वेटिंग फार गोदो में कुमार किशोर, अजय घोष व गौरीशंकर यादव |
मेरा बचपन राइट टाउन की सड़कों पर बीता है। उस समय हम लोग पुराने जीएस कॉलेज के सामने रहते थे। इस कारण राइट टाउन स्टेडियम व शहीद स्मारक में होने वाले सभी कार्यक्रमों में मां या नानाजी (बाबूलाल पाराशर) के साथ जाते थे। मां उस समय बापू देशपांडे की स्केचिंग क्लॉस में स्केचिंग सीखने जाती थीं। मैं भी उनका पल्ला पकड़ कर पीछे जाता था। मुझे याद है कि शाम के धुंधलके में क्लॉस से लौटते समय सुभद्रा कुमारी चौहान के घर में कुछ लोग तेज आवाज में बोलते हुए कुछ हरकत करते हुए दिखते थे। कई बार मां को रोक कर कुछ देर वह दृश्य देखा करता था। मां ने ही बताया कि वे लोग नाटक की रिहर्सल कर रहे हैं। तब पहली बार मुझे 'नाटक' शब्द बारे में जानकारी मिली। कुछ दिन पश्चात् ही हम लोगों यानी कि मुझे व बड़े भाई परिमल स्वामी को नानाजी ने शाम को तैयार रहने को कहा। शाम को हम लोग शहीद स्मारक में नाटक देखने को गए। जैसा ही नाटक शुरू हुआ तो मैंने देखा कि जिन लोगों को मैं प्रतिदिन सुभद्रा कुमारी चौहान के घर में नाटक की रिहर्सल करते देखता था, वे लोग मंच पर एक-एक कर आते जा रहे हैं। ये नाटक 'वेटिंंग फार गोदो' था। उस आयु में नाटक तो समझ में नहीं आया, लेकिन देखने में मज़ा आया। गोगो की भूमिका निभाने वाले अभिनेता ने तो मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया। गुलाबी रंग के झिल्लर से कागज में नाटक में अभिनय करने वालों के नाम छपे थे। गोगो के पात्र को अभिनीत करने वालो अभिनेता का नाम पढ़ा तो वह गौरीशंकर यादव थे। उस कागज का एक नाम और याद रहा वह निर्देशक अलखनंदन का।
नानाजी मुख्यत: खेल से जुड़े थे, लेकिन जबलपुर के साहित्यिक, सांस्कृतिक व कला जगत से उनकी निकटता थी। नाटकों से जुड़े हुए नत्थूलाल सर्राफ उनके मित्र थे।मोदीबाड़ा का राव परिवार नानाजी केे निकट था। राव परिवार के आमंत्रण पर हम लोग दशहरे के समय मोदीबाड़ा में सप्ताह भर तक चलने वाले नाट्य समारोह में कई वर्षों तक नियमित रूप से जाते रहे। मोदीबाड़ा में प्राय: सामाजिक नाटकों का मंचन होता था। नाटक देखने की शुरूआत 'वेटिंग फार गोदो' से हुई, इसलिए मोदीबाड़ा के सामाजिक नाटक उतने रूचिकर नहीं लगे। 'वेटिंंग फार गोदो' के बाद मैं अक्सर नानाजी से नाटकों के मंचन की जानकारी लेता और जिद करता कि शाम को तो नाटक देखना ही है। इसके बाद नाटक देखने का क्रम चल पड़ा। महाराष्ट्र हाई स्कूल के भीतरी मंच पर हबीब तनवीर का 'चरणदास चोर' दरी पर बैठ कर देखा। नाटक की समाप्ति के पश्चात् नानाजी हम लोगों को हबीब तनवीर और अन्य कलाकारों से मिलवाने ले गए। मुझे उस समय यह आभास हुआ कि नानाजी का हबीब साहब से पुराना सीपी-बरार के समय का परिचय है।
शहीद स्मारक में जब बकरी, सिंहासन खाली है, थैंक्यू मिस्टर ग्लाड,जुलूस, हानूश जैसे नाटक देखे तो उनमें गौरीशंकर यादव विभिन्न रूपों में बहुमुखी नज़र आए। मंच पर उनकी टाइमिंग अद्भुत और उच्चारण निर्दोष था। जैसे वे सामान्य जिंंदगी में वे सहज थे, उससे ज्यादा सहज वे मंच पर दिखते थे। धर्मराज जायसवाल उनकी अभिनय प्रतिभा के कायल थे। गौरीशंकर यादव ने काफी समय तक धर्मराज जायसवाल की टोली में शामिल हो कर घूम घूम कर नाटक किए। ये नाटक सरकार की योजनाओं के प्रचार-प्रसार पर आधारित रहते थे, लेकिन संदेशात्मक नाटकों में भी गौरीशंकर यादव अपनी अभिनय प्रतिभा का जलवा बिखेर देते थे। लोगों को सरकारी संदेश याद रहते थे कि नहीं, लेकिन उन्हें गौरीशंकर यादव द्वारा निभाए गए पात्र की याद जरूर रहती थी।
गौरीशंकर यादव घमापुर-कांचघर क्षेत्र के वाशिंदे थे और इसी इलाके में अलखनंदन रहते थे। दोनों की अच्छी मित्रता थी। दोनों ने रामलीला व नौटंकी खूब देखी थीं और दोनों का साथ-साथ आधुनिक नाटकों की ओर रूझान भी बढ़ा। दोनों एक साथ साइकिल से जबलपुर शहर के मध्य में आते। कई बार इनके साथ कथाकार राजेन्द्र दानी भी होते।उन लोगों की आवारगी सोद्देशपूर्ण थी। शामों का वार्तालाप, मित्र मिलन, कार्य-योजनाएं, देर रात तक नाटकों का पाठ, रिहर्सल आदि होते रहते थे। उस समय तक नई पीढ़ी पर हरिशंकर परसाई का जादू चढ़ने लगा था। यह ऐसा समय था जब छात्र, अध्यापक, लेखक, पत्रकार और रंगकर्मी उत्तेजित हो रहे थे। अलखनंदन की जबलपुरिया शुरूआत एक नुक्कड़ नाटक से हुई - 'जैसे हम लोग'। इसे हिन्दी के कथाकार शशांक ने लिखा था। शशांक तब मनोविज्ञान के छात्र थे और उन्हें इस नाटक को समय पर लिख देने के लिए ज्ञानरंजन ने एक कमरे में बंद कर दिया था। एक स्थानीय रंग-संस्था 'कचनार' के लिये अलखनंदन ने मशहूर नाटकों, 'रंस गंधर्व' और 'तीन अपाहिज' का निर्देशन किया। विवेचना के साथ उन्होंने 'दुलारी बाई', 'बकरी', 'इकतारे की आँख', 'बहुत बड़ा सवाल', और 'वेटिंग फॉर द गोडो' जैसे बड़े नाटक किए और इन नाटकों ने खूब धूम मचाई। गौरीशंकर यादव ने इन नाटकों में अजय घोष और प्रभात मित्रा के साथ अभिनय में झंडे गाड़े। गौरीशंकर यादव ने इसके साथ ही 'मेहमान भगाने की मशीन' जैसे नाटक में भी अभिनय किया। वे नकचढ़े अभिनेता नहीं थे मतलब जो भूमिका मिलती थी उसे निभाते थे। गौरीशंकर यादव किसी भी निर्देशक की प्रस्तुति में तुरंत काम करने को तैयार हो जाते थे।
सातवें दशक के अंत में अलखनंदन जबलपुर में रक्षा मंत्रालय की अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर पूरा वक्ती रंगकर्म के लिए भोपाल चले गए। अलखनंदन का जाना गौरीशंकर यादव के हित में नहीं रहा। गौरी अनमने से हो गए। हालांकि इसके बाद भी वे मंच पर सक्रिय रहे। धीरे-धीरे नाटकों का स्वरूप बदलने लगा। नए कलाकारों का प्रवेश हुआ, लेकिन जब भी अभिनय की बात आती तो गौरीशंकर यादव का उदाहरण दिया जाता। वे अभिनेता से दर्शक बन गए। चुपचाप आते और धीरे से नाटक देख कर चले जाते। ज्ञानरंजन जी जैसे पुराने परिचित मिलते तो खुल जाते। मिलने पर नाटक पर टिप्पणी जरूर करते। उनकी अपनी दुनिया थी। कभी नाटक के निर्देशन के बारे में नहीं सोचा। कुछ संस्थाओं ने वर्कशाप में नाट्य प्रशिक्षण के लिए आमंत्रित किया लेकिन वे दूर ही रहे।गौरीशंकर यादव हर समय ’वेटिंग फॉर गोदो’ के एक संवाद का उल्लेख करते थे। वे कहते थे-''लंबे जीवन का सफर अब खत्म होने को आ रहा है। जीवन की शाम है।'' परन्तु संतोष है कि नाटकों में काम करते हुए हमने एक सार्थक जीवन जिया।
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