लगभग डेढ़ दशक में देश के समकालीन रंगकर्म में जबलपुर के रंग समूह समागम रंगमंडल की विशिष्ट पहचान बन चुकी है। हिंदी पट्टी में समागम रंगमंडल को सर्वाधिक संभावनापूर्ण और प्रयोगधर्मिता के लिए जाना-पहचाना जाता है। समागम रंगमंडल के मंचित नाटकों की विशेषता उनका समकालीन मुद्दों से टकराहट है। समागम रंगमंडल ने आशीष पाठक लिखित और स्वाति दुबे निर्देशित नए नाटक ‘भूमि’ का मंचन पिछले दिनों जबलपुर में किया। यह नाटक का दूसरा मंचन था। इस मंचन से कुछ दिन पूर्व नाटक का पहला मंचन जयपुर के जयरंगम में हुआ।
‘अगरबत्ती’ की सफलता के बाद आशीष पाठक से उनके नाट्य लेखन को ले कर हर समय उत्सुकता रहती है। उन्होंने 25 वर्षों के नाट्य जीवन में 17 नाटक लिखे हैं। आशीष पाठक ने इंटर कॉलेज नाट्य प्रस्तुतियों के लिए स्वयं के लिखे विषकन्या नाटक से शुरूआत की थी। इसके पश्चात् सुगंधि, सोमनाथ व अगरबत्ती का निर्देशन किया। हयवदन के निर्देशन ने उनके लिए व्यापकता व विस्तार का द्वार खोला।
वर्ष 2008 में आशीष पाठक ने समागम रंगमंडल नाट्य समूह गठित किया। समूह के गठन के साथ उन्होंने पॉपकार्न नाटक का लेखन किया और समागम की पहली प्रस्तुति के रूप में दर्शकों के समक्ष पेश किया। एकल अभिनय पर केन्द्रित पॉपकार्न दर्शकों के लिए हवा का ताजा झोंका था। पॉपकार्न के पश्चात् आशीष पाठक ने एक नया नाटक रेड फ्रॉक को लिख कर मंच पर प्रस्तुत किया। यह प्रस्तुति भी विचारधारा के अंतर्विरोध को दर्शाती थी। नाटक की विषयवस्तु ने दर्शकों को गहराई से प्रभावित किया। इस नाटक के पश्चात् समागम रंगमंडल ने अपनी प्रस्तुतियों में मुख्यधारा के कलाकारों से किनारा कर लिया और कॉलेज के विद्यार्थियों व नवोदित कलाकारों को अवसर देना प्रारंभ किया। आशीष पाठक यहां से एक बार फिर बुनियादी स्तर की लौटे। उन्होंने डकैत चूहे में बेक स्टेज करने वाले एक कलाकार को मुख्य भूमिका निभाने का अवसर दिया।
आशीष पाठक ने समागम रंगमंडल के माध्यम से पारम्परिक स्क्रिप्ट के स्थान पर स्वयं के लिखे या असामान्य विषयों को नाट्य रूपांतरण कर नाटक की विषयवस्तु बनाया है। नाट्य रूपांतरण के रूप में प्रस्तुत किया गया आशीष पाठक का सुदामा के चावल उनकी महत्वपूर्ण प्रस्तुति है। हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना को उन्होंने तीव्रता के साथ मंच पर प्रस्तुत किया। सुदामा के चावल से राजनैतिक सत्ता पर कठोर प्रहार किया है। इस नाट्य प्रस्तुति को राजनैतिक दवाब का सामना भी करना पड़ा है। मध्यप्रदेश में तो आयोजक सुदामा के चावल के मंचन से बचने लगे हैं। सुदामा के चावल को अहीराई नृत्य शैली में प्रस्तुत कर रंगकर्म का नया फार्म प्रस्तुत किया गया। इस प्रस्तुति में परसाई काव्यात्मक रूप में दर्शकों के समक्ष आए।
समागम रंगमंडल की इसके पश्चात् की प्रस्तुतियां रावण, सराय और यहूदी की लड़की में लोक तत्व एवं संगीत का उपयोग बखूबी किया गया। यहां एक बात गौरतलब है कि प्रस्तुतियों का लोक तत्व जटिल नहीं है, बल्कि वह दर्शकों से तदात्म स्थापित कर लेता है। लोर्का लिखित बिरजिस कदर का कुनबा समागम रंमंडल की एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति है। जटिल विषय पर आधारित इस प्रस्तुति में कॉलेज विद्यार्थियों जैसे अनगढ़ कलाकारों से होशियारी से काम लिया गया। समागम रंगमंडल अपनी प्रस्तुतियों में नाट्य लेखक को बराबरी से श्रेय देती है। महेश एलकुंचवार के वासांसि जीर्णानी के मंचन के लिए आशीष पाठक व स्वाति दुबे ने लेखक से व्यक्तिगत मिलने की काफी जद्दोजहद की। नागपुर में बार-बार जा कर आखिर एक दिन आशीष पाठक महेश एलकुंचवार से मिलने में सफल हो गए। नाटक की चर्चा के साथ आशीष पाठक लेखक को उनकी रायल्टी देने में भी ईमानदारी दिखाई। इस प्रस्तुति को एक संवाद की यात्रा के नाम से प्रस्तुत करते रहे। आशीष पाठक अपने लिखे नाटक को निरंतर अद्यतन करते हुए प्रयोग की प्रक्रिया में रहते हैं। अगरबत्ती नाट्य प्रस्तुति के लिए उन्होंने काफ़ी शोध किया। इसके लिए वे और स्वाति दुबे बुंदेलखंड एवं जालौन और आसपास के क्षेत्रों में गाए जाने वाले गीतों को खोज कर नाटक में प्रस्तुत किया है। अगरबत्ती की खासियत उसकी परिकल्पना व जटिलता है। आशीष पाठक अन्य नाट्य लेखक व निर्देशकों की तुलना में जटिलता में ज्यादा जाते हैं।
आशीष पाठक ने ‘भूमि’ को लिखने में लगभग तीन-चार वर्ष का समय लगाया है। इसके लिए उनकी योजना एक डेढ़ वर्ष पूर्व शुरू हो चुकी थी। ‘भूमि’ दरअसल महाभारत के पात्र बभ्रुवाहन पर केन्द्रित है लेकिन नाटक में अर्जुन और चित्रांगदा के चरित्र उभर कर सामने आते हैं। इन दोनों पात्रों के संवाद व विषयवस्तु के माध्यम से आशीष पाठक ‘भूमि’ को समकालीनता सवालों से जोड़ देते हैं। नाटक के पात्र और उनके विचार प्रतीक के रूप में सामने आते जाते हैं। नाटक के मुख्य पात्र अर्जुन व बभ्रूवाहन पुरूष हैं तो चित्रांगदा व उलूपी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए द्वन्दों को उभारती हैं। आशीष पाठक नाटक में अश्वमेध यज्ञ के माध्यम से साम्राज्यवादी विस्तार व इच्छाओं को इंगित करते हैं तो भूमि को स्त्री से जोड़ते हैं। वे भूमि को मिथकों से जोड़ते हैं।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा के अलावा दो और विवाह किए थे। अर्जुन ने दूसरा विवाह मणिपुर की राजकुमारी चित्रांगदा जिसका पुत्र बभ्रुवाहन और तीसरा विवाह उलूपी से किया था जिसका पुत्र अरावन था। बभ्रुवाहन अपने नाना की मृत्यु के बाद मणिपुर का राजा बनाया गया। जब युधिष्ठिर ने अश्वमेघ यज्ञ करवाया तो यज्ञ के घोड़े को बभ्रुवाहन ने पकड़ लिया था। घोड़े की रक्षा के लिए अर्जुन मौजूद थे तब बभ्रुवाहन का अपने पिता से युद्ध होता है और युद्ध में बभ्रुवाहन जीत जाता और अर्जुन मूर्छित हो जाता है। अपनी मां चित्रांगदा के कहने पर बभ्रुवाहन मृतसंजीवक मणि द्वारा अर्जुन को चैतन्य कर देता है।
अर्जुन, चित्रांगदा, बभ्रूवाहन जैसे पात्रों को केन्द्र में रख कर रवीन्द्र नाथ टैगोर नाटक और जयशंकर प्रसाद ने कहानी लिखी है। इस कथा पर कन्नड़ व तेलगु में फिल्में बनी है। इन फिल्मों में कन्न्ड़ के सुपर स्टार राजकुमार और एनटीआर जैसे कलाकारों ने अभिनय किया। हिन्दी में भी अलग अलग समय में दो फिल्मों का निर्माण हुआ। आधुनिक काल में आशीष पाठक ने इस विषयवस्तु पर नाटक लिख कर इसे समसामयिकता दी है। नाटक लिखने के बाद स्वति दुबे ने मणिपुर की यात्रा कर वहां की संस्कृति, वेशभूषा, मार्शल आर्ट जैसी बारीक बातों का अध्ययन कर उसे नाटक में उतारा। पिछले वर्ष जुलाई-अगस्त में समागम रंगमंडल ने मणिपुरी मार्शल आर्ट थांग-टा का बीस दिनों का एक वर्कशॉप आयोजित किया। इसके लिए उन्होंने मणिपुर से विशेष रूप से चिंगथम रंजीत खुमान को आमंत्रित कर अपने कलाकारों को प्रशिक्षण दिया। थांग-टा मणिपुर का पारम्परिक मार्शल आर्ट है, जिसमें सांस की लय के साथ समन्वित रूप से शारीरिक नियंत्रण का अभ्यास किया जाता है। थांग-टा में कलाकारों को भाले व तलवार का प्रशिक्षण भी दिया गया। जबलपुर के अमित सुदर्शन कलाकारों को केरल के मार्शल आर्ट कलारी पट्टू के साथ मणिपुरी मार्शल आर्ट का लगातार प्रशिक्षण देते आ रहे हैं।
शोध, लेखन, यात्रा, प्रशिक्षण, थकाऊ रिहर्सल के बाद ‘भूमि’ दर्शकों के समक्ष मंचन के रूप में सामने आया। इस नाटक की डिजाइनिंग, क्राफ्ट व परिकल्पना में निर्देशक स्वाति दुबे की मेहनत स्पष्ट रूप से झलकती है। 90 मिनट की प्रस्तुति में उन्होंने एक एक दृश्य में खासी मेहनत की है। कलाकारों की आंगिक क्रियाएं मंच पर देख कर महसूस होता है कि वे भी पूरे नाटक में डूबे हुए हैं। कलाकारों की स्पीच पर खूब मेहनत की गई। लंबे संवाद कहीं बोझिल नहीं होते बल्कि दर्शक मंच पर सामने देखते हुए एक एक शब्द व सशक्त संवाद को सुनने का जतन करते हैं। नाटक का गीत जाओ तुम पुरवा के संग लौट आना तुम में नृत्य व संगीत रिलेक्स पैदा करता है। यह गीत सोम ठाकुर का है और इसे संगीतबद्ध संजय उपाध्याय ने किया है। किसी पारम्परिक मणिपुरी लोक संगीत की तुलना में इस गीत को मंच पर प्रस्तुत करना ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध हुआ।आशीष पाठक की लाइट डिजाइनिंग अद्भुत रही। बांस का सेट विषयवस्तु को आधार व मजबूती देता है। नाटक के अंत में अर्जुन व बभ्रूवाहन के बीच का खड्ग युद्ध की मौलिकता व स्वाभाविकता इससे पूर्व नाटकों में कभी देखने को नहीं मिली। स्वाति दुबे चित्रांगदा की भूमिका को अपने संवादों के जरिए विस्तार के साथ प्रभावी बनाती हैं। नवयुवती के अल्हड़पन से मां तक के भाव सहजता के साथ सम्प्रेषित होते हैं। अर्जुन के रूप में हर्षित सिंह कहीं कहीं अनुभवी कलाकार स्वाति दुबे के समक्ष मंच पर संकोची प्रदर्शित होते हैं। उन्हें मंच पर यह संकोच का भाव छोड़ना होगा।
आशीष पाठक व स्वाति दुबे मणिपुरी पृष्ठभूमि में ‘भूमि’ को जिस सफलता से प्रस्तुत किया है, संभवत: ऐसा मणिपुर के रंग समूह नहीं कर सकेंगे। आशीष व स्वाति अगरबत्ती के धूसर से भूमि के विभिन्न रंगों में आए हैं। यह एक बदलाव है। ऐसी विविधता की ख्वाहिश लेखक व निर्देशक में होना अच्छी बात है। आशीष पाठक स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि जब वे मौलिक विषय पर नाटक लिखते हैं तो उनको स्वतंत्रता रहती है। यही स्वतंत्रता उनकी चिंगारी है। इस चिंगारी की कमी ‘भूमि’ में खलती तो ज़रूर है। बहरहाल आशीष व स्वाति की चम्बल से दूर पूर्वोत्तर की यह यात्रा लंबे समय तक देश के मंचों पर दिखती रहेगी और सराहना भी बटोरेगी।
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