एक कस्बे के मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे विश्वभावन देवलिया ने रंगमंच की शुरूआत रामलीला में लक्ष्मण के किरदार से शुरू की। मिडिल स्कूल के शिक्षक से विश्वविद्यालय के हिन्दी प्राध्यापक तक की यात्रा में काफी उतार चढ़ाव रहे। शिखर तक पहुंचने और वहां से वापसी की दास्तान के बीच ढेरों अखबारी जानकारी, जो सत्य और असत्य के छोरों के बीच अर्धसत्य सी झूलती रही और देवलिया वर्ष 1998 में दुनिया छोड़ गए।
सातवें दशक में जबलपुर में रंग गतिविधियों का एक अड्डा रामानुजलाल श्रीवास्तवव ‘ऊंट’ का आवास था। यानी कि ऊंट के पुत्र विनोद श्रीवास्तव ‘खस्ता’ का घर। श्याम टॉकीज का रसवंती कैफे, रूपांजलि स्टूडियो, काफी हाउस और शेरे पंजाब होटल रंगकर्मियों के अन्य अड्डे थे। दिव्येन्दु गांगुली, प्रभात मिश्रा, गोविंद मिश्रा, कुमार किशोर, बारेलाल खुशाल, मेर्लिन खुशाल, राजेन्द्र मोरे आदि नाटकों के स्टार माने जाते थे। इन सभी अड्डों पर काफी गहमागहमी हुआ करती थी। श्याम खत्री, राजेन्द्र दुबे, करूणाकर पाठक, मिर्जा अजहर बेग, कुलकर्णी बंधु, केके नायकर भी नाटकों में अभिनय किया करते थे। ऐसे समय विश्वभावन देवलिया ‘अनुकृति’ संस्था के लिए हरिशंकर परसाई की रचना ‘रानी नागफनी की कहानी’ का नाट्य रूपांतरण ‘लंगड़ी टांग’ की मंचन की तैयारी कर रहे थे। कलाकारों को भूमिकाएं सौंपने के साथ रिहर्सल होने लगी थी। रिहर्सल खस्ता जी के यहां होती थी। ‘लंगड़ी टांग’ में सुभाष पात्रो, गौरीशंकर यादव, अरूण श्रीवास्तव, अलखनंदन, पुष्पा पचौरी, सतीश मदान, देवीदयाल झा शामिल थे। नाटक की रिहर्सल कम होती थी और नाटक की तैयारियों को ले कर बातें ज्यादा होती थी। लोगों का आना-जाना लगा रहता था।
इसी समय सन् 1973 में वर्तमान विवेचना रंगमंडल के निर्देशक अरूण पाण्डेय घूमने की दृष्टि से जबलपुर पहुंचे। उनका पूरा परिवार तो जबलपुर में व्यवस्थित हो चुका था, लेकिन अरूण पाण्डेय काशी व गंगा मोह के कारण बनारस में रूक गए थे। अरूण पाण्डेय जब छुट्टी मनाने जब जबलपुर पहुंचे तो वह समय अक्टूाबर व दशहरे के समय का था। सेठ गोविंददास के जन्म माह होने के कारण शहीद स्मारक अक्टूबर में रंग संस्थायओं को निशुल्क उपलब्ध होता था। शहीद स्मारक का प्रबंधन उस समय विश्वभावन देवलिया देखा करते थे। अक्टूबर माह में जबलपुर की रंग संस्थाओं की सक्रियता बढ़ जाती थी और हर दूसरे दिन नाटकों का मंचन होता था। रंगकर्म में रूचि होने के कारण अरूण पाण्डेय शहीद स्मारक पहुंच गए। उसी दिन ‘पांच लोफर’ का मंचन होने वाला था। अरूण पाण्डेय को वहां जानकारी मिली कि विश्वभावन देवलिया के नए नाटक की रिहर्सल खस्ता जी के घर में हो रही है। अरूण पाण्डेय शाम को जब खस्ता जी के घर पहुंचे तो वहां उनकी मुलाकात विश्वभावन देवलिया से हुई। देवलिया ने कहा कि भूमिकाएं तो सभी वितरित हो चुकी हैं। जोड़ने के लिहाज से अरूण पाण्डेय को प्रामप्टिंग का काम सौंप दिया। यहीं अरूण पाण्डेय की पहली मुलाकात गौरीशंकर यादव व अन्य कलाकारों से हुई। विश्वभावन देवलिया व अन्य लोगों से मुलाकात होने के बाद अरूण पाण्डेय को जबलपुर के रंग इतिहास, रंग खेमा, रंग उपलब्धियों और रंग उखाड़-पछाड़ से परिचित होने का मौका मिला। रिहर्सल देखने और काम करने के तरीके से वे विश्वभावन देवलिया की निर्देशकीय प्रतिभा के कायल हो गए। अरूण पाण्डेय की निरंतरता व समर्पण से प्रभावित हो कर या दाना डालने की प्रवृत्ति के चलते देवलिया ने अरूण पाण्डेय को ‘अनुकृति नाट्य संस्था’ का सचिव बनाने का वायदा किया। इसके बाद अरूण पाण्डेय की साइकिल देवलिया की मोपेड का पीछा करने लगी। इसी पीछा करने में अरूण पाण्डेय जबलपुर के रंग जगत व साहित्य जगत से परिचित होते गए।
विश्वभावन देवलिया अपनी मोपेड पर दिन भर शहर के इस कोने उस कोने तक भागा करते थे। उस समय जबलपुर का रंगमंच पूरी तरह दानदाताओं की दया पर ही निर्भर था। टिकट ले कर नाटक देखने की परम्परा न थी। इसी कारण विश्वभावन देवलिया ढेर सारे सेठों के चक्कर लगाते थे। वे घूम-घूम कर चंदा बटोरते और शाम को जब रिहर्सल में पहुंचते, तब तक थक कर निढाल हो जाया करते। ‘लंगड़ी टांग’ की डेढ़ माह की रिहर्सल में सारे कलाकारों ने विश्वभावन देवलिया को धोखा दे दिया या उनसे नाराज हो कर चले गए। अंत में कुछ लोग ही बचे, जिनके सहयोग से नाटक का मंचन संभव हो पाया। उस समय गंगा मिश्रा (आनंद) ‘अनुकृति’ की दूसरी पंक्ति के मजबूत स्तंभ थे। गंगा मिश्रा प्लाजा सिनेमा (अब की जयंती टॉकीज) में गेटकीपर थे। वे शाम को समय निकाल कर रिहर्सल में पहुंचते थे। गंगा मिश्रा ढेर सारे सपने देखते थे और एक दिन सपनों को पूरा करने के लिए बंबई भी पहुंच गए। वर्तमान में वे मुंबई की फिल्मी इंडस्ट्री से जुड़े हुए हैं। अनुकृति नाट्य संस्था में विश्वभावन देवलिया, पुष्पा पचौरी व गंगा मिश्रा ही स्थायी कलाकार व व्यक्ति थे। शेष लोग आते-जाते रहते थे। यह भी सत्य है कि एक न एक बार सभी ने विश्वभावन देवलिया के साथ काम किया। वे लोग दुबारा क्यों नहीं आए इसका जवाब विश्वभावन देवलिया ही दे सकते थे। पुष्पा पचौरी दरअसल विश्वभावन देवलिया की साली (पत्नी की बहिन) थीं। वे एक अच्छी व अग्रणी महिला कलाकार थीं, लेकिन कुछ वर्षों के पश्चात् रहस्यमय तरीके से उन्होंने आत्मदाह कर लिया।
सबसे बड़ी समस्या यह थी कि विश्वभावन देवलिया रंगकर्म के साथ साहित्य व पत्रकारिता जगत में घुसपैठ कर रहे थे। यदि वे रंगकर्म को ही सिद्ध करते तो काफी आगे जाते और सफल होते। उन्होंने रत्नकुमारी, नर्मदा प्रसाद खरे, रामेश्वर शुक्ल अंचल के सहारे द्वारका प्रसाद मिश्रा (डीपी) का झंडा उठा लिया। तब प्रगतिशीलों और परम्परावादी साहित्यकारों का स्पष्ट विभाजन था। देवलिया परम्परावादी साहित्यकारों की ओर से प्रगतिशीलों पर कलम से हमला करते रहते थे। उनका व्यक्तित्व व जीवन विरोधाभास वाला था। एक ओर वे परसाई की रचना का नाट्य रूपांतरण कर नाटक का मंचन करते, तो दूसरी ओर हरिशंकर परसाई व ज्ञानरंजन जैसे प्रगतिशीलों का विरोध भी। ‘धर्मयुग’ के संपादक धर्मवीर भारती ने धर्मयुग में उनके कुछ लेख छाप कर बाद में मोहरे के रूप में इस्तेमाल कर प्रगतिशीलों पर आक्रमण करने में उन्हें अगुआ बनाया। विश्वभावन देवलिया ने दरबार कला के माध्यम और डीपी मिश्रा के आशीर्वाद से जबलपुर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक का पद प्राप्त कर लिया।
रंगमंच की कसौटी पर यदि विश्वभावन देवलिया को कसा जाए तो वे जबलपुर के पहले आधुनिक दृष्टि के निर्देशक थे। उनकी डाक्टरेट-'नाट्य प्रस्तुतिकरण: स्वरूप और प्रक्रिया' नाटक पर ही थी। कई नाटकों का उन्होंने निर्देशन किया। ढेरों कलाकारों को मंच से प्रारंभिक परिचय करवाया। जबलपुर से बाहर कई स्थानों में जा कर या वर्कशाप के माध्यम से ‘अंधायुग’ जैसे नाटकों का निर्देशन किया। वे उत्कृष्ट रंग समीक्षक रहे। नटरंग में उनके कई आलेख छपे। परन्तु उनका समस्त रंग व्यापार ‘मैं’ के इर्द-गिर्द ही सिमटने के कारण ज्यादा फल-फूल नहीं पाया और परम्परा विकसित नहीं हुई। वहीं उनके साथ के कई लोग रंगकर्म में अच्छा खासा नाम कमा पाए।
विश्वभावन देवलिया को जो-जो विस्तार मिलता गया, उसे वे संभाल नहीं पाए। मालवीय चौक व काफी हाउस में दसों साल तक उनका नाम लेने पर उन दिनों अठन्नी जुर्माना देना पड़ता था। देवलिया एकमात्र ऐसे किरदार रहे हैं, जो शहर की तासीर के मुताबिक हमेशा तौले जाते रहे। यह बात भी सत्य है कि उनकी तुला में नकारात्मकता का बांट दिनोंदिन ऐसा बढ़ता गया कि उनके शुभचिंतक भी उनसे मुंह चुराते नज़र आए।
विश्वभावन देवलिया का एक वृतांत चोरों के गिरोह बनाने का भी है। शहर के लगभग आठ शातिर चोर उनके चेले थे। ये चोर दिन भर रेकी कर रात में चोरी करते थे। चोरी के बाद देवलिया के घर में बैठ कर समान का बंटवारा और निबटारा किया जाता था। पुलिस ने कुछ ही दिनों में गिरोह को पकड़ लिया और सभी को सजा मिली। उन्होंने एक बार गेरूए वस्त्र धारण कर, बड़े-बड़े व दाड़ी रख कर संन्यासी का रूप धर लिया। उनके जीवन का यही विरोधाभास था। एक ओर तो वे हरिशंकर परसाई की रचना 'टार्च बेचने वाले' से प्रभावित होते और कुछ दिन बाद टार्च बेचने वालों जैसा ही रूप धर लेते। इसी रूप में देवलिया प्रसिद्ध छायाकार रजनीकांत यादव के दाना गोदाम स्थित आकार स्टूडियो में पहुंचे। उस समय रजनीकांत यादव व उनके भतीजे मुकुल दोनों की काफी देर तक विश्वभावन देवलिया को पहचान नहीं पाए। देवलिया ने जब अपना परिचय दिया तो दोनों भौंचक्के रह गए। रजनीकांत यादव ने स्मृति में तैरते हुए बताया कि देवलिया एक बार उन्हें चाणक्य नाम से मशहूूर डीपी मिश्रा की फोटो खिंचवाने के लिए साथ में ले कर गए थे।
विश्वभावन देवलिया जैसे भी थे, वे जबलपुर शहर की उपज थे। उन्होंने शहर नहीं बनाया, लेकिन देवलिया को बनाने में जबलपुर शहर का ही योगदान है। वे शहर में कई लोगों के यहां नाटक के चंदे के लिए याचक बन कर जाते और वापसी में वे गाली बकते हुए निकलते। ऐन नाटक के दिन कलाकारों का फ्री पास के लिए उनसे झगड़ना और न मिलने पर न आना तो शहर की तब खासियत थी। दुख की बात यह है कि रंगमंच के योगदान पर उनकी चर्चा कम है और अन्य कर्मों पर ज्यादा है। इसके लिए विश्वभावन देवलिया ही जिम्मेदार हैं। उनके अवसान पर कथाकार राजेन्द्र दानी की महत्वपूर्ण टिप्पणी थी-‘’यार वह क्या चीज होती है जो एक प्रतिभाशाली मनुष्य को इस फिसलन भरे रास्ते पर ले जाती है।‘’
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