बुधवार, 16 जुलाई 2025

कौन थे घमंडी महाराज जिनके नाम से जबलपुर के एक चौक का नाम घमंडी पड़ा

जबलपुर में वैसे तो कई चौक हैं लेकिन लार्डगंज थाना से बड़ा फुहारा मार्ग के बीच में सिर्फ एक चौराहा है जिसे सब लोग घमंडी चौक के नाम से जानते व पहचानते हैं। जिस स्थान पर घमंडी चौक है वहीं 14 अगस्त 1942 को गुलाब सिंह 16 साल की उम्र में शहीद हुए थे। वर्तमान में जब भी आजादी के किस्से सुनाए और छापे जाते हैं जिक्र आता है कि गुलाब सिंह घमंडी चौक पर शहीद हुए थे। जब यह घटना हुई थी तब उस स्थान का नाम घमंडी चौक प्रचलन में नहीं आया था।   

      यह वही घमंडी चौक है जहां राजनेता शरद यादव देवा मंगोड़े वाले के यहां बैठकी करते थे। शरद यादव राष्ट्रीय क्ष‍ितिज पर चमकने लगे थे लेकिन जब भी वे जबलपुर आते तब वे एक बार जरूर देवा मंगोड़े वाले के यहां मंगोड़े खाते थे। जबलपुर के मूल वाश‍िन्दों के अलावा बाहर के लोगों के मन में यह उत्सुकता रहती है कि चौक वह भी घमंडी नाम का। इसकी कहानी सिंचाई विभाग में मुख्य अभ‍ियंता के पद पर कार्यरत रहे एमजी चौबे ने सुनाई। 

चौबे परिवार में सन् 1918 में यह स्थिति बनी कि महिला के नाम पर केवल उनकी दादी कौशल्या चौबे ही शेष रहीं। परिवार के नाम पर एक अविवाहित देवर, दो पुत्र स्वयं के, एक पहली पत्नी का और दो एक अन्य देवर के थे। इस प्रकार पांच बच्चों का लालन-पालन चौबे परिवार की दादी ने किया। जबलपुर के उपनगर खमरिया के पास झिरिया गाँव में सभी सम्मिलित रहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जमीन आदि सरकार ने खमरिया फैक्ट्री के निर्माण के लिए अधिग्रहित कर ली। मजबूरन परिवार को जबलपुर आना पड़ा। परिवार जबलपुर में घने बसे दीक्ष‍ितपुरा में रहने लगा। एमजी चौबे के पिताजी के चचेरे भाई थे चेतराम चौबे व घनश्याम दास चौबे। सभी पाँचों भाईयों को पहलवानी का बेहद शौक था। 

घनश्याम दास चौबे भी पहलवानी करते थे और जीवन भर अविवाहित रहे। वे बचपन से ही सदैव हड़बड़ी व जल्दबाजी रहते थे। चौबे परिवार की दादी की बात किसी ने सुनी होगी तो उसके अनुसार घनश्याम चौबे जब भोजन करने बैठते तो उंगलियों से तबला बजाते रहते थे और भोजन के लिए ‘’जल्दी करो.....कितनी देर और लगेगी’’ जैसे वाक्य लगातार बोलते रहते थे। उनकी इस आदत के कारण दादी उनको घमंडी कहकर बुलाती थीं। धीरे-धीरे घर में और उन्हें जानने पहचानने वाले लोग उन्हें घमंडी के संबोधन से पुकारने लगे। घनश्याम चौबे जब युवा हुए और वयस्कता की ओर कदम बढ़ाने लगे तब लोगों ने उन्हें घमंडी महाराजका संबोधन दिया। 

 घनश्याम चौबे उर्फ घमंडी महाराज ने चौक के नजदीक बड़ा फुहारा के ओर अग्रवाल होजि‍यरी के बाजू में सूर्य विजय होटल खोल ली और उसका संचालन करने लगे। तब तक लोगों ने घनश्याम चौबे कहना छोड़ दिया था उनका नाम ही घमंडी हो गया। उनके नाम के कारण चौक या चौराहा का नाम घमंडी चौक पड़ गया और जो एक बार नाम पड़ा और अब तक लोगों की जुबान पर है। चौबे परिवार के बच्चे उन्हें घम्मी कक्का कहते थे। 

घनश्याम चौबे उर्फ घम्मी कक्का उर्फ घमंडी महाराज का निवास महाकौशल स्कूल के पीछे था। उनके मकान के चार ब्लाक थे। एक में खुद रहते थे और शेष तीन में किरायेदार। घमंडी महाराज कभी मुंबई गए होंगे तो वहां से एक अनाथ बच्चे को ले आए। वही उनकी देखभाल करता था। उसका नाम उन्होंने बद्री रखा था। चौबे परिवार की दादी बद्री नाम का संबोधन कभी नहीं करती थी। दरअसल चौबे परिवार के दादा जी यानी कि दादी के पति का नाम बद्री प्रसाद चौबे था। बच्चा बद्री अच्छा नर्तक था। बच्चों की फरमाइश पर उस समय प्रचलित जंगली फिल्म के गाने आईय या सुकू शुकू .. करू मैं क्या सुकू सुकू ... हो गया दिल मेरा सुकू सुकू.... कोई मस्ताना कहे कोई दीवाना कहे  कोई परवाना कहे, जलने को बेकरार....चाहत का मुझ पे असर मैं दुनिया से बेखबर...चलता हूं अपनी डगर...मंजिल है मेरी प्यार पर शानदार डांस करता था। 

घमंडी महाराज का वर्ष 1961 में अस्थमा के कारण निधन हो गया। उनके निधन के उपरांत घमंडी महाराज की सारी संपत्ति उनके सगे बड़े भाई, शेखर चौबे के पिता चेतराम चौबे को विरासत में मिली। विरासत में एक मोटर साइकिल भी मिली थी एजेएस। उसकी पेट्रोल टंकी पर गियर का लीवर लगा था। 

घमंडी महाराज के परिवार के रामेश्वर चौबे सुबह से शाम तक सुपर मार्केट काफी हाउस में मौजूद रहते हैं। काफी हाउस एक तरह से अव‍िवाहित रामेश्वर चौबे का घर जैसा ही है। काफी हाउस के तमाम कार्मिक उनका ख्याल रखते हैं। उनकी बड़ी मूंछे बरबस काफी हाउस में आने वालों का ध्यान आकर्ष‍ित कर लेती है। रामेश्वर चौबे भी किसी महाराज से कम नहीं हैं। 

घमंडी महाराज को गुजरे पचास साल बीत गए लेकिन घमंडी चौक से लाखों लोग गुजरते हैं किसी को याद नहीं आती और न ही याद आते हैं घनश्याम चौबे उर्फ घम्मी कक्का उर्फ घमंडी महाराज।🔷


    


गुरू दत्त, कागज़ के फूल और जबलपुर के सिनेमाघर

 

प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक व अभ‍िनेता गुरू दत्त का आज 9 जुलाई को जन्मदिन है। इस प्रकार आज से गुरू दत्त के जन्म शताब्दी वर्ष की शुरुआत हो रही है। गुरू दत्त को उनकी फिल्म कागज के फूल, प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम, चौदहवीं का चांद के कारण याद किया जाता है। कागज़ के फूल पहली भारतीय सिनेमास्कोप फिल्म और गुरू दत्त द्वारा आधिकारिक रूप से निर्देशित अंतिम फ़िल्म है। कागज़ के फूल में गुरू दत्त के साथ वहीदा रहमान मुख्य भूमिका में थीं। कागज़ के फूल जबलपुर के सिनेमाघरों में प्रदर्शन के रोचक किस्से हैं। इन किस्सों का पूरा श्रेय एम्पायर टॉकीज के मैनेजर रहे दुर्गा प्रसाद (डीपी) बाजपेयी को है।
1959 में जब कागज़ के फूल रिलीज हुई तो यह जबलपुर के श्रीकृष्णा टॉकीज में प्रदर्श‍ित हुई। उस समय फिल्म का विषय लोगों को पसंद नहीं आया और यह कहानी जबलपुर में दोहराई गई। पांच-सात दिन में ही फिल्म उतर गई और इसे जबलपुर के अंदरून इलाके की सुभाष टॉकीज में स्क्रीन मिली। यहां भी कागज़ के फूल मुश्किल से चार-पांच दिन ही चल पाई। जबलपुर में कागज़ के फूल जलगांव के वसंत पिक्चर्स के जरिए डिस्ट्रीब्यूट हुई थी।

दो टॉकीजों में असफल प्रदर्शन के बाद कागज़ के फूल को अपनी टॉकीज में लगाने का निर्णय जबलपुर के पॉश क्षेत्र में स्थित डिलाइट टॉकीज के प्रबंधन ने लिया। एम्पायर के साथ डिलाइट टॉकीज में प्राय: अंग्रेजी फिल्में प्रदर्श‍ित होती थीं। सिनेमा के शौकीन चौंक गए। उन लोगों को समझ में नहीं आया कि डिलाइट टॉकीज में गुरू दत्त की फिल्म कागज़ के फूल को दो टॉकीज में उतारने के बाद पुन: लगाने का निर्णय क्यों लिया गया? खैर कागज़ के फूल डिलाइट टॉकीज में लगी। इसका प्रदर्शन कैसा रहा इसकी जानकारी देने के पूर्व यह जान लेना भी मुनासिब होगा कि उस समय यानी कि पांचवे दशक से छठे दशक तक जबलपुर में टॉकीजों में सिर्फ दो शो में ही फिल्म का प्रदर्शन होता था। पहला शो शाम को 6 से 9 का दूसरा शो 9-12 का रहता था। शनिवार व रविवार को कोई भी फिल्म मेटिनी शो में भी चलती थी।

डिलाइट टॉकीज में कागज़ के फूल पुन: लगाई गई। आप लोगों को आश्चर्य होगा कि डिलाइट टॉकीज में इस फिल्म ने श्रीकृष्णा व सुभाष टॉकीज की कुल टिकट ख‍िड़की से ज्यादा की कमाई की। लोग चकित रह गए। वैसे कागज़ के फूल डिलाइट टॉकीज में लगभग एक सप्ताह से ज्यादा तक चली। डीपी बाजपेयी ने इसकी वजह बताई कि डिलाइट टॉकीज में फिल्म देखने वाला दर्शकों का वर्ग अलग तरह का था।

उस समय जबलपुर में जनसंख्या के हिसाब से हिन्दी फिल्मों के दर्शक सिर्फ एक-दो फीसदी थे। वहीं रीजनल यानी की क्षेत्रीय सिनेमा के दर्शकों की संख्या आबादी की दृष्टि‍ से 10 फीसदी तक रहती थी। यदि तमिल फिल्म प्रदर्श‍ित होती थी तो उस समय जबलपुर में रहने वाला पूरा तमिल समुदाय फिल्म को परिवार के साथ देखने ज़रूर जाता था। एम्पायर व डिलाइट टॉकीज में प्रदर्श‍ित होने वाले रीजनल सिनेमा का अपना जलवा होता था।

जैसा कि पूर्व में बताया गया कि कागज़ के फूल प्रथम भारतीय सिनेमास्कोप फिल्म थी इसलिए फिल्म की रील के साथ डिस्ट्रीब्यूटर फिल्म प्रोजेक्शन के लिए सिनेमास्कोप के लेंस भेजते थे। एम्पायर व डिलाइट टॉकीज में प्राय: अंग्रेजी फिल्में लगती थीं और यह सिनेमास्कोप में रहती थी इसलिए दोनों टॉकीजों के पास स्वयं के सिनेमास्कोप लेंस हुआ करते थे। बाद के दिनों में एम्पायर टॉकीज प्रबंधन ने एक और लेंस खरीद लिया।

जबलपुर की टॉकीजों से जलगांव के डिस्ट्रीब्यूटर वसंत पिक्चर्स का गहरा संबंध रहा है। इसके मालिक चंदनमल लुंकड़ थे। बताया जाता है कि लुंकड़ परिवार का उस समय के लक्ष्मी बैंक के संचालन से नाता था। वसंत पिक्चर्स शुरु से श्रीकृष्णा व सुभाष टॉकीज किराये से चलाते थे। वसंत पिक्चर्स सीपी-बरार क्षेत्र के डिस्ट्रीब्यूटर थे। डिस्ट्रीब्यूटर और किराये से श्रीकृष्णा व सुभाष टॉकीज चलाने के कारण कागज़ के फूल इन सिनेमाघरों में लगी थी।

1980 के दशक में कागज़ के फूल फिल्म को एक कल्ट क्लासिक के रूप में पुनर्जीवित किया गया। इस बार भी डिस्ट्रीब्यूटर जलगांव के वसंत पिक्चर्स थे। एम्पायर टॉकीज के मैनेजर डीपी बाजपेयी कागज़ के फूल को एम्पायर टॉकीज में इसे रि-रिलीज करने का निर्णय लिया। वसंत पिक्चर्स और एम्पायर टॉकीज के बीच एग्रीमेंट हुआ जिसमें कागज़ के फूल को तीन-चार सप्ताह लगाने का जिक्र था। एम्पायर टॉकीज के मैनेजर डीपी बाजपेयी ने लौटती डाक से एग्रीमेंट भेजा लेकिन उसमें सुधार कर लिखा गया कि तीन-चार दिन तक फिल्म चलाने के लिए सहमत हैं। खैर बात यहां आकर सहमत हुई कि जितने भी दिन होगा कागज़ के फूल एम्पायर टॉकीज में चलेगी। एम्पायर टॉकीज में दोपहर 12 बजे के सिंगल शो में कागज़ के फूल को लगाया गया। फिल्म चली खूब चली। कहां बात सिर्फ तीन-चार दिन की थी कागज़ के फूल एम्पायर टॉकीज में चार सप्ताह तक चली। खूब कलेक्शन आया। दर्शकों ने कागज़ के फूल को खूब प्यार दिया। इससे पूर्व एम्पायर टॉकीज में गुरू दत्त की प्यासा भी रि-रिलीज में खूब चली थी। कागज़ के फूल फिल्मको भारत में बनी अब तक की सबसे बेहतरीन आत्म-चिंतनशील फिल्म माना जाता है।

वक़्त ने किया क्या हंसीं सितम
तुम रहे न तुम हम रहे न हम
वक़्त ने किया...
बेक़रार दिल इस तरह मिले
जिस तरह कभी हम जुदा न थे
तुम भी खो गए, हम भी खो गए
एक राह पर चलके दो क़दम
वक़्त ने किया...
जाएंगे कहाँ सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं दिल ख़्वाब दम-ब-दम
वक़्त ने किया...

डीपी बाजपेयी का कहना है कि जगत और जीवन का सत्य ही था- कागज़ के फूल।

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

उनके कंधे पर अंतिम समय तक टंगा रहा कैमरा

आज सुबह यानी कि 4 जुलाई 2025 को जिस प्रकार बरसात हो रही है वह मीडिया के लिए आज व कल सुर्खी ज़रूर बनेगी। घर के भीतर से बाहर देखते हुए गत दिवस दिवंगत हुए नितिन पोपट का चेहरा याद आने लगा। याद आने लगे वह दृश्य जब छायाकार नितिन पोपट ज्यादा बरसात में जबलपुर के उन निचले इलाकों में जहां पानी भरा रहता था वहां पेंट घुटने तक मोड़ कर अपने कैमरे में तस्वीर कैद करने लगते थे। जबलपुर की ठेठ बोली में लिखें तो वे दिलेर, दबंग, स्पष्टवादी, मेहनत से खींची गई अपनी फोटो को अखबार में जगह दिलाने के लिए मुठभेड़ करने वाले व्यक्ति थे। वे अपनी फोटो को अखबार में छपवाने के लिए अखबार के संपादकीय कर्मियों व संपादक से बहस तक कर लेते थे। नितिन पोपट ने प्रेस फोटोग्राफी कभी व्यावसायिक रूप से नहीं की। सातवें दशक से 2017 तक वे छायांकन एक मिशन के रूप में करते रहे। व‍िभ‍िन्न घटनाओं की फोटो लेकर वे जबलपुर के सभी अखबारों को निस्वार्थ रूप से भेज देते थे। कैमरा का बेग उनके कंधे से कभी उतरा नहीं। बाद के दिनों में जब उन्होंने फोटोग्राफी करना छोड़ दिया तब भी कैमरा उनके कंधे पर लटकता रहता था। नितिन पोपट अपने साथ काम करने वाले छायाकार को गुरू मंत्र के रूप में यही संदेश देते थे कि कंधे पर कैमरा हर समय टंगे रहना चाहिए। नितिन पोपट के जीवन में कैमरे के अलावा दूसरी चीज नहीं छूटी वह उनकी मोपेड थी। लम्बे समय तक सुवेगा मोपेड में बैठकर वे जबलपुर की सड़कों पर फोटो की तलाश में घूमते रहे। बाद में यह सुवेगा मोपेड को उन्होंने छायाकार मदन सोनी को दे दी और नई मोपेड ले ली। मोपेड के अलावा वे कभी दूसरे वाहन में नहीं चले। 


नितिन पोपट प्रेस फोटोग्राफी करते रहे इसलिए उनकी फोटोग्राफी में छायांकन का सौन्दर्य तो नहीं रहता था लेकिन तत्कालिकता, सजग दृष्ट‍ि, न्यूज सेंस उनका अद्भुत था। वे फोटोग्राफी सौन्दर्य के जबर्दस्त पक्षधर थे, इसलि‍ए जबलपुर की रानी दुर्गावती कला वीथि‍का में लगने वाली प्रत्येक फोटो प्रदर्शनी में पहुंचने वाले वे पहले व्यक्ति होते थे। नितिन पोपट अपने से पूर्व व बाद की पीढ़ी के छायाकार शश‍िन् यादव, हरि महीधर, रजनीकांत यादव, डा. जेएस मूर्ति के छायांकन की प्रशंसा करते थे और इन सबको खूब सम्मान देते थे।


विल्स सिगरेट का कश लेने के शौकीन और कड़क काफी पीने वाले नितिन पोपट ने जयंती टॉकीज (पूर्व में प्लाजा) के सामने अपने आफ‍िस व हर्षा प्रिंटर के डॉर्क रूम में किसी को प्रविष्ट नहीं होने दिया। ब्लेक एन्ड व्हाइट फोटोग्राफी के समय में नितिन पोपट स्वयं डॉर्क रूप में काम करना पसंद करते थे। वे फोटो की प्रोसेसिंग व डेव्लपिंग स्वयं करते थे। उनके सहायकों को इस बात की जानकारी नहीं रहती थी कि कौन सी फोटो उस समय नवभारत, नवीन दुनिया, देशबन्धु या युगधर्म में छपने के लिए भेजी जाएगी। नितिन पोपट फोटोग्राफी में इतने रम गए थे कि उन्हें अपने हर्षा प्रिंटर की कभी कोई ध्यान नहीं रहा। कम मात्रा या परिमाण में उनका विश्वास नहीं था इसलिए वे फिल्म के रोल और फोटो को प्रिंट करने के पेपर बड़ी संख्या में आर्डर करते थे। जिस समय ऑफसेट प्रिटिंग का चलन नहीं था तब स्वयं जेब से खर्च करके फोटो के ब्लॉक बनवाते और प्रेस में देकर आते थे। इस सदाशयता में उनकी हर्षा प्रिंटर सर्वाध‍िक रूप से प्रभावित हुई। यह भी दुख की बात है कि नितिन पोपट ने जिन अखबारों को फोटो उपलब्ध कराने के लिए दिन रात एक किया और आंधी बरसात की चिंता नहीं कि उन्होंने नितिन पोपट को एक्र‍िड‍िएशन या मान्यता प्रदान करने वाली एक अदद चिठ्ठी देने में कभी रुचि नहीं दिखाई। नितिन पोपट जिंदगी भर एक्र‍िड‍िएशन प्राप्त करने के लिए परेशान रहे।   


छायाकार नितिन पोपट को जबलपुर की एक पहचान व ब्रांड भी कहा जा सकता है। जब भी जबलपुर में  राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, कला क्षेत्र की कोई विभूति जबलपुर आती थी तब उसकी मुलाकात नितिन पोपट से अवश्य होती थी। यदि विभूति का पहली बार जबलपुर आगमन होता था, तो दूसरी बार जबलपुर आने पर उनकी निगाह नितिन पोपट को ज़रूर दूंढ़ती थी। राष्ट्रीय स्तर की सैकड़ों विभूतियों से नितिन पोपट के व्यक्तिगत संबंध थे। कवि नीरज से नितिन पोपट की प्रगाढ़ता जग जाहिर थी। ब्रांड के रूप में नितिन पोपट इसलिए याद आते हैं क्योंकि जब उनका श‍िखर था तब बहुत से लोग नवभारत में फोटो क्रेडिट में उनका नाम देखकर विवाह समारोह में फोटो खींचने के लिए सम्पर्क करते थे। कई लोग नितिन पोपट का पता पूछते हुए जयंती टॉकीज के सामने हर्षा प्रिंटर पहुंच जाते थे। इस प्रकार का कार्य उन्होंने किया लेकिन बहुत कम। 


जबलपुर के मीडिया में छायाकारों की दूसरी पंक्ति तैयार करने में नितिन पोपट का सबसे बड़ा योगदान है। नितिन पोपट के मार्गदर्शन में बसंत मिश्रा, सुगन जाट, पप्पू शर्मा, तापस सूर, अनिल तिवारी, पंकज पारे जैसे छायाकार उभरे और उन्होंने अपना व‍िश‍िष्ट स्थान बनाया। सुगन जाट तो नितिन पोपट के डॉर्क रूम में काम करके खींची गई फोटो को अपनी कला से छायांकन की दृष्ट‍ि से दर्शनीय व सुंदर बना देते थे।  


नितिन पोपट को दिवंगत होने के बाद याद करने के कई कारण हैं। पहला तो नई पीढ़ी उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती और दूसरा उनके जैसे लोग जबलपुर में लगातार कम होते जा रहे हैं। नितिन पोपट के whatsapp प्रोफाइल में एक कोटेशन था-‘हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया’। वाकई में नितिन पोपट हर फ्रि‍क को धुएं में उड़ाते रहे और इसे उड़ाते हुए संसार से चले गए। श्रद्धांजलि 🔷

गुरुवार, 5 जून 2025

जबलपुर की सुभाष टॉकीज और जय संतोषी मां

आज 30 मई का दिन पूरे देश और खासतौर से जबलपुर से भी जुड़ा हुआ है। ठीक 50 साल पहले 30 मई 1975 को जबलपुर सहित पूरे देश में एक फिल्म जय संतोषी मां रिलीज हुई थी। इसी साल शोले और दीवार फिल्में भी रिलीज हुईं थी। शोले तो सर्वाधि‍क कमाई करने वाली फिल्म में उस समय दर्ज हुई लेकिन जय संतोषी मां कमाई करने में नंबर पर रही थी। इस फिल्म ने अमिताभ बच्चन की दीवार से भी अध‍िक पैसा कमाया था। इस दृष्ट‍ि से जय संतोषी मां को 50 साल बाद भी सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण माना जाता है। 1975 में यह फिल्म जबलपुर की सुभाष टॉकीज में रिलीज हुई थी। 1950 के शुरुआती समय में सुभाष टॉकीज का निर्माण हुआ था। इसके संचालक सेठ गोविन्द दास व त्र‍िभुवन दास मालपाणी जैसे नगर के समृद्ध लोग थे। सुभाष टॉकीज जबलपुर की पुरानी रिहाइश में लोकप्रिय थी। उस समय सुभाष टॉकीज की छवि धार्मिक फिल्मों के छविगृह के रूप में ज्यादा रही। संत तुकाराम, हर हर महादेव या सामाजिक फिल्में प्राय: यहां लगती थीं।


1975 में जब शोले जैसी फिल्में जबलपुर के मध्य स्थित श्रीकृष्णा टॉकीज में तो दीवार ज्योति टॉकीज में लगी तब जय संतोषी मां को सुभाष टॉकीज में स्थान मिला। शोले व दीवार के सामने जनता और तो और टॉकीज वाले भी भूल गए कि जय संतोषी मां जैसी कोई फिल्म जबलपुर में लगी है। एक दो दिन तक कोई हलचल नहीं हुई लेकिन जैसे ही चार पांच दिन बीते कि लोगों खासतौर से महिलाओं का हुजूम सुभाष टॉकीज की ओर निकलने लगा।

सुभाष टॉकीज मंदिर के रूप में परिवर्तित हो गई। टॉकीज के आसपास के लोगों ने अगरबत्ती, गुड़ चना, नारियल से लेकर पूजन सामग्री बेचने लगे। महिलाएं चप्पल उतार कर टॉकीज में फिल्म देखती थीं। टॉकीज के अलावा आसपास जूते चप्पल रखने की व्यवस्था की गई। फिल्म में जब भी संतोषी माता की महिमा का गुणगान होता, दर्शक जेब से रेजगारी निकाल निछावर करना शुरू कर देते। फिल्म में संतोषी मां की भूमिका निभाने वाली अनिता गुहा वास्तविक जीवन में देवी के रूप में पूजने लगीं। वे जहां भी निकलती लोग उनके दर्शन के लिए लपक पड़ते। महिलाएं अपने बच्चे उनकी गोद में आशीर्वाद पाने के लिए डाल देते।

सुभाष टॉकीज पूरे महाकोशल अंचल में चर्चित हो गई। जबलपुर के आसपास के शहरों-कस्बों से लोग जय संतोषी मां देखने के लिए आने लगे। फिलम देखने वाले चप्पल उताकर कर सिनेमाघरों में प्रवेश करते। अपने साथ वे फूल-माला लेकर आते और फिल्म शुरू होते ही जब दूसरे ही सीन में संतोषी मां की आरती होती तो सब अपनी-अपनी आरती जलाकर आरती करना शुरू कर देते। फिल्म खत्म होने के बाद बाकायदा सिनेमाघरों के बाहर प्रसाद बंटता और पास में ही लंबी कतार दिखती, संतोषी मां की फ्रेम की हुई फोटो के साथ शुक्रवार की व्रत कथा बेचने वाले दुकानदारों की दुकान तेजी से चलने लगी। जय संतोषी मां का ऐसा आशीर्वाद रहा कि टॉकीज से जुड़े और इसके आसपास रहने वाले सभी लोग मालदार हो गए। सबसे अध‍िक टॉकीज के संचालक मालामाल हुए।

जय संतोषी मां में अनिता गुहा ने मुख्य भूमिका निभाई थी, जबकि सहायक भूमिका में आशीष कुमार, कानन कौशल, त्रिलोक कपूर थे। देश भक्ति गीत लिखने वाले प्रदीप ने गीत लिखे थे और सी. अर्जुन ने फिल्म का संगीत दिया था। 'यहां-वहां, जहां-तहां, मत पूछो कहां-कहां, हैं संतोषी मां, अपनी संतोषी मां गीत लोगों को आज भी याद है। खुद कवि प्रदीप ने फिल्म में दो गाने गाए।

जय संतोषी मां फिल्म के बाद शुक्रवार को तब चाट की दुकान की तरफ देखना भी कितना बड़ा गुनाह होता था और जो बच्चा गलती से शुक्रवार को खटाई खा भी ले, वह बेचारा हफ्तों तक इसी अपराध-ग्लानि में जीता रहता कि घर पर कहीं कुछ अशुभ न हो जाए। लोगों के घरों पर खूब पोस्टकार्ड आते। इन पोस्टकार्ड पर ऐसे ही 16 पोस्टकार्ड और लिखकर दूसरों को भेजने को कहा जाता और फिर यह चेन चलती ही रहती। हालात यहां तक आ गए थे कि डाकखानों में पोस्टकार्ड की मांग ज्यादा हो गई और आपूर्ति कम पड़ने लगी।

इस फिल्म से दूसरी धारणा यह भी टूटी कि आमतौर पर फिल्मों के दर्शक पुरुष ज्यादा है लेकिन इस फिल्म देखने वालों में महिलाओं की तादाद सबसे ज्यादा थी। अचरज इस बात का भी है इस फिल्म से पहले संतोषी माता के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते थे। इस फिल्म की कहानी, गीत-संगीत ने जनोन्माद पैदा कर दिया। एक किस्म का धार्मिक पुनर्जागरण दिखाई दिया था। जय संतोषी मां फिल्म सिर्फ 12 लाख रूपए में बनी और इसने 25 करोड़ रूपए से ज्यादा कमाया। बताया जाता है कि सुभाष टॉकीज में जय संतोषी मां 25 सप्ताह से ऊपर तक चली।

जबलपुर में सुभाष टॉकीज को जब भी याद किया जाता है तो यह कहकर कि वही टॉकीज जिसमें जय संतोषी मां लगी थी। सुभाष टॉकीज से लोगों की याद से जुड़ी हुई हैं। नब्बे के दशक में जब सिंगल स्क्रीन बंद होना शुरु हुए तब सुभाष टॉकीज को इसके संचालकों ने बेच दिया और अब वहां एक मार्केट बन गया।


पुनश्च-सुभाष टॉकीज के बारे में लिखा जाते वक्त टॉकीज की फोटो दूंढ़ने का खूब प्रयास किया गया। इसके तत्कालीन संचालकों के वंशजों से फोटो की तहकीकात की गई। हर जगह निराशा ही मिली। पत्रकार सत्यम तिवारी के प्रयास से जबलपुर के प्रथम फिल्म पोस्टर व बैनहर बनाने वाले 'कुमार साहब' के पुत्र राजेश सालुंके से बातचीत हुई। कुमार साहब व उनके पुत्र मोहम्मद रफी के अनन्य भक्त। कुमार साहब ने छठे दशक में जबलपुर में रफी साहब को जबलपुर बुलाया था। राजेश सालुंके ने सुभाष टॉकीज की पुरानी फोटो कुमार साहब के संग्रह से उपलब्ध कराई। सत्यम तिवारी व राजेश सालुंके को आभार और कुमार साहब को श्रद्धांजलि।
🔷

मंगलवार, 21 जनवरी 2025












(मनोहर नायक से प्रत्यक्ष या फोन पर जब भी जबलपुर की बातचीत होती थी तब एक नाम बार-बार आता था-शिब्बू दादा। शिब्बू दादा को मैंने सबसे पहले पत्रकार नलिनकांत बाजपेयी के लाल कुआं हनुमानताल के घर में सुना था। उनके गायन को देर तक सुना गया और वहां मौजूद किसी भी व्यक्ति की इच्छा थी कि उनका गायन खत्म ही नहीं हो चलता रहे। इसके बाद कुछ और मौकों पर शिब्बू दादा का गायन सुना। मनोहर नायक से उनकी विशिष्टताओं की जानकारी मिलती थी। शिब्बू दादा जबलपुर में वाचिक परंपराओं में जीवित थे। कभी उनके बारे में विस्तार से नहीं लिखा गया। उनके जैसे और व्यक्तित्वों पर भी नहीं लिखा गया। क्यों नहीं लिखा गया यह एक अलग विषय है, जबकि शिब्बू दादा के नजदीकियों में जबलपुर के कई वरिष्ठ पत्रकार व लेखक रहे। इस बार 4 जनवरी को शिब्बू दादा का जन्मदिन मनाया गया। जन्मदिन मनाने का उद्देश्य था कि कलाकार कभी मृत नहीं होता वह हर समय जीवित रहता है। इस आयोजन मैं मुझे बोलने की जिम्मेदारी दी गई। ऐसे कार्यक्रम में सीमित समय में विस्तृत बोलना संभव नहीं होता है। विचार आया कि जितना भी संभव हो शिब्बू दादा पर लिखा जाए। पूरे संदर्भ का श्रेय मनोहर नायक को है। यह मेरा मूल लेख नहीं है दरअसल यह मनोहर नायक से समय-समय पर की गई बातचीत का निचोड़ है। मनोहर नायक के आभार के साथ शिब्बू दादा के अनोखे व्यक्तित्व को जानिए।)


जैसी साफ सुथरी वेशभूषा वैसा ही साफ सुथरा जीवन जीने वाले शिब्बू दादा

 शिब्बू दादा का जन्म दिवस पिछले दिनों (4 जनवरी को) उनसे स्नेह करने वालों ने मनाया। शिब्बू दादा को आज भले जबलपुर की नई पीढ़ी न जानती-पहचानती हो लेकिन छठे दशक से उनकी मृत्यु तक जुड़े लोगों के दिल में वे धड़कते रहते थे। दरअसल शिब्बू दादा जबलपुर की उस नर्बदा परंपरा के प्रतीक थे जिसके भीतर प्रेम, आत्मीयता, लगाव और युवाओं को प्रोत्साहन देने जैसे भाव थे। शिब्बू दादा के यह भाव जिंदगी भर बने रहे। वैसे उनका नाम शिव कुमार शुक्ला था लेकिन स्वभाव, सर्वमान्य व वरिष्ठ होने के कारण सबके लिए वे शिब्बू दादा ही थे।

 जबलपुर में संगीत की दो धाराएं शास्त्रीय व सुगम साथ-साथ चलीं हैं। दोनों धाराओं ने एक दूसरे का सम्मान किया। शिब्बू दादा जबलपुर की सुगम संगीत के 'दादा' यानी कि शिखर पुरुष रहे। यह अज़ीब बात है कि उन्होंने संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली लेकिन मधुर आवाज़, गीत व संगीत की सहजता और कोई नाज-नखरे न होने से वे जीवन भर लोकप्रिय बने रहे। वे कव्वाली गाया करते थे। जबलपुर के शायर नश्तर की मां नज्म को जब वे मंच पर गाते थे तब सुनने वालों की जबान से सिर्फ वाह-वाह ही निकलता था। एक बार जबलपुर के निकट गोटेगांव कस्बे में उनका कार्यक्रम था तब मंच के पास घूंघट डाले महिलाओं ने फरमाइश की- '' दादा मां तो सुना दो।'' शिब्बू दादा बाद के दिनों में भजन व भक्ति गीत गाने लगे थे। गायन में उनका साथ लम्बे समय तक शशि नगाइच, रवि श्रीवास्तव, जितेन्द्र शुक्ला (जित्तू) ने दिया और ढोलक में कल्लू संगत दिया करते थे। शिब्बू दादा संगीत व गायन के लिए प्रेरित थे लेकिन खेलों व फिल्मों में उनका बड़ा रूझान था।

 शिब्बू दादा जबलपुर के दीक्षितपुरा के वाशिन्दे थे। रामेश्वर प्रसाद गुरू के घर के दाएं ओर गली में उनका घर था। पत्रकार व लेखक शारदा पाठक उनके घनिष्ठ मित्र थे। कॉलेज में रजनीश उनके सीनियर थे और हनुमान प्रसाद वर्मा ने डीएन जैन कॉलेज में उनको पढ़ाया था और शिब्बू दादा उनके मुरीद थे।

 शिब्बू दादा की लोकप्रियता के अनेक कारण थे। वे जबर्दस्त अड्डेबाज थे। जबलपुर के चौगड्डे-चौगड्डे (चौराहों) में उनकी नियमित बैठक जमती थी। घर से साइकिल निकलती तो एक से एक अड्डे से दूसरे अड्डे और न जाने पूरे शहर में घूमते हुए शिब्बू दादा निकल पड़ते थे। उनका प्रसन्नचित रहना और ठहराव व धैर्यवान स्वभाव किसी को नाराज नहीं करता था। शहर भर के अड्डों में जमे लोग चाहते थे कि शिब्बू दादा उन लोगों के साथ ज्यादा देर तक बैठकर गप्पियाएं। शिब्बू दादा किसी को निराश नहीं करते थे। वे प्रेमी स्वभाव के भावुक व्यक्ति थे। वैसे भी जीवन भर उन्होंने किसी को भी निराश व नाराज नहीं किया। प्रकृति से चंचल व मस्तमौला शिब्बू दादा जब अपनी साइकिल से निकलते तब रास्ते भर उनके जानने पहचानने वाले मिल जाते थे। जबलपुर में चुनावी सभाओं, मुशायरा, कवि सम्मेलन, खेल के मैचों में उनकी मौजूदगी रहती थी। शिब्बू दादा की वेशभूषा साफ सुथरी थी वैसा ही उनका पूरा जीवन साफ सुथरा रहा।

 शिब्बू दादा की मित्र मंडली वृहद थी लेकिन पुरूषोत्तम शर्मा, देवी मास्साब, बंशू मास्साब, ओंकार रावत उनके अभिन्न थे। शिब्बू दादा मिष्ठान के साथ भांग के शौकीन थे। शंकर पहलवान के यहां भांग का इंतजाम रहा करता था। वैसे अंदरून जबलपुर के दीक्षितपुरा, सुनरहाई, नुनहाई, तिलक भूमि की तलैया, कमानिया, फव्वारा, निवाड़गंज, मिलौनीगंज, अंधेरदेव इलाकों में उनके अड्डे, मित्र, मिष्ठान व भांग सब कुछ उपलब्ध रहते थे। नुनहाई में दालचंद सराफ के दामाद शिव प्रसाद सोनी उनके परम मित्र थे। सोनी जी के यहां शिब्बू दादा का बड़ा अड्डा जमता था। जबलपुर के श्रेष्ठ बांसुरी वादक चंदू पार्थसारथी के साथ महफ़िल जमती थी। घंटों गायन-वादन चलता रहता था। ऐसी महफ़िल में शिब्बू दादा किस्से कहानी और चुटकुले सुनाते थे। यह सब उनको पसंद था। उनकी चिट्ठियों का लेखन अद्भुत रहता था। चिट्ठियों में शहर का पूरा वृत्तांत रहता था। जिस व्यक्ति को चिट्ठी लिखी जाती थी उसे शिब्बू दादा के हवाले से शहर की पल-पल की खबर मिल जाती थी।

 शिब्बू दादा की युवाओं से दोस्ती रहती थी। युवा उनको बेहद पसंद करते थे और शिब्बू दादा उनमें लोकप्रिय थे। शिब्बू दादा युवाओं और खासतौर से युवा कलाकारों को प्रोत्साहित करते थे। हुनरमंद को मंच देने में वे आगे रहते थे। खाने पीने के शौकीन तो थे ही शिब्बू दादा लेकिन उन्होंने अपने समय में कितने बेरोजगारों को बड़कुल की खोवे की जलेबी और निवाड़गंज में समोसे खिलवाए न होंगे। शिब्बू दादा मिष्ठान व नमकीन का धीमे-धीमे रस लेकर आनंद लिया करते थे। इस प्रकार का ठहराव चाहे वह स्वभाव का हो या गायन-वादन का या स्वाद लेने का हो वह बेहद कम लोगों में देखने को मिलता है।

 शिब्बू दादा वैसे तो भारतीय रेल में नौकरी करते थे। नौकरी में उनकी तैनाती टिकट खिड़की पर थी। उस समय जबलपुर का रेलवे स्टेशन और प्लेटफार्म उतना विशाल व भव्य नहीं था जितना आज है। शिब्बू दादा की टिकट खिड़की बिल्कुल सामने की ओर थी इसलिए वे खिड़की से स्टेशन पर आने-जाने वाले पर सतर्क निगाह रखते थे। उनकी नज़रों से कोई बच नहीं पाता था। शिब्बू दादा को जबलपुर रेलवे स्टेशन में शहर का 'ब्रांड एम्बेसेडर' कहना ज्यादा बेहतर होगा। उनको खबर रहती थी कि शहर की विभूतियों में से कौन किस गाड़ी से जा रहा है और कौन आ रहा है। जबलपुर स्टेशन बंबई-कलकत्ता ट्रेन रूट का महत्वपूर्ण पड़ाव था। शिब्बू दादा को यह जानकारी भी रहती थी कि किस ट्रेन से कौन सा क्रिकेट खिलाड़ी, साहित्यकार, फिल्मी कलाकार या राजनेता जबलपुर स्टेशन से गुजरने वाला है।

 शिब्बू दादा बाहर से आने वाली ऐसी किसी भी विभूति का स्टेशन पर स्वागत करते थे। उनका स्वागत का तरीका भी अनोखा था। पारम्परिक स्वागत के साथ विभूति को बड़कुल की खोवे की जलेबी खिलाई जाती थी। ऐसे मौके पर शिब्बू दादा और उनके अनुयायी युवाओं की फौज भी रहती थी। उस समय सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले 'नवभारत' में खबर छपती कि शिब्बू दादा द्वारा स्टेशन पर खोवे की जलेबी से स्वागत किया गया। एक किस्सा ऐसा ही था और उसका सार यह था कि उन दिनों इलाहाबाद में लाल बहादुर शास्त्री क्रिकेट टूर्नामेंट हुआ करता था। इसमें पूर्व और वर्तमान क्रिकेट खिलाड़ियों की मिली जुली टीम के बीच मुकाबला होता था। बंबई से पॉली उमरीगर, चंदू बोर्डे, किरमानी और अन्य खिलाड़ी बंबई से इलाहाबाद जा रहे थे। शिब्बू दादा ने उनका स्वागत खोवे की जलेबी से किया और मनोहर नायक ने पान पेश किए। इस स्वागत-सत्कार की खबर 'नवभारत' में छपी।

फिल्म अभिनेता प्रेमनाथ तो कई बार अपने गृह नगर जबलपुर की यात्रा के दौरान और वापस बंबई जाते वक्त शिब्बू दादा से मिलने स्टेशन की टिकट खिड़की पर पहुंच जाया करते थे। एक बार बचपन में ऋषि कपूर अपने भाई बहिनों व मां कृष्णा कपूर के साथ ननिहाल आए तो शिब्बू दादा उनको टिकट खिड़की पर ले आए और उनका स्वागत दादा स्टाइल में किया गया। प्रेमनाथ की अंतरंगता के कारण जबलपुर में एम्पायर टॉकीज के बाजू वाले बंगले में कई बार शिब्बू दादा की गीत संगीत की महफ़िलें जमीं।

 शिब्बू दादा की मित्रता जबलपुर तक सीमित नहीं थी। उनके मित्र बंबई के टेस्ट क्रिकेट अम्पायर अहमद मोहम्मद मामसा हुआ करते थे। बंबई में जब भी टेस्ट मैच होता तो एम्पायर मामसा के सौजन्य से शिब्बू दादा पूरी तैयारी से पांच दिनों के लिए बंबई पहुंच जाते। उनके एक दोस्त मानिकपुर के स्टेशन मास्टर थे। वह भी उनके साथ कई बंबई दौरे में साथ हो लिया करते थे।

 किसी भी खेल के मैच का लुफ्त उठाने के साथ साथ शिब्बू दादा फिल्म देखने के शौकीन थे खासतौर से राज कपूर की फिल्मों के। किसी भी शहर जाते तो वहां कोई न कोई फिल्म ज़रूर देखते। एक बार जबलपुर के हजारी परिवार की बारात में झांसी गए। साथ में आदत के मुताबिक युवा साथियों को साथ ले जाने की बात हुई लेकिन इस शर्त के साथ कि उनके साथ दो ही लोग जाएंगे। बारात में शिब्बू दादा के साथ उनके पसंदीदा मनोहर नायक व अशेष गुरू गए। जबलपुर से बारात अगले दिन झांसी पहुंच गई। रात में शादी थी, सोचा तांगे से शहर भी घूम लिया जाए और दिन में कोई फिल्म भी देख ली जाए। तांगे में झांसी शहर घूमते हुए हादसा यह हो गया कि अचानक घोड़ा बैठ गया और बैठी सवारी पलट गईं। खैर कोई गंभीर घटना नहीं हुई और शिब्बू दादा व उनके दोनों साथियों ने श्याम बेनेगल की 'अंकुर' देख ली।

 जिस समय जबलपुर में शिब्बू दादा सुगम संगीत के शीर्ष पर थे उसी समय लुकमान का भी ढंका बज रहा था। दोनों गायक एक दूसरे का सम्मान करते थे। दोनों गायकों की दुनिया अलग थी। लुकमान का चयन अदबी था और शिब्बू दादा में सामान्य जन शामिल थे। लुकमान ''खास' के और शिब्बू दादा' आम' के गायक थे। कहा जाता है कि जबलपुर की राजनीति में जो हैसियत भवानी प्रसाद तिवारी ने अर्जित की थी वही हैसियत शिब्बू दादा ने जबलपुर के सुगम संगीत क्षेत्र में हासिल की।

 


गुरुवार, 3 अक्टूबर 2024

जबलपुर में कैसे हुई दुर्गा पूजा और रामलीला की शुरुआत

देश में दुर्गा पूजन का सार्वजनिक रूप से आयोजन 11 सदी से प्रारंभ हुआ। इसका सर्वाध‍िक प्रचार प्रसार नागरिकों के मध्य बंगाल से हुआ और धीरे धीरे इसने व्यापक रूप ले लिया। जबलपुर में जब प्रवासी बंगला परिवारों का जबलपुर आगमन हुआ तो वे अपने साथ वहां की संस्कृति, परम्पराएं, लोकोत्तर-मान्यताएं और धार्मिक आस्थाएं भी साथ लेकर आए। उनके आगमन के साथ ही मां दुर्गा की नवरात्रि‍ में स्थापना और पूजा का क्रम प्रारंभ हुआ। 

दुर्गा की मिट्टी की मूर्ति बनाकर नवरात्रि‍ में उनकी पूजा सबसे पहले जबलपुर में सन् 1872 में बृजेश्वर दत्त के घर में प्रारंभ हुई। उनके घर में दुर्गा पूजा के अवसर पर जबलपुर नगर के सभी गणमान्य एकत्रि‍त होकर देवी पूजा करते थे। तीन वर्ष के अंतराल के बाद दुर्गा आराधना अंबिका चरण बैनर्जी के आवास में होने लगी। उसके बाद दुर्गा पूजा का उत्सव बंगाली क्लब बंगाली क्लब में बंगला समाज द्वारा मनाया जाने लगा। 

जबलपुर के मूल निवासी भी बंगला समाज के दुर्गोत्सव से प्रभावित हुए। जबलपुर के मूल वाश‍िन्दों ने दुर्गा प्रतिमा स्थापित कर नवरात्रि‍ में पूजन अर्चना प्रारंभ कर दी। कलमान सोनी ने 1878 में सुनरहाई में दुर्गा प्रतिमा की स्थापना की। सुनरहाई या सराफा जबलपुर नगर का सोना-चांदी के व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। यहां देवी प्रसाद चौधरी व उमराव प्रसाद ने सर्वांग आभूषण अलंकृत एक सुंदर दुर्गा प्रतिमा बनवाई। इसके मूर्तिकार मिन्नी प्रसाद प्रजापति थे। तब से उन्हीं का परिवार सुनरहाई की दुर्गा प्रतिमा का निर्माण करने लगा। इस परिवार की तीसरी पीढ़ी तक यह कार्य किया गया। दालचन्द जौहरी परिवार में देवी काली की चांदी की प्रतिमा जबलपुर में काफ़ी प्रसिद्ध हुई।  वर्तमान में जबलपुर नगर व उपनगरीय क्षेत्रों  में 500 दुर्गा प्रतिमाओं की स्थापना की जाती है। इनमें जबलपुर के व‍िभ‍िन्न बंगला क्लब व कालीबाड़ी का दुर्गा पूजन देखने दूसरे शहरों के लोग नवरात्रि‍ में जबलपुर आते हैं। 

रामलीला की शुरुआत 

भारत में रामलीला का प्रारंभ संभवत: संत तुलसीदास के समय रामनगर (वाराणसी) में हुआ। कालांतर में देश के अन्य शहर या नगर ने भी इसका अनुशरण किया। उसी समय अनेक घुमन्तू रामलीला मंडलियां अस्त‍ित्व में आईं जिन्होंने अनेक स्थानों में अभ‍िनय से राम के जीवन के प्रसंगों को प्रस्तुत किया। 

जबलपुर के मिलौनीगंज में डल्लन पंडित नाम के एक विप्र रहते थे। उन्होंने जबलपुर नगर में रामलीला प्रारंभ करने की दिशा में गंभीर प्रयास किया। इस क्षेत्र के संपन्न व्यापारियों से आर्थ‍िक सहायता लेकर रामलीला का श्रीगणेश किया गया। 

रेलमार्ग प्रारंभ होने के पूर्व जबलपुर का पूरा व्यापार मिर्जापुर से होता था। इन दोनों स्थानों को जोड़ने वाला प्रमुख मार्ग मिर्जापुर रोड कहलाता था। बैलगाड़‍ियों के काफिले माल भर कर इस मार्ग से जबलपुर आते और यहां पुन: माल लेकी मिर्जापुर लौटते। लल्लामान मोर मिर्जापुर के एक प्रतिष्ठ‍ित थोक व्यापारी थे। 

मिर्जापुर-जबलपुर मार्ग पर उनके सार्थवाह (व्यापारी) चलते थे जिनमें माल से भरी सैकड़ों गाड़‍ियां होती थीं। वे उदार और धार्मिक प्रवृत्त‍ि के व्यक्त‍ि थे। इस मार्ग पर उन्होंने सार्थवाहों, तीर्थ यात्रि‍यों व पथ‍िकों की सुविधा के लिए 108 बावलियां बनवाई थीं। 

एक समय लल्लामान मोर जब अपनी एक बावली का उद्यापन करवा रहे थे तभी उन्हें एक अंग्रेज सैनिक टुकड़ी मिली जो भोजन व पानी न मिल पाने के कारण बुरी दशा में थी। उन्होंने तीन दिनों तक उन सैनिकों का अत‍िथि‍ सत्कार किया। इसके बदले में अंग्रेज अध‍िकारी ने आश्वासन दिया कि जब कभी भी उन्हें सहायता की जरूरत हो तो वे उन्हें अवश्य याद करें। एक बार डल्लन पंडित जिन्होंने जबलपुर में रामलीला का शुभारंभ किया था अचानक एक मुकदमे में फंस गए। उन्होंने लल्लामन मोर से इस मामले में सहायता के लिए निवेदन किया। लल्लामन मोर ने तुंरत अंग्रेज अध‍िकारियों से मिलकर डल्लन पंडित को इस परेशानी से मुक्त‍ि दिलाई। 

वर्तमान रामलीला 1865 में प्रारंभ हुई, जिसके साथ रज्जू महाराज का नाम मुख्य रूप से जुड़ा है। इनके निधन के बाद नत्थू महाराज ने रामलीला की बागडोर सम्हाली। मिलौनीगंज के सभी व्यापारियों ने तन, मन, और धन से धार्मिक अनुष्ठान में अपना सहयोग दिया। इनमें मोथाजी मुनीम, साव गोपालदास, प्रभुलाल (पुत्ती) पहारिया, चुनकाई तिवारी, पंडित डमरूलाल पाठक और मठोलेलाल रिछारिया इसके प्रमुख सूत्रधार थे। बिजली आगमन के पूर्व यहां रामलीला मिट्टी के तेल के भपकों व पेट्रोमेक्स की रौशनी में होती थी। 1925 में जबलपुर में बिजली आ गई। अब रामलीला विद्युत प्रकाश में होने लगी जिससे उसका आकर्षण और बढ़ गया। 

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। इसके कारण 1942 तक रामलीला का मंचन स्थगित रहा। 1943 में इसके प्रदर्शन हेतु सरकारी आदेश मिल जाने पर रामलीला फिर से प्रारम्भ हो गई। इस बार छोटेलाल तिवारी, गोविन्ददास रावत और डॉ. नन्दकिशोर रिछारिया ने इसके संचालन में अथक सहयोग दिया। 1965 में इसके सौ वर्ष पूरे होने पर इसकी शताब्दी मनाई गई। 

जबलपुर के सदर क्षेत्र में फौजी छावनी थी। इसका प्रमुख मार्ग ईस्ट-स्ट्रीट कहलाता था। इस क्षेत्र में फौजी अधिकारी ही खरीद-फरोख्त करते दिखाई देते थे। इसमें छोटी-छोटी गलियाँ भी थीं जिनमें सैनिक संस्थानों के कर्मचारी रहते थे। उन्हीं दिनों शिवनारायण वाजपेयी नाम के एक उद्यमी सज्जन उत्तरप्रदेश से यहाँ आए और अपने भविष्य को सँवारने में लग गए। एक दूसरे सज्जन ईश्वरीप्रसाद तिवारी भी यहाँ आकर बस गए और ठेकेदारी का व्यवसाय शुरू किया। वे अपने साथ उत्तरप्रदेश से पासी जाति के लोगों को भी लाये थे जो उनके ठेकों में काम करते थे। तिवारी जी को 1881 में खन्दारी जलाशय निर्माण और बाद में हाईकोर्ट की भव्य इमारत बनाने का भी ठेका मिल गया। इन दोनों परिवारों में धार्मिक आयोजनों के प्रति बहुत रुचि थी। इन्हीं लोगों के प्रोत्साहन और सहयोग से सदर क्षेत्र में पहले-पहल रामलीला आरम्भ की गई। फौजी छावनी क्षेत्र में, जहाँ अंग्रेजों की सर्वोपरि सत्ता हो, ऐसे धार्मिक आयोजन करना बड़े साहस का काम था। जब असहयोग आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर था, तब इस क्षेत्र के प्रख्यात समाज-सेवी नरसिंहदास अग्रवाल व नन्दकिशोर मिश्र के सहयोग से रामलीला सफलता से आयोजित होती रही। 

जैसे-जैसे नगर की जनसंख्या में वृद्धि होती गई, वैसे-वैसे नई-नई आवासीय बस्तियाँ बनती गईं। ये बस्तियाँ सदर और मिलौनीगंज क्षेत्रों से काफी दूरी पर थीं। धर्मप्रिय जनता को रामलीला आयोजन स्थलों तक पहुँचने में जब बहुत असुविधा होने लगी तो यहाँ के निवासियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में लघु रूप से रामलीलायें आरम्भ कीं। इनमें घमापुर, गढ़ा-पुरवा और गनकैरिज फैक्टरी क्षेत्र प्रमुख हैं।🔹

शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

जबलपुर और टेलीग्राफ विभाग

टीटीसी जबलपुर 


    जबलपुर की टेलीग्राफ फेक्टरी पिछले कुछ दिनों से सुर्ख‍ियों में है। जबलपुर और टेलीग्राफ के संबंध में कुछ तथ्यों की जानकारी मिली है जो काफी रोचक और हमें उस इतिहास की ओर ले जाती है जिससे हम अनजान हैं। प्रत्येक जिले में पोस्ट ऑफ‍िस पुलिस थाने में रहते थे। पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखने वाला मुंशी ही पोस्ट ऑफ‍िस का भी काम देखता था। उसके पास एक पोस्टल भृत्य रहता था तो च‍िठ्ठ‍ियों को गंतव्य स्थान तक पहुंचा देता था। उस समय जबलपुर, सागर और नर्मदा टेरीटरी के अंतर्गत आता था जिसे नार्थ वेस्ट प्रॉव‍िन्स कहते थे। उस समय डाक की व्यवस्था बड़ी असंतोषजनक थी। 1867 में पूरा वि‍भाग चीफ इंस्पेक्टर के अध‍िकार क्षेत्र में आ गया जो इम्पीरियल पोस्टल डिपार्टमेंट को संभालता था। 

    टेलीग्राफ सेवा जबलपुर में 1855 में हुई थी उपलब्ध-टेलीग्राफ सेवा 1857 की क्रांति के समय इस विभाग ने बड़ी सेवा की और टेलीग्राफ और तार का काम भी अपने जिम्मे ले लिया। कलकत्ते से बंबई तक तार का संबंध जोड़ने के लिए इस विभाग ने टेलीग्राफ की एक विशेष लाइन मिर्जापुर से सिवनी तक डाली जो जबलपुर हो कर जाती थी। इससे सिद्ध होता है कि टेलीग्राफ विभाग 1858 में स्थापित हो गया था। जबलपुर का टेलीग्राफ ऑफ‍िस देश की नव स्थापित व्यवस्था का विशेष भाग था। टेलीग्राफ सेवा जबलपुर के लोगों को 1855 से ही उपलब्ध थी। जबलपुर का टेलीग्राफ दफ्तर उस समय ठगी जेल था और यहां कर्नल डब्ल्यूएच स्लीमन अपना दफ्तर लगाते थे। स्लीमन ने ही ठगों को देश से निर्मूल किया। 

टेलीग्राफ फेक्टरी जबलपुर का गेट नंबर 2 

    169 वर्ष पुरानी इमारत-टेलीग्राफ विभाग की यह इमारत 169 वर्ष पुरानी है। टेलीग्राफ सेवा का विस्तार होने से उसमें टेलीग्राफ की नवीन सामग्री एवं उपकरण रखने के लिए स्थान की कमी पड़ने लगी थी। इसलिए सीटीओ का नया भवन बनाया गया ताकि इसका संचालन व्यवस्थ‍ित रूप से हो सके और जनता को अध‍िक सुवि‍धाएं मिल पाए। 

    द्वितीय विश्व युद्ध में कलकत्ता से जबलपुर स्थानांतरित हुआ टेलीकम्युनिकेश सेंटर-देश में प्रथम टेलीकम्युनिकेशन सेंटर की स्थापना सन् 1929 में कलकत्ता में हुई। 22 अप्रैल 1942 को इसे कलकत्ता से जबलपुर स्थानांतरित कर दिया गया। तब से यह केन्द्र यहीं काम कर रहा है। दूरसंचार से संबंध‍ित समस्त जानकारी और प्रश‍िक्षण देने के लिए पहले मॉडल हाई स्कूल में इसकी कक्षाएं लगती थीं जो बाद में पुराने एल्ग‍िन अस्पताल मिलौनीगंज में लगने लगीं। कुछ समय बाद इसके श‍िक्षण व प्रश‍िक्षण का कार्य टेलीग्राफ वर्कशॉप में होने लगा। एल्ग‍िन अस्पताल से इसकी कार्य प्रणाली का ज्ञान प्राप्त करने वाले प्रश‍िक्षणार्थी अध‍िकारियों के निवास सुविधा के लिए सुरक्ष‍ित कर दिया गया। प्रथम वर्ष में इसके प्रश‍िक्षणार्थ‍ियों की संख्या केवल 70 थी जो कुछ वर्षों में बढ़ कर 800 तक पहुंच गई। 

    टीटीसी स्थापित हुआ था 1952 में-विकास के साथ दूरसंचार की उपयोगिता भी बढ़ी इसलिए विस्तार भी जरूरी हो गया। टेलीफोन विभाग को एक विशाल, सर्व सुविधा संपन्न, उपकरण सज्ज‍ित बहुउद्देश्यीय केन्द्र की जरूरत महसूस हुई जिसमें इस क्षेत्र में हुए क्रमिक विकास और तकनीक की नवीनतम वैज्ञानिक जानकारी दी जा सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकार ने रिज रोड पर 35 एकड़ भूमि प्रदान की जिस पर 21 मार्च 1952 को राजकुमार अमृत कौर ने दूरसंचार के नए भवन का श‍िलान्यास किया। यह टीटीसी कहलाया। अब यह BHARAT RATNA BHIM RAO AMBEDKAR INSTITUTE OF TELECOM TRAINING कहलाता है। 

   जबलपुर का पहला टेलीफोन एक्सचेंज 1911 में बना-जबलपुर का पहला टेलीफोन एक्सचेंज 1911 में प्रारंभ हुआ। उस समय चुम्बकीय प्रयोगशाला ही थी जिसमें 20 लाइनें चला करती थीं। 1934 में 100 लाइनों का सीबी बोर्ड प्रारंभ हुआ। स्वतंत्रता के पश्चात् 1950 में 300 लाइनों का बहुउद्देश्यीय शुरु हुआ। 600 लाइनों का दूसरा एक्सचेंज 1965 में राइट टाउन में और तीसरा 1969 में मिलौनीगंज में प्रारंभ हुआ।      

    द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जबलपुर में एक और टेलीग्राफ स्टोर्स और वर्कशॉप खोला गया-दूरसंचार भंडार संगठन दूरसंचार बिरादरी के सबसे पुराने सदस्यों में से एक है। अलीपुर, कलकत्ता में टेलीग्राफ वर्कशॉप ने 1885 की शुरुआत में अपना उत्पादन शुरू किया और इस तरह से टेलीग्राफ स्टोर्स के रूप में एक सहयोगी विंग को जन्म दिया, जो इसके गोदाम कीपर के रूप में कार्य करता था। ये दोनों संगठन अलीपुर, कलकत्ता में निदेशक, कार्यशाला और भंडार के रूप में जाने जाने वाले एक अधिकारी के नियंत्रण में एक साथ विकसित हुए और एक दूसरे के पूरक के रूप में कार्य कर रहे थे। यह व्यवस्था लगभग अगले 100 वर्षों तक जारी रही। इसके बाद टेलीग्राफ वर्कशॉप और स्टोर्स के अधिकार क्षेत्र को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया और भारतीय P&T विभाग के दो अलग-अलग विंग बनाए गए, जिनका नाम था दूरसंचार कारखाना और दूरसंचार भंडार, जो विशुद्ध रूप से प्रशासनिक कारणों से था। ऐतिहासिक रिकॉर्ड में, इस प्रतिष्ठान को 1937 से पहले बर्मा के क्षेत्र सहित पूरे देश में सभी प्रकार की टेलीग्राफ/दूरसंचार सामग्री की आपूर्ति के लिए सराहा गया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रणनीतिक कारणों से जबलपुर में एक और टेलीग्राफ स्टोर्स और वर्कशॉप खोला गया था।

    टेलीग्राफ फेक्टरी कहलाती थी पुतलीघर-वर्तमान टेलीग्राफ फेक्टरी जहां मौजूद है वह स्थान पुतलीघर कहलता था। पहले यहां गोकुलदास कॉटन मिल थी। टेलीग्राफ फेक्टरी में अभी भी सेठ गोकुलदास द्वारा बनाया गया ऑडीटोरियम मौजूद है। इस पुतलीघर के मैनेजर आर्थर राइट थे। इन्हीं आर्थर राइट के नाम से फेक्टरी के आसपास के इलाके को राइट टाउन नाम दिया गया। जानकारी मिली है कि जिस कक्ष में आर्थर राइट टेबल कुर्सी पर बैठ कर काम किया करते थे वह कक्ष अब भी मौजूद है। 

    जबलपुर और टेलीग्राफ के बारे इतना बखानने की जरूरत इसलिए है कि जबलपुर के इतिहास में टेलीग्राफ रग रग में मौजूद है। हम लोग अहसान फ़रामोश न बनें।

कौन थे घमंडी महाराज जिनके नाम से जबलपुर के एक चौक का नाम घमंडी पड़ा

जबलपुर में वैसे तो कई चौक हैं लेकिन लार्डगंज थाना से बड़ा फुहारा मार्ग के बीच में सिर्फ एक चौराहा है जिसे सब लोग घमंडी चौक के नाम से जानते व...