गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

जबलपुर में कैसे हुई दुर्गा पूजा और रामलीला की शुरुआत

देश में दुर्गा पूजन का सार्वजनिक रूप से आयोजन 11 सदी से प्रारंभ हुआ। इसका सर्वाध‍िक प्रचार प्रसार नागरिकों के मध्य बंगाल से हुआ और धीरे धीरे इसने व्यापक रूप ले लिया। जबलपुर में जब प्रवासी बंगला परिवारों का जबलपुर आगमन हुआ तो वे अपने साथ वहां की संस्कृति, परम्पराएं, लोकोत्तर-मान्यताएं और धार्मिक आस्थाएं भी साथ लेकर आए। उनके आगमन के साथ ही मां दुर्गा की नवरात्रि‍ में स्थापना और पूजा का क्रम प्रारंभ हुआ। 

दुर्गा की मिट्टी की मूर्ति बनाकर नवरात्रि‍ में उनकी पूजा सबसे पहले जबलपुर में सन् 1872 में बृजेश्वर दत्त के घर में प्रारंभ हुई। उनके घर में दुर्गा पूजा के अवसर पर जबलपुर नगर के सभी गणमान्य एकत्रि‍त होकर देवी पूजा करते थे। तीन वर्ष के अंतराल के बाद दुर्गा आराधना अंबिका चरण बैनर्जी के आवास में होने लगी। उसके बाद दुर्गा पूजा का उत्सव बंगाली क्लब बंगाली क्लब में बंगला समाज द्वारा मनाया जाने लगा। 

जबलपुर के मूल निवासी भी बंगला समाज के दुर्गोत्सव से प्रभावित हुए। जबलपुर के मूल वाश‍िन्दों ने दुर्गा प्रतिमा स्थापित कर नवरात्रि‍ में पूजन अर्चना प्रारंभ कर दी। कलमान सोनी ने 1878 में सुनरहाई में दुर्गा प्रतिमा की स्थापना की। सुनरहाई या सराफा जबलपुर नगर का सोना-चांदी के व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। यहां देवी प्रसाद चौधरी व उमराव प्रसाद ने सर्वांग आभूषण अलंकृत एक सुंदर दुर्गा प्रतिमा बनवाई। इसके मूर्तिकार मिन्नी प्रसाद प्रजापति थे। तब से उन्हीं का परिवार सुनरहाई की दुर्गा प्रतिमा का निर्माण करने लगा। इस परिवार की तीसरी पीढ़ी तक यह कार्य किया गया। दालचन्द जौहरी परिवार में देवी काली की चांदी की प्रतिमा जबलपुर में काफ़ी प्रसिद्ध हुई।  वर्तमान में जबलपुर नगर व उपनगरीय क्षेत्रों  में 500 दुर्गा प्रतिमाओं की स्थापना की जाती है। इनमें जबलपुर के व‍िभ‍िन्न बंगला क्लब व कालीबाड़ी का दुर्गा पूजन देखने दूसरे शहरों के लोग नवरात्रि‍ में जबलपुर आते हैं। 

रामलीला की शुरुआत 

भारत में रामलीला का प्रारंभ संभवत: संत तुलसीदास के समय रामनगर (वाराणसी) में हुआ। कालांतर में देश के अन्य शहर या नगर ने भी इसका अनुशरण किया। उसी समय अनेक घुमन्तू रामलीला मंडलियां अस्त‍ित्व में आईं जिन्होंने अनेक स्थानों में अभ‍िनय से राम के जीवन के प्रसंगों को प्रस्तुत किया। 

जबलपुर के मिलौनीगंज में डल्लन पंडित नाम के एक विप्र रहते थे। उन्होंने जबलपुर नगर में रामलीला प्रारंभ करने की दिशा में गंभीर प्रयास किया। इस क्षेत्र के संपन्न व्यापारियों से आर्थ‍िक सहायता लेकर रामलीला का श्रीगणेश किया गया। 

रेलमार्ग प्रारंभ होने के पूर्व जबलपुर का पूरा व्यापार मिर्जापुर से होता था। इन दोनों स्थानों को जोड़ने वाला प्रमुख मार्ग मिर्जापुर रोड कहलाता था। बैलगाड़‍ियों के काफिले माल भर कर इस मार्ग से जबलपुर आते और यहां पुन: माल लेकी मिर्जापुर लौटते। लल्लामान मोर मिर्जापुर के एक प्रतिष्ठ‍ित थोक व्यापारी थे। 

मिर्जापुर-जबलपुर मार्ग पर उनके सार्थवाह (व्यापारी) चलते थे जिनमें माल से भरी सैकड़ों गाड़‍ियां होती थीं। वे उदार और धार्मिक प्रवृत्त‍ि के व्यक्त‍ि थे। इस मार्ग पर उन्होंने सार्थवाहों, तीर्थ यात्रि‍यों व पथ‍िकों की सुविधा के लिए 108 बावलियां बनवाई थीं। 

एक समय लल्लामान मोर जब अपनी एक बावली का उद्यापन करवा रहे थे तभी उन्हें एक अंग्रेज सैनिक टुकड़ी मिली जो भोजन व पानी न मिल पाने के कारण बुरी दशा में थी। उन्होंने तीन दिनों तक उन सैनिकों का अत‍िथि‍ सत्कार किया। इसके बदले में अंग्रेज अध‍िकारी ने आश्वासन दिया कि जब कभी भी उन्हें सहायता की जरूरत हो तो वे उन्हें अवश्य याद करें। एक बार डल्लन पंडित जिन्होंने जबलपुर में रामलीला का शुभारंभ किया था अचानक एक मुकदमे में फंस गए। उन्होंने लल्लामन मोर से इस मामले में सहायता के लिए निवेदन किया। लल्लामन मोर ने तुंरत अंग्रेज अध‍िकारियों से मिलकर डल्लन पंडित को इस परेशानी से मुक्त‍ि दिलाई। 

वर्तमान रामलीला 1865 में प्रारंभ हुई, जिसके साथ रज्जू महाराज का नाम मुख्य रूप से जुड़ा है। इनके निधन के बाद नत्थू महाराज ने रामलीला की बागडोर सम्हाली। मिलौनीगंज के सभी व्यापारियों ने तन, मन, और धन से धार्मिक अनुष्ठान में अपना सहयोग दिया। इनमें मोथाजी मुनीम, साव गोपालदास, प्रभुलाल (पुत्ती) पहारिया, चुनकाई तिवारी, पंडित डमरूलाल पाठक और मठोलेलाल रिछारिया इसके प्रमुख सूत्रधार थे। बिजली आगमन के पूर्व यहां रामलीला मिट्टी के तेल के भपकों व पेट्रोमेक्स की रौशनी में होती थी। 1925 में जबलपुर में बिजली आ गई। अब रामलीला विद्युत प्रकाश में होने लगी जिससे उसका आकर्षण और बढ़ गया। 

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। इसके कारण 1942 तक रामलीला का मंचन स्थगित रहा। 1943 में इसके प्रदर्शन हेतु सरकारी आदेश मिल जाने पर रामलीला फिर से प्रारम्भ हो गई। इस बार छोटेलाल तिवारी, गोविन्ददास रावत और डॉ. नन्दकिशोर रिछारिया ने इसके संचालन में अथक सहयोग दिया। 1965 में इसके सौ वर्ष पूरे होने पर इसकी शताब्दी मनाई गई। 

जबलपुर के सदर क्षेत्र में फौजी छावनी थी। इसका प्रमुख मार्ग ईस्ट-स्ट्रीट कहलाता था। इस क्षेत्र में फौजी अधिकारी ही खरीद-फरोख्त करते दिखाई देते थे। इसमें छोटी-छोटी गलियाँ भी थीं जिनमें सैनिक संस्थानों के कर्मचारी रहते थे। उन्हीं दिनों शिवनारायण वाजपेयी नाम के एक उद्यमी सज्जन उत्तरप्रदेश से यहाँ आए और अपने भविष्य को सँवारने में लग गए। एक दूसरे सज्जन ईश्वरीप्रसाद तिवारी भी यहाँ आकर बस गए और ठेकेदारी का व्यवसाय शुरू किया। वे अपने साथ उत्तरप्रदेश से पासी जाति के लोगों को भी लाये थे जो उनके ठेकों में काम करते थे। तिवारी जी को 1881 में खन्दारी जलाशय निर्माण और बाद में हाईकोर्ट की भव्य इमारत बनाने का भी ठेका मिल गया। इन दोनों परिवारों में धार्मिक आयोजनों के प्रति बहुत रुचि थी। इन्हीं लोगों के प्रोत्साहन और सहयोग से सदर क्षेत्र में पहले-पहल रामलीला आरम्भ की गई। फौजी छावनी क्षेत्र में, जहाँ अंग्रेजों की सर्वोपरि सत्ता हो, ऐसे धार्मिक आयोजन करना बड़े साहस का काम था। जब असहयोग आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर था, तब इस क्षेत्र के प्रख्यात समाज-सेवी नरसिंहदास अग्रवाल व नन्दकिशोर मिश्र के सहयोग से रामलीला सफलता से आयोजित होती रही। 

जैसे-जैसे नगर की जनसंख्या में वृद्धि होती गई, वैसे-वैसे नई-नई आवासीय बस्तियाँ बनती गईं। ये बस्तियाँ सदर और मिलौनीगंज क्षेत्रों से काफी दूरी पर थीं। धर्मप्रिय जनता को रामलीला आयोजन स्थलों तक पहुँचने में जब बहुत असुविधा होने लगी तो यहाँ के निवासियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में लघु रूप से रामलीलायें आरम्भ कीं। इनमें घमापुर, गढ़ा-पुरवा और गनकैरिज फैक्टरी क्षेत्र प्रमुख हैं।🔹

शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

जबलपुर और टेलीग्राफ विभाग

टीटीसी जबलपुर 


    जबलपुर की टेलीग्राफ फेक्टरी पिछले कुछ दिनों से सुर्ख‍ियों में है। जबलपुर और टेलीग्राफ के संबंध में कुछ तथ्यों की जानकारी मिली है जो काफी रोचक और हमें उस इतिहास की ओर ले जाती है जिससे हम अनजान हैं। प्रत्येक जिले में पोस्ट ऑफ‍िस पुलिस थाने में रहते थे। पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखने वाला मुंशी ही पोस्ट ऑफ‍िस का भी काम देखता था। उसके पास एक पोस्टल भृत्य रहता था तो च‍िठ्ठ‍ियों को गंतव्य स्थान तक पहुंचा देता था। उस समय जबलपुर, सागर और नर्मदा टेरीटरी के अंतर्गत आता था जिसे नार्थ वेस्ट प्रॉव‍िन्स कहते थे। उस समय डाक की व्यवस्था बड़ी असंतोषजनक थी। 1867 में पूरा वि‍भाग चीफ इंस्पेक्टर के अध‍िकार क्षेत्र में आ गया जो इम्पीरियल पोस्टल डिपार्टमेंट को संभालता था। 

    टेलीग्राफ सेवा जबलपुर में 1855 में हुई थी उपलब्ध-टेलीग्राफ सेवा 1857 की क्रांति के समय इस विभाग ने बड़ी सेवा की और टेलीग्राफ और तार का काम भी अपने जिम्मे ले लिया। कलकत्ते से बंबई तक तार का संबंध जोड़ने के लिए इस विभाग ने टेलीग्राफ की एक विशेष लाइन मिर्जापुर से सिवनी तक डाली जो जबलपुर हो कर जाती थी। इससे सिद्ध होता है कि टेलीग्राफ विभाग 1858 में स्थापित हो गया था। जबलपुर का टेलीग्राफ ऑफ‍िस देश की नव स्थापित व्यवस्था का विशेष भाग था। टेलीग्राफ सेवा जबलपुर के लोगों को 1855 से ही उपलब्ध थी। जबलपुर का टेलीग्राफ दफ्तर उस समय ठगी जेल था और यहां कर्नल डब्ल्यूएच स्लीमन अपना दफ्तर लगाते थे। स्लीमन ने ही ठगों को देश से निर्मूल किया। 

टेलीग्राफ फेक्टरी जबलपुर का गेट नंबर 2 

    169 वर्ष पुरानी इमारत-टेलीग्राफ विभाग की यह इमारत 169 वर्ष पुरानी है। टेलीग्राफ सेवा का विस्तार होने से उसमें टेलीग्राफ की नवीन सामग्री एवं उपकरण रखने के लिए स्थान की कमी पड़ने लगी थी। इसलिए सीटीओ का नया भवन बनाया गया ताकि इसका संचालन व्यवस्थ‍ित रूप से हो सके और जनता को अध‍िक सुवि‍धाएं मिल पाए। 

    द्वितीय विश्व युद्ध में कलकत्ता से जबलपुर स्थानांतरित हुआ टेलीकम्युनिकेश सेंटर-देश में प्रथम टेलीकम्युनिकेशन सेंटर की स्थापना सन् 1929 में कलकत्ता में हुई। 22 अप्रैल 1942 को इसे कलकत्ता से जबलपुर स्थानांतरित कर दिया गया। तब से यह केन्द्र यहीं काम कर रहा है। दूरसंचार से संबंध‍ित समस्त जानकारी और प्रश‍िक्षण देने के लिए पहले मॉडल हाई स्कूल में इसकी कक्षाएं लगती थीं जो बाद में पुराने एल्ग‍िन अस्पताल मिलौनीगंज में लगने लगीं। कुछ समय बाद इसके श‍िक्षण व प्रश‍िक्षण का कार्य टेलीग्राफ वर्कशॉप में होने लगा। एल्ग‍िन अस्पताल से इसकी कार्य प्रणाली का ज्ञान प्राप्त करने वाले प्रश‍िक्षणार्थी अध‍िकारियों के निवास सुविधा के लिए सुरक्ष‍ित कर दिया गया। प्रथम वर्ष में इसके प्रश‍िक्षणार्थ‍ियों की संख्या केवल 70 थी जो कुछ वर्षों में बढ़ कर 800 तक पहुंच गई। 

    टीटीसी स्थापित हुआ था 1952 में-विकास के साथ दूरसंचार की उपयोगिता भी बढ़ी इसलिए विस्तार भी जरूरी हो गया। टेलीफोन विभाग को एक विशाल, सर्व सुविधा संपन्न, उपकरण सज्ज‍ित बहुउद्देश्यीय केन्द्र की जरूरत महसूस हुई जिसमें इस क्षेत्र में हुए क्रमिक विकास और तकनीक की नवीनतम वैज्ञानिक जानकारी दी जा सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकार ने रिज रोड पर 35 एकड़ भूमि प्रदान की जिस पर 21 मार्च 1952 को राजकुमार अमृत कौर ने दूरसंचार के नए भवन का श‍िलान्यास किया। यह टीटीसी कहलाया। अब यह BHARAT RATNA BHIM RAO AMBEDKAR INSTITUTE OF TELECOM TRAINING कहलाता है। 

   जबलपुर का पहला टेलीफोन एक्सचेंज 1911 में बना-जबलपुर का पहला टेलीफोन एक्सचेंज 1911 में प्रारंभ हुआ। उस समय चुम्बकीय प्रयोगशाला ही थी जिसमें 20 लाइनें चला करती थीं। 1934 में 100 लाइनों का सीबी बोर्ड प्रारंभ हुआ। स्वतंत्रता के पश्चात् 1950 में 300 लाइनों का बहुउद्देश्यीय शुरु हुआ। 600 लाइनों का दूसरा एक्सचेंज 1965 में राइट टाउन में और तीसरा 1969 में मिलौनीगंज में प्रारंभ हुआ।      

    द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जबलपुर में एक और टेलीग्राफ स्टोर्स और वर्कशॉप खोला गया-दूरसंचार भंडार संगठन दूरसंचार बिरादरी के सबसे पुराने सदस्यों में से एक है। अलीपुर, कलकत्ता में टेलीग्राफ वर्कशॉप ने 1885 की शुरुआत में अपना उत्पादन शुरू किया और इस तरह से टेलीग्राफ स्टोर्स के रूप में एक सहयोगी विंग को जन्म दिया, जो इसके गोदाम कीपर के रूप में कार्य करता था। ये दोनों संगठन अलीपुर, कलकत्ता में निदेशक, कार्यशाला और भंडार के रूप में जाने जाने वाले एक अधिकारी के नियंत्रण में एक साथ विकसित हुए और एक दूसरे के पूरक के रूप में कार्य कर रहे थे। यह व्यवस्था लगभग अगले 100 वर्षों तक जारी रही। इसके बाद टेलीग्राफ वर्कशॉप और स्टोर्स के अधिकार क्षेत्र को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया और भारतीय P&T विभाग के दो अलग-अलग विंग बनाए गए, जिनका नाम था दूरसंचार कारखाना और दूरसंचार भंडार, जो विशुद्ध रूप से प्रशासनिक कारणों से था। ऐतिहासिक रिकॉर्ड में, इस प्रतिष्ठान को 1937 से पहले बर्मा के क्षेत्र सहित पूरे देश में सभी प्रकार की टेलीग्राफ/दूरसंचार सामग्री की आपूर्ति के लिए सराहा गया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रणनीतिक कारणों से जबलपुर में एक और टेलीग्राफ स्टोर्स और वर्कशॉप खोला गया था।

    टेलीग्राफ फेक्टरी कहलाती थी पुतलीघर-वर्तमान टेलीग्राफ फेक्टरी जहां मौजूद है वह स्थान पुतलीघर कहलता था। पहले यहां गोकुलदास कॉटन मिल थी। टेलीग्राफ फेक्टरी में अभी भी सेठ गोकुलदास द्वारा बनाया गया ऑडीटोरियम मौजूद है। इस पुतलीघर के मैनेजर आर्थर राइट थे। इन्हीं आर्थर राइट के नाम से फेक्टरी के आसपास के इलाके को राइट टाउन नाम दिया गया। जानकारी मिली है कि जिस कक्ष में आर्थर राइट टेबल कुर्सी पर बैठ कर काम किया करते थे वह कक्ष अब भी मौजूद है। 

    जबलपुर और टेलीग्राफ के बारे इतना बखानने की जरूरत इसलिए है कि जबलपुर के इतिहास में टेलीग्राफ रग रग में मौजूद है। हम लोग अहसान फ़रामोश न बनें।

गुरुवार, 2 मई 2024

जबलपुर से गूंजा था पूरे देश में यह नारा- बोल रहा है शहर श‍िकागो पूंजीवाद पर गोली दागो


मजदूर दिवस: क्या कहता है जबलपुर में ट्रेड यूनियन का इतिहास

1 मई पूरी दुनिया में 'Mayday' यानि 'मजदूर दिवस ' के नाम से जाना जाता है। किसी भी समाज के विकास में मजदूर वर्ग ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 


'जबलपुर सफ़रनामा' के इस एपीसोड में कवि व विचारक तरुण गुहानियोगी बात कर रहे हैं जबलपुर के ट्रेड यूनियन के स्वर्ण‍िम इतिहास की और अब क्या हालात हैं।

https://youtu.be/qQa_idO2Dxs?si=v5O-kSzKP-KICtQQ

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

🔴इतिहास के कुहासे की परतों में ओझल होता ब्लेगडान

6 फरवरी 2024 को सुबह कोहरे की मोटी परत के बीच अचानक रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के सामने दायीं ओर निगाह गई तो देखा कि शहर के एक नामचीन बिल्डर का चमचमाता बोर्ड गड़ा हुआ दिखा। बोर्ड को देखते हुए तुरंत आभास हो गया कि यह ऐतिहासिक ज़मीन और उसमें बना हुआ विशाल बंगला भी बिक गया। डुमना एअरपोर्ट मार्ग पर हजारों लोग यहां से गुजरते हैं। जिनमें से अध‍िकांश विकास के लिए भैराए हुए जबलपुर के लोग हैं। इसमें सभी पीढ़ी के लोग हैं। नई पीढ़ी के लोग तो कुछ भी नहीं जानते और पुरानी पीढ़ी के लोग इस पुराने बंगले का नाम ब्लेगडानभूल चुके हैं। इतिहास के कुहासे की परतों में ओझल हो गया ब्लेगडान। जबलपुर के इतिहास से ब्लेगडानबंगला का गहरा संबंध है। ब्लेगडान की कुछ विशेषताएं इसे खास बनाती थी। ब्लेगडान जबलपुर की प्रथम सेंट्रली एअरकूल्ड इमारत थी। ब्लेगडान का अर्थ होता है-From the dark valley   

ब्लेगडान का धुंधला इतिहास-कुछ साल पहले तक ब्लेगडानकी चारदीवारी के मुख्य द्वार के बाएं ओर सीमेंट के खंबे में ब्लेगडानदर्ज था लेकिन समय के साथ वह ध्वस्त हो गया। तत्कालीन मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल (एमपीईबी) और ब्लेगडान इतिहास एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। तत्कालीन मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल का मुख्यालय बोर्ड रूम रामपुर स्थि‍त पुराने शेड (वर्तमान में आफ‍िसर्स मेस) हुआ करता था। तब मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल का कोई अध‍िकारिक रेस्ट हाउस नहीं था। 1968 में विद्युत मण्डल के चेयरमेन पीडी ने चटर्जी जबलपुर विश्वविद्यालय के सामने के बंगले को विद्युत मण्डल के रेस्ट हाउस के रूप में चुना। तहकीकात करने में तो भी कच्ची पक्की जानकारी मिली उसके अनुसार यह बंगला इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक बड़े वकील की संपत्त‍ि थी। विद्युत मण्डल के कुछ पुराने इंजीनियर व कर्मचारी कहते हैं कि वह वकील नहीं बल्क‍ि इलाहाबाद हाईकोर्ट के किसी जस्ट‍िस की मिल्कियत थी। विद्युत मण्डल ब्लेगडान को रेस्ट हाउस के रूप में वर्ष 1993 तक उपयोग में लाता रहा। मालूम हो 1989 में विद्युत मण्डल ने 1989 में अपने मुख्यालय के तौर पर शक्त‍िभवन का निर्माण कर लिया और बोर्ड रूम को आफ‍िसर्स मेस के रूप में परिवर्तित कर लिया गया। एक जानकारी के अनुसार यह बंगला जेसू (जबलपुर इलेक्ट्रि‍क सप्लाई अंडरेटेकिंग) के रेजीडेंट इंजीनियर का अध‍िकारिक निवास था। मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल ने जब जेसू का अध‍िग्रहण किया तो इस बंगले का अध‍िपत्य विद्युत मण्डल को मिल गया। 

अर्जुन सिंह रूम नंबर 2 में रूकना पसंद करते थे-एमपीईबी के कुछ सिविल इंजीनियरों ने जानकारी दी कि एक समय जबलपुर आने वाले अति व‍िश‍िष्ट व व‍िश‍िष्ट अत‍िथ‍ियों को रूकवाने की व्यवस्था सर्क‍िट हाउस के स्थान पर ब्लेगडान में की जाती थी। खान अब्दुल गफ्फार खां (सीमांत गांधी) व हॉकी के जादूगर ध्यानचंद जबलपुर प्रवास के दौरान ब्लेगडान में ही रूके थे। इनके साथ ही उस समय जबलपुर आने वाली राजनैतिक हस्त‍ियां ब्लेगडान में रूकना पसंद करती थीं। ब्लेगडान का रूम नंबर 2 मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को प्रिय था। वे यहां रूकना हर समय पसंद करते थे। प्रो. यशपाल को ब्लेगडान में विकसित किए गए पेड़-पौधों से लगाव था। मोतीलाल वोरा को ब्लेगडान की लोकेशन भाती थी।  

जबलपुर के इतिहास का प्रथम मोज़ाइक फर्श-ब्लेगडान लगभग साढ़े तीन एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ था। मुख्य द्वारा से भीतर तक क्ले ब्रिक्स की सड़क थी। जबलपुर के इतिहास में सबसे पहले ब्लेगडान में मोज़ाइक फर्श बनाया गया। इसकी फ्लोरिंग इतनी वैज्ञानिक थी कि पानी गिरने पर भी एक स्थान पर एकत्रि‍त नहीं होता था बल्क‍ि बाहर निकल जाता था। ब्लेगडान जबलपुर की प्रथम सेंट्रली एअरकूल्ड इमारत थी। पूरे बंगले को एअरकूल्ड करने के लिए धरातल या बेसमेंट में एक बड़ा कूलर स्थापित किया गया था। वहां से पूरे बंगले में डक या नालियां निकाली गई थी। कूलर से निकलने वाला ठंडी हवा से बंगला एअरकूल्ड रहता था। बंगले में की दीवारों के बीच में केविटी का प्रावधान था। यानी कि प्रत्येक कक्ष की में दो दीवारें रखी गई थीं और उनके बीच में अंतर रखा गया। इससे कमरों को ठंडा या गर्म रखने में मदद मि‍लती थी। ब्लेगडान के प्रत्येक कक्ष के बाथरूम में मोज़ाइक के बॉथटब थे। ब्लेगडान में बिजली के जितने भी स्व‍िच थे वे पीतल के थे। एमपीईबी के एक रिटायर्ड सिविल इंजीनियर सुनील पशीने जानकारी दी कि पीतल के इन स्व‍िचों को बदलने की जरूरत नहीं पड़ी और न ही वे कभी खराब हुए। ब्लेगडान में एक ड्राइंग रूम, एक डायनिंग रूम, तीन सुईट, एक पेंट्री व एक किचन था। पूरे रेस्ट हाउस में सागौन का फर्नीचर था। ब्लेगडान के ऊपरी हिस्से में विशाल गीज़र लगा हुआ था जिससे 24 घंटे गर्म पानी की सप्लाई होती रहती थी। हॉल में एक विशाल फायर प्लेस था, जो ठंड में यहां रूकने वालों के शरीर में ऊर्जा भर देता था।

विदेशी पेड़-पौधे करते थे आकर्ष‍ित-ब्लेगडान के बाहरी परिसर में अध‍िकांश विदेशी प्रजाति के पेड़-पौधे लगाए गए थे। उस समय ऐसे पेड़-पौधे बहुत कम देखने को मिलते थे। बताया जाता है कि पूरे परिसर में बागवानी का उच्च स्तर था। कई बार लोग उत्सुकतावश इन पेड़-पौधे और उनमें खि‍लने वाले फूलों को देखने आते थे।    

विद्यार्थ‍ियों का उपद्रव भी झेला ब्लेगडान ने-जबलपुर विश्वविद्यालय के ठीक सामने ब्लेगडान की मौजूदगी कालांतर में परेशानी का सबब बनी। सातवें-आठवें दशक में जबलपुर विश्वविद्यालय के छात्र उग्र हुआ करते थे। छात्रों द्वारा ब्लेगडान के फोन का उपयोग करने से जो शुरुआत हुई वह बाद में यहां जबर्दस्ती खाने-पीने, कमरों में कब्जा जमाने और कई बाद यहां की क्राकरी को ले जाने तक बात पहुंच गई। वीके ब्राम्हणकर के मेम्बर सिविल इंजीनियरिंग के दौरान नीतिगत फैसला ले कर एमपीईबी ने इस रेस्ट हाउस का अध्याय बंद कर दिया।

ब्लेगडान का बंगला जबलपुर के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय रहा। कुछ दिन बाद यहां मल्टी काम्पलेक्स व अपार्टमेंट बनेगा। भविष्य में रहने वालों को इस बात का आभास भी नहीं होगा कि जिस स्थान पर वे रह रहे हैं उसकी नींव के नीचे कितने और इतिहास दर्ज हैं।🟦         

सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

🔴 लेखक के जाने के बाद सहानुभूति में पुरस्कार देना उचित नहीं': ज्ञानरंजन

'लेखकों को पुरस्कार तब दिए जाते हैं, जब उसकी लोकस्वीकृति हो जाती है। कई बार ऐसे लोगों को पुरस्कार नहीं मिल पाता, जिन्हें मिलना चाहिए। अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि लेखक के दिवंगत होने के बाद सहानुभूति में उसे पुरस्कार दिया गया। ऐसा नहीं होना चाहिए।' यह बात पहल के संपादक व विख्यात कथाकार ज्ञानरंजन ने 3 फरवरी को बाँदा में पत्रकारों से बातचीत में व्यक्त की। ज्ञानरंजन को 4 फरवरी को बाँदा में प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान से सम्मानित किया गया। 

बांदा का सफर करते हुए मन में कौन सी छवियां कौंधी ? ज्ञानरंजन ने कहा- बनारस, कोलकाता की तरह बाँदा मुझे पहले से आकर्षित करता रहा है। यहां कवि केदारनाथ अग्रवाल और बहुत से रचनाकारों से मुलाकात होती रही है। ज्ञानरंजन ने कहा कि वे बाँदा को जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं। पहले और आज की चुनौतियों में कितना अंतर देखते हैं ? 

ज्ञानरंजन ने कहा- जब हमने कलम उठाई थी, तब अनगिनत लिखने वाले थे। मैंने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि मैं तारामंडल के नीचे एक आवारागर्द था। तब चुनौतियां बहुत थीं, जिनसे सीखने को मिला। नई तकनीक से लेखन की दुनिया में नई चुनौतियां सामने आई हैं, लेकिन तकनीक मनुष्यता के विरुद्ध नहीं है। मेरा लेखन जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लाया गया तो उसमें भी स्वागत हुआ।

नए लेखक क्या व्यक्ति और समाज के हितों में समवेत चिंतन कर रहे हैं? ज्ञानरंजन का जवाब था-कोरस में भी एक आवाज अलग होती है। वही सच्ची आवाज होती है। केदारनाथ अग्रवाल की धरती पर उगी नई फसलों से कितना मुतमइन हैं? उन्होंने कहा मैं इलाहाबाद में पढ़ता था। वहां से बाँदा से दूरी बहुत कम है। अक्सर केदार जी से मिलने यहां आता था। उनके बाद से नए लेखकों की परंपरा चल रही है। सुंदर आयोजन होते हैं। यह अन्वेषण का विषय है कि इस छोटे से कस्बे में इतने साहित्यकार कैसे हुए।

'पहल' की यात्रा को अब आप कैसे देखते हैं? ज्ञानरंजन ने कहा-आपातकाल के कुछ महीनों पहले ही पहल की शुरुआत की थी। उसका प्रकाशन बंद कराने को अनेक आक्रमण हुए, लेकिन पाठकों, लेखकों के सहयोग से पहल जारी रही। कोई अंक रोका नहीं। पहल में हर भारतीय भाषा का साहित्य छपता था। नए लेखकों को कोई संदेश ? ज्ञानरंजन ने कहा-हिन्दी में नए लेखकों का बड़ा कुनबा प्रवेश कर रहा है। अच्छे की पहचान कठिन हो गई है। पिछले दिनों अनिल यादव का यात्रा विवरण 'कीड़ाजड़ी' और चंदन पांडेय का उपान्यास 'कीर्तिगान'' प्रकाशित हुआ। यह रचनाएं शीर्ष पर हैं। यह सूची और भी आगे जा सकती है।🔷



🔴समय की कोख से ही हमारी रचनाएं जन्म लेतीं: ज्ञानरंजन

बाँदा के बुद्धिजीवियों व कलाप्रेमियों द्वारा 2007 से प्रतिवर्ष प्रेमचंद स्मृति कथा  सम्मान हिंदी कथा में योगदान के लिए दिया जाता है। इस वर्ष का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान पहल के संपादक व विख्यात कथाकार ज्ञानरंजन को उनके आजीवन कथा  व सम्पादकीय योगदान के लिए 4 फरवरी को बाँदा में प्रतीक फाउंडेशन के तत्वावधान में एक कार्यक्रम में प्रदान किया गया।

ज्ञानरंजन ने सम्मानित होने के बाद वक्तव्य दिया। जो इस प्रकार है-

प्रेमचंद स्मृति सम्मान के सदस्यों, मंच पर आसीन मित्रों और साथियों :

प्रेमचंद के बारे में कुछ तितरी बितरी, तिनका तिनका बातें शुरूआत में रखूँगा, इसलिए भी कि मेरे सम्मान के साथ इस महान कथाकार का नाम जुड़ा है।

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सबसे पहले आपका ध्यान आकर्षित करूँगा कि मुंशी जी 1936 में दिवंगत हुए और संयोग से 1936 मेरा जन्म हुआ। हमारे पूर्वज बनारस के थे और मेरे स्व. पिता श्री रामनाथ सुमन की जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद से निकटता थी। मेरे पिता ने प्रेमचंद पर यत्र तत्र लिखा है, अपने संस्मरण में। जब मैं किशोर हुआ तो पिता की लाइब्रेरी में भटकते हुए मुझे उसमें प्रेमचंद का उपन्यास रंगभूमि मिला, जिसके भीतरी पृष्ठ पर लाल सियाही से प्रेमचंद का हस्ताक्षर था। बाद में शिवरानी देवी की किताब पढ़ने को मिली।

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अभी लगभग तीन चार वर्ष पूर्व जापान से मेरे सहपाठी और अभिन्न मित्र का फ़ोन आया और उन्होंने अपने पास कवि रत्न मीर की (मेरे पिता द्वारा लिखी) एक अंतिम दुर्लभ प्रति होने की सूचना दी, जो मेरे पास नहीं थी और जिसे उन्होंने मुझे डाक से भेज दी। यह पुस्तक, पुस्तक-भण्डार लहेरिया सराय, बिहार से प्रकाशित थी, जो काफ़ी दिनों पहले बंद हो चुका है। दुर्भाग्य से हमारे इस संवाद के बाद लक्ष्मीधर का जापान में निधन हुआ। इस सजिल्द पुस्तक की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी है और लगभग 75 वर्ष बाद कवि रत्न मीर का नया संस्करण ज्ञानपीठ ने छापा।

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सोवियत लैण्ड पुरस्कार से जुड़ी सोवियत रूस की यात्रा में मुझसे कई बार यह सवाल पूछा गया कि आप की कहानियाँ किस तरह प्रेमचंद की परम्परा से जु़ड़ी हैं। मैंने इसका विस्तार से जवाब दिया है।

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प्रेमचंद हमारे जीवन में कितने भीतर तक प्रवेश कर चुके हैं इसका एक रोचक किस्सा सुनिये। मेरी दादी सुखदेवी ने प्रेमचंद को समग्र कई कई बार पढ़ा था। उन्होंने किसी स्कूल या विद्यापीठ में पढ़ाई नहीं की थी पर प्रेमचंद की रचनाओं से वे दिलचस्प उद्धरण देती थीं। वे मेरी प्रिय थीं और हमारा परस्पर विनोदपूर्ण रिश्ता था। मैं उन्हें बूढ़ी काकी कहता था। वे भूख लगने पर तड़प उठती थीं, अपनी बहू यानी मेरी माँ पर शब्दबाण फेंकने लगती थीं। मेरे बाबा भोजपुरी बोलते थे और फारसी गणित के ज्ञाता थे। वे घर के बाहरी हिस्से में रहते थे और केवल भोजन के लिए आते थे। उनका जीवन ‘पूस की रात’ के हल्कू जैसा था। एक दिन वे ठिठुर ठिठुर के जाड़ों की रात में जलते हुए दिवंगत हो गये। वे सूखे पत्तों को इकट्ठा करके तापते थे।

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प्रेमचंद प्रसंग अभी समाप्त नहीं है। कई दिलचस्प संयोग हैं। इसलिए भी कि हम सभी प्रेमचंद की रचनाकार संतानें हैं। प्रेमचंद ने कहानियाँ लिखीं; हमने भी उनकी परम्परा में कुछ कहानियों को जोड़ा। प्रेमचंद ने प्रगतिशील संगठन की मशाल जलाई, हमने कई दशक तक प्रलेसं के पदाधिकारी के रूप में संगठन को मजबूत बनाने का काम किया। प्रेमचंद ने सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘हंस’ का अविस्मरणीय संपादन किया; हमने भी ‘पहल’ को चालीस वर्ष सम्पादित किया। जब ज्ञानपीठ ने मुझे हरिशंकर परसाई की रचनाओं का संकलन संपादन करने का दायित्व सौंपा तो मैंने उसका शीर्षक ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ दिया। उसके अनेक संस्करण हुए हैं।

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साथियों, उपरोक्त उदाहरण इसलिए ध्यान आकर्षित करने के योग्य हैं कि मैं एक लुम्पेन किशोर था। अपनी नौजवानी तक। और मैंने ‘तारामण्डल के नीचे एक आवारागर्द’ संस्मरण में इस बात को लिखा भी है। पर विचारधारा ने मुझे एक छोटे मोटे पर विश्वसनीय लेखक के रूप में स्वीकृति दी। पुरस्कार, सम्मान के मौक़े हमें यदा कदा छोटे मोटे जश्न करने की अनुमति देते हैं। मैं बांदा में अपने साथियों के इस जश्न में शामिल होकर ख़ुश हूँ। पश्चिमी भाषाओं की तरह हिन्दी में अपने लेखकों को सेलिब्रेट करने की प्रथा कुछ कम है। केवल पुरस्कारों से नहीं, हम दूसरे बहुत अन्य शानदार तरीक़ों से यह आयोजन अपने दूसरे अप्रतिम युवा लेखकों के लिए कर सकते हैं। यह मेरा सुझाव है।

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मेरी यह समझ है कि लेखक या किसी भी अन्य व्यक्ति के लिए उसका पिछला समय, उसका वर्तमान समय और उसका भावी समय बहुत अहमियत रखता है। इसमें हमारा परिवार, फिर शहर, फिर देश, फिर विश्व का समय शामिल है। समय की कोख से ही हमारी रचनाएँ जन्म लेती हैं। समय ही हमारी रचनात्मक बेचैनियों का सबब है। वह कभी हमें प्रफुल्ल करता है, कभी अधमरा। कभी वह हमारी ख़रीद फ़रोख़्त भी करता है। आज हमारा समय ख़रीद फ़रोख़्त से भरा है। इसी को हम बाज़ार भी कहते हैं। दुर्योग से मेरा प्रसव काल ख़त्म हो गया है, पर मैं समय का पीछा तो कर ही रहा हूँ। सरसरी तौर पर इसकी चर्चा करता हूँ। यह निरक्षरता का समय है। अगर रोग मानें तो इसे डिमेन्शिया और अलज़ाइमर का विस्फोटक समय भी कह सकते हैं।

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मोटी मोटी बातें देखिये। देखिये कि रोज़ जो लिखा जा रहा है, बोला जा रहा है, उसमें झूठ का प्रतिशत कितना है। असंख्य झूठ आपके देखते-देखते सच्चाइयों में तब्दील हो रहे हैं, या हो चुके हैं। सबसे ख़तरनाक दो शब्द लगते हैं - नया और विकास। ये शब्द धूर्तता से भरे हैं। निरंतर धूल झोंकी जा रही है। नया शब्दकोश, नये संग्रहालय, नया पाठ्यक्रम, नई शिक्षा, नई सड़कें, नये शहर, नया यातायात। यह सूची अनंत है। पहले ज़मीनों पर कब्ज़ा होता था अब धर्म पर कब्ज़ा है। अतीतवादी लोग ही अतीत पर प्रहार कर रहे हैं। आलोचना देशद्रोह है। कड़वी चीज़ें बर्दाश्त नहीं। लड्डू और दीये हमारे सबसे बड़े चित्र हैं। कथा कहानी के घीसू माधव विकराल रूप में पुनर्जीवित हो गये हैं। जनता सियारों के झुण्ड में बदल चुकी है। कुछ अलग आवाज़ें अगर हैं तो यू ट्यूब में घुसड़ गई हैं या फ़ेस बुक में। फिराक़ साहब का मशहूर शेर जीवित हो गया है – ‘हमीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात’। मज़ा ये है कि हम इसमें ख़ुश हैं, सफ़ल हैं। मध्यवर्ग ने वास्तविक जनता को अदृश्य बना दिया है। जबकि मोटा मोटी यह समय की एक आउटर लाइन मात्र है। उसका कैरीकेचर। यह बालकृष्ण मुख का ब्रह्माण्ड नहीं है। मित्रों, इसीलिए मैं आग्रह करता हूँ आप सबसे, जो लिखते हैं, या पढ़ते हैं, या कुछ भी नहीं करते; उन्हें अपने समय के उजले-अंधेरे झरोखों में झाँकना चाहिए। इससे परिवर्तन हो या न हो तसल्ली मिलती है और आत्मरक्षा होती है। अगर हमारा समय हमें होशियार, चौकन्ना, बनावटी और काइयाँ बना रहा है तो हमें सावधान हो जाना चाहिए।

देवीप्रसाद मिश्र की एक ताज़ा कविता का नया जुमला है :  कि दो गुजराती देश को बेच रहे हैं और दो गुजराती देश को ख़रीद रहे हैं। दोस्तों यह केवल दो चार व्यक्तियों का प्रसंग नहीं है, इसके निहितार्थ गहरे और भयानक हैं। इसे व्यंग्य भी न समझें।

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दोस्तों, मैं बार-बार ‘समय’ शब्द को रिपीट कर रहा हूँ। इसलिए कि समय विशाल, विकराल और जटिल है। मैं उसे एक दो उदाहरणों से कैसै परिभाषित करूँ...? पर, मुझे समय की शिला को चूर चूर करना है। जो भी चाहे शिला-लेख बना लेता है और उसे बदल देता है। इसलिए पहले मैं उसके टुकड़े करूँगा और फिर आगे बढ़ूँगा। एक टुकड़ा उदाहरण है हमारे समय का, जिसे राष्ट्रीयकरण बनाम निजीकरण कहते हैं। यह मामूली जुमला नहीं है। इसी में सारी दुनिया उलट-पलट हो रही है। यह संगीन यात्रा समय है। आप से आग्रह है मेरी यात्रा कहानी पढ़ें। आज का दृश्य देखें - गेट मीटिंग हो रही है... काली पट्टी पहनी जा रही है... पुराने नारों को शोर है…, क्रमशः ये शस्त्र बेकार हो चुके हैं। ये पाषाण-कालीन लगते हैं। पर मूर्ख राजनीति  इसकी व्यर्थता को बता नहीं पा रही है। यही समय है; दुभाग्यपूर्ण समय; सुनहरा समय नहीं। हरिशंकर परसाई की शैली में अगर मैं कहानी बनाऊँ वे वह ऐसी होगी :

आप कहते हैं कि हमारा यह सामान, हमारी यह सम्पत्ति ले लेंगे। वो कहते हैं कि नहीं लेंगे। ख़रीदने की उनकी शर्तें हैं। उनका कहना है कि पहले ढाँचे को उन्नत करो, या पुराना ढाँचा गिराओ और नया बनाओ। नई मशीनें लगाओ, बाहर से बुलाओ। श्रमिकों की छटनी करो; इनकी जनसंख्या ज़रूरत से अधिक है। ज़मीनें अधिग्रहीत करो। प्लेटफॉर्म बढ़ाओ, पटरियाँ बिछाओ, रेलगाड़ी के डब्बों को सुखद और शानदार करो, हर ओर वंदे वंदे चलाओ, ड्रेस कोड सुन्दर करो, प्लेटफॉर्म पर लिफ्ट और एक्सलेरेटर लगाओ, उसे मॉल की तरह सजाओ, जहाँ यात्री आराम से परफ्यूम, पेस्ट्री, फ़ोटोफ्रेम और मदिरा ख़रीद सकें। सामान के बोझ के लिए ट्रालियाँ लगाओ, कुलियों को हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे सभ्यता पर बदनुमा दाग़ हैं। उसके बाद हमारे संतुष्ट होने पर हस्तांतरण होगा।

एक भव्य समारोह में, एक देश प्रमुख और तमाम सी.ई.ओ. की हाज़िरी में  सजे हुए मंच पर आपके घर की एक विशाल काल्पनिक चाभी उन्हें सौंपी जायेगी और आपको घर के बाहर कर दिया जायेगा। आपका काम है ताली बजाना और ठुमरी गाना। यही है साथियों, राष्ट्रीयकरण और निजीकरण का समय।

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बहुत सारे विविध उदाहरण दिये जा सकते हैं, मेरे साथियों; पर ऐसा करते जाने से समय असमय हो जायेगा।

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हमारे समय की सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि हमने अस्वीकार करना बंद कर दिया है। हमारी गोद स्वीकृतियों, उपहारों, फूल-फलों से भरी है। अभी मैं आपको कुछ उदाहरण दूँगा, लेखकों का, जिन्होंने अस्वीकृतियों के प्रतिमान बनाए।

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अमेरिका के बारे में लोर्का कहते हैं  कि यह डरावना और शैतान है। यहाँ खो जाना लाज़िम है। यह देश संसार का सबसे बड़ा झूठ है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने लिखा है - साहित्यिक न्यूयार्क टेपवर्म से भरी बोतल है  जिसमें वे एक-दूसरे को खाते रहते हैं। मार्क ट्वेन लिखते हैं कि बोस्टन में पूछा जाता है - आप कितने ज्ञानवान हैं? न्यूयार्क में पूछा जाता है कि - आपकी कूबत, क़ीमत क्या है?

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एक अमरीकी लेखक लिखता है कि 6 करोड़ लोगों का यह शहर न्यूयार्क कौतूहल और संदिग्धता से भरा हुआ; यहाँ कोई लैण्डस्केप नहीं; सभी लैण्डमार्क हैं। इस शहर में कोई बूढ़ा नहीं होता। बूढ़े भी जवान हैं। यहाँ विपन्न को अतीत के डस्टबिन में डाल दिया जाता है।

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एनरैण्ड के फाउंटेन हेड में मैंने जो पढ़ा था, आपको यथावत् कोट कर रहा हूँ : -

‘‘न्यूयार्क के डिटेल्स एकत्र करना असंभव है। वे इतने गडमड हैं कि उन्हें एकबारगी स्वतंत्र नहीं देखा जा सकता। न्यूयार्क की विवरणिका नहीं बनाई जा सकती। यह दुनिया भगवान से टकरा रही है। न्यूयार्क के आसमान पर मनुष्य निर्मित इच्छाएँ हैं। हमें और किस धर्म की ज़रूरत है।’’

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मैंने लगभग एक दर्जन बड़े लेखकों के वाक्यों को एकत्र किया है जो शहरों के बारे में हैं। प्रसिद्ध शिल्पी जिसने चंडीगढ़ की परिकल्पना की थी, ने कहा कि स्काई क्रीपर्स धनोपार्जन की मशीनें हैं।

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क्या हमारे यहाँ रचनाकारों, शिल्पियों और वास्तुकारों ने छोटे-बड़े, नये-पुराने किसी ने भी शहरों के बारे में - यानी विकास के ऐसे छायाचित्र और नक्शों के बारे में टिप्पणी की है? हमने घीसू-माधव द्वारा भेजी गई स्मार्ट योजनाओं का जम कर स्वागत किया और ठुमरी गाई। अब सब बदरंग हो चुका है और भ्रष्टाचार का सबब है। इसने वास्तविक जनता को देश से दूर ठेल दिया है। शहरीकरण की आंधी में कश्मीर से कन्याकुमारी तक प्राकृतिक सौन्दर्य के असंख्य चित्र लुप्त हो गये हैं। यह पहले से हो रहा था; मद्धम...मद्धम...! पर अब यह बुलेट की तेज़ी से हो रहा है।

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हमारी राजधानी दिल्ली जो दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नगरी है, राजसत्ता की मनमानी रोशनियों से धधक रही है। मुझे याद आता है मिर्ज़ा ग़ालिब और रामधारीसिंह दिनकर की कविता ने ही दिल्ली पर सवाल उठाए; पर यह सूची बहुत संक्षिप्त है। ग़ालिब के अशआर अभी भी धूमिल नहीं हुए और दिनकर की लम्बी कविता दिल्ली को लोग भूल गये। ये सब मैं आपको इसलिए बता रहा हूँ  क्योंकि ये हमारे समय के सवाल हैं। और शुरू में मैंने कहा था कि एक लेखक को अपने समय की पड़ताल करनी चाहिए। अपने गुज़श्ता, वर्तमान और भावी समय की पहचान करनी चाहिए। यह हमारे लेखन का एक अनिवार्य हिस्सा है। क्या हम चौकन्नापन, काइयाँपन और कृत्रिमताओं को देख रहे हैं। शास्ता के मुक़ाबिले शासित जनता ज़ादा अपराधी है।

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पुरस्कृत व्यक्ति थोड़ा वाचाल हो जाता है; इसलिए मैंने कुछ अधिक कहा। मैं इतना बड़ा लेखक नहीं हूँ कि पुरस्कार को आलू का बोरा कह कर इतिश्री कर सकूँ।

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बहरहाल, जो व्यक्ति  जिन शीर्षकों के अन्तर्गत पुरस्कृत हुआ है  उसे आलोचक या अध्यापक की तरह नहीं बोलना चाहिए। उसका क्षेत्रफल ही अलग है। वह अपनी कहानियों से उत्पन्न दुनिया, जिसमें आप सब शामिल हैं, नये अन्वेषण करेगा। वह अपनी कहानियों में बार-बार लौट सकता है। क्योंकि कहानियाँ मरती या समाप्त नहीं हो जातीं। वे नये गलियारे बना सकती हैं। मुझे आपको एक उदाहरण देना है। इलाहाबाद कॉफ़ी हाउस में उन दिनों हमारा अड्डा था। अलग टेबुल पर बैठने वाले आलोचक विजयदेव नारायण साही याद आते हैं। संयोग से यह उनका जन्मशती वर्ष भी है। साही जी जबलपुर परसाई जी से मिलने आये थे। बारिश हो रही थी। हम एक रिक्शे पर बैठ कर बतिया रहे थे। कॉफ़ी हाउस में हम दोनों ने कभी एक टेबुल शेयर नहीं किया, पर यहाँ हम एक रिक्शे पर थे। साही जी ने कहा - ज्ञान तुम्हारी कहानी ‘बहिर्गमन’ अभी बची है, ख़त्म नहीं हुई है। मेरा सुझाव है कि जहाँ ‘बहिर्गमन’ समाप्त होती है, उसके आगे उसका दूसरा भाग लिखो। ‘मनोहर’ का परदेस में क्या हुआ, वह लौटा या मर गया। कुल मिला कर उसके बकाया जीवन का क्या हुआ। दूसरा भाग इस अंधकार को फाड़ने वाली कहानी हो सकती है। ‘बहिगर्मन’ का दूसरा हिस्सा मैंने लिखने की कोशिश की, पर बात बनी नहीं। मेरे पास मृत संजीवनी सुरा नहीं थी या हनुमान जी वाली बूटी, जो कहानी को फिर से जीवित कर पाती। मैं काहिल भी हूँ, संभवतः आलस्य इस काम में बाधा बना हो। जो भी हो अब मैं आपके सामने हूँ।

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लम्बे वक्तव्य से बचते हुए अंत में, दोस्तों, मेरा मानना है कि आपने मुझे पुरस्कृत किया, इससे साबित होता है कि आपको पुरानी दुनिया नापसंद नहीं है। संभव है कि आप यह भी मानते हों कि विकास की वर्तमान अवधारणा एक छद्म अवधारणा है। वाल्टर बैंजामिन भी अपनी समीक्षा में लगभग यही निष्कर्ष निकालते हैं। हमने पश्चिम की नक़ल करते हुए उसका आवरण सनातन बनाने का प्रयास किया है। अगर पुरानी दुनिया से हमें आगामी दुनिया में आना ही है  तो हमारे स्वप्न, हमारे आग्रह, हमारी कामनाएँ भिन्न होंगी। पुराने से हमारा तात्पर्य यह नहीं है कि हम लालटेन की वापसी चाहते हैं। - ज्ञानरंजन 🔷

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

🔴अभी थके नहीं हैं ज्ञानरंजन

(वर्ष 2024 का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान पहल के संपादक व विख्यात कथाकार ज्ञानरंजन को उनके आजीवन कथा व सम्पादकीय योगदान के लिए देने का निर्णय लिया गया है। 4 फरवरी को बाँदा में प्रतीक फाउंडेशन के तत्वावधान में एक कार्यक्रम में ज्ञानरंजन को 31000 रूपए की सम्मा‍न निध‍ि व स्मृति चिह्न भेंट कर सम्मानित किया जाएगा।)

88 साल के ज्ञानरंजन कभी थकते नहीं। उनके लेखन व कर्म में एक युवापन की जो छवि है वह लोगों को आकर्ष‍ित करती है। युवा तो उनके मुरीद हैं। इसमें सभी वर्ग के लोग हैं। चाहे वह लेखक हो या चाहे संस्कृतिकर्मी या आम विद्यार्थी जो भी उनसे पहली बार मिलता है, उसके बाद बार-बार उनसे मिलना चाहता है। युवा रचनाशीलता की पूरी ज़मात उनके सम्मोहन में बंधी हुई है। ज्ञानरंजन समकालीन परिदृश्य में सबसे सक्रि‍य व्यक्त‍ित्व हैं। इसके पीछे निष्ठा भरी अटूट सक्रि‍यता का लम्बा अतीत है। लगभग 60 वर्ष से अपनी रचनात्मकता से समकालीन परिदृश्य में ज्ञानरंजन की छवि नायक की है।

ज्ञानरंजन की कीर्ति का मूल आधार उनकी कहानियां हैं। उनकी कहानियों ने हिन्दी कहानी की दिशा ही बदल दी। ज्ञानरंजन ने असाधारण रचनात्मकता से कहानी को नई कहानी से मुक्त करने का ऐतिहासिक कार्य किया है। उन्होंने एक बिल्कुल नई कथा भूमि रची है। पचास वर्षों के अंतराल के बावजूद उनकी कहानियों में विलक्षण ताजगी व सम्मोहन उपस्थि‍त है। ज्ञानरंजन की यह निजी विशेषता है कि वे श‍िखर पर पहुंच कर अपनी रचनात्मक भूमिका में गुणात्मक परिवर्तन कर लेते हैं। कहानियों में अपना अनूठा प्रतिमान स्थापित करने के बाद ज्ञानरंजन ने स्वयं को कहानी लेखन से दूर कर लिया।   

ज्ञानरंजन की भाषा ही है ऐसी है जो सब को आकर्ष‍ित करती है। उनका गद्य विलक्षण है। उनका शब्दों का चयन व वाक्यों की गति से लोग ईर्ष्या करते हैं। ज्ञानरंजन की भाषा सिर्फ कहानी तक सीमित नहीं है बल्क‍ि गद्येत्तर लेखन में उनकी भाषा जादूई है। उनके छोटे से छोटे वक्तव्य और व्यक्तिगत रूप से लिखे गए पत्र अपनी भाषा का जादू बिखेर देते हैं।

ज्ञानरंजन की दूसरी पारी पहल के प्रकाशन से 1973 में शुरु हुई। ज्ञानरंजन ने पहल का प्रकाशन प्रगतिशील परम्परा को वैचारिक व रचनात्मक दोनों स्तरों पर प्रभावशाली बनाने के लिए किया। पहल का आदर्श वाक्य ही था-इस महादेश की चेतना के वैज्ञानिक विकास के लक्ष्य और संकल्प के लिए प्रतिबद्ध। पहल एश‍िया महाद्वीप में वैज्ञानिक विचारों के विकास संकल्प को पूर्ण करने वाली एक अनिवार्य पत्रि‍का बनी। पहल का 125 अंक तक प्रकाशन हुआ तब तक इसकी प्रगतिशील मूल्यों के प्रति दृढ़ आस्था रही। बिना किसी संस्थान और संसाधन के पहल ने अपनी यात्रा तमाम प्रतिकूलता व अभाव के बावजूद सक्रि‍यता से बनाए रखी। पहल एक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में स्वीकार की गई। ज्ञानरंजन ने हमेशा सामाजिक सरोकारों से ही विकसित साहित्य और सांस्कृतिक मूल्यों की हिमायत की। 

पहल की सबसे बड़ी विशेषता इसमें छपने वाली सामग्री की समकालीनता रही। पहल के प्रत्येक अंक में साहित्य व विचार की इतनी खुराक रहती थी कि पढ़ने वाले को तीन चार माह तो लग ही जाते थे। तब तक वह अंक पूरा होता नया आ जाता था। कहानी व कविता को ले कर पहल के चयन अप्रतिम है। बीच बीच में पहल द्वारा पुस्त‍िकाओं का प्रकाशन अद्भुत रहा। पहल सम्मान का जिक्र करना भी ज़रूरी हो जाता है। पहल सम्मान दरअसल पहल परिवार की आत्मीय सामूहिकता का ऐसा उदाहरण है जिसकी मिसाल हिन्दी में दूसरी नहीं।🔷 

जबलपुर में कैसे हुई दुर्गा पूजा और रामलीला की शुरुआत

देश में दुर्गा पूजन का सार्वजनिक रूप से आयोजन 11 सदी से प्रारंभ हुआ। इसका सर्वाध‍िक प्रचार प्रसार नागरिकों के मध्य बंगाल से हुआ और धीरे धीरे...