बुधवार, 12 जुलाई 2023

नाट्य समीक्षा: ‘न्याय को घेरा’ की प्रस्तुति के बहाने जड़ता तोड़ने की जिद


जबलपुर में पिछले दिनों विवेचना रंगमंडल ने अक्षय सिंह ठाकुर के निर्देशन में प्रख्यात नाटककार बर्टोल्ट ब्रेख्त के बहुचर्चित नाटक कॉकेशियन चाक सर्किल का हिन्दी अनुवाद है खड़िया का घेरा को बुंदेली में ‘न्याय को घेरा’ के नाम से प्रस्तुत किया। मध्यप्रदेश की ज़मीन पर लगभग चालीस वर्षों बाद इस नाटक को बुंदेली में प्रस्तुत किया गया। संभवत: वर्ष 1982-83 में भारत भवन के रंगमंडल में हिन्दी भाषा न जानने वाले फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ ने इस नाटक को पहली बार बुंदेली में प्रस्तुत किया था। नाटक खड़िया का घेरा प्रख्यात जर्मन नाटककार बर्तोल्ट ब्रेख्त की मूल रचना पर आधारित है। इसका हिन्दी अनुवाद जाने माने साहित्यकार कमलेश्वर ने किया था। यह नाटक 1944 में लिखा गया था और ब्रेख्त के चार प्रमुख नाटकों में से एक है। यह दुनिया की कई भाषाओं में अनुवदित किया गया। यह मूलत: चीनी नाटककार ली शिंगडाओ के नाटक द कॉकेश‍ियन चाक सर्कल पर आधारित है। इस नाटक में विश्व युद्ध की विभीषिका को दिखाया गया है। एक किसान की लड़की राजपरिवार के एक बच्चे को बचाती है। उसकी देखभाल वह एक मां की तरह करती है। अंतत: वह किसान पुत्री उस राजकुमार के अमीर माता पिता से बेहतर मां बन जाती है। उसी दौरान गांव का एक मुंशी गांव का अजदक (जज) बना दिया जाता है। मुंशी जंग से उपजी बेरोजगारी के कारण छोटी मोटी चोरियां करता रहता है। सत्ता के उलटफेर में उसकी किस्मत साथ देती है और वह जज बना दिया जाता है। वह उल्टे सीधे न्याय देता है लेकिन उसके न्याय तर्क संगत होते हैं। अपने इस तरह के फैसलों के कारण वह काफी प्रसिद्ध हो जाता है। एक दिन किसान की बेटी का मामला इस जज के पास आता है। इसमें साबित होता है कि वह एक बेहतर मां है। इसी के साथ नाटक का समापन होता है। 

यह नाटक जिस तरह की दुनिया हमारे सामने पेश करता है, उसकी अनुगूंज हमें अपने इतिहास और वर्तमान में मिलने लगती है। नाटककार ने इस नाटक के ज़रिये कुछ ऐसे मुद्दों को छूने की कोशिश की है जो द्वि‍तीय विश्व युद्ध की त्रासदी से उपजे हैं, किन्तु आज भी प्रासंगिक हैं। भ्रष्टाचार, पतन, मूल्यहीनता, अवसरवादिता, पदलोलुपता, जनता के नाम पर जनता का शोषण, न्यायहीनता और अन्धापन – जो इस नाटक में व्याप्त हैं, वे भारतीय प्रजातंत्र के संत्रास को भी उजागर कर रहे हैं। संस्थाओं, वर्गों और व्यक्तियों के नाम दूसरे हैं पर जनता एक ही तरह से अभिशप्त और संत्रस्त है। संक्रान्ति और सन्ताप का जो अनुभव यह नाटक देता है, वही आज के भारतीय का जीवन अनुभव भी है। अनेक देशों में सदियों से चली आती एक लोककथा को आधुनिक सन्दर्भ दिया है ब्रेख्त ने। नाटक को ब्रेख्तियन शैली में करते हुए एक ही अभिनेता द्वारा कई भूमिका अदा कर, मुखौटों, बैनरों और संगीत का प्रयोग कर जगह-जगह एलिनेशन को दिखाने की भी कोशिश की गई है जो ब्रेख्त के एपिक थियेटर की मूल अवधारणा है।

‘न्याय को घेरा’ के माध्यम से विवेचना रंगमंडल लगभग 28 वर्षों के बाद ब्रेख्त‍ियन शैली में वापस लौटी है। इसका श्रेय निर्देशक अक्षय सिंह ठाकुर को है। नब्बे दशक के मध्य में अरविंद गौर ने वर्कशॉप आधारित ब्रेख्त के नाटक ‘एक औरत भली रामकली’ को तैयार किया था। गौरतलब है कि जब कोई बाहरी निर्देशक वर्कशॉप के माध्यम से किसी संस्था का नाटक तैयार करवाता है, तो उसके लिए सभी कलाकार एक से रहते हैं। निर्देशक का कोई पूर्वाग्रह नहीं रहता। वह उत्कृष्ट कलाकारों को चुन कर उन्हें प्रमुख भूमिका देता है और ब्रेख्त‍ियन शैली के अनुरूप ऐसे कलाकारों से कई पात्रों का अभ‍िनय भी करवाता है। अक्षय सिंह ठाकुर जबलपुर से बाहर के नहीं हैं। हां वे पिछले चार-पांच वर्षों से मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय से थ‍िएटर आर्ट्स का पाठ्यक्रम पूरा कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने कुछ नाटकों का निर्देशन भी किया जिसमें कॉकेश‍ियन चॉक सर्कल भी शामिल था। वे विवेचना रंगमंडल से भी कलाकार के रूप में जुड़े रहे हैं। किसी कलाकार के लिए यह किसी उपलब्ध‍ि से कम नहीं होता जिस संस्था से उसने रंग यात्रा प्रारंभ की हो, उसे वहां नाटक के निर्देशन के लिए आमंत्रि‍त किया जाए। इसमें कोई शक नहीं कि अक्षय सिंह ठाकुर को जो चुनौती दी गई थी उन्होंने उसे सफलतापूर्वक निभाया। इस सफलता के साथ अक्षय सिंह ठाकुर ने विवेचना रंगमंडल के बंधे बनाए खांचों को भी तोड़ा है। किसी भी प्रकार का ठहराव व्यक्ति‍ व संस्था के लिए घातक होता है। परिकल्पनाएं उड़ान नहीं ले पातीं। थ्योरी प्रेक्ट‍िकल में परिवर्तित नहीं पाती हैं। नवोदित कलाकार छद्म में जीते रहते हैं। अक्षय सिंह ठाकुर की प्रव‍िष्ट‍ि विवेचना रंगमंडल के खांचें अवश्य टूटे हैं। यह बात भी ध्वस्त हुई है कि जो अच्छा दिख रहा है, उसे मंच पर प्रस्तुत किया जाए। ब्रेख्त‍ियन थ्योरी सिर्फ कलाकारों के लिए ज़रूरी नहीं है बल्क‍ि इसे समझना दर्शकों के लिए भी ज़रूरी है। कम से कम सही समय अक्षय सिंह ठाकुर की प्रव‍िष्ट‍ि से जबलपुर का रंग दर्शक इस नाटक को देख कर ब्रेख्त‍ियन शैली को समझने लगेगा।

जबलपुर और मध्यप्रदेश में कॉकेश‍ियन चॉक सर्कल का विशेष महत्व है। भारत भवन के रंगमंडल में निर्देशक फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ ने कॉकेश‍ियन चाक सर्किल नाटक को बुंदेली में खरिया का घेरा के नाम नाटक प्रस्तुत किया था। महत्वपूर्ण बात यह थी कि फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ को हिन्दी बिल्कुल नहीं आती थी। इस नाटक को इंसाफ का घेरा के नाम से भी जाना जाता है। इस नाटक में अभ‍िनय कर के रंगमंडल के कलाकारों ने यह सीखा था कि इमोशन को एक पीक पर ले जा कर कट कैसे करना चाहिए। फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ ब्रेख्ति‍यन के थ‍िएटर में कलाकार के रूप में काम कर चुके थे। उनकी नाट्य प्रस्तुति में प्रापर्टी की श‍िफ्ट‍िंग करते वक्त तत्कालिक रूप से सेट तैयार कर लिया जाता था। खरिया के घेरा में द्वारका प्रसाद प्रमुख कलाकार की भूमिका में रहते थे। इस नाटक का मंचन होने के बाद पूरे देश में भारत भवन का रंगमंडल अचानक चर्चा में आ गया था। फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ की यह दृष्ट‍ि थी या उनका प्रयोग था कि वे राजा को भी एक गांव वाले या कस्बाई या सामान्य व्यक्त‍ि के रूप में देखते थे। प्राय: नाटकों में युवा, रौबीले, ऊंचे कद के कलाकार को राजा की भूमिका दी जाती है, लेकिन इसके उलट फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ यह मानते थे कि जो कलाकार कस्बाई चेहरे मोहरे वाला है, वह राजा के रूप में ज्यादा सशक्त दिखेगा। दर्शक उसके साथ अपना संबंध यह सोच व महसूस कर के बना लेंगे कि ऐसा राजा भी हो सकता है। फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ सीन वर्क पर बहुत ध्यान देते थे।

फ्रिटज़ बेनेविट्ज़ ने जब यह नाटक निर्देश‍ित किया था तब अक्षय सिंह ठाकुर का जन्म ही नहीं हुआ था और न उन्होंने रंगमंडल के कलाकारों के इस नाटक को देखा था। लेकिन जबलपुर के शहीद स्मारक में ‘न्याय का घेरा’ देखते वक्त महसूस हुआ कि अक्षय सिंह ठाकुर ब्रेख्त की थ्योरी और पश्च‍िमी नाट्य शास्त्र को जम से पकड़ कर रखे हुए हैं। वैसे अक्षय सिंह ठाकुर के लिए विवेचना रंगमंडल के साथ वर्कशॉप के माध्यम से नाटक को तैयार कर मंच पर प्रस्तुत करने की जबर्दस्त चुनौती थी। वे संस्था से जुड़े रहे थे इसलिए हकीकत जाानते थे। उन्होंने वर्कशॉप की शुरुआत के दिनों में कोई रीड‍िंग ही नहीं रखी। कलाकारों को अचरज हुआ। हफ्ते दस दिन तक अक्षय सिंह ठाकुर सिर्फ ब्रेख्त और उनकी शैली की बात करते रहे। उनको कुछ ही ऐसे कलाकार मिले जो समर्पित थे। धीरे धीरे सब कलाकार निर्देशक के ढांचे में ढलने लगे। रीड‍िंग के साथ अक्षय सिंह ठाकुर डिजाइनिंग में लग गए। उन्होंने सेट डिजाइन करने से ले कर कास्ट्यूम तक में कलाकारों को जोड़ लिया। अक्षय सिंह ठाकुर ने विवेचना रंगमंडल के वरिष्ठ कलाकारों से अनुरोध किया कि वे पूरी प्रक्रि‍या में कलाकारों को स्वतंत्र रूप से काम करने दें। निर्देशक की इस पहल का सीधा लाभ कलाकारों को मिला। निर्देशक की परिकल्पना से कलाकार अवगत होते रहे।

अक्षय सिंह ठाकुर ब्रेख्त‍ियन शैली में इस नाटक को प्रस्तुत करने के कारण विकल्प खुले हुए थे। किसान की बेटी सरोज की भूमिका तीन महिला कलाकारों के द्वारा निभाई गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि वंश‍िका पांडे ने बहुआयामी प्रतिभा दिखाते हुए नाटक का आशुतोष द्विवेदी के साथ बुंदेली रूपांतरण किया बल्क‍ि उन्होंने अभ‍िनय, गायन व नृत्य के साथ अपने पात्र को संवेदनशील व विश्वसनीय बनाया। उन्होंने सास की भूमिका का निर्वाह सफलतापूर्वक किया। पिछले साल वंश‍िका पांडे ने ‘ज़ायज़ हत्यारे’ नाटक में गंभीर भूमिका निभा कर अपनी प्रतिभा से परिचय करवाया था। नाटक में जब एक पात्र को एक से ज्यादा कलाकार निभाते थे, तब उनके बीच प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक है। सरोज की भूमिका निभाते हुए राश‍ि वर्मा व स्वाति भट्ट ने अपने हिस्से के दृश्यों में सरोज के पात्र की जीवंतता बनाए रखी। नाटक में बसंत पांडे व अंश‍ित तिवारी ने अपने अभ‍िनय से संभावना दिखाई है। बसंत पांडे के अभ‍िनय व आत्मविश्वास को देखते हुए निर्देशक ने उनसे कई भूमिकाएं करवाई गईं। विकी तिवारी अनुभवी कलाकार हैं लेकिन उन्हें अजदक की भूमिका निभाते हुए वे गंभीर रहते तो बेहतर रहता। निर्देशक को उन्हें नियंत्रि‍त करना होगा। कलाकारों का इम्प्रोवाइजेशन व संवाद बुंदेली परंपरा व हास्य बोध को जगाते हैं। 

‘न्याय को घेरा’ की महत्वपूर्ण विशेषता इसका संगीत व गीत हैं। अमित चक्रवर्ती की रंग संगीत में लम्बे अर्से के बाद वापसी सुखद रही। नब्बे के दशक में वे कुछ नाटकों में संगीत देते रहे हैं। नाटक तैयार होने की प्रक्रि‍या में निर्देशक व संगीत निर्देशक की लम्बी बैठकों से संगीत निखर कर सामने आया है। अक्षय सिंह ठाकुर स्वयं एक कुशल तबला वादक हैं। उन्हें ताल की गहरी समझ है। अक्षय सिंह ठाकुर व अमित चक्रवर्ती ने नाटक के एक एक गीत व उनके संयोजन पर बहुत मेहनत की है। आशुतोष द्विवेदी ने बुंदेली में रूपांतरण करते वक्त ब्रेख्त की मूल स्क्रि‍प्ट की कविताओं को पहले छंद के रूप में रखा फिर ब्रेख्त की भावना को बरकरार रखने के लिए इन्हें छंदहीन किया। जब गीत तैयार हुए तो अमित चक्रवर्ती ने इनको संगीत में संयोजित किया। रिकार्डेड संगीत के स्थान पर नाटक के साथ जीवंत गीतों की प्रस्तुति से नाटक प्रभावी बन गया। 

निर्देशक अक्षय सिंह ठाकुर ने ‘न्याय को घेरा’ को प्रस्तुत कर के जबलपुर में आशीष पाठक, स्वाति दुबे की परंपरा को आगे बढ़ाया है। अक्षय सिंह ठाकुर पूर्व की प्रस्तुतियों की तुलना में परिपक्व हो गए। अक्षय सिंह ठाकुर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने जड़ता को तोड़ा। सालों से बने खांचों को ध्वस्त किया। ‘न्याय को घेरा’ में पुल पार करने व सरोज और उसके प्रेमी के संवाद में नदी के पानी लहरों व बहाव को दिखाने के लिए सफेद कपड़े ओढ़े हुए कलाकारों की पूरे मंच में अनवरत मूवमेंट के दृश्य निर्देशक की सफल परिकल्पना के रूप में सामने आई। मंच पर चार पेंटिंग, हवा में लहराते हुए बांसों की खप्पच‍ियां और पार्श्व में भाले नाटक की विषयवस्तु को सफलतापूर्वक उभारते हैं। ‘न्याय को घेरा’ के शुरुआती कुछ दृश्यों को निर्देशक छोटा कर दें या उन्हें संपादित कर दे तो यह बेहतर होगा। निर्देशक अंतिम चरमोत्कर्ष दृश्य में अजदक को नियंत्रि‍त कर यदि गंभीर रखते तो नाटक और प्रभावी बन सकता था। नाटक को देख कर और अक्षय सिंह ठाकुर से बात कर के यह संतुष्ट‍ि मिली कि वे पूर्णतावादी (परफेक्‍शनिस्‍ट) हैं। थोड़े में संतुष्ट होना उनकी फितरत नहीं है। यह उनके उज्जवल भविष्य का संकेत है। अक्षय सिंह ठाकुर के निर्माण में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय के थ‍िएटर आर्ट्स विभाग के गुरूओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने अपने रंग गुरुओं से काफ़ी कुछ हासिल किया होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि अक्षय सिंह ठाकुर चकाचौंध में नहीं गए बल्क‍ि अपनी जड़ों में वापस लौटे हैं।🔷

कोई टिप्पणी नहीं:

जबलपुर से गूंजा था पूरे देश में यह नारा- बोल रहा है शहर श‍िकागो पूंजीवाद पर गोली दागो

मजदूर दिवस: क्या कहता है जबलपुर में ट्रेड यूनियन का इतिहास 1 मई पूरी दुनिया में 'Mayday' यानि ' मजदूर दिवस ' के नाम से जा...