कला की दुनिया में मैं लगभग एक आउटसाइडर हूँ। मेरे पास कला के इतिहास, उसके उद्भव और वर्तमान की कोई ठोस और मुकम्मल जानकारी नहीं है। हिन्दी-भाषी दुनिया में चित्रकला का कोई गंभीर क्रटीक बना ही नहीं, जबकि यह एक ज़रूरी काम रहा है। हमारा अकादमिक और हमारा बोध टूटा-फूटा है, और ऐसी अवस्था में समकालीन कला की परम्परा की सीढ़ी चढ़कर, राममनोहर जी तक पहुँचना, कम से कम मेरे लिए तो बहुत दुष्कर है। उस विभूति को स्पर्श कर सकता हूँ। वे एक बड़े चित्रकार थे, और अंग्रेज़ी मुहावरे में बड़े का अर्थ बड़ा होता है। कई बार सामान्य रूप से मेरे भीतर जो बिम्ब बनते है, वे एक आइसबर्ग ओर पिरेमिड के बनते हैं। मुझे आयोजकों ने इसी आइसबर्ग और पिरेमिड के सामने खड़ा कर दिया है।
मित्रों, कलाकार की रचना-प्रक्रिया बहुत जटिल, अमूर्त और रहस्यमय होती है। दुनिया में जितनी भी रंगकूचियाँ हैं, जितने भी सुर हैं, जितनी भी कलाएँ हैं, जितनी भी कलमें हैं और जितने भी रंग-अभिनय हैं, उतनी शैलियाँ हैं। रचना-प्रक्रिया एक तरह की फंतासी है, जिसको साधना बहुत कठिन है। जबलपुर में बसने के पूर्व, जिसे अब लगभग 60 वर्ष होने को आए हैं, मैंने एक क़िताब ‘चित्रकला और समाज’ भाऊ समर्थ की पढ़ी थी। दूसरी क़िताब अमेदेयो मोदिलियानी की जीवनी थी, जो दुर्लभ थी, और जिसका मेरे ऊपर असर अभी तक है। इनके अलावा पॉल क्ली के रेखांकन देखे थे और रबिन्द्रनाथ के चित्रों के अलावा मुम्बई में मेरे गुरु धर्मवीर भारती मुझे भूलाभाई देसाई रोड पर सुप्रसिद्ध गायतोंडे के स्टूडियो ले गए थे, जहाँ वे एक चित्र पर काम कर रहे थे। कुल यही मेरी पूंजी थी। इसके बाद जबलपुर में राममनोहर जी से बार-बार मिलना हुआ। उनमें गहरी आत्मपरकता और निजता थी। यह वह समय था जब मैं एक लेखक बन ही रहा था, ‘‘पहल’’ निकल रही थी और राममनोहर जी एक बड़े चित्रकार बन चुके थे। यात्रा जारी थी।
राममनोहर जी मेरी स्मृति परम्परा में हैं, यह एक लम्बा संयोग है। उनकी जीवन-रेखा बहुत शांत, अंतर्मुख, आदर्श और मानवीय थी। ऐसे व्यक्तित्वों को प्रायः प्रगतिशील फार्मूलों से समझा जाना कठिन है। प्रगतिशीलता, विकास, और विज्ञानमय एक निरंतर धारा है, जो टूटती नहीं बदलती है और अग्रसर होती रहती है। जहाँ तक मेरी समझ है, जो व्यक्ति ऊपर से अभिव्यक्त होता नहीं दिखता, प्रायः मौन संचालित होता है। वह अपने अभ्यंतर (inner) से संवाद करता रहता है। वह कभी भी नींद में नहीं जाता, निरंतर धड़कता रहता है - उसके स्वप्न और यथार्थ में किसी तरह की फांक नहीं होती। हम इसका अनुमान लगा सकते हैं, इसकी कल्पना कर सकते हैं, पर दावा नहीं कर सकते। यह हमारी परम्परा और भावी के बीच का बिन्दु है, इसका कोई ज्योतिष नहीं है। इसीलिए राममनोहर जी के काम का मूल्यांकन चुनौतीपूर्ण है। प्रायः सारी मौलिकताएँ चुनौतीपूर्ण होती हैं। गांधीवादी नैतिकता उन्हें अपने पूर्वजों से भी मिली और समकालीनों से भी। उनका मूल्यांकन कला और समय के औजारों से हमें मिला-जुलाकर करना होगा। हमारे यहाँ सोशल क्रिटिज़्म प्रायः नहीं है, प्रगतिशील हल्लों के बावजूद। अभी गरीबी तो देखिये, गांघी जी की प्रगतिशीलता ही तय नहीं हुई।
आइये, हम राममनोहर जी के समय पर एक विहंगम नज़र डालें। कोई भी कलाकार हो, उसके बनने में उसके समय और वातावरण की अहम् भूमिका होती है। उसका बचपन, प्रकृति, ऋतृएँ, लोग-बाग, पशु-पक्षी और प्रमुख रूप से तत्कालीन लोक जीवन। ये सब मिल जुल कर उसका निर्माण करते हैं। प्रकृति राममनोहर जी की कला की आत्मा है। नेचर भिन्नता के साथ और भरपूर है। वह उनकी चित्रकला में आती हुई आकृतियों को संवारता है। बाहरी तौर पर भी वे दमदमाते हुए व्यक्तियों के धनी थे। उनके गुरुकुल बड़े थे, देश-देशान्तरों में थे और वे लगातार जीवंत थे। उनके सानिध्य अनमोल थे और वे उन चौराहों से गुज़रे जहाँ संगीत, नाटक, कविता, अध्यात्म और राजनीति की बड़ी हस्तियों का आवागमन हो रहा था।
वे सम्पन्न समय के धनिक थे। उनका समय प्रेरक था। उसमें अपने काम के दौरान तल्लीन होना संभव था। तब, आज की तरह, अभिव्यक्ति का दमन नहीं था। मित्रों, ध्यान दें कि राममनोहर जी के समाज में कलाकारों का एकांत भी मौजूद था और उनके सक्रिय समूह भी काम कर रहे थे। सीधा टकराव नहीं था। गायकों और गीतकारों की भेरियाँ थीं, ये सुमधुर थीं, रणभेरी नहीं थीं। शम्भू मित्रा का रंगकर्म था, ‘अंधा युग’ था, अल्काज़ी थे, सुभद्राकुमारी चौहान थीं और परसाई। उदयशंकर, बलराज साहनी थे, प्रेमचंद और रविंद्रनाथ का जीवन अवसान था। इप्टा थी, प्रगतिशील लेखक संघ था, फ़ैज़, मजाज़, साहिर, शैलेन्द्र, फिराक़, कैफ़ी और जिगर मोरादाबादी थे। कलाकार सक्रिय थे और उनके विशाल भौगोलिक अंचल थे। हुसैन और रज़ा थे। औरोबिन्दो और आंबेडकर थे। नज़रुल और हज़ारिका थे। यह सूची अबाध और असमाप्त है। यह वह समय था जब हिन्दी में उत्तर छायावाद की जगमग करती त्रिवेणी थी और बाद में ‘कामायनी’, ‘साकेत’ और ‘चांद का मुँह टेढ़ा है’ लिखा गया। कितना अजूबा है कि राममनोहर जी की मैत्री और संवाद उन महापंडित राहुल सांकृत्यायन से था जो प्राच्य विद्या के विद्वान, यात्री और गहरे समाजवादी थे। ऐसे खूबसूरत लोकतंत्र में राममनोहर जी पल्लवित-पुष्पित हुए और यही वजह है कि वे निपट सौन्दर्यवादी नहीं बने, जीवन की मार्मिकताओं में डूबने वाले बने। यह वह युग था जब देश में तारामण्डल बन रहे थे और बन रहे थे नए आई.आई.टी.। पृष्ठभूमि में निराला और नज़रुल के गीत थे, और था सत्यजित राय और ऋत्विक घटक का सिनेमा। संस्कृति के गुम्बज गूँज रहे थे। देश में नया इस्पात ढल रहा था। पूंजी विकृत नहीं हुई थी। यह था हमारे राममनोहर जी का समय और इसी समय को वे अपनी चित्रकला में भेद रहे थे। इस गैलेक्सी में हमारी भी सीमा है। राममनोहर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को पूरी तरह न भेद पाने का कारण यह है कि हमारी भाषा में पारंगत वाक्य ही नहीं बन पाए। हमारे मुल्क में पूरी तरह ज्ञानोदय नहीं हुआ और हमारी चेतना में वैज्ञानिकता नहीं उभरी। चीज़ें स्थानीय और सद्गृहस्थ हो गईं।
मित्रों, जबलपुर एक नगर सभ्यता का हिस्सा नहीं है। नगर संस्कृति भी अधूरी है। धीरे-धीरे नगर के कुछ टोटके उभर रहे हैं। इन्टरनेट न होता और अनुपम और संगीता जैसी संतानें नहीं होतीं तो राममनोहर जी को भुला दिए जाने की स्थितियाँ बन भी सकती थीं। हम लोग भूलने के विरुद्ध हैं, पर बाज़ार की विशेषता ही यही है वह भुलाता है, हड़पता है, एक को विलीन करके दूसरे को लाता है। जबलपुर की अमीरी और ग़रीबी ज़बरदस्त है। यहाँ संगीत समाज की भोर तक चलने वाली संगीत सभाएँ थम गईं। यहाँ पचास साल संघर्ष करने वाला थिएटर अब थम गया है, वह सांस्कृतिक रोज़गार हो चुका है। संतुष्ट पुनरावृत्तियाँ जब प्रबल होती हैं, तो कला का लोकतंत्र नष्ट होता है। बेटा अनुपम और बहू संगीता जिद्दी हैं कि धारा के खिलाफ मोर्चा संभाले हैं। राममनोहर जी की चित्रकला ध्वंसावशेषों के बीच एक फूल है। मित्रों, प्रगतिशीलता कभी हल्ला होती है तो कभी जीवन रेखा। उसे सम्पूर्ण विकास में ही देखा जा सकता है, नक्काली में नहीं। दुर्भाग्य है कि हम अभी तक राममनोहर जी की कला का सम्मानजनक मूल्यांकनपरक प्लेसमेंट नहीं कर पाए हैं।
मैं एक सामान्य प्रयास करता हूँ। आपको उनकी लय और रेखाओं को देखना होगा। ऐसा कहा जाता है कि जो चित्रकार हैं, स्कल्प्टर हैं, पेंटर हैं, जिनका स्ट्रक्चर और ड्राइंग अच्छी है, वे श्रेष्ठ कलाकार की राह में होते हैं। अजन्ता के चित्रों को देखें, जैन चित्रशैली देखिये, उड़ीसा के पटचित्र, पटवा और राजस्थान की फड़-शैली, कलमकारी है, इन सभी में रेखांकन को महत्त्व दिया गया है। रंगों से ज़्यादा। पर राममनोहर जी तो रेखाओं और रंगों का जादुई या बेजोड़ संयोग पैदा करते हैं। मानव आकृतियों की उनकी विविधा देखने के काबिल है।
राममनोहर जी के कला संसार में जंगल और उसकी धूप छांव, जंगल का भ्रूण, जंगल की देह और जंगल की खामोश गतिविधियाँ हैं। स्त्रियाँ बड़ी संख्या में हैं और जीवित कर्म का गहरा हिस्सा हैं। ये स्त्रियाँ आदिवासी जीवन की मुख्य अभियंता हैं। वे ही श्रम हैं, वे ही सौन्दर्य हैं, वे ही कार्मिक है, वे ही नुमाइंद हैं। इस प्रकार राममनोहर जी जंगल की उस देह के निर्माता हैं जहाँ अकेले वृक्ष हैं, पेड़ों की सरणियाँ हैं। प्रकृति और जीवन के दैनिक खेल हैं। चित्रकला में यही प्रगतिशीलता है। वहाँ पत्थर हैं, पानी है, स्प्लिट-स्पेस है। राममनोहर जी एक ही संसार में बार-बार अपनी थीम बदलने का कौशल रखते हैं। इस जंगल से हट कर कभी औद्योगिक संसार की दुर्घटना, भोपाल त्रासदी की तरफ भी जाते हैं। कभी शान्ति-निकेतन की छाप से निकलकर सुदूरपूर्व की महान कला का दिग्दर्शन कराते हैं। वहाँ दूसरे पक्ष के सामने उनका अपना मौलिक पक्ष मौजूद रहता है। शैलियाँ स्वतंत्र भी रहती हैं और परस्पर मिश्रण भी करती हैं। अपने को बदलने, अपने को अग्रसर करने के बाद वे फिर लौटते हैं। वे नर्मदा और गंगा के बीच की दूरी को अपनी कला से समाप्त करते हैं। राममनोहर जी का लौटना आवागमन का हिस्सा है। जबलपुर आकर स्थानीयता में अपना कैनवस और ब्रश अलग और ऊपर रखते हैं इसी वजह से उनके ऊपर उदासीनता, तटस्थता और चुप्पी का आरोप लगा, पर दोस्तों, दुनियादारी और उसकी स्थानीय लिप्तताओं में कलाकर्म को ठोस लग सकती है। इसलिए कलाकार की राहें कठोर होती हैं। कुल मिलाकर ऊपर के वृत्तांत के बीच मेरा संकेत यह है कि आधुनिक भारत के निर्माण और रचनात्मक उथल-पुथल के बीच राममनोहर जी का एलौय (Alloy) बन रहा था। एलौय शब्द का इस्तेमाल मैं जानबूझकर कर रहा हूँ। थोड़ी ठेस भी लग सकती है इस कथन से, क्योंकि राममनोहर जी स्थानीय प्रतिभा नहीं थे, वे वैश्विक कला के गलियारों में दाखिल हो चुके थे। उनकी नौकरी, उनका गृहस्थ जीवन और उनके अज़ीबो-ग़रीब दिलचस्प शहर जबलपुर के बीच उनका आंकलन नहीं किया जाए तो ही बेहतर। शहर निगल लेते हैं, शहर मुग्ध करते हैं, शहर संतुष्ट करते हैं, ये विलीन तक कर देते हैं। टाइम और स्पेस के हिसाब से जितना अनिवार्य था, वे उतने ही नगरवासी थे। मित्रों, आपको जानकारी होगी कि अंतर्राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं के कारण हमारे बहुत से लेखक और कलाकार लन्दन, पेरिस में जा बसे। कला के बाज़ार बढ़ रहे थे पर जीवन की पीड़ाओं, हर्ष-विषाद, संघर्षों को लेकर भी राममनोहर जी अपने ही मुल्क में रहे, जबकि उन्हें अवसर थे। वे यहीं अपनी चित्र प्रस्तुतियाँ करते रहे। कला बाज़ार उन्हें निगल नहीं सके।
शान्ति-निकेतन वे गए, फिर सुदूरपूर्व की अपनी स्वतंत्र शैली वाली कला में घुले मिले, फिर शान्ति-निकेतन लौटे। उन्होंने जामिनी रॉय और सत्यजित रे के साथ भी साधना की। सत्यजित रे भी रेखांकनों के उस्ताद थे और फ़िल्म निर्माण के पूर्व उनकी डायरियाँ रेखांकनों से भर जाती थीं। इसके बाद राममनोहर जी की कला लन्दन की विख्यात कला दीर्घाओं में गई। वहाँ कई जगह उनके चित्रों को सम्मानजनक जगह मिली है। विख्यात टेटगैलरी, जिसे हम दुनिया की महानतम गैलरी मानते हैं, मैंने देखी तो नहीं, पर कथाकार कृष्ण चंदर की सुप्रसिद्ध कहानी ‘‘टेटगैलरी’’ से इसका अंदाज़ किया। वहाँ राममनोहर जी कला उपस्थित है।
राममनोहर जी की कला तथाकथित विकासवादी जीवन की नहीं, भारतीय जीवन की अस्मिताओं की झांकियाँ दिखाती है। उनके चित्रों में जीवन का अछूता वैभव संरक्षित है। इसी को मौलिकता कहते हैं, जो स्थानीयता से भूमण्डल तक फैली है।
चीन और शांति निकेतन में कला का उच्चतर अध्ययन करे वाले व्यौहार राममनोहर सिन्हा देश के बड़े चित्रकारों में शामिल हैं। आपने भारतीय संविधान की खूबसूरत सज्जा का काम भी किया है। कला निकेतन, जबलपुर में अपनी सेवाएँ दीं और अब दिवंगत।
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