मंगलवार, 23 मार्च 2021

हम इक उम्र से वाकिफ हैं: हरिशंकर परसाई के संस्मरणात्मक आत्मकथ्य का गंभीर कोलाज




 हरिशंकर परसाई के अपने संघर्षों को लेकर उनके अपने विश्वास थे। जो उनके अपने जीवन के आगे बढ़ते-बढ़ते दृढ़ से दृढ़तर होते चले गए। उनका आत्म कथ्य है-हंसना-हंसाना, विनोद करना अच्छी बातें होते हुए भी, उन्होंने मनोरंजन के लिए कभी नहीं लिखा। उनकी रचनाएं पढ़ कर हंसी आना स्वाभाविक है। यह उनका यथेष्ट नहीं। वे और चीजों की तरह व्यंग्य को उपहास, मखौल न मान कर एक गंभीर चीज मानते थे। उनका विश्वास था कि साहित्य के मूल्य, जीवन मूल्यों से बनते हैं। उनका मानना था कि जीवन जैसा है, उससे बेहतर होना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में एक शेर ज़हन में उभरता है- "सितम-ए-राह पर रखते चलो सरों के चिराग, जब तलक कि सितम की सियाह रात चले।" जिन रचनाकारों की या किसी प्रबुद्ध नागरिक की यदि इस घटाटोप समय में संवेदना और विवेक खंडित नहीं हैं तो वह अच्छी तरह जानता है कि इस सियाह रात का अभी अंत नहीं हुआ है। अपनी दुनिया को पाने के लिए मीलों दूर जाना है। हरिशंकर परसाई इस राह पर आजीवन चलते रहे। किशोरावस्था से ही उनके जीवन में दुखों ने अपना घेरा इस तरह बनाया कि वे लंबे समय तक उससे लड़ते रहे। संभवतः आयु की उस सक्रांति के वक्त ही उनके अंदर एक बड़े रचनाकार ने जन्म लिया। परसाई व्यंग्य के विचारक हैं। अप संस्कृति के स्त्रोतों पर परसाई निरंतर व्यंग्य करते हैं, अपराजित उत्साह के साथ। उनकी रचनाएं स्वातंत्रोत्तर भारत का चेहरा है।

परसाई की मृत्यु 1995 के पूर्व से उनके व्यंग्य पर आधारित नाटकों का मंचन प्रारंभ हुआ। तीस वर्षों में जितने भी


नाटक हुए वे व्यंग्य के साथ हास्य की धारा को साथ ले कर चले। इन नाटकों से परसाई के शब्द व विचार तो जरूर दर्शकों तक पहुंचे लेकिन उनके लेखन के पीछे कौन से कारण रहे हैं उस पर रंग निर्देशकों का ध्यान बिल्कुल नहीं गया। रंगकर्म‍ियों को परसाई के व्यंग्य बाणों ने आकर्ष‍ित किया। यह आकर्षण स्वाभाविक था। कुछ नाट्य निर्देशकों ने परसाई के व्यंग्य के मर्म ने पहचाना तो कुछेक परसाई की लोकप्र‍ियता से प्रभावित हुए। परन्तु हरिशंकर परसाई का मानना था कि सही व्यंग्य व्यापक जीवन परिवेश को समझने से आता है। व्यापक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिवेश की विसंगति, मिथ्याचार, असामंजस्य, अन्याय आदि की तह में जाना, कारणों का विश्लेषण करना, उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में देखना-इससे सही व्यंग्य बनता है। जरूरी नहीं कि व्यंग्य में हंसी आए। यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है, विद्रूप को खड़ा कर देता है, आत्मसाक्षात्कार कराता है, सोचने को बाध्य करता है, व्यवस्था की सड़ांध को इंगित करता है और सबसे महत्वपूर्ण बात, यदि वह परिवर्तन के लिए प्रेरित करता है, तो वह सफल व्यंग्य है। जितना विस्तृत परिवेश होगा, जितनी गहरी विसंगति होगी और जितना तिलमिया देने वाली अभिव्यक्ति होगी, व्यंग्य उतना सार्थक  होगा। परसाई व्यंग्य को एक स्पिरिट मानते थे, विधा नहीं। वे कहते थे- व्यंग्य विधा नहीं है- जैसे कहानी, नाटक और उपन्यास। व्यंग्य का कोई निश्चित स्ट्रक्चर नहीं है। वह निबंध, कहानी, नाटक-सब विधाओं में लिखा जाता है। व्यंग्य लेखक को यह शिकायत नहीं होना चाहिए कि विश्वविद्यालय व्यंग्य को विधा क्यों मानते। उन्हें संतोष करना चाहिए व्यंग्य का दायरा इतना विस्तृत है कि वह सब विधाओं को ओढ़ लेता है।

पिछले दिनों समागम रंगमंडल ने हम इन उम्र से वाकिफ हैंनाटक के माध्यम से हरिशंकर परसाई को नए रूप में प्रस्तुत किया। हम इन उम्र से वाकिफ हैंपरसाई के संस्मरण का कोलाज है। वे संस्मरण लिखने जब बैठे तो उन्हें फ़ैज अहमद फ़ैज का यह शेर याद आया-

हम इक उम्र से वाकिफ हैं अब न समझाओ

के: लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबां सितम क्या है।


परसाई ने शेर का आरंभ का हिस्सा शीर्षक बना दिया- हम इन उम्र से वाकिफ हैं। समागम रंगमंडल ने परसाई के संस्मरणों के कोलाज को मंच पर उतारा है। यह नाटक पिछले तीस वर्षों से परसाई के नाटकों से इस मायने में भिन्‍न है कि इसमें कहीं भी व्यंग्य या हास्य नहीं है। यह परसाई व उनकी गंभीरता और उसके पीछे की तह को सिलसिलेवार सुगड़ता के साथ परोसता है। परसाई के जीवन संघर्ष के अनुभव, कड़ुवाहट, अपमान और उत्पीड़न, अन्याय, यातना की स्मृतियां, विष को पचा कर जीने और लड़ने की स्मृति नाटक के अलग-अलग दृश्यों में आती जाती हैं और दर्शक आंख गढ़ाए उन्हें देख कर नॉस्टेलजिया में गोते लगाता है। परसाई के संस्मरण में वे कम हैं, लेकिन बदलता ज़माना ज्यादा है। परसाई को सभी लोग एक लेखक के रूप में पहचानते हैं और इस काम को उन्होंने पूरे जीवन ईमानदारी के साथ किया। उन्होंने अपने त्याग व बलिदान को महिमा मंडित नहीं किया। नाटक की प्रथम प्रस्तुति को रॉ-कटकहना ज्यादा उपयुक्त होगा। समागम रंगमंडल के आशीष पाठक व स्वाति दुबे के काम करने का तरीका है कि वे स्क्र‍िप्ट तैयार कर नाटक प्रस्तुत नहीं करते बल्क‍ि वे दृश्यों को संयोजित कर पहले मंच पर जाते हैं और कई प्रस्तुतियों के पश्चात् उनके नाटक परिपूर्ण स्क्र‍िप्ट में सामने आते हैं। अगरबत्ती और एक अकाउंटेंट की डायरी में मिट्टी की सौंधी सुगंध जैसे उनके नाटक इसी रूप में सामने आए हैं। अगरबत्ती मंच पर पहले आया और लगभग दस वर्षों के पश्चात् इसकी स्क्र‍िप्ट परिपूर्ण रूप में आयी। ऐसे ही गौरीनाथ की कहानी पर आधारित अकाउंटेंट की डायरी नाटक भी है। गौरीनाथ को उस समय आश्चर्य हुआ जब इस नाटक के पहले मंचन के समय उन्हें जानकारी मिली कि नाटक की कोई स्क्र‍िप्ट नहीं है। नाटक में इस प्रकार का काम करने का तरीका जटिल व कठिन है, लेकिन संभवत: यह समागम रंगमंडल और उसके निर्देशक आशीष पाठक व स्वाति दुबे की परम्परा बनता जा रहा है।

            ‘हम इक उम्र से वाकिफ हैं’ नाट्य प्रस्‍तुति का स्‍पष्‍ट संदेश है- परसाई के जीवन और चिंतन एक दूसरे के पूरक हैं। परसाई के जीवन की अंतरर्दृष्टि का विकासक्रम, उनके जीवन संदर्भों से जुड़ा हुआ है। नाटक में परसाई के जीवन चक्र व चिंतन दोनों मिल कर विलक्षण अंतरर्दृष्टि का निर्माण करते हैं। इसमें लोग व घटनाएं भी दृष्टि को नया आयाम देती है। जीवन की विभिन्‍न  स्थितियों व घटनाओं से न केवल उनके रचनाकार व्‍यक्तित्‍व का निर्माण हुआ बल्कि उनकी लेखनी को भी धार मिली। परसाई का जीवन, उसमें शामिल लोग, घटनाएं, चिंतन, अंतरर्दृष्टि ये सब तत्‍व मिल कर उन्‍हें लेखक के साथ-साथ जन शिक्षक के रूप में स्‍थापित करते हैं।

            लगभग 65 मिनट अवधि के नाटक में परसाई के जीवन व चिंतन को समेटना चुनौतीपूर्ण काम है, लेकिन बिना


किसी स्क्रिप्‍ट के सिर्फ क्राफ्ट व ‘डिवाइस की सहायता से विभिन्‍न व्‍यक्तियों, परिस्थितियों व कालखंड की अद्भुत अनुभूति को जन्‍म देता और महसूस करवाता है। समागम रंगमंडल की अन्‍य प्रस्‍तुतियों की तरह यह नाटक भी कथ्‍य एवं प्रस्‍तुति के कारण जटिल है। नाटक देखते वक्‍त पूरे समय दर्शक को एकाग्र रहना पड़ता है। एक घंटे से अधिक समय की प्रस्‍तुति में लगभग दस दृश्‍य संयोजित किए गए हैं। नुक्‍कड़ शैली में ऐसे नाटक का मंचन करना मुश्किल है, और वह भी नवोदित कलाकारों के साथ। प्रस्तुत अवश्य नुक्कड़ शैली की है लेकिन कैनवास बड़ा है। नाटक के प्रत्येक दृश्य में ब‍िम्बों या प्रतीक का प्रयोग है। प्रतीक के जरिए नए अर्थ खोजे गए हैं। प्रस्तुति में कई उद्देश्यों को पाने के लिए जटिल बिम्बों का प्रयोग करना जरूरी हो जाता है। स्वाति दुबे ने एनएसडी की सैद्धांतिक व व्यावहारिक प्रशि‍क्षण का निर्देशन में बुद्धिमानी से उपयोग कर रही हैं। इस प्रस्तुति में भी उन्होंने डिवाइसकी सहायता से इनफार्मेशन व इमोशनके माध्यम से परसाई के विचार, समकालीन समय व कलाकारों की समझ को नया आयाम दिया। परसाई की दृष्ट‍ि‍ में संस्मरण के साथ वर्तमान झलक के रूप में नहीं बल्क‍ि स्पष्ट व मजबूती के साथ प्रगट होता है।

           


हम इक उम्र से वाक‍िफ हैंमें प्रत्येक दृश्य महत्वपूर्ण है। चाहे वह गोदो का हो या फुटबाल कमेंट्री का या पूरे नाटक में मौजूद ईंटों की दीवार हो- वे मूर्त चरित्र के साथ अमूर्त चरित्र के रूप में दर्शकों को बैचेन करते रहते हैं। यह प्रस्तुति एक बार देखने की नहीं है। बार-बार जब यह नाटक देखा जाए तो दर्शकों को हर बार नए अर्थ देखने को मिलेंगे। श‍िक्षक परसाई द्वारा छोटी बच्ची को स्कूल न आने का कारण पूछने और बच्ची द्वारा पिता की मृत्यु का कारण बताने वाला दृश्य भावुकता के साथ करूणा के भाव भर देता है। इस दृश्य को देख कर आभास होता है क‍ि हरिशंकर परसाई के लेखन में गहरी करूणा और गहरा व्यंग्य दोनों एक साथ है। करूणा के भाव को सिर्फ महसूस किया जा सकता है। इस प्रकार की घटनाओं से परसाई में वर्ग-चेतना भी जागी। उनके सरोकार की जानकारी म‍िली। इसी प्रकार परसाई का क‍िशोर अवस्था में अछूत कन्याफ‍िल्म देखना और मैं बन की चिड़‍ियागीत और फुटबाल खेलते हुए गेंद के गायब होने और गरीब होने पर चोर ठहराने का दृश्य सन्न कर देते हैं। नाटक में परसाई के स्कूल राधा स्वामी हाई स्कूल ट‍िमरनी के श‍िक्षक केशव चंद्र बग्गा का वृतांत भी है। इन्हीं श‍िक्षक से परसाई को साहित्य के संस्कार दिए और ज्ञान की अनंत पिपासा दी। केशव चंद्र बग्गा से परसाई को इतिहास चेतना व बोध म‍िला। परसाई के जीवन में केशव चंद्र बग्गा अमिट प्रभाव रहा। परसाई ने श‍िक्षा की विसंगतियों जो प्रहार क‍िया उसके अंश भी नाटक के दृश्य में देखने को मिले। एक महत्वपूर्ण दृश्य वह है जिसमें परसाई व ज्ञानरंजन राजनांदगांव पहुंच कर मुक्त‍िबोध के अंतिम दिनों में इलाज की व्यवस्था करते हैं और उन्हें भोपाल लाते हैं। वह परसाई का प्रारंभि‍क दौर था, उस समय बहुत कम लोगों का रूझान परसाई के प्रति था। उस समय परसाई के व्यंग्य और उनके विचार को पचाना बहुत मुश्‍क‍ि‍ल था। समकालीनता परसाई के ख‍िलाफ थी। उस समय मुक्तिबोध ने परसाई का साथ दिया, पर वह गहरा आलोचकीय साथ नहीं था। वह एक गहरी मैत्री थी और विचारों का साथ था। नाट्य प्रस्तुति के दौरान पहल के संपादक ज्ञानरंजन दर्शक दीर्घा में थे। इस दृश्य और पूरे नाटक को देख कर ज्ञानरंजन भावुक हो गए।

            हम इक उम्र से वाक‍िफ हैंकी व‍िश‍िष्टता इसके नवोदित कलाकारों का अभ‍िनय है। पूरे नाटक में कई कलाकार


परसाई के रूप में सामने आते हैं। निर्देशक स्वाति दुबे भी एक दृश्य में परसाई के रूप में सामने आती हैं। जटिल नाटक को यदि स्वयं कलाकार समझ ले तो यह प्रस्तुति की सबसे बड़ी सफलता है। मानसी रावत, ज्योत्सना कटारिया, आयुषी राव, श‍िवांजलि गजभ‍िए, रश्म‍ि त्र‍िपाठी, साक्षी दुबे, प्रवर जैन, उत्सव हांडे, श‍िवाकर सप्रे, हर्ष‍ित सिंह, बसंत पांडे, व‍िधान कटारे, अमन राय, राहुल थापा, भूम‍ि दुबे, आद‍ित्य ने व‍िभि‍न्न पात्रों की भूमिका तन्मयता के साथ न‍िभाई। आशीष पाठक की स्पीच व एक्ट‍िंग ट्रेनिंग और ध्वन‍ि व प्रकाश संरचना ने नाटक को काव्यात्मक रूप दिया। स्वाति दुबे की डिजाइनिंग नाटक को विशाल रूप देती है। जैसा क‍ि ल‍िखा गया क‍ि यह प्रस्तुति रॉ-कट है, उसके मुताबिक भविष्य में नाटक के मंचन के अनुसार कथ्य व प्रस्तुति गढ़ती जाएगी और एक न‍िर्णायक बिन्दु पर समग्र रूप में आएगी। आशीष पाठक व स्वाति दुबे दोनों का कहना है क‍ि उनके काम करने का ढंग अलग है। वे थोड़े में संतुष्ट नहीं होते। वे नाटक के अंत से संतुष्ट नहीं हैं। उनका मानना है क‍ि नाटक का अंत ही परसाई के चिंतन व विचार की उत्पत्त‍ि है। परसाई लेखन, विचार व चिंतन के लिए याद क‍िए जाते हैं। हम इक उम्र से वाक‍िफ हैंनाट्य प्रस्तुति परसाई के चिंतन व विचार को व्यापक व प्रभावी रूप से सम्प्रेष‍ित करने में सफल हुई। निश्च‍ित रूप से जैसे-जैसे इसके मंचन होंगे, उसे देखने वाले परसाई को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकेंगे और उनमें युवा वर्ग की संख्या बहुतायत से होगी। वर्ष 2024 परसाई का जन्म शताब्दी वर्ष है। ठीक तीन वर्ष पूर्व हम इक उम्र से वाक‍िफके मंचन की शुरूआत होना एक शुभ संकेत है।

            

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