रविवार, 24 फ़रवरी 2008

काफी हाउस


काफी हाउस
जबलपुर के पारम्परिक सिटी काफी हाउस ने भी अन्य शहरों के काफी हाउस की तरह अपना रंग रूप बदल लिया है। शायद कई लोगों को जानकारी न हो कि जबलपुर में इंडियन काफी हाउस का हेड क्वार्टर भी है। यहां के काफी हाउस में एसी लग गया है। लम्बे लम्बे पर्दे इसे एक्सक्लूसिव बना देते हैं। अब यहां किसी को मीटिंग या प्रेस काफ्रेंस की इजाजत नहीं है। ज्यादा देर बैठने पर वेटर पूछ लेता है। पहले जैसा अपनापन नहीं दिखता. इससे ही एक कविता काफी हाउस पर उपजती है।

यह क्या हो गया
काफी हाउस भी मजबूर हो गया
बड़े रेस्त्राओं से टक्कर लेने को
इसलिए उसमें बदलाव दिखने लगा
लम्बे लम्बे पर्दे दीवारों पर रंग बिरंगे रंग
जमीन पर कालीन
काफी के साथ अब कांटीनेंटल डिश भी तैयार है
काफी हाउस की फिल्टर काफी में रंग बदल से गए हैं
काफी की गरम कड़क में पहले जैसा स्वाद नहीं
और न ही काफी हाउस की टेबलों में पहले जैसे ठहाके।
हेल्पर से शुरु हुआ था कैरियर
जूनियर, सीनियर फिर अब मैनेजर
आंखें तलाश रहीं
वर्षों पहले की हंसी, खुलेपन, सेंट्रल टेबल की चर्चा,
छुट्टी के दिन छह महीने में निकलने वाले परिवार को
पहले यहां नजर आ जाते थे, प्रेम करने वाले,
संपूर्ण क्रांति के सपने देखने वाले, सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि
कालेजों के प्रोफेसर, कवि, साहित्यकार।
अरे इसी टेबल पर बैठते थे परसाईं और रजनीश
परसाईं को यहीं मिले थे जीवन के रंग और ओशो को भविष्य का दर्शन
स्वयंसेवक भी कभी कभार काफी पीने आ जाते थे चुपचाप
क्योंकि काफी हाउस को समझा जाता था
प्रगतिशीलों का अड्डा
काफी हाउस में बैठते थे इंटेलिजेंस के गुप्तचर
क्योंकि यहां घटता था और चर्चा होती थी जीवन की
मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव काफी की चुस्कियों में
संवेदनाओं को देते थे मलहम।
काफी हाउस की मेजों पर देखे जाते थे सपने
नेता, अभिनेता, निर्देशक, कवि, फोटोग्राफर, पत्रकार बनने के
कुछ गरीब कर लेते थे यहां पत्रकार वार्ता भी
निठल्लों के दिन कट जाते एक काफी प्याली के साथ
वेटर कभी नहीं पूछता था कि कैसे बैठे
सुबह के तीन चार अखबारों के साथ यहां
घर की चिक चिक से बच जाते थे।
यह क्या हो गया काफी हाउस को
अब पहले जैसा कुछ नजर नहीं आ रहा
रोज बदल बदल कर आते हैं प्रेमी प्रेमिकाएं
उनकी हंसी और वादे रोज एक से रहते हैं
परसाईं को लोग भूल गए हैं
कवि, साहित्यकार चलते फिरते नजर आ रहे हैं
वैसी ही उनकी प्रतिबद्ताएं फुसफुसाहट में सुनाई दे रही हैं
नए पत्रकारों के लिए ही अब काफी हाउस की पत्रकार वार्ताएं
छुटभैये नेताओं भी पसंद नहीं यहां की बैठक
परिवार के बच्चों को आकर्षित नहीं करती गरम सांभर की भाप
संपूर्ण क्रांति और सर्वहारा प्रतिनिधि पांच सितारा होटल में खो गए
कॉलेजों के प्रोफेसरों को डर लगता है, अब यहां बैठने में
क्योंकि छात्र नहीं उठते हैं उनको देखकर अपनी कुर्सी से
ज्यादा देर बैठने में पर अब उठती है यहां घंटी
क्योंकि काफी हाउस भी मजबूर हो गया
बड़े रेस्त्राओं से टक्कर लेने को
अरे यह क्या हो गया काफी हाउस को।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

पहल 87







पहल का 87 वें नम्बर का अंक प्रकाशित हुआ। इस अंक की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह अंक सुप्रसिद्ध फिल्मकार माइकल एंजिलो एंतोनिओनी पर केन्द्रित है। अतः इसकी शुरुआत भी एंतोनिओनी के जीवन पर, उनकी शैलीगत विशेषताओं आदि पर लिखे गए विभिन्न लेखों से हुई है। नवम्बर-दिसम्बर 2007 के इस अंक में माइकल एंजिलो एंतोनिओनी के साथ साथ मराठी दलित कवियों के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर भुजंग मेश्राम एवं उर्दू साहित्य की जानी मानी लेखिका कुर्रतुलऎन हैदर के निधन पर लेख स्वरूप श्रद्धांजली अर्पित की गई है। इसके बाद नोम चोम्सकी के द्वारा अपनी पुस्तक ‘पतित राज्य:शक्ति का दुरुपयोग और लोकतंत्र को अघात’ के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र पर लगाए गए अभियोगो की पड़ताल कर उसका वैचारिक विश्लेषण दिया गया है। लम्बी कहानियों में कैलाशचन्द्र की डूब,स्याही के धब्बे, वंदना राग की यूटोपिया और पंखुरी सिन्हा की नयनतारा नयनतारा आमार प्रकाशित की गईं हैं। अन्य स्थायी स्तंभों के अलावा स्त्री-विमर्श के अंतर्गत डॉ. सुधा सिंह और रामचंद्र सरोज के पिछले दो अंकों में प्रकाशित लेखों के बाद इस बार राजीव मित्तल का एक उत्तेजक लेख प्रकाशित किया गया है जिसमें उन्होंने हरिमोहन झा, तस्लीमा नसरीन और सआदत हसन मंटो के हवाले से न केवल वर्तमान बल्कि वैदिक काल से स्त्रियों की स्थिति एवं उस पर पुरुषप्रधान समाज द्वारा दी जा रही प्रताड़ना एवं उनके साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार पर टिप्पणियां की गई हैं जिन्होंने स्त्री विमर्श को एक ऊंचाई प्रदान की है।
“इस बार पहल सम्मान 2007 की घोषणा नहीं की जा रही है। इसे अंतराल वर्ष के रूप में रखा जा रहा है। इस बीच इसके सभी शुभेच्छुओं के बीच अंतरंग चर्चा के उपरांत नए सिरे से निर्णय लिए जाएंगे।“

🔴इतिहास के कुहासे की परतों में ओझल होता ब्लेगडान

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