आज 30 मई का दिन पूरे देश और खासतौर से जबलपुर से भी जुड़ा हुआ है। ठीक 50 साल पहले 30 मई 1975 को जबलपुर सहित पूरे देश में एक फिल्म जय संतोषी मां रिलीज हुई थी। इसी साल शोले और दीवार फिल्में भी रिलीज हुईं थी। शोले तो सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्म में उस समय दर्ज हुई लेकिन जय संतोषी मां कमाई करने में नंबर पर रही थी। इस फिल्म ने अमिताभ बच्चन की दीवार से भी अधिक पैसा कमाया था। इस दृष्टि से जय संतोषी मां को 50 साल बाद भी सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण माना जाता है। 1975 में यह फिल्म जबलपुर की सुभाष टॉकीज में रिलीज हुई थी। 1950 के शुरुआती समय में सुभाष टॉकीज का निर्माण हुआ था। इसके संचालक सेठ गोविन्द दास व त्रिभुवन दास मालपाणी जैसे नगर के समृद्ध लोग थे। सुभाष टॉकीज जबलपुर की पुरानी रिहाइश में लोकप्रिय थी। उस समय सुभाष टॉकीज की छवि धार्मिक फिल्मों के छविगृह के रूप में ज्यादा रही। संत तुकाराम, हर हर महादेव या सामाजिक फिल्में प्राय: यहां लगती थीं।
1975 में जब शोले जैसी फिल्में जबलपुर के मध्य स्थित श्रीकृष्णा टॉकीज में तो दीवार ज्योति टॉकीज में लगी तब जय संतोषी मां को सुभाष टॉकीज में स्थान मिला। शोले व दीवार के सामने जनता और तो और टॉकीज वाले भी भूल गए कि जय संतोषी मां जैसी कोई फिल्म जबलपुर में लगी है। एक दो दिन तक कोई हलचल नहीं हुई लेकिन जैसे ही चार पांच दिन बीते कि लोगों खासतौर से महिलाओं का हुजूम सुभाष टॉकीज की ओर निकलने लगा।
सुभाष टॉकीज मंदिर के रूप में परिवर्तित हो गई। टॉकीज के आसपास के लोगों ने अगरबत्ती, गुड़ चना, नारियल से लेकर पूजन सामग्री बेचने लगे। महिलाएं चप्पल उतार कर टॉकीज में फिल्म देखती थीं। टॉकीज के अलावा आसपास जूते चप्पल रखने की व्यवस्था की गई। फिल्म में जब भी संतोषी माता की महिमा का गुणगान होता, दर्शक जेब से रेजगारी निकाल निछावर करना शुरू कर देते। फिल्म में संतोषी मां की भूमिका निभाने वाली अनिता गुहा वास्तविक जीवन में देवी के रूप में पूजने लगीं। वे जहां भी निकलती लोग उनके दर्शन के लिए लपक पड़ते। महिलाएं अपने बच्चे उनकी गोद में आशीर्वाद पाने के लिए डाल देते।
सुभाष टॉकीज पूरे महाकोशल अंचल में चर्चित हो गई। जबलपुर के आसपास के शहरों-कस्बों से लोग जय संतोषी मां देखने के लिए आने लगे। फिलम देखने वाले चप्पल उताकर कर सिनेमाघरों में प्रवेश करते। अपने साथ वे फूल-माला लेकर आते और फिल्म शुरू होते ही जब दूसरे ही सीन में संतोषी मां की आरती होती तो सब अपनी-अपनी आरती जलाकर आरती करना शुरू कर देते। फिल्म खत्म होने के बाद बाकायदा सिनेमाघरों के बाहर प्रसाद बंटता और पास में ही लंबी कतार दिखती, संतोषी मां की फ्रेम की हुई फोटो के साथ शुक्रवार की व्रत कथा बेचने वाले दुकानदारों की दुकान तेजी से चलने लगी। जय संतोषी मां का ऐसा आशीर्वाद रहा कि टॉकीज से जुड़े और इसके आसपास रहने वाले सभी लोग मालदार हो गए। सबसे अधिक टॉकीज के संचालक मालामाल हुए।
जय संतोषी मां में अनिता गुहा ने मुख्य भूमिका निभाई थी, जबकि सहायक भूमिका में आशीष कुमार, कानन कौशल, त्रिलोक कपूर थे। देश भक्ति गीत लिखने वाले प्रदीप ने गीत लिखे थे और सी. अर्जुन ने फिल्म का संगीत दिया था। 'यहां-वहां, जहां-तहां, मत पूछो कहां-कहां, हैं संतोषी मां, अपनी संतोषी मां गीत लोगों को आज भी याद है। खुद कवि प्रदीप ने फिल्म में दो गाने गाए।
जय संतोषी मां फिल्म के बाद शुक्रवार को तब चाट की दुकान की तरफ देखना भी कितना बड़ा गुनाह होता था और जो बच्चा गलती से शुक्रवार को खटाई खा भी ले, वह बेचारा हफ्तों तक इसी अपराध-ग्लानि में जीता रहता कि घर पर कहीं कुछ अशुभ न हो जाए। लोगों के घरों पर खूब पोस्टकार्ड आते। इन पोस्टकार्ड पर ऐसे ही 16 पोस्टकार्ड और लिखकर दूसरों को भेजने को कहा जाता और फिर यह चेन चलती ही रहती। हालात यहां तक आ गए थे कि डाकखानों में पोस्टकार्ड की मांग ज्यादा हो गई और आपूर्ति कम पड़ने लगी।
इस फिल्म से दूसरी धारणा यह भी टूटी कि आमतौर पर फिल्मों के दर्शक पुरुष ज्यादा है लेकिन इस फिल्म देखने वालों में महिलाओं की तादाद सबसे ज्यादा थी। अचरज इस बात का भी है इस फिल्म से पहले संतोषी माता के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते थे। इस फिल्म की कहानी, गीत-संगीत ने जनोन्माद पैदा कर दिया। एक किस्म का धार्मिक पुनर्जागरण दिखाई दिया था। जय संतोषी मां फिल्म सिर्फ 12 लाख रूपए में बनी और इसने 25 करोड़ रूपए से ज्यादा कमाया। बताया जाता है कि सुभाष टॉकीज में जय संतोषी मां 25 सप्ताह से ऊपर तक चली।
जबलपुर में सुभाष टॉकीज को जब भी याद किया जाता है तो यह कहकर कि वही टॉकीज जिसमें जय संतोषी मां लगी थी। सुभाष टॉकीज से लोगों की याद से जुड़ी हुई हैं। नब्बे के दशक में जब सिंगल स्क्रीन बंद होना शुरु हुए तब सुभाष टॉकीज को इसके संचालकों ने बेच दिया और अब वहां एक मार्केट बन गया।
पुनश्च-सुभाष टॉकीज के बारे में लिखा जाते वक्त टॉकीज की फोटो दूंढ़ने का खूब प्रयास किया गया। इसके तत्कालीन संचालकों के वंशजों से फोटो की तहकीकात की गई। हर जगह निराशा ही मिली। पत्रकार सत्यम तिवारी के प्रयास से जबलपुर के प्रथम फिल्म पोस्टर व बैनहर बनाने वाले 'कुमार साहब' के पुत्र राजेश सालुंके से बातचीत हुई। कुमार साहब व उनके पुत्र मोहम्मद रफी के अनन्य भक्त। कुमार साहब ने छठे दशक में जबलपुर में रफी साहब को जबलपुर बुलाया था। राजेश सालुंके ने सुभाष टॉकीज की पुरानी फोटो कुमार साहब के संग्रह से उपलब्ध कराई। सत्यम तिवारी व राजेश सालुंके को आभार और कुमार साहब को श्रद्धांजलि।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें