बीच बाहरी रंग संस्थाओं को आमंत्र‍ित करना संभव नहीं था। व‍िवेचना रंगमंडल ने जबलपुर की सक्र‍िय संस्थाओं को आमंत्र‍ित कर जश्ने जबलपुरकी अवधारणा को साकार कर द‍िया। इस अवधारणा का एक लाभ यह हुआ क‍ि व‍िभ‍िन्न रंग संस्थाओं का दर्शक समूह एक साथ पहली बार इकठ्ठा हो गया। व‍िवेचना रंगमंडल ने समारोह में भोपाल के के. जी. त्र‍िवेदी को रंग परसाई  राष्ट्रीय रंग सम्मान के साथ वसंत काशीकर, समर सेनगुप्ता, राजकुमार कामले व कार्ति‍क बैनर्जी को रंग साधना सम्मान से सम्मान‍ित क‍िया गया। पांच द‍िवसीय नाट्य समारोह में आर्यावर्त सांस्कृतिक संस्थान ने भगवत अज्जुक‍ियम्, आयुद्ध रंगमंडल ने गर्तम् शरणम, नाट्यलोक ने आधी हकीकत-आधा फ़साना, समागम रंगमंडल ने अग्न‍ि और बरखा और व‍िवेचना रंगमंडल ने दूर देश की कथा का मंचन क‍िया। समारोह में मंच‍ित हुए दो नाटक आधी हकीकत-आधा फ़साना और अग्न‍ि और बरखा का मंचन जबलपुर में पहली बार हुआ, यद्यप‍ि दोनों नाटक वर्ष 2019 से मंच‍ित हो रहे हैं।  

समारोह की शुरूआती दो नाट्य प्रस्तुतियां हास्य प्रधान रहीं। पहली नाट्य प्रस्तुति आर्यावर्त सांस्कृतिक संस्थान द्वारा सातवीं शताब्दी के संस्कृत हास्य नाटक भगवत अज्जुक‍ियम् की रही। बोधायन रचित प्रसिद्ध संस्कृत नाटक भगवत अज्जुक‍ियम् अपने ढंग की अनूठी प्रस्तुति है। सामाजिक विसंगतियों का विरूप रंगमंच पर हास्य के माध्यम से पहली बार भगवदज्जुकम् में प्रस्तुत हुआ। सुधी रंग दर्शकों को नट बुंदेले की अलखनंदन न‍िर्देश‍ित भगवत अज्जुक‍ियम् प्रस्तुति की याद अभी भी ताजा है। वर्ष 2017 में सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ भारंगम में ‘भगवदज्जुकीयम्’ के साथ प्रस्तुत हुए थे। संस्कृत नाटक को प्रैक्टिकली करना बहुत मुश्किल है। ‘भगवदज्जुकीयम्’ में जो थॉट और डिबेट है, वह यूनिवर्सल है।  वैसे यह एक कॉमेडी है, लेकिन इसके अंदर जो दर्शन है, वह बेहद कमाल का है। इसमें जो गुरु है वह भौतिक संसार को नकारता है और अध्यात्म की बात करता है और जो शिष्य है वह भौतिक संसार की बात करता है और अध्यात्म को नकारता है। स्त्री के शरीर में पुरुष और पुरुष के शरीर में स्त्री की आत्मा का प्रवेश होने से क्या होता है, इसे नाटक में दर्शाया गया। आर्यावर्त ने नाटक को बुंदेली में प्रस्तुत क‍िया। आयुद्ध रंगमंडल (आर्डनेंस फैक्टरी खमर‍िया) ने सत्येन्द्र रावत के लेखन व न‍िर्देशन में गर्तम शरणम्... की प्रस्तुति दी। नाटक दो बेरोजगार युवकों की हालातों से जूझने की कहानी है। कहानी में बाबाजी व अन्य पात्रों का घटनाक्रम है। हास्य हिंदी नाटकों की त्रासदी हास्यास्पद हो जाना है। दोनों प्रस्तुतियों में पर‍िस्थि‍तिजन्य हास्य की पूरी संभावनाएं थीं, लेक‍िन न‍िर्देशक और कलाकार इसे समझ नहीं पाए और न ही मंच पर न‍ियंत्र‍ित कर पाए। अज़ीब से चेहरे बनाने और तरह-तरह की आवाज़े न‍िकालने से हास्य उत्पन्न नहीं होता बल्क‍ि खीझ होती है।

आर्यावर्त और आयुद्ध रंगमंडल नवोद‍ित संस्था है। इनके कलाकारों में अभ‍िनय करने का माद्दा है। आर्यावर्त के अध‍िकांश कलाकार इंटर कॉलेज नाटक प्रतियोगिता के जर‍िए सामने आए हैं। वहीं आयुद्ध रंगमंडल के कलाकार फैक्टरी में नुक्कड़ नाटकों से सुरक्षा व सेफ्टी का संदेश देते-देते मंच पर अवतर‍ित हो गए। दोनों संस्थाओं के कलाकारों में भरपूर आत्मव‍िश्वास व ऊर्जा है, परन्तु जरूरत है उन्हें अच्छी स्क्र‍िप्ट की। आर्यावर्त ने बुंदेली लोक शैली में अनुवाद कर के प्रयोग क‍िया है। सत्येन्द्र रावत को लेखन के स्थान पर न‍िर्देशन को प्राथमि‍कता देनी होगी। गर्तम शरणम के अंत में लेखन व न‍िर्देशन दोनों भ्रमित हो गए।

समारोह की तीसरी प्रस्तुति नाट्यलोक की फ‍िल्म अभ‍िनेत्री मीना कुमारी के जीवन पर आधार‍ित आधी हकीकत-आधा फ़साना रही। रंगमंच पर अब फ‍िल्म कलाकारों की बायोप‍िक का चलन शुरू हो गया है। सीधी के प्रसन्न सोनी ने गुरूदत्त के जीवन पर भंवरा बड़ा नादान तो व‍िवेचना रंगमंडल गुरूदत्त के ही जीवन पर प्यासा का मंचन कर चुका है। नाट्यलोक ने आधी हकीकत-आधा फ़साना के माध्यम से गुजरे जमाने की अदाकारा मीना कुमारी के बचपन, कैर‍ियर और ट्रेजेडी भरे अंत को बयां क‍िया। नाटक का स्पष्ट संदेश है क‍ि फ‍िल्म स्टार हो या थ‍िएटर आर्ट‍िस्ट उसकी ज‍िंदगी में चकाचौंध के पीछे क‍ितने कष्ट होते हैं। वह क‍ितना अकेला होता है। नाटक की शुरूआत पाकीजा फ‍िल्म के सेट से होती है। सेट से मीना कुमारी को इतना प्यार है क‍ि वह यहीं बसती है। रूह अपनी दास्तां बयां करते हुए प्रेम कहानी और जिंदगी की परतें खोलती है। फ‍िल्म पाकीजा के न‍िर्माण में कुल 19 वर्ष लगे थे। कई बार यह बंद हुई तो कई हादसे भी हुए। मीना कुमारी अपना बचपन देखती है, जहां वाल‍िद उसे अनाथ आश्रम के बाहर छोड़ जाते हैं। बच्ची की आवाज छोड़ कर वाल‍िद बेटी को गले लगा लेते हैं। वह बचपन में पढ़ाई छोड़ कर अभ‍िनय करने लगती है। उन्हें 17 साल बड़े कमाल अमरोही से प्यार हो जाता है। हालांक‍ि ये प्रेम कहानी शादी के बाद ज्यादा द‍िन नहीं चल पाती। कमाल कुछ द‍िनों बाद तलाक दे देते हैं। मीना कुमार खुद को शराब में डूबो लेती है। अंत‍िम दृश्य में मीना कुमार कहती हैं क‍ि आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे....और उनकी मौत हो जाती है। मीना कुमारी की असल ज‍िंदगी फ‍िल्म की कहानी की तरह और फ‍िल्म की कहानी असली ज‍िंदगी की तरह थी। उन्हें ट्रेजेडी क्वीन इंड‍ियन फ‍िल्म इंडस्ट्री भी कहा जाता है। नाटक में मीना कुमारी के फ‍िल्मों के सात गानों के मुखड़ों का उपयोग क‍िया गया। इस नाटक को नवीन चतुर्वेदी ने ल‍िखा। नवीन चतुर्वेदी मूलत: लल‍ित न‍िबंधकार व कवि हैं। उन्होंने नाट्यलोक संस्था के ल‍िए अशफ़ाक, उधम सिंह और सुभद्रा कुमारी चौहान के जीवन पर मिला तेज से तेज जैसे नाटक लिखे। नाट्यलोक के निर्देशक संजय गर्ग ने इन नाटकों को बच्चों को ले कर क‍िया, लेकिन यह नाटक वयस्क कलाकार भी मंचित कर सकते हैं। मीना कुमारी के जीवन पर नाटक ल‍िखना नवीन चतुर्वेदी के लिए चुनौती थी। उन्होंने चुनौती को स्वीकार किया और काफी हद तक यथार्थवादी लेखन किया। नाटक में धर्मेन्द्र  व मीना कुमारी प्रसंग को लेखक ने अवध‍ि के कारण छोड़ दिया। नवीन चतुर्वेदी ने मीना कुमारी पर रोमांटिक नाटक ल‍िख कर स‍िद्ध किया कि वे सिर्फ देशभक्ति विषय पर ही लिखते बल्क‍ि उनके लेखन में विविधता है।  

निर्देशक संजय गर्ग ने पूरे नाटक की गत‍ि को संभाल कर रखा है। उन्होंने नाटक की गति कम रखी है। इस प्रकार की प्रकृत‍ि व व‍िषयवस्तु वाले नाटकों की गति को कम रखना जरूरी हो जाता है। संजय गर्ग व अनूप जोशी बंटी की ड‍िजाइन‍िंग सूझबूझ वाली व प्रभावशाली है। पाकीजा के सेट की भव्यता प्रदर्श‍ित करने में हर्ष‍ित झा के प्रकाश संयोजन का योगदान महत्वपूर्ण है। नाटक में साधारण सीढ़ी एक चर‍ित्र की तरह है। नाटक में दो पात्रों का अभ‍िनय करने वाले कलाकारों पर बात करना जरूरी हो जाता है। मीना कुमारी की भूमिका दीपा स‍िंह ने व‍िश्वसनीयता के साथ न‍िभाई है। उन्होंने मीना कुमारी की आवाज़, भाव-भंगिमाओं के साथ उर्दू के संवाद नफासत से बोले। कमाल अमरोही की भूमिका न‍िभाने वाले र‍िज़वान अली पूरे नाटक में व‍िश्वसनीय नहीं रहे। न तो शायर की अदाकारी द‍िखा पाए और न ही न‍िर्देशक का रूप उनमें द‍िखा। छोटी-छोटी भूमिकाओं में स्थाप‍ित कलाकार नाटक को सहारा देते रहे। नृत्यांगनाओं ने उत्कृष्ट कत्थक प्रस्तुत कर धीमे रखे गए नाटक की एकरूपता को तोड़ा व गति दी। दीपा स‍िंह को यह नाटक प्रत‍िष्ठ‍ित करने वाला है, लेक‍िन एक खतरा यह भी है क‍ि कहीं मीना कुमारी का चर‍ित्र ही उन्हें ओवरलेप न कर ले या थ‍िएटर की जिंदगी में इतना हावी हो जाए क‍ि वे उससे उबर ही नहीं पाएं। ऐसे कई उदाहरण हैं। इस म‍िथक को न‍िर्देशक संजय गर्ग तोड़ने को कट‍िबद्ध हैं। वे कहते हैं क‍ि अगली प्रस्तुति में दीपा स‍िंह दर्शकों को नए रूप में द‍िखेंगी।

समारोह की चौथी प्रस्तुति समागम रंगमंडल की अग्न‍ि और बरखारही। आशीष पाठक व स्वाति दुबे समागम रंगमंडल के माध्यम से जटिल नाटक प्रस्तुत करते रहे हैं। आशीष पाठक स्वयं नाटक ल‍िख‍ते और मंचन करते हैं। इस बार उन्होंने ग‍िरीश कर्नाड के जट‍िल नाटक अग्न‍ि और बरखा को मंचन के ल‍िए चुना और न‍िर्देशन का दाय‍ित्व स्वाति दुबे ने ल‍िया। इतिहास, पुराण, जातक और लोककथाएं गिरीश कर्नाड के लिए सर्वाधिक प्रिय विषय रहे हैं। ये नाटक भी उसी कड़ी में से एक है। अग्नि और बरखा’ कर्नाड द्वारा (1994-95) में कन्नड भाषा में ’अग्नि मतु मले’ नामकर शीर्षक से लिखा गया। नाटककार ने ही इस नाटक का अंग्रेजी में अनुवाद किया और अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद रामगोपाल बजाज ने किया। रंगमंच में सामयिकता का बड़ा ही महत्व है। रंगमंच चूंकि वर्तमान में घटित होता है अतः उस पर दबाव होता है कि वह वर्तमान से संवाद करे, भले ही वह पौराणिक आलेख प्रस्तुत करे लेकिन उसकी व्याख्या उसका अंतर्पाठ वर्तमान से जुड़ा हो अन्यथा रंगमंच केवल एक सजीव चित्रावली बन कर रह जाएगा।  एक सजग रंगकर्मी अपने वर्तमान को पहचानता है और अपनी चयनित प्रस्तुति में उसे प्रतिध्वनित भी करता है। स्वाति दुबे ने इस दबाव को महसूस किया और इसे अग्न‍ि और बरखा में बेहतर ढंग से प्रस्तुत क‍िया।

निर्देशक अच्छा होता है तो आलेख की गति चुस्त हो जाती है, अभिनेता बिलकुल बदले नजर आते है, प्रस्तुति का हर कोण सधा हुआ होता है और दर्शक एक बेहतर रंगानुभव के साथ प्रेक्षागह से बाहर निकलते हैं। स्वाति दुबे निर्देशित ‘अग्नि और बरखा’ ऐसी ही प्रस्तुति है।  ग‍िरीश कर्नाड का यह नाटक शेक्सपीयर के हेलमेट की याद दिलाता है जहां चरित्र अपने भीतर के द्वंद्व और बाहर की दुनिया से सामंजस्य न होने की वजह से उत्पन्न हुए संघर्ष में लिप्त हैं।  मृत्यु की एक शृंखला शुरू हो जाती है जिसमें बचता वही है जो निर्दोष है, जिसमें प्रेम बचा है। शेक्सपीरियन त्रासदी की तरह नाटक का दुखांत नहीं होता। भारतीय प्रभाव में सकारात्मक बिंदु पर नाटक समाप्त होता है। बरसों से तपती धरती पर बारिश होती है और धरती के साथ मानव के भीतर की दहक अग्नि को शीतलता मिलती है। इस नाट्य प्रस्तुति में कई आयाम हैं। जो सत्ता और ब्राह्मणों के गठजोड़, ब्राह्मणों के भीतर वर्चस्व की होड़, उनका पाखंड, स्त्रियों की स्थिति, उनकी यौनिकता, ज्ञान प्राप्ति‍ के बाद भी अपने ही ग्रंथियों में कैद ब्राह्मण, ब्राह्मणों और ब्राह्मणेतर जातियों का संबंध,  सबंध से उपजी हिंसा, असुरक्षा इत्यादि कई तरह के बिंदुओं को यह नाटक गहराई से छूता है। निर्देशक ने अभिनेताओं को इतना अनुशासित रखा है कि नाटक इन तत्वों को कामयाबी से उभारता है। प्रस्तुति में सभी अभिनेताओं ने सधी भूमिका की है। श‍िवाकर सप्रे और मानसी रावत का अभ‍िनय ध्यान देने योग्य है और स्वाति दुबे ने व‍िशाखा के पात्र को आत्मसात कर ल‍िया। स्वाति दुबे ने अपनी परिकल्पना से स्टेज का कल्पनाशील का इस्तेमाल किया है। यक्ष गान शैली से प्रस्तुति व‍िश्वसनीयता जगाती है। आशीष पाठक की प्रकाश परिकल्पना ने मंचीय स्पेस को गहराई और बहुस्तरीयता दी है। स्वाति दुबे ऐसे निर्देशक हैं, जो नाटककार के शब्दों का अनुसरण करते हैं। नाटक वैदिक युग की कहानी पर है, लेकिन यह अपने एक्सप्रेशन से बिलकुल आज का कथ्य लगता है। यह प्रस्तुति बताती है कि निर्देशक के प्रयास से अभिनेताओं का अंदाज बदल जाता  है। स्वाति दुबे ने रंगमंच के तत्वों का समन्वय म‍िला कर कथ्य पर जोरदार पकड़ बनाए रखी है। उनकी प्रस्तुति ब्राह्मणों के आपसी संघर्ष और वर्चस्व के बीच स्त्रियों की वास्तविक स्थिति को  प्रस्तुत करती है,जो हर समाज में उपेक्षित है। मनुष्य अपनी भीतरी ग्रंथियों का शमन कर बाहर कैसे सहज बना रहता है और परिस्थिति अनुकूल होने पर कैसे यह ग्रंथियां सामने आ जाती है, इसका भी चित्रण उन्होंने बखूबी क‍िया है। प्रस्तुति की एक महत्वपूर्ण बात यह है क‍ि यह नाटक के विकास के साथ-साथ अभ‍िनेता के अभ‍िनय को भी वि‍कसित करती है।

समारोह की समापन प्रस्तुति व‍िवेचना रंगमंडल की दूर देश की कथाकी रही। इप्टा पटना के जावेद अख्तर खां ने दूर देश की कथा को ल‍िखा है। दूर देश की कथा को इप्टा का प्रत‍िन‍िध‍ि नाटक माना जाता है। इस नाटक ने हिन्दी की जनवादी-यर्थाथवादी नाटकों की दुनिया में संभावनाओं के नए दरवाज़े खोले थे। पटना इप्टा ने दूर देश की कथा के 100 से अध‍िक मंचन क‍िए हैं। दूर देश की कथा-हर‍िशंकर परसाई के इंस्पेक्टर मातादीन चांद का एक्सटेंशन कहा जा सकता है। ‘दूर देश की कथा जीवंत और लोकप्रिय नाटक है। भारतीय रंगमंच पर भी यह नाटक बार बार लौटता है। नाटक में आठवें-नौवे दशक के अनुसार देश व समाज की समस्याएं, व‍िडम्बना व व‍िरोधाभास हैं, लेक‍िन वर्तमान में चुनौत‍ियां नई तरह की हैं। निर्देशक प्रगति-विवेक पाण्डेय ने मूल स्क्र‍िप्ट तो बरकरार रखी है, लेक‍िन वर्तमान संदर्भ को ले कर जिन पंचोंका उपयोग क‍िया गया है, वह दमदार तो हैं ही दर्शकों को हंसाने के साथ उत्तेज‍ित भी करते हैं।

नाट्य प्रस्तुति में विवेचना रंगमंडल के सभी नवोद‍ित कलाकारों को मंच पर अवसर म‍िला। इनमें से अध‍िकांश ने पहली बार मंच पर कदम रखा। व‍िवेचना रंगमंडल द‍िल्ली की अस्म‍िता (अरव‍िंद गौड़) के साथ देश का सबसे बड़ा रंग समूह है। व‍िवेचना रंगमंडल के न‍िर्देशक अरूण पाण्डेय की कोश‍िश रहती है क‍ि ऐसी स्क्र‍िप्ट में नाटक का मंचन क‍िया जाए, ज‍िसमें सभी नवोद‍ित कलाकारों के ल‍िए गुंजाइश न‍िकल पाए। दूर देश की कथा में 28 कलाकार मंच पर और सात मंच से परे थे। वैसे दूर देश की कथा की मूल स्क्र‍िप्ट में इतने कलाकार नहीं हैं, लेक‍िन व‍िवेचना रंगमंडल ने नवोद‍ित कलाकारों के ल‍िए कोरस में संभावना न‍िकाली और कुछ ने म‍िले अवसर का भरपूर फायदा भी उठाया। नाटक में लग्गू व भग्गू दो मुख्य पात्र हैं। इनकी भूमिका भी दो नवोद‍ित कलाकारों ने अभ‍िनीत की। दोनों कलाकार ऊर्जा से लबरेज थे, लेक‍िन अंत आते-आते इनकी ऊर्जा चुक गई। शुरू में इनकी जैसी ऊर्जा थी, वैसी कोरस की ऊर्जा पूरी प्रस्तुति में नहीं द‍िखी। न‍िर्देशक न‍िठ्ठल्ले की डायरी (न‍िठ्ठल्ले की भूमिका) की तरह लग्गू-भग्गू की भूमिका यद‍ि अनुभवी कलाकारों को सौंपते तो बेहतर रहता और प्रस्तुति प्रभावी होती। दूर देश की कथा जैसे नाटक संदेश देते हैं, अभ‍िनय का मौका नहीं।  

निर्देशक प्रगति-विवेक पाण्डेय ने अपने स्तर पर नाटक के संदेश को दर्शकों तक पहुंचाने का पूरा प्रयास क‍िया। यद‍ि वे स्क्र‍िप्ट के अनुसार पात्रों की संख्या रखते या उपयोग करते तो नाटक व संदेश और अध‍िक सम्प्रेष‍ित हो जाता। न‍िर्देशक की ड‍िजाइन‍िंग व पर‍िकल्पना आकर्ष‍ित करती है। व‍िवेक पाण्डेय में प्रकाश पर‍िकल्पना को और बेहतर बनाने की क्षमता है, लेक‍िन वे ऐसा कर नहीं पाए। सुयोग्य पाठक का संगीत प्रस्तुति को गति देता है और उसे गायक व वादक दोनों ने जीवंत रूप से प्रभावी भी बनाया। व‍िवेचना रंगमंडल की इस प्रस्तुति के पश्चात् फ‍िर एक बार यह सवाल खड़ा हो गया क‍ि उनकी सैकड़ों प्रस्तुतियों के बाद भी अभ‍िनेता स्थापित क्यों नहीं हो पा रहे हैं? अभ‍िनेता अनुपस्थि‍त सा ही है।  

रंग परसाई 2021 का समापन हो गया। इसके साथ ही कुछ प्रश्न, मुद्दे व व‍िरोधाभास भी हैं। हर‍िशंकर परसाई, ज्ञानरंजन जैसे व्यक्त‍ित्वों को अपना आदर्श मानने वाला व‍िवेचना रंगमंडल अपने स‍िद्धांतों व आदर्श को परे रख कर ऐसे लोगों को मंच पर क्यों आमंत्र‍ित करता है, जिनके उद्देश्य उनसे (व‍िवेचना रंगमंडल) से मेल नहीं खाते। एक ओर तो दूर देश की कथा का मंचन और दूसरी ओर मंच पर मंद‍िर के ल‍ि‍ए राश‍ि एकत्र करने का संदेश ? दर्शक भ्रमित। कुछ प्रेक्षागृह से बाहर न‍िकल कर यह बातें भूल जाते हैं और कुछ के जेहन में अभी तक यह बात कौंध रही है।     


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