बुधवार, 29 जुलाई 2020

शारदा पाठक: अजब शख़्स, मस्तमौला, फक्कड़ फ़क़ीर

शारदा पाठक  अजब शख़्स थे ।मस्तमौला,  फक्कड़ फ़क़ीर ।वे पत्रकार थे , सतत पढ़ने- लिखने वाले पत्रकार । वे गहरे जिज्ञासु व्यक्ति थे।उनकी रुचि  के अनेकानेक विषय थे, जिनमें उनकी भरपूर पकड़ थी। इतिहास से लेकर फिल्मों तक और बाज़ार से लेकर सभ्यता-संस्कृति तक वे सहज आवाजाही करते थे। बातों का एक बड़ा बाज़ार वे जहां-तहां खोल के बैठ जाते।अफ़सोस यह कि उन  जैसी प्रतिभा के जीवन का बड़ा हिस्सा अभावों और संकटों में गुजरा। 21 नवम्बर 2011 को उनका निधन हो गया । आज वे 83 वर्ष  के होते। यह लेख पहले ‘आज  समाज ‘अख़बार में छपा था।
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न कुछ तेरे बस में जूली, न कुछ मेरे बस में...  

  • मनोहर नायक

शारदा पाठक घनघोर मिलनोत्सुक जीव थे। मित्रों, परिचितों के बीच परम-प्रसन्न। बातें और बातें। मिलने की चाह उन्हें सुबह से ही सड़क पर ला देती। और फिर मिलते-जुलते बातों-बातों और बातों से दिन का जंगल काटते रहते। जबलपुर हो या दिल्ली उनके परिचित और प्रशंसक बड़ी तादाद में थे। उनका यह दायरा काफ़ी बड़ा था। उससे बहुत बड़ा दायरा स्मृति में बसे लोगों का था। कभी का कुछ भी पढ़ा-सुना-देखा उनके कबाड़खाने में हमेशा जीवंत रहता और बाहर आने को कुलबुलाता रहता। लेकिन अपनी इस अटूट मिलनसारिता के बावजूद वे नितांत एकाकी ।लोगों से  मिलते- जुलते सुबह को साँझ करते , प्रेमी और हमदर्द मिलते पर बहुतेरे काम निकालने और मज़े लेने वाले भी होते। अंतत: वे नाआश्नाई और औपचारिकताओं से  जैसे ऊब जाते... गहमागहमी से भरी बस्तियाँ उन्हें उजडी़ हुई लगने लगतीं  ,दिल उचाट हो जाता और उन्हें अपना वीराना याद आने लगता ; वे वहाँ लौट जाते । वे एक चिर-परिचित अजनबी की तरह ही थे- एक आगंतुक! जो अचानक आता और फिर एकाएक चला जाता है। हर दिन हर किसी के भी साथ उनका मिलना ऐसा ही था। 
'आगंतुक’ 1991 में आयी सत्यजीत राय की अंतिम फ़िल्म थी। इसके केंद्रीय पात्र मनमोहन मित्रा का चरित्र पाठकजी से मेल खाता-सा था। नृतत्वशास्त्री मित्रा ज्ञानी और मूर्तिभंजक हैं। वे दिल्ली से पत्र द्बारा कोलकाता में अपनी भतीजी बेबी यानी अनिला को सूचित करते हैं कि कुछ दिन आकर उनके पास रहना चाहते हैं। ये वे चाचा हैं जिनका पैंतीस वर्षों से कोई अता-पता नहीं था। चाचा दुनिया भर में घूमे हुए घुम्मकड़ी तबीयत के व्यक्ति हैं। अनिला ख़ुश भी है और पति सुधीन्द्र की इस सोच के कारण सशंकित भी जो चाचा को फ़रेबी मानते हुए शक कर रहे थे कि हो सकता है कि यह चाचा की पुश्तैनी जायदाद में अपना हिस्सा वसूलने की चाल हो। मित्रा साहब ने आते ही अपने अद्भुत बखानों का रंगारंग पिटारा ही खोल दिया। हर बात की काट उनके पास थी। हर विषय पर उनकी अपनी राय थी, और उसमें जोड़ने को भी बहुत कुछ ।अनिला के बेटे सत्याकि की उनसे गहरी पटने लगी, लेकिन वयस्क परिवार आशंकित ही रहा।
भद्रलोक के कई महाशयों ने उनसे बात की कि तह मिले और भेद खुले। लेकिन चाचा अथाह थे। एक वकील दोस्त भी आया और चाचा ने एक सधे वकील की तरह उससे जिरह की। गर्मागर्मी में दोस्त ने कहा 'साफ़-साफ़ बताओ या दफ़ा हो जाओ।’ अगले दिन चाचा का कोई पता नहीं था। दरअसल राय इस फ़िल्म के  से लगातार आधुनिक और औपचारिक होती जा रही दुनिया में मनमोहन मित्रा के ज़रिये मानवीयता और सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने का संदेश देते हैं। इसमें हम मानवीय मन और सामाजिक अंतर्संबंधों की सूक्ष्म पड़ताल पाते हैं। वकील जब मनमोहन मित्रा से पूछता है कि क्या आपने कभी मानव मांस खाया है, जोकि दरअसल एक बेहद जघन्य काम है तो मित्रा कहते हैं कि मैंने खाया नहीं पर उसके ख़ास स्वाद के बारे में सुना है। बेशक यह बर्बर है पर इससे भी सौ गुनी क्रूर और जुगुप्सापूर्ण चीजें हैं। बेघर लोगों, ग़रीबों की दर्दनाक बेहाली और नशीली दवाओं से ग्रस्त लोगों को देखना और एक बटन दबाकर सभ्यता को नष्ट कर देना ज़्यादा, क्रूरता भरा कारनामा है। मित्रा साहब अंतत: मानव प्रकृति और सभ्यता पर लोगों का ज्ञान बढ़ाकर चले जाते हैं। 
पाठकजी बहुतों के लिए ऐसे ही कक्काजी थे, ज्ञानी और मूर्तिभंजक। सरस, विनोदी और कई अर्थों में करिश्माई। उनकी उपस्थिति फ़िल्म की ही तरह शास्त्रीय शैली में मनोभावों की गरिमामय कामेडी सी थी। भतीजे उनके कई हैं पर दूरदराज़ और कभी-कभार वाले। एक बड़ी बहन थीं पर पहले ही नहीं रहीं। वे नितांत एकेले थे। जबलपुर विश्वविद्यालय से एनसियेन्ट हिस्ट्री एंड कल्चर व इकॉनामिक्स में एम.ए. थे।डॉ. राजबली पांडे के निरीक्षण में डाक्टरेट कर रहे थे पर उनकी स्थापनाएं गले नहीं उतरीं तो छोड़ दी। व्याख्याता बनना चाहते थे पर नहीं बन पाए। अंतत: पत्रकार बने। पर तमाम योग्यताओं के बावजूद दुनियावी अर्थों में घोर असफल हुए कि फिर कभी नौकरी नहीं की। प्रेम किया था विवाह नहीं कर पाए। पिता के अनुचित दबावों में कराहते रहे। फिर विवाह हुआ ही नहीं। उन्नीस सौ बहत्तर में दिल्ली और यहां-वहां काम किया पर कुछ जमा नहीं। दिल्ली में उन्होंने कई स फ़ाकामस्ती में गुज़ारे। लेखों का पैसा मिलता तबउधारी चुकाते वरना पूछो तो कहते थे ब्याज पर पैसा उठाया है। एक्सप्रेस में विज्ञापन में हज़ारों रुपए का काम किया पर हिसाब में मिलान न हुआ तो सब डूब गया। जबलपुर लौटे खाली हाथ और वे खाली ही रहे। न रहने को मकान, न कोई क़रीबी न कोई काम। उनके चाहने वाले बहुत थे। एक ने उन्हें कमरा दिया तो कुछ अन्य खाने की व्यवस्था करते।जयलोक अख़बार ने सहारा दिया, लिखने की जगह दी और कुछ समय के लिये  पत्रकार भवन में रहने का ठिकाना दिय। वहीं एकअँग्रेजी अख़बार का एक पन्ना मिल  गया तो उसमें लिखते रहे। ब्रज भूषण सकरगायें, मेरा छोटा भाई जयप्रकाश, इंदू ठाकुर व कुछ अन्य उनकी  फिकर करते रहे । लेकिन दिल्ली हो या जबलपुर उनका शोषण ही किया गया। एक्सप्रेस बिल्डिंग में तो वे अर्ज़ीनवीस ही हो गए थे। कोई अंग्रेजी में तो कोई हिंदी में अर्ज़ी लिखवाता रहता। वे प्रेमपूर्वक लिखते रहते। दिल्ली में मकान मालकिन की बाल मनोविज्ञान पर पूरी थीसिस लिख दी। उन्हें नौकरी में तरक्की मिली और पाठकजी को अंतत: वह मकान छोड़ना पड़ा। किसी भतीजी को इतिहास में डाक्टरेट करा दी। किसी मित्र ने लेख लिखवा लिया। किसी ने बताया  था कि कुछ दिनों से किसी मंदिर से खिचड़ी ले आते थे। 
पाठकजी मेरे ननिहाल की ओर से  माँ - मामा के कक्का लगते थे, वय में छोटे होने पर भी माँ - मामा उन्हें कक्काजी कहते।मेरे दिल्ली  आने पर हमारे घर आकर लम्बा डेरा डालते।   वैसे भी बच्चों समेत  हमारे  जन्मदिनों, होली, दशहरा,दीवाली के एक दिन पहले शाम को वे  झोला लटकाये आ जाते।  उनके झोले में मारगो साबुन भी होता... न नहाने के लिये कुख्यात -से कक्काजी यहाँ  रोज़ स्नान  करते । ख़ूब बातें  होतीं , कोई न मिलता तो बच्चों से। रंजना खाना बनाती होती तो वे  दरवाज़े  पर खड़े होकर  लगातार बतियाते रहते।सब्ज़ीमंडी में घूमने का उन्हें व्यसन था। सब्ज़ी लेने जाते तो घंटों बाद लौटते पर बेहतरीन माल के साथ। बच्चों को पढ़ाते ,परीक्षा की तैयारी कराते और मज़े-मज़े में नई-नई जानकारियां देते।   जहाँ रहते बच्चों से ख़ब बनती ।अख़बारों के बाल परिशिष्टों में उनके नाम से कविता वगैरा लिखते और छपने पर कहते , अरे तुम्हारी  कविता छपी है। कोई बच्चे को माचिस के 
खोखे जमा करने शौक़  है तो जहाँ भी होंगे, राह चलते उस बच्चे को मालामाल करते चलेंगे । लोगों की मदद  का यह सिलसिला पुराना था। उनके मित्र बंसू शुक्ल प्राइमरी में मास्टरी की परीक्षा देने वाले थे। उनके बदले परीक्षा पाठकजी ने दी और बंसू मास्साब हो गए। प्रसंगवश, बंसू मास्साब, अब्बू मास्टर और शारदा पाठक अपने युवा दिनों में ग़ज़ब के पतंगबाज थे।
मीर शेर है, ‘ न समझी मुझे बेख़बर इस  कदर /  तह-ए- दिल  लोगों से आगाह हूँ ‘ , पाठकजी  भी लरसब जानते थे। हर छल-कपट पर उनकी निगाह रहती। पर वे परम संकोची थे। 
उनका इस्तेमाल करने वाला हाल ही का परिचित हो या चालीस वर्ष पुराना वे सहजता से काम कर देते। खाने-वाने के लिए यह सब करते थे यह कहना ग़लत है। उन्हें भूखे रहने का ज़बर्दस्त अभ्यास था। पोहा-मट्ठी मिली तो ठीक, नहीं मिली तो ठीक। कइयों से उन्हें उम्मीद थी इसलिए चक्कर लगाते पर निराश ही लौटते। सालों वे अपने जीवन को पटरी पर लाने की कोशिश करते रहे। उसी तरह जैसे सालों वे घर बसाने, विवाह करने की कोशिश में लगे रहे थे। सुना है युवा दिनों में काफ़ी फैशनेबल थे। गले में मफ़लर, गॉगल और लेम्ब्रेटा। वह भी भतीजे को दे दिया। दिल्ली-जबलपुर में कई संगी-साथी बड़े आदमी हो गए। ज्ञानी-ध्यानी पाठकजी हैरत करते और गुस्से में कभी-कभार तीक्ष्ण कटाक्ष। उनसे किसी की असलियत छिपी न थी। कई लेखक-पत्रकार भी थे जिनके वे प्रशंसक थे पर आज के दौर की पत्रकारिता के घोर आलोचक ।हिंदी  अख़बार  पढ़ते समय उनकी कुढ़ती भाव- भंगिमाएँ देखना दिलचस्प  होता था। शास्त्रीयता पुरातनपंथी-दकियानूस हरगिज नहीं थी। उनकी दृष्टि बेहद आधुनिक थी। सारे उतार-चढ़ावों पर पैनी नज़र। उदारीकरण के साथ ही वे कहने लगे थे कि अब अख़बार इश्तहार हो जाएंगे। जब हो गए तो कहते कि अब तो लेख नहीं चाहिए। शब्दों का गुटका मांगते हैं। कफ़न देखकर मुर्दे की मांग करते हैं। यानी अच्छी फोटो है तो थोड़ा कुछ लिख दीजिए। कुछ साल से कहते कि यार अब नंबर एक भगवान सांई बाबा हैं। गणेश-कृष्ण-हनुमान पिछड़ गए।पढ़ने के ऐसे उत्सुक कि कुछ भी हाथ लगे पढ़ डालत , बच्चों   की   स्कूली किताबें ,पर्ची, रसीद  , सामान रखकर आया हुआ पुड़ा ,सबमें जो छपा हो सब पढल डालते। दवाओं के रैपर पढ़कर बताते क्या-क्या बीमारियाँ इस समय लोगों को तंग कर रही हैं। उनकी आँखें और दाँत अंत तक दुरुस्त बने रहे।
कक्काजी बेहद भावुक व्यक्ति थे। वे एक ठीक-ठाक ज़िंदगी चाहते थे, जिसके लिए जीवन भर शोध चला। वे लोगों के बीच के व्यक्ति थे। आसपास मित्र-मंडल अच्छा लगता और उसमें वे हज़ार ज़बां से नग्माज़न होते। लेकिन उन्हें जैसे अकेलेपन की सज़ा मिली थी। पूरा जीवन अकेले छोटे कमरे में गुज़ार दिया। वे कुछ किताबें लिखना चाहते थे। लोग कहेंगे-किसने रोका था! पर खाने का जुगाड़ ही न हो! पैसा ही न हो! ऐसी कोई जगह भी न हो जहां जाकर आत्मीय, भावपूर्ण परिवेश मिले तो कोई क्या कर सकता है! बाहर की दुनिया बातें सुनने को उत्सुक पर अंतत: बेपरवाह थी। फिर भी अपने मन के घाव वे कभी नहीं दिखाते , ‘ दर्द- ए- पिन्हाँ थे तो बहुत /  पर लब- ए-इज़हार  था ‘... पूछो तो कहते, 'न कुछ तेरे बस में जूली, न कुछ मेरे बस में।’ यह ज़रूर है कि बेहद सख़्त पसंद-नापसंद वाले थे। फिर परिश्रम से इतना ज्ञानार्जन किया कि मझौले किस्म के लोगों से तालमेल नहीं बिठा पाए। एक तरह से उन्हें उजले-साफ़-सूफ, धुली-पुछी पर अंदर से घोर प्रदूषितदुनिया से चिढ़ हो गयी थी ।साँसारिक औपचारिकताओं को वे भांप चुके थे। स्नान-परिधान से मोहभंग का मामला था। कभी यह भी लगता किउनका यह मटमैलापन भी जैसे पाखंडी दुनिया का सांकेतिक विरोध हो। वे आलू के शौक़ीन थे पर उसके छिलके से घृणा करते थे। परवल आदि के छिलके भी नागवार थे। साक़िब का एक शेर है: 'मलबूस ख़ुशनुमां हैं मगर खोखले हैं जिस्म/ छिलके सजे हुए हैं फलों की दुकान में।’ पाठकजी सत्व-तत्त्व वाले आदमी थे, छिलकों के रंगीन संसार के शत्रु। ग़ज़ब यह है कि इतने साल विपदाओं से घिरे रहकर भी उन्होंने अपनी ईमानदारी, निश्छलता, संजीदगी और स्वाभिमान नहीं खोया। आराम की ज़िंदगी में ये सब चीजें भी अपेक्षया आसान होती हैं पर विपरीत और विलोम परिस्थितियों में लोभ-लालच,  वासनाओं  से अछूते और निष्कलुष रहना कठिन काम है। जीवन भर साथ रहीं मार तमाम विपदाओं  ने उनचचचके मिज़ाज को निराशा के सिपुर्द नहीं किया 
कक्काजी का दिमाग़ अजब-ग़ज़ब ही था। कहां-कहां की जानकारियां, वंशावलियां, तारीख़ें, संख्याएं, विवरण उसमें जमा थे। पैंसठ साल पुरानी स्मृतियां उनके अंदर सजीव थीं। एक बड़ा स्मृति-आलय था उनका दिमाग़। जहां शायद बड़े-बड़े कक्ष थे: इतिहास, पुरातत्व, राजनीति, भाषा, संस्कृति, वेद-पुराण, महाभारत आदि का अलग। देशों, शहरों, स्त्रियों-पुरुषों का अलग। मंदिरों, स्थापत्य का अलग। व्यापार, शेयर बाज़ार का अलग। वनस्पतियों और सब्जी मंडियों, बाज़ारों और विविध जायकों का अलग। भूत-प्रेत-जासूसी किस्सों, कहानियों का अलग। और एक बहुत बड़ा कक्ष फ़िल्मों और फ़िल्म संगीत का। ऐसा ही एक किताबों, अख़बारों, पत्रिकाओं, विशेषांकों का ।हां ,एक तहख़ाना भी था, जहां निजी जीवन की फाइलें, कुछ सत्यकथाएं और गुत्थियां थीं जिनकी सूची भूले-भटके कभी एकाध लाइन में पता चल जाए तो ठीक, वरना वहां प्रवेश निषेध था।  पाठकजी का  मन एक्सप्रेस  बिल्डिंग के अलावा  हिंहुस्तान टाइम्स की बिल्डिंग  में रमता था। जनसत्ता और हिंदुस्तान में उनके चाहने वाले बेशुमार थे।इन जगहों के तमाम पान वालों, चाय वालों सेउनके गहरे संबंध थे, कई तो उन्हें अंत तक एक रुपया जोड़ा पान खिलाते रहे । ‘ साप्ताहक हिंदुस्तान ‘ की सम्पादक रहीं शीला  झुनझुनवाला उनकी मुरीद थीं , उनके समय   में पाठकजी ने  साप्ताह केभूत-प्रेत  जासूसी -कथा, रहस्य-रोमांच जैसे विशेषांक  लगभग अकेले  ही निकाले। फ़िल्मों केतो वे चलते-फिरते कोष थे। ज्ञानरंजनजी ने उन्हें समाीक्षा के लिये ‘धुन का सफ़र ‘ दी। स्मृति के सहारे उन्होंने ५०-६० पेज़ लिख दिये, भूल-चूक गिनाते हुए। काफ़ी लम्बी थी ,छपी नहीं ; ज्ञानजी कहा ने कहा कि  लेखक को भेज देगें ।कभी-कभी झल्लाहट होती थी उनकी जानकारियों से कि क्या-क्या भरा पड़ा है। उन्हें शायद ही संदर्भ के लिए कुछ देखना पड़ता हो। एक बार जो पढ़ लिया वह याद हो गया। उनकी स्मृति अगाध थी। 
धार्मिकता, पूजा-पाठ से वे बहुत दूर थे। धार्मिक उन्माद, पाखंड और ढकोलसे के ख़िलाफ़। छोटेपन से उन्हें चिढ़ थी। भाजपा-संघ के तो वे परम शत्रु थे और बाबरी ध्वंस के बाद जब एक दिन मेरे घर में कुछ लोग आए तो उन्होंने उन्हें बैठाया लेकिन जैसे ही पता चला कि ये राममंदिर बनाने के समर्थन वाले फ़ार्म पर दस्तख़त लेने आए हैं तो आग-बबूला हो गए और उन्हें तुरंत घर से बाहर होने के लिए लगभग चिल्लाने लगे। उनके अंदर का दर्द दूसरी तरह से कभी अनजाने में उभर आता था। पता नहीं किसने उन्हें बताया कि एक दिन कहने लगे कि एक बढ़िया बात यह होगी कि मृत्यु के बाद मुझे मोक्ष मिल जाएगा ... यानी फिर नहीं फंसेंगे। यह एक तरह से अपने जीवन और इस दुनिया से उनके रिश्तों पर शायद सबसे दारुण टिप्पणी थी। जबलपुर में उनकी मृत्यु पर अख़बारों में काफ़ी छपा, दिल्ली में कुछेक जगहों से लेख-फोटो की मांग हुई। लेकिन सच यह है कि जीते-जी उनकी कद्र नहीं हुई, 'मर गए तो जमाने ने बहुत याद किया।’ उनकी बातें, उनका बच्चों-सा निर्दोष व्यक्तित्व सब बहुत याद आता है। वे ग़ज़ब के किस्सागो थे। लक्ष्मीकांतजी वर्मा और पाठकजी दोनों एक  बार मेरे घर पर थे। रात में लतीफ़ और दिलचस्प बातों का जो सिलसिला चला वह अविस्मरणीय है। उम्र भर सड़कों पर घमने-फिरने वाले कक्काजी जबलपुर में एक दिन टक्कर खाकर एेसे गिरे कि फिर उठ न सके और उनके जीवन की अद्भुत पर दुखांत फ़िल्म थींड हो गयी ...अक्सर मेरे घर में फ़िल्म देखते हुए फ़िल्म ख़त्म होने पर वे कहते- 'चलो थींड’ हो गई। वे दि और एंड को मिलाकर कहते थे। ,थींड ... तो पाठकजी भी , फ़कीराना थे और सदा और दुआ कर चले गये।

द ग्रेट ग्रेंड अंकल

  • राजेश नायक 
कक्काजी रिश्ते में मेरे पिता के काका थे और अक्सर घर आते थे। दीक्षितपुरा में गुरूजी के घर के पीछे पाठकों का बड़ा कुनबा था। वहीं वे भी रहते थे। साठ के दशक में दीक्षितपुरा, मिलौनीगंज और गढ़ा बाम्हनों के गढ़ हुआ करते थे। अप्पा दीक्षित राजा सागर के पुरोहित थे।उन्हीं के नाम पर दीक्षितपुरा बसा। यह बात कक्काजी ने ही मुझे बताई थी। पुरातन इतिहास में स्नातकोत्तर उपाधि उन्होंने प्रथम श्रेणी में प्राप्त की थी। पिता से बनी नहीं तो घर बार छोड़कर १९७० में दिल्ली आ गए और स्वतंत्र पत्रकारिता से जीवन यापन करने लगे।
आईटीओ चौराहे से दिल्ली गेट के बीच का हिस्सा बहादुरशाह जफर मार्ग कहलाता है। यहीं पर एक डॉउन स्ट्रीट भी है जिसे हम लंदन की तर्ज पर दिल्ली की फ्लीट स्ट्रीट भी कह सकते हैं। तमाम बड़े अखबारों की इमारतें इसी  गलियारे में हैं। एकतरफ एक्सप्रेस बिल्डिंग तो दूसरे कोने में हेराल्ड हाउस और इनके बीच टाइम्स ऑफ इंडिया, द पायोनियर वगैरह एक कतार में। स्टेट्समेन और एचटी(हिंदुस्तान टाइम्स) हाउस कनॉट प्लेस में हैं।
एक्सप्रेस बिल्डिंग के पिछवाड़े कोटला किला है जिसका कुछ हिस्सा रिहायशी भी है। यहीं कुठलियानुमा कमरे में कक्काजी रहते थे।
फीरोजशाह कोटला क्रिकेट स्टेडियम भी यहीं है। कोटला किले के समानंतर दूसरी तरफ रिंग रोड है। किले और रिंग रोड के बीच विशाल गुलाब उद्यान है जिसके एकतरफ राजघाट कलोनी है। भवानी प्रसाद मिश्र यहीं भूतल पर २१ नंबर क्वार्टर में रहते थे जो बाद में अनुपम को अलाट हो गया। भवानी बाबू को करीबी लोग मन्नाजी बुलाते थे। कक्काजी उनके घर अक्सर आते थे। अगस्त १९७८ में पहली बार दिल्ली आया तो अनुपम के घर पर ही ठहरा। भारी बारिश के कारण कुतुब एक्सप्रेस भी रद्द हो गई और मुझे करीब दस दिन रुकना पड़ा। इस बीच कक्काजी ने बड़े इत्मीनान से मुझे दिल्ली घुमाया। तमाम संपादक उनके मुरीद हुआ करते थे। हिन्दी अंग्रेजी पर उनकी पकड़ एक जैसी थी। बिना काटे पीटे लिखते थे। 
एक शाम हम फ्लीट स्ट्रीट पर टहल रहे थे। तभी एक छरहरे से सज्जन ने उन्हें रोका और बेतकल्लुफी से बोले - पाठकजी झोले में कुछ है क्या? बड़े भोले भाव से कक्काजी बोले - हां! एक स्टोरी है। दिल्ली प्रेस जा रहा हूं। सरिता वाले मांग रहे हैं। उन सज्जन ने कहा दिखाना। कक्काजी ने स्टोरी उन्हें थमा दी। उन सज्जन ने सड़क से थोड़ा एकतरफ हटकर स्टोरी पर सरसरी निगाह फेरी और फटाफट अपने बैग में डाल ली। फिर सौ सौ के बीस नोट गिने और कक्काजी को थमा दिए। यह सब इतना झटपट हुआ कि कक्काजी को कुछ समझ में ही नहीं आया। अरे यार ये क्या कर रहे हो। वे बस इतना ही बोल पाए।
वह सज्जन फुर्ती से एक्सप्रेस बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ते हुए बोले - सरिता वरिता को भूल जाओ। ये मेरे काम की कवर स्टोरी है। मैं जल्दी में हूं। किसी से मिलना है। कक्काजी ने नोट कंधे पर लटके अपने भूदानी झोले में डाले और बोले चलो अब पराठा गली चलते हैं।
आटो में बैठकर हम चांदनी चौक की तरफ निकल लिए। रास्ते में मैंने पूछा - कक्काजी ये सज्जन कौन हैं? वे ऐसे ही मुस्कराते हुए बोले , जैसे तस्वीर में नज़र आ रहे हैं, अरे ये सुरेंद्र प्रताप सिंह हैं। रविवार के प्रधान संपादक। आनंद बाजार की साप्ताहिक पत्रिका है। कलकत्ता से निकलती है। ये वहीं रहते हैं।
जबलपुर लौटने के कुछ दिनों बाद मुझे रविवार का वह अंक मिला जिसमें महर्षि महेश योगी पर कवर स्टोरी थी जिसका शीर्षक था - सिद्धियों के सौदागर।

चलते-फिरते विकीपीडिया

शारदा पाठक चलते-फिरते विकीपीडिया थे। इतिहास की कोई तारीख हो, किसी फिल्म के निर्माण का वर्ष हो, संगीतकार और निर्देशक का नाम जानना हो या फिर दर्शन और विज्ञान के किसी गूढ़ विषय पर चर्चा करनी हो, फट से शारदा पाठक से संपर्क किया जाता था। फटाफट कुछ लिखवाना हो तो पाठक जी तुरंत लेखक बन जाते थे। लेकिन बात-बात में किसी की पगड़ी उछाल देना उनकी आदत थी। प्रभाष जोशी को ‘मलाई लामा’, उपाध्याय को ‘डिप्टी चैप्टर’ जैसे जुमले बोल कर मजा लेते रहते थे।
द‍िल्ली में ‘जनसत्ता’ अखबार औा ‘हिन्दुस्तान’ अखबार दोनों उनके सहज ठिकाने थे, जब दिल्ली में होते वहां जरूर जाते थे। लेकिन उनकी चर्चा में थोड़े समय बाद अपना शहर ‘जबलैपुर’ भी आ जाता था। इसीलिए उन्होंने 74 साल की उम्र में अंतिम सांस वहीं ली। उनका जाना एक फक्कड़ पत्रकार का चले जाना है। शरीर और सांसारिकता से अलग वे बहुत पहले ही हो गए थे, लेकिन उसकी विधिवत घोषणा वर्ष 2009 के  नवंबर के तीसरे हफ्ते में हुई। मैले -कुचैले, होली-दीवाली पर भी न नहाने वाले शारदा जी मन से निर्मल, वाणी से कभी मजाकिया, तो कभी तल्ख, लेकिन ज्ञान से लबरेज थे। साधारण सी शर्ट-पैंट, हवाई चप्पल और कंधे पर भूदानी झोला, जिसमें लिखने के लिए कुछ कागज, एक पैड, खाने के लिए दो पराठे और दो बीड़ा पान पड़ा रहता था। यही उनकी गृहस्थी थी। हिंदी और अंग्रेजी पर व्याकरण सम्मत पकड़ रखने वाले शारदा जी असाधारण पाठक थे। उनकी अंतर्दृष्टि विलक्षण थी, शायद इसी नाते चौहत्तर की आयु में भी उन्हें कोई चश्मा नहीं लगा। जीवन में जब भी, जो भी, पढ़ा वह आखिर तक याद रहा। इसीलिए वे जिनके भी संपर्क में आए, उन्हें भी वे हमेशा याद रहेंगे। बिना किसी संदर्भ के राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास, खेल, फिल्म, धर्म, साहित्य किसी भी विषय पर लिख सकते थे और किसी भी विषय पर बात कर सकते थे। जबलपुर विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास और अर्थशास्त्र में एमए करने वाले पाठक जी पहले विषय के गोल्ड मेडलिस्ट भी थे। वे आचार्य रजनीश यानी ओशो से दो साल जूनियर थे और उनकी लीलाओं का आंखों-देखा वर्णन सुनाते थे।
विद्रोही स्वभाव के कारण उनकी अपने गाइड डॉ राजबली पांडे से नहीं पटी और पीएचडी छूट गई। वे उनकी पुरातनपंथी स्थापनाओं से सहमत नहीं थे। लेकिन जीवन से विरक्त वे तब हुए, जब उनके पिता ने एक खास जगह विवाह करने का हिंसक दबाव बनाया। उसके बाद उन्होंने अपना सब कुछ समय की धारा में छोड़ दिया। उनका मोह सिर्फ मां के लिए बचा। कैरियर, पैसा, नौकरी और प्रतिष्ठा समेत समस्त इच्छाओं को तिलांजलि दे दी। यही विद्रोह उन्हें पत्रकारिता की तरफ ले आया, जिसे उन्होंने दूसरों के विपरीत ‘दिया बहुत ज्यादा और लिया बहुत कम’। निजी जीवन के प्रति नफरत की हद तक बीतरागी होने के बावजूद उन्हें दुनिया की हर चीज को जानने और उसकी चर्चा करने में भरपूर रस आता था। जबलपुर के ‘नवभारत’ में कई सालों तक काम करके जब मन भर गया तो 1972 में दिल्ली आ गए। यहां ‘हिन्दुस्तान’ अखबार उनका पहला ठिकाना बना। शीला झुनझुनवाला के संपादकत्व में उन्होंने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के कई अंकों के लिए श्रेष्ठ योगदान दिया। बताते हैं कि इमरजंसी में जब दिल्ली में ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह हुआ तो उसकी दैनिक ‘फेस्टिवल’ पत्रिका को उन्होंने कमाल का निकाला। उस समारोह में फेदरिको फेलिनी, अकीरो कुरोसोवा और सत्यजित राय जैसे फिल्मकार हिस्सा ले रहे थे। ज्ञान-विज्ञान और मनोरंजन को समझने, संभालने और उसे अभिव्यक्त करने की अद्भुत क्षमता के धनी शारदा जी वास्तव में करपात्री थे। बड़े से बड़े काम का न ज्यादा मांगा न किसी ने दिया।
किसी अंग्रेजी अखबार का विज्ञापन परिशिष्ट निकाल दिया तो किसी की पीएचडी लिखवा दी। कभी दो जून भोजन पर तो कभी प्रेम के दो बोल में। कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी से योगिनी तंत्र पर बागची की दुर्लभ किताब की प्रतिलिपि मंगवाई। कहते थे किताब लिखनी है। महाराष्ट्र के किसी विश्वविद्यालय की प्रोफेसर के साथ लंबी कितावत चल रही है। जीवन के बाकी दिन उन्हीं के साथ बिताने हैं। बाद में उनका जिक्र बंद कर दिया। होली पर जब कुछ पत्रकार मित्रों ने घेर कर उनसे शादी के बारे में पूछा तो अपनी एक हास्य कविता सुना बैठे-‘लोग कहें हम काठ के उल्लू, हम कहते हम सोने के। इस दुनिया में बड़े फायदे होते उल्लू होने के’। जब दुनिया में उल्लू बनने-बनाने की होड़ मची हो तो पाठक जी भी हम सब को उल्लू बना कर चले गए। उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।

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