गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

विद्यार्थी जीवन के चमत्कारी किस्से व बहुत सफल और निष्ठावान पुलिस अफसर बाबूलाल पाराशर




देशबंधु समाचार पत्र को प्रारंभ करने वाले मायाराम सुरजन बहुपठित व जनप्रिय टिप्पणीकार रहे हैं। उनकी अनेक कृतियों में से एक महत्वपूर्ण पुस्तक है-'इन्हीं जीवन घाटियों में'। इस पुस्तक में उनके श‍िक्षकों, मित्रों, सहकर्मियों व परिवार के सदस्यों के अंतरंग जीवन रेखाचित्र हैं। इन्हीं जीवन रेखाचित्रों में एक जीवन रेखाचित्र जबलपुर के खेल पितामह कहे जाने वाले पुलिस अध‍िकारी बाबूलाल पाराशर का भी है। मायाराम सुरजन का यह आलेख यहां प्रस्तुत है।

पिछले पखवाड़े देशबंधु के जबलपुर संस्करण में खबर पढ़ी थी कि वे 84 वर्ष के हो गए हैं। उनसे पहली मुलाकात कोई 35 वर्ष पहले हुई थी। पिछली बार दो साल पहले मिला था, तब उनकी कोठी में कोई खास अंतर नहीं पाया था। वही सीधी कमर और ऊंचा पूरा शरीर। चेहरे की मुस्कराहट में भी किसी किस्म का अंतर नहीं। उन्हें श‍िकायत थी कि मैं जबलपुर आता-जाता हूं लेकिन उनसे भेंट नहीं करता और न कोई सूचना देता। फिर अपने ही उलाहने का परिमार्जन करते हुए कहा कि अब चि. ललित से उनका पत्राचार चलता है तो मान लेते हैं कि मुझसे भी संपर्क यथावत् बना हुआ है। जबलपुर में तो हर महीने पहुंचता हूं किन्तु बिना किसी काम के भी आपाधापी इतनी हो जाती है कि सभी मित्रों से मिलना कठिन होता है। प्रत्येक बार मेरा वायदा झूठा हो जाता है। तथापि जब किसी पुलिस अफसर से यहां वहां भेंट होती है, श्री बाबूलाल पाराशर की याद ज़रूर आ जाती है।

            1953-54 के आसपास वे स्थानांतरित हो कर जबलपुर आए थे। तभी किसी समारोह में उनसे पहली भेंट हुई थी। यों उनसे कभी कोई काम पड़ा हो, यह तो याद नहीं किन्तु मिलना-जुलना इतना अध‍िक होता रहा कि हमारी आयु में लगभग बीस साल का अंतर होते हुए भी एक आत्मीय मित्रता स्थापित हो गई। किसी पुलिस अफसर पर संस्मरण लिखा जाए तो उचित यही है कि उनके कुछ यश-अपयश की घटनाओं का जिक्र हो। पर श्री बाबूलाल पाराशर के संदर्भ में मैं ऐसी किसी घटना का उल्लेख नहीं कर पा रहा। यही समझना चाहिए कि जब उनसे मेरा परिचय हुआ, उसके बाद शायद जबलपुर में ऐसा कोई हादसा नहीं हुआ कि उस सिलसिले में उनकी याद की जाए। 1956 में मैं भोपाल आ गया और 1957 के आसपास वे रिटायर हो गए। मेरे उनके परिचय के पूर्व के समय में ऐसी कोई स्मरणीय घटना हुई हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं।

            फिर भी पाराशर जी को एक दिलचस्प व्यक्त‍ि के रूप में स्मरण करता हूं। पहली मुलाकात में ही उन्होंने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड दिया। मैंने उसे सहज ही जेब में रख लिया तो उन्होंने आगाह किया कि उसे जरा गौर से देखूं। इसके पूर्व न तो किसी जिला कप्तान से ऐसी भेंट हुई थी और किसी ने अपना परिचय कार्ड ही थमाया था। इसलिए कुछ कौतूहल से ही वह कार्ड जेब से निकाला तो देखा हिन्दी में छपे इस विजिटिंग कार्ड पर उनकी तस्वीर भी अंकित थी। लिबास भी किसी पुलिस कप्तान जैसा नहीं। शेरवानी और चूड़ीदार पाजामा में एक पूरी खड़ी हुई तस्वीर। उनके ही कहने से मैंने कार्ड पलट कर देखा तो पुलिस ड्रेस में आधा (बस्ट) फोटो  और अंग्रेजी में पुलिस कप्तान की उपाध‍ि सहित नामादि। ऐसा अजीब कार्ड कोई मसखरा व्यक्त‍ि छपाता तो आश्चर्य न होता। पुलिस कप्तान जैसा गंभी दायित्व सम्हालने वाले में यह हास्य क्यों? कहानी उन्होंने ही सुनाई।

            ‘’मायाराम जी, मैं सागर में डीएसपी (अब एसएसपी) था। दौरे पर खुरई गया था। लौटते समय गाड़ी खराब हो गई। गनीमत थी कि सड़क से लगी हुई ही रेलवे लाइन थी। मैं किसी रेलगाड़ी के आने की प्रतीक्षा में वहीं किनारे खड़ा हो गया। तब ट्रक-बसों का भी इतना चलन नहीं था। थोड़ी देर में ही सागर की ओर जाने वाली एक मालगाड़ी आती दिखाई दी। मैंने दूर से ही रूमाल हिलाकर ड्राइवर से अपनी दिक्कत बताते हुए निवेदन किया कि वह मुझे इंजन में बैठा सागर ले चले। ड्राइवर ने आनकानी की तो मैंने परिचय दिया। चूंकि मैं मुफ्ती (सामान्य वेष) में था, उसने मेरी बात अनसुनी कर दी। तब तक गार्ड भी आ गया। वह भी विश्वास करने को तैयार नहीं हुआ। आइडेन्ट‍िटी कार्ड उस वक्त मेरे पास नहीं था। अंत में इस शर्त पर उन्होंने मुझे ट्रेन में चढ़ने दिया कि यदि सागर के स्टेशन मास्टर ने मुझे नहीं पहचाना तो मुझे रेलवे पुलिस के हवाले कर दिया जाएगा।‘’

            जाहिर है कि सागर पहुंचने पर स्टेशन मास्टर ने उनके पुलिस अफसर होने की तस्दीक की। और तब से ही उन्होंने मय फोटो के अपना कार्ड हिन्दी-अंग्रेजी में छपवा लिया ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए।

            हो सकता है कि मुसीबत के मारे बाबूलाल जी ने यह रास्ता अख्तयार किया हो, लेकिन अगली 15 अगस्त या 26 जनवरी के अवसर पर एक सादे पोस्ट कार्ड पर उनका स्वाधीनता/गणतंत्र दिवस अभ‍िनंदन पत्र मिला। शालीनता मना करती है कि मैं इस कार्ड का उल्लेख न करुं। किन्तु यदि नहीं करता हूं तो पाराशर जी के व्यक्त‍ित्व का एक चरित्र अधूरा रह जाएगा।

            ऐसा कार्ड न पहले कभी मिला था और न उसके बाद आज तक। आप कल्पना कीजिए कि एक स्टूल रखा हुआ है। चपरासी को उसे यहां वहां ले जाने में सुविधा रहे इसलिए पंजा अंदर ले जाने के लिए भी स्थान बनाया गया है। स्टूल पर बाकायदा सूट-बूट टोपधारी एक अंग्रेज अफसर बैठा हुआ है। स्टूल के नीचे चारो पायों के बीच एक अधनंगा भारतीय दुबका हुआ है। बस, लगभग ऐसा ही समझ‍िए कि भारतीय द्वारा स्टूल में पंजा डालने के स्थान पर से अंगुली भेद कर गिरि गोवर्धन उठाने की लीला की जा रही है।

            यह कार्ड देखकर मैं बहुत देर तक अकेला ही हंसता रहा। इसी बीच उनके एक सहपाठी या समकालीन मित्र पधारे। मुझे इस तरह हंसते देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। मैंने वह कार्ड उनके सामने रख दिया तो वे भी काफ़ी समय तक हंसते रहे। जब माहौल सामान्य हुआ तो उन्होंने पाराशर जी के विद्यार्थी जीवन की दो-तीन घटनाएं सुनायीं।

            पाराशर जी उन दिनों जबलपुर में राबर्टसन कॉलेज (अब महाकोशल महाविद्यालय) में पढ़ते थे। कॉलेज की हाकी टीम के वे महत्वपूर्ण ख‍िलाड़ी होने के कारण प्रिसींपल श्री ए. रोलेण्ड्स के प्रियपात्र थे। ग्रीष्मकालीन छुट्टि‍यों में रोलेण्ड्स साहब को एक तार मिला कि होशंगाबाद में नर्मदा में तैराकी करते समय बाबूलाल पाराशर भंवर में फंस गए। बहुत कोश‍िशों के बाद भी वे अपना बचाव न कर सके। थोड़ी दूर पर उनका शव मिला।

            प्रिसींपल महोदय अपने प्रिय छात्र के निधन से बहुत दुखी हुए। दो-चार दिन बाद जब कॉलेज खुला तो सबसे पहले एक होनहार छात्र और ख‍िलाड़ी श्री बाबूलाल पाराशर की मृत्यु पर शोकांजलि प्रकट करने के लिए विद्यार्थ‍ियों की सभा आयोजित की गई। इधर रोलेण्ड्स साहब अपना दुख व्यक्त कर रहे थे और उधर सामने के ही दरवाजे से पाराशर जी प्रकट हो रहे थे। धीमी-धीमी चाल से निर्विकार आश्चर्यचकित मुद्रा में प्रवेश करते बाबूलाल को देखकर प्रिसींपल साहब भी भौंचक रह गए:

            ‘’एम आई सीइंग द घोस्ट आफ बाबूलाल?’’ (क्या मैं बाबूलाल का प्रेत देख रहा हूं?)

            ‘’नो सर, आई एम बाबूलाल। बट व्हाट इज द मेटर? (नहीं सर, मैं बाबूलाल ही हूं। लेकिन बात क्या है?)

            उन्हें तार मिलने की घटना सुनायी गई। वे इस प्रकार स्तब्ध हो कर सुनते रहे कि सचमुच ही अनजान हैं। यह रहस्य बाद में खुला कि तार भेजने वाला कोई नहीं खुद बाबूलालथे। एक और घटना है। राबर्टसन कॉलेज पहले जहां स्थि‍त था अब वहां इंजीनियरिंग कॉलेज आ गया है। इसके पीछे ही एक विशाल झील है। सन् 1930 के आसपास न तो जबलपुर इतना बड़ा शहर था और न यह कॉलेज जबलपुर के इतने करीब जितना क‍ि आज मालूम होता है। झील के आसपास जंगल और बियाबानी सन्नाटा। जंगली जानवर भी पानी पीने यहां पहुंच जाया करते थे। चीता, तेंदुआ और कभी कभार बाघ भी।

            विद्यार्थ‍ियों की सुरक्षा हेतु सलाह देते हुए रोलेण्ड्स साहब ने कक्षा में कहा कि वे लोग शाम के झुरमुटे में भी झील की ओर न जाएं। वहां बाघ का एक जोड़ा विचरता हुआ देखा गया है। और सब छात्रों ने सलाह स्वीकार कर ली लेकिन पाराशर जी बोले:

            ‘’यस सर, आई सा देम क‍िसिंग ईच अदर यसटरडे।‘’ (जी सर, मैंने भी कल इस जोड़े को एक दूसरे से प्यार करते देखा है।)

            वास्तव में यह कटाक्ष प्रिसींपल साहब पर ही था। उन्होंने अपने बाबूलालको डांटकर बैठ जाने को कहा। छात्र पाराशर जी की शैतानियों का रोलेण्ड्स ने ठीक ही आकलन किया था।

            कॉलेज की सोशल गेदरिंग हो रही थी। शायद ड्रामा खेला जा रहा था कि अचानक बिजली गुल हो गई। आज के जमाने में यह हुआ होता तो सामान्य घटना मान कर बिजली लौटने की प्रतीक्षा की जाती। उन दिनों बिजली चले जाना असामान्य ही था। छात्रसंघ के प्रभारी आचार्य या पदाध‍िकारी दौड़धूप करें उसके पहले ही रोलेण्ड्स साहब चिल्लाए:

            ‘’व्हेयर इज बाबूलाल?’’ (बाबूलाल कहां हैं?)

            ये छात्रों के बीच मासूम बने बैठे थे। पकड़ लिए गए। प्रिसींपल साहब ने सवाल किया:

            ‘’बिजली कहां से गुल की?’’

            पता चला कि पास की किसी बल्ब के नीचे पाराशर जी ने इकन्नी लगा दी थी। बिजली गोल हो गई। आज के नौजवान नागरिकों को इकन्नी एक नया शब्द ही लगेगा। वस्तुस्थि‍ति यह है कि उस समय एक आने का गिलट का सिक्का होता था जिसे होल्डर व बल्ब के बीच में आसानी से फिट किया जा सकता था। लेकिन उसका असर व्यापक होता था। इस कनेक्शन की सारी लाइन ही गुल हो जाती थी। वह इकन्नी निकाली गई तब ड्रामा पुन: शुरू किया जा सका।

            विद्यार्थी जीवन के इन चमत्कारी किस्सों के बावजूद पाराशर जी बहुत सफल और निष्ठावान पुलिस अफसर सिद्ध हुए। वे अपना काम तो मुस्तैदी से करते ही थे, कभी उनके बारे में कोई ऐसी-वैसी श‍िकायत सुनने को नहीं मिली। न व्यवहार की न बेईमानी की।

            एक दिन मैं उनके यहां बैठा गपशप कर रहा था कि पाटन का एक किसान कोई फरियाद लेकर आया। आम का मौसम था तो अचार-मुरब्बे के लिए आधा बोरा के करीब कैरियां भी ले आया। उसकी फरियाद की तफसीस के आदेश तो तत्काल जारी हो गये लेकिन वे कैरियां तब तक घर के भीतर नहीं पहुंची जब तक किसान वाजिब मूल्य लेने को तैयार नहीं हो गया। वह कैरियां भेंट स्वरूप तो नहीं ही लीं, कम भाव पर रखने से भी इन्कार कर दिया गया। बेचारे किसान का मुंह छोटा हो गया तो मैंने सलाह दी:

            ‘’आखि‍र हर्ज क्या है? वह न तो आपके मंगाने से लाया और न रिश्वत देने?’’

            ‘’मायाराम जी, क्या करेंगे इतनी कैरियों का। हम कुल जमा दो प्राणी और एक लड़की। जो वेतन मिलता है, वह काफ़ी है।‘’

            थोड़ी देर बातचीत करके मैं वहां से उठ कर डिप्टी कमिश्नर (अब कलेक्टर) साहब के बंगले पहुंच गया। देखा कि वही किसान वहां भी पहुंच गया। कलेक्टर महोदय कह रहे थे:

            ‘’अरे भाई, रख जाओ। क्या तुम्हारे यहां बड़े फल नहीं होते। गांव में किसी और के यहां होते हों तो जरा भि‍जवाना।‘’

            लगभग समान ओहदा वाले अफसरों का यह व्यवहार मुझे गहरे से भेद गया। मैं 1956 में भोपाल आ गया तो एक दिन अचानक पाराशर जी आ गए। वे स्वस्थ और सक्षम थे। परन्तु आयु के अनुसार उन्हें अवकाश लेना था। यदि सामान्य तौर पर सेवावृद्ध‍ि हो जाती तो स्वीकार कर लेते किन्तु किसी से कह कर यह काम कराना उनकी मनोवृत्त‍ि के अनूकूल नहीं था। उन्होंने हास-परिहास में ही कहा कि नये मध्यप्रदेश में सक्षम आफ‍िसरों की जरूरत है। लेकिन आईजी (तब डीजी पुलिस नहीं हुआ करते थे) के यहां डाली कौन लगाए। उन्हें इस बात से भी वेदना थी कि भोपाल में आईजी साहब का बंगला बनाने के लिए पुलिस दल का उपयोग किया जा रहा है, पुलिस गाड़‍ियों में ही रेत, ईंट तथा सीमेंट ढोयी जा रही है।

            पाराशर जी आज भी खेलों के प्रति उतने ही उत्साही हैं। आयुवृद्ध होने से खुद ने खेल सकें किन्तु मैदान में हाजिर रहेंगे। जबलपुर में 1961 में ओलंपिक गेम्स का आयोजन हुआ तो एक स्मारिका प्रकाश‍ित करने का भी निश्चय किया गया। स्मारिका की बहुत सी सामग्री मुझे पाराशर जी से मिली। व‍िभ‍िन्न अवसरों पर आयोजित खेल प्रतियोगिताओं की जितनी पुरनी स्मारिकाएं उनके संग्रह में हैं, शायद ही कहीं सुरक्ष‍ित मिलें। इस अवसर पर उनके ही आग्रह पर स्मारिकाओं की एक प्रदर्शनी आयोजित की गई थी। उन्होंने खुशी-खुशी अपना संग्रह मुझे उपलब्ध करा दिया। शर्त इतनी ही थी कि उसे सुरक्ष‍ित वापस कर दूं। सारी सतर्कता के बावजूद एक स्मारिका चोरी हो ही गई। इसका पछतावा उन्हें बहुत रहा। अपनी शर्म‍िन्दगी का क्या जिक्र करूं।

            मेरा ख्याल है कि यह संग्रह आज भी उनके पास सुरक्ष‍ित होगा। वे ज़रूर ही चाहते होंगे कि कोई सुपात्र मिल जाए तो उसे दे दें। लेकिन डर यही है कि कोई इस अमूल्य संपत्त‍ि को अच्छे दामों पर बेच न दे।

            मध्यप्रदेश क्रीड़ा परिषद आदि संस्थानों में वे अभी भी सक्रिय हैं। हमारे खेल विशेषांकों के लिए जब तक उनसे सामग्री उपलब्ध करा लेने में हमें कोई संकोच नहीं ह‍ोता।

            देश के सुप्रसिद्ध श‍िल्पी डा. एम. विश्वेश्वरैया की 99 वीं वर्षगांठ पर एक पत्रकार ने उनसे कहा कि ‘’मुझे विश्वास है कि आपकी शताब्दी पर भी मैं उपस्थि‍त रहूंगा।‘’ विश्वेश्वरैया ने उसकी बांह की थाह ले कर कहा, ‘’क्यों नहीं, अभी तो तुम काफ़ी जवान हो।‘’

            पाराशर जी के तमाम मित्रों की चाह है कि वे शतायु हों, स्वस्थ रहें। हंसते रहे और हमें हंसाते रहें।   

               

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