गुरुवार, 25 मई 2023

जबलपुर के एक बेनाम 'अन्ना का डोसा' कॉफी हाउस की नामी शोहरत

    अन्ना का डोसा कॉफी हाउस और
यहां 57 वर्ष से काम कर रहे रैफल
 जबलपुर में जिस समय वर्ष 1958 में इंडियन कॉफी वर्कर्स कोऑपरेटिव सोसायटी लिमिटेड जबलपुर इंडियन कॉफी हाउस (ICH) शुरु करने की तैयारी कर रहा था उसी समय केंट सदर क्षेत्र में महावीर टॉकीज प्रांगण  में एसआर राजन अपना साउथ इंडियन रेस्त्रां शुरु कर डोसा व इडली परोसने लगे थे। उस समय तक दक्षिण भारतीय व्यंजनों का परिचय करवाने का श्रेय नि:संदेह यहां आने वाले दक्षिण भारतीय परिवारों को था। जबलपुर में डोसा व कॉफी को लोकप्रिय बनाने का श्रेय  के इंडियन काफी हाउस को जाता है लेकिन जबलपुर के केंटोमेंट क्षेत्र में पुरानी महावीर टाकीज प्रांगण में स्थित एक बेनाम निजी कॉफी ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। पिछले 65 वर्षों से यह दक्षिण भारतीय व्यंजन परोसने वाला कॉफी हाउस अपने अनोखे स्वाद, गुणवत्ता और दूसरों की तुलना में उतने ही मूल्य में ज्यादा खाद्य सामग्री परोसने के कारण अत्यंत लोकप्रिय है।

अन्ना का डोसा-1958 में एसआर राजन ने कभी नहीं सोचा नहीं था कि 65 वर्ष बाद उनके द्वारा स्थापित किया गया कॉफी हाउस जबलपुर के परिवारों में इतना लोकप्रिय हो कर एक परंपरा बन जाएगा। आज मार्डन काफी हाउस के नाम से पहचाना जाने वाला रेस्त्रां वैसे तो बोलचाल की भाषा में ‘अन्ना का डोसा’ ही कहलाया जाता है। अब इसे राजन के बड़े बेटे राजकुमार सिंह (राजू) संभाल रहे है। वे भी पिछले 46 वर्षों से अपने पिता के शुरू किए गए व्यवसाय को देख रहे हैं। उनके कॉफी हाउस में डोसा व इडली के साथ सांभर और चटनी खाने वालों की संख्या सबसे ज्यादा रहती है। वैसे इस कॉफी हाउस की एक विशेषता यह भी है कि जो भी व्यक्ति या परिवार यहां एक बार आया वह इससे जुड़ गया।

यहां आने वालों का अनुभव कभी खराब नहीं रहा-शहर के एक प्रसिद्ध उद्योगपति यहां अक्सर आते रहते हैं। वे पिछले तीन दशक से इस  कॉफी हाउस में नियमित रूप से आ रहे हैं। वे सप्ताह में यहां एक बार जरूर आते हैं। इतने वर्षों में उनका अनुभव कभी खराब नहीं रहा। अनुभव का अर्थ ग्राहकों की त्वरित सेवा, गुणवत्ता और खाद्य सामग्री का दूसरे रेस्त्रां या काफी हाउस की तुलना में ज्यादा परोसना ऐसी बातें हैं, जिनसे कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। डोसा तो आजकल हर जगह बनता है लेकिन यहां की बात कुछ निराली और अलग है। यहां परोसने वाले लोगों के व्यवहार की भी तारीफ है। एक व्यवसायी का मानना है कि किसी भी संस्थान की पहचान और लोकप्रियता में व्यवहार कुशलता की भी अहम भूमिका रहती है।

स्टूडेंट लीडर का रहा अड्डा-अन्ना का डोसा कॉफी हाउस शुरु से किशोर उम्र के लड़के लड़कियों में भी बेहद लोकप्रिय है। एक समय में यह जबलपुर के स्टूडेंट लीडरों का अड्डा भी रहा है। इसका कारण रेस्त्रां का अपना एक अनुशासन भी है। वैसे इस रेस्त्रां में एक बार में 35 से 50 लोग बैठ सकते हैं, लेकिन यहां रविवार और मंगलवार को बेहद भीड़ रहती है, इसलिए कई बार तो लोगों को अपने परिवार के साथ अपनी बारी का इंतजार भी करना पड़ता है। फास्ट फूड का क्रेज बढ़ गया है इसके बावजूद स्वाद की बात आती है तो लोग यहां के स्वादिष्ट डोसे को ही प्राथमिकता देते हैं।

किसी भी प्रकार की जीत और अन्ना का डोसा-अन्ना का डोसा कॉफी हाउस जीवन में किसी प्रकार की जीत और खासतौर से शर्त जीतने पर अन्ना का डोसा खाने के लिए भी पहचाना जाता है। जबलपुर के लाखों लोग फुटबाल, हॉकी, बिलियर्ड, स्नूकर में जीतने या किसी भी तरह शर्त जीतने पर अन्ना का डोसा खाने की शर्त रखते आ रहे हैं। 

57 वर्ष से गहरा नाता है रैफल का रेस्त्रां से-इस रेस्त्रां की एक खास बात यहां के मेन कुक या हेड शेफ रैफल हैं। वे रेस्त्रां से 1966 से जुड़े हुए हैं। उस समय उनकी उम्र 8-9 वर्ष थी और वे परोसने का काम करते थे। उन्होंने धीरे-धीरे मालिक राजन से दक्षिण भारतीय खाना बनाना सीखा और आज लोग रैफल के बनाए डोसे, इडली, सांभर चने की दाल की चटनी को चटखारे ले कर खा रहे हैं। इस रेस्त्रां की दूसरी खासियत इसका पिछले 65 सालों से एक सा स्वाद है। रेस्त्रां में किसी भी चीज में कोई खास मसाला नहीं डाला जाता और जैसी मान्यता है उसी के अनुसार बनाया जाता है। लेकिन दूसरे रेस्त्रां या काफी हाउस के मुकाबले वे डोसा या इडली बनाते समय चावल व उड़द दाल का एक अलग मिश्रण व अनुपात रखते हैं। इस वजह से उनका डोसा व इडली नरम रहते हैं और खाने में लजीज लगते हैं। रेस्त्रां में दो छोटे हॉल व दो छोटे कमरे हैं। यहां की क्राकरी साधारण है। अन्ना के डोसे में महंगाई से खाद्य सामग्री का मूल्य तय होता है। जब रेस्त्रां शुरु हुआ था तब एक मसाला डोसा 15 पैसे में और वर्ष 1966 में 25 पैसे में आता था। अब इसकी कीमत 70 रुपए हो गई।🔷

''पत्थर उबालती रही इक मां तमाम रात बच्चे फरेब खा के चटाई पर सो गए''

नश्तर के शेर, नज़्म और क़व्वाली ने पाई शोहरत और खुद गुमानामी में खोए रहे

    उर्दू का यह शेर कई वर्षों से अज्ञात के नाम दर्ज है। दरअसल यह शेर जबलपुर के शायर के अब्दुल माज़‍िद ‘नश्तर’ (निश्तर) जबलपुरी का है। जिस तरह से उर्दू का यह शेर अज्ञात के नाम दर्ज है उसी प्रकार अब्दुल माज़‍िद ‘नश्तर’ जबलपुरी पूरी दुनिया क्या हमारे जबलपुर के लिए गुमनाम बने रहे। उनको अज्ञात व गुमनामी में बनाए रखने का दोष किसी एक का नहीं हम सबका है। डा. प्रेमचंद्र श्रीवास्तव ‘मज़हर’ ने सबसे पहले नस्तर जबलपुरी की शाइरी को पहचाना और दाद दी थी। टेलीग्राफ फेक्ट्री में 40 साल दीवार घड़ी के माहिर कारीगर रहे अब्दुल माज़‍िद ‘नश्तर’ के दिल में शेरो-शाइरी का शौक उभरा। धीरे धीरे ये शौक़ व ज़ौक़ परवान चढ़ने लगा और इसी शौक़ ने अब्दुल माज़ि‍द को ‘नश्तर’ बना दिया। नश्तर फरवरी 1926 में जबलपुर शहर के फूटाताल इलाके में जन्मे और 4 अगस्त 1996 को इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए।

जिगर मुरादाबादी के उस्ताद भाई ‘अहमर’ मुरादाबादी नश्तर के उस्ताद थे। नश्तर और शोहरत दोनों का चोली दामन का साथ रहा। अब्दुल रहमान कांच वाले, शंकर शंभू, सलीम चिश्ती, यूसुफ आज़ाद जैसे मारूफ़ क़व्वालों ने नश्तर के कलामों को रिकार्ड किया। अनूप जलोटा, सलमा आग़ा, रूना लैला जैसे ग़ज़ल गायकों ने नश्तर की ग़ज़लों को अपनी जादुई आवाज़ से गाया। नश्तर की लिखी नज़्म ‘पगली’ को मुल्क की शोहरत हासिल हुई। सलीम चिश्ती ने इसे गाया और इसके लाखों रिकार्ड व कैसेट निकले। क़व्वाली की दुनिया में ‘पगली’ को जो शोहरत मिली वह बहुत कम को नसीब़ होती है। ‘पगली’ के रिकार्ड का यह आलम था कि जब यह सार्वजनिक रूप से लाउड स्पीकर में बजता था, तब लोग अपना काम-धंधा छोड़ कर इसे सुनने में इतने मशगूल हो जाते थे कि उनको समय से फेक्ट्री जाने में देरी की चिंता नहीं रहती थी। ‘पगली’ को गाने के लिए क़व्वाल सलीम चिश्ती ‘नश्तर’ के दरवाजे पर तीन दिन तक पड़े रहे। नश्तर की ‘पगली’ वास्तविक किरदार रही। पुराने लोगों को याद है यह पगली घंटाघर से फूटाताल तक पत्थर उठाए घूमती रहती थी। नश्तर की लिखी नज़्म ‘बोलो जी तुम क्या क्या खरीदोगे’, ‘पगला’, ‘पाप का बोल बाला है’ सहित कई क़व्वाली के रूप में मशहूर हुईं। नश्तर को क़व्वाली का उम्दा शायर माना गया।   

अब्दुल माज़िद ‘नश्तर’ क़व्वाली, ग़ज़लों, नज़्मों तक सीमित नहीं रहे बल्क‍ि उन्होंने दादरा,, ठुमरी, होली, दीवाली और देशभक्त‍ि गीतों में भी अपना कमाल दिखाया। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा के काव्य कृष्यायन का उर्दू ज़ुबान में तर्जुमा भी किया। उम्र के आखि‍री समय में उनकी आंखों की रोशनी जाती रही,इसके बावजूद भी शेरो शाइरी से उनका रिश्ता बरक़रार रहा। 

अब्दुल माज़‍िद का ने अपना तख़ल्लुस ‘नश्तर’ (घाव पर चीरा लगाने वाला औज़ार) रखा लेकिन वे दुनियादारी से दूर एक शांत व नरम व्यक्त‍ि रहे। समय-समय पर उनको नश्तर ही चुभते रहे। मुल्क के तमाम क़व्वालों ने उनकी नज़्म को गाया परन्तु ‘नश्तर’ को इसके लिए कोई रॉयल्टी मिली हो ऐसा नहीं लगता। लाखों में रिकार्ड व कैसेट बिके। शोहरत गायक को मिली लिखने वाला अनाम ही रहा। नश्तर के रिकार्ड एचएमवी, सारेगम और तो और पाकिस्तान के कोलंबिया कंपनी ने भी निकाले। इतने सालों में नश्तर के शेर-शाइरी, नज़्म, ग़ज़ल का कोई दस्तावेजीकरण नहीं हो पाया। उनका लिखा बिखरा ही रहा। अब जबलपुर के नईम शाह ने ‘कलाम-ए-नश्तर’ में इसे एक जगह एकत्रि‍त कर एक पुस्तक‍ का रूप दे कर एक नेक काम किया है। नईम शाह ने नश्तर के उर्दू के कलाम को हिन्दी में कर के इसे आने वाली नस्लों के लिए एक तोहफा देने के मकसद से किया है।


अंत में नश्तर जबलपुरी के शब्दों में- 

उम्रे दराज़ मांग के लाए थे चार दिन

दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में 

लो मुबारक तुम्हें शहर अपना

हम तो मेहमान थे चार दिन के 

चेहरा ख़ाक आलूद आंखे नम नज़र बहकी हुई 

जा रही है एक पगली जाने क्या बकती हुई 🔷

गुरुवार, 11 मई 2023

किसने जबलपुर सहित मध्यप्रदेश में सर्वप्रथम चायनीज फुड परोसने और खाने का सलीका स‍िखाया

 
  आज चायनीज फुड देश में शहरों से गांव मजरा टोलों तक पहुंच गए हैं। रेस्त्रां से ले कर शादी ब्याह, जन्मदिन पार्टी प्रत्येक इवेंट में चायनीज फुड जरूरी हो गया है। चाय-चाट के ठेलों से ज्यादा चायनीज के ठेले हो गए। सुबह के नाश्ते से रात के डिनर तक लोग चायनीज फुड ही खा रहे हैं। जबलपुर के सीएम वांग (CM WANG) को हम श्रेय दे सकते हैं कि उन्होंने जबलपुर सहित पूरे मध्यप्रदेश को चायनीज फुड परोसने की शुरुआत  कर इसको खाने का सलीका सिखाया। आज से 75 वर्ष पहले सीएम वांग ने जबलपुर में घंटाघर के पास अपना क्लॉक टॉवर चायनीज रेस्त्रां शुरु किया था। उस समय जबलपुर के काफ़ी कम लोग चायनीज फुड खाने में रुचि रखते थे। लोगों को चायनीज फुड के बारे में कई तरह के भ्रम थे। इस तरह के भ्रम के कारण वांग अपने क्लॉक टॉवर चायनीज रेस्त्रां में चाय के साथ भारतीय खाने पीने के सामग्री रखते थे। लोगों की फरमाइश होने पर वे चायनीज फुड तैयार कर परोस देते थे। भारत में सातवें दशक में अचानक चायनीज फुड का क्रेज बढ़ने लगा और इसके साथ ही सीएम वांग का क्लॉक टॉवर चायनीज रेस्त्रां भी लोकप्रिय होने लगा। जबलपुर के शौकीन लोगों को चायनीज सूप ने सबसे पहले आकर्ष‍ित किया। उस समय छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने भारतीय प्रशासनिक सेवा की शुरुआत की थी और उनकी जबलपुर में नियुक्त‍ि थी। वे क्लॉक टॉवर चायनीज रेस्त्रां के नियमित व सम्मानित कस्टमर हुआ करते थे। वे चौथे पुल के पास रहते थे और शाम के समय उनका अध‍िकांश समय चायनीज रेस्त्रां में बीता करता था। उनके नजदीकी लोगों ने बताया कि उस समय अजीत जोगी के पास एक स्वेगा (मोपेड) हुआ करती थी जिसे चलाते हुए वे अंकल वांग के रेस्त्रां में पहुंच जाया करते थे।

सातवें दशक में जब भारतीयों को चायनीज फुड भाने लगा तब उनके सामने चॉप स्ट‍िक (दंडी के आकार की चम्मच) से खाने की समस्या आने लगी। मालूम हो पूर्वी एश‍ियाई देशों चीन, जापान, थाईलैंड में कोई भी भोजन चॉप स्ट‍िक से ही खाया जाता है और यूरोपीय देश के छुरी-चम्मच का उपयोग करते हैं। हम भारतीयों को हाथ से ही खाना रुचि कर लगता है। बासु चटर्जी की छोटी सी बातफिल्म में अशोक कुमार द्वारा अमोल पालेकर को चॉप स्ट‍िक के सलीके से उपयोग का मज़ेदार दृश्य आज भी लोगों को गुदगुदाता है। सीएम वांग ने चॉप स्ट‍िक की समस्या का समाधान कांटे-चम्मच से कर के स्थानीय लोगों की झि‍झक को दूर किया।

जब चायनीज रेस्त्रां की बात हो रही है तो यह भी जानना जरूरी हो जाता है कि चीनी लोग जबलपुर में कैसे रच बस गए। बताया जाता है कि कुछ चीनी परिवार वर्ष 1930 में बर्मा (अब म्यान्मार) से जबलपुर पहुंचे थे। उस समय रंगून से पानी के जहाज से कलकत्ता आने में लगभग तीन-चार दिन का समय लगता था। कुछ परिवार कलकत्ता पहुंचे और उसमें से कुछ ने जबलपुर का रूख किया। वर्ष 1942-43 में कलकत्ता से डा. वू स‍िएन जबलपुर पहुंचे और यहीं बस गए। डा. सिएन दांत के डाक्टर के रूप में मशहूर हुए। उनके पुत्र टीएच लियाओ (Dr.Tsai Teh Liao) ने 1965-66 में डाक्टरी की पढ़ाई पूरा कर के डेंट‍िस्ट बन गए। पिता-पुत्र की इस जोड़ी ने जबलपुर में हजारों लोगों की नकली बत्तीसी बना कर प्रस‍िद्ध‍ि पाई। अब इनकी तीसरी पीढ़ी डा. सीएच लियाओ मैदान में है।

सीएम वांग के क्लॉक टॉवर चायनीज रेस्त्रां से ले कर आगे तक की दस-बारह मकान व दुकाओं के मालिक जबलपुर के एक पारसी फ़ि‍रोज़ दारूवाला थे। बाद में उन्होंने वांग को वह जगह बेच दी। वांग जबलपुर वर्ष 1943 में कलकत्ता से पहुंचे थे और वर्ष 1948 में उन्होंने रेस्त्रां की शुरुआत कर दी थी। वांग का निधन वर्ष 1997 में हो गया। वांग की चार पुत्रि‍यां हैं। जिसमें मी ह्वा वांग  (MEE HWA WANG) जबलपुर में रहती हैं और शेष बाहर। मी ह्वा वांग वर्तमान में रेस्त्रां का संचालन करती हैं। वांग के प्रिय माइकल लेपचा रहे हैं। वे बचपन से ही रेस्त्रां के कामकाज से जुड़ गए थे और आज इसका कुशलता से प्रबंधन कर रहे हैं।🔹

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

जबलपुर के दिल में बसे हैं सलीम दुर्रानी

मशहूर भारतीय क्रिकेट आलराउंडर सलीम दुर्रानी 88 की उम्र में इस फ़ानी को दुनिया को छोड़कर चले गए। संभवतः वे भारतीय क्रिकेट के सबसे स्टाइलिश व रंग बिरंगे खिलाड़ी थे इसलिए उन्हें 'प्रिंस सलीम' भी कहा जाता था। वे पहले अर्जुन अवार्डी क्रिकेटर रहे। सलीम दुर्रानी ने भारत के साथ रणजी ट्राफी में राजस्थान, गुजरात व सौराष्ट्र का प्रत‍िन‍िध‍ित्व किया लेकिन जबलपुर के क्रिकेट प्रेमी उनको दिल से चाहते थे। भारत के लिए 1960 में टेस्ट क्रिकेट खेलने से पूर्व सलीम दुर्रानी ने भारत की यात्रा पर आई वेस्टइंडीज की टीम के विरूद्ध सेंट्रल ज़ोन की ओर से तीन दिवसीय मैच खेला था। यह मैच जबलपुर में कैंट के गैरीसन मैदान पर 6 से 8 दिसंबर 1958 को खेला गया। वेस्टइंडीज टीम से हंट, रामाधीन, हॉल्ट, एटकिनसन, लांस गिब्स, सोलोमन, रोड्रिग्ज जैसे धुरंधर खिलाड़ी थे। सेंट्रल ज़ोन की टीम अपेक्षाकृत कमजोर मानी जाती थी। सेंट्रल ज़ोन की ओर से वीनू मांकड, हनुमंत सिंह, हीरा लाल गायकवाड़ व चंदू सर्वटे जैसे अनुभवी और सलीम दुर्रानी व प्रकाश नायडू जैसे नवोदित खिलाड़ी थे। प्रकाश नायडू सीके नायडू के पुत्र थे। प्रकाश नायडू बाद में पुलिस सेवा में आ गए और नब्बे के दशक में जबलपुर की छठी बटालियन में पदस्थ रहे। 

इस मैच में सेंट्रल ज़ोन की ओर से सफल बल्लेबाज सलीम दुर्रानी रहे। उन्होंने 80 रन की सफल पारी खेली। लांस गिब्स जैसे गेंदबाज की बॉल पर चौके-छक्के जड़े। सलीम दुर्रानी ने जबलपुर की सरजमीं पर दर्शकों के ऑन डिमांड छक्का मारने की शुरुआत की जो बाद में उनकी विशिष्टता बनी। इस मैच में सलीम दुर्रानी ने सेंट्रल ज़ोन की ओर से विकेटकीपर की भूमिका निभाई। जबलपुर का उत्कृष्ट प्रदर्शन सलीम दुर्रानी के लिए भारतीय टेस्ट टीम में प्रवेश का मजबूत आधार बना। 

भारतीय टेस्ट टीम में चयन के बाद सलीम दुर्रानी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 1971 में वेस्टइंडीज दौरे में सलीम दुर्रानी ने भारत को टेस्ट मैच में विजयी बनाने में कमाल की भूमिका निभाई। उन्होंने क्लाइव लॉयड व गैरी सोबर्स का विकेट लिया। दुर्रानी ने 17 ओवर में सिर्फ 21 रन दे कर किफायती गेंदबाजी की। 1973 में टेस्ट क्रिकेट से रिटायर होने के बाद सलीम दुर्रानी ने परवीन बाबी के साथ 'चरित्र' फिल्म में हीरो बने। सलीम दुर्रानी रणजी ट्राफी में राजस्थान की ओर से खेलते रहे। 18 से 20 दिसंबर 1976 को सलीम दुर्रानी फिर एक बार जबलपुर की ज़मीन पर खेलने उतरे। यह मध्यप्रदेश व राजस्थान के मध्य रणजी ट्राफी का एक महत्वपूर्ण मैच था। मध्‍यप्रदेश की ओर से योगेन्द्र जगदाले, संजय जगदाले, गुलरेज अली जैसे खिलाड़ी थे। जबलपुर के श्रवण भाई पटेल को रणजी ट्राफी में खेलने का मौका पहली बार मिला। राइट टाउन स्टेडियम में दर्शकों की निगाहें पूरे समय सलीम दुर्रानी पर टिकी रही। 42 वर्षीय दुर्रानी बल्लेबाजी में कुछ खास नहीं कर पाए लेकिन उत्कृष्ट गेंदबाजी करते हुए उन्होंने दस ओवर में सिर्फ 18 रन दिए। इस मैच की समाप्ति पर सलीम दुर्रानी के पवेलियन लौटते वक्त  जबलपुर के क्रिकेट प्रेमियों ने खड़े हो कर तालियां बजाते उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया। 🔷

शुक्रवार, 31 मार्च 2023

जबलपुर कमिश्नर रेसीडेंसी के ऐतिहासिक 202 वर्ष

 


जबलपुर कमिश्नर का शासकीय आवास रेसीडेंसी 1 अप्रैल को अपनी स्थापना के ऐतिहासिक 202 वर्ष पूर्ण कर रहा है। वर्ष 1821 में निर्मित कमिश्नर रेसीडेंसी भारत में सबसे पुरानी अधि‍कारिक आवासीय बंगलों में से एक है जो अभी भी उपयोग में है। मराठों से जबलपुर शहर को जीतने के तुरंत बाद अंग्रेजों द्वारा बनाई जाने वाली यह इमारत अपनी तरह की पहली इमारत थी। यह इमारत प्रसिद्ध विलियम स्लीमन का निवास भी रहा, जिन्होंने 1830 से 1840 दशक में मध्य भारत में ठगों व पिंडारियों का सफाया किया था। विलियम स्लीमन के सार्वजनिक कर्त्तव्य की याद में उनके भतीजे जे. स्लीमन द्वारा क्राइस्ट चर्च कैथेड्रल में उनके सम्मान में एक पट्ट‍िका लगाई गई। विलियम स्लीमन ने जिस जगह से पिंडारियों का उन्मूलन किया, उस स्थान का नाम उनके नाम से ‘स्लीमनाबाद’ किया गया। 

मिलोनी थे पहले कमिश्नर-सन्‌ 1818 में जब अंग्रेजों ने जबलपुर पर कब्जा किया, तब सीए मिलोनी को यहां का पहला कमिश्नर बनाया गया। मिलोनी के नाम पर बाद में जबलपुर के एक क्षेत्र का नाम मिलोनीगंज हुआ। मिलोनी कार्यकाल में कमिश्नर कार्यालय की नींव रखी गई। इसका निर्माण 1818 से प्रारंभ होकर 1821 में पूरा हुआ। सन्‌ 1861 तक नर्मदा एवं सागर टेरेटरीज का मुख्यालय सागर रहा। इसके बाद सेंट्रल प्रावेंस एण्ड बरार बनने पर नागपुर राजधानी बनी, तब नर्मदा टेरेटरीज का मुख्यालय जबलपुर बनाया गया। उस समय कमिश्नर गवर्नर जनरल का प्रतिनिधि होता था, इसलिए इस भवन को रेसीडेंसी भी कहा जाता था।

26 एकड़ का था परिसर-इस इमारत का पूरा परिसर पहले 26 एकड़ का रहा। इमारत को आयोनक, क्लासिक व ग्रीक शैली में बनाया गया। पूरा भवन चूना पत्थर और ईंट से बना है। भवन के सामने के हिस्से में चार सपाट पिलर और उसके बाद ऊंची छत इसकी विशेषता है। उस समय मुख्य भवन में 22 हजार 592 रुपए की लागत आई थी। बाद में चहारदीवारी, घुड़साल और स्टोर बनाया गया, जिसमें 5 हजार 457 रुपए अतिरिक्त खर्च हुए। वर्तमान में जो कमिश्नर कार्यालय है, उसका निर्माण 1904 में हुआ, जो 16 हजार 590 रुपए की लागत से बना। कमिश्नर आवास को बने दो सौ दो साल पूरे होने जा रहे हैं, लेकिन पूरे भवन में वास्तु संबंधी कमियां नाममात्र भी नहीं है। इसकी मजबूती इससे उजागर होती है कि 22 मई 1997 को आए भूकंप में इस भवन में मामूली क्षति हुई थी।

1857 की क्रांति में अंग्रेजों ने छिप कर बचाई जान-1857 के विद्रोह के दौरान रेसीडेंसी (वर्तमान जबलपुर कमिश्नर आवास) केन्द्र बिन्दु था। डब्ल्यू. सी. अरशाइन तब जबलपुर के कमिश्नर थे। जिनके बारे में कहावत प्रचलित रही कि उनका दिमाग व सोच सीमित दायरे में घूमती थी। उनके कार्यकाल में भारतीय सिपाहियों ने बैरक में अपने अंग्रेज ऑफ‍िसरों पर हमला करना शुरू कर दिया था। अरशाइन ने मुसीबत की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया। रेसीडेंसी में जल्दबाजी में सैंड बैग (रेत की बोरियों) और दो पुरानी तोपों का इंतजाम कर बचाव का रास्ता निकाला गया। भारतीय विद्रोहियों ने रेसीडेंसी की घेराबंदी कर ली जिसमें छावनी और स‍िविल स्टेशन के सभी अंग्रेज य यूरोपीय परिवार रेसीडेंसी में सुरक्षा की दृष्ट‍ि से एकत्र हो गए थे। रेसीडेंसी में एक भूमिगत मार्ग मौजूद था, जो बॉल रूम के लकड़ी के फर्श से बाहर निकलता था। यह बहुत दूर तक नहीं जाता था। रेसीडेंसी में अंग्रेज व यूरोपीय परिवार तब तक डटे रहे जब तक भारत की स्वतंत्रता के पहली लड़ाई या विद्रोह को दबा नहीं लिया गया।

बड़े फैसले लिए गए रेसीडेंसी में-अंग्रेजी दौर के कमिश्नर यूं तो गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि होते थे, लेकिन उनके पास बड़े-बड़े फैसले लेने के अधिकार थे। गढ़ा गोंडवाना के अंतिम शासक शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह को तोप से उड़ाने की सजा का फैसला इसी भवन में लिया गया था। आजादी की लड़ाई में सैकड़ों सेनानियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने की इबारत इसी भवन में लिखी गई।

वेटरनरी कॉलेज को मिली जगह-देश की आजादी के बाद कमिश्नर कार्यालय में नया मोड़ आया और कमिश्नर का पद समाप्त कर दिया गया। नवम्बर 1956 में नया मध्यप्रदेश बनने के बाद जबलुपर का प्रथम कमिश्नर आईसीएस आरसीवीपी नरोन्हा को बनाया गया। इसी के साथ ही कमिश्नर कार्यालय को आवासीय परिसर में बदल दिया गया, जबकि सामने बने भवन को कमिश्नर कार्यालय बनाया गया। रेसीडेंसी का उद्यान वर्तमान वेटरनरी कॉलेज तक विस्तारित था। 1948 1956 के बीच जब कमिश्नरी को समाप्त कर दिया गया था, तब रेसीडेंसी को वेटरनरी कॉलेज के रूप में उपयोग में लाया गया। कमिश्नर आवास की 26 एकड़ भूमि के अधिकांश हिस्से में वेटरनरी कॉलेज बना दिया गया, जो वर्तमान में वेटनरी विश्वविद्यालय है।

बुधवार, 25 जनवरी 2023

पौराण‍िक पात्रों से समकालीन सवालों का साहस है ‘भूमि’/पंकज स्वामी


लगभग डेढ़ दशक में देश के समकालीन रंगकर्म में जबलपुर के रंग समूह समागम रंगमंडल की विशि‍ष्ट पहचान बन चुकी है। हिंदी पट्टी में समागम रंगमंडल को सर्वाध‍िक संभावनापूर्ण और प्रयोगधर्मिता के लिए जाना-पहचाना जाता है। समागम रंगमंडल के मंचित नाटकों की विशेषता उनका समकालीन मुद्दों से टकराहट है। समागम रंगमंडल ने आशीष पाठक लिखि‍त और स्वाति दुबे निर्देश‍ित नए नाटक ‘भूमि’ का मंचन पिछले दिनों जबलपुर में किया। यह नाटक का दूसरा मंचन था। इस मंचन से कुछ दिन पूर्व नाटक का पहला मंचन जयपुर के जयरंगम में हुआ। 

‘अगरबत्ती’ की सफलता के बाद आशीष पाठक से उनके नाट्य लेखन को ले कर हर समय उत्सुकता रहती है। उन्होंने 25 वर्षों के नाट्य जीवन में 17 नाटक लिखे हैं। आशीष पाठक ने इंटर कॉलेज नाट्य प्रस्तुतियों के लिए स्वयं के लिखे विषकन्या नाटक से शुरूआत की थी। इसके पश्चात् सुगंधि, सोमनाथ व अगरबत्ती का निर्देशन किया। हयवदन के निर्देशन ने उनके लिए व्यापकता व विस्तार का द्वार खोला। 

वर्ष 2008 में आशीष पाठक ने समागम रंगमंडल नाट्य समूह गठित किया। समूह के गठन के साथ उन्होंने पॉपकार्न नाटक का लेखन किया और समागम की पहली प्रस्तुति के रूप में दर्शकों के समक्ष पेश किया। एकल अभ‍िनय पर केन्द्र‍ित पॉपकार्न दर्शकों के लिए हवा का ताजा झोंका था। पॉपकार्न के पश्चात् आशीष पाठक ने एक नया नाटक रेड फ्रॉक को लिख कर मंच पर प्रस्तुत किया। यह प्रस्तुति भी विचारधारा के अंतर्विरोध को दर्शाती थी। नाटक की विषयवस्तु ने दर्शकों को गहराई से प्रभावित किया। इस नाटक के पश्चात् समागम रंगमंडल ने अपनी प्रस्तुतियों में मुख्यधारा के कलाकारों से किनारा कर लिया और कॉलेज के विद्यार्थ‍ियों व नवोदित कलाकारों को अवसर देना प्रारंभ किया। आशीष पाठक यहां से एक बार फिर बुनियादी स्तर की लौटे। उन्होंने डकैत चूहे में बेक स्टेज करने वाले एक कलाकार को मुख्य भूमिका निभाने का अवसर दिया।

आशीष पाठक ने समागम रंगमंडल के माध्यम से पारम्परिक स्क्र‍िप्ट के स्थान पर स्वयं के लिखे या असामान्य विषयों को नाट्य रूपांतरण कर नाटक की विषयवस्तु बनाया है। नाट्य रूपांतरण के रूप में प्रस्तुत किया गया आशीष पाठक का सुदामा के चावल उनकी महत्वपूर्ण प्रस्तुति है। हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना को उन्होंने तीव्रता के साथ मंच पर प्रस्तुत किया। सुदामा के चावल से राजनैतिक सत्‍ता पर कठोर प्रहार किया है। इस नाट्य प्रस्‍तुति को राजनैतिक दवाब का सामना भी करना पड़ा है। मध्‍यप्रदेश में तो आयोजक सुदामा के चावल के मंचन से बचने लगे हैं। सुदामा के चावल को अहीराई नृत्‍य शैली में प्रस्‍तुत कर रंगकर्म का नया फार्म प्रस्‍तुत किया गया। इस प्रस्तुति में परसाई काव्‍यात्‍मक रूप में दर्शकों के समक्ष आए।

समागम रंगमंडल की इसके पश्‍चात् की प्रस्‍तुतियां रावण, सराय और यहूदी की लड़की में लोक तत्‍व एवं संगीत  का उपयोग बखूबी किया गया। यहां एक बात गौरतलब है कि प्रस्तुतियों का लोक तत्‍व जटिल नहीं है, बल्कि वह दर्शकों से तदात्‍म स्‍थापित कर लेता है। लोर्का लिखित बिरजिस कदर का कुनबा समागम रंमंडल की एक महत्‍वपूर्ण प्रस्‍तुति है। जटिल विषय पर आधारित इस प्रस्‍तुति में कॉलेज विद्यार्थ‍ियों जैसे अनगढ़ कलाकारों से होशि‍यारी से काम लिया गया। समागम रंगमंडल अपनी प्रस्‍तुतियों में नाट्य लेखक को बराबरी से श्रेय देती है। महेश एलकुंचवार के वासांसि जीर्णानी के मंचन के लिए आशीष पाठक व स्वाति दुबे ने लेखक से व्‍यक्तिगत मिलने की काफी जद्दोजहद की। नागपुर में बार-बार जा कर आखि‍र एक दिन आशीष पाठक महेश एलकुंचवार से मिलने में सफल हो गए। नाटक की चर्चा के साथ आशीष पाठक लेखक को उनकी रायल्‍टी देने में भी ईमानदारी दिखाई। इस प्रस्‍तुति को एक संवाद की यात्रा के नाम से प्रस्‍तुत करते रहे। आशीष पाठक अपने लिखे नाटक को निरंतर अद्यतन करते हुए प्रयोग की प्रक्रिया में रहते हैं। अगरबत्ती नाट्य प्रस्तुति के लिए उन्होंने काफ़ी शोध‍ किया। इसके लिए वे और स्वाति दुबे बुंदेलखंड एवं जालौन और आसपास के क्षेत्रों में गाए जाने वाले गीतों को खोज कर नाटक में प्रस्तुत किया है।  अगरबत्ती की खास‍ियत उसकी परिकल्पना व जटिलता है। आशीष पाठक अन्य नाट्य लेखक व निर्देशकों की तुलना में जटिलता में ज्यादा जाते हैं। 

आशीष पाठक ने ‘भूमि’ को लिखने में लगभग तीन-चार वर्ष का समय लगाया है। इसके लिए उनकी योजना एक डेढ़ वर्ष पूर्व शुरू हो चुकी थी। ‘भूमि’ दरअसल महाभारत के पात्र बभ्रुवाहन पर केन्द्र‍ित है लेकिन नाटक में अर्जुन और चित्रांगदा के चरित्र उभर कर सामने आते हैं। इन दोनों पात्रों के संवाद व विषयवस्तु के माध्यम से आशीष पाठक ‘भूमि’ को समकालीनता सवालों से जोड़ देते हैं। नाटक के पात्र और उनके विचार प्रतीक के रूप में सामने आते जाते हैं। नाटक के मुख्य पात्र अर्जुन व बभ्रूवाहन पुरूष हैं तो चित्रांगदा व उलूपी महिलाओं का प्रतिन‍िध‍ित्व करते हुए द्वन्दों को उभारती हैं। आशीष पाठक नाटक में अश्वमेध यज्ञ के माध्यम से साम्राज्यवादी विस्तार व इच्छाओं को इंगित करते हैं तो भूमि को स्त्री से जोड़ते हैं। वे भूमि को मिथकों से जोड़ते हैं। 

अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा के अलावा दो और विवाह किए थे। अर्जुन ने दूसरा विवाह मणिपुर की राजकुमारी चित्रांगदा जिसका पुत्र बभ्रुवाहन और तीसरा विवाह उलूपी से किया था जिसका पुत्र अरावन था। बभ्रुवाहन अपने नाना की मृत्यु के बाद मणिपुर का राजा बनाया गया। जब युधिष्ठिर ने अश्वमेघ यज्ञ करवाया तो यज्ञ के घोड़े को बभ्रुवाहन ने पकड़ लिया था। घोड़े की रक्षा के लिए अर्जुन मौजूद थे तब बभ्रुवाहन का अपने पिता से युद्ध होता है और युद्ध में बभ्रुवाहन जीत जाता और अर्जुन मूर्छित हो जाता है। अपनी मां चित्रांगदा के कहने पर बभ्रुवाहन मृतसंजीवक मणि द्वारा अर्जुन को चैतन्य कर देता है। 

अर्जुन, चित्रांगदा, बभ्रूवाहन जैसे पात्रों को केन्द्र में रख कर रवीन्द्र नाथ टैगोर नाटक और जयशंकर प्रसाद ने कहानी लिखी है। इस कथा पर कन्नड़ व तेलगु में फिल्में बनी है। इन फिल्मों में कन्न्ड़ के सुपर स्टार राजकुमार और एनटीआर जैसे कलाकारों ने अभ‍िनय किया। हिन्दी में भी अलग अलग समय में दो फिल्मों का निर्माण हुआ। आधुनिक काल में आशीष पाठक ने इस विषयवस्तु पर नाटक लिख कर इसे समसामयिकता दी है। नाटक लिखने के बाद स्वति दुबे ने मण‍िपुर की यात्रा कर वहां की संस्कृति, वेशभूषा, मार्शल आर्ट जैसी बारीक बातों का अध्ययन कर उसे नाटक में उतारा। पिछले वर्ष जुलाई-अगस्त में समागम रंगमंडल ने मण‍िपुरी मार्शल आर्ट थांग-टा का बीस दिनों का एक वर्कशॉप आयोजित किया। इसके लिए उन्होंने मण‍िपुर से विशेष रूप से चिंगथम रंजीत खुमान को आमंत्र‍ित कर अपने कलाकारों को प्रश‍िक्षण दिया। थांग-टा मण‍िपुर का पारम्परिक मार्शल आर्ट है, जिसमें सांस की लय के साथ समन्व‍ित रूप से शारीरिक नियंत्रण का अभ्यास किया जाता है। थांग-टा में कलाकारों को भाले व तलवार का प्रश‍िक्षण भी दिया गया। जबलपुर के अमित सुदर्शन कलाकारों को केरल के मार्शल आर्ट कलारी पट्टू के साथ मणिपुरी मार्शल आर्ट का लगातार प्रशिक्षण देते आ रहे हैं। 

शोध, लेखन, यात्रा, प्रश‍िक्षण, थकाऊ रिहर्सल के बाद ‘भूमि’ दर्शकों के समक्ष मंचन के रूप में सामने आया। इस नाटक की डिजाइनिंग, क्राफ्ट व परिकल्पना में निर्देशक स्वाति दुबे की मेहनत स्पष्ट रूप से झलकती है। 90 मिनट की प्रस्तुति में उन्होंने एक एक दृश्य में खासी मेहनत की है। कलाकारों की आंगिक क्र‍ियाएं मंच पर देख कर महसूस होता है कि वे भी पूरे नाटक में डूबे हुए हैं। कलाकारों की स्पीच पर खूब मेहनत की गई। लंबे संवाद कहीं बोझ‍िल नहीं होते बल्क‍ि दर्शक मंच पर सामने देखते हुए एक एक शब्द व सशक्त संवाद को सुनने का जतन करते हैं। नाटक का गीत जाओ तुम पुरवा के संग लौट आना तुम में नृत्य व संगीत रिलेक्स पैदा करता है। यह गीत सोम ठाकुर का है और इसे संगीतबद्ध संजय उपाध्याय ने किया है। किसी पारम्परिक मणिपुरी लोक संगीत की तुलना में इस गीत को मंच पर प्रस्तुत करना ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध हुआ।आशीष पाठक की लाइट डिजाइनिंग अद्भुत रही। बांस का सेट विषयवस्तु को आधार व मजबूती देता है। नाटक के अंत में अर्जुन व बभ्रूवाहन के बीच का खड्ग युद्ध की मौलिकता व स्वाभाविकता इससे पूर्व नाटकों में कभी देखने को नहीं मिली। स्वाति दुबे चित्रांगदा की भूमिका को अपने संवादों के जरिए विस्तार के साथ प्रभावी बनाती हैं। नवयुवती के अल्हड़पन से मां तक के भाव सहजता के साथ सम्प्रेष‍ित होते हैं। अर्जुन के रूप में हर्ष‍ित सिंह कहीं कहीं अनुभवी कलाकार स्वाति दुबे के समक्ष मंच पर संकोची प्रदर्श‍ित होते हैं। उन्हें मंच पर यह संकोच का भाव छोड़ना होगा। 

आशीष पाठक व स्वाति दुबे मण‍िपुरी पृष्ठभूमि में ‘भूमि’ को जिस सफलता से प्रस्तुत किया है, संभवत: ऐसा मण‍िपुर के रंग समूह नहीं कर सकेंगे। आशीष व स्वाति अगरबत्ती के धूसर से भूमि के व‍िभ‍िन्न रंगों में आए हैं। यह एक बदलाव है। ऐसी विविधता की ख्वाहिश लेखक व निर्देशक में होना अच्छी बात है। आशीष पाठक स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि जब वे मौलिक विषय पर नाटक लिखते हैं तो उनको स्वतंत्रता रहती है। यही स्वतंत्रता उनकी चिंगारी है। इस चिंगारी की कमी ‘भूमि’ में खलती तो ज़रूर है। बहरहाल आशीष व स्वाति की चम्बल से दूर पूर्वोत्तर की यह यात्रा लंबे समय तक देश के मंचों पर दिखती रहेगी और सराहना भी बटोरेगी।

बुधवार, 19 अक्तूबर 2022

जबलपुर में गांधी, नेहरू, सुभाष की जितनी नहीं उतनी मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैय्या की 9 मूर्तियां

  

 अद्भुत शहर है जबलपुर। इसकी कुछ खूबियों पर लोगों का ध्यान, नज़र, बतकही कम ही रही। एक खूबी है जिसे इंजीनियरिंग या अभ‍ियांत्र‍िकी कहा जाता है। संदर्भ सिर्फ इतना है कि 15 सितंबर को मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या का जन्मदिवस है। उनके जन्मदिवस को जबलपुर सहित पूरे देश में अभ‍ियंता दिवस या इंजीनियर डे के रूप में मनाया जाता है। विश्वेश्वरय्या व जबलपुर का आपसी संबंधी इसलिए महत्वपूर्ण है कि यहां गांधी, नेहरू, सुभाष की जितनी मूर्तियां नहीं है उतनी विश्वेश्वरय्या की मूर्तियां हैं। विश्वेश्वरय्या की जबलपुर में नौ (9) मूर्तियां व‍िभ‍िन्न स्थानों में स्थापित की गईं हैं। जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में विश्वेश्वरय्या की मूर्ति सबसे पहले स्थापित की गई। विश्वेश्वरय्या की अन्य मूर्तियां कला निकेतन पॉलीटेक्न‍िक कॉलेज, इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स, पीडब्ल्यूडी के चीफ इंजीनियर आफ‍िस, सिंचाई विभाग बरगी हिल्स, हितकारिणी इंजीनियरिंग कॉलेज, नर्मदा मंडल पचपेढ़ी व लोक स्वास्थ्य यांत्र‍िकी (पीएचई) आफ‍िस में स्थापित हैं। नौंवी मूर्ति का अनावरण 15 सितंबर 2022 को मध्यप्रदेश विद्युत अभ‍ियंता संघ के रामपुर कार्यालय में किया गया। संभवत: यह गिनीज बुक का रिकार्ड होगा कि किसी शहर में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की नौ (9) मूर्तियां हैं। वैसे मध्यप्रदेश देश का एकमात्र ऐसा प्रदेश है, जहां मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की सर्वाध‍िक मूर्तियां हैं।

    जबलपुर की नस-नस में कुछ अच्छी और कुछ खराब चीजों की तरह अभ‍ियांत्र‍िकी या इंजीनियरिंग के बीज पड़े हुए हैं। जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज को भारत का दूसरा इंजीनियरिंग कॉलेज होने का गौरव प्राप्त है। जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना देश स्वतंत्र होने के पूर्व 7 जुलाई 1947 को हो गई थी। जबलपुर इंजीनियरिंग के प्राचार्य डॉ. एस.पी. चक्रवर्ती  की दूरदृष्टि‍ थी कि उन्होंने राबर्टसन कॉलेज के छोटे कमरे से इसे वट वृक्ष में परिवर्तित करने में अहम् भूमिका निभाई।

    देश व प्रदेश का सबसे पुराना इंजीनियरिंग कॉलेज होने के कारण जबलपुर में इंजीनियरिंग और इससे सीधे रूप से संबद्ध श‍िक्षा, पेशा, नौकरी, रोजगार का खूब फले फूले। उसी समय यानी कि स्वतंत्रता के बाद लगभग 15 सालों के भीतर जबलपुर में शास्त्री ब्रिज, मेड‍िकल कॉलेज, जबलपुर विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, साइंस व महाकौशल कॉलेज‍ और टेलीकॉम ट्रेनिंग सेंटर (टीटीसी) के विशाल ढांचे व भवन बने। ये सब भवन निर्धारित समय अवध‍ि में गुणवत्ता के साथ किए गए। शास्त्री ब्रिज की अभ‍ियांत्रिकी ऐसी थी कि उसके ढांचे में कहीं भी लोहे का एक टुकड़ा नहीं लगा। महाकौशल व साइंस कॉलेज में आज भी भवन निर्माण के समय के सीमेंट पाइप लगे हुए हैं। ये सब काम स्थानीय स्तर पर सरकारी इंजीनियरों द्वारा उच्च स्तरीय ढंग से किया गया।

  
 
जबलपुर में बाद के वर्षों में इंजीनियरिंग व आर्कि‍टेक्चर के नायाब नमूने के तौर पर बिजली बोर्ड का मुख्यालय शक्त‍िभवन बना। शक्त‍िभवन की अभ‍ियांत्र‍िकी व आर्क‍िटेक्चर की सराहना देश व विदेश में हुई। जबलपुर में तिलवारा पुल पर बना हुआ नर्मदा एक्यूडक्ट एश‍िया ही नहीं पूरे विश्व में चर्चा का विषय रहा लेकिन हम लोगों ने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया।

    इंजीनियरिंग कालेज में बनी हाई वोल्टेज बिल्डिंग भी एक अद्भुत और इकलौती बिल्डिंग है। इसी तरह बरगी की दाहिनी नहर में स्लीमनाबाद टनल यद्यपि अभी (2022 में) निर्माणाधीन है पर 12 कि.मी. की यह  सुरंग संभवतः एकमात्र टनल होगी जिसमें दोनों सिरों से दो टी बी एम (टनल बोरिंग मशीन ) कार्यरत हैं।एक सिरे से हेरनकनेक्ट जर्मन मशीन और दूसरे सिरे से राबिन्सन अमेरिकन मशीन कार्यरत हैं।अभी लगभग 3.5 कि.मी.खुदाई बाकी है।

जबलपुर के एक बेनाम 'अन्ना का डोसा' कॉफी हाउस की नामी शोहरत

     अन्ना का डोसा कॉफी हाउस और यहां 57 वर्ष से काम कर रहे रैफल  जबलपुर में जिस समय वर्ष 1958 में इंडियन कॉफी वर्कर्स कोऑपरेटिव सोसायटी लिमि...