गुरुवार, 13 मार्च 2008

हॉकी में भारत की पराजय बनाम जबलपुर


ओलंपिक क्वालिफाईंग प्रतियोगिता में ब्रिटेन से पराजित से होकर भारत 80 वर्षों में पहली बार ओलंपिक में खेलने से वंचित हो गया। पूरा देश इस घटना से दुखी है। मीडिया देश के हाकी के कर्णधारों पर बरस रहा है। इंडियन हाकी संघ के अध्यक्ष केपीएस गिल निशाने पर हैं। दरअसल गिल तो सिर्फ एक उदाहरण हैं। देश भर के खेल संघों में बड़े अधिकारी और राजनेता जिस ढंग से काबिज हैं वह हमारे देश में ही संभव है। जबलपुर भी देश से अलग नहीं है। जबलपुर कभी मध्यप्रदेश की खेलधानी के रूप प्रसिद्व रहा है, लेकिन आज स्थिति बदल गई है। खेल संघों पर बड़े अफसर या राजनेता या पूंजीपतियों का नियंत्रण है। खेल के मैदान बचे नहीं हैं। मैदानों पर व्यवसायिक कॉम्पलेक्स या अपार्टमेंट बन गए हैं। एकमात्र स्टेडियम में खेल के अलावा सब कुछ हो रहा है। दशहरा मनाया जा रहा है, रावण जल रहा है, मोबाइल कंपनी द्वारा प्रायोजित गीत-संगीत के कार्यक्रम हो रहे हैं, धर्मगुरूओं के प्रवचन हो रहे हैं। सुना है अब 26-27 मार्च को मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी स्टेडियम में अपना राष्ट्रीय अधिवेशन करने जा रही है। और इन सबके बीच जबलपुर में सिर्फ खेल ही नहीं हो रहा है।
वहीं दूसरी ओर जबलपुर के रानीताल में जोर शोर से स्पोटर्स कॉम्पलेक्स बनाने की बात की गई थी, लेकिन यहां तो हाल और बुरा है। तालाब में बनाया गया साइकिल बेलोड्रम धसक गया है। सालों से क्रिकेट की टर्फ विकेट बन रही है। मेटिंग पर क्रिकेट चल रही है। जबलपुर की क्रिकेट का कथित उत्थान करने वालों ने ऐसा पेवेलियन बनवा दिया, जिसके ड्रेसिंग रूम से पिच ही नहीं दिखती है। इसी खेल कॉम्पलेक्स में दो वर्ष पहले तथाकथित राष्ट्रवादियों ने एक नाटक भी मंचित करवाया था। मध्यप्रदेश के छोटे-छोटे शहरों में रणजी ट्राफी के मैच हो रहे हैं, लेकिन जबलपुर के नवोदित खिलाड़ी अपने शहर में रणजी ट्राफी देखने के लिए तरस रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच के आयोजन की बात तो छोड़िए।
अब हॉकी की बात- एक समय भारत में जबलपुर की हॉकी का लोहा माना जाता था। जबलपुर के क्लब और विश्वविद्यालय की टीम देश भर की नामी प्रतियोगिताओं में अच्छा प्रदर्शन करती थीं। वर्तमान में प्रतिस्पर्धात्मक हॉकी देखने को नहीं मिल रही है। स्थानीय स्तर की प्रतियोगिताएं वर्षों से बंद हैं। हॉकी संघ के कर्णधारों को गिरते स्तर से कोई सरोकार नहीं है। वे सिर्फ पद का सरोकार रखना चाहते हैं और दफ्तर में बैठकर दूध पीते रहते हैं। राष्ट्रीय प्रतियोगिता में मध्यप्रदेश क्वार्टर फाइनल तक पहुंच नहीं पा रही है। हॉकी का गढ एक अदद एस्ट्रो टर्फ के लिए तरस रहा है। सिवनी, बैतूल जैसे छोटे शहरों में एस्ट्रो टर्फ लग गई है या लगने वाली है, लेकिन जबलपुर अभी तक आश्वासन के बीच उलझा हुआ है।
जबलपुर में लगभग इसी तरह सभी खेलों का हाल बुरा है। पूरी दुनिया कुश्ती गद्दे पर लड़ रही है, लेकिन कुश्ती के ठेकेदार अखाड़ों का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं और कुश्ती को रसातल में ले जा रहे हैं। वालीबॉल, बॉस्केटबाल में भी कोई संभावना नहीं दिख रही है। वुशू में बच्चे आगे आते दिखे, लेकिन एसोसिएशन के सचिव की संदिग्ध गतिविधियों से अभिभावक बच्चों को खेल के मैदान में भेजने से डरने लगे। फुटबाल में एक समय जबलपुर विश्वविद्यालय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय को पराजित कर पूरे देश को अपना मुरीद बना लिया था। यहां के क्लबों की तूती बोलती थी।
दरअसल जबलपुर में खेलों के हित के संबंध में सोचने वाले लोग बचे नहीं हैं। मध्यप्रदेश खेल परिषद में बाबूलाल पाराशर जैसे लोग जबलपुर की दावेदारी मजबूती से रखते थे और उनकी बात को गंभीरता से सुना जाता था। विक्रम अवार्ड की सूची में जबलपुर का नाम भरा रहता था। राजनैतिक रूप से जबलपुर के किसी भी सांसद या विधायक ने खेलों के विकास की बात नहीं की। ऐसे लोग खेल आयोजन में सिर्फ उदघाटन या पुरस्कार बांटने ही जाते हैं। राकेश सिंह ने अवश्य सांसद का चुनाव लड़ते समय खेल खासतौर से जबलपुर में खेलों के विकास की बात की थी। उनके चुनाव घोषणा पत्र में खेलों को एक प्रमुख मुद्दा बनाया गया था, लेकिन पांच साल बीतने को है, उनका ध्यान अभी तक इस ओर नहीं गया है। रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार की तरह खेलकूद चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता ?

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