बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

किताब वाले कामरेड त्रिलोक सिंह को लाल सलाम

 



जबलपुर में हिन्दी के विचारवान लेखक, पाठकों के लिए त्रिलोक सिंह एक जीता जागता सक्रिय और चैतन्य, निरंतर कार्यरत व समर्पित एक ऐसा नाम रहा है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। वे एक आदर्श पूरा वक्ती सांस्कृतिक कार्यकर्ता रहे। रामविलास शर्मा ने लिखा था क‍ि हमारे संग्राम में जिन लोगों ने अनाम सेवा की है, उन्हें कभी भी विस्मृत नहीं करना चाहिए। त्रिलोक सिंह‍ का एक बड़ा मानवीय रिश्ता और परिवार जबलपुर में बना था। लगभग वे मिथक का रूप ले चुके थे। मध्यप्रदेश के व‍िभ‍िन्न हिस्सों से लोग उनके पास आते थे। दिल्ली के अस्म‍िता रंग समूह के निर्देशक अरविंद गौड़ कहते थे कि त्रिलोक सिंह की पुस्तकें मुंबई तक पहुंच गईं। अस्म‍िता के दीपक डोबरियाल जब समूह के साथ जबलपुर नाटक करने आए, तब उन्होंने त्रिलोक सिंह से कई पुस्तकें खरीदी थीं। मुंबई में फिल्मी दुनिया में पहुंचने के बाद वे पुस्तकें दीपक डोबरियाल का सहारा बनी रहीं।   

कश्मीर के पुंछ में मार्च 1920 में जन्मे और झेलम में पढ़़े-बढ़े त्रिलोक सिंह ने कभी सोचा नहीं था कि उनका कर्म क्षेत्र जबलपुर बनेगा। उर्दू भाषा में आठवीं तक कक्षा में अध्ययन करने के बाद त्रिलोक सिंह कुछ समय तक भटके और लायलपुर (पाक‍िस्तान) की एक कपड़ा मिल में नौकरी करने लगे। शुरूआत से वामपंथी राजनैतिक विचारधारा से प्रभावित त्रिलोक सिंह कपड़ा मिल की श्रमिक राजनीति में एक केन्द्र बिन्दु के रूप में उभरे। दिसंबर 1942 में एक हड़ताल के सिलसिले में उन्हें एक माह के लिए जेल जाना पड़ा। यह उनकी पहली जेलयात्रा नहीं थी। 1938 में आर्य समाज के एक सत्याग्रह में भाग लेने पर भी उनको एक माह के गुलबर्गा की सेंट्रल जेल में रहना पड़ा था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पेंशन का आग्रह नहीं किया और न ही ली।

कानपुर में रहने वाले बड़े भाई ने काम की तलाश में त्रिलोक को अपने पास बुला लिया। कानपुर में आ कर त्रिलोक सिंह बिजली के छोटे मोटे काम करने लगे और एक मशीनरी वर्कशॉप से जुड़ गए। वे काम के साथ-साथ पढ़ने के शौकीन थे, इसलिए साहित्य की बुनियाद भी पड़ गई। साहित्य के पढ़ने के शौक को देख कर उनके मालिक गुस्सा नहीं हुए बल्क‍ि उन्होंने त्रिलोक सिंह को कुछ इससे संबंध‍ित धंधे से जुड़ने को प्रोत्साहित किया।

त्रिलोक सिंह ने कानपुर में मार्च 1957 में हिन्दी में प्रकाशि‍त होने वाली रश‍ियन पुस्तकों व पत्रिकाओं को बेचने का कार्य शुरू किया। उस समय सोवियत संघ का दिल्ली स्थि‍त सूचना केंद्र सोवियत भूमि (सोवियत लैंड) और बाल स्पूतनिक दो पत्रिकाएं प्रकाश‍ित करता था। त्रिलोक सिंह बताया करते थे कि दोनों पत्र‍िकाएं अन्य पुस्तकों के साथ बेहद सस्ती कीमत की थी और आकर्षक छपाई के कारण वे बड़ी लोकप्रिय भी थीं। इस वजह से उनका पत्रिकाओं व पुस्तकों को बेचने का धंधा अच्छा चल निकला। इस बीच इन पत्रिकाओं की अच्छी बिक्री करने के कारण त्रिलोक सिंह को वर्ष 1959-60 में रूस यात्रा करने का मौका मिला। पन्द्रह दिन की यात्रा में त्रिलोक सिंह मास्को, लेनिनग्राद, तासकंद व कीव गए।

वर्ष 1964 तक त्रिलोक सिंह का पुस्तक विक्रय कार्य अच्छे से संचालित हुआ। व्यापार के गणि‍त को ठीक से न समझने और अधीनस्थ एजेंट पर ज्यादा भरोसे से वे गच्चा खा गए। जबलपुर से कानपुर स्थानांतरण पर पहुंचे कुछ रक्षा कर्मियों ने त्रिलोक सिंह को जबलपुर जा कर पुस्तक बेचने के धंधे करने की सलाह दी। फरवरी 1968 में व्यापार से टूटे त्रिलोक सिंह डेढ़ सौ रूपए और कुछ पुरानी पुस्तकों को ले कर नए दृढ़ संकल्प के साथ जबलपुर आ गए। उसी समय सतपुला में आल इंडिया डिफेंस एम्पलाइज यूनियन का अधि‍वेशन आहूत हुआ। अध‍िवेशन स्थल में त्रिलोक सिंह ने पुस्तकों का एक स्टाल लगाया। उनकी पुस्तकों ने लोगों को आकर्ष‍ित किया लेकिन उधार विक्रय के चलन से त्रिलोक सिंह के जबलपुर के शुरूआती दो वर्ष तंगी में कटे।

उसी समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुख पत्र मुक्त‍ि संघर्ष’ (जनयुग) व न्यू एजबेचने का प्रस्ताव त्रिलोक सिंह के पास आया। इसे त्रिलोक सिंह ने चुनौती के रूप में स्वीकार किया और धीरे-धीरे उनके ग्राहक बढ़ने लगे। उनसे पूर्व दो-तीन लोग अखबार बेचने का कार्य कर चुके चुके थे लेकिन या तो वे असफल रहे या कोई न कोई गड़बड़ी के कारण उन पर विश्वास नहीं किया गया। त्रिलोक सिंह द्वारा पार्टी के मुख पत्र को अच्छी तरह बेच लेने और ईमानदारी से कार्य करते रहने के कारण पार्टी का विश्वास उन पर बढ़ा और जून 1969 में त्रिलोक सिंह को करमचंद चौक से तुलाराम चौक पर जाने वाले मार्ग पर स्थि‍त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर की चाबियां व अखबार की एजेंसी सौंप दी गई। पार्टी दफ्तर में स्थि‍त दुकान पीपुल्स बुक सेंटर से त्रिलोक सिंह ने व‍िभ‍िन्न रश‍ियन पुस्तकों के साथ जिसमें खासतौर से बाल साहित्य, चीनी व प्रेमचंद के साहित्य को बेचना भी शुरू कर दिया। इस दौरान उन्होंने शहर में होने वाले व‍िभ‍िन्न साहित्य‍िक व कला आयोजन स्थलों के बाहर भी गंभीर हिन्दी साहित्य का विक्रय शुरू किया। पार्टी दफ्तर स्थि‍त दुकान को संचालित करते समय त्रिलोक सिंह को कुछ खट्टे अनुभव भी हुए। उन्हें पार्टी के एक पदाध‍िकारी ने काफ़ी परेशान किया और स्थि‍ति यहां तक जट‍िल हो गई कि दुकान से उनकी पुस्तकें चोरी होने लगी। लेकिन जीत आख‍िर त्रिलोक सिंह की हुई और उस पदाध‍िकारी को काफ़ी आलोचना का सामना करना पड़ा।

वर्ष 1991 में रश‍ियन पुस्तकों का प्रकाशन बंद हो गया। त्रिलोक सिंह ने हिन्दी साहित्य की पुस्तकें व पत्र‍िकाओं को रखना शुरू किया। जबलपुर में हिन्दी के उत्कृष्ट व गंभीर साहित्य के उपलब्ध होने का कोई स्थायी ठौर ठ‍िकाना नहीं था। त्रिलोक सिंह ने शहर की इस कमी को समझा और पाठकों व साहित्यकारों को रूचि का साहित्य बाहर से बुलवा कर उपलब्ध करवाने का बीड़ा उठाया। अभी त्रिलोक सिंह का काम जम ही नहीं पाया था कि वर्ष 1995 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को अपना दफ्तर खाली करना पड़ा। त्रिलोक सिंह के सामने एक बार फिर समस्या आ गई। जून 1995 में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के पूर्व रेक्टर, वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार प्रो. हनुमान प्रसाद वर्मा ने त्रिलोक सिंह को अपने नेपियर टाउन स्थि‍त आवास में पुस्तकें रखने और उसे बुक शॉप के रूप में संचालित के लिए एक कक्ष दिया। उस समय त्रिलोक सिंह के भावुकता व दार्शनिक भाव से इतने बोल निकले- बेघर को ठ‍िकाना एक बड़ी चीज है।

त्रिलोक सिंह महाराजपुर स्थि‍त अपने घर से सुबह सात बजे पुस्तकों से भरा हुआ झोला ले कर निकल पड़ते थे और दिन भर घूम कर घर-घर पुस्तकें पहुंचा कर शाम को छह बजे वापस घर पहुंचते थे। वे कहते थे कि घर से चल पड़ें तो दिन निकल जाएगा। 75 वर्ष की उम्र में दिन भर में औसतन 25-30 किलोमीटर साइकिल चला कर लगभग दो सौ नियमित ग्राहकों की पुस्तक मांगों को पूरा करने का प्रयास करते थे। जीवन पर्यंत गज़ब की स्मरण शक्त‍ि रखने वाले त्रिलोक सिंह को यह याद रहता था कि किसने कौन सी पुस्तक मांगी। बड़े प्रकाशन समूह से उनके व्यक्त‍िगत संबंध थे। हरि‍शंकर परसाई ने सम्पूर्ण जीवन त्रिलोक सिंह को सहयोग देते रहे।

जीवन के अंतिम समय त्रिलोक सिंह के कष्ट में गुजरे। पुत्र की करतूत के कारण वे परिवार सहित बेघर हो गए। उस समय मॉडल स्कूल के पूर्व प्राचार्य दिनेश अवस्थी व उनकी पत्नी ने त्रिलोक सिंह की खूब मदद की। अवस्थी जी की पत्नी शैल प्रतिदिन उन्हें अपने स्कूटर में बैठा कर घर-घर पुस्तकें पहुंचाने का कार्य किया। दिनेश अवस्थी ने त्रिलोक सिंह व उनके परिवार के लिए एक घर की व्यवस्था की। त्रिलोक सिंह ने जीवन में परसाई रचनावली के 200 सेट, मुक्त‍िबोध रचनावली के 300 व मंटो दस्तावेज के 100 सेट का विक्रय किया। प्रगतिशील लेखक संघ ने वर्ष 1997 में कटनी अध‍िवेशन में त्रिलोक सिंह का सम्मान किया। उन पर केन्द्र‍ित एक स्मारिका का प्रकाशन किया गया। त्रिलोक सिंह ने भूगोल व विचार में समानांतर यात्रा की है। वे झेलम से यमुना के किनारे आए। यमुना से गंगा तट पर पहुंचे और गंगा से उन्होंने वोल्गा की यात्रा की। वहां से वे नर्मदा तट पर अंतिम समय तक रहे। स्मृति पर ज़ोर डालने याद आता है कि वर्ष 2006 में संभवत: 13-14 या 15 तारीख रही होगी, जब त्रिलोक सिंह का निधन हुआ। त्रिलोक सिंह की मार्च 2022 में 102 जयंती है। आज वे नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृति बार-बार कौंधती है। देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। जाहिर हीरे की चमक तेज होती है। बुनियादी रक्त पसीना देने वालों के लिए इस चमक में कोई जगह नहीं। त्रिलोक सिंह के प्रति हम कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। वर्तमान में अजय यादव परसाई भवन में त्र‍िलोक सिंह मेमोरियल पुस्तकालय संचालित कर और उनके रास्ते पर चल कर त्रिलोक सिंह को जीवित रखे हुए हैं। हम भी त्रिलोक सिंह को भूल नहीं पाएंगे। कामरेड त्रिलोक सिंह को लाल सलाम।


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