बुधवार, 25 जनवरी 2023

पौराण‍िक पात्रों से समकालीन सवालों का साहस है ‘भूमि’/पंकज स्वामी


लगभग डेढ़ दशक में देश के समकालीन रंगकर्म में जबलपुर के रंग समूह समागम रंगमंडल की विशि‍ष्ट पहचान बन चुकी है। हिंदी पट्टी में समागम रंगमंडल को सर्वाध‍िक संभावनापूर्ण और प्रयोगधर्मिता के लिए जाना-पहचाना जाता है। समागम रंगमंडल के मंचित नाटकों की विशेषता उनका समकालीन मुद्दों से टकराहट है। समागम रंगमंडल ने आशीष पाठक लिखि‍त और स्वाति दुबे निर्देश‍ित नए नाटक ‘भूमि’ का मंचन पिछले दिनों जबलपुर में किया। यह नाटक का दूसरा मंचन था। इस मंचन से कुछ दिन पूर्व नाटक का पहला मंचन जयपुर के जयरंगम में हुआ। 

‘अगरबत्ती’ की सफलता के बाद आशीष पाठक से उनके नाट्य लेखन को ले कर हर समय उत्सुकता रहती है। उन्होंने 25 वर्षों के नाट्य जीवन में 17 नाटक लिखे हैं। आशीष पाठक ने इंटर कॉलेज नाट्य प्रस्तुतियों के लिए स्वयं के लिखे विषकन्या नाटक से शुरूआत की थी। इसके पश्चात् सुगंधि, सोमनाथ व अगरबत्ती का निर्देशन किया। हयवदन के निर्देशन ने उनके लिए व्यापकता व विस्तार का द्वार खोला। 

वर्ष 2008 में आशीष पाठक ने समागम रंगमंडल नाट्य समूह गठित किया। समूह के गठन के साथ उन्होंने पॉपकार्न नाटक का लेखन किया और समागम की पहली प्रस्तुति के रूप में दर्शकों के समक्ष पेश किया। एकल अभ‍िनय पर केन्द्र‍ित पॉपकार्न दर्शकों के लिए हवा का ताजा झोंका था। पॉपकार्न के पश्चात् आशीष पाठक ने एक नया नाटक रेड फ्रॉक को लिख कर मंच पर प्रस्तुत किया। यह प्रस्तुति भी विचारधारा के अंतर्विरोध को दर्शाती थी। नाटक की विषयवस्तु ने दर्शकों को गहराई से प्रभावित किया। इस नाटक के पश्चात् समागम रंगमंडल ने अपनी प्रस्तुतियों में मुख्यधारा के कलाकारों से किनारा कर लिया और कॉलेज के विद्यार्थ‍ियों व नवोदित कलाकारों को अवसर देना प्रारंभ किया। आशीष पाठक यहां से एक बार फिर बुनियादी स्तर की लौटे। उन्होंने डकैत चूहे में बेक स्टेज करने वाले एक कलाकार को मुख्य भूमिका निभाने का अवसर दिया।

आशीष पाठक ने समागम रंगमंडल के माध्यम से पारम्परिक स्क्र‍िप्ट के स्थान पर स्वयं के लिखे या असामान्य विषयों को नाट्य रूपांतरण कर नाटक की विषयवस्तु बनाया है। नाट्य रूपांतरण के रूप में प्रस्तुत किया गया आशीष पाठक का सुदामा के चावल उनकी महत्वपूर्ण प्रस्तुति है। हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना को उन्होंने तीव्रता के साथ मंच पर प्रस्तुत किया। सुदामा के चावल से राजनैतिक सत्‍ता पर कठोर प्रहार किया है। इस नाट्य प्रस्‍तुति को राजनैतिक दवाब का सामना भी करना पड़ा है। मध्‍यप्रदेश में तो आयोजक सुदामा के चावल के मंचन से बचने लगे हैं। सुदामा के चावल को अहीराई नृत्‍य शैली में प्रस्‍तुत कर रंगकर्म का नया फार्म प्रस्‍तुत किया गया। इस प्रस्तुति में परसाई काव्‍यात्‍मक रूप में दर्शकों के समक्ष आए।

समागम रंगमंडल की इसके पश्‍चात् की प्रस्‍तुतियां रावण, सराय और यहूदी की लड़की में लोक तत्‍व एवं संगीत  का उपयोग बखूबी किया गया। यहां एक बात गौरतलब है कि प्रस्तुतियों का लोक तत्‍व जटिल नहीं है, बल्कि वह दर्शकों से तदात्‍म स्‍थापित कर लेता है। लोर्का लिखित बिरजिस कदर का कुनबा समागम रंमंडल की एक महत्‍वपूर्ण प्रस्‍तुति है। जटिल विषय पर आधारित इस प्रस्‍तुति में कॉलेज विद्यार्थ‍ियों जैसे अनगढ़ कलाकारों से होशि‍यारी से काम लिया गया। समागम रंगमंडल अपनी प्रस्‍तुतियों में नाट्य लेखक को बराबरी से श्रेय देती है। महेश एलकुंचवार के वासांसि जीर्णानी के मंचन के लिए आशीष पाठक व स्वाति दुबे ने लेखक से व्‍यक्तिगत मिलने की काफी जद्दोजहद की। नागपुर में बार-बार जा कर आखि‍र एक दिन आशीष पाठक महेश एलकुंचवार से मिलने में सफल हो गए। नाटक की चर्चा के साथ आशीष पाठक लेखक को उनकी रायल्‍टी देने में भी ईमानदारी दिखाई। इस प्रस्‍तुति को एक संवाद की यात्रा के नाम से प्रस्‍तुत करते रहे। आशीष पाठक अपने लिखे नाटक को निरंतर अद्यतन करते हुए प्रयोग की प्रक्रिया में रहते हैं। अगरबत्ती नाट्य प्रस्तुति के लिए उन्होंने काफ़ी शोध‍ किया। इसके लिए वे और स्वाति दुबे बुंदेलखंड एवं जालौन और आसपास के क्षेत्रों में गाए जाने वाले गीतों को खोज कर नाटक में प्रस्तुत किया है।  अगरबत्ती की खास‍ियत उसकी परिकल्पना व जटिलता है। आशीष पाठक अन्य नाट्य लेखक व निर्देशकों की तुलना में जटिलता में ज्यादा जाते हैं। 

आशीष पाठक ने ‘भूमि’ को लिखने में लगभग तीन-चार वर्ष का समय लगाया है। इसके लिए उनकी योजना एक डेढ़ वर्ष पूर्व शुरू हो चुकी थी। ‘भूमि’ दरअसल महाभारत के पात्र बभ्रुवाहन पर केन्द्र‍ित है लेकिन नाटक में अर्जुन और चित्रांगदा के चरित्र उभर कर सामने आते हैं। इन दोनों पात्रों के संवाद व विषयवस्तु के माध्यम से आशीष पाठक ‘भूमि’ को समकालीनता सवालों से जोड़ देते हैं। नाटक के पात्र और उनके विचार प्रतीक के रूप में सामने आते जाते हैं। नाटक के मुख्य पात्र अर्जुन व बभ्रूवाहन पुरूष हैं तो चित्रांगदा व उलूपी महिलाओं का प्रतिन‍िध‍ित्व करते हुए द्वन्दों को उभारती हैं। आशीष पाठक नाटक में अश्वमेध यज्ञ के माध्यम से साम्राज्यवादी विस्तार व इच्छाओं को इंगित करते हैं तो भूमि को स्त्री से जोड़ते हैं। वे भूमि को मिथकों से जोड़ते हैं। 

अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा के अलावा दो और विवाह किए थे। अर्जुन ने दूसरा विवाह मणिपुर की राजकुमारी चित्रांगदा जिसका पुत्र बभ्रुवाहन और तीसरा विवाह उलूपी से किया था जिसका पुत्र अरावन था। बभ्रुवाहन अपने नाना की मृत्यु के बाद मणिपुर का राजा बनाया गया। जब युधिष्ठिर ने अश्वमेघ यज्ञ करवाया तो यज्ञ के घोड़े को बभ्रुवाहन ने पकड़ लिया था। घोड़े की रक्षा के लिए अर्जुन मौजूद थे तब बभ्रुवाहन का अपने पिता से युद्ध होता है और युद्ध में बभ्रुवाहन जीत जाता और अर्जुन मूर्छित हो जाता है। अपनी मां चित्रांगदा के कहने पर बभ्रुवाहन मृतसंजीवक मणि द्वारा अर्जुन को चैतन्य कर देता है। 

अर्जुन, चित्रांगदा, बभ्रूवाहन जैसे पात्रों को केन्द्र में रख कर रवीन्द्र नाथ टैगोर नाटक और जयशंकर प्रसाद ने कहानी लिखी है। इस कथा पर कन्नड़ व तेलगु में फिल्में बनी है। इन फिल्मों में कन्न्ड़ के सुपर स्टार राजकुमार और एनटीआर जैसे कलाकारों ने अभ‍िनय किया। हिन्दी में भी अलग अलग समय में दो फिल्मों का निर्माण हुआ। आधुनिक काल में आशीष पाठक ने इस विषयवस्तु पर नाटक लिख कर इसे समसामयिकता दी है। नाटक लिखने के बाद स्वति दुबे ने मण‍िपुर की यात्रा कर वहां की संस्कृति, वेशभूषा, मार्शल आर्ट जैसी बारीक बातों का अध्ययन कर उसे नाटक में उतारा। पिछले वर्ष जुलाई-अगस्त में समागम रंगमंडल ने मण‍िपुरी मार्शल आर्ट थांग-टा का बीस दिनों का एक वर्कशॉप आयोजित किया। इसके लिए उन्होंने मण‍िपुर से विशेष रूप से चिंगथम रंजीत खुमान को आमंत्र‍ित कर अपने कलाकारों को प्रश‍िक्षण दिया। थांग-टा मण‍िपुर का पारम्परिक मार्शल आर्ट है, जिसमें सांस की लय के साथ समन्व‍ित रूप से शारीरिक नियंत्रण का अभ्यास किया जाता है। थांग-टा में कलाकारों को भाले व तलवार का प्रश‍िक्षण भी दिया गया। जबलपुर के अमित सुदर्शन कलाकारों को केरल के मार्शल आर्ट कलारी पट्टू के साथ मणिपुरी मार्शल आर्ट का लगातार प्रशिक्षण देते आ रहे हैं। 

शोध, लेखन, यात्रा, प्रश‍िक्षण, थकाऊ रिहर्सल के बाद ‘भूमि’ दर्शकों के समक्ष मंचन के रूप में सामने आया। इस नाटक की डिजाइनिंग, क्राफ्ट व परिकल्पना में निर्देशक स्वाति दुबे की मेहनत स्पष्ट रूप से झलकती है। 90 मिनट की प्रस्तुति में उन्होंने एक एक दृश्य में खासी मेहनत की है। कलाकारों की आंगिक क्र‍ियाएं मंच पर देख कर महसूस होता है कि वे भी पूरे नाटक में डूबे हुए हैं। कलाकारों की स्पीच पर खूब मेहनत की गई। लंबे संवाद कहीं बोझ‍िल नहीं होते बल्क‍ि दर्शक मंच पर सामने देखते हुए एक एक शब्द व सशक्त संवाद को सुनने का जतन करते हैं। नाटक का गीत जाओ तुम पुरवा के संग लौट आना तुम में नृत्य व संगीत रिलेक्स पैदा करता है। यह गीत सोम ठाकुर का है और इसे संगीतबद्ध संजय उपाध्याय ने किया है। किसी पारम्परिक मणिपुरी लोक संगीत की तुलना में इस गीत को मंच पर प्रस्तुत करना ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध हुआ।आशीष पाठक की लाइट डिजाइनिंग अद्भुत रही। बांस का सेट विषयवस्तु को आधार व मजबूती देता है। नाटक के अंत में अर्जुन व बभ्रूवाहन के बीच का खड्ग युद्ध की मौलिकता व स्वाभाविकता इससे पूर्व नाटकों में कभी देखने को नहीं मिली। स्वाति दुबे चित्रांगदा की भूमिका को अपने संवादों के जरिए विस्तार के साथ प्रभावी बनाती हैं। नवयुवती के अल्हड़पन से मां तक के भाव सहजता के साथ सम्प्रेष‍ित होते हैं। अर्जुन के रूप में हर्ष‍ित सिंह कहीं कहीं अनुभवी कलाकार स्वाति दुबे के समक्ष मंच पर संकोची प्रदर्श‍ित होते हैं। उन्हें मंच पर यह संकोच का भाव छोड़ना होगा। 

आशीष पाठक व स्वाति दुबे मण‍िपुरी पृष्ठभूमि में ‘भूमि’ को जिस सफलता से प्रस्तुत किया है, संभवत: ऐसा मण‍िपुर के रंग समूह नहीं कर सकेंगे। आशीष व स्वाति अगरबत्ती के धूसर से भूमि के व‍िभ‍िन्न रंगों में आए हैं। यह एक बदलाव है। ऐसी विविधता की ख्वाहिश लेखक व निर्देशक में होना अच्छी बात है। आशीष पाठक स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि जब वे मौलिक विषय पर नाटक लिखते हैं तो उनको स्वतंत्रता रहती है। यही स्वतंत्रता उनकी चिंगारी है। इस चिंगारी की कमी ‘भूमि’ में खलती तो ज़रूर है। बहरहाल आशीष व स्वाति की चम्बल से दूर पूर्वोत्तर की यह यात्रा लंबे समय तक देश के मंचों पर दिखती रहेगी और सराहना भी बटोरेगी।

बुधवार, 19 अक्तूबर 2022

जबलपुर में गांधी, नेहरू, सुभाष की जितनी नहीं उतनी मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैय्या की 9 मूर्तियां

  

 अद्भुत शहर है जबलपुर। इसकी कुछ खूबियों पर लोगों का ध्यान, नज़र, बतकही कम ही रही। एक खूबी है जिसे इंजीनियरिंग या अभ‍ियांत्र‍िकी कहा जाता है। संदर्भ सिर्फ इतना है कि 15 सितंबर को मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या का जन्मदिवस है। उनके जन्मदिवस को जबलपुर सहित पूरे देश में अभ‍ियंता दिवस या इंजीनियर डे के रूप में मनाया जाता है। विश्वेश्वरय्या व जबलपुर का आपसी संबंधी इसलिए महत्वपूर्ण है कि यहां गांधी, नेहरू, सुभाष की जितनी मूर्तियां नहीं है उतनी विश्वेश्वरय्या की मूर्तियां हैं। विश्वेश्वरय्या की जबलपुर में नौ (9) मूर्तियां व‍िभ‍िन्न स्थानों में स्थापित की गईं हैं। जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में विश्वेश्वरय्या की मूर्ति सबसे पहले स्थापित की गई। विश्वेश्वरय्या की अन्य मूर्तियां कला निकेतन पॉलीटेक्न‍िक कॉलेज, इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स, पीडब्ल्यूडी के चीफ इंजीनियर आफ‍िस, सिंचाई विभाग बरगी हिल्स, हितकारिणी इंजीनियरिंग कॉलेज, नर्मदा मंडल पचपेढ़ी व लोक स्वास्थ्य यांत्र‍िकी (पीएचई) आफ‍िस में स्थापित हैं। नौंवी मूर्ति का अनावरण 15 सितंबर 2022 को मध्यप्रदेश विद्युत अभ‍ियंता संघ के रामपुर कार्यालय में किया गया। संभवत: यह गिनीज बुक का रिकार्ड होगा कि किसी शहर में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की नौ (9) मूर्तियां हैं। वैसे मध्यप्रदेश देश का एकमात्र ऐसा प्रदेश है, जहां मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की सर्वाध‍िक मूर्तियां हैं।

    जबलपुर की नस-नस में कुछ अच्छी और कुछ खराब चीजों की तरह अभ‍ियांत्र‍िकी या इंजीनियरिंग के बीज पड़े हुए हैं। जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज को भारत का दूसरा इंजीनियरिंग कॉलेज होने का गौरव प्राप्त है। जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना देश स्वतंत्र होने के पूर्व 7 जुलाई 1947 को हो गई थी। जबलपुर इंजीनियरिंग के प्राचार्य डॉ. एस.पी. चक्रवर्ती  की दूरदृष्टि‍ थी कि उन्होंने राबर्टसन कॉलेज के छोटे कमरे से इसे वट वृक्ष में परिवर्तित करने में अहम् भूमिका निभाई।

    देश व प्रदेश का सबसे पुराना इंजीनियरिंग कॉलेज होने के कारण जबलपुर में इंजीनियरिंग और इससे सीधे रूप से संबद्ध श‍िक्षा, पेशा, नौकरी, रोजगार का खूब फले फूले। उसी समय यानी कि स्वतंत्रता के बाद लगभग 15 सालों के भीतर जबलपुर में शास्त्री ब्रिज, मेड‍िकल कॉलेज, जबलपुर विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, साइंस व महाकौशल कॉलेज‍ और टेलीकॉम ट्रेनिंग सेंटर (टीटीसी) के विशाल ढांचे व भवन बने। ये सब भवन निर्धारित समय अवध‍ि में गुणवत्ता के साथ किए गए। शास्त्री ब्रिज की अभ‍ियांत्रिकी ऐसी थी कि उसके ढांचे में कहीं भी लोहे का एक टुकड़ा नहीं लगा। महाकौशल व साइंस कॉलेज में आज भी भवन निर्माण के समय के सीमेंट पाइप लगे हुए हैं। ये सब काम स्थानीय स्तर पर सरकारी इंजीनियरों द्वारा उच्च स्तरीय ढंग से किया गया।

  
 
जबलपुर में बाद के वर्षों में इंजीनियरिंग व आर्कि‍टेक्चर के नायाब नमूने के तौर पर बिजली बोर्ड का मुख्यालय शक्त‍िभवन बना। शक्त‍िभवन की अभ‍ियांत्र‍िकी व आर्क‍िटेक्चर की सराहना देश व विदेश में हुई। जबलपुर में तिलवारा पुल पर बना हुआ नर्मदा एक्यूडक्ट एश‍िया ही नहीं पूरे विश्व में चर्चा का विषय रहा लेकिन हम लोगों ने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया।

    इंजीनियरिंग कालेज में बनी हाई वोल्टेज बिल्डिंग भी एक अद्भुत और इकलौती बिल्डिंग है। इसी तरह बरगी की दाहिनी नहर में स्लीमनाबाद टनल यद्यपि अभी (2022 में) निर्माणाधीन है पर 12 कि.मी. की यह  सुरंग संभवतः एकमात्र टनल होगी जिसमें दोनों सिरों से दो टी बी एम (टनल बोरिंग मशीन ) कार्यरत हैं।एक सिरे से हेरनकनेक्ट जर्मन मशीन और दूसरे सिरे से राबिन्सन अमेरिकन मशीन कार्यरत हैं।अभी लगभग 3.5 कि.मी.खुदाई बाकी है।

बुधवार, 17 अगस्त 2022

पारसियों का है जबलपुर से गहरा और आत्मीय संबंध

जाल करसेटजी और रूस्तम खुसरो गांधी

16 अगस्त को पारसियों का नववर्ष था। भारत में रहने वाले पारसी समुदाय के लोग पारसी कैलेंडर के मुताबिक 16 अगस्त को पारसी नववर्ष यानी नवरोज (Navroz) का पर्व मनाते हैं। फारसी भाषा में 'नव' का अर्थ है नया और 'रोज़' का अर्थ है दिन, यानि नया दिन। इस दिन को लोग जमशेदी नवरोज,नौरोज,पतेती के नाम से भी जानते हैं। वैसे पूरी दुनिया में पारसी लोग पारसी पंचांग के पहले महीने के पहले दिन यानी 21 मार्च को नया साल मनाते हैं। कुछ जगहों पर इसे साल में 2 बार मनाने का भी चलन है जिसमें 16 अगस्त और 21 मार्च को छमाही और वार्षिक के रुप में मनाते हैं। जबलपुर में रहने वाले पारसी शहंशाही पंचांग को मानते हैं, इसलिए ये लोग 16 अगस्त को नवरोज मनाते हैं। 

पारसी समुदाय का जबलपुर से गहरा संबंध 

पारसी समुदाय का जबलपुर से गहरा और आत्मीय संबंध है। जबलपुर में पारसियों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है। जबलपुर में रहने वाले कई व्यक्त‍ि व परिवार यहां से मुंबई या पुणे रहने चले गए। जबलपुर में प्रत्येक वर्ष नवरोज में नेपियर टाउन स्थि‍त पारसी धर्मशाला में नवरोज का आयोजन होता रहा है। आज कोई आयोजन नहीं हुआ। जितने भी पारसी यहां बचे हुए हैं,उनमें से सभी ने अपने घर में नवरोज मनाया। देश में पारसियों की जनसंख्या निरंतर कम होती जा रही है। अनुमान है कि भारत में लगभग 69 हजार पारसी हैं। जबलपुर भी इससे अछूता नहीं है। जबलपुर अंजुमन के मुख‍िया दोराब कोवासजी (डॉली) बजान हैं। जबलपुर पारसी धर्मशाला से जुड़े कुछ उल्लेखनीय लोग हैं- सोली दारूवाला मानेक्शॉ, केरमान बाटलीवाला, परवेज ड्रायवर, मीनू श्राफ व केरसी ड्रायवर। 

रेल की पांतों के बिछ जाने के बाद पारसियों का  जबलपुर में आना हुआ था शुरू 

नवसारी से लगभग 150 वर्ष पूर्व पारसी समुदाय जबलपुर व आसपास में आ कर बसा था। वैसे जबलपुर व पारसियों के संबंधों पर कभी इतिहास में कई जिक्र नहीं हुआ। रेल की पांतों के बिछ जाने के बाद जबलपुर में पारसियों का आना शुरू हुआ था। पिता रेलवे में काम करते थे तो उनके पुत्रों ने भी रेलवे में नौकरी की। 1910 के पहले ओमती क्षेत्र में पारसी समुदाय के रूस्तम मेहता की विदेशी शराब और सामान की दुकान हुआ करती थी। उनके साहबज़ादे मंशा सेठ ने अपने मुलाज‍िम इशाक से विश्व विख्यात पहलवान गामा से कुश्ती मुकाबला करने के लिए उतारा था। इशाक उनका तांगा भी चलाते थे। कुश्ती के इस मुकाबले में इशाक ने गामा को चित कर दिया था। मंशा सेठ के अक्सर अपने प्र‍िय ल‍िबास पैजामा कमीज और पैरों में काले पम्प शू पह‍नकर दुकान के बरांडे में बैठे रहते थे। वे उस मुस्ल‍िम बाहुल्य मुहल्ले में उनके ल‍िए एक सदस्यीय पंचायत भी थे। सभी उनका कहा मानते थे। इसके कई सालों बाद जबलपुर में एक और पारसी शराब के कारोबारी हुए,उनका नाम डूंगाजी था। पुराने परिवारों में तारी वाले पटेल, दारूवाला थे। दारूवाला सरनेम था, लेकिन शराब का उनका कोई व्यवसाय नहीं था।

1913 में जबलपुर के नेपियर टाउन में हुआ था पारसी धर्मशाला का निर्माण

1913 में जबलपुर के नेपियर टाउन में पारसी धर्मशाला का निर्माण हुआ था। तब से यह धर्मशाला बरकरार है। यहां सिर्फ पारसियों को ठहरने की अनुमति है। जबलपुर अंजुमन के मुख‍िया दोराब कोवासजी (डॉली) बजान का परिवार जबलपुर के समीप कटनी का पहला पारसी परिवार था। इनका परिवार 1874 में नवसारी से कटनी आया था। डॉली बजान के दादा तेवुरस कोवासजी बजान कटनी आए थे। उनको खान बहादुर का टाइटल मिला था। कटनी में चूना पत्थर की खदान को शुरू करने वाले पॉयनियर वे ही थे। तेवुरस कोवासजी बजान कटनी म्यूनिसिपलिटी के पहले सिविलि‍यन प्रेसीडेंट थे। उनके पूर्व जो भी प्रेसीडेंट रहे वे सब गर्वन्मेंट के थे। डॉली बजान के पिताजी कवासजी भी कटनी म्यूनिसिपलिटी के 1942 से 1950 तक अध्यक्ष रहे। ऑनरेरी मजिस्ट्रेट रहे कवासजी को खान साहब का टाइटल मिला था। डॉली बजान 1976 में कटनी से जबलपुर आ गए थे।

भारत में पारसियों का योगदान है अप्रतिम 

भारत में पारसियों का योगदान अप्रतिम है। वे कम हैं लेकिन सबसे ज्यादा शिक्षित व सभ्य माने जाते हैं। देश में 15 से ज्यादा विशिष्ट पारसियों की मान्य सूची है, जिसमें दो पारसी व्यक्ति सीधे रूप से जबलपुर से जुड़े हुए हैं। इस सूची में फीरोज़ गांधी, नाना पालखीवाला, फली एस नारीमन, केएफ रुस्तमजी, रतन टाटा, जेआरडी टाटा, फील्ड मार्शल सेम मानेकशॉ, होमी भाभा, आर्देशिर बुरज़ोरजी तारापोर, भीकाजी कामा, साइरस मिस्त्री, फली होमी मेजर, जमशेद टाटा, एचएस कपाड़िया, सोली सोराबजी, आर्देशिर गोदरेज, पाली उमरीगर, जाल करसेटजी, परेन दाजी, बेजान दारूवाला, नुस्ली वाडिया, नाडिया, सोहराब मोदी, गोदरेज, किर्लोस्कर, पीलू मोदी और रूस्तम खुसरो शापूरजी गांधी को शामिल किया गया है। इस सूची में जबलपुर के जाल करसेटजी व रूस्तम खुसरो शापूरजी गांधी हैं।

भारतीय नौ सेना के एडमिरल जाल करसेटजी पीवीएसएम मार्च 1976 से फरवरी 1979 तक भारतीय नौ सेना प्रमुख रहे। उनका जन्म जबलपुर में 20 मई 1919 को हुआ था। जाल करसेटजी के पिता जबलपुर जेल के सुपरिटेंडेंट रहे। 1971 के पाकिस्तान युद्ध में भारतीय नेवी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और इसके रणनीतिकार जाल करसेटजी ही थे।

इन्होंने निभाई थी ‘ऑपरेशन विजय’ में निर्णायक भूमिका

वाइस एडमिरल रूस्तम खुसरो शापूरजी गांधी का जन्म 1924 में जबलपुर में हुआ था। उन्हें भारत द्वारा लड़े गए सभी नौसैनिक युद्धों में जहाजों की कमान संभालने वाले एकमात्र अधिकारी होने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने 1961 के ‘ऑपरेशन विजय’ में निर्णायक भूमिका निभाई थी, जिसमें गोवा में पुर्तगाली शासन का अंत हुआ। 1971 के भारत-पाक युद्ध में उनकी भूमिका के लिए उन्हें वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। अपनी सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल के रूप में कार्य किया।

जेनीफर मिस्त्री का है जबलपुर से गहरा संबंध 

टीवी सीरियल तारक मेहता का उल्टा चश्मा की कलाकार जेनीफर मिस्त्री (रोशन कौर सोधी) का जबलपुर से गहरा संबंध है। उनकी श‍िक्षा-दीक्षा यहीं हुई। जेनीफर नाट्य संस्था विवेचना से जुड़ी रहीं। जबलपुर के प्रत्येक क्षेत्र के विकास में पारसियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने व्यवसाय,श‍िक्षा,रेलवे,रक्षा,मनोरंजन क्षेत्र में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और समाज में शांति व एकांत हो कर अपना जीवन बिताया। पारसी एक घटता हुआ लेकिन एक सफल, सीधा व ईमानदार समुदाय है। वे जहां कहीं भी सेवा करते हैं, हमारे पास एक गारंटी है यानी गुणवत्ता सेवा।                


गुरुवार, 4 अगस्त 2022

कलकत्ता के फुटबाल क्लबों से पहले जबलपुर के ब्लूज क्लब ने विदेशी ख‍िलाड़‍ियों को मैदान में कैसे उतारा

 

जमशेद नासीरी और माजिद बिस्कर 

भारत में क्लब फुटबाल में सबसे पहले विदेशी ख‍िलाड़‍ियों को ख‍िलाने का श्रेय कलकत्ता के मोहन बागान, ईस्ट बंगाल या मोहम्मडन स्पोर्ट‍िंग को नहीं है, बल्क‍ि यह श्रेय जबलपुर के ब्लूज क्लब को है। ब्लूज क्लब के जनक प्रो. डा. राम चरण (आरसी) रजक‍ की पारखी नज़र थी कि उन्होंने दो ईरानी फुटबाल ख‍िलाड़‍ियों माजिद बिस्कर व जमशेद नासीरी को परम्परा को ताक पर रख कर अपने फुटबाल क्लब से खेलने के लिए आज से 42 साल पहले वर्ष 1979 में मैदान में उतारा था। पहले राम चरण रजक की बात कर ली जाए। राम चरण रजक को एक बार कलकत्ता के प्रसिद्ध फुटबाल क्लब मोह‍न बागान ने अपनी ओर से खेलने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन उन्होंने डा. जी. पी. अग्रवाल की सलाह को मानते हुए अकादमिक कैरियर को चुना। राम चरण रजक ने वर्ष 1962 से 65 तक जबलपुर विश्वविद्यालय का प्रत‍िन‍िध‍ित्व किया। इसके बाद राम चरण रजक ने संतोष ट्राफी में मध्यप्रदेश का प्रतिन‍िध‍ित्व किया। आईएफए शील्ड कलकत्ता, रोवर्स कप बंबई, डीसीएम फुटबाल टूर्नामेंट दिल्ली में वे खूब खेले। दो बार मध्यप्रदेश के कप्तान रहे। भारतीय, मध्यप्रदेश व जबलपुर के फुटबाल सर्क‍िल में वे राम चरण के नाम से लोकप्रिय व विख्यात हुए। फुटबाल के शौकीन लोग उन्हें फ्लाइंग गोलदागने से याद करते हैं।

जबलपुर फुटबाल की रही धूम-जबलपुर की फुटबाल की ख्याति देश भर में रही है। जबलपुर यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद वर्ष 1957 में यहां के विद्यार्थ‍ियों ने फुटबाल में धूम मचा दी। उस समय के प्रसि‍द्ध कोच सीआर सिंकलेयर से प्रश‍िक्षण पा कर जबलपुर यूनिवर्सिटी की टीम ज़ोनल फाइनल में दो बार पहुंची और कलकत्ता यूनिवर्सिटी से पराजित हुई। फाइनल मैच पांच बार खेला गया, जिसमें तीन फाइनल मैच जबलपुर में और दो नागपुर में खेले गए। अंत में जबलपुर यूनिवर्सिटी की पराजय टॉस के कारण हुई।     

फुटबाल के साथ अकादमिक कैरियर-अकादमिक कैरियर चुनने के बाद राम चरण रजक डा. आरसी रजक के रूप में जाने व पहचाने गए। वे एक साधारण भारतीय परिवार से आते थे, जिस परिवार का विज्ञान की कोई पृष्ठभूमि नहीं थी। इसके बावजूद डा. रजक ने अपनी मेहनत व लगन से माइकोलॉजी (कवक विज्ञान) में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कड़ी मेहनत व समर्पण से फुंगीजैसे विषय पर हजारों विद्यार्थ‍ियों की रूचि‍ जगा दी। डा. आरसी रजक ने मध्यप्रदेश के पब्ल‍िक सर्विस कमीशन (पीएससी) परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया और उनकी जबलपुर के साइंस कॉलेज में बॉटनी विषय के व्याख्याता के रूप में नियुक्त‍ि हुई। वर्ष 1972 में आरसी रजक ने बॉटनी में डाक्टरेट की। अपने जीवन में उन्होंने चालीस पीएचडी और दो डीएससी पूर्ण करवाई। उनके दौ सौ रिसर्च पेपर छपे और चार पुस्तकों का संपादन किया। 

माजिद व जमशेद कैसे जबलपुर के ब्लूज क्लब पहुंचे-डा. आरसी रजक ने अकादमिक रूप से सक्र‍िय होने के बाद खेलना तो छोड़ दिया लेकिन उन्होंने वर्ष 1952 में जबलपुर में स्थापित ब्लूज क्लब की बागडोर संभाल ली। उनके साथ केदार सिंह परिहार, रूपलाल रजक, रामफल रजक जैसे ख‍िलाड़ी साथ हो गए। केदार सिंह परिहार ने बाद में ब्लूज क्लब को लम्बे समय तक संभाले रखा। डा. रजक ने सुबह-शाम साइंस कॉलेज मैदान, श‍िवाजी मैदान में फुटबाल ख‍िलाड़‍ियों को तराशना शुरू कर दिया। सातवें दशक के मध्य में ईरान, जॉर्डन, अफ्रीकी देश के विद्यार्थी अध्ययन की दृष्ट‍ि से जबलपुर में आना शुरू हो गए थे। दो ईरानी ख‍िलाड़ी माजि‍द बिस्कर (भारत में इनके सरनेम का गलत उच्चरण बस्कर किया जाता रहा है) व जमशेद नासीरी कॉलेज की प्रारंभ‍िक श‍िक्षा के लिए वर्ष 1979 में जबलपुर पहुंचे। डा. आरसी रजक की पारखी नज़र में दोनों फुटबाल ख‍िलाड़ी आ गए। माजिद व जमशेद फुटबाल के दीवाने थे। माजिद ने ईरान के एक स्थानीय क्लब रस्ताखिज़ खोर्रमशहरसे अपने फुटबाल कैरियर की शुरूआत की थी। यह क्लब वर्ष 1976 के ईरान क्लब के सेमीफाइनल तक पहुंचा। माजिद को वर्ष 1975 में ईरान की बी राष्ट्रीय टीम में चुना गया। ईरान में उस समय तक इस्लामिक क्रांति शुरू हो गई थी और ऐसे समय माजिद अपने युवा शार्ग‍िद जमशेद नासीरी के साथ उच्च श‍िक्षा लेने की दृष्ट‍ि से भारत रवाना हो गए। उनसे पहले कुछ ईरानी विद्यार्थी जबलपुर विश्वविद्यालय में अध्ययनरत थे। उनके सम्पर्क के चलते दोनों जबलपुर आ गए। उस समय दोनों के मन में फुटबाल ख‍िलाड़ी बनने का कोई सपना नहीं था। जबलपुर में डा. आरसी रजक ने दोनों को फुटबाल में रूचि देखते हुए अपने ब्लूज क्लब में शामिल कर लिया। डा. रजक ने दोनों ख‍िलाड़‍ियों को पहले इंटर कॉलेज फुटबाल प्रतियोगिता में खेलने के लिए प्रेरित किया। माजिद व जमशेद ने उत्कृष्ट खेल का प्रदर्शन किया। दोनों को इंटर यूनिवर्सिटी में खेलने वाली जबलपुर यूनिवर्सिटी टीम में शामिल कर लिया गया। माजिद व जमशेद खेल कौशल व दमखम में अद्भुत थे। अपने समय के फुटबाल के अच्छे ख‍िलाड़ी, नामी छात्र नेता और अब एडवोकेट संजय श्रीवास्तव दद्दाबताते हैं कि जब वे लोग जबलपुर के साइंस कॉलेज मैदान में यूनिवर्सिटी की टीम प्रेक्ट‍िस करते थे तब माजिद व जमशेद साथ में ही खेला करते थे। दोनों ख‍िलाड़ी अपने स्टेमिना को बनाने के लिए अन्य ख‍िलाड़‍ियों को कंधे पर बैठा कर पाट बाबा की बाजू वाली पहाड़ी पर दौड़ते हुए जाते थे। ब्लूज क्लब से संबद्ध केदार सिंह परिहार भी अपने समय के बेहतरीन फुटबाल ख‍िलाड़ी रहे हैं। वे कहते हैं कि माजिद बिस्कर व जमशेद नासीरी के ब्लूज क्लब से खेलने और उनके स्थानीय प्रतियोगिता में भाग लेने से जबलपुर के फुटबाल का स्तर काफ़ी सुधरा। परिहार ने जानकारी दी कि माजिद आक्रमक म‍िड फील्डर थे और 4-2-4 के फार्मेशन में फारवर्ड ख‍िलाड़ी के रूप में खेलते थे। जमशेद नासीरी फारवर्ड ख‍िलाड़ी थे।

माजिद व जमशेद कैसे जबलपुर के ब्लूज क्लब पहुंचे-डा. आरसी रजक ने अकादमिक रूप से सक्र‍िय होने के बाद खेलना तो छोड़ दिया लेकिन उन्होंने वर्ष 1952 में जबलपुर में स्थापित ब्लूज क्लब की बागडोर संभाल ली। उनके साथ केदार सिंह परिहार, रामपाल रजक जैसे ख‍िलाड़ी साथ हो गए। डा. रजक ने सुबह-शाम साइंस कॉलेज मैदान, श‍िवाजी मैदान में फुटबाल ख‍िलाड़‍ियों को तराशना शुरू कर दिया। सातवें दशक के मध्य में ईरान, जॉर्डन, अफ्रीकी देश के विद्यार्थी अध्ययन की दृष्ट‍ि से जबलपुर में आना शुरू हो गए थे। दो ईरानी ख‍िलाड़ी माजि‍द बिस्कर (भारत में इनके सरनेम का गलत उच्चरण बस्कर किया जाता रहा है) व जमशेद नासीरी कॉलेज की प्रारंभ‍िक श‍िक्षा के लिए वर्ष 1979 में जबलपुर पहुंचे। डा. आरसी रजक की पारखी नज़र में दोनों फुटबाल ख‍िलाड़ी आ गए। माजिद व जमशेद फुटबाल के दीवाने थे। माजिद ने ईरान के एक स्थानीय क्लब रस्ताखिज़ खोर्रमशहरसे अपने फुटबाल कैरियर की शुरूआत की थी। यह क्लब वर्ष 1976 के ईरान क्लब के सेमीफाइनल तक पहुंचा। माजिद को वर्ष 1975 में ईरान की बी राष्ट्रीय टीम में चुना गया। ईरान में उस समय तक इस्लामिक क्रांति शुरू हो गई थी और ऐसे समय माजिद अपने युवा शार्ग‍िद जमशेद नासीरी के साथ उच्च श‍िक्षा लेने की दृष्ट‍ि से भारत रवाना हो गए। उनसे पहले कुछ ईरानी विद्यार्थी जबलपुर विश्वविद्यालय में अध्ययनरत थे। उनके सम्पर्क के चलते दोनों जबलपुर आ गए। उस समय दोनों के मन में फुटबाल ख‍िलाड़ी बनने का कोई सपना नहीं था। जबलपुर में डा. आरसी रजक ने दोनों को फुटबाल में रूचि देखते हुए अपने ब्लूज क्लब में शामिल कर लिया। डा. रजक ने दोनों ख‍िलाड़‍ियों को पहले इंटर कॉलेज फुटबाल प्रतियोगिता में खेलने के लिए प्रेरित किया। माजिद व जमशेद ने उत्कृष्ट खेल का प्रदर्शन किया। दोनों को इंटर यूनिवर्सिटी में खेलने वाली जबलपुर यूनिवर्सिटी टीम में शामिल कर लिया गया। माजिद व जमशेद खेल कौशल व दमखम में अद्भुत थे। अपने समय के फुटबाल के अच्छे ख‍िलाड़ी, नामी छात्र नेता और अब एडवोकेट संजय श्रीवास्तव दद्दाबताते हैं कि जब वे लोग जबलपुर के साइंस कॉलेज मैदान में यूनिवर्सिटी की टीम प्रेक्ट‍िस करते थे तब माजिद व जमशेद साथ में ही खेला करते थे। दोनों ख‍िलाड़ी अपने स्टेमिना को बनाने के लिए अन्य ख‍िलाड़‍ियों को कंधे पर बैठा कर पाट बाबा की बाजू वाली पहाड़ी पर दौड़ते हुए जाते थे। ब्लूज क्लब से संबद्ध केदार सिंह परिहार भी अपने समय के बेहतरीन फुटबाल ख‍िलाड़ी रहे हैं। वे कहते हैं कि माजिद बिस्कर व जमशेद नासीरी के ब्लूज क्लब से खेलने और उनके स्थानीय प्रतियोगिता में भाग लेने से जबलपुर के फुटबाल का स्तर काफ़ी सुधरा। परिहार ने जानकारी दी कि माजिद आक्रमक म‍िड फील्डर थे और 4-2-4 के फार्मेशन में फारवर्ड ख‍िलाड़ी के रूप में खेलते थे। जमशेद नासीरी फारवर्ड ख‍िलाड़ी थे।

जबलपुर से कलकत्ता के ईस्ट बंगाल क्लब की यात्रा-डा. आरसी रजक इंटर यूनिवर्सिटी टूर्नामेंट में जबलपुर यूनिवर्सिटी टीम के मैनेजर व कोच बन कर गए। जबलपुर यूनिवर्सिटी की ओर से माजिद बिस्कर व जमशेद नासीरी दश्रकों के साथ कलकत्ता के क्लबों का दिल जीत लिया। उस समय कलकत्ता के मोहम्मद स्पोर्ट‍िंग के पदाध‍िकारी इंटर यूनिवर्सिटी का मैच देखने और ख‍िलाड़‍ियों को अनुबंध‍ित करने की दृष्ट‍ि से वहां मौजूद थे। उस समय तक कलकत्ता के ईस्ट बंगाल व मोहन बागान क्लब अपनी परंपरा से बंधे हुए थे और वे विदेशी ख‍िलाड़‍ियों को अपने क्लब से अनुबंध‍ित करने में हिचकिचाते थे, परन्तु मोहम्मद स्पोर्ट‍िंग विदेशी ख‍िलाड़‍ियों को अनुबंध‍ित करने की पहल में लगी हुई थी। इंटर यूनिवर्सिटी मैच के बाद मो‍हम्मद स्पोर्ट‍िंग के पदाध‍िकारी माजिद व जमशेद के पीछे लग गए, लेकिन दोनों अनुभवहीन होने के कारण कोई निर्णय नहीं कर पाए। उस वक्त डा. रजक ने दोनों ख‍िलाड़‍ियों को सलाह दी कि फुटबाल के कैरियर को देखते हुए उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्स‍िटी में दाखि‍ला ले लेना चाहिए। इस जोड़ी को इस तथ्य से और प्रोत्साहन मिला कि साथी ईरानी फुटबॉलर महमूद खब्बासी पहले से ही अलीगढ़ में पढ़ रहे थे। उसी वर्ष अलीगढ़ विश्वविद्यालय ने नॉर्थ ज़ोन इंटर यूनिवर्सिटी चैंपियनशिप की मेजबानी की और तीन ईरानियों के साथ वे अजेय थे। नोवी कपाड़िया दिल्ली विश्वविद्यालय की टीम के कोच थे और ईरानियों ने उनकी निगाहें पकड़ ली। नोवी कपाड़‍िया ने अपनी पुस्तक बेयरफुट टू बूट्स में यही लिखा था-‘’दिल्ली पहुंचकर, मैं ईस्ट बंगाल के स्थानीय प्रबंधक और उत्साही प्रशंसक एचएस मामिक के दरियागंज के घर में पहुंचा। उन्होंने तुरंत कलकत्ता में क्लब से सम्पर्क किया और जल्द ही वह और क्लब के अधिकारी तीनों खिलाड़ियों को अनुबंध‍ित करने के लिए अलीगढ़ रवाना हो गए। यहीं से कलकत्ता के फुटबाल क्लबों में विदेशी ख‍िलाड़‍ियों को ख‍िलाने की शुरूआत हो गई, लेकिन जबलपुर के ब्लूज क्लब को यह श्रेय जाता है कि उसने कलकत्ता के क्लबों से पूर्व विदेशी ख‍िलाड़‍ियों को अपने क्लब से मैदान में उतारने की परंपरा की शुरूआत की।

ईस्ट बंगाल के सिरमौर बनने की कहानी-इसके बाद कलकत्ता के फुटबाल क्लबों का इतिहास बदल गया। तीन विदेशियों को देखने की नवीनता, उनमें से एक का विश्व कप के अनुभव और पहले अभ्यास सत्र में बड़ी भीड़ को आकर्ष‍ित करते हुए माजिद, जमशेद व खब्बासी मैदान में उतरे। तीनों ने ईस्ट बंगाल के चाहने वालों की बैचेनी को शांत करने के लिए काफ़ी कुछ किया। ईस्ट बंगाल के पास पहले से अनुभवी सुधीर कर्मकार व मोहम्मद हबीब थे और ड‍िफेंस में मनोरंजन भट्टाचार्य थे। चतुर पीके बनर्जी उनके कोच थे। मोहम्मद या मोहन बागान जैसी अच्छी टीम न होने के बवाजूद ईस्ट बंगाल के पास अब जूझने का मौका था। तीनों को कलकत्ता के मैदान के साथ ढलने के लिए ज्यादा समय नहीं मिला। 1980 का फेडरेशन कप आने ही वाला था। ईस्ट बंगाल से उम्मीदें मौन थीं और कलकत्ता के अन्य दिग्गजों को खिताब उठाने के लिए पसंदीदा माना जाता था। अंत में 1980 का फेडरेशन कप माजिद बिस्कर व जमशेद नासीरी ने भारतीय फुटबाल परिदृश्य में विस्फोट कर दिया।

इनके दिल में अभी भी जबलपुर धड़कता है-वर्तमान में माजिद ईरान के खुज़ेस्तान प्रांत के खोर्रमशहर में और जमशेद नासीरी कोलकाता में रहते हैं। जमशेद नासीरी का पुत्र क‍ियान नासीरी मिड फील्डर के रूप में मोहन बागान से खेलता है। माजिद बिस्कर और जमशेद नासीरी के दिल में अभी भी जबलपुर और यहां के साइंस कॉलेज मैदान, श‍िवाजी ग्राउंड, गैरीसन ग्राउंड धड़कते हैं। क्या जबलपुर उनकी धड़कनों को सुन पा रहा हैपंकज स्वामी    

 


गुरुवार, 30 जून 2022

‘’और सुकरात चला गया’’ : रजनीश ने आज से 52 वर्ष पहले जबलपुर को कहा था अलविदा

आचार्य रजनीश ने आज से ठीक 52 वर्ष पूर्व 30 जून 1970 को जबलपुर को अलविदा कहा था। जब वे जबलपुर छोड़ कर बंबई जा रहे थे, तब उन्होंने जबलपुर की तारीफ करते हुए कहा था कि वे यहीं पनपे हैं, यहां पढ़े हैं, यहीं बढ़े हैं। उन्होंने कहा था कि पेड़ जितना ऊंचा चले जाएं, आसमान छूने लगे लेकिन जड़ें तो उसकी ज़मीन में रहती हैं। जबलपुर में मेरी जड़ें हैं, इसलिए इस शहर में आता रहूंगा। इसके बाद वे जो जबलपुर से गए तो फिर कभी यहां नहीं लौटै। रजनीश का वक्तव्य वर्ष 1970 को उनके जबलपुर छोड़ने से दो दिन पूर्व यानी 28 जून का था। रजनीश के जबलपुर को अलविदा कहने पर नवभारत अखबार ने अच्छी व सटीक हेड‍िंग लगाई थी-‘’और सुकरात चला गया।‘’  

28 जून 1970 को जबलपुर के शहीद स्मारक में रजनीश को विदाई देने के लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इस कार्यक्रम में जबलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति डा. राजबली पांडे उपस्थि‍त थे। डा. राजबली पांडे ने अपने संक्ष‍िप्त भाषण में कहा-‘’पूरी सभ्यता आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जिस आप यानी की रजनीश एक नया स्वरूप देना चाहते हैं। यद्यपि आप जबलपुर से जा रहे हैं पर आप ने जो प्रेरणा, जो प्रेम हम सभी को दिया है वह हमें सदा स्मरण रहेगा। आप का जन्म पूरी मानवता के लिए हुआ है इसलिए आप का व्यक्त‍ित्व किसी भौगोलिक सीमा के बंधन में भी नहीं रह सकता। आप कृपया विदा होते समय हम सभी को वह संदेश दें जिससे प्रेरणा ले कर हम नई राह तलाश सकें।‘’

जब लोगों से शांत होने की अपील की लेकिन असर नहीं हुआ-रजनीश ने जब जबलपुर को अलविदा कहा तब वे एक सामान्य व्यक्त‍ि ही थे। गढ़ा रोड पर कमला नेहरू नगर में डा. हर्षें के नजदीक लाल बंगले में किराए से रहते थे। लोगों को वे खादी भंडार में खादी खरीदते मिल जाते तो महावीर वाचनालय में प्रवचन देते हुए भी। जबलपुर के आसपास वे आयोजकों की कार से प्रवचन या व्याख्यान देने जाते थे। जबलपुर में तरण तारण जयंती में भी वे शामिल होते थे। इस आयोजन में भी वे व्याख्यान देते थे। वर्ष 1970 के पहले ही बंबई के फिल्म इंडस्ट्री के कुछ लोग रजनीश के सम्पर्क में आने लगे थे। जबलपुर में महेन्द्र कपूर नाइट का आयोजन रजनीश के बंबई सम्पर्क के कारण संभव हुआ था। राइट टाउन स्टेडियम के एक कोने पवेलियन की तरफ महेन्द्र कपूर नाइट को देखने गए कुछ लोगों ने जानकारी दी कि शुरूआत में तो महेन्द्र कपूर की गायन प्रस्तुति का सिलसिला ठीक चलता रहा, लेकिन ‘’ एक तारा बोले तुन तुन क्या कहे ये तुमसे सुन सुन’’ जैसे ही गीत शुरू हुआ कार्यक्रम स्थल पर बमचक मच गई। उपद्रव शुरू हो गया, कुर्स‍ियां फ‍िंकने लगीं और भगदड़ मच गई। रजनीश को सामने आना पड़ा। उन्होंने लोगों से शांत होने की अपील की। रजनीश का व्याख्यान या प्रवचन सुनने वाले ज़रूर मंत्रमुग्ध हो जाते थे, लेकिन यहां कोई असर नहीं हुआ।

अनुयायीवाद पर किया था कड़ा प्रहार-रजनीश के व्याख्यान शहीद स्मारक में सप्ताह में एक या दो बार होने लगे थे। रजनीश के भाई अरविंद जीवन जाग्रति केन्द्र की ओर से रजनीश के व्याख्यान का आयोजन श्रीनाथ तलैया स्थि‍त आर्य समाज मंदिर में प्रति मंगलवार को करते थे। रजनीश के अंग्रेजी में दिए गए व्याख्यानों का आयोजन स‍िविल लाइंस स्थि‍त लियोनार्ड थ‍ियोलॉजिकल कॉलेज में भी हुए हैं। जबलपुर में प्रेम और विवाह’, ‘गांधी के ऊपर पुनर्विचारकार्ल मार्क्स व बुद्धविषय पर केन्द्र‍ित उनके व्याख्यान काफ़ी चर्चित व विवादास्पद रहे। रजनीश निडर व बेखौफ व्यक्त‍ि थे। उन्होंने इन व्याख्यानों में अनुयायियों पर कड़ा प्रहार किया था। रजनीश ने कहा था कि जिस प्रकार अनुयायी महापुरूषों को ऊपर उठाते हैं और वहीं अनुयायी उन्हें पतन की गर्त में गिरा देते हैं। रजनीश अनुयायीवाद के खि‍लाफ थे। इस विषय पर उनकी एक कविता अच्छी व महत्वपूर्ण है। जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज और एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग कॉलेज के विद्यार्थी उनके मुरीद थे। उनके व्याख्यान के पहले केएल सहगल की आवाज वाले एक व्यक्त‍ि भजन व गीत गाते थे। व्याख्यान की शुरूआत रजनीश ‘’मेरे प्रिय आत्मन’’ से करते और ‘’आप सब के हृदय में बैठे प्रभु को मेरा प्रणाम’’ से खत्म करते थे। व्याख्यान के बाद रजनीश शहीद स्मारक के बाहर खड़े हो जाते और लोगों से काफ़ी देर तक बात करते रहते थे।

नहीं बोल पाते थे-रजनीश के भाषणों में कई बार इंसान खो गया है’, ‘हमारे भीतर की लालटेन बुझ गई है’ ‘इसके सौ कारण हैं पर मुख्य कारण यह हैजैसे वाक्य प्राय: आते थे। कुछ अंग्रेजी के शब्द भी उनके भाषण में आते थे। तब वे नहीं बोल पाते थे। शेक्सपियर को सेक्सपियर बोलते। ज़का उच्चारण उनके लिए असंभव था। बोलते समय भाषण में उनकी आंखें बंद हो जाती थीं और लगता वे शून्य को संबोध‍ित कर रहे हों। बोलते वक्त वे लम्बे लम्बे ठहराव (पॉस) लेते थे। रजनीश ने प्लेटो, अरस्तू, कनफ्यूश‍ियस, ग्रीन, शंकर, अरविंदो, रसेल, बुद्ध, मार्क्स को बारीकी से पढ़ा था। उनके व्याख्यान में छोटे-छोटे वाक्य, उदाहरण, लतीफे, रोचक प्रसंग, आरोह‍ अवरोह, लयात्मकता, क्रांतिकारिता का आभास दिलाने वाली भाषा का जीवन दर्शन रहता था। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ रहा था। उनकी व‍िश‍िष्टता स्वीकृत हो रही थी, वे असामान्य दिखने लगे थे और दिखाने भी लगे थे। जो असामान्य है, साधारण से हट कर है, वहीं उन्हें प्रिय था। व्याख्यान के दौरान रजनीश कहते थे कि लोग उनकी बात को इसलिए समझ नहीं पाएंगे क्योंकि पच्चीसवीं शताब्दी के हैं। वे पैदाइशी भगवान नहीं थे लेकिन वे धीरे धीरे आचार्य से भगवान की ओर बढ़ रहे थे। उन्होंने आस्था को मज़ा में बदल दिया था।

दो विरोधाभासी विचारक एक मोहल्ला-जबलपुर के दो विचारक जो विरोधाभासी भी और अपने विचारों में चरम हैं, वे एक ही मोहल्ले में रहते थे। रजनीश नेपियर टाउन में शास्त्री ब्रिज मार्ग के एक तरफ और हरिशंकर परसाई दूसरी ओर रहते थे। दोनों समकालीन विचारक आपस में मिलते जुलते रहते थे। रजनीश ने एक बार परसाई का हवाला देते हुए कहा था कि हमारे शहर के मशहूर व्यंग्यकार हैं ने उनको (रजनीश) को फ्रॉड की सूची में नंबर एक पर रखा है। यदि वे मुझे दूसरे या तीसरे नंबर पर रखते तो मुझे बहुत दुख होता। परसाई ने उस दौरान अपने एक व्यंग्य में लिखा था कि दुनिया में तीन फ्रॉड हैं- रजनीश, महेश योगी और स्वयं परसाई। रजनीश जबलपुर में वर्ष 1959 से 61 तक भालदारपुरा में, छह माह देवताल-गुप्तेश्वर में और वर्ष 1961 से 68 तक नेपियर टाउन में देवकीनंदन जी के घर में रहे और उसके बाद गढ़ा रोड में कमला नेहरू नगर में डा. हर्षे के बंगले के बगल में लाल बंगले में रहने आ गए थे।

रजनीश तीन बाबाओं से हुए प्रभावित-रजनीश जबलपुर के मग्गा बाबा, पागल बाबा और मस्ता बाबा से प्रभावित रहे। मग्गा बाबा तुलाराम चौक पर नीम के पेड़ के नीचे पड़े रहते थे। मग्गा बाबा का रूप रंग एकदम काला था। मग्गा बाबा को जबलपुर के रिक्शे वाले मुफ्त में यहां वहां घुमाते रहते थे।     

रजनीश ने युक्रांत पत्रि‍का निकाली थी-जीवन जाग्रति केन्द्र में रजनीश को भीखम चंद जैन, अजित कुमार, डा. बिजलानी, अरूण जक्सी, भाई मेडीवाला, अरविंद जैन, दत्ता एडवोकेट सक्र‍िय सहयोग देते थे। ये लोग दो-दो रूपए चंदा कर के शहीद स्मारक या अन्य कोई स्थान रजनीश के व्याख्यान के लिए बुक किया करते थे। रजनीश ने जबलपुर में जीवन जाग्रति केन्द्र की ओर से एक पत्रिका युक्रांतका प्रकाशन किया था। वैसे रजनीश जबलपुर में जयहिन्द और नवभारत में पत्रकारिता कर चुके थे। नवभारत में तो वे सब एडीटर के रूप में कार्य कर चुके थे। युक्रांत का संपादन रजनीश के फुफेरे भाई अरविंद कुमार किया करते थे।

शुक्रवार, 24 जून 2022

जबलपुर के महापौर

सात बार के महापौर पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जिनकी मुट्ठी में जनचेतना बंद थी 

जबलपुर के सात बार महापौर रहे। इतने सालों तक कोई मेयर नहीं रहा जितने साल पंड‍ित तिवारी रहे। बाद में वे राजसभा के दो बार सदस्य भी रहे। सेठ गोविंददास 1950 से लगातार संसद सदस्य रहे और किसी ने यह नहीं कहा ये नगरी गोविंददास की है, सब ये कहते थे कि ये नगरी पंडित भवानी प्रसाद की है। तिवारी जी की लोकप्रियता उनकी अपनी जीवनशैली के कारण थी। उस समय मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार होते हुए भी जबलपुर नगर निगम व म्युनिसपेलिटी पर सदा ही प्रजा समाजवादी का ही कब्जा रहा और जिसके सिरमौर पंडित भवानी प्रसाद तिवारी रहे। आजादी के बाद जब जबलपुर नगर पालिका का स्तरोन्नयन हो कर उसे नगर निगम का दर्जा मिला तो उसके प्रथम महापौर के पद को भवानी प्रसाद तिवारी ने सुशोभि‍त किया। उस समय नगर निगम में महापौर का चुनाव आज भी भांति पांच वर्ष के लिए और सीधे जनता द्वारा न हो कर प्रतिवर्ष प्रत्यक्ष प्रणाली अर्थात निर्वाचित पार्षदों द्वारा किया जाता था। हर‍िशंकर परसाई का मानना था कि भवानी प्रसाद तिवारी मूल रूप से कवि थे-बल्क‍ि केवल कवि थे, राजनीतिज्ञ नहीं। इसलिए राजनीति भी वे कवि की तरह करते थे और छलछंद, काटछांट, जमाना-पटाना, अवसरवादिता, निर्मम सत्ता संघर्ष कर नहीं पाते थे। परसाई कहते थे कि जन चेतना उनकी मुट्ठी में बंद थी। भवानी प्रसाद तिवारी नगर निगम की कार का व्यक्तिगत उपयोग कभी नहीं करते थे। उस समय मेयर की कार का नंबर MPJ 102 था। मेयर रहते हुए वे जबलपुर में किसी कार्यक्रम में रिक्शे से जाते थे। भवानी प्रसाद तिवारी जबलपुर के संभवतः एकमात्र ऐसे नेता थे जो हिंसक भीड़ को अपने उद्बोधन से नियंत्रित कर लेते थे। एक ऐसा ही वाक्या तिलक भूमि तलैया में हुआ जब एक सभा में भीड़ उत्तेजित व हिंसक हो गई। तब सिटी कोतवाल प्रयाग नारायण शुक्ल भवानी प्रसाद तिवारी को वहां यह अनुरोध कर के ले गए कि वे दो मिनट खड़े हो कर भाषण दे देंगे तो भीड़ शांत भी हो जाएगी और पुलिस का काम हल्का हो जाएगा। तिलक भूमि तलैया पहुंच कर जैसे ही भवानी प्रसाद तिवारी ने भाषण देना शुरू किया भीड़ शांत हो गई और पुलिस का काम बिना लाठी चार्ज किए हो गया। वर्ष 1977 में जब भवानी प्रसाद तिवारी का निधन हुआ तब उनकी शवयात्रा में इतनी भीड़ उमड़ी जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। शहर के जिस व्यक्ति को यह खबर मिली वह शवयात्रा में शामिल हुआ। सबसे ज़रूरी व महत्वपूर्ण बात यह कि भवानी प्रसाद तिवारी के बाद उनके परिवार का कोई सदस्य राजनीति में नहीं आया।


साइकिल पर चलने वाले महापौर रामेश्वर प्रसाद गुरू ने बनवाया था मालवीय चौक


रामेश्वर प्रसाद गुरू की पहचान जबलपुर में साइकिल में चलने वाले महापौर के रूप में रही है। वर्ष 1962 में क्राइस्ट चर्च स्कूल के श‍िक्षक रामेश्वर प्रसाद गुरू जबलपुर के महापौर बने थे। प्रजा समाजवादी पार्टी (पीएसपी) बनाने में रामेश्वर प्रसाद गुरू, भवानी प्रसाद तिवारी, गणेश प्रसाद नायक, सवाईमल जैन की महत्वपूर्ण भूमिका थी। रामेश्वर प्रसाद गुरू व भवानी प्रसाद तिवारी की जोड़ी मिल कर ‘प्रहरी’ अखबार निकलाती थी। उस समय ‘प्रहरी’ में छपी सामग्री को लोग ध्यान से पढ़ते थे। उस समय के लोगों की जानकारी के अनुसार गांव से लोग यह देखने आते थे कि ‘प्रहरी’ के संपादक कौन लोग और वे कैसे दिखते हैं। हर‍िशंकर परसाई ‘प्रहरी’ में नियमित रूप से लिखने वाले कुछ लोगों में से एक थे। रामेश्वर प्रसाद गुरू व भवानी प्रसाद तिवारी के साथ रामानुज लाल श्रीवास्तव ऊंट ने होली को जबलपुर का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतीक पर्व बनाया था। इन लोगों ने होली का जुलूस शुरू किया था जिसमें साहित्यकार, संस्कृति कर्मी, नेता, व्यवसायी, श‍िक्षक, विद्यार्थी, पत्रकार नाचते-गाते मोहल्लों के नुक्कड़ों पर, चौराहों पर, तिमुहानों पर इकट्ठे होते थे। लोग मिलते जाते, हुरियारों का कारवां बढ़ता जाता। कहीं कोई भदेसपन नहीं, कहीं कोई घटियापन नहीं, कोई लुच्चापन नहीं, मस्ती भरी शालीनता की रेशम की डोरी कभी टूटती नहीं।
परसाई के गद्य गुरू-रामेश्वर प्रसाद गुरू के पिता कामता प्रसाद गुरू थे, जिन्होंने हिन्दी की पहली व्याकरण पुस्तक लिखी थी। इस नाते रामेश्वर प्रसाद गुरू के भीतर साहित्य के बीज थे। उन्होंने कुमार हृदय के नाम से कविताएं भी लिखी थीं। रामेश्वर प्रसाद गुरू को हरिशंकर परसाई का गद्य गुरू भी माना जाता है। परसाई को सीधी व साफ दो टूक भाषा लिखने की प्रेरणा रामेश्वर प्रसाद गुरू ने ही दी थी।   
खोजी पत्रकार-रामेश्वर प्रसाद गुरू इलाहाबाद से प्रकाशि‍त होने वाले अंग्रेजी दैनिक नार्दन इंड‍िया पत्र‍िका के जबलपुर प्रतिनि‍ध‍ि भी थे। रामेश्वर प्रसाद गुरू के प्रिय श‍िष्यों में पत्रकार निर्मल नारद रहे हैं। गुरू जी को खोज या अन्वेक्षण का जुनून था। एक बार गुरू जी व निर्मल नारद दोनों बिलहरी के कब्रिस्तान में यह पता करने के लिए दिन भर घूमते रहे कि यहां सबसे पहले किस अंग्रेज को दफनाया गया था।   
व्यक्त‍िगत कार्य के लिए नगर निगम वाहन का उपयोग नहीं किया-सफेद पजायमा और कुर्ता पहनने वाले गुरू जी क्राइस्ट चर्च स्कूल में अध्यापन करने के दौरान जबलपुर के महापौर चुने गए। सुबह वे दीक्ष‍ितपुरा से स्कूल साइकिल से जाते थे। स्कूल के बाद नगर निगम में महापौर की आसंदी में बैठते थे। लोगों ने उनसे कहा कि उन्हें नगर निगम के चार पहिया वाहन का उपयोग करना चाहिए। रामेश्वर प्रसाद गुरू ने स्पष्ट रूप से इंकार करते हुए कहा कि वे घर से स्कूल या किसी भी व्यक्ति‍गत कार्य के दौरान साइकिल का ही उपयोग करेंगे। हां जब वे महापौर की हैसियत से कहीं भी जाएंगे, तब ही वे नगर निगम की कार का उपयोग करेंगे। नगर निगम वापस आ कर वे साइकिल से घर जाते थे। क्राइस्ट चर्च स्कूल में अध्यापन के दौरान उन्होंने कई मेधावी विद्यार्थ‍ियों को पढ़ाया था, जिसमें एचसीएल के को-फांउडर अजय चौधरी व नामी वकील विवेक तन्खा जैसे व्यक्त‍ित्व शामिल हैं।
जबलपुर का सबसे प्रस‍िद्ध मालवीय चौक बनवाया-रामेश्वर प्रसाद गुरू ने महापौर के रूप में नगर निगम में वित्तीय साधनों की कमी को देखते हुए चंदा जमा कर के सुभद्रा कुमार चौहान की प्रतिमा नगर निगम प्रांगण में स्थापित करवाई थी। उन्होंने महापौर के रूप में मदन मोहन मालवीय की प्रतिमा लगवा कर मालवीय चौक नामकरण किया था। उनके कार्यकाल में नगर निगम जबलपुर ने कई ग्रंथों का प्रकाशन किया, जो संदर्भ के रूप में आज भी प्रासंगिक व उपयोगी हैं। शहर के श‍िक्षा जगत में उनका अप्रतिम योगदान रहा। उन्होंने ड‍िस्ल‍िवा रतनसी स्कूल की स्थापना की। नगर के मॉडल हाई स्कूल में आज से 62 वर्ष पूर्व तत्कालीन प्राचार्य श‍िव प्रसाद निगम के साथ मिल कर उन्होंने महात्मा गांधी की पुण्यतिथ‍ि 30 जनवरी को मौन दिवस के रूप में मनाने की शुरूआत की थी।

एक रूपए मानदेय लेने वाले महापौर सवाईमल जैन

वर्ष 1947 में जब भवानी प्रसाद तिवारी व रामेश्वर प्रसाद गुरू ने साप्ताहिक अखबार ‘प्रहरी’ निकाला तब उस अखबार के व्यवस्थापक सवाईमल जैन थे। ये सब 35 की उम्र के आसपास के थे। यह अखबार इतना प्रखर व ओजस्वी होता था और सामग्री इतनी सनसनीखेज होती थी कि शनिवार की शाम इसके निकलते ही चौराहों पर चर्चा होने लगती थी। सब जगह ‘प्रहरी’ की चर्चा। तरूणों के लिए यह बहुत प्रेरक था। एक तरह से ‘प्रहरी’ उग्र समाजवादियों का अखबार था। उस दौरान सीमित संसाधनों में सवाईमल जैन व्यवस्थापक के रूप में ‘प्रहरी’ के प्रकाशन में मदद किया करते थे। भवानी प्रसाद तिवारी के साथ मिल कर सवाईमल जैन ने जबलपुर में शैक्षण‍िक व सांस्कृतिक गतिविध‍ियों को विस्तारित किया।
सवाईमल जैन शुरूआत में सराफा बाजार की एक गली के भीतर गली में जैन मंदिर ट्रस्ट का एक बड़ा सा अहाता में मौजूद मकान में रहते थे। यहीं उनके परिवार का प्रतिभा प्रिंटिंग प्रेस छापाखाना था। उनके परिवार द्वारा ही सुषमा साहित्य मंदिर नामक पुस्तक दुकान भी संचालित होती थी, जो जबलपुर के हर पुस्तक प्रेमी के लिए आकर्षण का केन्द्र थी। सवाईमल जैन के परिवार के छापेखाने की प्रिंटिंग मशीन की सहायता से रामनवमी 1963 के दिन जबलपुर समाचार का प्रकाशन मायाराम सुरजन ने प्रारंभ किया था। 
सवाईमल जैन ने सत्रह वर्ष की आयु से स्वतंत्रता संग्राम के सभी आंदालनों में सन् 1930, 1932, 1941 तथा 1942 में सक्रिय भाग लिया। इन आंदोलनों में बढ़ चढ़ भाग लेने से उन्हें कुल साढ़े तीन वर्ष का कारावास भी हुआ। सवाईमल जैन ने नेशनल बॉयस स्काउट्स एसोस‍िएशन संस्था का गठन कर के सत्याग्रह संबंधी अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। वर्ष 1939 में त्रिपुरी में कांग्रेस के 52 वें अधिवेशन को लाने के लिए जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ सवाईमल जैन विशेष योगदान था। उन्होंने त्रिपुरी कांग्रेस में किसानों व नवयुवकों का प्रत‍िन‍िध‍ित्व किया। सुभाष चंद्र बोस ने जब राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद त्यागा और फारवर्ड ब्लाक के साथ मंडला रवाना हुए तब उनके साथ जबलपुर से भवानी प्रसाद तिवारी व सवाईमल जैन साथ गए थे। 
देश स्वतंत्र होने के बाद सवाईमल जैन ने समाजवादी दल का गठन किया और नगर निगम चुनाव होने पर बहुमत हासिल किया। वे वर्ष 1952 से 1964 तक जबलपुर नगर निगम में महत्‍वपूर्ण पदों खासतौर से स्थायी समिति के अध्यक्ष रहे। वर्ष 1960 में सवाईमल जैन लगातार दो बार महापौर चुने गए। महापौर चुने जाने के बाद सवाईमल जैन ने निर्णय लिया कि वे मानदेय के रूप में सिर्फ एक रूपए ही लेंगे। उस समय उनके इस कदम की चर्चा पूरे देश में हुई। अपने पूर्ववर्ती की तरह सवाईमल जैन साइकिल से नगर निगम जाया करते थे। भवानी प्रसाद तिवारी की तरह ही सवाईमल जैन ने नगर निगम के वाहन का उपयोग व्यक्त‍िगत या सामाजिक कार्यों के लिए नहीं किया। महापौर के पद रहने के दौरान उनका तत्कालीन नगर निगम आयुक्त से टकराव काफ़ी सुर्ख‍ियों में रहा। सवाईमल जैन नगर निगम की फाइलों को देखने, अध्ययन करने और उनमें हस्ताक्षर आफ‍िस के अलावा घर से करना चाहते थे, लेकिन इस पर तत्कालीन नगर निगम आयुक्त को आपत्त‍ि थी। सवाईमल जैन का तत्कालीन मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू से भी एक मुद्दे को ले टकराव हुआ लेकिन अंतत: जीत सवाईमल जैन की ही हुई। सवाईमल जैन के महापौर काल में जबलपुर की सबसे बड़ी रहवासी बस्ती कमला नेहरू नगर का श‍िलान्यास हुआ था।     
सवाईमल जैन इसके बाद वर्ष 1970 के उपचुनाव और वर्ष 1972 के आम चुनाव में जबलपुर पश्च‍िम से विधायक निर्वाचित हुए। मध्यप्रदेश विधानसभा में उनका कुल कार्यकाल दिसंबर 1970 से अप्रैल 1977 तक लगभग सात वर्ष तक का रहा। इस दौरान सवाईमाल जैन मध्यप्रदेश विधानसभा की महत्वपूर्ण समितियों के सदस्य व अध्यक्ष रहे। 10 मार्च 1976 से 30 अप्रैल 1977 तक वे विधानसभा के उपाध्यक्ष रहे।

इंजीनियर और उद्यमी मुलायम चंद्र जैन जब चुने गए महापौर

पिछली शताब्दी के पांचवे व छठे दशक में जबलपुर की प्रजा समाजवादी पार्टी (पीएसपी) में सिर्फ राजनैतिज्ञ, वकील, कवि या शायर ही इसके सक्र‍िय कार्यकर्त्ता नहीं थे, बल्क‍ि इसमें इंजीनियरों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पीएसपी में सक्र‍िय इंजीनियर मुलायम चंद्र जैन वर्ष 1963 में जबलपुर के महापौर चुने गए। वे जबलपुर के प्रतिष्ठ‍ित उद्यमी व्यवसायी परिवार मुन्नी-बप्पू के प्रतिभाशाली सदस्य थे। मुलायम चंद्र जैन को जबलपुर के लोग इंजीनियर साहब और काका जी के संबोधन से पुकारते थे।   
मुलायम चंद्र जैन ने जबलपुर के मॉडल हाई स्कूल से प्रारंभ‍िक श‍िक्षा ली और आगे की पढाई के लिए नागपुर चले गए। यहां उन्होंने इंटर साइंस तक अध्ययन किया और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय (बीएचयू) चले गए। वर्ष 1943 मे बीएचयू से इंजीनियरिंग स्नातक होने के बाद जबलपुर वापस आए। इंजीनियरिंग पढ़ाई के दौरान मुलायम चंद्र जैन ने जबलपुर की गन केरिज फेक्टरी में प्रेक्ट‍िकल ट्रेनिंग की थी। उस समय वे तत्कालीन सीपी एन्ड बरार (वर्तमान मध्यप्रदेश) के जैन समुदाय के पहले इंजीनियर थे। इस दौरान मुलायम चंद्र जैन बीएचयू में स्वतंत्रता संग्राम के भूमिगत आंदोलन में शामिल हो गए। बीएचयू में मुलायम चंद्र जैन ने ब्रिटिश प्रपार्टी हवाई जहाज को बारूद से उड़ा दिया था। वहां उनके साथ देवदत्त गुप्ता, बलानी जी, राजनारायण जैसे साथी थे। राजनारायण ने इमरजंसी के बाद चुनाव में इंदिरा गांधी को हराया था। मुलायम चंद्र जैन जब जबलपुर लौटे तो जबलपुर पुलिस के पास उनकी गिरफ्तारी का वारंट आ चुका था। मुन्नी-बप्पू परिवार का उस समय जबलपुर में प्रदेश की सबसे बड़ी हाइल मिल थी। इसी आइल मिल के फायर बॉयलर्स में मुलायम चंद्र जैन ने बनारस से लाए सभी समान, कपड़े व कागजों को डाल कर सबूत मिटाने की दृष्ट‍ि से नष्ट कर दिया था। दो दिन बाद जबलपुर पुलिस ने मुलायम चंद्र जैन को गिरफ्तार कर लिया। एक महीने जबलपुर जेल में रखने के बाद उनको बनारस की जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। वहां मुलायम चंद्र जैन को जयप्रकाश नारायण व अशोक मेहता का सानिध्य मिला। गांधी जी के प्रयास के बाद अंग्रेज शासन ने स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को छोड़ा जिसमें मुलायम चंद्र जैन भी शामिल थे। यहीं मुलायम चंद्र जैन समाजवादियों के सम्पर्क में आए और प्रजा समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। 
स्वतंत्रता के बाद जबलपुर में नगर निगम का गठन हुआ। भवानी प्रसाद तिवारी महापौर  बने और मुलायम चंद्र जैन पार्षद निर्वाचित हुए। उन्होंने पार्षद रहते हुए भी स्थायी समिति को अप्रत्यक्ष रूप से संभाले रखा। नगर विकास की योजना बनाई और उनको क्र‍ियान्वित करने के रास्ते निकाले। एक इंजीनियर होने के नाते मुलायम चंद्र जैन नियोजित विकास की योजना बनाते थे। उस दौरान जबलपुर नगर निगम का यह दुर्भाग्य रहा कि नगर निगम की सत्ता पीएसपी के पास थी लेकिन प्रदेश में शासन कांग्रेस का था। इससे नगर विकास के कोष की कमी हर समय बनी रहती थी। जगमोहन दास आपसी बातचीत में मुलायम चंद्र जैन से कहते थे कि कांग्रेस में शामिल हो जाओ जबलपुर का विकास होने लगेगा। 
वर्ष 1963 में जबलपुर नगर निगम के महापौर चुनाव में मुलायम चंद्र जैन चुने गए। महापौर के रूप में मुलायम चंद्र जैन ने इंजीनियरिंग कॉलेज वाटर फिल्टरेशन प्लांट और फगुआ नाला वाटर सप्लाई जैसे महत्वपूर्ण कार्यों का क्र‍ियान्वयन कर जबलपुर को उस समय मांग के अनुसार साफ यव स्वच्छ पानी की सप्लाई की शुरूआत की। पूर्व की महापौरों की तरह मुलायम चंद्र जैन ने भी सरकारी वाहन के लिए कुछ नियम बनाए। महापौर के वाहन में कभी भी उनके परिवार का कोई सदस्य नहीं बैठा। कहीं भी वे जब जाते थे तब उनके परिवार के सदस्य उनकी निजी कार में बैठ कर पीछे चलते थे। वर्ष 1965 में डा. एससी बराट इस शर्त पर महापौर बने कि मुलायम चंद्र जैन को स्थायी समिति के अध्यक्ष का कार्यभार संभालना होगा। तब मुलायम चंद्र जैन ने महापौर का पद संभालने के बावजूद डा. बराट का सम्मान करते हुए स्थायी समिति के अध्यक्ष का कार्यभार संभाला था।   
वर्ष 1965 में अशोक मेहता के नेतृत्व में पीएसपी का विलय कांग्रेस में हो गया। मुलायम चंद्र जैन कांग्रेस में शामिल हो गए, लेकिन राजन‍ीति में पहले की तरह सक्र‍िय नहीं रहे। श्याम सुंदर मुशरान और नीतिराज सिंह चौधरी के आग्रह के बाद भी मुलायम चंद्र जैन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से खड़े नहीं हए बल्क‍ि उन्होंने दो विधानसभा सीट में अन्य लोगों के नाम की सिफारिश कर उन्हें विजयी बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
मुलायम चंद्र जैन ने जबलपुर में सिम्पलेक्स इंडस्ट्री की स्थापना की। ब्रिटिश काल में गन केरिज फेक्टरी में काम न होने पर लोगों को छुट्टी दे दी गई, तब मुलायम चंद्र जैन ने पहल की लोगों को अपने परिवार के आइल मिल में रोजगार के अवसर दिए। गन केरिज फेक्टरी के इतिहास में यह पहली व आख‍िरी बार हुआ जब मुलायम चंद्र जैन ने वहां के मूल कर्मियों को बेरोजगार होने की दशा में काम भी दिया और फेक्टरी की मशीनों का उपयोग निजी तौर पर किया। उन्होंने जर्मन मशीनों का इंडियन मॉडल बना कर उसे ‘स्वास्त‍िक’ नाम से पेटेंट करवाया था।  
मुलायम चंद्र जैन महाकोशल चेम्बर ऑफ कामर्स के अध्यक्ष रहे और इस संगठन का भवन बनवाने में बड़ी भूमिका निभाई। चेम्बर ऑफ कामर्स के पच्चीसवीं स्थापना दिवस समारोह में मुलायम चंद्र जैन के अनुरोध पर तत्कालीन रेल मंत्री माधवराव स‍िंध‍िया ने कुतुब एक्सप्रेस का नाम बदल कर महाकोशल एक्सप्रेस किया था। मुलायम चंद्र जैन वर्षों तक जबलपुर स्वतंत्रता सेनानी संघ के अध्यक्ष रहे। 

महापौर के रूप में कानूनविद्, श‍िक्षक और शायर पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’

वर्ष 1964 में जबलपुर के महापौर ऐसे व्यक्त‍ि बने जिनके व्यक्त‍ित्व में अध‍िवक्ता, श‍िक्षक, सार्वजनिक कार्यकर्त्ता, राष्ट्रीय अग्रणी और साहित्य‍िक एक साथ समाहित थी और इन सबके समन्व‍ित स्वरूप में पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ की साह‍ित्य‍िक प्रखरता व तेजस्व‍िता की प्रधानता थी। पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ का हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और फारसी भाषा में गहन अध्ययन और ज्ञान ऐसी उपलब्ध‍ियां थीं जिससे सभी लोग रश्क कर सकते हैं। उनका व्यक्ति‍त्व बहुआयामी और कभी कभी विरोधी दिशाओं में फैला हुआ था। एक ओर कानून जैसे नीरस विषय में प्रस‍िद्ध‍ि प्राप्त कानूनविद्, व‍िध‍ि श‍िक्षक व वर‍िष्ठ अध‍िवक्ता और दूसरी ओर नि:स्वार्थ देश सेवक और तेजस्वी साह‍ित्य‍िक प्रतिभा। इन सबके बीच एक संवेदनशील कवि व शायर। उन्होंने वकालत का पेशा अख्तयार किया तो खुल कर सियासी मैदान में भी रहे। उनको जहां कहीं कोई बात अपने उसूलों के ख‍िलाफ़ नज़र आई उन्होंने उसका इज़हार फौरन कर दिया। 
पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ को अदालत में किसी मामले में पैरवी के बाद बार रूम में आ कर आराम कुर्सी में आंखें बंद करके निश्चेष्ट बैठे रहने में बड़ा आनंद आता था। पन्नालाल श्रीवास्तव के अभ‍िन्न मित्र जबलपुर के मशहूर शायर प्रेमचंद श्रीवास्तव ‘मज़हर’ थे। वे जीएस कॉलेज के प्राचार्य थे। नूर साहब ने जबलपुर में उर्दू की एक बड़ी संस्था अंजुमन तरक्कीये बनाई थी। उनकी प्रेरणा से जनाब आग़ा जब्बार खां साहेब के निवास स्थान में नियमित रूप से मुशायारे का आयोजन संभव हुआ था। मुशायारों में तब हाईकोर्ट के जज, प्रमुख डाक्टर, वकील-बैरिस्टर, प्रोफेसर, प्रतिष्ठ‍ित व्यवसायी, उच्च सरकारी व सैनिक अध‍िकारी शामिल होते थे। नूर साहब ने ख़य्य़ाम और हाफ़‍िज की रूबाईयों का अनुवाद मूल फारसी से हिन्दी में किया था। जबलपुर में होने वाले मुशायरे में नूर साहब सबसे अंत में अपनी शेर व शाइरी पेश करते थे। इस वजह से लोग उनकी ग़ज़ल सुनने अक्सर दो-दो बजे रात तक बैठे रहते थे। पन्नालाल श्रीवास्तव की पुस्तक ‘मंज़‍िल मंज़‍िल’ तक़रीज़ विख्यात शायर रघुपति सहाय फ़‍िराक़ ने लिखी थी। जब यह पुस्तक छपी तब पूरे उर्दू संसार में इस बात को ले कर चर्चा हुई कि फ़‍िराक़ साहब जिस पुस्तक की तक़रीज़ लिख रहे हों, वह पुस्तक तो ख़ास होगी और ल‍िखने वाला भी ज़रूर काबिल होगा। 17 सितंबर 1972 को फ़‍िराक़ साहब ने लिखा-‘’जनाब ‘नूर’ को उर्दू से अच्छी खासी वाक़फ़‍ियत है, और वह रवां दवां तौर पर अपने ख़यालात को सफ़ाई के साथ मौज़ूं अश्आर के सांचे में ढाल देते हैं। उनका अन्दाज़े-बयान शुस्त: है, और उनके कलाम में जो ज़बान की चाश्नी है उसका रह रह कर अन्दाज़ हो जाता है।‘’    
पंडित भवानी प्रसाद तिवारी राजनीति व साहित्य में पन्नालाल श्रीवास्तव के अग्रजवत थे। पंडित तिवारी की प्रेरणा से वे राजनीति में आए। नूर साहब प्रजा समाजवादी पार्टी (पीएसपी) के साइंलेट वर्कर थे, लेकिन वे वर्ष 1952 में जब नगर निगम की राजनीति में आए, तब से वर्ष 1977 तक वे नगर निगम के सदस्य रहे। पीएसपी की ओर से नूर साहब जबलपुर नगर निगम में वर्ष 1964 में महापौर के रूप में चुने गए। उनके महापौर कार्यकाल में जबलपुर में साह‍ित्यि‍क व सांस्कृतिक वातावरण का विस्तार हुआ। नूर साहब ने ही जबलपुर में आल इंड‍िया मुशायरा की शुरूआत करवाई। उर्दू में उनकी महारत को देखते हुए उन्हें मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी के गठन के समय सदस्य मनोनीत किया गया। 
वर्ष 1964 में पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ को हितकारिणी व‍िध‍ि महाविद्यालय का प्राचार्य नियुक्त किया गया। ‘नूर’ साहब का असल जौहर उनकी इंसानियत और इंसान दोस्ती रही। इस में मेहनत तो ज्यादा पड़ती है मगर सच यही है कि फ़र‍िश्ता से इंसान बनना बेहतर है। पन्नालाल श्रीवास्तव ‘नूर’ सही मानों में इंसान थे और बकौल रशीद अहमद सिद्दीकी अच्छे शायर की असल पहचान भी यही है। 

हिकमत और श़फा सिद्ध डा. एस. सी. बराट का अल्प महापौर कार्यकाल

जबलपुर नगर निगम महापौर के इतिहास में एक व‍िश‍िष्ट उपलब्ध‍ि दर्ज है, जब एक महापौर जबलपुर विश्वविद्यालय के रेक्टर और फिर कुलपति बने। यह उपलब्ध‍ि वर्ष 1965 में उस समय दर्ज हुई जब डा. एस. सी. (सत्यचरण) बराट को जबलपुर नगर निगम का महापौर नामांकित किया गया। उस समय मध्यप्रदेश के किसी नगर निगम में पहली बार एक चिकित्सक महापौर के पद पर आसीन हुआ था। राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले द्वारका प्रसाद मिश्र उस वक्त मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। वे डा. बराट के अभ‍िन्न मित्र थे। दोनों लगभग प्रतिदिन जबलपुर में होने पर पत्ते खेला करते थे। वर्ष 1965 में कुछ ऐसी परि‍स्थि‍ति निर्मित हुई और तत्कालीन जबलपुर की राजनीति में बंगला-बखरी को संतुलित करने के लिए एक अध्यादेश ला कर नगर निगम को भंग कर दिया गया था। जबलपुर में निर्विवाद छव‍ि रखने वाले डा. एस. सी. बराट को महापौर के रूप में मनोनीत किया गया। वे ऐसे व्यक्त‍ि थे जिनता सम्मान जबलपुर ही नहीं पूरे प्रदेश व देश में था। नगर के लोग उनका सम्मान करते थे और प्यार भी खूब किया करते थे। उनसे किसी को कोई खतरा नहीं था। वे घृणाहीन व्यक्त‍ि थे। डा. बराट का महापौर के रूप में कार्यकाल लगभग छह माह का रहा और बाद में उन्होंने स्वयं इस्तीफा दे दिया। उनका अल्प कार्यकाल आज भी लोग याद करते हैं। वंशीलाल पांडे के बाद डा. बराट जबलपुर विश्वविद्यालय के रेक्टर और बाद में विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने। 
डा. बराट चिकित्सा पेशा को नई ऊंचाईयां दी थीं। वे स्वतंत्रता सेनान‍ियों, श‍िक्षकों व विद्यार्थि‍यों से कोई फीस नहीं लेते थे। एक बार विद्यार्थ‍ियों के उग्र होने और सुपर मार्केट के श‍िलान्यास पत्थर को नुकसान होने पर डा. बराट ने नाराज हो कर कुछ दिन विद्यार्थ‍ियों का नि:शुल्क इलाज बंद कर दिया था, लेकिन कुछ दिन बाद वे नरम पड़ गए और अपनी परंपरा को बरकरार रखा। तीसरे पुल के पास जहां उनकी क्लीनिक थी, वहां बाहर से आने वाले मरीजों व उनके परिजन के लिए नि:शुल्क रहने की व्यवस्था की गई थी। उनके विशाल बंगले का बड़ा सा बरामदा गांव देहात से आने वाले  मरीजों के लिए महफ़ूज़ रहता था। वे वहीं बनाते, खाते-सोते और ठीक होकर ही घर लौटते थे। डा. बराट से इलाज करवाने वाले सिर्फ जबलपुर के लोग नहीं थे। होशंगाबाद, इटारसी, सागर सहित पूरे महाकोशल व बुंदेलखंड के लोग उनके पास अपने मर्ज को ले कर पहुंचते थे और ठीक हो कर खुशी-खुशी अपने घर जाते थे। डा. बराट के अभ‍िन्न सहयोगि‍यों में डा. नंदकिशोर रिछारिया, डा. चौबे व डा. श्रीवास्तव रहे हैं।
आपाधापी के इस दौर के डाक्टर और शायद मरीजों को भी मुआयना करने का डा. एस. सी. बराट का तरीका अजीब लग सकता है पर था बड़ा कारगर जो उनकी दवा के असर को दोगुना कर देता था। हीलिंग टच और मरीजों के साथ संवाद स्थापित करने में डा. बराट माहिर थे। अपनी कुर्सी के समक्ष आरामदेह  बैंच पर मरीज को वे लगभग लिटा लिया करते थे और फिर आहिस्ता-आहिस्ता पेट दबाते हुए बातचीत का सिलसिला शुरू करते कुछ इस तरह के सवालों के साथ- ‘’हां तो क्या बाहर गांव गए थे ? पानी काय का पीते हो ? रात में पक्का खाना ज्यादा खाया है। बारात में गए थे।‘’ मरीज अगर हां में जवाब देता तो कहते वहीं से ले आए हो बीमारी। कोई बात नहीं। ठीक हो जाओगे। दवा दे रहा हूं। समय से खा लेना पर कुछ खाने के बाद। और हां ठीक हो जाओ तो आकर बता देना। करीब दस पंद्रह मिनट के इस सत्र में मरीज अच्छा महसूस करता और जैसे ही उठकर चलने  को होता, तो रोक के पूछते जूता कैसा पहनते हो ? हील डेढ़ इंच काफी है। चलने में आरामदायक होना चाहिए। डा. बराट बी-काम्पलेक्स के जबर्दस्त हिमायती थे। वे कहते थे कि खाना खाते वक्त थाली में बी-काम्पलेक्स की गोली साथ में रखना चाहिए। खाना खाते-खाते साथ में बी-काम्पलेक्स खा लेना चाहिए। इसी प्रकार डा. बराट वाटरबरीज कम्पाउंड सीरप (Waterburys Compound) प्रत्येक मरीज को प्रिस्क्रि‍प्शन में लिखते थे। वैसे तो डा. बराट क्षय रोग विशेषज्ञ थे पर हर मर्ज़ की दवा जानते थे। हिकमत और श़फा दोनों ही उनको सिद्ध थी।

ज़मीनी आदमी दादा गुलाब चन्द गुप्ता जब जबलपुर के महापौर बने

सात रूपए मासिक वेतन पर भर्रू की कलम से बही खाते लिखने वाले गुलाब चन्द गुप्ता को भले ही बिहारीलाल खजांची का मुनीम कहा जाता रहा हो, लेकिन वास्तव में वे तो कलम के ही मजदूर थे। किसे पता था कि यही कलम का मजदूर एक दिन जबलपुर का महापौर ही नहीं मध्यप्रदेश विधानसभा का सदस्य भी निर्वाचित होगा।  जबलपुर नगर निगम में डा. एस. सी. बराट के इस्तीफा देने के बाद वर्ष 1965 में गुलाब चन्द गुप्ता चुने गए। उनके साथ‍ी व जबलपुर के लोग उन्हें ‘दादा’ कहते थे। गुलाब चन्द गुप्ता अपने पूर्ववर्ती महापौर की तुलना में बिल्कुल अलग थे। उनसे पूर्व जबलपुर के जितने महापौर हुए वे साहित्यकार, श‍िक्षक, उद्यमी, चिकित्सक थे। गुलाब चन्द गुप्ता ज़मीनी आदमी थे। उनके पास किसी विश्वविद्यालय की डि‍ग्री नहीं थी, उनकी विद्यालयीन श‍िक्षा भी कम थी पर संसार के जगत विश्वविद्यालय में उन्होंने जो श‍िक्षा पाई थी वह ऐसी विलक्षण और मेरीटोरियस थी जिसने गुलाब दादा के जीवन को पुरूषार्थी, उदात्त और व्यावहारिक बना दिया था। उनकी सूझबूझ व दूरदर्श‍िता किसी श्रेष्ठ व्यक्त‍ि से कम नहीं थी। दादा गुलाब चन्द गुप्ता जबलपुर की अक्खड़पन व फक्कड़पन परंपरा के प्रत‍िन‍िध‍ि थे। 
 उनकी सहज बुद्ध‍ि का लोहा सभी लोग मानते थे। दादा इस संसार के ऐसे यात्री थे जिन्होंने अपनी मंज़‍िल पा ली थी। वे उस जनता के लिए जीते थे जिस जनता के प्रत‍िन‍िध‍ित्व का दाय‍ित्व उन्होंने लिया था। उस दायित्व को वे अपनी बुद्ध‍ि, युक्त‍ि और शक्त‍ि के समन्वय से पूरा करते थे। जिस दिन उनका दाय‍ित्व पूरा हो गया उस दिन वे भगवान के प्यारे हो गए।  
दादा गुलाब चन्द का आरंभ‍िक जीवन कष्टों, आपदाओं और भीषण गरीबी में बीता था। जब वे स्वतंत्रता आंदोलन में कारावास में थे, तब पत्नी की बीमारी का समाचार आया। लोगों ने कहा ‘पेरोल’ पर जा कर देखना चाहिए। तब उन्होंने उत्तर दिया-मैं आवेदन नहीं करूंगा। और जब वह चल ही बसी तो संस्कार के लिए अध‍िकारियों ने जाने की अनुमति दी तो दादा गुलाब चन्द ने जाना स्वीकार नहीं किया। दीवारों के घेरे के बाहर उनकी अनुपस्थि‍ति में ही चिता धू धू कर उठी। 
कांग्रेस के मूल से समाजवादी शाखा फूट कर निकली थी उसके जबलपुर में प्रमुख स्तंभ दादा गुलाब चन्द गुप्ता थे। वे सक्र‍िय राजनीतिज्ञ थे और कांग्रेस के सुस्थापित वर्ग के विरोध में खड़े हुए। उन्होंने वर्ष 1930 से 1942 तक चारों आंदोलनों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और कारावास भोगा। गुलाब चन्द्र गुप्ता का नेताजी सुभाष चंद्र बोस से गहरा नाता था। उसी सम्पर्क और प्रभाव के कारण उन्होंने अपने पुत्र का नाम सुभाष रखा था। बाद में सभी पुत्रों का नामकरण सुभाष चंद्र बोस के परिवार के सदस्यों के नाम पर हुआ। सुभाष चंद्र बोस त्रिपुरी कांग्रेस अध‍िवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष पद को त्याग कर फारवर्ड ब्लाक के साथ 6 जुलाई 1939 को जब जबलपुर से मंडला रवाना हुए तब उनके साथ गुलाब चन्द गुप्ता, भवानी प्रसाद तिवारी व सवाईमल जैन भी साथ में थे। गुलाब चन्द गुप्ता और भवानी प्रसाद तिवारी का अभ‍िन्न साथ था। एक बार जबलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रभुदयाल अग्न‍िहोत्री ने कहा था कि गुलाब दादा और भवानी भाई को जोड़ देने से एक पूरा आदमी बनता था।   
वर्ष 1967 में गुलाब चन्द गुप्ता ने कटनी (मुड़वारा-रीठी) विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और विजयी हो कर विधायक बने। इस चुनाव में वे जबलपुर से कटनी अपने पुत्र के साथ वेस्पा स्कूटर में जाते थे। वे लोग सौ-सौ मील का सफर स्कूटर पर तय करते थे। विधानसभा पहुंच कर दादा गुलाब चन्द ने प्रथम सत्र से अपनी तीव्र बुद्ध‍ि व वाक् पटुता से ऐसा प्रभाव जमाया कि पूरे सदन और भोपाल के पत्रकारों ने उनका लोहा मान लिया।  उनके बारे में कहा जाता था कि वे राजनीति के मैदान के विकट ख‍िलाड़ी थे। कभी तो खेल करने के लिए खेल करते और लोगों को मोहरा बना लेते थे। सत्ता से अध‍िक उन्हें विरोध का खेल खेलने का मज़ा खूब आता था।

जन आंदोलन के प्रणेता डा. के. एल. दुबे पांच पार्षदों के सहारे चुने गए महापौर

डा. के. एल. दुबे वैसे तो होम्य‍िोपैथी चिकित्सक थे लेकिन उनकी असली पहचान जनता व कर्मचारियों के नेता के रूप में थी। डा. के. एल. दुबे कट्टर समाजवादी और राम मनोहर लोहिया के अनुयायी थे। वे मूल रूप से कानपुर देहात के ग्राम रामसारी तहसील घाटमपुर के निवासी थे। लोहिया की तरह कद काठी होने और जबलपुर में किसी भी समस्या के लिए जन आंदोलन करने के कारण लोग उन्हें ‘जबलपुर का लोहिया’ कहने लगे थे। समाजवादियों की तरह पूरे समय उत्तेजित दिखने वाले डा. के. एल. दुबे की स्थायी पोशाक धोती कुर्ता थी। उनके कुर्ते की बांह कोहनी तक मुड़ी रहती थी। तुर्शी व जुझारूपन उनका स्थायी भाव था। उनका पूरा नाम कन्हैया लाल दुबे था लेकिन शायद ही कोई उन्हें इस नाम से पहचानता था। वे तो सभी के लिए डा. के. एल. दुबे ही थे। 
कानपुर और जबलपुर में रहने के दौरान डा. के. एल. दुबे ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। कलकत्ता से होम्‍य‍िोपैथी की श‍िक्षा ग्रहण करने के बाद डा. के. एल. दुबे वर्ष 1944 में जबलपुर आ गए। उन्होंने वर्ष 1946-47 में प्रेक्ट‍िस शुरू की। तुलाराम चौक में उनकी ड‍िस्पेंसरी थी। डाक्टरी प्रेक्ट‍िस का सिलसिला वर्ष 1963-64 तक चला। इसके बाद वे राजनीति व जन सेवा में पूरी तरह से सक्र‍िय हो गए और प्रेक्ट‍िस पीछे छूट गई। 
स्वतंत्रता के पूर्व जबलपुर नगर निगम चुनाव में वे वर्ष 1945 में पहली बार राइट टाउन वार्ड से पार्षद चुने गए। वर्ष 1957 में डा. के. एल. दुबे होम साइंस कॉलेज से एमएलबी स्कूल मार्ग में गायकवाड़ कम्पाउंड में किराए के मकान में रहने आ गए। वर्ष 1957 से ही मृत्यु पर्यत तक उनका स्थायी अड्डा नगर निगम से शास्त्री ब्रिज (मोटर स्टेंड) जाने वाले रास्ते पर लक्ष्मी टेलर की दुकान हुआ करती थी। लक्ष्मी टेलर के मास्टर मूलचंद थे। इसके अलावा डा. के. एल. दुबे का दूसरा अड्डा इसी मार्ग के सामने दूसरी ओर जहांगीराबाद की अबू वकर की साइकिल दुकान थी। वे सुबह से नगर निगम पहुंच जाया करते थे और दिन भर दोनों जगहों पर वे लोगों से मिलते-जुलते थे और उनका समय बीतता था।
डा. के. एल. दुबे रहते तो राइट टाउन में थे लेकिन उनकी पूरी तरह राजनीति व जन सेवा घमापुर में केन्द्र‍ित थी। लगातार सक्र‍िय रहने के कारण वे वर्ष 1956 में पूर्वी घमापुर वार्ड और वर्ष 1973 में लालमाटी वार्ड से पार्षद चुने गए। वर्ष 1963 में कांग्रेस की ओर से नारायण प्रसाद चौधी जब जबलपुर नगर निगम के महापौर निर्वाचित हुए तब डा. के. एल. दुबे सोशलिस्ट उम्मीदवार के रूप में उप महापौर बने। इस चुनाव में डा. के. एल. दुबे ने बाबूराव परांजपे को हराया था। कहा जाता है कि जब तक डा.    के. एल. दुबे रहे तब तक बाबूराव परांजपे का राजनीति में सूर्य नहीं चमक पाया। 
डा. के. एल. दुबे घमंडहीन, जातपात न मानने वाले और लोगों में एकदम घुल जाने वाले व्यक्त‍ि थे। जाति से ब्राम्हण होने के बावजूद वे सफाई कर्मचारियों के एकमेतन नेता रहे। उन्होंने कई प्रादेश‍िक व केन्द्रीय शासन के कर्मचारियों की यूनियन को एक सूत्र में बांध कर उनका लम्बे समय तक नेतृत्व किया। वर्तमान जबलपुर पूर्व विधानसभा क्षेत्र उनका कार्यक्षेत्र रहा था और राजनीति में मुख्य आधार दलित वोट रहा। डा. के. एल. दुबे के जन आंदोलन घमापुर और आसपास के क्षेत्र से शुरू होते और धीरे धीरे पूरे शहर में उसका असर देखने को मिलता था। पानी की कमी के समय मटके फुड़वाने का जन आंदोलन उनकी ही देन है। 
डा. के. एल. दुबे का तत्कालीन नगर निगम प्रशासक एल. पी. तिवारी से हर समय टकराव बना रहता था। एल. पी. तिवारी के प्रशासन काल में जबलपुर में नगर निगम ने कई महत्वपूर्ण कार्य किए थे लेकिन डा. दुबे प्रतिदिन उनके सामने समस्याओं की फेहरिस्त रख कर आंदोलन की चेतावनी दिया करते थे। वर्ष 1967 का एक वाक्या यह भी है कि जगमोहन दास की मूर्ति स्थापित कर दी गई थी लेकिन उसका अनावरण कार्यक्रम तय नहीं हो पा रहा था। इस बात से डा. के. एल. दुबे उत्तेजित थे। उन्होंने नगर निगम प्रशासक को चेतावनी दी कि एक निश्च‍ित तारीख को वे स्वतंत्रता सेनानी व सर्वोदयी नेता गणेश प्रसाद नायक से मूर्ति का अनावरण करवा देंगे। इस बात को सुन कर एल. पी. तिवारी तुरंत भोपाल रवाना हुए और वहां से विजयाराजे स‍िध‍िंया का कार्यक्रम तय कर के आ गए। जगमोहन दास की मूर्ति का अनावरण हुआ। विजयाराजे स‍िध‍िंया मंच से उतर कर गणेश प्रसाद नायक के पास इस अनुरोध के साथ गईं कि वे ऊपर मंच पर चल कर मूर्ति का अनावरण करें। नायक जी ने विनम्रता से इंकार कर दिया। इस कार्यक्रम में डा. के. एल. दुबे ने सत्य शोधक संघ का पर्चा एक नागरिक के नाम से वितरित करवाया, जिससे काफ़ी विवाद हुआ।
डा. के. एल. दुबे वर्ष 1973-74 में सोशलिस्ट पार्टी की उम्मीदवार के रूप में जबलपुर के महापौर चुन लिए गए। उस समय सिर्फ पांच समाजवादी ही पार्षद के रूप में चुने गए थे, लेकिन डा. दुबे ने कांग्रेस व निर्दलीयों के सहयोग से जबलपुर नगर निगम की सत्ता जीत ली थी। उस समय अनिल शर्मा सोशलिस्ट उप महापौर चुने गए थे। डा. दुबे वर्ष 1975 में स्थायी समिति के कार्यवाहक अध्यक्ष चुने गए। इसी वर्ष वे नगर निगम में प्रतिपक्ष के नेता बने। डा. दुबे का जिंदगी भर कार्य क्षेत्र जबलपुर पूर्व रहा और वर्ष 1977 में विधानसभा चुनाव में वे जबलपुर पश्च‍िम कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए और विधायक निर्वाचित हुए। इसके बाद वर्ष 1980 तक डा. दुबे कांग्रेस विधायक दल के मुख्य सचेतक र‍हे। उन्होंने जबलपुर नागरिक सहकारी बैंक के अध्यक्ष का दाय‍ित्व भी निभाया और विश्वविद्यालय कोर्ट सभा के सदस्य भी रहे।           
डा. के. एल. दुबे का समाजवाद इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वे जीवन पर्यंत क‍िराए के मकान में रहे और पैदल या साइकिल से नगर निगम या अपने कार्य क्षेत्र में जाते रहे।

पौराण‍िक पात्रों से समकालीन सवालों का साहस है ‘भूमि’/पंकज स्वामी

लगभग डेढ़ दशक में देश के समकालीन रंगकर्म में जबलपुर के रंग समूह समागम रंगमंडल की विशि‍ष्ट पहचान बन चुकी है। हिंदी पट्टी में समागम रंगमंडल को...