मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

प्रतिरोध को थिएटर का माध्यम बनाने वाले रंगकर्मी बादल सरकार



बादल सरकार का नाम देश में नाटक का पर्याय है। कलकत्ता में जन्में बादल सरकार ने कई वर्ष इंजीनियर के रूप में काम किया। विदेश से रंगकर्म का डिप्लोमा लेने के पश्चात् उन्होंने रंग जगत में प्रवेश किया। उनके अभिनव तरीके ने रंगमंच में उनकी अलग पहचान विकसित की और बादल सरकार रंग जगत का एक शीर्ष नाम बन गया। बादल दा ने गत 15 जुलाई को जीवन के 83 वर्ष पूर्ण किए हैं।

बादल सरकार से प्रेरित हो कर देश के सैकड़ों रंगकर्मी सड़कों पर नाटक करने उतरे और प्रतिरोध के लिए थिएटर को माध्यम बनाया। थिएटर आडोटोरियम और उसके तमाम तामझाम को छोड़ कर ‘सुधीन्द्र नाथ सरकार’ ने जब थिएटर को जनता से सीधे संवाद करने का माध्यम बना कर नुक्कड़ नाटक की अपनी शैली विकसित की, तो रंग जगत में एक तूफान सा आ गया। सन् 1970 के आसपास उन्होंने थिएटर आडोटोरियम से नुक्कड़ की यात्रा शुरू की। उस समय बांगला थिएटर जगत में शंभू मित्र, तृप्ति मित्र और उत्पल दत्त के नाम शीर्ष पर थे।
बादल सरकार बताते हैं- ‘‘मैंने अपना काम कविताओं से शुरू किया। सन् 1956 में मैंने अपना पहला नाटक साल्यूशन एक्स लिखा। फिर सन् 1956 में बारो पिशीमा आया। अभी हाल ही में उनकी दो पुस्तकें पुरोनो कुशुन्डी और प्रोबोशेर हिज्जीबिज्जी आई हैं, जिनमें उनके नाटकों, अनुभवों और विदेश यात्राओं का विवरण है।

सन् 1961 में उनका तीसरा नाटक राम श्याम जोदू आया जो एक विदेशी कहानी पर आधारित था। इस नाटक की सफलता ने उन्हें एक अलग किस्म के थिएटर का जनक बनाया, जिसे भारत में थर्ड थिएटर और साइको फिजिकल थिएटर (मनो-शारीरिक रंगमंच) के नामों से जाना गया। सन् 1963 में उन्होंने दो नाटकों का निर्देशन किया। ये नाटक थे-एवम् इंद्रजीत और वल्लभपुर की रूपकथा । इन नाटकों के साथ ही बादल सरकार का नाम हर रंगकर्मी की जुबान पर छा गया। इसके बाद उनके नाटक लगातार आते रहे। कवि कहानी (1964), बाकी इतिहास (1965), तीसरी शताब्दी (1966), यदि फिर एक बार (1966), पगला घोड़ा (1967), अंत नहीं (1970), सगीना मेहता (1970), अबू हसन (1971), मिछिल-जुलूस (1974) आदि। बाकी इतिहास ने जहां उन्हें महान नाटककार बनाया, वहीं पगला घोड़ा और सारी रात बहुत ही पसंदीदा नाटक बने।

बादल सरकार ने अपने साथियों के साथ ‘परिक्रमा’ कार्यक्रम के साथ बंगाल के अनेक जिलों में गांव-गांव जा कर नाटक किए और बंगाल के ग्रामीण जनों से सीधा रंगसम्पर्क बनाया। नादिया, 24 परगना आदि जिलों में भी गांव-गांव घूम कर बादल सरकार ने रंगकर्म का संदेश दे कर अभिजात्य नाट्य जगत को चुनौती दी। उनके नाटकों में कलाकारों और दर्शकों के बीच कोई फर्क नहीं होता है। बादल सरकार ने आंगन, छत, नुक्कड़ और गांवों में नाटकों को पहुंचा कर नाटक को व्यापक बनाया।

‘‘मेरे नाटक संदेश मेरा संदेश देते हैं। परन्तु मैं महसूस करता हूं कि इन नाटकों को यदि मैं आज लिखता तो इनका फार्म और नेरेशन दूसरा होता। जिस पथ पर मैं अब तक चला और जो नवाचार मैंने भारतीय रंगमंच में किया, उस पर मुझे आज भी विश्वास है।’’

बादल सरकार आज भी सक्रिय हैं, यद्यपि बीमारी के कारण वे घूम-फिर नहीं पाते हैं। आजकल वे अपनी आत्मकथा का तीसरा भाग लिख रहे हैं। बादल दा कहते हैं-‘‘मैं अब भी लिख रहा हूं, हालांकि लोगों ने मुझे अकेला छोड़ दिया है और आज मुझे किसी चीज की कोई इच्छा भी नहीं है।’’

वे आजकल निपट एकांत में जी रहे हैं। न कोई आता है और न कोई जाता है। इस महान नाटककार को जिसने वैकल्पिक रंगमंच को जन्म दिया, उसे उसके लेखन की रायल्टी भी नहीं मिलती। प्रकाशक पिछले एक दशक से उनकी उपेक्षा कर रहे हैं। उनके स्वयं के विद्यार्थी नाटकों का मंचन करते हैं और उन्हें सूचित करना भी जरूरी नहीं समझते।

बादल सरकार को सांस की तकलीफ है और पैरों में डली दो राड के कारण बाहर जाने में वे असमर्थ हैं। पर वे असहाय और निराश नहीं हैं, यद्यपि आर्थिक और भावनात्मक रूप से वे बहुत कष्ट में हैं। उनकी आत्मकथा बहुत कुछ कहती है। उनके अनुभवों का संसार बहुत बड़ा है।

बादल सरकार बताते हैं कि उन्होंने थिएटर अपने परिवार वालों के साथ मिल कर शुरू किया। घर से साड़ी-कपडे ले जा कर उसी से स्टेज बना कर पूरी लगन से नाटक तैयार करते थे। उन्होंने कई बार नाटकों में महिला पात्र का काम किया, हालांकि उनके माता-पिता को यह बिल्कुल पसंद नहीं था।

वर्तमान में बादल सरकार केवल लिख रहे हैं। उनके साथ एक युवा सहायक है। उनके समकालीन शंभू मित्र को भी अंतिम समय में एक होटल में रहना पड़ा था। लोगों का यह याद रखना होगा कि नुक्कड़ नाटक के उनके मुहावरे को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तक में सम्मान मिला। बादल दा को इस बात का मलाल है कि उनके काम को एक उत्पाद के रूप में बेचा जा रहा है। बीमारी के साथ-साथ वे बादल सरकार को भुलाए जाने के विरूद्ध भी लड़ाई लड़ रहे हैं।

बादल सरकार का रंगकर्म व्यवस्था के विरूद्ध उद्घोष है। उनके फार्म की आसानी और ऊर्जा हर युवा को आकर्षित करती है, इसलिए बादल सरकार के नाटक पूरे देश में हर नाट्य दल द्वारा बार-बार खेले गए। बादल दा के नाटक समाज में अत्याचार और बिखरती समाज व्यवस्था के विरूद्ध तीखा प्रतिरोध करते हैं। समाज और राजनीति की विद्रूपताओं पर उनके नाटक गहरी चोट करते हैं। इस कारण से बादल सरकार के नाटक और वे स्वयं भी देश के रंगकर्मियों के चहेते हैं।

रंग जगत बादल दा के स्वस्थ और सुखी जीवन का आकांक्षी है।

बादल सरकार के प्रसिद्ध नाटक-एवम् इंद्रजीत, अंत नहीं, बासी खबर, बाकी इतिहास, पगला घोड़ा, स्पार्टाकस, प्रस्ताव, जुलूस, भोमा, साल्यूशन एक्स, बारोपिशीमा, सारी रात, बड़ी बुआ जी, कवि कहानी।
(इस आलेख के लेखक हिमांशु राय हैं। वे मासिक इप्टा वार्ता के संपादक हैं। उनका ब्लाग इप्टावार्ता हिंदी हाल ही में शुरू हुआ है। )

रविवार, 19 अप्रैल 2009

इप्टावार्ता हिंदी की शुरूआत

आज से जबलपुर की भारतीय जन नाट्य संघ (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन-इप्टा) की प्रतिनिधि संस्था विवेचना के महासचिव हिमांशु राय ने इप्टावार्ता हिंदी के माध्यम से एक नया ब्लाग शुरू किया है। इस ब्लाग में इप्टा वार्ता की सामग्री भी नाट्य प्रेमी और रंगमंच में रूचि रखने वाले लोग पढ़ सकेंगे। हिमांशु राय का ब्लाग जगत में स्वागत है।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

टैगोर गार्डन के मायने

जबलपुर में बड़े शहरों की तरह आम लोगों के लिए पार्क या उद्यानों की कमी हर समय महसूस होती रहती है। नगर निगम के भंवरताल और नेहरू उद्यान जैसे एक-दो पार्क जरूर हैं, लेकिन अव्यवस्थाओं के कारण यहां आम लोग आने से बिचकते हैं। ले-देकर केंटोमेंट बोर्ड का टैगोर उद्यान ही सुबह-शाम लोगों के लिए घूमने के लिए बचता है। साफ-सफाई और झूलों, फिसलनी, मेरी गो-राउंड के कारण टैगोर उद्यान बच्चों के साथ बुजुर्गों को सबसे अधिक आकर्षित करता है। मुझे याद है कि हम लोग बचपन में टैगोर उद्यान को किंग्स गार्डन के नाम से पहचानते थे। बाद के दिनों परम्परानुसार अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पार्कों, रेलवे स्टेशनों और हास्पिटलों का नामकरण भारतीय नामों से किया गया, इसलिए किंग्स गार्डन भी रवीन्द्रनाथ टैगोर उद्यान हो गया। लोगबाग इसे अब इसे टैगोर गार्डन ही कहना पसंद करते हैं।
टैगोर गार्डन में सुबह घूमने वालों के लिए प्रवेश नि:शुल्क रखा गया है। दिन और शाम को यहां आने वालों को एक या दो रूपए प्रवेश शुल्क के रूप में देना पड़ते हैं। 12 वर्ष तक के बच्चों के लिए प्रवेश मुफ्त है। मैं सप्ताह के सातों दिन सुबह के समय टैगोर गार्डन में घूमने जाता हूं। अब टैगोर गार्डन नियमित रूप से जाना एक आदत बन गई है। सुबह घूमने वालों में बहुत से महिलाएं या पुरूष भी मेरी तरह यहां आदतन आने लगे हैं। इनमें से कई सदर क्षेत्र में स्थित स्कूलों में बच्चों को छोड़ने आते हैं और लगे हाथ टैगोर गार्डन के भी चक्कर लगा लेते हैं। मैं एक बात तो बताना भूल ही गया कि टैगोर गार्डन में दो वॉकिंग ट्रैक हैं। बड़ा 550 मीटर का दूसरा छोटा जिसमें मैं आज तक नहीं चला। लोग अपनी सुविधानुसार दोनों ट्रैकों में से एक में चलते हैं। कुछ लोग बारी-बारी से पहले बड़े ट्रैक में और फिर छोटे ट्रैक में या पहले छोटे ट्रैक में और बाद में बड़े ट्रैक में चलते हैं। अधिकांश घूमने वाले लोग एक-दूसरे को नाम से नहीं पहचानते, लेकिन लंबे समय से घूमने के कारण चेहरों से पहचान हो गई है और कभी-कभार हैलो, गुड मॉर्निंग या ओम नमो नारायण से औपचारिकताएं भी हो जाती है। घूमने वालों का उद्देश्य वजन कम करना या मोटापा घटाना है, लेकिन इसमें कुछ ही लोग सफल दिखते हैं। दो-तीन वर्षों के घूमने के बावजूद कम लोगों में फर्क नजर आया और वे इससे चिंतित भी हैं।
दरअसल ‘ओम नमो नारायण’ का उदघोष एक रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर का है। मुझे ऐसा लगता है कि जब उन्होंने टैगोर गार्डन में सुबह घूमना शुरू किया, तब भीड़-भाड़ में उनको नोटिस में नहीं लिया गया। तब उन्होंने आमतौर पर गार्डन में बाएं से दाएं घूमने के नियम के सिद्धांत के स्थान पर दाएं से बाएं घूमना शुरू किया और घूमने वाले युवाओं से ले कर बूढ़ों तक का ध्यान ‘ओम नमो नारायण’ के उदघोष से करने लगे। कुछ लोगों ने उनको रिस्पांस दिया तो कुछ ने उन्हें देख कर राह बदलना उचित समझा। मजा तो उस समय आता है, जब रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर एअर फोर्स और सेना में ऊंचे पदों पर पदस्थ अपने बेटों के साथ गार्डन में मॉर्निंग वाक करने आते हैं और उनको देख कर लोग जोर-जोर से ‘ओम नमो नारायण-ओम नमो नारायण’ का उद्घोष करते हैं और बेटों की शर्म में वे ऐसे लोगों से बचना चाहते हैं। बेटे भी समझ नहीं पाते कि उनके पिता जी को देख कर सभी लोग ‘ओम नमो नारायण-ओम नमो नारायण’ का उदघोष क्यों कर रहे हैं ?
टैगोर गार्डन में घूमने वालों ने अपनी-अपनी पसंद के विषय वालों के झुंड या समूह बना लिए हैं। इन समूहों में घूमने वाले लोग प्रापर्टी, पुरानी-नई कार बेचने, शेयर मार्केट, ट्रक के धंधे, देश-विदेश के टूर और उसमें भिजवाने की बात करते हैं। गार्डन में कभी-कभार प्रापर्टी की डील भी होने की खबर मैंने सुनी है। कुछ डाक्टर भी घूमने आते हैं। उनसे लोग पहचान भिड़ा कर गार्डन में ही फ्री में सलाह लेना चाहते हैं या क्लीनिक में जल्दी देखने का जुगाड़ करना चाहते हैं।
पुरूषों के साथ महिलाएं भी समूह में घूमना पसंद करती हैं। पुरूषों की तुलना में महिलाएं धर्म या जातिगत आधार पर घूमना पसंद करती हैं। पहनावा तो आधुनिक है, लेकिन विचार अभी तक संकुचित हैं। कई बार महिलाओं की बात तो वही सास-बहू या जिठानी-देवरानी के पुराने झगड़े ही उनकी बातचीत के विषय रहते हैं। कुछ सीधा पल्ला लिए अधेड़ व बुजुर्ग महिलाओं को काफी समय से देख हूं, वे गार्डन के बीच में चबूतरों में रामदेव से प्रेरणा ले कर योग व आसन कर सुबह के समय का सदुपयोग कर रही हैं। गार्डन में पेड़ों के नीचे आसन लगा कर और बेंचों पर बैठ कर कुछ पुरूष कपालभाती, अलोम-विलोम की क्रिया करते भी दिखते हैं। उनकी क्रियाओं को देख कर कई बार मन में लगता है कि ये लोग वाकई में इन्हें सही ढंग से कर पा रहे हैं कि नहीं। मन में शंका होने पर मैंने रोज मिलने वाले एक व्यक्ति से इस संबंध में पूछा तो वे भी शंका में पड़ गए।
गार्डन में सुबह साउंड बाक्स के माध्यम से भजन की धारा भी प्रवाहित होती रहती है। भजनों को सुनने के समय महसूस होता है कि क्या गार्डन में सिर्फ हिंदु ही घूमने आते हैं, क्योंकि सभी भजन हिंदु धर्म से संबंधित रहते हैं। वैसे उनमें आध्यात्मिक भाव रहता है, इसलिए उन्हें सर्वग्राह्य माना जा सकता है। गार्डन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की एक शाखा भी लगती है। शाखा में पहले ज्यादा संख्या दिखती थी, लेकिन अब काफी कम लोग इसमें आते हैं। ये लोग चुपचाप अपनी नियमित कार्यक्रम के साथ एक-डेढ़ घंटे गार्डन में रहते हैं। कभी-कभी बच्चों के लिए कबड्डी और मनोरंजक खेलों का आयोजन कर आरएसएस वाले उन्हें आकर्षित करने का प्रयास भी करते हैं।
गार्डन में बिजनेस या आध्यात्मिक प्रमोशन के तहत् योग व स्वास्थ्य शिविर भी आयोजित किए जाते हैं। इन शिविरों की खास बात यह देखी गई है कि इनमें पांच-सात दिन तक भाग लेने के पश्चात् लोग दूसरों को इस प्रकार योग व स्वास्थ्य की सलाह देने लगते हैं, जैसे उनकी विषय में विशेषज्ञता हो। कुछ दिन पहले ही देश और विदेश में आध्यात्म की अलख जगाने वाले एक अंतरराष्ट्रीय संगठन ने टैगोर गार्डन में एक योग-स्वास्थ्य शिविर का आयोजन किया। शिविर के प्रतिभागियों को संबोधित करने के लिए डीजल जनरेटर की व्यवस्था की गई, जिससे कि शिविर में शामिल होने वालों के साथ-साथ गार्डन में घूमने वाले भी लाउड स्पीकर में बहिन जी का प्रवचन सुन सकें। गार्डन में प्रविष्ट होते ही लोगों को डीजल जनरेटर के धुएं से रूबरू होना पड़ा। शिविर में उस दिन पर्यावरण संरक्षण पर लोगों को जन-जाग्रत किया जा रहा था। शिविर की व्यवस्था संभालने वाले एक भ्राता से जब जनरेटर के धुएं और प्रदूषण की ओर ध्यान दिलाया गया, तब उन्होंने मासूमियत से उत्तर दिया -"आप लोग बात तो सही कर रहे हैं, लेकिन मैं क्या कर सकता हूं ?" सप्ताह भर तक चलने वाले शिविर की बातें मैंने भी घूमते हुए ध्यान से सुनी। बातों का निचोड़ था- योग,स्वास्थ्य, आध्यात्म और देशभक्ति। शिविर के बीच में रोज मनोज कुमार की फिल्म के देशभक्ति गीत भी सुनवाए गए और लोगों ने ताली बजा कर उनको पूरी तन्मयता के साथ गाया भी।
गार्डन में लगे हुए झूलों, फिसलनी और मेरी गो-राउंड में बच्चे तो नहीं खेल पाते, अलबत्ता किशोर विशेषकर महिलाएं उन पर अधिक समय तक काबिज रहती हैं। बेचारे बच्चे काफी समय तक इंतजार करते हैं कि झूले कब खाली हों और वे कुछ समय तक उनमें झूल सकें। बच्चे एक या दो बार झूलते हैं कि बड़े लोग आ कर उन्हें उतार देते हैं। फिसलनियों में किशोर दौड़ कर चढ़ने की अजमाइश करते नजर आ जाते हैं। गार्डन जब खाली होने लगता है, तब मैंने कई बार देखा है कि कुछ बूढ़े महिला और पुरूष झूलों में बैठ कर झूलते हैं। उनको देख कर मुझे प्रेमचंद की एक कहानी में उल्लेखित इस वाक्य की याद आ जाती है कि बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन होता है।
सुबह 9.00 बजे के पश्चात् गार्डन में टिकट लगना शुरू हो जाती है। 9 बजे से शाम के समय तक धुधंलके तक युवा लड़के-लड़कियों का यहां जमघट लग जाता है। गार्डन में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर का एक अध्ययन केन्द्र भी है। इस अध्ययन केन्द्र की स्थापना का उद्देश्य विद्यार्थियों को गार्डन के सुरम्य वातावरण में अध्ययन की सुविधा प्रदान करना है। अध्ययन केन्द्र का विद्यार्थी कितना लाभ उठा रहे हैं, इसकी मुझे जानकारी नहीं, लेकिन गार्डन के सामने की सड़क से निकलने पर यह जरूर दिख जाता है कि युवा जोड़े पेड़ो और झाड़ियों के झुरमुटे में अपना समय कैसे काट रहे हैं। सुबह घूमने पर पेड़ों के बीच में चिप्स के पैकेट व कोल्ड ड्रिंक्स की खाली बोतलें इस बात की गवाह होती हैं कि यहां समय बिताने वाले युवा जोड़े पूरे इंतजाम के साथ आते हैं।
शाम के समय लोग सपरिवार बच्चों के साथ यहां घूमने आते हैं। बच्चों के मनोरंजनार्थ गार्डन में दो ट्रेनों की व्यवस्था केंटोमेंट बोर्ड द्वारा की गई है। एक-दो वर्ष पूर्व तक गार्डन में प्रत्येक माह के पहले रविवार की शाम को सेना का बैंड दो घंटे का कार्यक्रम प्रस्तुत करता था। बारिश में व्यवधान आने के बाद यह कार्यक्रम ही बंद हो गया। इस पर किसी का ध्यान नहीं गया। न ही केंटोमेंट बोर्ड का और न ही मीडिया का। इसका लाभ सुरा प्रेमी निश्चित रूप से उठा रहे हैं। सुबह घूमने वालों को कई बार शराब और सोडे की खाली बोतलें यह बताने के लिए काफी है कि गार्डन में यह सब भी होता है।
गार्डन के बंद होने का समय रात्रि 9.00 बजे नियत किया गया है। यह 9.00 बजे आम लोगों के लिए बंद हो जाता है, लेकिन मुझे लगता है कि जिन्हें इसके अंदर जाना है, वे ऊंची दीवारों और कांटा लगी ग्रिल को भी लांघ कर यहां पहुंच जाते हैं और उन कामों में लग जाते हैं, जिसके लिए उन्होंने इतनी मेहनत की है।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

तारे जमीं पर और आमिर खान का भला हो!


भारतीय समाज में हिंदी फिल्मों का कितना व्यापक प्रभाव है, इसकी बानगी पिछले दिनों उस समय देखने को मिली, जब बच्चों के स्कूल के रिजल्ट आए। भला हो आमिर खान का और उनकी फिल्म ‘तारे जमीं पर’ का कि उनकी फिल्म से प्रभावित हो कर अभिभावकों ने खराब रिजल्ट लाने के बावजूद बच्चों को न तो डांटा और न ही पीटा। एक ओर वे अभिभावक थे, जो कि बच्चों के अच्छे रिजल्ट से गौरवान्वित थे, तो वहीं कुछ ऐसे अभिभावक भी मिले जो गर्वपूर्वक बता रहे थे कि उनका बेटा परीक्षा में कुछ लिख कर नहीं आया। बिल्कुल ‘तारे जमीं पर’ के ईशान अवस्थी की तरह। ऐसे अभिभावकों को अपने बच्चे में ईशान अवस्थी की भूमिका निभाने वाले दर्शनील सफारी की छवि उभर रही थी।

अमीर लेकिन कम पढ़े-लिखे एक अभिभावक ने तो भौंएं ऊपर करते हुए कहा - ‘‘बेटे ने तो कापियों में सिर्फ आड़ी-टेढ़ी लाइनें ही खींच दीं, अपने आमिर खान की फिल्म जैसे। मेडम भी आश्चर्य कर रहीं थीं कि फिल्म की तरह कैसे हो गया।’’ यहां अभिभावक के साथ स्कूल की टीचर भी हतप्रभ थीं। मैंने पूछा कि बच्चे की रिजल्ट पर क्या प्रतिक्रिया थी ? अभिभावक ने गर्व से कहा-‘‘वह कह रहा था कि बिल्कुल ‘तारे पर जमीं’ जैसा हो गया न पापा।’’

मुझे लगा कि काश हमारे बचपन में आमिर खान और ‘तारे जमीं पर’ दोनों ही होते तो रिजल्ट खासतौर से 30 अप्रैल के दिन धुकधुकी न होती। 27-28 अप्रैल से ही भगवान को सुमरने लगते थे। रिजल्ट अच्छा आने पर भी यहां-वहां घूम कर समय काटते हुए घर पहुंचते थे कि जितनी देर हो जाए उतना ही भला। घर पहुंच कर ‘‘किस-किस में कम नंबर आए हैं। गणित में तो तुम कमजोर हो ही।’’ जैसी बातें सुनने को तो मिलेंगी ही और हो सकता है एक-आध चांटा भी पड़ जाए।

सातवीं कक्षा तक तो पिता जी की डांट और पिटाई का डर बना रहा, लेकिन रिजल्ट के कुछ दिन बाद ही उनका निधन हो गया। आठवीं कक्षा में नाना के घर आ गए। पढ़ाई-लिखाई क्या हो रही है, इसकी चिंता सबको थी, लेकिन पुराने परफार्मेंस के आधार पर सब लोग चिंतित थे। परीक्षा देते-देते दादा जी की तबियत बिगड़ गई और सबको लगा कि उनकी मृत्यु कभी भी हो सकती है। पोतों से मिलना उनकी अंतिम इच्छा थी। दूसरे कस्बे में जब उनसे मिलने के लिए हम लोग जिस दिन गए तो उसके अगले ही दिन विज्ञान का पर्चा था। परीक्षा की बात करने पर कहा गया-‘‘जाना तो पड़ेगा, देखा जाएगा।’’ दादा जी से अंतिम बार मिल कर दूसरी सुबह मुझे अकेले ही ट्रेन में बैठा दिया गया। तब मैं अपनी विज्ञान की एक पुस्तक के साथ था। रास्ते में कुछ लोगों को आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले अकेले लड़के को देख कर शक हुआ। उन्हें मैंने पूरा वृतांत सुनाया कि दादा जी मिल कर लौट रहा हूं न कि घर से भाग रहा हूं।

नाना के घर वापस आ कर ट्रेन में जितनी देर विज्ञान पढ़ सका, उस आधार पर परीक्षा दे आया। घर वाले तो अच्छे नंबर, क्या पास होने तक की आशा में नहीं थे। मुझे याद है कि उस वर्ष आठवीं की बोर्ड परीक्षा का रिजल्ट मई की 15 तारीख को आया था। नाना जी ने डीएससी आफिस में फोन कर आठवीं कक्षा के रिजल्ट की पूछताछ की और एक कागज में नंबर लिखने लगे। सामने बैठ कर मैं उनके चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था। कुछ ही क्षणों में उन्होंने फोन रख कर मुझे बधाई देते हुए कहा कि तुमने 78 प्रतिशत अंक पाए हैं। जब मैंने अच्छे नंबर पाए, उस समय मेरे पिताजी मेरे साथ न थे और न ही कोई पूछने वाला था कि मैंने किस-किस विषय पर कितने नंबर पाए और नंबर कम क्यों हैं, लेकिन जब मैं कागजों में नंबर देख रहा था, तब मुझे लग रहा था कि पिताजी का आशीर्वाद और नसीहतें जरूर मेरे साथ हैं।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

विख्यात साहित्यकार ज्ञानरंजन को भारतीय भाषा परिषद का प्रतिष्ठित साधना सम्मान

हिंदी के विख्यात साहित्यकार और पहल के संपादक ज्ञानरंजन को हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान देने के लिए भारतीय भाषा परिषद ने वर्ष 2008 के साधना सम्मान से सम्मानित करने का निर्णय लिया है। साधना सम्मान के रूप में ज्ञानरंजन को कोलकाता में 18 अप्रैल को एक भव्य समारोह में 51,000 रूपए की सम्मान निधि और स्मृति चिन्ह प्रदान किया जाएगा। ज्ञानरंजन के अलावा तमिल साहित्य के लिए वेरामुत्थु, उड़िया साहित्य के लिए रामचंद्र बेहरा और पंजाबी साहित्य के लिए डा. महेन्द्र कौर गिल को भी सम्मानित किया जाएगा। सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी चारों साहित्यकारों को सम्मानित करेंगी। उल्लेखनीय है कि भारतीय भाषा परिषद एक प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था है और पिछले 35 वर्षों से भारतीय भाषा के साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत है। परिषद द्वारा हिंदी में मासिक पत्रिका वागार्थ का प्रकाशन भी लंबे समय से किया जा रहा है। परिषद ने विभिन्न भाषाओं के चार युवा साहित्यकारों को भी युवा पुरस्कार से सम्मानित करने का निर्णय लिया है। निर्मला पुतुल को संथाली भाषा के लिए, अल्पना मिश्रा को हिंदी, एस. श्रीराम को तमिल और मधुमित बावा को पंजाबी भाषा के साहित्य में योगदान देने के लिए युवा पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा।

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

विचारोत्तेजक प्रस्तुतियों के कारण याद रखा जाएगा विवेचना नाट्य समारोह


जबलपुर में विवेचना 15 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह छह नाटकों के मंचन के साथ ही कुछ समकालीन सवालों के साथ समाप्त हो गया। इस बार के नाट्य समारोह में मुंबई की अरण्य ने शक्कर के पांच दाने व इलहाम, नई दिल्ली की अस्मिता ने अनसुनी व आपरेशन थ्री स्टार और भोपाल के नट बुंदेले ने चारपाई और विवेचना ने सूपना का सपना नाटक की प्रस्तुति की। पिछले 15 वर्षों में विवेचना का प्रत्येक नाट्य समारोह किसी न किसी विशेषता के कारण पहचाना जाता रहा है। कभी संगीतमयी प्रस्तुति के कारण, तो कभी महिला संबंधी मुद्दों के कारण और कभी मुंबई के हास्य नाटकों के मंचन के कारण। इस बार के नाट्य समारोह में गंभीर, दुखद और समकालीन विषयों पर आधारित नाटकों के मंचन से इसे विचारोत्तेजक प्रस्तुतियों के कारण याद रखा जाएगा।
नाट्य समारोह के छह नाटकों को देखने दर्शक तो खूब आए, लेकिन कुछ प्रस्तुतियां ऐसी रहीं जो उन्हें प्रभावित नहीं कर पाईं। इसका सबसे बड़ा कारण नाटकों के दार्शनिक विषय थे। इनमें मुंबई की अरण्य रंग संस्था के शक्कर के पांच दाने और इलहाम जैसे नाटक थे। इन प्रस्तुतियों को देख कर महसूस हुआ कि दर्शकों को यदि रंगमंच से जोड़ना है, तो उनकी पसंद को भी ध्यान में रखा जाए। इस संदर्भ में अरण्य के निर्देशक मानव कौल का कहना था कि वे दर्शकों की चिंता नहीं करते हैं। यह भी सच्चाई है कि वे चिंता नहीं करेंगे तो उनकी प्रस्तुतियों से धीरे- धीरे दर्शक दूर होते जाएंगे। वैसे मानव कौल की दोनों प्रस्तुतियों शक्कर के पांच दाने और इलहाम में विषय का दोहराव भी दिखा। उनके विषय व दर्शन जटिल थे, इसलिए दर्शक उसे समझ नहीं पाए। इस संबंध में विवेचना के आयोजकों का कहना है कि वे रिपोर्ट के आधार पर रंग संस्थाओं को नाट्य प्रस्तुति के कारण आमंत्रित करते हैं। कुछ प्रस्तुतियां महानगरों के दर्शकों को प्रभावित करती हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि वे जबलपुर जैसे शहर के नाट्य प्रेमियों को भी पसंद आए।
नई दिल्ली की अस्मिता और उसके निर्देशक अरविंद गौड़ की जबलपुर के रंगमंच दर्शकों में प्रतिष्ठा है। इसी प्रतिष्ठा के कारण उन्हें यहां बार-बार आमंत्रित किया जाता है। विवेचना नाट्य समारोह में वे छठी बार आमंत्रित किए गए। उनके नाटक अपने समकालीन संदर्भ और बेहतर प्रस्तुतियों के कारण हर समय पसंद किए जाते हैं और उन्हें लंबे समय तक याद भी किया जाता है। इस बार के नाट्य समारोह में सामाजिक व राजनैतिक विषयों पर आधारित उनकी दोनों प्रस्तुतियों अनसुनी और आपरेशन थ्री स्टार ने दर्शकों को गहराई तक प्रभावित किया। नाटकों की समाप्ति के पश्चात् अरविंद गौड़ ने दर्शकों से सीधा संवाद कर प्रस्तुतियों के संदेश को सम्प्रेषित करने का प्रयास किया। इससे दर्शक काफी हद तक संतुष्ट भी हुए।
भोपाल के नट बुंदेले ने अलखनंदन के निर्देशन में चारपाई को प्रस्तुत किया। इस प्रस्तुति की भी दर्शकों में मिली-जुली प्रतिक्रिया रही। शक्कर के पांच दाने और इलहाम की दार्शनिकता के पश्चात् चारपाई में संयुक्त परिवार की संवादहीनता और आम भारतीय निम्नवर्गीय परिवार की समस्या ने दर्शकों को उद्वेलित तो किया, लेकिन मनोरंजन तत्व की कमी से वह व्यथित भी हुआ।
नाट्य समारोह की अंतिम नाट्य प्रस्तुति मेजबान विवेचना की सूपना का सपना रही। शाहिद अनवर लिखित इस नाटक को बसंत काशीकर ने निर्देशित किया। गंभीर विषय में मनोरंजन के तत्वों (लोक नाट्य) को शामिल कर उन्होंने दर्शकों को बांधने का पूरा प्रयास किया। यहां उन्हें ध्यान देना होगा कि उनकी सीमा जबलपुर नहीं है, बल्कि यहां से बाहर जब वे अपनी प्रस्तुति को ले कर बाहर जाएंगे, तब उसका विश्लेषण दर्शक अपने स्तर से करेंगे।

जबलपुर की पहचान ‘पहल’ को 35 वर्षों के पश्चात् बंद करने का निर्णय



हिंदी साहित्य जगत की अनिवार्य पत्रिका के रूप में मान्य पहल को उसके संपादक ज्ञानरंजन ने 35 वर्ष के लगातार प्रकाशन के पश्चात् बंद करने का निर्णय लिया है। पहल का 90 वां अंक इसका आखिरी अंक होगा। पहल जबलपुर की एक पहचान भी थी। पूरे देश में लोग भेड़ाघाट के साथ जबलपुर को पहल के कारण भी पहचानते थे। जबलपुर जैसे मध्यम शहर से पहल जैसी अंतरराष्ट्रीय पत्रिका निकली और इसने विश्व स्तर को प्राप्त किया। ज्ञानरंजन ने पहल को किसी आर्थिक दबाव या रचनात्मक संकट के कारण बंद नहीं किया है, बल्कि उनका कहना है-‘‘पत्रिका का ग्राफ निरंतर बढ़ना चाहिए। वह यदि सुन्दर होने के पश्चात् भी यदि रूका हुआ है तो ऐसे समय निर्णायक मोड़ भी जरूरी है।’’ उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा कि यथास्थिति को तोड़ना आवश्यक हो गया है। नई कल्पना, नया स्वप्न, तकनीक, आर्थिक परिदृश्य, साहित्य, भाषा के समग्र परिवर्तन को देखते हुए इस प्रकार का निर्णय लेना जरूरी हो गया था। वे कहते हैं कि इस अंधेरे समय में न्यू राइटिंग को पहचानना जरूरी हो गया है, लेकिन ऐसा नहीं करना भी बेईमानी होगी। ज्ञानरंजन कहते हैं कि विकास की चुनौती और शीर्ष पर पहल को बंद करने का निर्णय एक दुखद सच्चाई है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार का निर्णय लेना भी एक कठिन कार्य है।
ज्ञानरंजन की बातचीत में आत्म स्वीकारोक्ति थी कि थकान से व्यक्ति क्रांतिकारी नहीं रह पाता है। वे पिछले पांच-छह महीने से इस पर विचार कर रहे थे। ज्ञानरंजन अब खाली समय में देश के महत्वपूर्ण युवा लेखकों को मार्गदर्शन देंगे और स्वयं के लेखन पर ध्यान केंद्रित करेंगे। साहित्य प्रेमियों को यह याद होगा कि उन्होंने अपने शिखर में ही कहानी लिखना बंद किया और इसी प्रकार पहल सम्मान को भी उन्होंने चरमोत्कर्ष पर बंद करने का निर्णय लिया।
ज्ञानरंजन के वर्षों के साथी और प्रसिद्ध कवि मलय की पहल को बंद करने पर टिप्पणी थी-‘‘दुश्मन भी होंगे तो वे पहल को बंद होने पर पश्चाताप करेंगे और दुख व्यक्त करेंगे।’’ मलय ने कहा कि यह सब जानते हैं कि ज्ञानरंजन के लिए पहल ही सब कुछ है, लेकिन यह हम लोग की मजबूरी है कि हम उनके निर्णय को बदल नहीं सकते। उन्होंने कहा कि पहल को निकालने के लिए देश भर के साहित्यकारों और बड़े प्रकाशन समूहों ने आगे आ कर अपने प्रस्ताव दिए हैं, लेकिन पहल निकले तो ज्ञानरंजन ही निकालें।
पहल का प्रकाशन 1973 में शुरू हुआ था। पहल के प्रकाशन के कुछ समय पश्चात् ही देश में आपात्काल लागू हो गया, लेकिन सेंसरशिप, हस्तक्षेप और दमन से संघर्ष करने के बावजूद पहल बंद नहीं हुई और सतत् निकलती रही। उल्लेखनीय है कि उस समय कई साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो गईं थीं।
हिंदी साहित्य के आठवें दशक के जितने भी महत्वपूर्ण लेखक हैं, वे पहल के गलियारे से ही आए हैं। इनमें राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन्द्र डंगवाल, लीलाधर जगूड़ी, ज्ञानेन्द्रपति जैसे साहित्यकार महत्वपूर्ण हैं। 35 वर्षों में पहल में हिंदी, भारतीय भाषाओं और विश्व साहित्य के लगभग 40 हजार से अधिक पृष्ठ प्रकाशित हुए हैं। जर्मन, रूसी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच और स्पेनिश भाषाओं का श्रेष्ठतम साहित्य पहल में ही उपलब्ध है। पहल के पंजाबी, मराठी, उर्दू, कश्मीरी साहित्य के प्रतिनिधि विशेषांक साहित्य प्रेमियों को आज तक याद हैं और लोग इन्हें आज भी खोजते हैं। शीर्ष आलोचक रामविलास शर्मा से ले कर आज की बिल्कुल युवा पीढ़ी का कोई भी ऐसा महत्वपूर्ण लेखक नहीं है, जो पहल में नहीं छपा। इसका प्रसार देश-देशांतर तक था। पूरे देश में पहल से एक बड़ा परिवार बन गया था। जर्मनी में विश्वविद्यालयों में पहल को सीडी फार्म में रखा गया है।
ज्ञानरंजन के पहल बंद करने के निर्णय से पूरे देश के साहित्यिक क्षेत्र में सन्नाटा खिंच गया और दुख की लहर फैल गई। जनमत यह है कि पहल निरंतर निकलते रहे। देश भर से लोगों खासतौर से युवा लेखक ज्ञानरंजन को फोन कर निर्णय बदलने के लिए कह रहे हैं। लोग चाहते हैं कि पहल अर्धवार्षिक या वार्षिक रूप में निकले। प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी ने अपने एक कालम में लिखा है-ज्ञानरंजन की गणना निश्चय ही इस दौरान हिंदी के श्रेष्ठ और प्रेरक संपादकों की जाएगी। सच तो यह है कि नहीं पता कि भारत की किस और भाषा में पहल जैसी प्रतिबद्ध और प्रभावशाली पत्रकिा निकलती है। इसलिए उसका समापन न सिर्फ हिंदी परिदृश्य, बल्कि समूचे भारतीय परिदृश्य को विपन्न करेगा। ज्ञानरंजन को भी यह आपत्ति नहीं है कि कोई अन्य साहित्यकार पहल निकाले। वे कहते हैं कि विचार-विमर्श कर भविष्य में कोई निर्णय लेंगे।

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