अवधेश बाजपेयी जब चार-पांच वर्ष आयु के थे, उस समय वे गांव में घर में मां के साथ अन्य
महिलाओं के साथ बैठे हुए थे। दोपहर बाद के समय में बड़े भाई ने स्लेट में चाक
बत्ती से एक चित्र बनाया। वे वहां से जैसे ही गए, अवधेश ने उसी
स्लेट पर, वही चित्र फिर से बना दिया। उन्होंने स्वयं का
स्लेट में बनाया चित्र सभी को दिखाया। सभी ने एक स्वर में कहा कि अवधेश ने तो अपने
बड़े भाई से भी अच्छा चित्र बना दिया। उस समय अवधेश बाजपेयी यह जानते ही नहीं थे कि
चित्र बनाना भी कला है। चित्रकला की यहीं से अवधेश बाजपेयी की शुरूआत थी। उन्होंने
तब से चित्र बनाना जो शुरू किया, वह आज तक जारी है। उनके पास
का चयन का कोई प्रश्न नहीं था और चित्र बनाना अवधेश बाजपेयी का स्वभाव बन गया। उन्होंने
चित्रकला के आकर्षण के संबंध में बहुत बाद में जाना और तक वे इसमें पूरी तरह डूब
चुके थे। आर्ट स्कूल में दाखिला लेते समय अवधेश बाजपेयी को मनुष्य के अंतर्द्वंद
शुरू से आकर्षित करते थे और प्रकृति, प्रकृति रहस्य व
सामाजिक विषमताएं उनके चित्र के विषय बनने लगे।
अवधेश बाजपेयी स्वीकारते हैं कि चित्रकला का व्यवस्थित
अध्ययन जरूरी है। इसके साथ ही वे यह मानते हैं कि इसके लिए अच्छे शिक्षक या गुरू
मिलना भी जरूरी है। वे चित्रकला की अकादमिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं। वे कहते
हैं कि चित्रकला शिक्षण में वीरनागी है।
दुनिया के चित्रकारों की यात्रा मूर्त से ही आरंभ हुई है। वैसे
ही प्रयोगधर्मी चित्रकार अवधेश बाजपेयी की यात्रा है। अवधेश बाजपेयी का मानना है कि
मूर्त व अमूर्त दोनों ही कला के महत्वपूर्ण तत्व हैं। मूर्त व अमूर्त चित्रों में, दोनों में आकृति रहती है। एक में आकृति
पहचान में आती है, दूसरे में कहीं-कहीं पहचान में आती है। अवधेश
बाजपेयी का इस संदर्भ में कहना है कि किसी भी कला में लगातार रहने व बसने से
कलाकार व कला प्रेमी दोनों का रूपांतरण होता है।
अवधेश बाजपेयी
कैनवास, ब्रश (तूलिका) व रंगों के मध्य अद्भुत
संतुलन रखते हैं। उनका कहना है कि चित्रकार सांस हैं, तो
कला माध्यम शरीर। सांस व शरीर के तालमेल की तरह वे चित्रकला में ब्रश व रंगों का
संतुलन करना बनाए रखना बेहतर मानते हैं। उनका मानना है कि चित्रकला में आकार,
रंगों के साथ ‘ज्ञान’ तत्व
का होना आवश्यक है।
चित्रों के जरिए रंगों के संसार में रहने वाले अवधेश
बाजपेयी ने रंगों का मनोविज्ञान पढ़ा नहीं है और न ही वे इस विषय में पढ़ना चाहते
हैं। वे कहते हैं कि सभी लोग हर पल रंगों के साथ रहते हैं। सबसे महत्वपूर्ण रंग
मनुष्य के शरीर का है। अवधेश बाजपेयी को मिट्टी के रंग आकर्षित करते हैं। उनका
विचार है कि चटख रंग बहुत ही सीमित दायरे में होते हैं। वे पेड़ व शरीर की तुलना
करते हुए कहते हैं कि बड़े पेड़ में जिस तरह थोड़े फूल होते हैं, वैसे ही पूरे शरीर में आंख या मुस्कराहट
फूल की भांति हैं। अवधेश बाजपेयी का यह महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है कि चित्रों में
रंग ही सब कुछ नहीं होता। रंग एक पुर्जा है, शेष और भी बहुत
से तत्व होते हैं।
अवधेश बाजपेयी की चित्रकला में साल दर साल व्यापक बदलाव आया
है। यह परिवर्तन उन्होंने समझदारी से अपनाया है। वे कहते हैं कि कला में ईमानदारी
की समझ श्वांस की तरह होती है। दुनिया यदि समझ के साथ विकसित हो रही है, तो उसी प्रकार कला भी समझ के साथ विकसित
होती है। सृजनात्मक तत्व वही है ,जो पहले थे, उनमें कोई बदलाव नहीं हुआ। कला को समझने के संसार की संरचना की समझ जरूरी
है। अवधेश कहते हैं कि चित्रकला में बदलाव के स्थान पर रूपांतरण या
ट्रांसफार्मेशन शब्द ज्यादा सटीक है। कला के विकास के लिए आप स्वयं जिम्मेदार होते
हैं, क्योंकि चीजें तो हमेशा मौजूद रहती हैं, परन्तु दृष्टि का विकास करना होता है। इसके लिए विश्व के महान साहित्य,
शिल्प, कला, संगीत,
फिल्म, वास्तुशिल्प आदि को पढ़, देख व सुन कर लगातार सीखते रहते हैं।
अवधेश बाजपेयी की चित्रकला में डाटिज़्म की अवधारणा अद्भुत
है। वे कहते हैं कि जब स्कूल में पहली बार रेखा की परिभाषा पढ़ी कि बहुत सी बिन्दुओं
से मिल कर रेखा बनती है, तभी से,
जब भी रेखा चित्र बनाते बिन्दु की अवधारणा साथ रहती, फिर बाद में जाकर वॉन गाग के समकालीन चित्रकार जार्ज स्यूरेट के ‘बिन्दुवाद’ की अवधारणा जुड़ गई। इसके दायरे में हर
चित्रकार ने कुछ न कुछ चित्रित किया। चित्र संरचना की बिंदु (डाट) या बिंदी की
अवधारणा सभी चित्रकारों के लिए अलग-अलग है। अवधेश बाजपेयी ने चित्रकार के रूप में
शुरूआती दिनों में इस अवधारणा को समझ लिया था। जब उन्होंने भारतीय, आस्ट्रेलियन, आफ्रिकन, लेटिन
अमेरिकन आदिवसाी चित्रकला देखी तो उनके भीतर के रचना संसार में खलबची मच गई। उस
समय अवधेश बाजपेयी का कार्य क्षेत्र दमोह (बुंदेलखंड) था। बुंदेलखंड के राई नृत्य
की प्रसिद्धि विश्व में है। राई आकार की दृष्टि से सबसे गतिवान बीज है और राई
नृत्य भी वृत्तीय गति के साथ उन्मुक्त नृत्य है। यहां से अवधेश बाजपेयी बिन्दु पर
आए। इस तरह उनका बिन्दु या पाइंट थ्री डी में आया। अवधेश बाजपेयी ने गूगल में खोज
डाला कि किन चित्रकारों ने थ्री डी में बिन्दु लगाए हैं ? इस
खोज के जरिए उन्हें जानकारी मिली कि चित्रकारों ने टू डी में बिन्दु लगाए हैं।
इसके पश्चात् अवधेश बाजपेयी का बिन्दु मध्यप्रदेश की आदिवासी कला से जुड़ गया। फिर
इस बिन्दु का आधुनिकता की ओर रूपांतरण हुआ। उनके अनुसार बिन्दु की अवधारणा सिर्फ
आकार नहीं है,समय है और घटना है। अवधेश बाजपेयी के चित्र
में प्रयुक्त हुआ बिन्दु लम्बा, मोटा, ऊंचा, खुरदरा, आकृतिपूर्ण हर
प्रकार का होता है। उन्हें महान चित्रकार कांद्विस्की का वक्तव्य हर समय याद आता
है-‘’हर आकृति बिन्दु से प्रारंभ होती है और बिन्दु में ही
उसका अंत होता है।‘’ अवधेश बाजपेयी की चित्रकला में बिन्दु
केन्द्र नहीं है, बल्कि एक हिस्सा है, टूल है, जिसका वे जरूरत पड़ने पर उपयोग करते हैं। बिन्दु
ने उनको इसलिए आकर्षित किया, क्योंकि यह अपने आप में पूर्ण
आकृति है। बिन्दु प्रकृति जन्य है और वृत्त को छोड़ कर त्रिभुज व चतुर्भुज मनुष्य
जन्य है। उनका मानना है कि बिन्दु को जहां भी स्थापित कर दें, यह पूरे क्षेत्र व पर्यावरण को अपनी ज़द में ले लेती है। इसके लिए वे आकाश
में शुक्र तारा या सूरज का उदाहरण देते हैं। अवधेश बाजपेयी को बिन्दु कई कारणों से
आकर्षित करती है। भौतिक विज्ञान में हर कण स्वतंत्र होता है और आश्रित भी। उनका
विस्तार सूक्ष्मता की ओर है, न कि विराट की ओर। वे
छोटे-छोटे चित्र बनाना चाहते हैं। भविष्य में हम सभी लोग उनके बनाए गए लघु चित्र
शीघ्र देख सकेंगे।
अवधेश बाजपेयी के अनुसार कोई भी कला प्रगतिशील व जनवादी ही
होती है, यदि नहीं तो वह कला के अलावा कुछ और है।
कला समय के साथ परिवर्तित व रूपांतरित होती रहती है। जब कबीर बोल या रच रहे थे,
तब उनके पास प्रगतिशील व जनवादी जैसी कोई अवधारणा नहीं थी। यह
अवधारणाएं हम लोगों ने प्रतिपादित की है। इसका कोई औचित्य नहीं है। कला जब
मनुष्य के दुख, करूणा, संघर्ष, प्रेम, विकास पर केन्द्रित होती है, तब यह स्वाभाविक रूप से जनवादी या प्रगतिशील हो जाती है।
अवधेश बाजपेयी की चित्रकला में पूर्णता की कोई अवधारणा
नहीं है। उनके लिए पूर्णता एक अनवरत खोज है। वे कहते हैं कि पूरी पृथ्वी या धरती
में विचरण करना, जहां प्रकृति है, हर हिस्सा
आप को रोमांचकारी, सौन्दर्यकारी, विस्मय
करने वाला होता है। ऐसी दुनिया में विचरण करना मुश्किल काम है। तब चित्रकार के
रूप में वे अपने कैनवास में विचरण करते हैं। खुशी व अवसाद के क्षणों आते-जाते
रहते हैं। सब कुछ एक साथ झेलना पड़ता है। यह कष्टकारी और आल्हादित करने वाला भी
होता है। इन्हीं के बीच कभी-कभी कोई रचना सामने आती है, वह
भी कुछ देर के लिए। जीवन की श्वांस की तरह यह क्रम चल रहा है और पूर्णता की खोज भी
उसके साथ चल रही है।
अवधेश बाजपेयी कला बाज़ार की शर्तों से प्रभावित होते भी
हैं और नहीं भी। उनका मानना है कि बाज़ार से संघर्ष एक बड़ा संघर्ष है। बाज़ार
वही चाहता है, जो बिक सके। बाज़ार को
नया दर्शन नहीं, बल्कि नई डिजाइन की जरूरत है।
अवधेश बाजपेयी कला बाज़ार की गहराई जा कर कहते हैं कि कला
बाज़ार का अर्थ सिर्फ पेंटिंग नहीं है। कला बाज़ार का अर्थ है, जब बच्चा गर्भ में होता है, तब स्त्री को पेंटिंग करना चाहिए। इसी तरह कार्पोरेट कार्मिकों को भी
अपनी क्षमता बढ़ाने और स्वास्थ्य लाभ के लिए पेंटिंग करना चाहिए। वर्तमान में
करोड़ो रूपयों का विश्व कला बाज़ार है। पूरा समाज अपने जीवन में कला के बिना नहीं
रह पाता है। दैनिक जीवन के उपयोग की सभी वस्तुएं कलाकारों के आंशिक योगदान से
निर्मित हैं। हम सभी चौबीस घंटे कला के दायरे में रहते हैं। अध्यात्मिक व भौतिक कला
के संबंध में लगातार बातचीत संभव है।
अवधेश बाजपेयी को कहने में यह कहने में बिल्कुल संकोच नहीं
है कि वैश्वीकरण का सर्वाधिक लाभ कला को मिला है। वे कहते हैं कि पूरा संसार
हमारे जेब में आ गया है। पहले चित्रकारों को कला से संबंधित पुस्तकों को पढ़ने व
चित्रों को देखने के लिए दिल्ली, मुंबई,
कोलकाता जाना पड़ता था। वॉन गाग, पिकासो,
डाली की डाक्यूमेंट्री या अन्य क्लासिक फिल्में देखने को मिली तो अद्भुत
लगता था, जो यहां गांव-कस्बों में संभव नहीं था। अब हम विश्व
के हर चित्रकार के काम व हर गैरली को देख सकते हैं। वैश्वीकरण के कारण सभी
क्षेत्रों में ज्ञान अर्जित करने के नए रास्ते खुले हैं। अवधेश बाजपेयी इसके साथ
ही इस खतरे की ओर भी संकेत करते हैं कि क्या देखना है और क्या नहीं देखना है,
इस ओर भी सतर्क रहना होगा। भविष्य में इससे अराजक स्थिति उत्पन्न
हो सकती है और इससे संकट भी होगा।
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