जबलपुर के नाट्य-सांस्कृुतिक क्षेत्र में ‘डैडी’ से पहचाने जाने वाले धर्मराज जायसवाल का पुराने किस्से सुनाना और उसे बयान करने का उनका रोचक ढंग इस बात को भी सिद्ध करता था कि वे अपने कलाकारों को सहजता के साथ से किसी दृश्य के संबंध में गहराई से बता देते होंगे। खैर उनकी नाट्य यात्रा यहां से शुरू नहीं होती है। तीसरे दशक की शुरूआत में जब जबलपुर के चौधरी बैजनाथ प्रसाद जायसवाल के यहां धर्मराज ने जन्म लिया, तब चौधरी बैजनाथ ने सोचा नहीं था कि उनका यह पुत्र अपने पिता का खानदानी शराब का व्यवसाय बंद करवा देगा। चौधरी बैजनाथ प्रसाद जायसवाल पहलवान थे। उनकी दिली इच्छा थी कि उनका पुत्र धर्मराज भी उनकी तरह पहलवान बने और पारिवारिक शराब व गल्ले का धंधा करे। धर्मराज छठी-सातवीं कक्षा में पढ़ते हुए कविताओं व गीतों की तरफ आकर्षित हुए। उसी समय उनके पैतृक घर से कुछ ही दूरी पर स्थित गढ़ा फाटक में कानपुर से से एक नौटंकी कंपनी आती थी। इसी नौटंकी को देख कर धर्मराज पहली बार में गहरे तक प्रभावित हो गए। लगभग वे प्रत्येक दिन नौटंकी देखने जाने लगे। उनके कविता, गीत व नौटंकी प्रेम देख कर पिता चौधरी बैजनाथ जायसवाल दुखी व नाराज हो गए। वहीं धर्मराज अपने पिता के शराब के धंधे से नाराज थे। उन्हें दुख इस बात का था कि लोग शराब पीने के बाद उनके पिता को ही भला-बुरा कहने लगते थे। एक दिन इसी नाराजगी ने धर्मराज जायसवाल को बाल मित्र रामकृष्ण नामदेव के साथ बंबई भागने को मजबूर कर दिया। दोनों बच्चे बंबई पहुंच कर सीधे जबलपुर निवासी फिल्म उद्योग के स्थापित चरित्र अभिनेता कनु राय के पास पहुंचे। दोनों बच्चे कनु राय से पूर्व परिचित थे। कनु राय ने धर्मराज और रामकृष्ण नामदेव को एक फिल्म में बाल भूमिका के लिए प्रस्ताव भी दिया, लेकिन तब ही दोनों को दूंढ़ते हुए घर वाले वहां पहुंच गए। कनु राय ने दोनों को वापस जबलपुर जाने की सलाह दी और चौधरी बैजनाथ जायसवाल ने भी शराब का धंधा बंद करने की कसम खा ली। इससे संतुष्ट हो कर धर्मराज 18 दिन बाद वापस जबलपुर आ गए।
धर्मराज और कानुपर की नौटंकी कंपनी का सिलसिला फिर शुरू हो गया। एक दिन नौटंकी वालों ने धर्मराज के सामने महिला पात्र की भूमिका करने का प्रस्ताव रख दिया। महिला पात्र की भूमिका उन्हें क्यों दी गई? इस प्रश्न के उत्तर में धर्मराज कहते थे कि उनकी कद-काठी और मधुर आवाज के कारण उन्हें महिला पात्र की भूमिका दी गई। धर्मराज अब दर्शक से एक कलाकार बन गए और गीत गाने लगे व नृत्य करने लगे। इसी नौटंकी में एक दिन मोदीबाड़ा नाट्य समिति के डी. वी. राव ‘नरेन्द्र और नरसिंहराव कोठाले ने धर्मराज को अभिनय व नृत्य करते देखा और उनसे प्रभावित हुए। राव व कोठाले से धर्मराज की मुलाकात ने नए रास्ते खोले। इस के बाद धर्मराज जायसवाल का बेनी ड्रामेटिक क्लब, डी. बी. बंगाली क्लब और सिटी बंगाली क्लब जैसी संस्थाओं से जुड़ाव हुआ।
मोदीबाड़ा नाट्य समिति के साथ जुड़ कर धर्मराज जायसवाल ने आगाजानी कश्मीरी के लिखे ‘हिंद महिला’ नाटक में अभिनय किया और इस नाटक में उन्होंने नायिका की भूमिका निभाई। ‘हिंद महिला’ के निर्देशक मुंशी खंजर थे। उन्होंने धर्मराज जायसवाल को उर्दू सिखाने में बड़ी मेहनत की। बाद में बंटवारे के वक्त मुंशी खंजर पाकिस्तान चले गए। इसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ तो दुर्गादास राठौर, शाहजहां, अमर बलिदान, वीरांगाना लक्ष्मीाबाई जैसे नाटक मंचित हुए। उन दिनों डी. एल. राय बंगला नाटकों के एक प्रसिद्ध लेखक थे और उनके ऐतिहासिक नाटक जबलपुर का बंग समाज करता था। शारीरिक बनावट, बनावट, सुरीली आवाज और अच्छी्हिन्दी होने के कारण धर्मराज जायसवाल का नायिका की भूमिका निभाने का सिलसिला चल रहा था। नायिका की भूमिका करने में रूपसज्जा (मेकअप) में समय लगता था। महिलाएं व लड़कियां धर्मराज जायसवाल को मेकअप में मदद करती थीं, लेकिन गर्मी के मौसम में संपूर्ण रूपसज्जा व महिला वस्त्रों में उन्हें तकलीफ और कोफ्त होती थी। दूसरों द्वारा रूपसज्जा किए जाने और इसमें ज्यादा समय लगने पर पर धर्मराज जायसवाल ने स्वयं मेकअप करने की ठानी। उनके इस निश्चय और सीखने की ललक ने उनको रंगमंच के एक बेहतरीन मेकअप उस्ताद के रूप में ला खड़ा किया। जिसकी दाद उस समय के पेशेवर लोग भी देते थे। धर्मराज के साथ टेलीकाम फैक्टररी के एक बांग्लाभाषी इंजीनियर भी नायिका की भूमिका निभाते थे।
धर्मराज जायसवाल को डी. एल. राय के लिखे ऐतिहासिक नाटकों को रंगमंच में प्रस्तुति करते हुए कुछ कमियां महसूस होती थीं। डी. एल. राय के नाटकों में एक पात्र लंबे समय तक संवाद बोलते थे और शेष पात्र रंगमंच में चुपचाप खड़े रहते थे। इसमें महिला पात्रों की भूमिका निभाने वाले कलाकार की हालत बुरी हो जाती थी और इस दशा को स्वयं धर्मराज जायसवाल भोग रहे थे। लंबे संवादों की समस्या से निबटने के लिए धर्मराज जायसवाल ने स्वयं नाटक लिखने का निर्णय लिया। इसकी शुरूआत उन्होंने प्रहसन से की। एकांकी लिखने के साथ धर्मराज जायसवाल ने सबसे पहले उर्दू नाटक ‘बागी’ लिखा। ‘बागी’ नाटक में धर्मराज जायसवाल ने छोटे किंतु ओजस्वी संवाद लिखे और पारसी थिएटर शैली को पूरी तरह आत्मतसात कर लिया। उस दौरान धर्मराज जायसवाल सोहराब मोदी की फिल्मों से भी प्रभावित थे, इसलिए ‘बागी’ के बाद के नाटकों में नाटकीयता काफी रही।
धर्मराज जायसवाल ने नाटकीयता और प्रस्तुतिकरण को सफलता का मापदंड मानते हुए पारसी थिएटर की शैली अपनाई। ‘बागी’ राष्ट्रीय एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव पर आधारित नाटक था। विषय की समसामयिकता और कुछ यथार्थवादी दृष्टिकोण के कारण दर्शकों ने इसे पसंद किया। तीन-चार वर्षों में ‘बागी’ के लगभग 50-60 शो हुए, जो उस समय और आज के संदर्भ में भी आश्चर्यजनक बात थी। ‘बागी’ के साथ ही कुछ ऐसी बातें हुईं, जिन्हें दुर्भाग्यपूर्ण और मज़ेदार भी माना जा सकता है। ‘बागी’ में पत्रकार शिवनारायण खरे ने एक लड़की की भूमिका निभाई, जिससे युगधर्म के तत्कालीन संपादक भगवतीधर वाजपेयी बहुत नाराज हुए और उनकी नाराजगी बाद में ख्वाजा अहमद अब्बास के नाटक ‘चौदह गोलियों’ के मंचन को ले कर और बढ़ गईं। 1955-56 में ‘बागी’ नाटक के एक मंचन के दौरान राबर्टसन कॉलेज में तेजाब कांड हो जाने से जबलपुर में लंबे अर्सें तक नाटकों का मंचन रूक गया।
इसी संदर्भ में एक बात महत्वपूर्ण है कि धर्मराज जायसवाल ने जबलपुर में नाटकों को कॉलेज तक पहुंचाया। ऐसा भी माना जाता है कि जबलपुर के कॉलेजों में स्नेन सम्मेलन के दौरान नाटकों के मंचन की देन और शुरूआत धर्मराज जायसवाल ने ही करवाई। कॉलेजों में नाटक मंचन के दौरान धर्मराज जायसवाल की मुलाकात जबलपुर के प्रसिद्ध कानूनविद् हीरा सिंह चौहान से हितकारिणी महाविद्यालय में हुई। धर्मराज ने एक नाटक के मंचन के दौरान हीरा सिंह चौहान को महिला पात्र की भूमिका सौंप दी। कॉलेजों में ही नाटक करते समय धर्मराज जायसवाल को ‘डैडी’ नाम भी मिल गया। जबलपुर के नाट्य क्षेत्र प्राय: सभी लोग उन्हें ‘डैडी’ नाम से ही ज्यादा जानते थे। ‘डैडी’ नाम मिलने का कारण यह था कि पांचवे व छठे दशक में लड़कियां नाटक में भूमिकाएं करने से हिचकती थीं। धर्मराज जायसवाल उनके घर-घर जा कर नाटकों में काम करने का अनुरोध करते थे। लड़कियों ने अपनी झिझक और सुरक्षा की गारंटी के लिए उनसे कहा। धर्मराज जायसवाल ने लड़कियों से कहा कि वे उन्हें ‘डैडी’ कह सकती हैं और 24-25 वर्ष के नौजवान को ‘डैडी’ नाम दे दिया गया। तब से मृत्युपर्यंत तक वे जबलपुर वालों के लिए सिर्फ ‘डैडी’ ही हो गए।
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शिमला की अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता में भाग लेने वाली टीम के सदस्यों में धर्मराज जायसवाल साथ में मेर्लिन खुशाल, मदन गुप्ता व श्याम गुप्ता |
मंचन की दृष्टि से ख्वाजा अहमद अब्बास लिखित नाटक ‘चौदह गोलियां’ का मंचन जबलपुर के रंगमंच के इतिहास की एकअसाधारण प्रस्तुति मानी जाएगी। यह नाटक राष्ट्रप्रेम के स्वर लिए हुए था। इस कारण अंग्रेज सरकार ने नाटक पर प्रतिबंध लगा दिया था। ‘चौदह गोलियां’ के संबंध में कई शोधार्थियों ने भी लिखा। नाट्य निर्देशक अरूण पाण्डेय ने अपने एक लेख ‘धर्म की तरह जिया गया रंगकर्म’ में लिखा- ‘’ यह बात भले किसी स्वंतत्रता संग्राम के इतिहास में भले दर्ज न हो किंतु इस शहर के रंगमंच के इतिहास में जरूर दर्ज है कि आजादी से दो साल पहले 1945 में जब अंग्रेजों का दमन चक्र अपनी चरम सीमा पर था, तब ख्वाजा अहमद अब्बास के नाटक ‘चौदह गोलियां’ के मंचन ने सनसनी मचाते हुए देखने वालों में देश प्रेम का जोश भर दिया था। नाटक की विषयवस्तु और उसको देख कर होने वाली दर्शको की प्रतिक्रिया से अंग्रेज हिल गए।‘’ अंग्रेजों ने नाटक पर प्रतिबंध लगा दिया। नाटक में सनसनी मचने का एक कारण यह भी था, इसमें एक दृश्य में असली बंदूक का इस्तेमाल कर हवा में गोली चलाई गई थी। चौथे दशक के मध्य में नाटक देखने के लिए टिकट रखी गई और उस समय के हिसाब से वह महंगी थी,लेकिन लोगों ने महंगी टिकट ले कर नाटक देखने में कोई कंजूसी नहीं दिखाई।
धर्मराज जायसवाल अपने नाटकों में विषयवस्तु के अनुरूप यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने का प्रयास करते थे। ‘बागी’ नाटक में उन्होंने जबलपुर के गलगला क्षेत्र में हुए एक प्रदर्शन में दृश्य गीत में चालीस पठानों को संयोजित कर प्रस्तुत किया था। इससे जबलपुर के कट्टरपंथी नाराज हो गए थे। 1960 में शिमला में आयोजित होने वाल अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता में रेलवे ड्रामेटिक क्लब धर्मराज जायसवाल के निर्देशन में हिन्दी नाटक प्रस्तुत करता था। रेलवे ड्रामेटिक क्लब की ओर से पहली बार ‘सरहद’ नाटक प्रस्तुत किया गया। पहली ही बार में ‘सरहद’ ने पांच पुरस्कार जीते। ‘सरहद’ नाटक में बद्री प्रसाद सोनकर, श्याम पाठक, नारायण सिंह जिद्दी, एडवोकेट अशर्फीलाल यादव, देवीदयाल झा, राजेन्द्र दुबे, भरत वर्मा, रवि शुक्ल, नारायण अलबेला, सुखदेव, उषा एलिजाबेथ आदि कलाकारों ने जीवंत अभिनय कर प्रसिद्धि बटोरी। धर्मराज जायसवाल ने जानकारी दी थी कि इसी प्रतियोगिता मे हबीब तनवीर ने ‘मरघट के कुत्ते’ नाटक को प्रस्तुत किया था। 1961 में रेलवे ड्रामेटिक क्लब ने शिमला प्रतियोगिता में ‘जेल की रोटी’ प्रस्तु्त कर तीन पुरस्कार जीते। खुशाल दंपति भी शिमला में पुरस्कृत हुई। शिमला में पुरस्कार देने विशेष रूप से फिल्म अभिनेता आईएस जौहर व अचला सचदेव आए थे। धर्मराज जायसवाल व बारेलाल खुशाल के अभिनय से प्रभावित हो कर आईएस जौहर ने उन्हें फिल्मों में अभिनय करने का प्रस्ताव दिया। दोनों घरेलू जिम्मेदारियों के कारण बंबई नहीं जा पाए। इलाहाबाद, ग्वालियर और नैनीताल की प्रतियोगिताओं में ‘सरहद’ की स्क्रिप्ट की तारीफ हुई।
रेलवे ड्रामेटिक क्लब के लिए निर्देशन व अभिनय करते हुए धर्मराज जायसवाल रेलवे के एक वरिष्ठ अभियंता आईके पुरी के नजदीक आ गए। पुरी रिश्ते में मदनपुरी के भाई थे। आईके पुरी ने रेलवे ड्रामेटिक क्लब को सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए सहायता देने के लिए हर समय तत्पर रहते थे। पुरी ने ही धर्मराज जायसवाल को जस्टिस हिदायतउल्ला से मिलावाया। बाद में देश के उपराष्ट्रपति बने हिदायतउल्ला ‘सरहद’ नाटक देख कर काफी प्रभावित हुए थे। शिमला नाट्य प्रतियोगिता जीतने के पश्चाात् जबलपुर नगर निगम ने धर्मराज जायसवाल व उनके साथियों का नागरिक सम्मान किया। उस समय भवानी प्रसाद तिवारी महापौर थे।
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उस समय दर्शकों को नाटक से जोड़ने का एकमात्र सूत्र अभिनय था। सब कुछ अभिनय से करना पड़ता था, क्योंकि उस दौरान आज जैसी प्रकाश व ध्वनि संयोजन की व्यवस्थाएं नहीं थी। धर्मराज जायसवाल साइकिल के डायनमो से विशेष प्रकाश संयोजन और प्रभाव दिखाते थे। उस समय गढ़ा, घमापुर, सदर, राम मंदिर सतपुला की रामलीलाओं में भी इसका प्रयोग किया जाता था। प्रतिभा कला मंदिर का काम अपनी गति से चल रहा था। कलाकार नाटक से शौकिया रूप से जुड़े हुए थे। जहां नाटकों की रिहर्सल होती थी, उसके आसपास के लोग खाना, चाय और सेट बनाने के लिए कपड़ा वगैरह से मदद करते थे। सरकारी नौकरी करने के कारण कलाकार रात में एक बजे तक रिहर्सल करते थे।
धर्मराज जायसवाल को नाट्य प्रेम के साथ अपने भरे पूरे परिवार को भी पालना था। आजीविका के लिए 1949 में धर्मराज जायसवाल ने टेलीकाम फैक्टरी में नौकरी करना शुरू कर दी। नाटकों के कारण जीवन भर उनकी हाजिरी फैक्टरी में कमजोर रही। छठे दशक में धर्मराज जायसवाल ने जबलपुर के बाहर जा कर खूब रंगमंच किया। इसके साथ ही उन्होंने अपनी संस्था प्रतिभा कला मंदिर के माध्यम से रंगमंचीय नाटकों के अलावा शासकीय योजनाओं व कार्यों की जानकारी देने के लिए शिक्षाप्रद नाटक करने भी शुरू किए। सूचना प्रसारण मंत्रालय में 1952 में रजिस्ट्रेशन के बाद प्रतिभा कला मंदिर सरकारी योजनाओं को आम जनता तक पहुंचाने वाले नाटक करने लगी। यह क्रम उनकी मृत्यु तक चला। अब ये काम उनके पुत्र बब्लू संचालित करते हैं। प्रतिभा कला मंदिर के गठन को 70 वर्ष होने को आ रहे हैं। वर्तमान में प्रतिभा कला मंदिर के कलाकार जबलपुर में नुक्कड़ नाटक के माध्यम से कोरोना के खतरे से अगाह कर रहे हैं और मास्क पहनने के फायदे जन-जन तक पहुंचा रहे हैं।
छठे दशक में धर्मराज जायसवाल ने ‘गांधी का देश’ नाटक लिखा। ढाई घंटे के इस नाटक को गुलाबचंद दर्शनाचार्य की मदनमहल प्रकाशन ने पुस्तक के रूप प्रकाशित किया। उन्होंने छठे दशक के अंत में शहीद स्मारक की नाट्य गतिविधियों व प्रबंधन का काम विश्वभावन देवलिया को सौंप दिया। जानकारों का कहना है कि धर्मराज जायसवाल जबलपुर में रंगमंच के इनसाइक्लोपीडिया थे, इसलिए विश्वभावन देवलिया घंटों उनके साथ बैठ कर नाटक पर केन्द्रित डाक्टरेट के लिए जानकारी जुटाते रहते थे। देवलिया की डाक्टरेट को सराहना मिली और इसकी सामग्री को व्यावहारिक रूप से उपयोगी माना गया। शहीद स्मारक की जिम्मेदारी से मुक्त होने के बाद धर्मराज निश्चिंत हो कर अपने नाटकों में प्रयोग करने लगे। प्रयोग के साथ कई लोग उनसे जुड़ते भी गए। धर्मराज जायसवाल ने अपने कार्यक्रमों से ही प्रसिद्ध कलाकार कुलकर्णी बंधु, के. के. नायकर, रजनीकांत त्रिवेदी, गजेन्द्र को मौका दिया। उनके नाटकों का संगीत के. के. उपाध्याय देते थे। विख्यात श्याम बैंड के संचालक ईश्वरी प्रसाद ने लगभग पन्द्रह वर्षों तक बेंजो बजा कर नाटक के पार्श्व संगीत को मधुर बनाया। धर्मराज जायसवाल के नाटकों में दादा शूलपाणि मुखर्जी और बाद में उनके पुत्र विद्युत मुखर्जी ने भी पार्श्व संगीत दिया। डबिंग आर्टिस्ट जरीना कादिर ने भी उनके नाटकों में काम किया। बाद में वे हैदराबाद जा कर फिल्मों में डबिंग आर्टिस्ट बन गईं।
सातवें दशक आते-आते समानांतर फिल्मों की तरह भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का प्रभाव बढ़ने लगा। इसी के साथ ताजी हवा के झोंके आए। उसी समय अलखनंदन का नाम तेजी से उभरा। अलखनंदन के वेटिंग फार गोदो, गिनीपिग व बकरी नाटक अपनी विषयवस्तु व प्रस्तुतिकरण के कारण चर्चित हुए। धर्मराज जायसवाल ने इन नाटकों में न तो अभिनय किया और न ही निर्देशन, लेकिन वे प्रोडक्शन से ले कर मेकअप तक जुड़े रहे। उस समय अलखनंदन अपने कलाकारों से कहते थे कि यदि फ्री एक्टिंग सीखनी है तो धर्मराज जायसवाल से सीखो। अलखनंदन के भोपाल जाने के बाद धर्मराज जायसवाल को जबलपुर के थिएटर का बदलाव व परिवर्तन नहीं जमा। कुछ सालों के बाद अलखनंदन ने धर्मराज जायसवाल को ‘सतह से उठता आदमी’ फिल्म में एक संपादक की भूमिका करवाई। अलखनंदन इस फिल्म में मणि कौल के सहायक निर्देशक थे। यहा फिल्म वर्ष 1980 में रिलीज हुई थी। धर्मराज जायसवाल का कहना था कि जितने समय अलखनंदन ने जबलपुर में रह कर रंगकर्म किया वह जबलपुर के नाट्य क्षेत्र व विवेचना का स्वर्ण युग था।
जीवन के अंतिम पड़ाव तक धर्मराज जायसवाल थके नहीं थे। अंतिम वर्षों में उन्होंने सक्रिय रंगकर्म तो नहीं किया, लेकिन किसी भी रिहर्सल या नाट्य प्रदर्शन में उनकी उपस्थिति को कोई टाल नहीं सकता था। जीवन के अंतिम क्षणों तक प्रतिभा कला मंदिर के माध्यम से धर्मराज जायसवाल और उनके ‘मजदूर कलाकार’ (यह धर्मराज जायसवाल के शब्द थे) जन-जागरण की अलख जगाते रहे। प्रतिभा कला मंदिर में गौरीशंकर यादव ने भी शुरूआत में घूम-घूम कर नाटकों का मंचन किया। धर्मराज जायसवाल जन-जागरण वाले नाटकों में रंगमंच के कलाकारों की सहायता नहीं लेते थे, बल्कि वे स्वयं कहते थे कि उन्हें अपने मजदूर कलाकार इस प्रकार के माध्यम के लिए अधिक उपयुक्त लगते हैं। टेलीकाम फैक्ट्री में जब-जब धर्मराज जायसवाल का वेतन इंक्रीमेंट लगता, तब-तब वे अपने कलाकारों के मानदेय में भी बढ़ोत्तरी करते जाते।
धर्मराज जायसवाल को हर समय यह अफसोस रहा कि रंगकर्म में मेकअप विधा के प्रति बहुत कम लोगों की रूचि रही। वे कहते थे कि मेकअप करने में धैर्य की जरूरत होती है और धैर्यवान व्यक्ति उन्हें कोई दिखता नहीं। अपवाद स्वरूप वे कश्यप झा का नाम लेते थे। उनका मानना था कि जबलपुर में कश्यप झा ने मेकअप को गंभीरता से सीखा। उनसे मेकअप की कला नवीन चौबे ने भी सीखी और वे इच्छुक नए लोगों को सिखाते जा रहे हैं।
धर्मराज जायसवाल जब उम्रदराज हुए तो, वे झक सफेद शर्ट व पेंट और ब्राउन रंग के फेडोरा हेट के साथ काले जूते पहने नजर आते थे। उनके पास स्वेगा मोपेड थी, जिसमें घर गंजीपुरा से निकल कर सुपर मार्केट काफी हाउस में आते और यहां कुछ देर बैठ कर चाय पीते थे। प्रतिदिन उनका एक चक्कर शहीद स्मारक में जरूर लगता था। शहीद स्मारक में उनके प्राण बसते थे, क्योंकि यहां उन्होंने नाटकों का मंचन कर जीवन के बेहतरीन क्षण बिताए थे। वर्सेटाइल होने के कारण उन्हें जबलपुर का वी. शांताराम कहा जाता था।
धर्मराज जायसवाल को अपनी रंगमंच जिंदगी से कोई शिकवा नहीं रहा। उन्होंने राम-भरत के इस वाक्य-‘भावना से कर्त्तव्य ऊंचा है’ को ध्यान में रख कर सारा जीवन गुजार दिया। उनके जीवन चक्र को देखें तो महसूस होता है कि उन्होंने अपने प्रचार-प्रसार के लिए कुछ नहीं किया। वे हमेशा दूसरों को सफलता का श्रेय देते चले गए। 5 अप्रैल 2006 को जब उनका निधन हुआ, तब उनको चाहने वालों की असंख्य संख्या जबलपुर में ही नहीं बल्कि सुदूर उन गांव-टोलों में भी थी, जहां उन्होंने रंगकर्म की रोशनी पहुंचाई थी।
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