सीताराम सोनी जैसे खिलंदड़, खांटी, जीवंत और वैचारिकी से मजबूत व्यक्ति के जीवन का पटाक्षेप ऐसा होगा
इसके बारे में किसी ने कभी सोचा नहीं था। रंगकर्मी सीताराम सोनी का 29 अगस्त को
जबलपुर में निधन हो गया। जबलपुर ही नहीं पूरे देश में उनको जानने वालों के लिए यह
प्रश्न था आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया। हम लोग भी कयास लगा सकते हैं कि सीताराम
सोनी ने ऐसा क्यों किया?
जबलपुर में आधुनिक रंगकर्म की शुरुआत
श्रृंखला में उनके बारे में एक अध्याय लिखने की योजना थी। कोरोना के बाद रंगकर्मी
महेश गुरु के संबंध में जब लिखने की योजना बनी तब तय हुआ कि महेश गुरु के साथ
रंगकर्म के उनके आत्मीय साथी सीताराम सोनी व प्रकाश कुलकर्णी साथ में बैठेंगे तो
तथ्य व कथ्य निकलते जाएंगे और पूरा एक अध्याय तैयार हो जाएगा। लगभग डेढ़ वर्ष
सीताराम सोनी व प्रकाश कुलकर्णी के बीच तालमेल बैठाने में निकल गया और अंतत: महेश
गुरु से बातचीत संभव नहीं हो पाई। उस समय विचार किया गया कि सीताराम सोनी, तपन बैनर्जी व राजकुमार कामले पर एक सम्मिलित
अध्याय लिख कर और अरुण पाण्डेय पर बातचीत पूर्ण कर पुस्तक तैयार हो जाएगी। 6 जुलाई
2024 को जबलपुर में आधुनिक रंगकर्म की शुरुआत श्रृंखला के 58 वे अंक में आलोक
चटर्जी अध्याय की समाप्ति हुई थी। आलोक चटर्जी के रंगकर्म जीवन के बारे में
श्रृंखला में सात अध्याय लिखे गए थे। एक
वर्ष से अधिक का समय बीत गया और यह श्रृंखला थम गई। काम आगे बढ़ नहीं पा रहा था।
महेश गुरु के बाद सीताराम सोनी का आकस्मिक निधन हो गया। सीताराम सोनी से बात होती
तो 1977 से अब तक की उनकी समकालीनता के बारे में नई जानकारी अवश्य निकलती लेकिन वे
असमय चले गए। यह अब उस समय लिखा जा रहा है, जब सीताराम सोनी हमारे बीच में नहीं हैं।
इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर के
इंस्पेक्टर मातादीन और दुलारीबाई नाटक में कल्लू भांड़ की भूमिका निभाने वाले
रंगमंच कलाकार सीताराम सोनी हमारे विद्यालयीन समय में हीरो हुआ करते थे। इंस्पेक्टर
मातादीन और कल्लू भांड़ जैसे पात्रों को निभाकर वे चर्चित व लोकप्रिय हुए।
उन्होंने कोई व्यवस्थित प्रशिक्षण नहीं लिया था और न ही कॉन्स्टेंटिन
स्टैनिस्लावस्की को पढ़ा था लेकिन उनके अभिनय के फंडे और तरीके बिल्कुल स्पष्ट थे
और वे जीवन भर उस पर अडिग रहे। हरिशंकर परसाई अपनी व्यंग्य रचना इंस्पेक्टर
मातादीन चांद पर यदि इंस्पेक्टर मातादीन को भौतिक रूप से देखना चाहते तो उस खांचे
में सीताराम सोनी शतप्रतिशत फिट बैठते।
सीताराम सोनी को यदि समझना है तो
इसके लिए पिछली सदी के सातवें दशक के 77 से आठवें दशक की शुरुआत तक चलना पड़ेगा।
जबलपुर के साइंस कॉलेज में प्रो. श्याम सुंदर मिश्रा, डा. मलय, डा. उमेश द्विवेदी, डा. मधुमास खरे, प्रो. मगनभाई पटेल, प्रो. मदन गोपाल पटेरिया, प्रो. प्रभात कुमार मिश्रा जैसे प्रगतिशील व
खांटी वामपंथी प्राध्यापक थे। इनके कार्यकाल में अरुण पाण्डेय, राकेश दीक्षित, आलोक चटर्जी व तरुण गुहानियोगी जैसे रंगकर्मी व साहित्यकार उभरे।
साइंस कॉलेज में जबर्दस्त सांस्कृतिक व साहित्यिक माहौल था। वहीं जीएस कॉलेज में
ज्ञानरंजन प्राध्यापक थे। यहां सीताराम सोनी, राजकुमार कामले व भरत पटेल विद्यार्थी थे। जीएस कॉलेज में ज्ञानरंजन
तीनों विद्यार्थियों की प्रतिभा को देख व महसूस कर रहे थे। ज्ञानरंजन को तीनों के
भीतर सांस्कृतिक व साहित्यिक मूल्य के साथ सुदृढ़ वैचारिकी व सरोकार के गहरे भाव
दिखे। बताया जाता है कि ज्ञानरंजन ने तीनों को अंगूठे व अंगुली को मिलाकर मुंह से
सीटी कैसी बजाई जाती है, यह भी सिखाया
था। तीनों अभिनय व गायन में आला दर्जे के थे।
उस दौरान विवेचना ने नाटक करने की
शुरुआत कर दी थी। अलखनंदन ने नाट्य निर्देशक के रूप में बागडोर संभाल ली थी।
ज्ञानरंजन ने सीताराम सोनी, राजकुमार कामले
व भरत पटेल को विवेचना में नाटक करने के उद्देश्य से भेजा। दरिंदे का मंचन होने
वाला था। दरिंदे हमीदुल्ला का छोटा नुक्कड़ नाटक था। इसका निर्देशन करने लखनऊ से
चितरंजन दास जबलपुर आए थे। सीताराम सोनी उस समय तक अच्छी मिमिक्री कर लेते थे। इस
संबंध में साहित्यकार व विचारक तरुण गुहानियोगी का यह कहना सटीक है कि सीताराम
सोनी में फूटाताल मोहल्ले का प्रभाव या मोहल्ला से सीखने की बात जरूर की जाती है
लेकिन यदि उनकी वैचारिकी दृढ़ता व फ्रेमवर्क नहीं होता तो जबलपुर के हास्य
कलाकारों की सूची में उनका नाम भी जुड़ जाता। उनके भीतर मिमिक्री, कहानी गढ़ने, संगीत की धुन पकड़ने और खूब पढ़ने की आदत समाहित थी। एक ऐसा ही वाक्या
है जब विवेचना में एक नाटक के लिए शराबी व्यक्ति के पात्र के लिए कलाकारों का चयन
हो रहा था। आलोक चटर्जी ने जो अभिनय प्रस्तुत किया उसमें फिल्मी छाप दिख रही थी।
जब बारी सीताराम सोनी की आई तो फूटाताल मोहल्ला व कांचघर चुंगी चौकी में घंटो
बिताने का अनुभव काम आया और उन्होंने ऐसा अभिनय किया कि उनका उस भूमिका के लिए
तुरंत चयन कर लिया गया।
1982 तक विवेचना जबलपुर से अलखनंदन, गंगा (आनंद) मिश्रा, आलोक चटर्जी, राजकुमार कामले व दूसरे रंग समूह मीना चोलकर (मीनाक्षी चौहान) भोपाल
में भारत भवन के रंगमंडल में शामिल हो चुके थे। विवेचना में प्रश्न आया कि अब कौन
नाटकों का निर्देशन करेगा। एक बैठक आयोजित कर पूछा जा रहा था कि नए नाटक के मंचन
की जिम्मेदारी कौन सा व्यक्ति निभाएगा। अरुण पाण्डेय ने हानूश का निर्देशन कर मंचन
करने की जिम्मेदारी ले ली। बैठक में तपन बैनर्जी के बाजू में सीताराम सोनी बैठे
थे। उन्होंने तपन बैनर्जी को जोर दिया कि वे भी कोई नाटक को निर्देशित करने की
जिम्मेदारी ले लें। उस समय तक तपन बैनर्जी के दिमाग में कोई नाटक नहीं था लेकिन
सीताराम सोनी के दबाव में उन्होंने खड़े होकर एक नए नाटक को करने की जिम्मेदारी
स्वीकार कर ली। तपन बैनर्जी को समझ में नहीं आ रहा था कि वे कौन से नाटक को मंचित
करें। एक दिन सीताराम सोनी ने उनको हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना इंस्पेक्टर
मातादीन चांद पर लाकर दी और कहा कि वे इसका नाट्य रूपांतरण करें और हम लोग इसे
नुक्कड़ नाटक के रूप में सड़क पर मंचित करेंगे। तपन बैनर्जी ने वर्षों पूर्व द
इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया (The
Illustrated Weekly of India) में परसाई के इस व्यंग्य को पढ़ा था। तपन
बैनर्जी नाट्य रूपांतरण में जुट गए। उस समय तक रंगकर्म में डिजाइनिंग जैसा शब्द
नहीं था लेकिन सीताराम सोनी ने इसे नुक्कड़ नाटक के रूप में डिजाइन किया। सीताराम
सोनी इंस्पेक्टर मातादीन की मुख्य भूमिका में थे। सूत्रधार की भूमिका राकेश दीक्षित
निभाते थे। बाद में ये भूमिका अरुण पाण्डेय ने भी निभाई। सीताराम सोनी ने
इंस्पेक्टर मातादीन के रूप में गजब का इम्प्रोवाइजेशन करते थे। उन्होंने उस समय के
कई पुलिस इंस्पेक्टर के चरित्र का मिश्रण इस भूमिका में किया। शुरुआत तो जबलपुर के
चौराहों से हुई लेकिन धीरे धीरे इसके मंचन विश्वविद्यालय व कॉलेज परिसर में होने
लगे। उस समय प्रगतिशील लेखक संघ सक्रिय था तो इसलिए उसके आयोजन में इंस्पेक्टर
मातादीन चांद पर का मंचन एक अनिवार्यता बन गई। इस नुक्कड़ नाटक की लोकप्रियता इतनी
जबर्दस्त थी कि मध्यप्रदेश सहित पूरे देश में इसके हजारों मंचन हुए। कुछ स्थानों
पर पुलिस ने मंचन रूकवाया तो कभी सीताराम सोनी को ही पकड़ लिया। इंस्पेक्टर
मातादीन के रूप में सीताराम सोनी ने अपनी आवाज, भाव भंगिमाओं व आंगिक हावभाव से ऐसा वातावरण बना लेते थे जो देखने
वालों को बांध लेता था। वे नाटक के दृश्य में इंट्री को बहुत महत्व देते थे। इसके
लिए बहुत मेहनत करते थे। यही अपेक्षा साथी कलाकारों से चाहते थे। सीताराम सोनी ने
राजा का बाजा, समरथ को दोष
नहीं गुसाईं, मशीन जैसे
नुक्कड़ नाटकों में विविधतापूर्ण भूमिका निभाकर अपनी अभिनय कला को चहुं ओर
बिखेरा।
इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर सीताराम
सोनी के अभिनय के चर्चे हरिशंकर परसाई तक पहुंचे। वैसे भी सीताराम सोनी परसाई से
मिलने इस नाटक के मंचन के पूर्व भी जाते थे और परसाई उनको चाहते भी खूब थे। बाद
में हरिशंकर परसाई कहने लगे थे कि मैं जो कहना चाहता हूं उसे थिएटर वाले उल्टे
ढंग या तरीके से करते हैं।
सीताराम सोनी ने प्रोसनियम थिएटर
बहुत किए। दुलारी बाई के कल्लू भांड़ कीइ उनकी भूमिका को कौन भूल सकता है। जुलूस
में उनका अभिनय एक अलग छाप छोड़ता था। सीताराम सोनी का मानना व विश्वास था कि
जनता के बीच जाना है तो नुक्कड़ करना ही होगा। कुछ ऐसे ही उनका मानना था कि नाटक
सिर्फ अभिनेता या कलाकार का माध्यम है। उस समय उत्पल दत्त की बंगला में लिखी एक
पुस्तक चाय धुआं (चाय के धुएं में) प्रकाशित हुई। तरुण गुहानियोगी के सौजन्य से
यह पुस्तक सीताराम सोनी और अन्य रंगकर्मियों के बीच पढ़ने के लिए वितरित की गई। इस
पुस्तक में रंगकर्म के विभिन्न तत्व और उससे जुड़े लोग अपना पक्ष रखते हैं लेकिन
मूल भाव यह था कि रंगकर्म सामूहिक कर्म है। इस बात से सीताराम सोनी जिंदगी भर सहमत
नहीं रहे। वे जीवन भर अटल रहे कि नाटक सिर्फ कलाकार का....कलाकार का माध्यम है। उस
दौरान विवेचना में इस बात को लेकर स्वस्थ बहस भी हुई कि प्रोसेनियम या स्ट्रीट थिएटर
कौन सा किया जाए। जनता के बीच जाने को लेकर हर समय सीताराम सोनी नुक्कड़ नाटक के
पक्ष में रहे। सीताराम सोनी की असहमति कई बातों को लेकर रहीं। जब अरुण पाण्डेय ने
हंसा उड़ चल के मंचन की शुरुआत की तब सीताराम सोनी इस बात से असहमत थे कि ईसुरी
भला बुंदेलखंड के कबीर कैसे हो सकते हैं। ईसुरी में कबीर जैसा एक भी तत्व मौजूद
नहीं था। सीताराम सोनी की विवेचना से कई असहमति थी लेकिन उन्होंने कोई नया संगठन
नहीं बनाया।
सीताराम सोनी में जन्मजात संगीत की
धुन पकड़ने का ज्ञान था। इसकी शुरुआत वर्ष 1986 में उस समय हुई जब सीताराम सोनी
जबलपुर के साथियों के साथ प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में गए। वहां
बेगूसराय इकाई द्वारा लोकधुन पर जनगीत की प्रस्तुति दी गई। उनकी प्रस्तुति से वहां
मौजूद लोग आकृष्ट हुए और प्रभावित भी। जबलपुर वापस आकर सीताराम सोनी व तरुण
गुहानियोगी अन्य साथियों ने कई कवियों को गाने की कोशिश की। त्रिलोचन की कविता
को जनगीत में ढाल नहीं पाए। केदारनाथ अग्रवाल की कविता-
मार हथौड़ा,
कर-कर चोट !
लाल हुए काले लोहे को
जैसा चाहे वैसा मोड़ !
मार हथौड़ा,
कर-कर चोट !
थोड़े नहीं- अनेकों गढ़ ले
फ़ौलादी नरसिंह करोड़।
मार हथौड़ा,
कर-कर चोट !
लोहू और पसीने से ही
बंधन की दीवारें तोड़।
मार हथौड़ा,
कर-कर चोट !
दुनिया की जीती ताकत हो,
जल्दी छवि से नाता जोड़ !
को पहले आल्हा के रूप में तैयार
किया। आल्हा कमजोर पड़ रहा था। सबने मिलकर इस कविता को तोड़ कर गाया। तोड़ने से एक
अलग फोर्स बना। केदारनाथ अग्रवाल की इस कविता में बुंदेलखंडी लय व बोली की
स्वभाविक थी। असरदायक जनगीत बना और यह खूब गाया गया। राधा वल्लभ त्रिपाठी ने
कविता को तोड़ने पर बने फोर्स पर बकायदा एक आलेख भी लिखा था। इसके बाद तो जो क्रम
बना उसमें दुख न गयो दरिद्र न छूटे, हमको मारो नजरिया/ऊंची अटरिया पर बैठे रहो तुम गोविंद बोलो हरगोविंद
बोलो....मन के ताले तोड़ो...चोर मंत्री....सेठ रक्षक बीच बाजार में.....होत है
चुनाव देखो कलदार जैसे गीत रचे गए और जनगीत के रूप में प्रस्तुत होकर लोकप्रिय
हुए। इन जनगीत की प्रस्तुति में सीताराम सोनी की बड़ी भूमिका रही। यहां इस बात को
ध्यान में रखा गया कि ऐसे जनगीत लिखे जाएं जैसा नागार्जुन लिखते थे। नागार्जुन भजन
को इस तरह लिखते थे कि उसमें प्रगतिशील स्वर गूंजने लगता था। इस बात को सूत्र
बांधकर रखा गया। एक ऐसा ही जनगीत था जिसमें बोल थे संग लाए देवी का झंडा। जनगीत की
प्रस्तुति में लाल झंडा फहरा दिया जाता था। यह लाल झंडा वामपंथ का प्रतीक रहता था।
सीताराम सोनी ने नुक्कड़ नाटक व
जनगीत की प्रस्तुति के दौरान मध्यप्रदेश की खूब यात्राएं कीं। एक ऐसी यात्रा में
सतना में उनकी मुलाकात केदारनाथ अग्रवाल से हुई। केदारनाथ अग्रवाल को जब जानकारी
मिली कि उनसे मिलने वालों में उनकी कविता को जनगीत के रूप में प्रस्तुत करने वाले
सीताराम सोनी व तरुण गुहानियोगी हैं तो वे प्रसन्न हुए। केदारनाथ अग्रवाल ने परिमल
प्रकाशन के शिव कुमार सहाय से कहा कि वे उनकी नई पुस्तक प्रगतिशील काव्यधारा और
केदारनाथ अग्रवाल दोनों को भेंट करें। केदारनाथ अग्रवाल हस्ताक्षरित यह पुस्तकें
सीताराम सोनी व तरुण गुहानियोगी के पास मौजूद हैं।
नब्बे के दशक में सीताराम सोनी अपने
संस्थान रेलवे की नाट्य गतिविधियों में सक्रिय हुए। वे महेश गुरू व प्रकाश
कुलकर्णी के नदजीक रहे। रेलवे के रंगकर्मियों के साथ उन्होंने सगुन पंछी का मंचन
किया। उन्होंने मंचित हुए सभी नाटकों की धुन तैयार की। उन्होंने द्वारिका गुप्त
गुप्तेश की स्क्रिप्ट पर हंसा उड़ चल को मंचित किया। विवेचना में बसंत काशीकर के
निर्देशन में सीताराम सोनी ने मानबोध बाबू में अभिनय किया लेकिन यहां तक आते-आते
उनको डायबीटिज हो गई। इसका प्रभाव उनके शरीर के विभिन्न अंगों में दिखने लगा।
बाद के दिनों में रेलवे से रिटायर
होने के बाद सीताराम सोनी विवेचना रंगमंडल में अरुण पाण्डेय के साथ जुड़ गए।
प्रतिदिन वे चंचलबाई कॉलेज में शाम को रिहर्सल में पहुंच जाया करते थे। अरुण
पाण्डेय ने उनको किसी नाटक को निर्देशित करने के लिए कई बार कहते थे लेकिन बीमारी
की वजह से वे एकाग्रता से विलगित होने लगे थे। वैसे भी सीताराम सोनी अभिनेता रहना चाहते
थे, आज की तरह निर्देशक नहीं बनना चाहते थे। वे
तटस्थ नहीं रहे। आंखों की रोशनी कम होने लगी। पढ़ाई छूट गई। संभवत: मनोवैज्ञानिक
बाधांए हावी हो गईं। इससे पूर्व जीवन को पहला झटका जब लगा तब उनकी प्रथम संतान शिवी
का जन्म हुआ तो वह सेरेब्रल पल्सी से ग्रसित था। दुनिया भर में सीताराम सोनी घूमे।
14 वर्ष की आयु में शिवी नहीं रहा। सीताराम सोनी को दूसरा झटका जब लगा जब उनकी
पत्नी को लकवा लगा। उनके जीवन में संतुलन बिगड़ने लगा था। सब कुछ समाप्त होने से
वे निराश थे।
सीताराम सोनी को हम इस रूप में देखते
थे कि वह नौजवान रंगकर्मियों के अत्यंत प्रिय थे। उनकी लोकप्रियता गजब की थी।
नौजवान रंगकर्मियों को महसूस होता था कि वे न तो उनके लिए सर हैं और न ही दादा।
उनको लगता था कि सीताराम सोनी उनके जैसे ही हैं। सीताराम सोनी हर समय नौजवान
रंगकर्मियों को मार्गदर्शन व सहायता देने के लिए तत्पर रहते थे। जबलपुर में जिस
स्थान पर भी किसी नाटक का मंचन होता था वहां उनकी उपस्थिति जरूर रहती थी। नौजवान
उनको अपने बीच पाकर खुश हो जाया करते थे। सीताराम सोनी माहौल को अपने ढंग का बना
लेते थे। वे बातों से उकसाते थे। उनकी जबलपुर के हास्य कलाकार कुलकर्णी बंधु के
बीच की नोकझोंक लोगों को गुदगुदाती थी। राजकुमार कामले के कामले शब्द को लेकर वे
आंवले कह कर कहानी गढ़ लेते थे।
सीताराम सोनी जीवन भर प्रगतिशील
विचारों पर सुदृढ़ रहे। बेटी का विवाह महिल पुरोहित से संपन्न करवाया। वैवाहिक
कुरूतियों को ध्वस्त किया। बेटी का कन्यादान नहीं किया बल्कि हस्तदान किया।
सीताराम सोनी लम्बे समय तक भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे। वे रेलवे की यूनियन में सक्रिय रहे। उनको लेकर
कितनी बातें हो रही हैं। फूटाताल, वहां का मैदान, कांचघर चुंगी चौकी, सतपुला की सड़कें, काफी हाउस के बाहर की पट्टी, चंचलबाई कॉलेज में नाटक की रिहर्सल के समय को शाम को उनका चलने का
अंदाज, उनका बहस करना, असहमति प्रगट करना, परसाई व
ज्ञानरंजन सहित कई लोगों के सामने बैठकर उनकी ही मिमिक्री करना। हम लोगों को यह
जानकारी ही नहीं मिली कि वे नितांत अंधेरे व अकेलेपन से जूझ रहे थे। जब तक जानकारी
मिलती देर हो चुकी थी।🔷