रविवार, 16 सितंबर 2007

पहल का नया अंक


ज्ञानरंजन ने अमेरिका से लौटकर जल्द पहल का नया अंक निकल दिया। यह 86 नंबर का अंक है। इस अंक की विशेषता बहुत दिनों बाद विष्णु खरे की लिखी कविताएँ हैं। इन कविताओं में केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह पर भी एक कविता है, जो एक बहस को छेड़ने के लिए काफी है। अर्जुन सिंह कॉंग्रेस में वामपंथी जाते हैं। उन्होने अपने मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले विभिन्न विभागों में वामपंथिओं को काफी संरक्षण दिया है। इन्हीं अर्जुन सिंह पर विष्णु खरे ने सिला शीर्षक से राजनैतिक कविता लिखी है। इस कविता को लेकर दो पक्ष बन गए हैं। दरअसल विष्णु खरे इस कविता के माध्यम से संदेश देना चाहतें हैं कि कॉंग्रेस में भी अर्जुन सिंह को लेकर अंतर्विरोध है। मनमोहन सिंह से चिदंबरम तक 1857 के कार्यक्रम को लेकर अर्जुन सिंह का पार्टी में विरोध करते हैं। इस पूरे प्रकरण को लेकर विष्णु खरे कहते हैं कि अर्जुन सिंह को यह त्रासदी पहचानना चाहिऐ।
पहल के नए अंक में इंगमार बर्गमन को भी श्रदांजलि दी गई है। असद जैदी कि "1857: सामान की तलाश" कविता और इस पर मंगलेश डबराल की टिप्पणी वर्तमान संदर्भ की बेचैनी भरी तलाश है। असद जैदी की कविता आज की आँखों से अतीत को देखती है और अतीत की आवाजों में आज को सुनने की कोशिश करती है। कविता की अन्तिम पंक्तियाँ -
क्या अब दुनिया में कहीँ भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय।
पाठकों से संवाद करती है। 150 करोड़ रुपए का शोर थमने के बाद सवाल है कि क्या अब अन्याय भी मिट चुका है ?
बस्तर के कवि शाकिर अली की कविताएँ सुन्दरता से शुरू होकर नक्सली समस्या की तह तक जाती हैं। इसी प्रकार पवन करण की कविता "अमेरिका का राष्ट्रपति होने के मज़े" पूंजीवाद की पोल खोलती है।

गुरुवार, 13 सितंबर 2007

कामरेड त्रिलोक सिंह के बहाने से

15 सितंबर को कामरेड त्रिलोक सिंह को गुजरे एक वर्ष हो गए. जबलपुर में हिंदी की उत्कृष्ट साहित्यक पुस्तिकाओं और पत्रिकाओं को घर-घर तक पहुचाने में कामरेड त्रिलोक सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जबलपुर में शायद ही कोई लिखने-पढ़ने वाला व्यक्ति होगा, जिसे त्रिलोक सिंह नहीं जानते थे। यही उनकी जीविका थी और यही जीवन का मिशन। घर-घर पुस्तकें ले जाना। कामरेड त्रिलोक सिंह की पहली पुण्यतिथी कब निकल गयी किसी को याद नहीं है. जबलपुर के नामचीन साहित्यकार भी भूल गए और वे लोग भी भूल गए जो पल-पल में साहित्य को जीने की क़सम खाते हैं।

वैसे जबलपुर में साहित्य गोष्ठी होना आम बात है। कवि गोष्टी तो दरी बिछाकर शुरू हो जाती है. स्तर की बात न पूछी जाये तो अच्छा है। पिछले दिनों कुछ ऐसा ही हुआ जब मीडिया से लुप्त होता साहित्य विषय को केंद्रित एक गोष्टी में जबलपुर के साहित्यकारों ने अपनी-अपनी भावनाएं व्यक्त कीं. इस कार्यक्रम में नईदुनिया के सम्पादक राजीव मित्तल भी मौजूद थे। उनके सामने जबलपुर के कुछ साहित्यकारों ने इस तरह अपने विचार व्यक्त किये जैसे वे उन्हें बताना रहे हो कि अख़बार कैसे निकला जाना चाहिए। मालूम हो कि नईदुनिया जबलपुर से जल्द निकलने वाला है और इसको लेकर समाज के सभी वर्गों में एक उत्सुकता है। सब अपने-अपने ख्याल से सोच रहें हैं। जबलपुर को नईदुनिया से बहुत आशा हैं। इस हिसाब से सम्पादक राजीव मित्तल के सामने चुनौती भी हैं। उन्हें ऐसा अख़बार निकलना होगा, जो खिलाडियों की भावनाओं को भी समझे और साहित्यकारों की भी। सब को लगता है उनके समाचारों और विधा को पर्याप्त स्थान मिले। लेकिन राजीव मित्तल ने स्पष्ट कर दिया कि उनकी प्राथमिकताएँ समाचार हैं। उन्होने पिछले अनुभव के आधार के हवाले से कहा कि वे साहित्य की दुकानदारी चलने नहीं देंगे। यह सुनकर कुछ साहित्यकार दुःखी हो गए।

जबलपुर में अधिकांश साहित्कार इस मुगालते में रहतें हैं कि वे बडे लेखक हैं, लेकिन वे क्या लिख रहे हैं वह समझ से परे है। उनकी दुनिया अपने में ही सीमित है। उन्हें देश-दुनिया के सरोकार प्रभावित नहीं करते। लगता है उन्होंने हरिशंकर परसाई, ज्ञानरंजन, मलय से कुछ नहीं सीखा।

आलोक चटर्जी को सरहद पार से बुलावा

ओंम पुरी के बाद बीस वर्ष पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली से स्वर्ण पदक का गौरव हासिल करने वाले रंगमंच के स्थापित अभिनेता आलोक चटर्जी को एक बार फिर सरहद पर का बुलावा आया है। आलोक चटर्जी जबलपुर के रहने वाले हैं। इस महीने के आखिरी सप्ताह वे डेनमार्क की राजधानी कोप्न्हेगें की रंगभूमि पर अपने अभिनय का उजास बिखेरेंगे।
मामला है भी थोड़ा लीक से हटकर। दरअसल उनका चयन हुआ है नाटक पीस्त आन् द मून के लिए, जिसमें वे मुख्य किरदार निभाएंगे। मानवीय संबंधों और सपनों को जीते इस पात्र के लिए नाटक के निर्देशक कलोशेव को आलोक सबसे सटीक लगे। पांच भाषाओं केनेदियन, इंग्लिश, स्पेनिश, जर्मन और हिंदी में एक साथ इस अनोखे प्रयोग का आनलाइन प्रसारण होगा। आलोक हिंदी का प्रतिनिधित्व करेंगे। इस उप्लाब्दी का श्रेय वे पिछले बर्लिन प्रवास को देते हैं, जहाँ कलोशेव की नजर उन पर गई और जल्दी ही इस विदेशी रंगकर्मी ने उन्हें अपने थियटर के लिए अनुबंधित कर लिया। अलावा इसके इन दिनों आलोक आज़ादी के बाद मध्यप्रदेश के रंगमंचिया विस्तार को किताबी शक्ल देने की तैयारी कर रहें हैं।

🔴इतिहास के कुहासे की परतों में ओझल होता ब्लेगडान

6 फरवरी 2024 को सुबह कोहरे की मोटी परत के बीच अचानक रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के सामने दायीं ओर निगाह गई तो देखा कि शहर के एक नामच...