बुधवार, 3 सितंबर 2025

खि‍लंदड़, खांटी, जीवंत और वैचारिकी से मजबूत सीताराम सोनी ने नुक्कड़ नाटक और जनगीत को कैसे बनाया लोकप्रिय

 

सीताराम सोनी जैसे खि‍लंदड़, खांटी, जीवंत और वैचारिकी से मजबूत व्यक्ति के जीवन का पटाक्षेप ऐसा होगा इसके बारे में किसी ने कभी सोचा नहीं था। रंगकर्मी सीताराम सोनी का 29 अगस्त को जबलपुर में निधन हो गया। जबलपुर ही नहीं पूरे देश में उनको जानने वालों के लिए यह प्रश्न था आख‍िर उन्होंने ऐसा क्यों किया। हम लोग भी कयास लगा सकते हैं कि सीताराम सोनी ने ऐसा क्यों किया?  

 जबलपुर में आधुनिक रंगकर्म की शुरुआत श्रृंखला में उनके बारे में एक अध्याय लिखने की योजना थी। कोरोना के बाद रंगकर्मी महेश गुरु के संबंध में जब लिखने की योजना बनी तब तय हुआ कि महेश गुरु के साथ रंगकर्म के उनके आत्मीय साथी सीताराम सोनी व प्रकाश कुलकर्णी साथ में बैठेंगे तो तथ्य व कथ्य निकलते जाएंगे और पूरा एक अध्याय तैयार हो जाएगा। लगभग डेढ़ वर्ष सीताराम सोनी व प्रकाश कुलकर्णी के बीच तालमेल बैठाने में निकल गया और अंतत: महेश गुरु से बातचीत संभव नहीं हो पाई। उस समय विचार किया गया कि सीताराम सोनी, तपन बैनर्जी व राजकुमार कामले पर एक सम्म‍िलित अध्याय लिख कर और अरुण पाण्डेय पर बातचीत पूर्ण कर पुस्तक तैयार हो जाएगी। 6 जुलाई 2024 को जबलपुर में आधुनिक रंगकर्म की शुरुआत श्रृंखला के 58 वे अंक में आलोक चटर्जी अध्याय की समाप्ति हुई थी। आलोक चटर्जी के रंगकर्म जीवन के बारे में श्रृंखला में सात अध्याय लिखे गए थे।  एक वर्ष से अध‍िक का समय बीत गया और यह श्रृंखला थम गई। काम आगे बढ़ नहीं पा रहा था। महेश गुरु के बाद सीताराम सोनी का आकस्मिक निधन हो गया। सीताराम सोनी से बात होती तो 1977 से अब तक की उनकी समकालीनता के बारे में नई जानकारी अवश्य निकलती लेकिन वे असमय चले गए। यह अब उस समय लिखा जा रहा है, जब सीताराम सोनी हमारे बीच में नहीं हैं।

 इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर के इंस्पेक्टर मातादीन और दुलारीबाई नाटक में कल्लू भांड़ की भूमिका निभाने वाले रंगमंच कलाकार सीताराम सोनी हमारे विद्यालयीन समय में हीरो हुआ करते थे। इंस्पेक्टर मातादीन और कल्लू भांड़ जैसे पात्रों को निभाकर वे चर्चित व लोकप्रिय हुए। उन्होंने कोई व्यवस्थ‍ित प्रश‍िक्षण नहीं लिया था और न ही कॉन्स्टेंटिन स्टैनिस्लावस्की को पढ़ा था लेकिन उनके अभ‍िनय के फंडे और तरीके बिल्कुल स्पष्ट थे और वे जीवन भर उस पर अड‍िग रहे। हरिशंकर परसाई अपनी व्यंग्य रचना इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर यदि इंस्पेक्टर मातादीन को भौतिक रूप से देखना चाहते तो उस खांचे में सीताराम सोनी शतप्रतिशत फिट बैठते।

 सीताराम सोनी को यदि समझना है तो इसके लिए पिछली सदी के सातवें दशक के 77 से आठवें दशक की शुरुआत तक चलना पड़ेगा। जबलपुर के साइंस कॉलेज में प्रो. श्याम सुंदर मिश्रा, डा. मलय, डा. उमेश द्विवेदी, डा. मधुमास खरे, प्रो. मगनभाई पटेल, प्रो. मदन गोपाल पटेरिया, प्रो. प्रभात कुमार मिश्रा जैसे प्रगतिशील व खांटी वामपंथी प्राध्यापक थे। इनके कार्यकाल में अरुण पाण्डेय, राकेश दीक्ष‍ित, आलोक चटर्जी व तरुण गुहानियोगी जैसे रंगकर्मी व साहित्यकार उभरे। साइंस कॉलेज में जबर्दस्त सांस्कृतिक व साहित्य‍िक माहौल था। वहीं जीएस कॉलेज में ज्ञानरंजन प्राध्यापक थे। यहां सीताराम सोनी, राजकुमार कामले व भरत पटेल विद्यार्थी थे। जीएस कॉलेज में ज्ञानरंजन तीनों विद्यार्थ‍ियों की प्रतिभा को देख व महसूस कर रहे थे। ज्ञानरंजन को तीनों के भीतर सांस्कृतिक व साहित्य‍िक मूल्य के साथ सुदृढ़ वैचारिकी व सरोकार के गहरे भाव दिखे। बताया जाता है कि ज्ञानरंजन ने तीनों को अंगूठे व अंगुली को मिलाकर मुंह से सीटी कैसी बजाई जाती है, यह भी स‍िखाया था। तीनों अभ‍िनय व गायन में आला दर्जे के थे।

 उस दौरान विवेचना ने नाटक करने की शुरुआत कर दी थी। अलखनंदन ने नाट्य निर्देशक के रूप में बागडोर संभाल ली थी। ज्ञानरंजन ने सीताराम सोनी, राजकुमार कामले व भरत पटेल को विवेचना में नाटक करने के उद्देश्य से भेजा। दरिंदे का मंचन होने वाला था। दरिंदे हमीदुल्ला का छोटा नुक्कड़ नाटक था। इसका निर्देशन करने लखनऊ से चितरंजन दास जबलपुर आए थे। सीताराम सोनी उस समय तक अच्छी मिमिक्री कर लेते थे। इस संबंध में साहित्यकार व विचारक तरुण गुहानियोगी का यह कहना सटीक है कि सीताराम सोनी में फूटाताल मोहल्ले का प्रभाव या मोहल्ला से सीखने की बात जरूर की जाती है लेकिन यदि उनकी वैचारिकी दृढ़ता व फ्रेमवर्क नहीं होता तो जबलपुर के हास्य कलाकारों की सूची में उनका नाम भी जुड़ जाता। उनके भीतर मि‍मिक्री, कहानी गढ़ने, संगीत की धुन पकड़ने और खूब पढ़ने की आदत समाहित थी। एक ऐसा ही वाक्या है जब विवेचना में एक नाटक के लिए शराबी व्यक्त‍ि के पात्र के लिए कलाकारों का चयन हो रहा था। आलोक चटर्जी ने जो अभ‍िनय प्रस्तुत किया उसमें फिल्मी छाप दिख रही थी। जब बारी सीताराम सोनी की आई तो फूटाताल मोहल्ला व कांचघर चुंगी चौकी में घंटो बिताने का अनुभव काम आया और उन्होंने ऐसा अभ‍िनय किया कि उनका उस भूमिका के लिए तुरंत चयन कर लिया गया।   

 1982 तक विवेचना जबलपुर से अलखनंदन, गंगा (आनंद) मिश्रा, आलोक चटर्जी, राजकुमार कामले व दूसरे रंग समूह मीना चोलकर (मीनाक्षी चौहान) भोपाल में भारत भवन के रंगमंडल में शामिल हो चुके थे। विवेचना में प्रश्न आया कि अब कौन नाटकों का निर्देशन करेगा। एक बैठक आयोजित कर पूछा जा रहा था कि नए नाटक के मंचन की जिम्मेदारी कौन सा व्यक्ति निभाएगा। अरुण पाण्डेय ने हानूश का निर्देशन कर मंचन करने की जिम्मेदारी ले ली। बैठक में तपन बैनर्जी के बाजू में सीताराम सोनी बैठे थे। उन्होंने तपन बैनर्जी को जोर दिया कि वे भी कोई नाटक को निर्देश‍ित करने की जिम्मेदारी ले लें। उस समय तक तपन बैनर्जी के दिमाग में कोई नाटक नहीं था लेकिन सीताराम सोनी के दबाव में उन्होंने खड़े होकर एक नए नाटक को करने की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली। तपन बैनर्जी को समझ में नहीं आ रहा था कि वे कौन से नाटक को मंचित करें। एक दिन सीताराम सोनी ने उनको हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर लाकर दी और कहा कि वे इसका नाट्य रूपांतरण करें और हम लोग इसे नुक्कड़ नाटक के रूप में सड़क पर मंचित करेंगे। तपन बैनर्जी ने वर्षों पूर्व द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया (The Illustrated Weekly of India) में परसाई के इस व्यंग्य को पढ़ा था। तपन बैनर्जी नाट्य रूपांतरण में जुट गए। उस समय तक रंगकर्म में डिजाइनिंग जैसा शब्द नहीं था लेकिन सीताराम सोनी ने इसे नुक्कड़ नाटक के रूप में डिजाइन किया। सीताराम सोनी इंस्पेक्टर मातादीन की मुख्य भूमिका में थे। सूत्रधार की भूमिका राकेश दीक्ष‍ित निभाते थे। बाद में ये भूमिका अरुण पाण्डेय ने भी निभाई। सीताराम सोनी ने इंस्पेक्टर मातादीन के रूप में गजब का इम्प्रोवाइजेशन करते थे। उन्होंने उस समय के कई पुलिस इंस्पेक्टर के चरित्र का मिश्रण इस भूमिका में किया। शुरुआत तो जबलपुर के चौराहों से हुई लेकिन धीरे धीरे इसके मंचन विश्वविद्यालय व कॉलेज परिसर में होने लगे। उस समय प्रगतिशील लेखक संघ सक्रि‍य था तो इसलिए उसके आयोजन में इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर का मंचन एक अनिवार्यता बन गई। इस नुक्कड़ नाटक की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि मध्यप्रदेश सहित पूरे देश में इसके हजारों मंचन हुए। कुछ स्थानों पर पुलिस ने मंचन रूकवाया तो कभी सीताराम सोनी को ही पकड़ लिया। इंस्पेक्टर मातादीन के रूप में सीताराम सोनी ने अपनी आवाज, भाव भंगिमाओं व आंगिक हावभाव से ऐसा वातावरण बना लेते थे जो देखने वालों को बांध लेता था। वे नाटक के दृश्य में इंट्री को बहुत महत्व देते थे। इसके लिए बहुत मेहनत करते थे। यही अपेक्षा साथी कलाकारों से चाहते थे। सीताराम सोनी ने राजा का बाजा, समरथ को दोष नहीं गुसाईं, मशीन जैसे नुक्कड़ नाटकों में वि‍विधतापूर्ण भूमिका निभाकर अपनी अभ‍िनय कला को चहुं ओर बिखेरा।  

 इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर सीताराम सोनी के अभ‍िनय के चर्चे हरिशंकर परसाई तक पहुंचे। वैसे भी सीताराम सोनी परसाई से मिलने इस नाटक के मंचन के पूर्व भी जाते थे और परसाई उनको चाहते भी खूब थे। बाद में हरिशंकर परसाई कहने लगे थे कि मैं जो कहना चाहता हूं उसे थ‍िएटर वाले उल्टे ढंग या तरीके से करते हैं।  

 

सीताराम सोनी ने प्रोसनियम थ‍िएटर बहुत किए। दुलारी बाई के कल्लू भांड़ कीइ उनकी भूमिका को कौन भूल सकता है। जुलूस में उनका अभ‍िनय एक अलग छाप छोड़ता था। सीताराम सोनी का मानना व विश्वास था कि जनता के बीच जाना है तो नुक्कड़ करना ही होगा। कुछ ऐसे ही उनका मानना था कि नाटक सिर्फ अभ‍िनेता या कलाकार का माध्यम है। उस समय उत्पल दत्त की बंगला में लिखी एक पुस्तक चाय धुआं (चाय के धुएं में) प्रकाश‍ित हुई। तरुण गुहानियोगी के सौजन्य से यह पुस्तक सीताराम सोनी और अन्य रंगकर्मियों के बीच पढ़ने के लिए वितरित की गई। इस पुस्तक में रंगकर्म के व‍िभ‍िन्न तत्व और उससे जुड़े लोग अपना पक्ष रखते हैं लेकिन मूल भाव यह था कि रंगकर्म सामूहिक कर्म है। इस बात से सीताराम सोनी जिंदगी भर सहमत नहीं रहे। वे जीवन भर अटल रहे कि नाटक सिर्फ कलाकार का....कलाकार का माध्यम है। उस दौरान विवेचना में इस बात को लेकर स्वस्थ बहस भी हुई कि प्रोसेनियम या स्ट्रीट थ‍िएटर कौन सा किया जाए। जनता के बीच जाने को लेकर हर समय सीताराम सोनी नुक्कड़ नाटक के पक्ष में रहे। सीताराम सोनी की असहमति कई बातों को लेकर रहीं। जब अरुण पाण्डेय ने हंसा उड़ चल के मंचन की शुरुआत की तब सीताराम सोनी इस बात से असहमत थे कि ईसुरी भला बुंदेलखंड के कबीर कैसे हो सकते हैं। ईसुरी में कबीर जैसा एक भी तत्व मौजूद नहीं था। सीताराम सोनी की विवेचना से कई असहमति थी लेकिन उन्होंने कोई नया संगठन नहीं बनाया।

 सीताराम सोनी में जन्मजात संगीत की धुन पकड़ने का ज्ञान था। इसकी शुरुआत वर्ष 1986 में उस समय हुई जब सीताराम सोनी जबलपुर के साथ‍ियों के साथ प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध‍िवेशन में गए। वहां बेगूसराय इकाई द्वारा लोकधुन पर जनगीत की प्रस्तुति दी गई। उनकी प्रस्तुति से वहां मौजूद लोग आकृष्ट हुए और प्रभावित भी। जबलपुर वापस आकर सीताराम सोनी व तरुण गुहानियोगी अन्य साथ‍ियों ने कई कवियों को गाने की कोश‍िश की। त्रिलोचन की कविता को जनगीत में ढाल नहीं पाए। केदारनाथ अग्रवाल की कविता-

मार हथौड़ा,

कर-कर चोट !

लाल हुए काले लोहे को

जैसा चाहे वैसा मोड़ !

 

मार हथौड़ा,

कर-कर चोट !

थोड़े नहीं- अनेकों गढ़ ले

फ़ौलादी नरसिंह करोड़।

मार हथौड़ा,

कर-कर चोट !

लोहू और पसीने से ही

बंधन की दीवारें तोड़।

 

मार हथौड़ा,

कर-कर चोट !

दुनिया की जीती ताकत हो,

जल्दी छवि से नाता जोड़ !

 को पहले आल्हा के रूप में तैयार किया। आल्हा कमजोर पड़ रहा था। सबने मिलकर इस कविता को तोड़ कर गाया। तोड़ने से एक अलग फोर्स बना। केदारनाथ अग्रवाल की इस कविता में बुंदेलखंडी लय व बोली की स्वभाविक थी। असरदायक जनगीत बना और यह खूब गाया गया। राधा वल्लभ त्र‍िपाठी ने कविता को तोड़ने पर बने फोर्स पर बकायदा एक आलेख भी लिखा था। इसके बाद तो जो क्रम बना उसमें दुख न गयो दरिद्र न छूटे, हमको मारो नजरिया/ऊंची अटरिया पर बैठे रहो तुम गोविंद बोलो हरगोविंद बोलो....मन के ताले तोड़ो...चोर मंत्री....सेठ रक्षक बीच बाजार में.....होत है चुनाव देखो कलदार जैसे गीत रचे गए और जनगीत के रूप में प्रस्तुत होकर लोकप्रिय हुए। इन जनगीत की प्रस्तुति में सीताराम सोनी की बड़ी भूमिका रही। यहां इस बात को ध्यान में रखा गया कि ऐसे जनगीत लिखे जाएं जैसा नागार्जुन लिखते थे। नागार्जुन भजन को इस तरह लिखते थे कि उसमें प्रगतिशील स्वर गूंजने लगता था। इस बात को सूत्र बांधकर रखा गया। एक ऐसा ही जनगीत था जिसमें बोल थे संग लाए देवी का झंडा। जनगीत की प्रस्तुति में लाल झंडा फहरा दिया जाता था। यह लाल झंडा वामपंथ का प्रतीक रहता था।

 सीताराम सोनी ने नुक्कड़ नाटक व जनगीत की प्रस्तुति के दौरान मध्यप्रदेश की खूब यात्राएं कीं। एक ऐसी यात्रा में सतना में उनकी मुलाकात केदारनाथ अग्रवाल से हुई। केदारनाथ अग्रवाल को जब जानकारी मिली कि उनसे मिलने वालों में उनकी कविता को जनगीत के रूप में प्रस्तुत करने वाले सीताराम सोनी व तरुण गुहानियोगी हैं तो वे प्रसन्न हुए। केदारनाथ अग्रवाल ने परिमल प्रकाशन के श‍िव कुमार सहाय से कहा कि वे उनकी नई पुस्तक प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल दोनों को भेंट करें। केदारनाथ अग्रवाल हस्ताक्षरित यह पुस्तकें सीताराम सोनी व तरुण गुहानियोगी के पास मौजूद हैं।

 नब्बे के दशक में सीताराम सोनी अपने संस्थान रेलवे की नाट्य गतिव‍िध‍ियों में सक्र‍िय हुए। वे महेश गुरू व प्रकाश कुलकर्णी के नदजीक रहे। रेलवे के रंगकर्मियों के साथ उन्होंने सगुन पंछी का मंचन किया। उन्होंने मंचित हुए सभी नाटकों की धुन तैयार की। उन्होंने द्वारिका गुप्त गुप्तेश की स्क्र‍िप्ट पर हंसा उड़ चल को मंचित किया। विवेचना में बसंत काशीकर के निर्देशन में सीताराम सोनी ने मानबोध बाबू में अभ‍िनय किया लेकिन यहां तक आते-आते उनको डायबीटिज हो गई। इसका प्रभाव उनके शरीर के व‍िभ‍िन्न अंगों में दिखने लगा।

 बाद के दिनों में रेलवे से रिटायर होने के बाद सीताराम सोनी विवेचना रंगमंडल में अरुण पाण्डेय के साथ जुड़ गए। प्रतिदिन वे चंचलबाई कॉलेज में शाम को रिहर्सल में पहुंच जाया करते थे। अरुण पाण्डेय ने उनको किसी नाटक को निर्देश‍ित करने के लिए कई बार कहते थे लेकिन बीमारी की वजह से वे एकाग्रता से विलगित होने लगे थे। वैसे भी सीताराम सोनी अभिनेता रहना चाहते थे, आज की तरह निर्देशक नहीं बनना चाहते थे। वे तटस्थ नहीं रहे। आंखों की रोशनी कम होने लगी। पढ़ाई छूट गई। संभवत: मनोवैज्ञानिक बाधांए हावी हो गईं। इससे पूर्व जीवन को पहला झटका जब लगा तब उनकी प्रथम संतान शि‍वी का जन्म हुआ तो वह सेरेब्रल पल्सी से ग्रसित था। दुनिया भर में सीताराम सोनी घूमे। 14 वर्ष की आयु में श‍िवी नहीं रहा। सीताराम सोनी को दूसरा झटका जब लगा जब उनकी पत्नी को लकवा लगा। उनके जीवन में संतुलन बिगड़ने लगा था। सब कुछ समाप्त होने से वे निराश थे।

 सीताराम सोनी को हम इस रूप में देखते थे कि वह नौजवान रंगकर्मियों के अत्यंत प्रिय थे। उनकी लोकप्रियता गजब की थी। नौजवान रंगकर्मियों को महसूस होता था कि वे न तो उनके लिए सर हैं और न ही दादा। उनको लगता था कि सीताराम सोनी उनके जैसे ही हैं। सीताराम सोनी हर समय नौजवान रंगकर्मियों को मार्गदर्शन व सहायता देने के लिए तत्पर रहते थे। जबलपुर में जिस स्थान पर भी किसी नाटक का मंचन होता था वहां उनकी उपस्थि‍ति‍ जरूर रहती थी। नौजवान उनको अपने बीच पाकर खुश हो जाया करते थे। सीताराम सोनी माहौल को अपने ढंग का बना लेते थे। वे बातों से उकसाते थे। उनकी जबलपुर के हास्य कलाकार कुलकर्णी बंधु के बीच की नोकझोंक लोगों को गुदगुदाती थी। राजकुमार कामले के कामले शब्द को लेकर वे आंवले कह कर कहानी गढ़ लेते थे।

 सीताराम सोनी जीवन भर प्रगतिशील विचारों पर सुदृढ़ रहे। बेटी का विवाह महिल पुरोहित से संपन्न करवाया। वैवाहिक कुरूतियों को ध्वस्त किया। बेटी का कन्यादान नहीं किया बल्कि हस्तदान किया।

 सीताराम सोनी लम्बे समय तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे। वे रेलवे की यूनियन में सक्र‍िय रहे। उनको लेकर कितनी बातें हो रही हैं। फूटाताल, वहां का मैदान, कांचघर चुंगी चौकी, सतपुला की सड़कें, काफी हाउस के बाहर की पट्टी, चंचलबाई कॉलेज में नाटक की रिहर्सल के समय को शाम को उनका चलने का अंदाज, उनका बहस करना, असहमति प्रगट करना, परसाई व ज्ञानरंजन सहित कई लोगों के सामने बैठकर उनकी ही मिमिक्री करना। हम लोगों को यह जानकारी ही नहीं मिली कि वे नितांत अंधेरे व अकेलेपन से जूझ रहे थे। जब तक जानकारी मिलती देर हो चुकी थी।🔷  

मंगलवार, 12 अगस्त 2025

युग तुलसी रामकिंकर का जबलपुर से क्या संबंध है

31 जुलाई को तुलसी जयंती थी। जुलाई के अंतिम सप्ताह से अगस्त के प्रथम सप्ताह तक तुलसी सप्ताह पूरे देश में मनाया जाता है।

रामचरित मानस पढ़ कर तुलसीदास की कल्पना की जा सकती है, लेकिन युग तुलसी की उपाध‍ि से विभूषि‍त रामकिंकर जी को लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है और उनसे रामकथा और उसकी व‍िभि‍न्न व्याख्या को सुना है। रामकिंकर जी का जबलपुर से गहरा नाता है। जबलपुर से ही उन्होंने रामकथा सुनाना शुरु की थी।

रामकिंकर जी के पिताजी पंडित श‍िव नायक उपाध्याय मूल रूप से मिर्जापुर जिले के बरैनी गांव के रहने वाले थे लेकिन उन्होंने जबलपुर को अपना ठिकाना बना लिया था। रामकिंकर जी का जन्म जबलपुर में हुआ। वर्ष 2006 में प्रकाशि‍त उनकी एक पुस्तक के अनुसार जन्मतिथि 1 नवम्बर 1924 है। जबलपुर के नुनहाई क्षेत्र में प्रेमलाल अग्रवाल (सराफ) का निवास स्थान था। यहीं उनकी फर्म सेठ प्रेमलाल गुलाबचंद सराफ थी। यह दुकान 1920 में स्थापित हुई थी। प्रेमलाल सराफ के आवास के एक हिस्से में रामकिंकर जी के पिता पंडित श‍िव नायक उपाध्याय रहा करते थे। दोनों परिवार के बीच परस्पर मधुर संबंध थे। उनके संबंध को देख कर ऐसा अहसास होता था कि सभी एक बड़े परिवार के सदस्य हों। उनके बीच संबंध की मधुरता किस तरह की थी उसका अंदाज इस बात से पता चलता है कि जब पंडित श‍िव नायक उपाध्याय कभी बाहर जाते थे, तब वे पुत्र रामकिंकर को कह जाते थे कि जरूरत पड़ने पर वे प्रेमलाल सराफ या उनके पुत्र वल्लभदास अग्रवाल से पैसे मांग सकते हैं। रामकिंकर जी प्रेमलाल अग्रवाल को अपना बब्बा ही मानते थे और वल्लभदास को बड़ा भाई। रामकिंकर जी को प्रेमलाल अग्रवाल से पैसा लेने में संकोच होता था, तो वे कोश‍िश करते कि उनका सामना बड़े भैया यानी कि प्रेमलाल अग्रवाल से न हो। दरअसल प्रेमलाल अग्रवाल पैसा मांगने का कारण पूछते थे। वहीं वल्लभदास जी जिन्हें रामकिंकर भैया जी का संबोधन देते थे वे बिना कुछ पूछे उनकी जरूरत के मुताबिक तुरंत पैसे दे देते थे।

रामकिंकर जी ने जबलपुर के पंडित लोकनाथ संस्कृत विद्यालय में संस्कृत का अध्ययन किया, लेकिन उनकी औपचारिक शि‍क्षा किसी स्कूल या कॉलेज में नहीं हुई थी। रामकिंकर जी पढ़ाई लिखाई में अत्यंत साधारण थे। रामायण के व्याख्याकार पिता पंडित श‍िव नायक उपाध्याय का प्रभाव रामकिंकर जी पर पड़ा और उन्होंने उनके संस्कार भी ग्रहण किए।

प्रेमलाल अग्रवाल के आवास के आंगन में दस बीस लोगों की उपस्थिति में रामकिंकर जी की रामकथा की शुरुआत हुई। खैरागढ़ में पिता पंडित शिव नायक उपाध्याय कथा सुनाने गए थे लेकिन वे अचानक अस्वस्थ हो गए। पिता जी ने रामकिंकर जी को आदेश दिया कि वे वहां मौजूद जन समूह को कथा सुनाएं। रामकिंकर जी ने पंडित जी का आदेश माना और उस समय जो शुरुआत हुई वह एक इतिहास बन गई।

जबलपुर में रामकिंकर जी की कथा व प्रवचन घर, मोहल्ले, हितकारिणी कन्या विद्यालय, डिसिल्वा स्कूल, सराफा चौक जैसे स्थानों में होते थे। यहां जन सामान्य ही कथा सुनने आता था। एक बार रामकिंकर जी की रामकथा का आयोजन राइट टाउन में महापौर पंडित भवानी प्रसाद तिवारी के निवास स्थान में हुआ। यहां शहर का प्रबुद्ध वर्ग बड़ी संख्या में पहुंचा। इसके बाद जबलपुर में रामकिंकर जी की रामायण व्याख्या में समाज के भद्र वर्ग की उपस्थिति शतप्रतिशत होने लगी।

अग्रवाल (सराफ) परिवार से रामकिंकर जी की प्रगाढ़ता के कई किस्से हैं। रामकिंकर जी प्रेम लाल अग्रवाल की पत्नी मताई बाई को अपनी माँ मानते थे। मताई बाई ममतामयी थीं। वे परिवार के बच्चों के साथ बाल रामकिंकर जी को भी अत्यंत स्नेह से भोजन करवाती थीं। वल्लभदास की बड़ी पुत्र वधु शील अग्रवाल (डा. प्रह्लाद अग्रवाल की पत्नी) हिन्दी में एमए थीं। उन्होंने रामकिंकर की कई पुस्तकों की पाण्डुलिपि तैयार करने और सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रामकिंकर जी की पुस्तक का काम बाद में कानपुर में होने लगा। रामकिंकर जी की इच्छा थी कि वहां भी इसकी जिम्मेदारी शील अग्रवाल ही संभाले लेकिन परिवार के दायित्व के कारण यह संभव नहीं हुआ। वहां पुस्तक का काम शीला कोचर ने संभाला। वल्लभदास के बड़े पुत्र डा.प्रह्लाद अग्रवाल के पुत्र का नाम श्रीकांत रामकिंकर जी ने रखा था। अग्रवाल परिवार के अधिकांश बच्चों का नामकरण भी रामकिंकर जी ने ही किया था।

अग्रवाल परिवार रामकिंकर जी को पहले पंडित जी से संबोधित करता था और बाद में यह धीरे धीरे महाराज में परिवर्तित हो गया।

जब रामकिंकर जी जबलपुर में थे तब ही गुरू शिष्य परम्परा शुरु हो गई थी। जबलपुर में रघुनाथ प्रसाद तिवारी युग तुलसी के प्रथम शिष्य बने। रघुनाथ प्रसाद तिवारी प्रेमलाल गुलाबचंद सराफ फर्म का कारोबार संभालते थे।

प्रतिवर्ष तुलसी जयंती आती रहेगी और हम लोगों को यानी कि जबलपुर शहर को याद आते रहेंगे रामकिंकर जी। 🔷

(फोटो में सामने बाएं ओर रामकिंकर जी व दाएं ओर भवानी प्रसाद तिवारी बैठे हैं। भवानी प्रसाद तिवारी के पीछे दाएं ओर लुकमान और प्रेमलाल अग्रवाल परिवार के वल्लभदास जी, गोकुलदास जी, डा. प्रह्लाद अग्रवाल व जगदीश प्रसाद जी। भवानी प्रसाद तिवारी की बाएं ओर नीचे की तरफ रघुनाथ प्रसाद तिवारी बैठे हैं।)

बुधवार, 16 जुलाई 2025

कौन थे घमंडी महाराज जिनके नाम से जबलपुर के एक चौक का नाम घमंडी पड़ा

जबलपुर में वैसे तो कई चौक हैं लेकिन लार्डगंज थाना से बड़ा फुहारा मार्ग के बीच में सिर्फ एक चौराहा है जिसे सब लोग घमंडी चौक के नाम से जानते व पहचानते हैं। जिस स्थान पर घमंडी चौक है वहीं 14 अगस्त 1942 को गुलाब सिंह 16 साल की उम्र में शहीद हुए थे। वर्तमान में जब भी आजादी के किस्से सुनाए और छापे जाते हैं जिक्र आता है कि गुलाब सिंह घमंडी चौक पर शहीद हुए थे। जब यह घटना हुई थी तब उस स्थान का नाम घमंडी चौक प्रचलन में नहीं आया था।   

      यह वही घमंडी चौक है जहां राजनेता शरद यादव देवा मंगोड़े वाले के यहां बैठकी करते थे। शरद यादव राष्ट्रीय क्ष‍ितिज पर चमकने लगे थे लेकिन जब भी वे जबलपुर आते तब वे एक बार जरूर देवा मंगोड़े वाले के यहां मंगोड़े खाते थे। जबलपुर के मूल वाश‍िन्दों के अलावा बाहर के लोगों के मन में यह उत्सुकता रहती है कि चौक वह भी घमंडी नाम का। इसकी कहानी सिंचाई विभाग में मुख्य अभ‍ियंता के पद पर कार्यरत रहे एमजी चौबे ने सुनाई। 

चौबे परिवार में सन् 1918 में यह स्थिति बनी कि महिला के नाम पर केवल उनकी दादी कौशल्या चौबे ही शेष रहीं। परिवार के नाम पर एक अविवाहित देवर, दो पुत्र स्वयं के, एक पहली पत्नी का और दो एक अन्य देवर के थे। इस प्रकार पांच बच्चों का लालन-पालन चौबे परिवार की दादी ने किया। जबलपुर के उपनगर खमरिया के पास झिरिया गाँव में सभी सम्मिलित रहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जमीन आदि सरकार ने खमरिया फैक्ट्री के निर्माण के लिए अधिग्रहित कर ली। मजबूरन परिवार को जबलपुर आना पड़ा। परिवार जबलपुर में घने बसे दीक्ष‍ितपुरा में रहने लगा। एमजी चौबे के पिताजी के चचेरे भाई थे चेतराम चौबे व घनश्याम दास चौबे। सभी पाँचों भाईयों को पहलवानी का बेहद शौक था। 

घनश्याम दास चौबे भी पहलवानी करते थे और जीवन भर अविवाहित रहे। वे बचपन से ही सदैव हड़बड़ी व जल्दबाजी रहते थे। चौबे परिवार की दादी की बात किसी ने सुनी होगी तो उसके अनुसार घनश्याम चौबे जब भोजन करने बैठते तो उंगलियों से तबला बजाते रहते थे और भोजन के लिए ‘’जल्दी करो.....कितनी देर और लगेगी’’ जैसे वाक्य लगातार बोलते रहते थे। उनकी इस आदत के कारण दादी उनको घमंडी कहकर बुलाती थीं। धीरे-धीरे घर में और उन्हें जानने पहचानने वाले लोग उन्हें घमंडी के संबोधन से पुकारने लगे। घनश्याम चौबे जब युवा हुए और वयस्कता की ओर कदम बढ़ाने लगे तब लोगों ने उन्हें घमंडी महाराजका संबोधन दिया। 

 घनश्याम चौबे उर्फ घमंडी महाराज ने चौक के नजदीक बड़ा फुहारा के ओर अग्रवाल होजि‍यरी के बाजू में सूर्य विजय होटल खोल ली और उसका संचालन करने लगे। तब तक लोगों ने घनश्याम चौबे कहना छोड़ दिया था उनका नाम ही घमंडी हो गया। उनके नाम के कारण चौक या चौराहा का नाम घमंडी चौक पड़ गया और जो एक बार नाम पड़ा और अब तक लोगों की जुबान पर है। चौबे परिवार के बच्चे उन्हें घम्मी कक्का कहते थे। 

घनश्याम चौबे उर्फ घम्मी कक्का उर्फ घमंडी महाराज का निवास महाकौशल स्कूल के पीछे था। उनके मकान के चार ब्लाक थे। एक में खुद रहते थे और शेष तीन में किरायेदार। घमंडी महाराज कभी मुंबई गए होंगे तो वहां से एक अनाथ बच्चे को ले आए। वही उनकी देखभाल करता था। उसका नाम उन्होंने बद्री रखा था। चौबे परिवार की दादी बद्री नाम का संबोधन कभी नहीं करती थी। दरअसल चौबे परिवार के दादा जी यानी कि दादी के पति का नाम बद्री प्रसाद चौबे था। बच्चा बद्री अच्छा नर्तक था। बच्चों की फरमाइश पर उस समय प्रचलित जंगली फिल्म के गाने आईय या सुकू शुकू .. करू मैं क्या सुकू सुकू ... हो गया दिल मेरा सुकू सुकू.... कोई मस्ताना कहे कोई दीवाना कहे  कोई परवाना कहे, जलने को बेकरार....चाहत का मुझ पे असर मैं दुनिया से बेखबर...चलता हूं अपनी डगर...मंजिल है मेरी प्यार पर शानदार डांस करता था। 

घमंडी महाराज का वर्ष 1961 में अस्थमा के कारण निधन हो गया। उनके निधन के उपरांत घमंडी महाराज की सारी संपत्ति उनके सगे बड़े भाई, शेखर चौबे के पिता चेतराम चौबे को विरासत में मिली। विरासत में एक मोटर साइकिल भी मिली थी एजेएस। उसकी पेट्रोल टंकी पर गियर का लीवर लगा था। 

घमंडी महाराज के परिवार के रामेश्वर चौबे सुबह से शाम तक सुपर मार्केट काफी हाउस में मौजूद रहते हैं। काफी हाउस एक तरह से अव‍िवाहित रामेश्वर चौबे का घर जैसा ही है। काफी हाउस के तमाम कार्मिक उनका ख्याल रखते हैं। उनकी बड़ी मूंछे बरबस काफी हाउस में आने वालों का ध्यान आकर्ष‍ित कर लेती है। रामेश्वर चौबे भी किसी महाराज से कम नहीं हैं। 

घमंडी महाराज को गुजरे पचास साल बीत गए लेकिन घमंडी चौक से लाखों लोग गुजरते हैं किसी को याद नहीं आती और न ही याद आते हैं घनश्याम चौबे उर्फ घम्मी कक्का उर्फ घमंडी महाराज।🔷


    


गुरू दत्त, कागज़ के फूल और जबलपुर के सिनेमाघर

 

प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक व अभ‍िनेता गुरू दत्त का आज 9 जुलाई को जन्मदिन है। इस प्रकार आज से गुरू दत्त के जन्म शताब्दी वर्ष की शुरुआत हो रही है। गुरू दत्त को उनकी फिल्म कागज के फूल, प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम, चौदहवीं का चांद के कारण याद किया जाता है। कागज़ के फूल पहली भारतीय सिनेमास्कोप फिल्म और गुरू दत्त द्वारा आधिकारिक रूप से निर्देशित अंतिम फ़िल्म है। कागज़ के फूल में गुरू दत्त के साथ वहीदा रहमान मुख्य भूमिका में थीं। कागज़ के फूल जबलपुर के सिनेमाघरों में प्रदर्शन के रोचक किस्से हैं। इन किस्सों का पूरा श्रेय एम्पायर टॉकीज के मैनेजर रहे दुर्गा प्रसाद (डीपी) बाजपेयी को है।
1959 में जब कागज़ के फूल रिलीज हुई तो यह जबलपुर के श्रीकृष्णा टॉकीज में प्रदर्श‍ित हुई। उस समय फिल्म का विषय लोगों को पसंद नहीं आया और यह कहानी जबलपुर में दोहराई गई। पांच-सात दिन में ही फिल्म उतर गई और इसे जबलपुर के अंदरून इलाके की सुभाष टॉकीज में स्क्रीन मिली। यहां भी कागज़ के फूल मुश्किल से चार-पांच दिन ही चल पाई। जबलपुर में कागज़ के फूल जलगांव के वसंत पिक्चर्स के जरिए डिस्ट्रीब्यूट हुई थी।

दो टॉकीजों में असफल प्रदर्शन के बाद कागज़ के फूल को अपनी टॉकीज में लगाने का निर्णय जबलपुर के पॉश क्षेत्र में स्थित डिलाइट टॉकीज के प्रबंधन ने लिया। एम्पायर के साथ डिलाइट टॉकीज में प्राय: अंग्रेजी फिल्में प्रदर्श‍ित होती थीं। सिनेमा के शौकीन चौंक गए। उन लोगों को समझ में नहीं आया कि डिलाइट टॉकीज में गुरू दत्त की फिल्म कागज़ के फूल को दो टॉकीज में उतारने के बाद पुन: लगाने का निर्णय क्यों लिया गया? खैर कागज़ के फूल डिलाइट टॉकीज में लगी। इसका प्रदर्शन कैसा रहा इसकी जानकारी देने के पूर्व यह जान लेना भी मुनासिब होगा कि उस समय यानी कि पांचवे दशक से छठे दशक तक जबलपुर में टॉकीजों में सिर्फ दो शो में ही फिल्म का प्रदर्शन होता था। पहला शो शाम को 6 से 9 का दूसरा शो 9-12 का रहता था। शनिवार व रविवार को कोई भी फिल्म मेटिनी शो में भी चलती थी।

डिलाइट टॉकीज में कागज़ के फूल पुन: लगाई गई। आप लोगों को आश्चर्य होगा कि डिलाइट टॉकीज में इस फिल्म ने श्रीकृष्णा व सुभाष टॉकीज की कुल टिकट ख‍िड़की से ज्यादा की कमाई की। लोग चकित रह गए। वैसे कागज़ के फूल डिलाइट टॉकीज में लगभग एक सप्ताह से ज्यादा तक चली। डीपी बाजपेयी ने इसकी वजह बताई कि डिलाइट टॉकीज में फिल्म देखने वाला दर्शकों का वर्ग अलग तरह का था।

उस समय जबलपुर में जनसंख्या के हिसाब से हिन्दी फिल्मों के दर्शक सिर्फ एक-दो फीसदी थे। वहीं रीजनल यानी की क्षेत्रीय सिनेमा के दर्शकों की संख्या आबादी की दृष्टि‍ से 10 फीसदी तक रहती थी। यदि तमिल फिल्म प्रदर्श‍ित होती थी तो उस समय जबलपुर में रहने वाला पूरा तमिल समुदाय फिल्म को परिवार के साथ देखने ज़रूर जाता था। एम्पायर व डिलाइट टॉकीज में प्रदर्श‍ित होने वाले रीजनल सिनेमा का अपना जलवा होता था।

जैसा कि पूर्व में बताया गया कि कागज़ के फूल प्रथम भारतीय सिनेमास्कोप फिल्म थी इसलिए फिल्म की रील के साथ डिस्ट्रीब्यूटर फिल्म प्रोजेक्शन के लिए सिनेमास्कोप के लेंस भेजते थे। एम्पायर व डिलाइट टॉकीज में प्राय: अंग्रेजी फिल्में लगती थीं और यह सिनेमास्कोप में रहती थी इसलिए दोनों टॉकीजों के पास स्वयं के सिनेमास्कोप लेंस हुआ करते थे। बाद के दिनों में एम्पायर टॉकीज प्रबंधन ने एक और लेंस खरीद लिया।

जबलपुर की टॉकीजों से जलगांव के डिस्ट्रीब्यूटर वसंत पिक्चर्स का गहरा संबंध रहा है। इसके मालिक चंदनमल लुंकड़ थे। बताया जाता है कि लुंकड़ परिवार का उस समय के लक्ष्मी बैंक के संचालन से नाता था। वसंत पिक्चर्स शुरु से श्रीकृष्णा व सुभाष टॉकीज किराये से चलाते थे। वसंत पिक्चर्स सीपी-बरार क्षेत्र के डिस्ट्रीब्यूटर थे। डिस्ट्रीब्यूटर और किराये से श्रीकृष्णा व सुभाष टॉकीज चलाने के कारण कागज़ के फूल इन सिनेमाघरों में लगी थी।

1980 के दशक में कागज़ के फूल फिल्म को एक कल्ट क्लासिक के रूप में पुनर्जीवित किया गया। इस बार भी डिस्ट्रीब्यूटर जलगांव के वसंत पिक्चर्स थे। एम्पायर टॉकीज के मैनेजर डीपी बाजपेयी कागज़ के फूल को एम्पायर टॉकीज में इसे रि-रिलीज करने का निर्णय लिया। वसंत पिक्चर्स और एम्पायर टॉकीज के बीच एग्रीमेंट हुआ जिसमें कागज़ के फूल को तीन-चार सप्ताह लगाने का जिक्र था। एम्पायर टॉकीज के मैनेजर डीपी बाजपेयी ने लौटती डाक से एग्रीमेंट भेजा लेकिन उसमें सुधार कर लिखा गया कि तीन-चार दिन तक फिल्म चलाने के लिए सहमत हैं। खैर बात यहां आकर सहमत हुई कि जितने भी दिन होगा कागज़ के फूल एम्पायर टॉकीज में चलेगी। एम्पायर टॉकीज में दोपहर 12 बजे के सिंगल शो में कागज़ के फूल को लगाया गया। फिल्म चली खूब चली। कहां बात सिर्फ तीन-चार दिन की थी कागज़ के फूल एम्पायर टॉकीज में चार सप्ताह तक चली। खूब कलेक्शन आया। दर्शकों ने कागज़ के फूल को खूब प्यार दिया। इससे पूर्व एम्पायर टॉकीज में गुरू दत्त की प्यासा भी रि-रिलीज में खूब चली थी। कागज़ के फूल फिल्मको भारत में बनी अब तक की सबसे बेहतरीन आत्म-चिंतनशील फिल्म माना जाता है।

वक़्त ने किया क्या हंसीं सितम
तुम रहे न तुम हम रहे न हम
वक़्त ने किया...
बेक़रार दिल इस तरह मिले
जिस तरह कभी हम जुदा न थे
तुम भी खो गए, हम भी खो गए
एक राह पर चलके दो क़दम
वक़्त ने किया...
जाएंगे कहाँ सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं दिल ख़्वाब दम-ब-दम
वक़्त ने किया...

डीपी बाजपेयी का कहना है कि जगत और जीवन का सत्य ही था- कागज़ के फूल।

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

उनके कंधे पर अंतिम समय तक टंगा रहा कैमरा

आज सुबह यानी कि 4 जुलाई 2025 को जिस प्रकार बरसात हो रही है वह मीडिया के लिए आज व कल सुर्खी ज़रूर बनेगी। घर के भीतर से बाहर देखते हुए गत दिवस दिवंगत हुए नितिन पोपट का चेहरा याद आने लगा। याद आने लगे वह दृश्य जब छायाकार नितिन पोपट ज्यादा बरसात में जबलपुर के उन निचले इलाकों में जहां पानी भरा रहता था वहां पेंट घुटने तक मोड़ कर अपने कैमरे में तस्वीर कैद करने लगते थे। जबलपुर की ठेठ बोली में लिखें तो वे दिलेर, दबंग, स्पष्टवादी, मेहनत से खींची गई अपनी फोटो को अखबार में जगह दिलाने के लिए मुठभेड़ करने वाले व्यक्ति थे। वे अपनी फोटो को अखबार में छपवाने के लिए अखबार के संपादकीय कर्मियों व संपादक से बहस तक कर लेते थे। नितिन पोपट ने प्रेस फोटोग्राफी कभी व्यावसायिक रूप से नहीं की। सातवें दशक से 2017 तक वे छायांकन एक मिशन के रूप में करते रहे। व‍िभ‍िन्न घटनाओं की फोटो लेकर वे जबलपुर के सभी अखबारों को निस्वार्थ रूप से भेज देते थे। कैमरा का बेग उनके कंधे से कभी उतरा नहीं। बाद के दिनों में जब उन्होंने फोटोग्राफी करना छोड़ दिया तब भी कैमरा उनके कंधे पर लटकता रहता था। नितिन पोपट अपने साथ काम करने वाले छायाकार को गुरू मंत्र के रूप में यही संदेश देते थे कि कंधे पर कैमरा हर समय टंगे रहना चाहिए। नितिन पोपट के जीवन में कैमरे के अलावा दूसरी चीज नहीं छूटी वह उनकी मोपेड थी। लम्बे समय तक सुवेगा मोपेड में बैठकर वे जबलपुर की सड़कों पर फोटो की तलाश में घूमते रहे। बाद में यह सुवेगा मोपेड को उन्होंने छायाकार मदन सोनी को दे दी और नई मोपेड ले ली। मोपेड के अलावा वे कभी दूसरे वाहन में नहीं चले। 


नितिन पोपट प्रेस फोटोग्राफी करते रहे इसलिए उनकी फोटोग्राफी में छायांकन का सौन्दर्य तो नहीं रहता था लेकिन तत्कालिकता, सजग दृष्ट‍ि, न्यूज सेंस उनका अद्भुत था। वे फोटोग्राफी सौन्दर्य के जबर्दस्त पक्षधर थे, इसलि‍ए जबलपुर की रानी दुर्गावती कला वीथि‍का में लगने वाली प्रत्येक फोटो प्रदर्शनी में पहुंचने वाले वे पहले व्यक्ति होते थे। नितिन पोपट अपने से पूर्व व बाद की पीढ़ी के छायाकार शश‍िन् यादव, हरि महीधर, रजनीकांत यादव, डा. जेएस मूर्ति के छायांकन की प्रशंसा करते थे और इन सबको खूब सम्मान देते थे।


विल्स सिगरेट का कश लेने के शौकीन और कड़क काफी पीने वाले नितिन पोपट ने जयंती टॉकीज (पूर्व में प्लाजा) के सामने अपने आफ‍िस व हर्षा प्रिंटर के डॉर्क रूम में किसी को प्रविष्ट नहीं होने दिया। ब्लेक एन्ड व्हाइट फोटोग्राफी के समय में नितिन पोपट स्वयं डॉर्क रूप में काम करना पसंद करते थे। वे फोटो की प्रोसेसिंग व डेव्लपिंग स्वयं करते थे। उनके सहायकों को इस बात की जानकारी नहीं रहती थी कि कौन सी फोटो उस समय नवभारत, नवीन दुनिया, देशबन्धु या युगधर्म में छपने के लिए भेजी जाएगी। नितिन पोपट फोटोग्राफी में इतने रम गए थे कि उन्हें अपने हर्षा प्रिंटर की कभी कोई ध्यान नहीं रहा। कम मात्रा या परिमाण में उनका विश्वास नहीं था इसलिए वे फिल्म के रोल और फोटो को प्रिंट करने के पेपर बड़ी संख्या में आर्डर करते थे। जिस समय ऑफसेट प्रिटिंग का चलन नहीं था तब स्वयं जेब से खर्च करके फोटो के ब्लॉक बनवाते और प्रेस में देकर आते थे। इस सदाशयता में उनकी हर्षा प्रिंटर सर्वाध‍िक रूप से प्रभावित हुई। यह भी दुख की बात है कि नितिन पोपट ने जिन अखबारों को फोटो उपलब्ध कराने के लिए दिन रात एक किया और आंधी बरसात की चिंता नहीं कि उन्होंने नितिन पोपट को एक्र‍िड‍िएशन या मान्यता प्रदान करने वाली एक अदद चिठ्ठी देने में कभी रुचि नहीं दिखाई। नितिन पोपट जिंदगी भर एक्र‍िड‍िएशन प्राप्त करने के लिए परेशान रहे।   


छायाकार नितिन पोपट को जबलपुर की एक पहचान व ब्रांड भी कहा जा सकता है। जब भी जबलपुर में  राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, कला क्षेत्र की कोई विभूति जबलपुर आती थी तब उसकी मुलाकात नितिन पोपट से अवश्य होती थी। यदि विभूति का पहली बार जबलपुर आगमन होता था, तो दूसरी बार जबलपुर आने पर उनकी निगाह नितिन पोपट को ज़रूर दूंढ़ती थी। राष्ट्रीय स्तर की सैकड़ों विभूतियों से नितिन पोपट के व्यक्तिगत संबंध थे। कवि नीरज से नितिन पोपट की प्रगाढ़ता जग जाहिर थी। ब्रांड के रूप में नितिन पोपट इसलिए याद आते हैं क्योंकि जब उनका श‍िखर था तब बहुत से लोग नवभारत में फोटो क्रेडिट में उनका नाम देखकर विवाह समारोह में फोटो खींचने के लिए सम्पर्क करते थे। कई लोग नितिन पोपट का पता पूछते हुए जयंती टॉकीज के सामने हर्षा प्रिंटर पहुंच जाते थे। इस प्रकार का कार्य उन्होंने किया लेकिन बहुत कम। 


जबलपुर के मीडिया में छायाकारों की दूसरी पंक्ति तैयार करने में नितिन पोपट का सबसे बड़ा योगदान है। नितिन पोपट के मार्गदर्शन में बसंत मिश्रा, सुगन जाट, पप्पू शर्मा, तापस सूर, अनिल तिवारी, पंकज पारे जैसे छायाकार उभरे और उन्होंने अपना व‍िश‍िष्ट स्थान बनाया। सुगन जाट तो नितिन पोपट के डॉर्क रूम में काम करके खींची गई फोटो को अपनी कला से छायांकन की दृष्ट‍ि से दर्शनीय व सुंदर बना देते थे।  


नितिन पोपट को दिवंगत होने के बाद याद करने के कई कारण हैं। पहला तो नई पीढ़ी उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती और दूसरा उनके जैसे लोग जबलपुर में लगातार कम होते जा रहे हैं। नितिन पोपट के whatsapp प्रोफाइल में एक कोटेशन था-‘हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया’। वाकई में नितिन पोपट हर फ्रि‍क को धुएं में उड़ाते रहे और इसे उड़ाते हुए संसार से चले गए। श्रद्धांजलि 🔷

गुरुवार, 5 जून 2025

जबलपुर की सुभाष टॉकीज और जय संतोषी मां

आज 30 मई का दिन पूरे देश और खासतौर से जबलपुर से भी जुड़ा हुआ है। ठीक 50 साल पहले 30 मई 1975 को जबलपुर सहित पूरे देश में एक फिल्म जय संतोषी मां रिलीज हुई थी। इसी साल शोले और दीवार फिल्में भी रिलीज हुईं थी। शोले तो सर्वाधि‍क कमाई करने वाली फिल्म में उस समय दर्ज हुई लेकिन जय संतोषी मां कमाई करने में नंबर पर रही थी। इस फिल्म ने अमिताभ बच्चन की दीवार से भी अध‍िक पैसा कमाया था। इस दृष्ट‍ि से जय संतोषी मां को 50 साल बाद भी सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण माना जाता है। 1975 में यह फिल्म जबलपुर की सुभाष टॉकीज में रिलीज हुई थी। 1950 के शुरुआती समय में सुभाष टॉकीज का निर्माण हुआ था। इसके संचालक सेठ गोविन्द दास व त्र‍िभुवन दास मालपाणी जैसे नगर के समृद्ध लोग थे। सुभाष टॉकीज जबलपुर की पुरानी रिहाइश में लोकप्रिय थी। उस समय सुभाष टॉकीज की छवि धार्मिक फिल्मों के छविगृह के रूप में ज्यादा रही। संत तुकाराम, हर हर महादेव या सामाजिक फिल्में प्राय: यहां लगती थीं।


1975 में जब शोले जैसी फिल्में जबलपुर के मध्य स्थित श्रीकृष्णा टॉकीज में तो दीवार ज्योति टॉकीज में लगी तब जय संतोषी मां को सुभाष टॉकीज में स्थान मिला। शोले व दीवार के सामने जनता और तो और टॉकीज वाले भी भूल गए कि जय संतोषी मां जैसी कोई फिल्म जबलपुर में लगी है। एक दो दिन तक कोई हलचल नहीं हुई लेकिन जैसे ही चार पांच दिन बीते कि लोगों खासतौर से महिलाओं का हुजूम सुभाष टॉकीज की ओर निकलने लगा।

सुभाष टॉकीज मंदिर के रूप में परिवर्तित हो गई। टॉकीज के आसपास के लोगों ने अगरबत्ती, गुड़ चना, नारियल से लेकर पूजन सामग्री बेचने लगे। महिलाएं चप्पल उतार कर टॉकीज में फिल्म देखती थीं। टॉकीज के अलावा आसपास जूते चप्पल रखने की व्यवस्था की गई। फिल्म में जब भी संतोषी माता की महिमा का गुणगान होता, दर्शक जेब से रेजगारी निकाल निछावर करना शुरू कर देते। फिल्म में संतोषी मां की भूमिका निभाने वाली अनिता गुहा वास्तविक जीवन में देवी के रूप में पूजने लगीं। वे जहां भी निकलती लोग उनके दर्शन के लिए लपक पड़ते। महिलाएं अपने बच्चे उनकी गोद में आशीर्वाद पाने के लिए डाल देते।

सुभाष टॉकीज पूरे महाकोशल अंचल में चर्चित हो गई। जबलपुर के आसपास के शहरों-कस्बों से लोग जय संतोषी मां देखने के लिए आने लगे। फिलम देखने वाले चप्पल उताकर कर सिनेमाघरों में प्रवेश करते। अपने साथ वे फूल-माला लेकर आते और फिल्म शुरू होते ही जब दूसरे ही सीन में संतोषी मां की आरती होती तो सब अपनी-अपनी आरती जलाकर आरती करना शुरू कर देते। फिल्म खत्म होने के बाद बाकायदा सिनेमाघरों के बाहर प्रसाद बंटता और पास में ही लंबी कतार दिखती, संतोषी मां की फ्रेम की हुई फोटो के साथ शुक्रवार की व्रत कथा बेचने वाले दुकानदारों की दुकान तेजी से चलने लगी। जय संतोषी मां का ऐसा आशीर्वाद रहा कि टॉकीज से जुड़े और इसके आसपास रहने वाले सभी लोग मालदार हो गए। सबसे अध‍िक टॉकीज के संचालक मालामाल हुए।

जय संतोषी मां में अनिता गुहा ने मुख्य भूमिका निभाई थी, जबकि सहायक भूमिका में आशीष कुमार, कानन कौशल, त्रिलोक कपूर थे। देश भक्ति गीत लिखने वाले प्रदीप ने गीत लिखे थे और सी. अर्जुन ने फिल्म का संगीत दिया था। 'यहां-वहां, जहां-तहां, मत पूछो कहां-कहां, हैं संतोषी मां, अपनी संतोषी मां गीत लोगों को आज भी याद है। खुद कवि प्रदीप ने फिल्म में दो गाने गाए।

जय संतोषी मां फिल्म के बाद शुक्रवार को तब चाट की दुकान की तरफ देखना भी कितना बड़ा गुनाह होता था और जो बच्चा गलती से शुक्रवार को खटाई खा भी ले, वह बेचारा हफ्तों तक इसी अपराध-ग्लानि में जीता रहता कि घर पर कहीं कुछ अशुभ न हो जाए। लोगों के घरों पर खूब पोस्टकार्ड आते। इन पोस्टकार्ड पर ऐसे ही 16 पोस्टकार्ड और लिखकर दूसरों को भेजने को कहा जाता और फिर यह चेन चलती ही रहती। हालात यहां तक आ गए थे कि डाकखानों में पोस्टकार्ड की मांग ज्यादा हो गई और आपूर्ति कम पड़ने लगी।

इस फिल्म से दूसरी धारणा यह भी टूटी कि आमतौर पर फिल्मों के दर्शक पुरुष ज्यादा है लेकिन इस फिल्म देखने वालों में महिलाओं की तादाद सबसे ज्यादा थी। अचरज इस बात का भी है इस फिल्म से पहले संतोषी माता के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते थे। इस फिल्म की कहानी, गीत-संगीत ने जनोन्माद पैदा कर दिया। एक किस्म का धार्मिक पुनर्जागरण दिखाई दिया था। जय संतोषी मां फिल्म सिर्फ 12 लाख रूपए में बनी और इसने 25 करोड़ रूपए से ज्यादा कमाया। बताया जाता है कि सुभाष टॉकीज में जय संतोषी मां 25 सप्ताह से ऊपर तक चली।

जबलपुर में सुभाष टॉकीज को जब भी याद किया जाता है तो यह कहकर कि वही टॉकीज जिसमें जय संतोषी मां लगी थी। सुभाष टॉकीज से लोगों की याद से जुड़ी हुई हैं। नब्बे के दशक में जब सिंगल स्क्रीन बंद होना शुरु हुए तब सुभाष टॉकीज को इसके संचालकों ने बेच दिया और अब वहां एक मार्केट बन गया।


पुनश्च-सुभाष टॉकीज के बारे में लिखा जाते वक्त टॉकीज की फोटो दूंढ़ने का खूब प्रयास किया गया। इसके तत्कालीन संचालकों के वंशजों से फोटो की तहकीकात की गई। हर जगह निराशा ही मिली। पत्रकार सत्यम तिवारी के प्रयास से जबलपुर के प्रथम फिल्म पोस्टर व बैनहर बनाने वाले 'कुमार साहब' के पुत्र राजेश सालुंके से बातचीत हुई। कुमार साहब व उनके पुत्र मोहम्मद रफी के अनन्य भक्त। कुमार साहब ने छठे दशक में जबलपुर में रफी साहब को जबलपुर बुलाया था। राजेश सालुंके ने सुभाष टॉकीज की पुरानी फोटो कुमार साहब के संग्रह से उपलब्ध कराई। सत्यम तिवारी व राजेश सालुंके को आभार और कुमार साहब को श्रद्धांजलि।
🔷

मंगलवार, 21 जनवरी 2025












(मनोहर नायक से प्रत्यक्ष या फोन पर जब भी जबलपुर की बातचीत होती थी तब एक नाम बार-बार आता था-शिब्बू दादा। शिब्बू दादा को मैंने सबसे पहले पत्रकार नलिनकांत बाजपेयी के लाल कुआं हनुमानताल के घर में सुना था। उनके गायन को देर तक सुना गया और वहां मौजूद किसी भी व्यक्ति की इच्छा थी कि उनका गायन खत्म ही नहीं हो चलता रहे। इसके बाद कुछ और मौकों पर शिब्बू दादा का गायन सुना। मनोहर नायक से उनकी विशिष्टताओं की जानकारी मिलती थी। शिब्बू दादा जबलपुर में वाचिक परंपराओं में जीवित थे। कभी उनके बारे में विस्तार से नहीं लिखा गया। उनके जैसे और व्यक्तित्वों पर भी नहीं लिखा गया। क्यों नहीं लिखा गया यह एक अलग विषय है, जबकि शिब्बू दादा के नजदीकियों में जबलपुर के कई वरिष्ठ पत्रकार व लेखक रहे। इस बार 4 जनवरी को शिब्बू दादा का जन्मदिन मनाया गया। जन्मदिन मनाने का उद्देश्य था कि कलाकार कभी मृत नहीं होता वह हर समय जीवित रहता है। इस आयोजन मैं मुझे बोलने की जिम्मेदारी दी गई। ऐसे कार्यक्रम में सीमित समय में विस्तृत बोलना संभव नहीं होता है। विचार आया कि जितना भी संभव हो शिब्बू दादा पर लिखा जाए। पूरे संदर्भ का श्रेय मनोहर नायक को है। यह मेरा मूल लेख नहीं है दरअसल यह मनोहर नायक से समय-समय पर की गई बातचीत का निचोड़ है। मनोहर नायक के आभार के साथ शिब्बू दादा के अनोखे व्यक्तित्व को जानिए।)


जैसी साफ सुथरी वेशभूषा वैसा ही साफ सुथरा जीवन जीने वाले शिब्बू दादा

 शिब्बू दादा का जन्म दिवस पिछले दिनों (4 जनवरी को) उनसे स्नेह करने वालों ने मनाया। शिब्बू दादा को आज भले जबलपुर की नई पीढ़ी न जानती-पहचानती हो लेकिन छठे दशक से उनकी मृत्यु तक जुड़े लोगों के दिल में वे धड़कते रहते थे। दरअसल शिब्बू दादा जबलपुर की उस नर्बदा परंपरा के प्रतीक थे जिसके भीतर प्रेम, आत्मीयता, लगाव और युवाओं को प्रोत्साहन देने जैसे भाव थे। शिब्बू दादा के यह भाव जिंदगी भर बने रहे। वैसे उनका नाम शिव कुमार शुक्ला था लेकिन स्वभाव, सर्वमान्य व वरिष्ठ होने के कारण सबके लिए वे शिब्बू दादा ही थे।

 जबलपुर में संगीत की दो धाराएं शास्त्रीय व सुगम साथ-साथ चलीं हैं। दोनों धाराओं ने एक दूसरे का सम्मान किया। शिब्बू दादा जबलपुर की सुगम संगीत के 'दादा' यानी कि शिखर पुरुष रहे। यह अज़ीब बात है कि उन्होंने संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली लेकिन मधुर आवाज़, गीत व संगीत की सहजता और कोई नाज-नखरे न होने से वे जीवन भर लोकप्रिय बने रहे। वे कव्वाली गाया करते थे। जबलपुर के शायर नश्तर की मां नज्म को जब वे मंच पर गाते थे तब सुनने वालों की जबान से सिर्फ वाह-वाह ही निकलता था। एक बार जबलपुर के निकट गोटेगांव कस्बे में उनका कार्यक्रम था तब मंच के पास घूंघट डाले महिलाओं ने फरमाइश की- '' दादा मां तो सुना दो।'' शिब्बू दादा बाद के दिनों में भजन व भक्ति गीत गाने लगे थे। गायन में उनका साथ लम्बे समय तक शशि नगाइच, रवि श्रीवास्तव, जितेन्द्र शुक्ला (जित्तू) ने दिया और ढोलक में कल्लू संगत दिया करते थे। शिब्बू दादा संगीत व गायन के लिए प्रेरित थे लेकिन खेलों व फिल्मों में उनका बड़ा रूझान था।

 शिब्बू दादा जबलपुर के दीक्षितपुरा के वाशिन्दे थे। रामेश्वर प्रसाद गुरू के घर के दाएं ओर गली में उनका घर था। पत्रकार व लेखक शारदा पाठक उनके घनिष्ठ मित्र थे। कॉलेज में रजनीश उनके सीनियर थे और हनुमान प्रसाद वर्मा ने डीएन जैन कॉलेज में उनको पढ़ाया था और शिब्बू दादा उनके मुरीद थे।

 शिब्बू दादा की लोकप्रियता के अनेक कारण थे। वे जबर्दस्त अड्डेबाज थे। जबलपुर के चौगड्डे-चौगड्डे (चौराहों) में उनकी नियमित बैठक जमती थी। घर से साइकिल निकलती तो एक से एक अड्डे से दूसरे अड्डे और न जाने पूरे शहर में घूमते हुए शिब्बू दादा निकल पड़ते थे। उनका प्रसन्नचित रहना और ठहराव व धैर्यवान स्वभाव किसी को नाराज नहीं करता था। शहर भर के अड्डों में जमे लोग चाहते थे कि शिब्बू दादा उन लोगों के साथ ज्यादा देर तक बैठकर गप्पियाएं। शिब्बू दादा किसी को निराश नहीं करते थे। वे प्रेमी स्वभाव के भावुक व्यक्ति थे। वैसे भी जीवन भर उन्होंने किसी को भी निराश व नाराज नहीं किया। प्रकृति से चंचल व मस्तमौला शिब्बू दादा जब अपनी साइकिल से निकलते तब रास्ते भर उनके जानने पहचानने वाले मिल जाते थे। जबलपुर में चुनावी सभाओं, मुशायरा, कवि सम्मेलन, खेल के मैचों में उनकी मौजूदगी रहती थी। शिब्बू दादा की वेशभूषा साफ सुथरी थी वैसा ही उनका पूरा जीवन साफ सुथरा रहा।

 शिब्बू दादा की मित्र मंडली वृहद थी लेकिन पुरूषोत्तम शर्मा, देवी मास्साब, बंशू मास्साब, ओंकार रावत उनके अभिन्न थे। शिब्बू दादा मिष्ठान के साथ भांग के शौकीन थे। शंकर पहलवान के यहां भांग का इंतजाम रहा करता था। वैसे अंदरून जबलपुर के दीक्षितपुरा, सुनरहाई, नुनहाई, तिलक भूमि की तलैया, कमानिया, फव्वारा, निवाड़गंज, मिलौनीगंज, अंधेरदेव इलाकों में उनके अड्डे, मित्र, मिष्ठान व भांग सब कुछ उपलब्ध रहते थे। नुनहाई में दालचंद सराफ के दामाद शिव प्रसाद सोनी उनके परम मित्र थे। सोनी जी के यहां शिब्बू दादा का बड़ा अड्डा जमता था। जबलपुर के श्रेष्ठ बांसुरी वादक चंदू पार्थसारथी के साथ महफ़िल जमती थी। घंटों गायन-वादन चलता रहता था। ऐसी महफ़िल में शिब्बू दादा किस्से कहानी और चुटकुले सुनाते थे। यह सब उनको पसंद था। उनकी चिट्ठियों का लेखन अद्भुत रहता था। चिट्ठियों में शहर का पूरा वृत्तांत रहता था। जिस व्यक्ति को चिट्ठी लिखी जाती थी उसे शिब्बू दादा के हवाले से शहर की पल-पल की खबर मिल जाती थी।

 शिब्बू दादा की युवाओं से दोस्ती रहती थी। युवा उनको बेहद पसंद करते थे और शिब्बू दादा उनमें लोकप्रिय थे। शिब्बू दादा युवाओं और खासतौर से युवा कलाकारों को प्रोत्साहित करते थे। हुनरमंद को मंच देने में वे आगे रहते थे। खाने पीने के शौकीन तो थे ही शिब्बू दादा लेकिन उन्होंने अपने समय में कितने बेरोजगारों को बड़कुल की खोवे की जलेबी और निवाड़गंज में समोसे खिलवाए न होंगे। शिब्बू दादा मिष्ठान व नमकीन का धीमे-धीमे रस लेकर आनंद लिया करते थे। इस प्रकार का ठहराव चाहे वह स्वभाव का हो या गायन-वादन का या स्वाद लेने का हो वह बेहद कम लोगों में देखने को मिलता है।

 शिब्बू दादा वैसे तो भारतीय रेल में नौकरी करते थे। नौकरी में उनकी तैनाती टिकट खिड़की पर थी। उस समय जबलपुर का रेलवे स्टेशन और प्लेटफार्म उतना विशाल व भव्य नहीं था जितना आज है। शिब्बू दादा की टिकट खिड़की बिल्कुल सामने की ओर थी इसलिए वे खिड़की से स्टेशन पर आने-जाने वाले पर सतर्क निगाह रखते थे। उनकी नज़रों से कोई बच नहीं पाता था। शिब्बू दादा को जबलपुर रेलवे स्टेशन में शहर का 'ब्रांड एम्बेसेडर' कहना ज्यादा बेहतर होगा। उनको खबर रहती थी कि शहर की विभूतियों में से कौन किस गाड़ी से जा रहा है और कौन आ रहा है। जबलपुर स्टेशन बंबई-कलकत्ता ट्रेन रूट का महत्वपूर्ण पड़ाव था। शिब्बू दादा को यह जानकारी भी रहती थी कि किस ट्रेन से कौन सा क्रिकेट खिलाड़ी, साहित्यकार, फिल्मी कलाकार या राजनेता जबलपुर स्टेशन से गुजरने वाला है।

 शिब्बू दादा बाहर से आने वाली ऐसी किसी भी विभूति का स्टेशन पर स्वागत करते थे। उनका स्वागत का तरीका भी अनोखा था। पारम्परिक स्वागत के साथ विभूति को बड़कुल की खोवे की जलेबी खिलाई जाती थी। ऐसे मौके पर शिब्बू दादा और उनके अनुयायी युवाओं की फौज भी रहती थी। उस समय सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले 'नवभारत' में खबर छपती कि शिब्बू दादा द्वारा स्टेशन पर खोवे की जलेबी से स्वागत किया गया। एक किस्सा ऐसा ही था और उसका सार यह था कि उन दिनों इलाहाबाद में लाल बहादुर शास्त्री क्रिकेट टूर्नामेंट हुआ करता था। इसमें पूर्व और वर्तमान क्रिकेट खिलाड़ियों की मिली जुली टीम के बीच मुकाबला होता था। बंबई से पॉली उमरीगर, चंदू बोर्डे, किरमानी और अन्य खिलाड़ी बंबई से इलाहाबाद जा रहे थे। शिब्बू दादा ने उनका स्वागत खोवे की जलेबी से किया और मनोहर नायक ने पान पेश किए। इस स्वागत-सत्कार की खबर 'नवभारत' में छपी।

फिल्म अभिनेता प्रेमनाथ तो कई बार अपने गृह नगर जबलपुर की यात्रा के दौरान और वापस बंबई जाते वक्त शिब्बू दादा से मिलने स्टेशन की टिकट खिड़की पर पहुंच जाया करते थे। एक बार बचपन में ऋषि कपूर अपने भाई बहिनों व मां कृष्णा कपूर के साथ ननिहाल आए तो शिब्बू दादा उनको टिकट खिड़की पर ले आए और उनका स्वागत दादा स्टाइल में किया गया। प्रेमनाथ की अंतरंगता के कारण जबलपुर में एम्पायर टॉकीज के बाजू वाले बंगले में कई बार शिब्बू दादा की गीत संगीत की महफ़िलें जमीं।

 शिब्बू दादा की मित्रता जबलपुर तक सीमित नहीं थी। उनके मित्र बंबई के टेस्ट क्रिकेट अम्पायर अहमद मोहम्मद मामसा हुआ करते थे। बंबई में जब भी टेस्ट मैच होता तो एम्पायर मामसा के सौजन्य से शिब्बू दादा पूरी तैयारी से पांच दिनों के लिए बंबई पहुंच जाते। उनके एक दोस्त मानिकपुर के स्टेशन मास्टर थे। वह भी उनके साथ कई बंबई दौरे में साथ हो लिया करते थे।

 किसी भी खेल के मैच का लुफ्त उठाने के साथ साथ शिब्बू दादा फिल्म देखने के शौकीन थे खासतौर से राज कपूर की फिल्मों के। किसी भी शहर जाते तो वहां कोई न कोई फिल्म ज़रूर देखते। एक बार जबलपुर के हजारी परिवार की बारात में झांसी गए। साथ में आदत के मुताबिक युवा साथियों को साथ ले जाने की बात हुई लेकिन इस शर्त के साथ कि उनके साथ दो ही लोग जाएंगे। बारात में शिब्बू दादा के साथ उनके पसंदीदा मनोहर नायक व अशेष गुरू गए। जबलपुर से बारात अगले दिन झांसी पहुंच गई। रात में शादी थी, सोचा तांगे से शहर भी घूम लिया जाए और दिन में कोई फिल्म भी देख ली जाए। तांगे में झांसी शहर घूमते हुए हादसा यह हो गया कि अचानक घोड़ा बैठ गया और बैठी सवारी पलट गईं। खैर कोई गंभीर घटना नहीं हुई और शिब्बू दादा व उनके दोनों साथियों ने श्याम बेनेगल की 'अंकुर' देख ली।

 जिस समय जबलपुर में शिब्बू दादा सुगम संगीत के शीर्ष पर थे उसी समय लुकमान का भी ढंका बज रहा था। दोनों गायक एक दूसरे का सम्मान करते थे। दोनों गायकों की दुनिया अलग थी। लुकमान का चयन अदबी था और शिब्बू दादा में सामान्य जन शामिल थे। लुकमान ''खास' के और शिब्बू दादा' आम' के गायक थे। कहा जाता है कि जबलपुर की राजनीति में जो हैसियत भवानी प्रसाद तिवारी ने अर्जित की थी वही हैसियत शिब्बू दादा ने जबलपुर के सुगम संगीत क्षेत्र में हासिल की।

 


खि‍लंदड़, खांटी, जीवंत और वैचारिकी से मजबूत सीताराम सोनी ने नुक्कड़ नाटक और जनगीत को कैसे बनाया लोकप्रिय

  सीताराम सोनी जैसे खि‍लंदड़ , खांटी , जीवंत और वैचारिकी से मजबूत व्यक्ति के जीवन का पटाक्षेप ऐसा होगा इसके बारे में किसी ने कभी सोचा नहीं थ...