मैं होली के दूसरे दिन समीर लाल के घर निश्चित समय से थोड़ी देर से पहुंचा। कव्वाली शुरु हो चुकी थी। कार्यक्रम स्थल पर मैंने देखा कि एक जाना-पहचाना व्यक्ति मंच पर बैठ कर कव्वाली गा रहा था। उसकी कव्वाली आमतौर पर मंचीय कव्वाली से हट कर थी। और हो भी क्यों नहीं। वह व्यक्ति कोई प्रोफेशनल कव्वाल नहीं था, बल्कि वह पेशे से एक अकाउंटेंट और एडवोकेट है। यह व्यक्ति समीर लाल के आयोजन में अपने गुरु शेख लुकमान को श्रद्धांजलि देने के उद्देश्य से उनके द्वारा प्रस्तुत कव्वाली, गजल और गीत को गाने आया हुआ था। यह व्यक्ति सुशांत दुबे था। जबलपुर में लुकमान के सिर्फ दो ही शिष्य हैं। एक सुशांत दुबे और दूसरे शेषाद्रि अय्यर।
लुकमान अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन आज भी उनके गाए गीत गूंज रहे हैं। उनके गीतों की अलख सुशांत दुबे और शेषाद्रि अय्यर ने जगाई रखी है। लुकमान मूलत: जबलपुर के थे। उन्हें बचपन से ही गाने गुनगाने का शौक था। यह बात उनके बेहद करीब के लोग जानते थे। उनके एक दोस्त के यहां शादी हो रही थी। सेहरा पढ़ने के बाद नित्यरंजन पाठक की कव्वाली हुई। इसी महफिल में दुर्गा गुरु और एडवोकेट अब्दुल वहाब भी थे। जैसे ही कव्वाली खत्म हुई, तो एडवोकेट वहाब के इशारे पर दुर्गा गुरु ने लुकमान से 'कुछ' सुनाने की फरमाईश की। सभी लोगों के जोर देने पर पहले लुकमान थोड़े शर्माए और झिझके, लेकिन जैसे ही उन्होंने 'तमन्ना के गुंचे खिले जा रहे हैं, बहार आ रही है कि वह आ रहे हैं' गजल सुनाई तो लोग पागल से हो गए। इसके बाद लुकमान सारी रात सुनाते रहे, और लोग सुनते रहे। इसके बाद जो सिलसिला शुरु हुआ, वह जबलपुर में 55 वर्ष तक लगातार चलता रहा। लुकमान जिस महफिल में गाएं और वह सुबह तक न चलें, ऐसा बहुत ही कम हुआ।
जबलपुर के प्रसिद्ध साहित्यकार भवानी प्रसाद तिवारी के यहां वर्षों पहले साहित्य और संगीत की बैठकें जमा करती थीं। अब्दुल वहाब और भवानी प्रसाद तिवारी परिचित थे और एक दिन वहाब साहब लुकमान को उनके घर ले गए। उस दिन तिवारी जी की संगीत बैठक में एक शास्त्रीय गायक अपनी प्रस्तुति दे रहे थे। उस समय लुकमान के साथ अंतरराष्ट्रीय हॉकी रैफरी सुरेन्द्र शुक्ला (सुक्खन दादा) भी थे। जरुरी काम के कारण उस समय वहां भवानी प्रसाद तिवारी मौजूद नहीं थे। जैसे ही शास्त्रीय गायक ने अपना गायन समाप्त किया, तो लोगों ने लुकमान से गाने की फरमाईश की। साहित्य और कला के दिग्गज लोगों को देख कर लुकमान थोड़ा सहमे हुए थे। उन्होंने कहा शुरु करता हुं, लेकिन मजाक नहीं उड़ाईएगा। लुकमान ने बिना किसी संगीत के वहजाद लखनवी की गजल-'मस्ती नवाज शोखी अंदाज का फिराना जुल्फें सिया घटाएं आंखें शराबखाना' सुनाई तो सुनने वालों को लगा कि जैसे एक ताजा झोंका आया हो। कुछ देर बाद भवानी प्रसाद तिवारी आ गए। महफिल में मौजूद लोगों ने उन्हें लुकमान की गायकी का अंदाज बयां किया। लुकमान ने उन्हें पहली गजल फिर सुनाई। इसको सुन कर भवानी प्रसाद तिवारी ने कहा कि अब इससे ऊंची ही बात रहे। यह महफिल भी रात भर चलती रही। लुकमान ने मुझे बताया था कि इस घटना के बाद तो जैसे दरवाजा ही खुल गया। फिर भवानी प्रसाद तिवारी के यहां होने वाली हर हफ्ते की शनिवार रात की महफिल में लुकमान की उपस्थिति और उनका गायन एक परपंरा बन गई। भवानी प्रसाद तिवारी के यहां उन दिनों आने वालों में केशव प्रसाद पाठक, रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊंट', रामेश्वर प्रसाद गुरु, गणेश प्रसाद नायक, पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', प्रेमचंद श्रीवास्तव 'मजहर', नर्मदा प्रसाद खरे जैसे साहित्यकारों के साथ कई युवा पत्रकार और समाजवादी थे।
लुकमान की ख्याति हिन्दी गीत और प्रसिद्ध कवियों और साहित्यकारों के पद्य को गीत के रुप में गाने से हुई। लुकमान द्वारा गाए हुए नीरज का गीत-'विरह रो रहा है, मिलन गा रहा है, किसे याद रखूं, किसे भूल जाऊं', भवानी प्रसाद तिवारी के गीत 'प्यार न बांधा जाए साथी' और 'माटी की गगरिया' महादेवी वर्मा के गीत 'बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं' एवं 'चिर सजग आंखें, उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना जाग तुझको दूर जाना' को जबलपुर के बाहर दिल्ली, इंदौर, इलाहबाद, बनारस के संगीत प्रेमी आज भी याद करते हैं। लुकमान ने छठे से ले कर आठवें दशक तक इतना नाम कमाया कि जबलपुर की कुछ प्रसिद्ध चीजों में लुकमान कव्वाल भी एक थे। लुकमान के लिए अकबर इलाहबादी का यह शेर याद आ जाता है-
'गुजरे हैं इश्क नाम के एक हजरते बुजुर्ग
हम लोग भी फकीर उसी सिलसिले के हैं'