शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

शारदा पाठक: आरोप और दुर्भावना

28 जुलाई 2020 को शारदा पाठक  के जन्मद‍िन के मौके पर पत्रकार मनोहर नायक ने एक भावनापूर्ण आलेख ल‍िखा था। यह उनके फेसबुक पर काफी पढ़ा गया। इस आलेख को जबलपुर चौपाल  ने भी प्रकाश‍ित क‍िया था। इस आलेख के पश्चात् सांध्य दैन‍िक जयलोक  व फेसबुक में सच्चि‍दानंद शेकटकर  ने शारदा पाठक  के संबंध में ट‍िप्पणी ल‍िखी। इस ट‍िप्प्णी में शारदा पाठक  पर अमर्याद‍ित ट‍िप्प्णी की गई और मनोहर नायक  पर कटाक्ष क‍िए गए। मनोहर नायक  ने जब सच्चि‍दानंद शेकटकर  के फेसबुक पर प्रत‍िउत्तर ट‍िप्प्णी भेजी तो वह हर बार ड‍िलीट कर दी गई। मनोहर नायक  की ट‍िप्प्णी यहां ज्यों की त्यों प्रस्तुत  है:-  

अरे भाई , शारदा पाठकजी वाले लेख मे यह सब क्या लिखा मारा शेकटकर साहेब... हम तो समझे थे कि कोई जख़्म होगा ,तेरे दिल में तो काम रफ़ू का निकला... पाठकजी पर मेरा  लेख तो आपने पढ़ा  पर   उसकी भावना पकड़ने से चूक गये, या   उससे कोई मतलब ही नहीं रखा. बच्चों के नाम से कुछ लिखने की बात उनके बच्चों सेे प्रेम को बताने के लिये थी, उसी तरह जैसे कि बच्चों के लिये माचिस के खोखे जमा करने की बात.  यह लेख  पहले पहल 2011 में जब छपा था तब जयलोक और पाठकजी को लेकर जो कहा था वह जबलपुर से ही मिली सूचनाओं पर आधारित था और हो सकता है उनमें स्थानीय  खेंचतान का असर रहा हो.अजीत वर्माजी ने जबलपुर में मुझसे ऐतराज़ किया था ,इस वज़ह से इस बार मैं सतर्क रहा और कथित नागवार पंक्तियों को हटाकर  पाठकजी के मददगार के रूप में  'जयलोक' का उल्लेख किया , क्योंकि इस लेख के ज़रिये किसी का मान-मर्दन करना या किसी को दुखी करना  मेरा उद्देश्य था ही नहीं . जयलोक पर इस बार  लिखे पर  ध्यान न देकर या उससे अप्रभावित रहते हुए आप ग्यारह साल पुरानी बात का बतंगड़ बनाने पर तुले दिखे... दिवंगत के साथ ये छोटे मसले भी फ़ौत हो गये... क्योंकि इस बारे में मरहूम की राय ही अंतिम होती . जयलोक के साथ न पहले आप लोगों का नाम लिया न इस बार ही इसकी ज़रूरत समझी, क्योंकि अजीत भाई के साथ आप 'जयलोक ' के पर्याय हैं ही.
वैसे ग़ौर करिये कि यह लेख नामनामा, नाममाला या नामों का पुरश्चरण नहीं है , कक्काजी के हितैषी तीनेक नाम हैं ,जिन्हें मैं निजी तौर पर जानता था, लेकिन अन्य 'अनेक ' थे जिनके बारे में व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता था. लेख की धुरी और फ़ोकस सिर्फ़ और सिर्फ़  पाठकजी हैं, न जाने कैसे यह गफ़लत हो गयी कि   जयलोक या पर्याय  इसकी विषयवस्तु हैं . बेवज़ह  ख़ुद को केंद्र मानकर आपने अपने को खिन्न किया... आत्मप्रचुरता से आत्मप्रवंचना की आशंका हमेशा रहती है.  लेख में पाठकजी और  उनका जीवन है. ' आगंतुक ' फ़िल्म के हवाले से  आधुनिक समय में मानव-मन की बनावट और उधेड़बुन उभाऱी गयी है. कक्काजी के जीवन का बखान इसी औपचारिक होते समय में किया गया है. हम सब इसी समयमें बसे हुए हैं और कमोबेश उसके असर में हैं.
मामला  इस सबसे अलग भी है. अपने एक पत्र में ग़ालिब अपनी बदहाली को लेकर मीर का शेर याद करते हैं , ' मशहूर हैं आलम में लेकिन हों तो कहीं हम / अलक़िस्सा ये न हो कि अपने दर पर नहीं हम ' . पाठकजी की स्थिति लगभग यही थी. विद्वान, विश्वकोष आदि कहे -माने जाते रहे, पर रहे बेठिकाना .सम्मान, अस्थायी बंदोबस्त से ज़िदगियाँ नहीं चलतीं. पर हम सब किसी के लिये यही कुछ कर सकते हैं. असल में समाज  ही अपनी  प्रतिभाओं को नहीं पूछता, देश-समाज के लिये जीवन होम देने वाले भटकते रहते हैं. उनकी  सुध कौन लेता है ? यह नहीं कि उन्हें ख़ैरात बाँध दी जाये ,ज़रूरी यह है कि उनके योग्य कोई सम्मानीय काम हो ताकि वे लाचार और मोहताज न रहें और साथ ही उनकी विशिष्टता का समाज को लाभ भी मिले. न कद्रिये आलम का यह सिला पुराना है...मर गये तो ज़माने ने बहुत याद किया .
पर किसी को ऐसे भी याद नहीं किया जाता जैसे आपने किया. पाठकजी  की गत ही बना दी. किसी के प्रति आदर इतनी दुर्भावना रखकर कैसे जताया जा सकता है ! इसके लिये तो ह्रदय प्रेममय़ और उदात्त होना चाहिये...धन्य हूँ मैं कि मेरे निमित्त आप जयलोक और पर्यायों की मदद गिनवा पाये, कैलाश नारदजी का लेख मैंने नहीं पढ़ा. पर वे पाठकजी के गहरे मित्र थे. वे अब  नहीं हैं ,क्या उनके साथ यह सलूक़ उचित है जो आपके ' वीरबालकवाद '  ने किया.  मेरा लेख सगे -पराये बताने के लिये नहीं था... उसमें मैं-मैं-मैं नहीं है. अफ़सोस कि आपका वृतांत तो तू-तू-मैं-मैं से आप्लावित है. अच्छा होता कि इस मौके़ पर पाठकजी की अंतिम समय हुई दुर्गत का बखान करने से बचते... इस अंत का संबंध अंतत: समय और मनुष्य से ही है, पर आपका यह करना मजबूरी था , उसके बिना  आत्मबखान को पाये कैसे मिलते... बेहतर होता कि लेख में जयलोक और पर्यायों के अनुभव होते. गुण अगर हैं तो  ढोल क्या पीटना...virtue is its own reward....नेकी की है तो उसे दरिया में डालिये... सारे अख़बार पर्यायों से बड़े होते हैं... वे सार्वजनिक संस्था हैं...  सोशल मीडिया भी पब्लिक स्पेस है ... इन जगहों पर संयत और शालीन होकर आना चाहिये. अपनी भड़ास और दुर्भावना से उन्हें छोटा नहीं कर देना चाहिये.
 फ़ेसबुक पर आया लेख ' जयलोक ' भी आपने छापा है. अच्छा लगेगा यदि इस प्रतिक्रिया को वहाँ  कहीं एक कोना दे दें.
 मनोहर नायक.
30 जुलाई 2020

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