31 जुलाई को तुलसी जयंती थी। जुलाई के अंतिम सप्ताह से अगस्त के प्रथम सप्ताह तक तुलसी सप्ताह पूरे देश में मनाया जाता है।

जबलपुर के बारे में सब कुछ। संस्कारधानी के व्यक्ति, समाज, परम्परा, साहित्य, कला संस्कृति, खेल का ठिकाना
31 जुलाई को तुलसी जयंती थी। जुलाई के अंतिम सप्ताह से अगस्त के प्रथम सप्ताह तक तुलसी सप्ताह पूरे देश में मनाया जाता है।
यह वही घमंडी चौक है जहां राजनेता शरद यादव देवा मंगोड़े वाले के यहां बैठकी करते थे। शरद यादव राष्ट्रीय क्षितिज पर चमकने लगे थे लेकिन जब भी वे जबलपुर आते तब वे एक बार जरूर देवा मंगोड़े वाले के यहां मंगोड़े खाते थे। जबलपुर के मूल वाशिन्दों के अलावा बाहर के लोगों के मन में यह उत्सुकता रहती है कि चौक वह भी घमंडी नाम का। इसकी कहानी सिंचाई विभाग में मुख्य अभियंता के पद पर कार्यरत रहे एमजी चौबे ने सुनाई।
चौबे परिवार में सन् 1918 में यह स्थिति बनी कि महिला के नाम पर केवल उनकी दादी कौशल्या चौबे ही शेष रहीं। परिवार के नाम पर एक अविवाहित देवर, दो पुत्र स्वयं के, एक पहली पत्नी का और दो एक अन्य देवर के थे। इस प्रकार पांच बच्चों का लालन-पालन चौबे परिवार की दादी ने किया। जबलपुर के उपनगर खमरिया के पास झिरिया गाँव में सभी सम्मिलित रहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जमीन आदि सरकार ने खमरिया फैक्ट्री के निर्माण के लिए अधिग्रहित कर ली। मजबूरन परिवार को जबलपुर आना पड़ा। परिवार जबलपुर में घने बसे दीक्षितपुरा में रहने लगा। एमजी चौबे के पिताजी के चचेरे भाई थे चेतराम चौबे व घनश्याम दास चौबे। सभी पाँचों भाईयों को पहलवानी का बेहद शौक था।
घनश्याम दास चौबे भी पहलवानी करते थे और जीवन भर अविवाहित रहे। वे बचपन से ही सदैव हड़बड़ी व जल्दबाजी रहते थे। चौबे परिवार की दादी की बात किसी ने सुनी होगी तो उसके अनुसार घनश्याम चौबे जब भोजन करने बैठते तो उंगलियों से तबला बजाते रहते थे और भोजन के लिए ‘’जल्दी करो.....कितनी देर और लगेगी’’ जैसे वाक्य लगातार बोलते रहते थे। उनकी इस आदत के कारण दादी उनको घमंडी कहकर बुलाती थीं। धीरे-धीरे घर में और उन्हें जानने पहचानने वाले लोग उन्हें ‘घमंडी’ के संबोधन से पुकारने लगे। घनश्याम चौबे जब युवा हुए और वयस्कता की ओर कदम बढ़ाने लगे तब लोगों ने उन्हें ‘घमंडी महाराज’ का संबोधन दिया।
घनश्याम चौबे उर्फ घमंडी महाराज ने चौक के नजदीक बड़ा फुहारा के ओर अग्रवाल होजियरी के बाजू में सूर्य विजय होटल खोल ली और उसका संचालन करने लगे। तब तक लोगों ने घनश्याम चौबे कहना छोड़ दिया था उनका नाम ही घमंडी हो गया। उनके नाम के कारण चौक या चौराहा का नाम घमंडी चौक पड़ गया और जो एक बार नाम पड़ा और अब तक लोगों की जुबान पर है। चौबे परिवार के बच्चे उन्हें घम्मी कक्का कहते थे।
घनश्याम चौबे उर्फ घम्मी कक्का उर्फ घमंडी महाराज का निवास महाकौशल स्कूल के पीछे था। उनके मकान के चार ब्लाक थे। एक में खुद रहते थे और शेष तीन में किरायेदार। घमंडी महाराज कभी मुंबई गए होंगे तो वहां से एक अनाथ बच्चे को ले आए। वही उनकी देखभाल करता था। उसका नाम उन्होंने बद्री रखा था। चौबे परिवार की दादी बद्री नाम का संबोधन कभी नहीं करती थी। दरअसल चौबे परिवार के दादा जी यानी कि दादी के पति का नाम बद्री प्रसाद चौबे था। बच्चा बद्री अच्छा नर्तक था। बच्चों की फरमाइश पर उस समय प्रचलित जंगली फिल्म के गाने आईय या सुकू शुकू .. करू मैं क्या सुकू सुकू ... हो गया दिल मेरा सुकू सुकू.... कोई मस्ताना कहे कोई दीवाना कहे कोई परवाना कहे, जलने को बेकरार....चाहत का मुझ पे असर मैं दुनिया से बेखबर...चलता हूं अपनी डगर...मंजिल है मेरी प्यार पर शानदार डांस करता था।
घमंडी महाराज का वर्ष 1961 में अस्थमा के कारण निधन हो गया। उनके निधन के उपरांत घमंडी महाराज की सारी संपत्ति उनके सगे बड़े भाई, शेखर चौबे के पिता चेतराम चौबे को विरासत में मिली। विरासत में एक मोटर साइकिल भी मिली थी एजेएस। उसकी पेट्रोल टंकी पर गियर का लीवर लगा था।
घमंडी महाराज के परिवार के रामेश्वर चौबे सुबह से शाम तक सुपर मार्केट काफी हाउस में मौजूद रहते हैं। काफी हाउस एक तरह से अविवाहित रामेश्वर चौबे का घर जैसा ही है। काफी हाउस के तमाम कार्मिक उनका ख्याल रखते हैं। उनकी बड़ी मूंछे बरबस काफी हाउस में आने वालों का ध्यान आकर्षित कर लेती है। रामेश्वर चौबे भी किसी महाराज से कम नहीं हैं।
घमंडी महाराज को गुजरे पचास साल बीत गए लेकिन
घमंडी चौक से लाखों लोग गुजरते हैं किसी को याद नहीं आती और न ही याद आते हैं
घनश्याम चौबे उर्फ घम्मी कक्का उर्फ घमंडी महाराज।🔷
आज सुबह यानी कि 4 जुलाई 2025 को जिस प्रकार बरसात हो रही है वह मीडिया के लिए आज व कल सुर्खी ज़रूर बनेगी। घर के भीतर से बाहर देखते हुए गत दिवस दिवंगत हुए नितिन पोपट का चेहरा याद आने लगा। याद आने लगे वह दृश्य जब छायाकार नितिन पोपट ज्यादा बरसात में जबलपुर के उन निचले इलाकों में जहां पानी भरा रहता था वहां पेंट घुटने तक मोड़ कर अपने कैमरे में तस्वीर कैद करने लगते थे। जबलपुर की ठेठ बोली में लिखें तो वे दिलेर, दबंग, स्पष्टवादी, मेहनत से खींची गई अपनी फोटो को अखबार में जगह दिलाने के लिए मुठभेड़ करने वाले व्यक्ति थे। वे अपनी फोटो को अखबार में छपवाने के लिए अखबार के संपादकीय कर्मियों व संपादक से बहस तक कर लेते थे। नितिन पोपट ने प्रेस फोटोग्राफी कभी व्यावसायिक रूप से नहीं की। सातवें दशक से 2017 तक वे छायांकन एक मिशन के रूप में करते रहे। विभिन्न घटनाओं की फोटो लेकर वे जबलपुर के सभी अखबारों को निस्वार्थ रूप से भेज देते थे। कैमरा का बेग उनके कंधे से कभी उतरा नहीं। बाद के दिनों में जब उन्होंने फोटोग्राफी करना छोड़ दिया तब भी कैमरा उनके कंधे पर लटकता रहता था। नितिन पोपट अपने साथ काम करने वाले छायाकार को गुरू मंत्र के रूप में यही संदेश देते थे कि कंधे पर कैमरा हर समय टंगे रहना चाहिए। नितिन पोपट के जीवन में कैमरे के अलावा दूसरी चीज नहीं छूटी वह उनकी मोपेड थी। लम्बे समय तक सुवेगा मोपेड में बैठकर वे जबलपुर की सड़कों पर फोटो की तलाश में घूमते रहे। बाद में यह सुवेगा मोपेड को उन्होंने छायाकार मदन सोनी को दे दी और नई मोपेड ले ली। मोपेड के अलावा वे कभी दूसरे वाहन में नहीं चले।
नितिन पोपट प्रेस फोटोग्राफी करते रहे इसलिए उनकी फोटोग्राफी में छायांकन का सौन्दर्य तो नहीं रहता था लेकिन तत्कालिकता, सजग दृष्टि, न्यूज सेंस उनका अद्भुत था। वे फोटोग्राफी सौन्दर्य के जबर्दस्त पक्षधर थे, इसलिए जबलपुर की रानी दुर्गावती कला वीथिका में लगने वाली प्रत्येक फोटो प्रदर्शनी में पहुंचने वाले वे पहले व्यक्ति होते थे। नितिन पोपट अपने से पूर्व व बाद की पीढ़ी के छायाकार शशिन् यादव, हरि महीधर, रजनीकांत यादव, डा. जेएस मूर्ति के छायांकन की प्रशंसा करते थे और इन सबको खूब सम्मान देते थे।
विल्स सिगरेट का कश लेने के शौकीन और कड़क काफी पीने वाले नितिन पोपट ने जयंती टॉकीज (पूर्व में प्लाजा) के सामने अपने आफिस व हर्षा प्रिंटर के डॉर्क रूम में किसी को प्रविष्ट नहीं होने दिया। ब्लेक एन्ड व्हाइट फोटोग्राफी के समय में नितिन पोपट स्वयं डॉर्क रूप में काम करना पसंद करते थे। वे फोटो की प्रोसेसिंग व डेव्लपिंग स्वयं करते थे। उनके सहायकों को इस बात की जानकारी नहीं रहती थी कि कौन सी फोटो उस समय नवभारत, नवीन दुनिया, देशबन्धु या युगधर्म में छपने के लिए भेजी जाएगी। नितिन पोपट फोटोग्राफी में इतने रम गए थे कि उन्हें अपने हर्षा प्रिंटर की कभी कोई ध्यान नहीं रहा। कम मात्रा या परिमाण में उनका विश्वास नहीं था इसलिए वे फिल्म के रोल और फोटो को प्रिंट करने के पेपर बड़ी संख्या में आर्डर करते थे। जिस समय ऑफसेट प्रिटिंग का चलन नहीं था तब स्वयं जेब से खर्च करके फोटो के ब्लॉक बनवाते और प्रेस में देकर आते थे। इस सदाशयता में उनकी हर्षा प्रिंटर सर्वाधिक रूप से प्रभावित हुई। यह भी दुख की बात है कि नितिन पोपट ने जिन अखबारों को फोटो उपलब्ध कराने के लिए दिन रात एक किया और आंधी बरसात की चिंता नहीं कि उन्होंने नितिन पोपट को एक्रिडिएशन या मान्यता प्रदान करने वाली एक अदद चिठ्ठी देने में कभी रुचि नहीं दिखाई। नितिन पोपट जिंदगी भर एक्रिडिएशन प्राप्त करने के लिए परेशान रहे।
छायाकार नितिन पोपट को जबलपुर की एक पहचान व ब्रांड भी कहा जा सकता है। जब भी जबलपुर में राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, कला क्षेत्र की कोई विभूति जबलपुर आती थी तब उसकी मुलाकात नितिन पोपट से अवश्य होती थी। यदि विभूति का पहली बार जबलपुर आगमन होता था, तो दूसरी बार जबलपुर आने पर उनकी निगाह नितिन पोपट को ज़रूर दूंढ़ती थी। राष्ट्रीय स्तर की सैकड़ों विभूतियों से नितिन पोपट के व्यक्तिगत संबंध थे। कवि नीरज से नितिन पोपट की प्रगाढ़ता जग जाहिर थी। ब्रांड के रूप में नितिन पोपट इसलिए याद आते हैं क्योंकि जब उनका शिखर था तब बहुत से लोग नवभारत में फोटो क्रेडिट में उनका नाम देखकर विवाह समारोह में फोटो खींचने के लिए सम्पर्क करते थे। कई लोग नितिन पोपट का पता पूछते हुए जयंती टॉकीज के सामने हर्षा प्रिंटर पहुंच जाते थे। इस प्रकार का कार्य उन्होंने किया लेकिन बहुत कम।
जबलपुर के मीडिया में छायाकारों की दूसरी पंक्ति तैयार करने में नितिन पोपट का सबसे बड़ा योगदान है। नितिन पोपट के मार्गदर्शन में बसंत मिश्रा, सुगन जाट, पप्पू शर्मा, तापस सूर, अनिल तिवारी, पंकज पारे जैसे छायाकार उभरे और उन्होंने अपना विशिष्ट स्थान बनाया। सुगन जाट तो नितिन पोपट के डॉर्क रूम में काम करके खींची गई फोटो को अपनी कला से छायांकन की दृष्टि से दर्शनीय व सुंदर बना देते थे।
नितिन पोपट को दिवंगत होने के बाद याद करने के कई कारण हैं। पहला तो नई पीढ़ी उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती और दूसरा उनके जैसे लोग जबलपुर में लगातार कम होते जा रहे हैं। नितिन पोपट के whatsapp प्रोफाइल में एक कोटेशन था-‘हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया’। वाकई में नितिन पोपट हर फ्रिक को धुएं में उड़ाते रहे और इसे उड़ाते हुए संसार से चले गए। श्रद्धांजलि 🔷
(मनोहर नायक से प्रत्यक्ष या फोन पर जब भी जबलपुर
की बातचीत होती थी तब एक नाम बार-बार आता था-शिब्बू दादा। शिब्बू दादा को मैंने
सबसे पहले पत्रकार नलिनकांत बाजपेयी के लाल कुआं हनुमानताल के घर में सुना था।
उनके गायन को देर तक सुना गया और वहां मौजूद किसी भी व्यक्ति की इच्छा थी कि उनका
गायन खत्म ही नहीं हो चलता रहे। इसके बाद कुछ और मौकों पर शिब्बू दादा का गायन
सुना। मनोहर नायक से उनकी विशिष्टताओं की जानकारी मिलती थी। शिब्बू दादा जबलपुर
में वाचिक परंपराओं में जीवित थे। कभी उनके बारे में विस्तार से नहीं लिखा गया।
उनके जैसे और व्यक्तित्वों पर भी नहीं लिखा गया। क्यों नहीं लिखा गया यह एक अलग
विषय है, जबकि शिब्बू दादा के नजदीकियों
में जबलपुर के कई वरिष्ठ पत्रकार व लेखक रहे। इस बार 4 जनवरी
को शिब्बू दादा का जन्मदिन मनाया गया। जन्मदिन मनाने का उद्देश्य था कि कलाकार कभी
मृत नहीं होता वह हर समय जीवित रहता है। इस आयोजन मैं मुझे बोलने की जिम्मेदारी दी
गई। ऐसे कार्यक्रम में सीमित समय में विस्तृत बोलना संभव नहीं होता है। विचार आया
कि जितना भी संभव हो शिब्बू दादा पर लिखा जाए। पूरे संदर्भ का श्रेय मनोहर नायक को
है। यह मेरा मूल लेख नहीं है दरअसल यह मनोहर नायक से समय-समय पर की गई बातचीत का
निचोड़ है। मनोहर नायक के आभार के साथ शिब्बू दादा के अनोखे व्यक्तित्व को जानिए।)
जैसी साफ सुथरी वेशभूषा वैसा ही साफ सुथरा जीवन जीने वाले शिब्बू
दादा
फिल्म
अभिनेता प्रेमनाथ तो कई बार अपने गृह नगर जबलपुर की यात्रा के दौरान और वापस बंबई
जाते वक्त शिब्बू दादा से मिलने स्टेशन की टिकट खिड़की पर पहुंच जाया करते थे। एक
बार बचपन में ऋषि कपूर अपने भाई बहिनों व मां कृष्णा कपूर के साथ ननिहाल आए तो
शिब्बू दादा उनको टिकट खिड़की पर ले आए और उनका स्वागत दादा स्टाइल में किया गया।
प्रेमनाथ की अंतरंगता के कारण जबलपुर में एम्पायर टॉकीज के बाजू वाले बंगले में कई
बार शिब्बू दादा की गीत संगीत की महफ़िलें जमीं।
देश में दुर्गा पूजन का सार्वजनिक रूप से आयोजन 11 सदी से प्रारंभ हुआ। इसका सर्वाधिक प्रचार प्रसार नागरिकों के मध्य बंगाल से हुआ और धीरे धीरे इसने व्यापक रूप ले लिया। जबलपुर में जब प्रवासी बंगला परिवारों का जबलपुर आगमन हुआ तो वे अपने साथ वहां की संस्कृति, परम्पराएं, लोकोत्तर-मान्यताएं और धार्मिक आस्थाएं भी साथ लेकर आए। उनके आगमन के साथ ही मां दुर्गा की नवरात्रि में स्थापना और पूजा का क्रम प्रारंभ हुआ।
दुर्गा की मिट्टी की मूर्ति बनाकर नवरात्रि में उनकी पूजा सबसे पहले जबलपुर में सन् 1872 में बृजेश्वर दत्त के घर में प्रारंभ हुई। उनके घर में दुर्गा पूजा के अवसर पर जबलपुर नगर के सभी गणमान्य एकत्रित होकर देवी पूजा करते थे। तीन वर्ष के अंतराल के बाद दुर्गा आराधना अंबिका चरण बैनर्जी के आवास में होने लगी। उसके बाद दुर्गा पूजा का उत्सव बंगाली क्लब बंगाली क्लब में बंगला समाज द्वारा मनाया जाने लगा।
जबलपुर के मूल निवासी भी बंगला समाज के दुर्गोत्सव से प्रभावित हुए। जबलपुर के मूल वाशिन्दों ने दुर्गा प्रतिमा स्थापित कर नवरात्रि में पूजन अर्चना प्रारंभ कर दी। कलमान सोनी ने 1878 में सुनरहाई में दुर्गा प्रतिमा की स्थापना की। सुनरहाई या सराफा जबलपुर नगर का सोना-चांदी के व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। यहां देवी प्रसाद चौधरी व उमराव प्रसाद ने सर्वांग आभूषण अलंकृत एक सुंदर दुर्गा प्रतिमा बनवाई। इसके मूर्तिकार मिन्नी प्रसाद प्रजापति थे। तब से उन्हीं का परिवार सुनरहाई की दुर्गा प्रतिमा का निर्माण करने लगा। इस परिवार की तीसरी पीढ़ी तक यह कार्य किया गया। दालचन्द जौहरी परिवार में देवी काली की चांदी की प्रतिमा जबलपुर में काफ़ी प्रसिद्ध हुई। वर्तमान में जबलपुर नगर व उपनगरीय क्षेत्रों में 500 दुर्गा प्रतिमाओं की स्थापना की जाती है। इनमें जबलपुर के विभिन्न बंगला क्लब व कालीबाड़ी का दुर्गा पूजन देखने दूसरे शहरों के लोग नवरात्रि में जबलपुर आते हैं।
रामलीला की शुरुआत
भारत में रामलीला का प्रारंभ संभवत: संत तुलसीदास के समय रामनगर (वाराणसी) में हुआ। कालांतर में देश के अन्य शहर या नगर ने भी इसका अनुशरण किया। उसी समय अनेक घुमन्तू रामलीला मंडलियां अस्तित्व में आईं जिन्होंने अनेक स्थानों में अभिनय से राम के जीवन के प्रसंगों को प्रस्तुत किया।
जबलपुर के मिलौनीगंज में डल्लन पंडित नाम के एक विप्र रहते थे। उन्होंने जबलपुर नगर में रामलीला प्रारंभ करने की दिशा में गंभीर प्रयास किया। इस क्षेत्र के संपन्न व्यापारियों से आर्थिक सहायता लेकर रामलीला का श्रीगणेश किया गया।
रेलमार्ग प्रारंभ होने के पूर्व जबलपुर का पूरा व्यापार मिर्जापुर से होता था। इन दोनों स्थानों को जोड़ने वाला प्रमुख मार्ग मिर्जापुर रोड कहलाता था। बैलगाड़ियों के काफिले माल भर कर इस मार्ग से जबलपुर आते और यहां पुन: माल लेकी मिर्जापुर लौटते। लल्लामान मोर मिर्जापुर के एक प्रतिष्ठित थोक व्यापारी थे।
मिर्जापुर-जबलपुर मार्ग पर उनके सार्थवाह (व्यापारी) चलते थे जिनमें माल से भरी सैकड़ों गाड़ियां होती थीं। वे उदार और धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। इस मार्ग पर उन्होंने सार्थवाहों, तीर्थ यात्रियों व पथिकों की सुविधा के लिए 108 बावलियां बनवाई थीं।
एक समय लल्लामान मोर जब अपनी एक बावली का उद्यापन करवा रहे थे तभी उन्हें एक अंग्रेज सैनिक टुकड़ी मिली जो भोजन व पानी न मिल पाने के कारण बुरी दशा में थी। उन्होंने तीन दिनों तक उन सैनिकों का अतिथि सत्कार किया। इसके बदले में अंग्रेज अधिकारी ने आश्वासन दिया कि जब कभी भी उन्हें सहायता की जरूरत हो तो वे उन्हें अवश्य याद करें। एक बार डल्लन पंडित जिन्होंने जबलपुर में रामलीला का शुभारंभ किया था अचानक एक मुकदमे में फंस गए। उन्होंने लल्लामन मोर से इस मामले में सहायता के लिए निवेदन किया। लल्लामन मोर ने तुंरत अंग्रेज अधिकारियों से मिलकर डल्लन पंडित को इस परेशानी से मुक्ति दिलाई।
वर्तमान रामलीला 1865 में प्रारंभ हुई, जिसके साथ रज्जू महाराज का नाम मुख्य रूप से जुड़ा है। इनके निधन के बाद नत्थू महाराज ने रामलीला की बागडोर सम्हाली। मिलौनीगंज के सभी व्यापारियों ने तन, मन, और धन से धार्मिक अनुष्ठान में अपना सहयोग दिया। इनमें मोथाजी मुनीम, साव गोपालदास, प्रभुलाल (पुत्ती) पहारिया, चुनकाई तिवारी, पंडित डमरूलाल पाठक और मठोलेलाल रिछारिया इसके प्रमुख सूत्रधार थे। बिजली आगमन के पूर्व यहां रामलीला मिट्टी के तेल के भपकों व पेट्रोमेक्स की रौशनी में होती थी। 1925 में जबलपुर में बिजली आ गई। अब रामलीला विद्युत प्रकाश में होने लगी जिससे उसका आकर्षण और बढ़ गया।
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। इसके कारण 1942 तक रामलीला का मंचन स्थगित रहा। 1943 में इसके प्रदर्शन हेतु सरकारी आदेश मिल जाने पर रामलीला फिर से प्रारम्भ हो गई। इस बार छोटेलाल तिवारी, गोविन्ददास रावत और डॉ. नन्दकिशोर रिछारिया ने इसके संचालन में अथक सहयोग दिया। 1965 में इसके सौ वर्ष पूरे होने पर इसकी शताब्दी मनाई गई।
जबलपुर के सदर क्षेत्र में फौजी छावनी थी। इसका प्रमुख मार्ग ईस्ट-स्ट्रीट कहलाता था। इस क्षेत्र में फौजी अधिकारी ही खरीद-फरोख्त करते दिखाई देते थे। इसमें छोटी-छोटी गलियाँ भी थीं जिनमें सैनिक संस्थानों के कर्मचारी रहते थे। उन्हीं दिनों शिवनारायण वाजपेयी नाम के एक उद्यमी सज्जन उत्तरप्रदेश से यहाँ आए और अपने भविष्य को सँवारने में लग गए। एक दूसरे सज्जन ईश्वरीप्रसाद तिवारी भी यहाँ आकर बस गए और ठेकेदारी का व्यवसाय शुरू किया। वे अपने साथ उत्तरप्रदेश से पासी जाति के लोगों को भी लाये थे जो उनके ठेकों में काम करते थे। तिवारी जी को 1881 में खन्दारी जलाशय निर्माण और बाद में हाईकोर्ट की भव्य इमारत बनाने का भी ठेका मिल गया। इन दोनों परिवारों में धार्मिक आयोजनों के प्रति बहुत रुचि थी। इन्हीं लोगों के प्रोत्साहन और सहयोग से सदर क्षेत्र में पहले-पहल रामलीला आरम्भ की गई। फौजी छावनी क्षेत्र में, जहाँ अंग्रेजों की सर्वोपरि सत्ता हो, ऐसे धार्मिक आयोजन करना बड़े साहस का काम था। जब असहयोग आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर था, तब इस क्षेत्र के प्रख्यात समाज-सेवी नरसिंहदास अग्रवाल व नन्दकिशोर मिश्र के सहयोग से रामलीला सफलता से आयोजित होती रही।
जैसे-जैसे नगर की जनसंख्या में वृद्धि होती गई, वैसे-वैसे नई-नई आवासीय बस्तियाँ बनती गईं। ये बस्तियाँ सदर और मिलौनीगंज क्षेत्रों से काफी दूरी पर थीं। धर्मप्रिय जनता को रामलीला आयोजन स्थलों तक पहुँचने में जब बहुत असुविधा होने लगी तो यहाँ के निवासियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में लघु रूप से रामलीलायें आरम्भ कीं। इनमें घमापुर, गढ़ा-पुरवा और गनकैरिज फैक्टरी क्षेत्र प्रमुख हैं।🔹
31 जुलाई को तुलसी जयंती थी। जुलाई के अंतिम सप्ताह से अगस्त के प्रथम सप्ताह तक तुलसी सप्ताह पूरे देश में मनाया जाता है। रामचरित मानस पढ़ कर त...