मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

यादों में जयप्रकाश

  •  मनोहर नायक 




घर में राजनीतिक माहौल और बहसें थीं। पिता सर्वोदय में थे , पर राजनीति में भी जैसे शामिल थे, अन्य सर्वोदयी लोगों की तरह उससे विरत नहीं थे। यही कारण था कि कम उम्र से ही देश-प्रदेश के नेताओं की बातें और बहसें सुनने का अभ्यास हो गया और उस ओर दिलचस्पी बढ़ी।
बहरहाल, राजनीतिक रूप से जब होश संभाला तब बांग्लादेश बनवाकर इंदिरा गांधी 'दुर्गा’ कही जा रही थीं। ग़रीबी हटाओ नारा लगाकर उन्हें शायद उम्मीद रही हो कि 'लक्ष्मी’ भी कही जाने लगेंगी पर भ्रष्टाचार और लूटतंत्र ने उनके ' देवीत्व ' का हरण कर लिया | जेपी आंदोलन की  तैयारी वाली गहमागहमी शुरू हो गयी थी। माहौल हर दिन हंगामी होता जा रहा था। मुझे पिताजी के सर्वोदय से बाहर न आने पर कोफ़्त थी। जेपी ने अपनी राजनीतिक ख़ामोशी तोड़ दी थी। तभी एक दिन पिता दिल्ली रवाना हो गए, वहां प्रदर्शन-जुलूस निकलना था। वे कई आंदोलनकारियों के साथ एक हफ़्ता-दस दिन तिहाड़ में बंद रहे। यह 1973 के उत्तरार्द्ध का समय है। लौटकर आये तब प्रदेश के राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं की जबलपुर में गोकुलदास की धर्मशाला की पहली मंज़िल के छत पर बैठक हुई , मुंबई  के सर्वोदयी नेता गोविंदराव देशपांडे की देखरेख में, उसमें पिता मध्यप्रदेश संघर्ष समिति के संयोजक चुने गए। हमारा घर ही एक तरह से संघर्ष समिति का दफ़्तर हो गया था और भोपाल में शायद विधायक विश्रामगृह में किसी विधायक का एक कमरा। वैसे आधा दफ़्तर पिताजी के झोले में ही रहता था। इससे मुझे याद आया कि हमारे पिता के समाजवादी मित्र भोला (पाठक) चाचा बताते थे कि जब जबलपुर में समाजवादी पार्टी का सम्मेलन हुआ तो वे महासचिव अशोक मेहता को लेने स्टेशन गए। अशोकजी के साथ कोच से उनका पूरा दफ़्तर ही निकला, टाइपराइटर, साइक्लोस्टाइल मशीन, स्टेशनरी का सामान आदि। ... संघर्ष समिति बन जाने के बाद घर में मिलने वालों का तांता लगा रहता। नियमित  आने और देर तक बैठने वालों में शरद यादव थे। तब डाक दो बार बँटती थी, मेरा काम डाक सामग्री लाना, पोस्ट करना, तार करने जाना, वक्तव्य अख़बारों में पहुँचाना, रिजर्वेशन कराना, ट्रेन में साइड लोअर और बस में खिड़की वाली सीट लेने की हमेशा कोशिश होती, क्योंकि पिताजी को वे ही पसंद थीं |अगर वे एक-दो दिन के लिए ही कहीँ गए , तो साइकिल पर उन्हें स्टेशन या मोटर स्टैंड छोड़ने जाता । बीसों पत्र रोज़ आते। अख़बार पढ़कर पिता सुबह से जवाब देने का काम करते।  डेस्क में एक कोने में वे पत्र रखे जाते जिन पर रिपलाइड लिखा रहता था।
पिताजी
का जेपी से परिचय उस समय से था , जब वे सीपी एंड बरार स्टुडेंट कांग्रेस के अध्यक्ष थे। उसके एक समारोह में जेपी आये थे। 1941 से यह नियमित बना। जब जेपी राजनीति से अलग थे, तब भी जबलपुर से गुज़रते वक़्त वे पिता समेत कुछ अन्य पूर्व समाजवादियों को इत्तला कर देते थे, ये सब स्टेशन जाकर उनसे मिलते थे। बुंदेलखंड के आत्मसमर्पित बागियों के बचाव कार्य में पिता जेपी के कहने से लगे, और पहली बार उन्होंने अपना वकालतनामा शायद 1972  में बनवाया। जेपी सर्वोदय में रहते हुए भी राष्ट्रीय मसलों से कभी दूर नहीं रहे। वे अपनी राय , अपना सहयोग हमेशा  देते रहे। उसी तरह पिता भी मुख्यत: राजनीतिक प्राणी थे, और हर मामले में बयान ज़रूर देते थे , सभा - गोष्ठियों में जाते और बिना लाग लपेट के दो टूक अपनी राय रखते , कोई बड़ा मुद्दा हो तो परचा निकल आता | एक तरह से उनके वक्तव्य अख़बारों के दफ़्तर पहुँचाते-पहुँचाते मै ख़ुद अख़बारनवीस बन गया। इसलिए जब पिता जेपी आंदोलन में कूदे तो सर्वोदय के दूसरे आंदोलन-विरोधी लोगों ने आक्षेप किया कि देखिये मौक़ा लगते ही नायकजी राजनीति में कूद पड़े। यहाँ मधु लिमये की बात याद आती है , जो एक लेख में उन्होंने अच्युत पटवर्धन के संबंध में कही थी। लिमयेजी सभी समाजवादी नेताओं के क़रीब रहे। लोहियाजी, जेपी, एसएम जोशी, नानासाहेब गोरे और अच्युत पटवर्धन व उनके बड़े भाई रावसाहेब पटवर्धन, सभी के वे निकट थे। लिमयेजी ने 1942 में भूमगित आंदोलन चलाने, जनता को नेतृत्व देने तथा समाजवादी आंदोलन में योगदान के लिए अच्युतजी की प्रशंसा करते हुए उनके राजनीति से अलग हो जाने के बारे में लिखा, 'सार्वजनिक जीवन से निवृत्त होने के अच्युतजी के निर्णय या उनके अंतिम 42 सालों में नीले पंछी की विफल खोज याने उनकी जीवन-साधना या कार्य के बारे में मेरी कुछ भी राय हो, इतना स्पष्ट है कि मेरी उन कामों में रुचि नहीं थी।’ उनका कहना था 195० के बाद अच्युतजी जमकर नहीं बैठे... ' दौड़-धूप में, सार्वजनिक जीवन में तथा जन-संघर्ष के अग्निकुंड में लोहिया के समान अपनी विचारधारा उन्होंने विकसित नहीं की। बंबई में अशोक मेहता की तरह मज़दूरों और जनता के बीच तेजस्विता से काम नहीं किया। मार्क्सवाद से सर्वोदय तक जेपी ने लम्बी यात्रा की, लेकिन जनता, जनता की समस्याओं और उसके सुख-दुख से उन्होंने कभी रुख़सत नहीं ली, इसलिए 1973-77 के समय तानाशाही के ख़िलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व कर सके। अच्युतजी ने ऐसा कुछ नहीं किया। इन सब बातों से वे अलिप्त रहे। ' ... मधु जी का यह बयान जन-प्रेरित, सरोकार- युक्त लोगों की मन:स्थिति और मूल प्रेरणाओं का सही बखान करता है। ऐसे लोगों की जन - सेवा, जन - संघर्ष की लौ कभी मंद नहीं पड़ती।
जयप्रकाश और राम मनोहर लोहिया दोनों ही विलक्षण समाजवादी नेता रहे हैं। दोनों का प्रभाव चुम्बकीय था। डा. लोहिया साकार संघर्ष थे। उनका असर आमजन से लेकर पढ़े-लिखों और बुद्धिजीवियों में व्यापक था। जेपी कई मामलों में नेताओं के भी नेता थे। समाजवादी पार्टी के पहली पीढ़ी के नेता भी उनके ज़्यादा करीब और आत्मीय थे। ख़ुद डा. लोहिया ने कहा था कि इस देश को हिलाने की क्षमता जेपी में है , जिस दिन आज़ाद हिंदोस्तान में  वे   पुलिस की लाठी खा लेंगे , उस दिन   उन्हें समझ में आ जायेगा। जून 74 में पटना में ठीक यही हुआ था। लिमये ने भी लिखा है कि, जयप्रकाश नारायणजी का व्यक्तित्व नि:संदेह अत्यंत विलोभनीय था। उनके पास  जो ऋजुता  थी , उसका नाना साहेब गोरे द्बारा किया गया गुणगान बड़ा सार्थक है, ' उसी के कारण  कार्यकर्ता  जयप्रकाशजी की तरफ़ खिंचे चले आते थे। उनके प्रति समाजवादी कार्यकर्ताओं का प्यार और आकर्षण कभी कम नहीं हुआ। ... लोहिया का व्यक्तित्व प्रखर था, उसमें बौद्धिक आंच थी, जेपी शायद अधिक आत्मीय और स्निग्ध थे।
जेपी के इस आकर्षण के कई उदाहरण दिमाग़ में आ रहे हैं, जिसे  यहाँ-वहाँ पढ़कर  जाना । एमजे अकबर जब 'संडे’ के सम्पादक थे , तब शायद आनंद बाज़ार समूह ने एक पत्रिका 'न्यू डेल्ही’ निकाली थी। एमजे ने अपने गुरु खुशवंत सिंह को उसका संपादक बनाया। उसके मात्र छह ही अंक निकले।  एक अंक में खुशवंत सिंह ने एक लम्बा  दिलचस्प लेख जेपी पर लिखा था। एक सुबह घर में बैठे - बैठे सरदार लेखक को तब की राजनीति और नेताओं से एकाएक गहरी वितृष्णा हुई। अख़बार में एक ख़बर जेपी की  थी, जो बिहार  में  किसी मुहिम में लगे थे। उन्हें लगा कि एक यही सही आदमी राजनीति में है और वे सूटकेस लेकर जेपी के पास पहुँच गए और बोले कि जेपी मैं यहाँ आपके सेक्रेटरी के रूप में काम करूँगा | जेपी ने कहा कि आप यहाँ रहिये और जो काम हो रहा  है  उसके बारे में लिखिये। खुशवंत सिंह ने लिखा कि जेपी ने उदारतापूर्वक उन्हें अपने शाम के दो पैग लेने की इजाज़त दे दी। लेख काफ़ी विस्तार में था, अब याद नहीं, पर यह उसमें ज़रूर था कि जब जेपी आंदोलन चल रहा था उस समय खुशवंत सिंह बम्बई में वीकली के सम्पादक थे। जेपी बंबई आये तो काफ़ी कोशिशों के बाद भी बातचीत का मौक़ा नहीं मिला। वहाँ से जेपी पुणे गये, तो खुशवंत सिंह ने डेकन क्वीन में अपना टिकट करवा लिया और दो घंटे  जेपी से बातचीत करते पुणे पहुँचे। उन्होंने लिखा कि जेपी ने उन्हें अमेरिका में अपनी महिला मित्रों के बारे में भी बताया। पर लेख यहीं पर यह कहते हुए ख़त्म हो गया कि इस सब पर आगे लिखूंगा। उन्होंने शायद लिखा भी हो पर वह अपन को कभी पढ़ने को नहीं मिला।
'मेरे जीवन की कुछ यादें’ पुस्तक में कम्युनिस्ट नेता ज़ेड ए अहमद ने लिखा कि कांग्रेस पार्टी के ऐतिहासिक फ़ैज़पुर अधिवेशन में आचार्य नरेंद्र देव, डा. लोहिया, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, यूसुफ मेहर अली, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि समाजावादी नेताओं से सम्पर्क हुआ, जो आगे गहरी मित्रता में फलीभूत हुआ। अहमद लिखते हैं कि ' मुझे सबसे अधिक जयप्रकाश नारायण ने प्रभावित किया, उनकी मेरे दिमाग़ पर गहरी छाप पड़ी। मुझे उनके विचार और उनको अमल में लाने का तरीक़ा बहुत पसंद था | उनके व्यक्तित्व की वजह से उनका बेहद सम्मान था। उनके अंतिम दिनों तक मेरा उनसे आत्मिक लगाव बना रहा।’ जेपी के बीमारी के समय जब अहमद साहब उन्हें देखने पटना गए तो एक दिन जेपी ने उनसे कहा कि अहमद, मैं जब भी इलाहाबाद जाता था तो जवाहरलाल के यहाँ ठहरने के बजाय तुम्हारे यहाँ ही रुकता था और हाजरा बेग़म मेरी सेवा करती थीं, जानते हो क्यों?... जेपी ने कहा जवाहरलाल की तो मैं इज़्ज़त करता ही था, पर तुम्हें राजनीतिक कार्यकर्ता से ज़्यादा अपना गहरा मित्र मानता था। जब अहमद ने इस पर कहा कि यह तो मैं भी मानता हूँ, तब जेपी ने कहा तुम झूठ बोल रहे हो। तुमने कभी मेरे ऊपर विश्वास नहीं किया।... अहमद साहब अवाक् थे, संयत होते हुए उन्होंने कहा कि आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, तो जेपी ने कहा फिर तुमने मुझसे  समाजवादी पार्टी में रहते हुए यह क्यों छिपाये रखा कि तुम कम्युनिस्ट पार्टी के भी सदस्य हो? ज़ेडए अहमद ने विस्तार से उस समय की राजनीतिक स्थिति बताते हुए जेपी से कहा इन हालात में मैं यह बताकर कि मैं कम्युनिस्ट पार्टी का कार्डधारी सदस्य हूँ, आपके सान्निध्य से वंचित होना नहीं चाहता था।
मीनू मसानी की पुस्तक 'ऑल वाज़ बिलिस इन दैट डॉन’ में कई क़िस्से हैं। मीनू मसानी अंग्रेज़ी काट के व्यक्ति थे आचार-व्यवहार सब में। एक बार गांधी जी से मिलने गये मसानीजी ने उनसे हाथ मिलाया था और जेपी ने उनके पैर छुए  तो मसानी ने एतराज  जताया | इस पर उनसे जेपी ने कहा कि मैं कुछ कर नहीं सकता, मुझे ये संस्कार मिले हैं। यह बात सच है कि समाजवादी पार्टी की पहली पीढ़ी के नेताओं में सुभाष बाबू की तुलना में जवाहरलाल नेहरू के प्रति ज़्यादा आकर्षण था। मीनू मसानी ने कांग्रेस के किसी अधिवेशन का वर्णन करते हुए बताया कि वे जेपी के साथ शामियाने के बाहर खड़े होकर राजेंद्र बाबू का भाषण सुन रहे थे। राजेंद्र बाबू नेहरू के ख़िलाफ बिना नाम लिये हुए बोल रहे थे कि कुछ लोग बाहर से विचारों का आयात करके यहाँ थोप रहे हैं। मसानी ने लिखा कि जेपी यह सुनकर उत्तेजित हो गए और बोले ये राजेंद्र बाबू नेहरू के जूते के बराबर भी नहीं है। बाद में जेपी अनमने हो गए तो मसानी ने कारण पूछा। जेपी ने कहा कि राजेंद्र बाबू बुज़ुर्ग  नेता हैं, मुझे उनके बारे में यह नहीं कहना चाहिए था, मैं उनसे माफ़ी मागूँगा। मसानी ने कहा उन्हें तो यह पता भी नहीं, फिर अगर तुम्हें पछतावा हो रहा है, तो यह काफ़ी है, पर जेपी ने राजेंद्र बाबू को बताया कि उन्होंने ऐसा कहा था और उनसे माफ़ी माँगी।
जयप्रकाश अभिनंदन ग्रंथ में हज़ारी प्रसाद द्बिवेदीजी का उन पर एक लेख है। शांतिनिकेतन में जेपी का भाषण अंग्रेज़ी में हुआ। द्बिवेदीजी से उन्होंने हिदी में बात की। दो - एक लोग थे जिनसे जेपी भोजपुरी में बतिया रहे थे। पंडितजी से आख़िर नहीं रहा गया और उन्होंने भोजपुरी में जेपी से कहा कि आप हिंदी में बात कर मुझे काहे का दंड दे रहे हैं। तब से फिर कभी जब भी मिलना हुआ जेपी ने उनसे भोजपुरी में ही बात की।
'इलेस्ट्रेटेड वीकली’ में अस्सी के दशक में भोला चटर्जी के समाजवादियों, गांधी-नेहरू-सुभाष पर काफ़ी लेख छपते थे। एक लेख में उन्होंने लिखा था कि दरबार हाल या कहीं किसी समारोह में जेपी भी थे। कुछ देर बाद नेहरू उनके पास आये और बाँह पकड़कर उन्हें एकांत में ले गए और बातें करते हुए बोले, जेपी डुयू नो, यू शेयर ऑल माई सक्सेस और फ़ेल्यूर्स (जेपी क्या तुम जानते हो, तुम मेरी हर सफलता और असफलता के भागीदार हो)। 'लोक देवता जवाहर’ में दिनकरजी ने लिखा है कि जेपी से एक बार नेहरू ने कहा कि इस देश का प्रधानमंत्री जैसा होना चाहिए वे बातें तुममें हैं, पर तुम यह न समझो कि तुम आओगे और सब ठीक कर दोगे |  तुम्हें सब चीज़ें समझनी होंगी। हम लोग ऐसे ही आये और फिर  ग़लती करते चले गये। ... कुलदीप नैयर प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के प्रेस सचिव थे। अपनी पुस्तक 'बिटवीन द लाइन्स’ में उन्होंने लिखा कि एक बार उन्होंने शास्त्रीजी से यह पूछने का साहस किया कि अगर आपके मुक़ाबले इंदिरा गाँधी प्रत्याशी होतीं तो नेहरू के अनन्य भक्त होने के नाते आप तो मैदान से हट जाते? शास्त्रीजी ने उन्हें हैरत में डालते हुए कहा कि तुम मुझे ऐसा संत मत समझो... फिर कुछ देर चुप रहकर वे बोले देश की आज जो स्थिति है उसमें जयप्रकाशजी सबसे उपयुक्त प्रधानमंत्री  होते।
जेपी सवालों से परे नहीं  हैं , बल्कि आज  ज़्यादा उनके घेरे में हैं | सवाल ये पुराने हैं, आज  देश जिस संकटपूर्ण स्थिति में फंसा हुआ है, संघ का फ़ासीवाद तेज़तर - तीव्रतर बढ़ रहा है... लोकतंत्र और संवैधानिकता का समूल उच्छेदन वही ताक़त करने में लगी है , जो ग़ैरकांग्रेसवाद और सम्पूर्ण क्रांति की पीठ पर चढ़कर यहाँ तक पहुँची हैं | डॉक्टर साहब ने इन्हें प्रादेशिक सत्ताओं का और लोकनायक ने केंद्रीय सत्ता का स्वाद चखाया | दादा धर्माधिकारी ने अपनी पुस्तक  ' दादा के शब्दों में दादा ' में एक जगह लिखा है कि ' जेपी की ऋजुता का कोई अंत नहीं "...  क्या अपने इसी गुण के कारण वे उन  शातिर नेताओं, मित्रों, एक घराने और राजनीति  के मोहरा बन  गये, जो घात लगाये बैठे थे  ? क्या कोई अन्य ' निरपेक्ष ' रास्ता नहीं था उनके पास , जिसके बारे में वे निरंतर सोचते- पढ़ते- लिखते रहे? संघ को अपराध और विष  मुक्त करने वाले  उनके दुर्भाग्यपूर्ण बयान! एक तरह से गांधीजी  को ही कटघरे में ला खड़ा करने वाला नेहरू बनाम पटेल वाला बयान ! यह सही है कि सम्पूर्ण जेपी - लोहिया इन विवादों से कहीं बढ़े हैं | जेपी ने लिखा  ' जीवन विफलताओं  से भरा '... यह लिखते हुए क्या ये विफलतामूलक विसंगतियां जेपी के मन में थीं ? दरअस्ल  उस समय एक ज़रूरी मसला, लोकतांत्रिकता  की ख़ातिर कांग्रेस के निरंकुश होते जा रहे राजनीतिक एकाधिकार को तोड़ना और सार्थक विकल्प तलाशना था | तब आज के ख़तरे का  दूर -दूर तक अंदेशा नहीं था | कांग्रेस के ख़िलाफ़ लोहियाजी जुनून में थे, नेहरू के विरुद्ध कड़वाहट जितनी बढ़ती समाजवादी सम्प्रदाय उतना ही ताली पीटता, ऐसे ही जेपी जब कहते कि संघ अगर देशद्रोही है तो समझो जेपी भी देशद्रोही... लोग ख़ुश होते और संघ-जनसंघ के दिलों में लड्डू फूटते... और आज हाल यह है कि  नेहरू- कांग्रेस  खंडित - भग्न हैं, विपक्ष विपर्यस्त है  , संघ, भाजपा और उनके भक्तों - समर्थकों को छोड़ शेष सभी  देशद्रोही हैं  !  ये सवाल घुमड़ते रहते हैं... ये उन सभी से हैं जो विकल्प और लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहे थे, मेरे पिता भी उनमें शामिल हैं, उनकी तरफ़ से यह संतोष तो है ही कि वे संघ - जनसंघ के परम शत्रु थे और मध्य प्रदेश जैसे  जनसंघ -बली  राज्य की संघर्ष समिति में उन्होंने उसे दबाकर रखा | तमाम दबावों के बावजूद शरद यादव को जनता प्रत्याशी बनाया | समिति के यमुना प्रसाद शास्त्री और  लाड़लीमोहन निगम जैसे सदस्यों को वे झकझोरने वाले पत्र लिखकर उनसे बैठकों में अधिकाधिक सक्रिय होने को कहते और  चेतावनी देते  कि जनसंघ बड़ी मछली है  वह तुम्हें खा जायेगी | संघ - -जनसंघ का सोच - विचार देखिये,  आपात्काल से रिहाई के दो दिन में ही प्रदेश जनसंघ का, महासचिव प्यारेलाल खंडेलवाल द्वारा  हस्ताक्षरित पत्र  पिताजी को मिला , जिसमें बदली  हुई स्थितियों में संघर्ष समिति के औचित्य पर सवाल करते हुए उसकी व्यर्थता की ओर इशारा था ... यानि साफ़ था कि   जनसंघ  मेलमिलाप छोड़ अपने हिस्से के लिये दांत और नाख़ून पैने करने में लग गया था | इलाहाबाद के  'अमृत प्रभात ' अख़बार के रविवारी परिशिष्ट में, जिसके सम्पादक मंगलेश डबरालजी थे, पिताजी ने जनता पार्टी पर लेख लिखा था | उन्होंने लिखा कि यह भाव रूप पार्टी है , जब तक चले, चल जाये... सभी को केंद्र की सत्ता का स्वाद मिल गया है, पर जनसंघ को उससे भी बहुत ज़्यादा कुछ  मिला है।
पर 73-74-75 के वे दिन जेपी को समर्पित थे। हमारा घर भी एक केंद्र था। 'एव्रीमेन्स', ' प्रजानीति' और 'प्रतिपक्ष’ से जेपी और आंदोलन की नियमित खुराक मिलती थी, डाक से और पत्रिकाएं आतीं। जयप्रकाशजी पर दिनकर की कविता कंठस्थ हो गयी थी। जेपी को एक बार जबलपुर आने पर स्टेशन पर देखा था, वे दादा धर्माधिकारी के नामी वकील पुत्र वाईएस धर्माधिकारी, जो पारिवारिक और क़रीबी लोगों के लिये  बब्बन थे, के यहाँ ठहरे थे। वे मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के एडवोकेट जनरल भी हुए और जेपी आंदोलन में वह पद उन्होंने  छोड़ भी दिया था | उस शाम स्टेशन पर जेपी ने व्हीलर के यहाँ से एक किताब ली, पैसा फ़ौरन वकील साहब ने दिया। फिर जेपी आंदोलन के तूफ़ानी दिनों में इमरजेंसी लगने के एक हफ़्ते पहले वे जबलपुर आये थे, संघर्ष समितियों के सम्मेलन में |  तीन दिन पहले ही इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला इंदिराजी के ख़िलाफ़ आ गया था। सम्मेलन के आयोजन पर सरकार का भारी विरोध और अड़चनें झेलते हुए अंतत:  सम्मेलन जबलपुर के मानस-भवन में हुआ।  इसके बाद जेपी दिल्ली गए, बोट क्लब पर उनका विवादास्पद भाषण हुआ और फिर आपातकाल आ गया।
आपातकाल के उन दिनों में नये खुले जानकीरमण कॉलेज में मैं बीए का छात्र था। तब छात्र-छात्राएं भी ज़्यादा नहीं थे। शिक्षक भी गिने-चुने। प्राचार्य हमारे मोहल्ले के ही पत्रकार-लेखक हरिकृष्ण त्रिपाठी थे , जो युवावस्था में हमारे पिता के समूह में समाजवादी कार्यकर्ता थे। उनसे बात करके बिना किसी प्रचार के 1976 की ग्यारह अक्टूबर को कॉलेज में जयप्रकाश जी का जन्मदिन मनाया । मैं दादा धर्माधिकारी को, जो उन दिनों जबलपुर में थे, निमंत्रित का आया था। दादा रिक्शे पर आये, ख़ुद पैसे दिये और उसी प्रकार एक घंटे भाषण देकर चले गए। सिर्फ़ एक माला पहनाकर उनका स्वागत किया। दादा ने कहा कि इस समय देश में दो ही विभूतियाँ हैं, जेपी और इंदिरा गाँधी। उन्होंने विस्तार से ऐसा कहने के कारण बताते हुए कहा कि एक विभूति भटक गयी, भटका रही है तो दूसरी उसे राह पर लाने की कोशिश कर रही है। एक को सत्ता का, तंत्र का अंहकार है, दूसरी लोक का अभिमान है।
 लेकिन जेपी को पहली बार  आठ मार्च 1962 में देखा था, जब वे घर आये थे। हमारे छोटे भाई का नाम उन पर ही है, जयप्रकाश।  जय आठ साल के थे। उन्हें  टायफ़ाइड था, तेज़ बुखार। जेपी शहर में थे, उनके साथ पिता थे। जयप्रकाश  जेपी को देखने की रट लगाये हुए थे । पिता ज़ाहिर है परेशान थे। जेपी ने भांप लिया और पूछा कि आप चिंतित क्यों हैं ? पिता ने बताया तो बोले , आपको पहले बताना था। अभी चलते हैं। उन्हें  रात आठ बजे सवाईमलजी जैन के यहाँ भोजन करने जाना था, उसके बाद आने का तय हुआ। छह बजे अपनी गली के नुक्कड़ पर मैं खड़ा था तभी हमारी सामने की गली के रज्जू कक्का यानी राजेंद्र तिवारी, जो बाद में एडवोकेट जनरल हुए, साइकिल पर तेज़ी से आये और दूर से ही मुझे आवाज़ दी और कहा कि जेपी आने वाले हैं, घर में बता दो।  नौ बजे के करीब जेपी आये। पिता ने एक सूत की माला जय को दी पहनाने के लिए और एक ख़ुद पहनायी। जेपी ने माला उतारकर जयप्रकाश का पहना दी और पास बैठकर बहुत प्रेम से बातें करते रहे और बोले जल्दी ठीक हो जाओगे। थोड़ा कुछ मीठे का टुकड़ा खाया। हमारी आजी को नमन किया, माँ से दो बातें की। बाहर लोग जमा हो गये थे। वे सबको नमस्कार करते हुए लौट गए।
इमरजेंसी में पिता जेल चले गए। मैं पत्रकारिता विभाग में डिप्लोमा करने लगा। हमारे विभागाध्यक्ष कालिका प्रसाद दीक्षित, 'कुसुमाकर’ थे। 1976 में नंवबर के तीसरे सप्ताह में विभाग के छात्र कुसुमाकरजी के साथ कलकत्ता गए जहाँ हिदी के पहले अख़बार' उदंत मार्तंड ' की  डेढ़ सौवीं जयंती का समारोह था | ' उदंत मार्तंड '  को छात्र मज़ाक में डंडे की मार से उखड़ा दाँत कहते थे | तीन-चार दिन कलकत्ता रहे। लौटे तो पटना आ रहा जानकर अचानक मन पटना उतरकर जेपी से मिलने का हो आया। संयुक्त टिकट थी। मैंने एक अध्यापक से कहा कि टिकट गेट पर दिखाकर मुझे बाहर निकाल दें , लौट में अपने खर्चे पर आऊँगा। बाहर आकर पहला काम यह किया कि एक झोला साथ रखा, बाक़ी सामान अमानती सामान गृह में जमा करा दिया और रिक्शा करके क़दम कुआं पहुँच गए। बाहर काफ़ी पुलिस थी। अंदर काफ़ी लोग ऊपर दालान में बैठे थे। वहीं पहली बार प्रभाष जोशी जी को देखा। उनसे बात हुई। बहन मंजु का विवाह अनुपम मिश्र से तय हो चुका था, प्रभाषजी मिश्र परिवार के घनिष्ठ थे, इसलिए वे पहचान गए। थोड़ी देर में जेपी बाहर आए। एक कोने से सबसे मिलते हुए मेरे पास आये तो प्रभाषजी ने कहा ये नायकजी के पुत्र हैं, जेपी ने अच्छा कहा और आगे जाने लगे। शायद जेपी ने दादाभाई नाइक, जो उस समय जेल से बाहर थे, उनका पुत्र समझा। प्रभाषजी को भी कुछ खटका हुआ तब उन्होंने फिर बताया ये जबलपुर के गणेशप्रसाद नायक के पुत्र हैं तब जेपी रुक गये और नाम पूछकर बोले, मनोहर तुम नीचे जाकर प्रभावती कक्ष देखो, फिर ऊपर आओ तब बात करते हैं।
थोड़ी देर बाद फिर ऊपर गया, दालान खाली हो गयी थी, एक सिरे पर जो कमरा था, वहाँ  प्रभाषजी ट्रांजिस्टर सामने रख कामेंट्री सुन रहे थे। जेपी एक बड़ी टेबिल के पास कुर्सी पर बैठे थे। बाबू  गंगाशरणजी और एक अन्य उनसे बातें कर रहे थे। फिर वे भी चले गए। जेपी खाना खाने वाले थे तभी मेरे पर उनकी नज़र पड़ी तो बोले आओ-आओ। उनके साथ खाना खाया। उन्होंने लड्डू दिया, मैंने एक खाया तो बोले अरे नवयुवक हो और ब्राह्मण हो एक और खाओ, मैंने एक और खाया। इस बीच आने का प्रयोजन पूछा, जब मैंने कलकत्ता जाने का कारण और लौटते में मिलने के लिए आना बताया तो जैसे उन्हें राहत मिली। वे बोले, अच्छा किया, आ गये, अब यहाँ रुको। तब मैंने कहा कि और छात्र पहुँचेंगे और मैं नहीं तो माँ चिंतित होंगी, इसलिए रात को निकल जाऊंगा। खाना खाकर जेपी ने मुझे एक तरह से घर दिखाया। डायलिसिस मशीन दिखायी और बोले परसों होगी, बड़ा तकलीफ़देह है। फिर अपने कमरे में ले गए और बोले यह बिस्तर है, तुम इस पर आराम कर लो। एक कोने में  छोटी  टेबिल पर अशोक मेहता की एक मोटी किताब थी, जेपी ने बताया कि अशोक ने भेजी है, मुझे राय देनी है। वे फिर बोले अब तुम आराम कर लो, मैं तो बाहर बैठूँगा। मैंने कहा कि मेरी आदत दोपहर में लेटने की नहीं है, मैं आपके साथ ही बैठूँगा।
उस वक़्त ढाई-तीन बज रहे थे। दो घंटे जेपी से अकेले बैठे बातें होती रहीं। घर में सब परिवार वालों के बारे में पूछा। अपनी दिनचर्या बतायी, फिर बोले, कलकत्ता में क्या हुआ बताओ। मैंने कहा कि वहाँ मुख्य अतिथि उपन्यासकार विमल मित्र थे, उन्होंने अपने भाषण में कहा कि देश रूपी लता झुक रही थी, उसे सीधा करने के लिए आपातकाल रूपी डंडा लगाया गया है। सुनकर जेपी हतप्रभ  रह गये। धीमे से बुदबुदाए, ये इतने बड़े लोग ऐसा बोलने से अच्छा चुप क्यों नहीं रहते। मैं चुप रहा, मुझे लगा वे स्वगत  में कह रहे हैं , तभी थोड़ा स्पष्ट उन्होंने कहा, मनोहर , बताओ, ये ऐसा क्यों बोलते हैं ! मैं चकरा गया, कुछ सूझा  नहीं तो मैंने कहा, मैं आपको एक शेर सुनाऊँ। उन्होंने कहा सुनाओ, तो मैंने कहा, ' कद्रदानों की तबियत का है अज़ब रंग आजकल / बुलबुलों को ये हसरत है कि उल्लू क्यों न हुए। ’ जेपी बोले , अरे यह तो बहुत मौज़ूं है। फिर वे उठे अपनी डायरी लाये और फिर सुनते हुए उसे नोट किया। मैंने विनोबा के बारे में कटु बोला, कि उनकी भूमिका संदेहास्पद है, तो एकदम हाथ बढ़ाकर मुझे रोक दिया, 'बाबा के बारे में ऐसा मत बोलो, उन्हें छोटा मत करो।’ पर कुछ  रुक कर, धीमे - धीमे,जैसे ख़ुद से कह रहे हों, बोले यह बात समझ से परे है कि गाय के लिए अनशन पर जनता  के उत्पीड़न पर कुछ नहीं! उन्होंने कहा कि कृष्णमूर्ति अपने को विश्व नागरिक कहते हैं पर भारत में नागरिक दबाया-कुचला जाता है तो कुछ नहीं बोलते ! जेपी एकाएक बहुत निराश हो गए, बोले जो ख़बरें सुनता हूँ उनसे बहुत हताश होता हूँ। वहाँ तुम्हारे यहाँ क्या हाल है, मैंने हाल बताये और कहा कि जबलपुर में इमरजेंसी के कुछ ही पहले आचार्यकुल के सम्मेलन में दादा धर्माधिकारी ने कहा था कि गांधी का आंदोलन कई बार असफल हुआ पर वह कभी पराजित नहीं हुआ और अंतत: सफल, जेपी का आंदोलन भी अंतत: सफल होगा। इसके साथ ही फ़ैज़ का मशहूर शेर भी सुना दिया, 'नाउम्मीद नहीं दिल नाकाम ही तो है / लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।’ जेपी सुनकर मुस्कुराये। फिर चाय आयी। जेपी ने कहा कि मैं नायक साहब के लिए पत्र लिख देता हूँ, उन्हें पहुंचा देना। अपना पैड मंगवाया और लिखा। 28 नवंबर 1976 के इस पत्र में उन्होंने लिखा:

प्रिय गणेशप्रसाद जी,
चि. मनोहर यहाँ मुझसे मिलने और समाचार लेने आये, इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मेरा हाल तो मनोहर ज़ुबानी बतायेंगे। ... बस चित्त में यही ग्लानि बनी रहती है कि बीमारी ने मुझे इस प्रकार  निष्क्रिय बना दिया है। यह निष्क्रियता कभी-कभी असह्य हो जाती है।
कुछ उपलब्ध साहित्य मनोहर ले जा रहे हैं।
यह लम्बी रात है, जिससे देश गुज़र रहा है। इसमें आप जैसे बंधुओं ने जो मशाल जला रखी है, वही देशवासियों को आने वाले विहान की सूचना दे रहे हैं।
मेरा हार्दिक स्नेह और अभिनंदन स्वीकार करें, अन्य सभी साथियों को भी स्नेह अभिनंदन दें।
आपका भाई 
जयप्रकाश


जेपी के घर पर कुछ दिनों पहले गांधीवादी नेताओं की बैठक हुई थी। उस बैठक की रिपोर्ट भी दादा धर्माधिकारी को देने के लिए  उनके सचिव सच्चिदानंदजी ने मुझे दी। अपने सेवक गुलाब से उन्होंने कहा यह सामग्री आगे चौहारे पर देना, यहाँ पुलिस चेक करेगी। मैंने जेपी के चरण छुए और चल दिया। सीढ़ी पर उतरते हुए मैंने मुड़कर जेपी की तरफ़ देखा, वे मुझे देख रहे थे। वे मुस्कुराये और हाथ हिलाया। बाहर पुलिसवालों को ज़रूरी जानकारी देकर स्टेशन आया। वहाँ एक पोस्टर देखा स्वामी अखंडानंदजी सरस्वती  के प्रवचन का। बहुत अनुनय-विनय के बाद मुझे अमानती घर के इंचार्ज ने बढ़ गए काग़ज़-पत्तर को रखे सामान में रखने की इजाज़त दी। अखंडानंदजी  परम विद्बान संत थे, हमारे कुल गुरु। उनके प्रमुख शिष्य प्रेमानंदजी 'दादा’ हमारे पिता के सबसे छोटे भाई थे। गांधी मैदान के पास उनके शिविर गया। बहुत स्नेह और सुस्वादु भोजन मिला। पिता को जेपी का पत्र पुरुषोत्तम कौशिकजी के हाथ भिजवाया। वे इलाज के लिए विक्टोरिया अस्पताल आये थे।  अगले दिन फिर उनका फ़ोन आया कि कल हड़बड़ी में पत्र के साथ पांच रुपये का नोट भी आ गया था, वह ले जाओ। उन दिनों पांच के नोट में एक दुनिया बसती थी, मैं फौरन साइकिल पर भागा। ...उस रोज़ पटना से चला देर रात तो सुबह वाराणसी पहुँचा तो वहाँ उतर गया। घूमता के दोपहर में काशी एक्सप्रेस से निकला तो शाम को इलाहाबाद उतरने का मन हुआ ,पर उतरा नहीं। वैसे भी यहाँ साल भर बाद आना ही पड़ा। 'अमृत प्रभात’ में पहली नौकरी के लिए। तब पांच साल यहाँ गुज़ारे।
 





 



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